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यूपी बोर्ड कक्षा 10वी विज्ञान बुक का सम्पूर्ण हल










Class 10 science chapter 1 Chemical reactions and equations notes in hindi


कक्षा 10वी विज्ञान अध्याय 01 रासायनिक अभिक्रियाएं एवं समीकरण का सम्पूर्ण हल







रासायनिक अभिक्रियाएं एवं समीकरण(Chemical reactions and equations)


प्रश्न 1. रासायनिक अभिक्रिया किसे कहते हैं? यह कितने प्रकार की होती है? प्रत्येक को उदाहरण देकर समझाइए। 


अथवा


प्रतिस्थापन अभिक्रिया पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।


अथवा


मर्करी (Hg) के अयस्कों में से किसी एक अयस्क से किस प्रकार मर्करी प्राप्त कीजिएगा? केवल रासायनिक समीकरण दीजिए। 


अथवा


संकलन अभिक्रिया पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।



रासायनिक अभिक्रिया किसे कहते हैं ? (Rasayanik abhikriya kise kahate hain)


उत्तर


रासायनिक अभिक्रिया की परिभाषा :



ऐसे परिवर्तन जिसमें नए गुणों वाले पदार्थों का निर्माण होता हैं, उसे रासायनिक अभिक्रिया कहते हैं अथवा रसायनों से सम्बन्धित अभिक्रिया को रासायनिक अभिक्रिया कहते हैं।



ऐसे पदार्थ जो किसी रासायनिक अभिक्रिया में हिस्सा लेते हैं उन्हें अभिकारक कहते हैं पदार्थ जिनका निर्माण रासायनिक अभिक्रिया में होता हैं, उन्हें उत्पाद कहते हैं



उदाहरण:



1. भोजन का पाचन



2. श्वसन



3. लोहे पर जंग लगना



4. मैग्नीशियम फीते का जलना



5. दुध से दही बनना



6. भोजन को पकाने की प्रक्रिया



प्रश्न .रासायनिक अभिक्रिया को पहचानने के तरीके:



उत्तर 

* अवस्था में परिवर्तन



*रंग में परिवर्तन



*तापमान में परिवर्तन



*गैस का उत्सर्जन



अवस्था में परिवर्तन :- रासायनिक अभिक्रिया में अवस्थाओं का परिवर्तन होता हैं। मैग्नीशियम फीते ( रिबन) को ऑक्सीजन की उपस्थिति में जलाने पर मैग्नीशियम चूर्ण का निर्माण होता हैं



2Mg + 0₂ → 2Mgo + O₂



रंग में परिवर्तन :- रासायनिक अभिक्रिया में रंग का परिवर्तन होता हैं। कॉपर सल्फेट का विलयन का रंग नीला होता हैं परन्तु लोहें की कीले डालने पर उसका रंग हरा हो जाता हैं अत: रासायनिक अभिक्रिया में रंग का परिवर्तन होता हैं



 CuSO₄ + Fe → FeSO₄+ Cu



तापमान में परिवर्तन :- रासायनिक अभिक्रिया में ताप का परिवर्तन होता हैं। तनु सल्फ्युरिक अम्ल में दानेदार जिंक डालने पर पात्र गर्म हो जाता हैं। अत: अभिक्रिया में तापमान का परिवर्तन हुआ।



गैस का उत्सर्जन :- रासायनिक अभिक्रिया में गैस का उत्सर्जन होता हैं। तनु सल्फ्युरिक अम्ल में दानेदार जिंक डालने पर हाइड्रोजन गैस बाहर निकलती हैं।




रासायनिक अभिक्रिया :- ऐसे परिवर्तन जिसमें नए गुणों वाले पदार्थों का निर्माण होता है, उसे रासायनिक अभिक्रिया कहते हैं। अभिकारक : ऐसे पदार्थ जो किसी रासायनिक अभिक्रिया में हिस्सा लेते हैं उन्हें अभिकारक कहते हैं। उत्पाद : ऐसे पदार्थ जिनका निर्माण रासायनिक अभिक्रिया में होता है, उन्हें उत्पाद कहते हैं।



प्रश्न .रसायन अभिक्रिया कितने प्रकार के होते हैं?



उत्तर

रसायनिक अभिक्रिया तीन प्रकार की होती है



1.कार्बनिक रसायन Organic chemistry.



2.अकार्बनिक रसायन Inorganic chemistry.



3.भौतिक रसायन Physical chemistry.




रसायनिक अभिक्रिया



उत्तर- रासायनिक अभिक्रिया जब एक या एक-से-अधिक पदार्थ परस्पर अभिक्रिया करके नए पदार्थ बनाते हैं तो ऐसी अभिक्रिया को रासायनिक अभिक्रिया' कहते हैं।




उदाहरणार्थ : मैग्नीशियम जब हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से क्रिया करता है तो मैग्नीशियम क्लोराइड व हाइड्रोजन गैस बनती है। इस अभिक्रिया को निम्नलिखित समीकरण से प्रदर्शित करते हैं



Mg      +     2HCI →MgCl₂ + H₂


मैग्नीशियम।         हाइड्रोक्लोरिक अम्ल         मैग्नीशियम क्लोराइड       हाइड्रोजन



अधिकारक                     उत्पाद



इस अभिक्रिया में, मैग्नीशियम तथा हाइड्रोक्लोरिक अम्ल को अभिकारक - (reactants) तथा मैग्नीशियम क्लोराइड व हाइड्रोजन को परिणामी या उत्पाद - (resultants or product) कहते हैं। इस सम्पूर्ण क्रिया को रासायनिक ना अभिक्रिया कहते हैं। रासायनिक अभिक्रिया में भाग लेने वाले पदार्थों (अभिकारकों) तथा बनने वाले पदार्थों (उत्पादों) को रासायनिक सूत्रों द्वारा समीकरण के रूप में दर्शाने को अभिक्रिया का रासायनिक समीकरण कहते हैं। । 




रासायनिक अभिक्रिया के प्रकार मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रकार की होती है 




1. संयोजन (संकलन) अभिक्रिया - संयोजन अभिक्रिया वह रासायनिक अभिक्रिया है, जिसमें दो या दो से अधिक प्रकार के पदार्थों के अणु परस्पर जुड़कर केवल एक ही प्रकार के पदार्थ के अणु बनाते हैं।





उदाहरणार्थ :



(i) सोडियम (Na) धातु, क्लोरीन (Cl) में जलकर सोडियम क्लोराइड (NaCl) बनाती है





2Na       +       Cl₂ →         2NaCl



सोडियम        क्लोरीन          सोडियम क्लोराइड





(ii) कार्बन मोनोक्साइड (CO) तथा क्लोरीन (Cl₂) की क्रिया से कार्बोनिल क्लोराइड (COCl₂) बनता है।



CO                +Cl₂    →      COCl₂


कार्बन मोनोक्साइड  क्लोरीन       कार्बोनिल क्लोराइड




2. वियोजन अभिक्रिया वियोजन अभिक्रिया रासायनिक वह अभिक्रिया है, जिसमें कोई यौगिक अपने अवयवी तत्त्वों अथवा छोटे-छोटे सरल यौगिकों में वियोजित हो जाता है। यह अभिक्रिया ऊष्मा, प्रकाश अथवा विद्युत द्वारा सम्पन्न होती है। वियोजन अभिक्रिया निम्नलिखित दो प्रकार की होती है





(a) ऊष्मीय-वियोजन (Thermal decomposition) जब किसी पदार्थ के वियोजन की अभिक्रिया ऊष्मा देने पर होती है तो उसे ऊष्मीय वियोजन कहते हैं।"




 उदाहरणार्थ : (i) पोटैशियम क्लोरेट का वियोजन पोटैशियम क्लोरेट (KCIO₃) को गर्म करने पर यह पोटैशियम क्लोराइड (KCI) तथा ऑक्सीजन में वियोजित होता है



2KCIO₃   ऊष्मा  →   2KCI    +30₂ ↑ ऑक्सीजन


पोटैशियम क्लोरेट        पोटैशियम क्लोराइड





(b) विद्युत वियोजन (Electrolysis or electrolytic decomposition) "जिस रासायनिक अभिक्रिया में यौगिक (गलित अवस्था में या जलीय विलयन में) का विद्युत प्रवाहित करने पर वियोजन होता है, उसे विद्युत वियोजन कहते हैं।”



उदाहरणार्थ



(i) सोडियम क्लोराइड का विद्युत-वियोजन गलित सोडियम क्लोराइड में विद्युत धारा प्रवाहित करने पर यह सोडियम तथा क्लोरीन में वियोजित हो जाता है



विद्युत-वियोजन



2NaCl   विद्युत-वियोजन →  2Na सोडियम +Cl₂↑ क्लोरीन



सोडियम क्लोराइड





3. विस्थापन या प्रतिस्थापन अभिक्रिया विस्थापन वह रासायनिक अभिक्रिया है, जिसमें किसी यौगिक के अणु के किसी एक परमाणु अथवा समूह (मूलक) के स्थान पर कोई दूसरा परमाणु अथवा समूह (मूलक) आ जाता है।



 उदाहरणार्थ :



(i) लोहा (Fe), कॉपर सल्फेट (CuSO4) विलयन में से कॉपर को विस्थापित करके स्वयं आ जाता है। फलस्वरूप, फेरस सल्फेट तथा कॉपर (Cu) बनते हैं



Fe आयरन +CuSO₄ → FeSO₄+  Cu↓



                कॉपर सल्फेट    फेरस सल्फेट





4. उभय प्रतिस्थापन या द्वि-विस्थापन अभिक्रिया "जिस रासायनिक अभिक्रिया में यौगिकों के आयनों अथवा घटकों की अदला-बदली (विनिमय) हो जाती है तथा नए यौगिक बनते हैं, वह उभय-प्रतिस्थापन अभिक्रिया कहलाती है।” यह अभिक्रिया यौगिकों के विलयनों के मध्य होती है।



 उदाहरणार्थ :



(i) जब बेरियम क्लोराइड के विलयन में सोडियम सल्फेट का विलयन मिलाते हैं तो बेरियम सल्फेट व सोडियम क्लोराइड बन जाते हैं




BaCl₂ + Na₂SO₄ → BaSO₄+ 2NaCl



बेरियम क्लोराइड     सोडियम सल्फेट।         बेरियम सल्फेट    सोडियम क्लोराइड





प्रश्न . ऑक्सीकरण अभिक्रिया को उदाहरण सहित समझाइए।



अथवा



 ऑक्सीकरण अभिक्रिया पर टिप्पणी लिखिए। योग अभिक्रियाओं पर टिप्पणी लिखिए।




उत्तर- जब किसी अभिक्रिया में किसी तत्व या यौगिक के साथ ऑक्सीजन का सहायोग या हाइड्रोजन का त्याग होता है, तो ऐसी अभिक्रिया को ऑक्सीकरण अभिक्रिया कहते हैं।



उदाहरण



 (i) C    + O₂       →      CO₂




कार्बन       ऑक्सीजन         कार्बन डाइऑक्साइड



(ii) S     +      0₂      →     SO₂



गंधक        ऑक्सीजन     सल्फर डाइऑक्साइड



(iii) 4HCl + MnO2  → MnCl₂ + H₂O + Cl₂






प्रश्न .ऊष्माक्षेपी (दहन) एवं ऊष्माशोषी अभिक्रिया का क्या अर्थ है? उदाहरण दीजिए।



उत्तर- ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया (दहन ) जिन रासायनिक अभिक्रियाओं में उत्पाद के निर्माण के साथ-साथ ऊष्मा भी उत्पन्न होती है, उन्हें ऊष्माक्षेपी (दहन) अभिक्रिया कहते हैं।



उदाहरणार्थ: प्राकृतिक गैस का दहन



CH₄ (g)+2CO₂→CO₂ (g) + 2H₂O (g)+ऊष्मा




ऊष्माशोषी अभिक्रिया–जिन रासायनिक अभिक्रियाओं में ऊर्जा अवशोषित होती है, उन्हें ऊष्माशोषी अभिक्रिया कहते हैं।



उदाहरणार्थ:



N₂ +0₂  → 2NO - ऊष्मा




प्रश्न . श्वसन को ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया क्यों कहते हैं? वर्णन कीजिए।




उत्तर- श्वसन को ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया कहते हैं; क्योंकि इसके अन्तर्गत भोजन छोटे-छोटे टुकड़ों में टूटता है जिसके फलस्वरूप ऊर्जा उत्पन्न होती है जो हमारे शरीर को कार्य करने की शक्ति प्रदान करती है। श्वसन क्रिया को समीकरण रूप में निम्नवत् व्यक्त किया जा सकता है



C₆H₁₂0₆ + 6 0₂  →      6CO₂+  6H₂O+ ऊर्जा



ग्लूकोज़    ऑक्सीजन      कार्बन डाइऑक्साइड   जल





प्रश्न. रासायनिक समीकरण देते हुए सल्फर डाइऑक्साइड (SO2 ) का कोई एक अपचायक गुण समझाइए।



उत्तर- जल की उपस्थिति में यह हैलोजन का अपचयन करके अम्ल बनाती है



SO₂ + 2H₂O + Cl₂ → 2HCl + H₂SO₄




प्रश्न. रेडॉक्स अभिक्रिया किसे कहते हैं? उदाहरण देकर स्पष्ट करो।




उत्तर— वह रासायनिक अभिक्रिया जिसमें एक अभिकारक का ऑक्सीकरण तथा दूसरे अभिकारक का अपचयन होता है, रेडॉक्स अभिक्रिया या उपचयन-अपचयन अभिक्रिया कहलाती है;





 प्रश्न . (a) क्या होता है जब सोडियम सल्फेट विलयन को बेरियम क्लोराइड विलयन में मिलाया जाता है



(b) उपर्युक्त अभिक्रिया की सन्तुलित समीकरण लिखिए।





उत्तर – (a) जब सोडियम सल्फेट विलयन को बेरियम क्लोराइड विलयन में मिलाया जाता है तो BaSO₄ का सफेद अवक्षेप बनता है। सोडियम क्लोराइड अन्य उत्पाद के रूप में प्राप्त होता है जो विलयन में शेष रह जाता है।



(b) Na₂ SO₄ (aq) + BaCl₂(aq). 


  सोडियम सल्फेट        बेरियम क्लोराइड



→   BaSO₄ + 2NaCl(aq) 


बेरियम सल्फेट      सोडियम क्लोराइड




प्रश्न . निम्नलिखित अभिक्रियाओं का सन्तुलित समीकरण लिखिए



(i) तनु सल्फ्यूरिक अम्ल दानेदार जिंक के साथ अभिक्रिया करता है।



अथवा



 क्या होता है, जब जिंक चूर्ण को तनु सल्फ्यूरिक अम्ल में मिलाया जाता है।




(ii) तनु हाइड्रोक्लोरिक अम्ल ऐलुमिनियम चूर्ण के साथ अभिक्रिया करता है।



(iii) सोडियम ऑक्साइड को जल में घोला जाता है 




 उत्तर – (i) तनु सल्फ्यूरिक अम्ल जिंक के साथ अभिक्रिया करके हाइड्रोजन विस्थापित करता है।.



Zn + H₂SO₄ (dil)  → ZnSO₄ + H2



(ii) ऐलुमिनियम चूर्ण की तनु हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के साथ अभिक्रिया कराने पर ऐलुमिनियम ट्राइक्लोराइड बनता है।



2Al + 6HCl (dil.) → 2AlCl₃ + 3H₂





(iii) Na₂0 + H₂0  → 2NaOH






प्रश्न . रासायनिक समीकरण में अभिकारक तथा उत्पाद किस प्रकार लिखे जाते हैं?



उत्तर- रासायनिक समीकरण में अभिकारक बाईं ओर लिखे जाते हैं। एक से अधिक अभिकारक होने पर इनके मध्य '+' का चिह्न लगाया जाता है। उत्पादों को समीकरण के दाईं ओर लिखा जाता है तथा इनके मध्य भी '+' का चिह्न लगा दिया जाता है। अधिकारकों तथा उत्पादों के मध्य एक तीर (→) लगाया जाता  है जिसकी दिशा उत्पादों की ओर होती है। यह तीर अभिक्रिया की दिशा का बोध कराता है। 




उदाहरणार्थ :



2Mg + O₂      → 2MgO



अभिकारक            उत्पाद





प्रश्न . सन्तुलित रासायनिक समीकरण किसे कहते हैं?



उत्तर- किसी रासायनिक अभिक्रिया में भाग लेने वाले अभिकारक तथा प्राप्त उत्पादों में उपस्थित विभिन्न तत्त्वों के परमाणुओं की संख्या समान होने पर समीकरण सन्तुलित रासायनिक समीकरण कहलाती है।



प्रश्न . उपचयन तथा अपचयन क्या है?



उत्तर - वह अभिक्रिया जिसमें एक रासायनिक स्पीशीज इलेक्ट्रॉनों का ह्रास करती है, उपचयन कहलाती है। वह अभिक्रिया जिसमें एक रासायनिक स्पीशीज इलेक्ट्रॉन प्राप्त करती है, अपचयन कहलाती है।



प्रश्न . उपचायक तथा अपचायक किसे कहते हैं?



उत्तर- अभिक्रिया में वह पदार्थ जो अन्य पदार्थ को उपचयित कर देता है, उपचायक कहलाता है। अभिक्रिया में वह पदार्थ जो अन्य पदार्थ को अपचयित करता है, अपचायक कहलाता है।



प्रश्न . वायु में जलाने से पहले मैग्नीशियम रिबन को साफ क्यों किया जाता है?



उत्तर- मैग्नीशियम रिबन की सतह पर उपस्थित मैग्नीशियम ऑक्साइड की सतह को साफ करने के लिए दहन से पूर्व इसे रेगमाल से रगड़कर साफ किया जाता है।



प्रश्न . किसी पदार्थ 'x' के विलयन का उपयोग सफेदी करने के लिए होता है।



(i) पदार्थ 'x' का नाम तथा इसका सूत्र लिखिए।



 (ii) ऊपर (i) में लिखे पदार्थ 'X' की जल के साथ अभिक्रिया लिखिए।



उत्तर- (i) पदार्थ 'x' का नाम कैल्सियम ऑक्साइड है। इसका सूत्र CaO है।




(ii)CaO(s) + H₂O → Ca(OH)₂ (aq) + ऊष्मा



कैल्सियम ऑक्साइड  जल      कैल्सियम हाइड्रॉक्साइड




प्रश्न . लोहे की वस्तुओं को हम पेंट क्यों करते हैं? 



उत्तर- लोहे की वस्तुओं पर पेंट करने से उसकी अभिक्रिया वायु उपस्थित नमी व ऑक्सीजन से नहीं हो पाती है तथा वह जंग लगने से बच जाती है।




Q.एथिल एसीटेट का सूत्र क्या है?


उत्तर

C₄H₈O₂



Q.सल्फ्यूरिक अम्ल को रसायनों का राजा क्यों कहते हैं?


उत्तर

सल्फ्यूरिक अम्ल प्रयोगशाला तथा उद्योगों में सर्वाधिक प्रयोग किए जाने वाला रसायन है। इसलिए इसे रसायनों का राजा कहते है।




Q.कौन से अम्ल को अम्लों का राजा भी कहते हैं?


उत्तर

H2SO4 सल्फ्यूरिक अम्ल को अम्लों का राजा कहते हैं।



Q.श्वसन को ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया क्यों कहते हैं कक्षा 10?


उत्तर

यह क्रिया एंजाइमों के द्वारा कोशिकाओं के अंदर माइटोकॉन्ड्रिया में होती है। इस अभिक्रिया में ऊर्जा उत्सर्जित होती है, जिसको कोशिकाओं में ATP के रूप में संचित कर लिया जाता है। इसलिए श्वसन को ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया कहते हैं।



Q.Pratisthapan Abhikriya क्या है?



प्रतिस्थापन अभिक्रिया : प्रतिस्थापन अभिक्रिया जिसमें यौगिक के परमाणु या परमाणुओं का समूह, अन्य परमाणु या परमाणु के समूह द्वारा प्रतिस्थापित होता है, प्रतिस्थापन अभिक्रियाएँ कहलाती है। एक या अधिक भिन्न रासायनिक गुण वाले पदार्थ बनते हैं।



Q.ऊष्माक्षेपी और ऊष्माशोषी अभिक्रियाओं से क्या समझते हैं?




ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया-जिन अभिक्रियाओं में उत्पाद के साथ ऊष्मा का भी उत्सर्जन होता है उन्हें उष्माक्षेपी अभिक्रिया कहते हैं। 



ऊष्माशोषी अभिक्रिया - जिन अभिक्रियाओं में ऊष्मा का अवशोषण होता है उन्हें ऊष्माशोषी अभिक्रिया कहते हैं। 



Q.ऊष्माशोषी अभिक्रिया का उदाहरण क्या है ?



उत्तर

कैल्सियम ऑक्साइड (कली-चूना) के ऊपर जल गिराया जाता है, तो कली- चूना जल के साथ अभिक्रिया करके कैल्सियम हाइड्रॉक्साइड (भखरा चूना) का निर्माण करता है। इसमें ऊष्मा उत्पन्न होती है जिससे अभिक्रिया मिश्रण का ताप बहुत बढ़ जाता है। 



Q.ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया क्या है उदाहरण दें?



उत्तर

किसी ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया का ऊर्जा-प्रोफाइल वह रासायनिक अभिक्रिया उष्माक्षेपी ( exothermic reaction) कहलाती है जिसमें उष्मा के रूप में उर्जा प्राप्त होती है। इसके विपरीत रासायनिक अभिक्रिया उष्माशोषी कहलाती है। रासायनिक अभिक्रिया के रूप में व्यक्त करने पर 



उदाहरण - के लिए, हाइड्रोजन का जलना एक ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया है।




Q.रासायनिक अभिक्रिया क्या है उदाहरण ?



रासायनिक अभिक्रिया

(Rasayanik Abhikriya Kise Kahate Hain) 



:- जब कोई दो या दो से अधिक पदार्थ या अभिकारक आपस में मिलकर अथवा अभिक्रिया करके अपने रासायनिक गुणों में परिवर्तन करके नए उत्पाद बनाते हैं। तो इस प्रक्रिया को रासायनिक अभिक्रिया कहते हैं। 



उदाहरण:- वायु तथा नमी की उपस्थिति में लोहे पर जंग लगना। इत्यादि उदाहरण है।



Q.एस्टरीकरण रासायनिक अभिक्रिया क्या होती है?



एस्टरीकरण- ऐसी रासायनिक अभिक्रिया जिसमें सांद्र सल्फ्यूरिक अम्ल की उपस्थिति में किसी ऐल्कोहॉल को एक कार्बोक्सिलिक अम्ल के साथ गर्म करके एस्टर प्राप्त किया जाता है, एस्टरीकरण कहलाता है।




Q.रासायनिक अभिक्रिया किसे कहते हैं यह कितने प्रकार की होती हैं?


उत्तर

यह तीन प्रकार की होती है: उष्मीय वियोजन जो ऊष्मा के द्वारा होती है, विद्युत वियोजन जिसमें ऊष्मा विद्युत के रूप में प्रदान की जाती है, प्रकाशीय वियोजन जिसमें ऊष्मा प्रकाश के द्वारा प्रदान की जाती हैं. इस अभिक्रिया में अधिक अभिक्रियाशील पदार्थ कम अभिक्रियाशील पदार्थ को उसके यौगिक से अलग कर देता है



Q.उस अभिक्रिया को क्या कहते हैं जिसमें अभिकारक सरल प्रतिफलों में परिवर्तित हो जाता है?



उस अभिक्रिया को क्या कहते हैं, जिसमें अभिकारक सरल प्रतिफलों में परिवर्तित हो जाता है ? 



उत्तर

अपघटन अभिक्रिया




Q.संयोजन अभिक्रिया क्या है उदाहरण दीजिए?



संयोजन अभिक्रिया (Combination Reaction)



जिस अभिक्रिया में दो या दो से अधिक अभिकारक किसी एक उत्पाद का निर्माण करते हैं उसे संयोजन अभिक्रिया कहते हैं। 



उदाहरण: जब कली चूना और जल आपस में अभिक्रिया करते हैं तो बुझे चूने का निर्माण होता है।



Q.ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया क्या है उदाहरण दो?



ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया जिस रासायनिक अभिक्रिया में उत्पादों के साथ ऊष्मा भी निकलती है, ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया कहलाती है।



उदाहरण के लिए, हाइड्रोजन का जलना एक ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया है।



 Example- emission of light H+ + OH- H₂0 



Q.एस्टर का रासायनिक सूत्र क्या होता है?



एस्टर का आणविक सूत्र



C₃H₇COOC₂H₅ अल्कोहल के आणविक सूत्र और उस एसिड को लिखें जिससे यह तैयार किया जा सकता है 



Q.एस्टर का निर्माण कैसे होता है?


उत्तर

एस्टर (esters) वे रासायनिक यौगिक हैं जो अम्लों (कार्बनिक अथवा अकार्बनिक) से व्युत्पन्न होते हैं और उनमें कम से कम एक OH -(हाइड्रॉक्सिल / hydroxyl) समूह -O-alkyl (alkoxy) समूह से प्रतिस्थापित होता है। प्रायः एस्टर कार्बोजिलिक अम्ल और अल्कोहल से की क्रिया से बनाये जाते हैं। एस्टर के उपयोग से इत्र भी बनाया जाता है।




Q.उदासीनीकरण अभिक्रिया क्या है समझाइए ?



उत्तर : जब अम्ल किसी क्षार से क्रिया करता है तब लवण और जल बनता है। इसे उदासीनीकरण अभिक्रिया कहते हैं।



प्रश्न. संयोजन अभिक्रिया क्या हैं?



संयोजन अभिक्रिया- जब किसी अभिक्रिया में दो या दो से अधिक अभिकारक मिलकर एकल उत्पाद का निर्माण करते है, तो ऐसी अभिक्रिया को संयोजन अभिक्रिया कहते है।




Q.विस्थापन एवं द्विविस्थापन अभिक्रिया में क्या अंतर है इन अभिक्रियाओं के समीकरण लिखिए ?



विस्थापन अभिक्रिया में किसी यौगिक से उसका एक तत्व किसी अपेक्षाकृत अधिक क्रियाशील तत्व द्वारा विस्थापित हो जाता है, जबकि द्विविस्थापन अभिक्रियाओं में दो अभिकारक अपने-अपने आयनों का आदान-प्रदान करके दो नए उत्पादों का निर्माण करते है।



Q.ऊष्माक्षेपी का दूसरा नाम क्या है?



ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया वे अभिक्रियाएँ जिनमें ऊर्जा मुक्त होती है उन्हें ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया कहते है। 



ऊष्माशोषी अभिक्रिया - वे अभिक्रियाएँ जिनमें ऊर्जा अवशोषित होती है । उन्हें ऊष्माशोषी अभिक्रिया कहते है।




Q.श्वसन एक ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया का उदाहरण है क्यों समझाइए?


उत्तर

जब किसी क्रिया के उपरांत ऊष्मा उत्पन्न होती है तो उसे ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया कहते हैं। स्वसन क्रिया के बाद हमें ऊर्जा ऊष्मा प्राप्त होती है इसलिए यह एक ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया है। 



श्वसन की परिभाषा - जीव जंतुओं की कोशिकाओं में ऑक्सीजन की उपस्थिति में भोजन के जैविक ऑक्सीकरण होने की क्रिया को श्वसन कहते हैं।




Q.एस्टर का बहुलक क्या है ?


उत्तर

पॉलिएस्टर (Polyester): यह एस्टर का बहुलक होता है. एस्टर का निर्माण दो हाइड्रोक्सिल ग्रुप युक्त कार्बनिक यौगिक की अभिक्रिया दो कर्बोक्सिलिक ग्रुप युक्त कार्बनिक यौगिक के कराने से होता है. पॉलिएस्टर रेशे बहुत कम पानी सोखते हैं, इसलिए जल्दी सूख जाते हैं. इस रेशे पर स्पष्ट क्रीज लाइन बहुत जल्दी बन जाती है.




Q.रसायनों का राजा कौन है?


उत्तर

सल्फ्यूरिक एसिड (H2SO4) को रसायनो का राजा कहा जाता है यह एक रंगहीन, गंधहीन और सिरप तरल (syrupy liquid) होता है जो पानी में घुलनशील होता है।




Q.भारतीय रसायन के जनक कौन है?


उत्तर

प्रफुल्ल चंद्र रे एक भारतीय रसायनज्ञ थे। उन्हें लोकप्रिय रूप से 'भारतीय रसायन विज्ञान के जनक' के रूप में जाना जाता है।




Q.रसायन विज्ञान की खोज कब हुई?



उत्तर

रसायन विज्ञान की खोज एंटोनी लेवोज़ियर ने 18 वी शताब्दी में की थी।




Q.विज्ञान के पिता कौन है ?


उत्तर

विज्ञान के जनक कौन थे? गैलीलियो गलिली को विज्ञान का जनक खा जाता है जिनका जन्म 15 फरवरी 1564 में हुआ था। वो एक इटालियन अस्टनोमर, महान गणितज्ञ और फिलोस्फर थे,उन्होंने विज्ञान के जगत में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनकी मृत्यु 8 जनवरी 1642 में हुई थी।




Q.भौतिक विज्ञान को इंग्लिश में क्या कहते हैं?




उत्तर

Physics is the scientific study of forces such as heat, light, sound, pressure, gravity, and electricity.




Q.वियोजन अभिक्रिया को संयोजन अभिक्रिया के विपरीत क्यों कहा जाता है इन अभिक्रियाओं के लिए समीकरण लिखिए ?


उत्तर

वियोजन अभिक्रिया को संयोजन अभिक्रिया के विपरीत कहा जाता है क्योंकि वियोजन अभिक्रिया में एकल अभिकारक दो या अधिक उत्पाद बनाता है जबकि संयोजन अभिक्रिया में दो या अधिक अभिकारक संयोग करके एकल उत्पाद बनाते हैं।




Q.विस्थापन अभिक्रिया का उदाहरण क्या है?




उत्तर 

यह अभिक्रिया अभिकारकों के बीच आयनों की अदला बदली के कारण होता है। 



उदाहरण: जब सोडियम सल्फेट के विलयन को बेरियम क्लोराइड के विलयन के साथ मिलाया जाता है तो बेरियम सल्फेट का सफेद अवक्षेप बनता है। इस प्रतिक्रिया में सोडियम क्लोराइड जल के विलयन के रूप में बनता है।




Q.धातु एवं अधातु के बीच कैसे विभेद करेंगे?




उत्तर: रासायनिक गुणधर्मों के आधात पर धातुओं तथा अधातुओं में विभेदः



 (a) धातु तनु अम्ल के साथ प्रतिक्रिया कर हाइड्रोजन गैस मुक्त करते हैं, जबकि अधातु तनु अम्ल के साथ प्रतिक्रिया नहीं करते हैं। 



(b) धातु ऑक्सीजन के साथ संयुक्त होकर क्षारीय ऑक्साइड बनाते हैं, जबकि अधातु ऑक्सीजन के साथ संयुक्त होकर अम्लीय ऑक्साइड बनाते हैं।




Q.निम्न में से कौन विस्थापन प्रतिक्रिया है?



विस्थापन अभिक्रिया (Displacement Reaction)



जब कॉपर सल्फेट के विलयन में लोहे की कील रखी जाती है तो कॉपर सल्फेट का नीला रंग बदल कर हल्का हरा हो जाता है। ऐसा फेरस सल्फेट के निर्माण के कारण होता है। लोहे की कील पर भूरी परत के रूप में कॉपर प्राप्त होता है।



Q.विस्थापन एवं द्विविस्थापन अभिक्रियाओं में क्या अंतर है इन अभिक्रियाओं के समीकरण लिखिए ?



विस्थापन अभिक्रिया में किसी यौगिक से उसका एक तत्व किसी अपेक्षाकृत अधिक क्रियाशील तत्व द्वारा विस्थापित हो जाता है, जबकि द्विविस्थापन अभिक्रियाओं में दो अभिकारक अपने-अपने आयनों का आदान-प्रदान करके दो नए उत्पादों का निर्माण करते है।



Q.वियोजन अभिक्रिया कितने प्रकार के होते हैं ?



वियोजन या अपघटन अभिक्रिया(Decomposition Reaction)



यह तीन प्रकार की होती है: उष्मीय वियोजन जो ऊष्मा के द्वारा होती है, विद्युत वियोजन जिसमें ऊष्मा विद्युत के रूप में प्रदान की जाती है, प्रकाशीय वियोजन जिसमें ऊष्मा प्रकाश के द्वारा प्रदान की जाती हैं.




Up board solutions for class 10 science chapter 2 acide ,bases and salt


यूपी बोर्ड कक्षा 10 विज्ञान अध्याय 2 अम्ल, क्षार और लवण





     अध्याय 2 अम्ल, क्षार, लवण


class 10 science chapter 2 full solutions





बहुविकल्पीय प्रश्न                            1 अंक


प्रश्न 1. सिट्रस फल (नींबू, संतरा आदि) में ……..उपस्थित होता है, जिसके कारण ये स्वाद में खट्टे होते हैं।


 (a) ऐसीटिक अम्ल


(b) सिट्रिक अम्ल


(c) टार्टरिक अम्ल उत्तर


(d) इनमें से कोई नहीं


उत्तर

 (b) सिट्स फल (नीबू, संतरा आदि) खट्टे फलों में सिट्रिक अम्ल उपस्थित होता है।


प्रश्न 2. अम्लीय विलयन का pH मान है। 



(a) 7


(b) 7 से कम 


(c) 7 से अधिक 


(d) शून्य



उत्तर (b) अम्लीय विलयन का pH मान सदैव 7 से कम होता है।


प्रश्न 3. सल्फ्यूरिक अम्ल में अम्लीय हाइड्रोजन परमाणुओं की संख्या है


(a) 2


(b) 1


(c) 3


(d) शून्य


उत्तर (a) परमाणुओं की संख्या 2 है।




प्रश्न 4. क्षारक के साथ हल्दी का रंग होता है


(a) पीला 


(b) नारंगी


(c) भूरा लाल


(d) अपरिवर्तित रहता है 


उत्तर (c) क्षारक के साथ हल्दी का रंग भूरा-लाल होता है।



प्रश्न 5. सल्फर डाइऑक्साइड का जलीय विलयन होता है


(a) अम्लीय


(b) क्षारीय


(c) उदासीन


(d) उभयधर्मी 


उत्तर (a) सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) का जलीय विलयन अम्लीय होता है। इसका pH मान 7 से कम होगा।


प्रश्न 6. ऐसीटिक अम्ल की क्षारकता होती है 


अथवा


ऐसीटिक अम्ल में अम्लीय हाइड्रोजन परमाणुओं की संख्या है 


(a) एक 


(b) दो


(c) तीन


(d) चार 



उत्तर (a) ऐसीटिक अम्ल में अम्लीय हाइड्रोजन की संख्या 1 है। 


प्रश्न 7. ऐसीटिक अम्ल एक दुर्बल अम्ल है, क्योंकि 



(a) इसमें पानी की मात्रा अधिक होती है


(b) इसमें आयनन की मात्रा कम होती है


 (c) यह एक कार्बनिक अम्ल है


(d) यह एक अकार्बनिक अम्ल है


उत्तर (b) दुर्बल अम्ल जल में पूर्णतया आयनित या वियोजित नहीं होते हैं, अर्थात् इनके आयनन की मात्रा कम होती है।


प्रश्न 8. क्षारीय विलयन का pH है


(a) शून्य


(b) 7

 

(c) 7 से कम


(d) 7 से अधिक



उत्तर (d) क्षारीय विलयन का pH मान सदैव 7 से अधिक होता है।



प्रश्न 9. अम्लीय वर्षा के जल का सम्भावित pH मान है 



(a) 5.2


(b) 6.2 


(c) 7.2


(d) 8.2


उत्तर (a) अम्लीय वर्षा के जल का सम्भावित pH मान 5.2 है।


प्रश्न 10. H₂SO₄, विलयन का pH मान है।




(a) 0


(b) 7


(c) 7 से कम


(d) 7 से अधिक


उत्तर (c) H₂SO₄, विलयन एक अम्लीय विलयन है तथा अम्लीय विलयन का pH मान सदैव 7 से कम होता है।


प्रश्न  11. शुद्ध जल का pH मान है।


(a) 0


(b) 1


(c) 7


(d) 14


उत्तर (c) शुद्ध जल उदासीन होता है तथा उदासीन विलयन का pH मान 7 होता है।


प्रश्न 12. निम्नलिखित में से कौन-सा तत्व तनु अम्ल के साथ संयोग करके हाइड्रोजन गैस निकालता है? 


(a) क्लोरीन 


(b) ताँबा


(c) जस्ता (जिंक)


 (d) सल्फर


उत्तर (c) जस्ता (जिंक)



प्रश्न 13. क्षारीय विलयन में फीनॉल्फ्थैलीन सूचक का रंग होता है 


(a) लाल


 (b) पीला


 (c) नीला


(d) रंगहीन


उत्तर (a) लाल


प्रश्न 14. धोने के सोडा का रासायनिक सूत्र है 


(a) NaHCO₃


(b) Na₂CO₃ .10H₂O


(c) CaOCl₂


(d) NaCH


उत्तर (b) NaCO₃. 10H₂0


धोने का सोडा या सोडियम कार्बोनेट का रासायनिक सूत्र Na₂CO₃·10H₂0 है।


प्रश्न 15. निम्नलिखित में अम्लीय लवण है



(a) NaCl


(b) NaHSO₄


(c) Na₂SO₄


(d) KCN


उत्तर (b) विस्थापनीय H की उपस्थिति के कारण NaHSO₄एक अम्लीय लवण है। शेष समस्त लवण सामान्य लवण हैं।


प्रश्न 16. सोडियम कार्बोनेट के जलीय विलयन में कार्बन डाइऑक्साइड गैस अधिकता से प्रवाहित करने पर प्राप्त होने वाला पदार्थ है।



 (a) NaOH


(b) Na 2 CO3-10H20


(c) NaHCO3 


(d) Na2 CO3 H20


उत्तर (c) सोडियम कार्बोनेट के ठण्डे जलीय विलयन में CO₂गैस को प्रवाहित करने पर सोडियम बाइकार्बोनेट प्राप्त होता है।


NaHCO₃ सोडियम कार्बोनेट



प्रश्न 17. बेकिंग पाउडर को गर्म करने से कौन-सी गैस निकलती है


(a) CO 


(b) Na₂CO₃


(c) CO₂


(d) O₂


उत्तर (C) CO₂




प्रश्न

अम्ल किसे कहते हैं इसके रसायनिक गुण तथा उदाहरण



अम्ल

वे पदार्थ जिनका स्वाद खट्टा होता है तथा जो नीले लिटमस पेपर को लाल कर देते हैं, अम्ल कहलाते हैं। अम्ल शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द 'ऐसीड्स' से हुई है जिसका अर्थ होता है 'खट्टा'। अतः वे पदार्थ जिनमें अम्ल उपस्थित होते हैं, खट्टे होते हैं। 


उदाहरण सिरका, सिट्रस फल (नींबू, संतरा, आदि) तथा इमली में क्रमश: ऐसीटिक, सिट्रिक तथा टार्टरिक अम्ल उपस्थित होते हैं, जिसके कारण ये स्वाद में खट्टे होते हैं।



आर्हेनियस के अनुसार अम्ल किसे कहते हैं



आर्हेनियस सिद्धान्त के अनुसार, वे पदार्थ जो जलीय विलयन में वियोजित होकर केवल हाइड्रोजन आयन (H+) देते हैं तथा हाइड्रोजन आयन (H+) के अतिरिक्त कोई अन्य धनायन नहीं देते, अम्ल कहलाते हैं। अतः स्पष्ट है कि सभी अम्लों में हाइड्रोजन तत्व उपस्थित होता है।


प्राकृतिक स्रोत                             अम्ल


सिरका                                   ऐसीटिक अम्ल


नींबू एवं संतरा                        सिट्रिक अम्ल


 इमली                                  टार्टरिक अम्ल


टमाटर                              ऑक्सेलिक अम्ल


दही                                  लैक्टिक अम्ल




अम्लों के रासायनिक गुण


(i) धातुओं से अभिक्रिया अम्ल विभिन्न सक्रिय धातुओं जैसे-जिंक (Zn), सोडियम (Na), मैग्नीशियम (Mg) आदि से क्रिया द्वारा हाइड्रोजन गैस मुक्त करते हैं।


धातु + तनु अम्ल   →   लवण +हाइड्रोजन गैस


जैसे- Zn(s) + 2HCI → ZnCl₂+ H₂(g) ↑



(ii) धातु कार्बोनेटों तथा हाइड्रोजन कार्बोनेटों से अभिक्रिया चूना पत्थर (lime stone), खड़िया (chalk) एवं संगमरमर (marble) कैल्सियम कार्बोनेट के विविध रूप हैं।


सभी धातुएँ-कार्बोनेट ( CO₃²⁻) तथा हाइड्रोजन कार्बोनेट (HCO⁻₃) अम्ल के साथ संगत लवण, कार्बन डाइऑक्साइड एवं जल बनाते हैं।


धातु कार्बोनेट / धातु हाइड्रोजन कार्बोनेट + अम्ल


लवण + कार्बन डाइऑक्साइड + जल


जैसे- CaCO₃ + 2HCI→ CaCl₂ + CO₂ + H₂O


(iii) धातु-ऑक्साइडों के साथ अभिक्रिया अम्ल, धातु ऑक्साइडों से क्रिया करके लवण एवं जल बनाते हैं।


धातु ऑक्साइड + अम्ल →   लवण + जल 


CaO + 2HCl — CaCl₂ + H₂O



प्रश्न.

क्षार , क्षारक , भस्म किसे कहते हैं परिभाषा रसायनिक गुण




क्षारक या भस्म


वे पदार्थ, जिनका स्वाद तीखा तथा कड़वा होता है तथा स्पर्श साबुन जैसा चिकना होता है, क्षारक कहलाते हैं। ये लाल लिटमस को नीला कर देते हैं।


प्रश्र

आर्हेनियस क्षार किसे कहते हैं परिभाषा



आर्हेनियस के आयनिक सिद्धान्त के अनुसार, क्षार वे पदार्थ हैं, जो जलीय विलयन में वियोजित अथवा आयनित होकर ऋणावेशित आयनों के रूप में केवल हाइड्रॉक्साइड आयन (OH⁻) देते हैं।


नोट वे क्षारक, जो जल में घुलनशील होते हैं, क्षार कहलाते हैं। 


अतः सभी क्षार, क्षारक होते हैं किन्तु सभी क्षारक, क्षार नहीं होते।




क्षारों के रासायनिक गुण


(i) धातुओं से अभिक्रिया प्रबल क्षार क्रियाशील धातुओं से अभिक्रिया करके हाइड्रोजन गैस उत्पन्न करते हैं। अतः इन्हें सक्रिय धातुओं के पात्र में नहीं रखा जाता है।


धातु + क्षार   →   लवण + हाइड्रोजन गैस 


Zn (s) + 2NaOH (aq) →Na₂ZnO₂ (aq) + H₂ 




(ii) अधातुओं-ऑक्साइडों से अभिक्रिया अधातु ऑक्साइडों (अम्लीय ऑक्साइड) से अभिक्रिया के परिणामस्वरूप लवण व जल प्राप्त होता है। इस अभिक्रिया से सिद्ध होता है, कि अधातु के ऑक्साइड अम्लीय प्रकृति के होते हैं।



 क्षार + अधातु- ऑक्साइड  → लवण जल


Ca(OH)₂ (aq) + CO₂ (g) → CaCO₃(s)+ H₂O 


बुझा चूना  कार्बन डाइऑक्साइड  कैल्सियम कार्बोनेट




अम्लो/क्षारो के जलीय विलयन


जल की उपस्थिति में अम्ल H⁺ आयन देते हैं, परन्तु ये स्वतन्त्र अवस्था में नहीं रह सकते। अतः H⁺ आयन जल के अणुओं से संयुक्त होकर H₃⁺O(हाइड्रोनियम आयन) का निर्माण करते हैं। अतः यह कहा जा सकता है, कि जलीय विलयन में अम्ल, H⁺ आयन या (H₃O) आयन देते हैं,


उदाहरण


HCI + H₂O  →    H₃O+ + CI⁻


H⁺ + H₂0 → H₃O⁺


इसी प्रकार, क्षार जलीय विलयन में OH⁻ आयन देते हैं।


उदाहरण


NaOH(s).    H₂0 → Na⁺(aq) + OH⁻ (aq)




अम्लों तथा क्षारों के मध्य अभिक्रिया


अम्ल, क्षारों से क्रिया करके उनके प्रभाव को नष्ट कर देते हैं तथा लवण व जल का निर्माण करते हैं। लवण व जल बनने की यह अभिक्रिया उदासीनीकरण अभिक्रिया कहलाती है।


अम्ल + क्षार    → लवण + जल 





अम्लों तथा क्षारों की प्रबलता -


जिन अम्लों तथा क्षारों के आयनन की मात्रा अधिक होती है, उन्हें क्रमशः प्रबल अम्ल तथा प्रबल क्षार कहते

हैं।


इसी प्रकार, जिन अम्लों तथा क्षारों के आयनन की मात्रा कम होती है, उन्हें क्रमशःदुर्बल अम्ल तथा दुर्बल क्षार कहते हैं।


अम्ल या क्षार पर तनुता का प्रभाव  किसी अम्ल या क्षार की जल के साथ अभिक्रिया तनुकरण कहलाती है, जिससे प्रति एकांक आयतन में उपस्थित (H₃O⁺/OH⁻) आयन की सान्द्रता में कमी हो जाती है।




सूचक


वे पदार्थ, जिनका उपयोग किसी अनुमापन में अन्तिम बिन्दु या उदासीन बिन्दु को निर्धारित करने के लिए किया जाता है, सूचक कहलाते हैं।


सूचक निम्न प्रकार के होते हैं


(i) प्राकृतिक सूचक


(ii) संश्लेषित सूचक


(iii) गन्धयुक्त सूचक


 (iv) सार्वत्रिक सूचक


 उदाहरण लिटमस पेपर, फीनॉल्फ्थैलीन, मेथिल ऑरेन्ज, आदि।



प्रश्न

pH मान की परिभाषा उदाहरण सहित


pH मान


सोरेन्सन ने बताया कि, किसी विलयन में उपस्थित हाइड्रोजन आयन सान्द्रता के ऋणात्मक लघुगणक को उस विलयन का pH मान कहते हैं।




pH = -log₁₀ [H⁺] = log₁₀(1/(H⁺)



अर्थात् किसी विलयन का pH मान उसमें उपस्थित हाइड्रोजन आयनों के ग्राम आयन (या मोल) प्रति लीटर में सान्द्रण के ऋणात्मक लघुगणक के बराबर होता है या अन्य शब्दों में, pH मान हाइड्रोजन आयन सान्द्रण के व्युत्क्रम का लघुगणक होता है।


यदि pH>7, तब विलयन क्षारीय होगा।


यदि pH<7, तब विलयन अम्लीय होगा। .


• यदि pH=7, तब विलयन उदासीन होगा।



दैनिक जीवन में pH का महत्त्व में


(i) पौधों एवं जन्तुओं की pH के प्रति संवेदनशीलता - जीव जगत् में जीव, न्यून pH मान क्षेत्र परास में ही जीवित रह पाते हैं। सामान्यतया इनका शरीर 7.0 से 7.8 pH परास के मध्य ही कार्य करता है। वर्षा जल के pH का मान 5.6 से कम होने पर यह अम्लीय वर्षा कहलाती है। जब अम्ल नदी के जल में मिल जाता है तो उसका pH मान कम हो जाता है, जिससे जलीय प्राणियों का अस्तित्व कठिन हो जाता है।


(ii) मिट्टी की pH - पौधे के प्रत्येक भाग की उत्तम वृद्धि के लिए उचित pH परास की आवश्यकता होती है। उचित pH परास ज्ञात करने के लिए, मिट्टी के नमूने की जाँच करके pH का मान ज्ञात किया जाता है। पौधे की प्रकृति के अनुसार pH मान का निर्धारण किया जाता है।



(iii) हमारे पाचन तंत्र का pH हमारे उदर में स्थित HCI अम्ल भोजन के पाचन में सहायक होता है, अधिक मात्रा में HCI का उत्पादन, उदर में गंभीर दर्द व जलन उत्पन्न कर देता है। जिससे मुक्त होने के लिए प्रतिअम्ल (antacid) लेना पड़ता है। यह HCI की अधिक मात्रा को अभिक्रिया द्वारा उदासीन कर देता है। मिल्क ऑफ मैग्नीशिया (मैग्नीशियम हाइड्रॉक्साइड) प्रतिअम्ल का एक अच्छा उदाहरण है।


(iv) pH परिवर्तन के कारण दंत-क्षय मुँह के pH का मान 5.5 से कम अर्थात अधिक अम्लीय होने पर दाँतों का क्षय प्रारंभ हो जाता है। दाँतों की सुरक्षा के लिए, दाँतों पर कैल्सियम फॉस्फेट का इनैमल होता है, जिसका pH, 5.5 से कम होने पर संक्षारण हो जाता है। उचित दंतमंजन (क्षारीय प्रकृति का होने के कारण) के प्रयोग द्वारा दंत-क्षय को रोका जा सकता है।



 (v) पशुओं एवं पौधों द्वारा उत्पन्न रसायनों से आत्मरक्षा - मधुमक्खी के डंक में अम्ल होता है, जो इसके द्वारा काटने पर यह हमारे शरीर में प्रविष्ट कर जाता है, जिससे हमें जलन व दर्द का अनुभव होता है। डंक मारे गए स्थान पर बेकिंग सोडा जैसे दुर्बल-क्षार लगाने से आराम मिलता है। इसी प्रकार कई अन्य जंतुओं से हम उचित उपचार द्वारा आत्मरक्षा कर सकते हैं।



 (vi) पौधों में pH कई पौधों से हानिकारक अम्लों का स्राव होता है। जैसे-नेटल एक शाकीय पौधा है। इसके पत्तों में डंकनुमा बाल होते हैं जो जंतु के शरीर से छू जाने पर डंक जैसा दर्द देते हैं। क्योंकि इसके बालों से मेथेनॉइक अम्ल का स्राव होता है।) इससे उत्पन्न दर्द को दूर करने के लिए ढाक के पौधे के पत्ते (रगड़ कर) का प्रयोग किया जा सकता है।





लवण


किसी अम्ल तथा क्षार की उदासीनीकरण अभिक्रिया से प्राप्त आयनिक यौगिक को लवण कहते हैं।


 आर्हेनियस सिद्धान्त के अनुसार, लवण को जल में घोलने पर यह अपने अवयवी आयनों में वियोजित हो जाता है तथा लवण के जलीय विलयन में धनायन व ऋणायन उपस्थित होते हैं।


धनायनों को भास्मिक या क्षारीय मूलक तथा ऋणायनों को अम्लीय मूलक कहा जाता है क्योंकि लवण का धनायन क्षार से एवं ऋणायन अम्ल से प्राप्त होता है। लवणों के जल- अपघटन द्वारा प्राप्त विलयन की प्रकृति इसके द्वारा प्राप्त अम्ल तथा क्षारों की प्रबलता पर निर्भर करती हैं। लवण सामान्यतः अवाष्पशील, गन्धहीन तथा विद्युतसंयोजक होते हैं।



1. साधारण नमक


रासायनिक नाम सोडियम क्लोराइड अणुसूत्र NaCl 


HCI एवं NaOH की अभिक्रिया से उत्पन्न लवण सोडियम क्लोराइड (NaCl) कहलाता है।


HCl + NaOH   →   NaCl + H2O



साधारण नमक


यह एक उदासीन लवण है। साधारण नमक (NaCl) द्वारा कई उपयोगी पदार्थ जैसे-सोडियम हाइड्रॉक्साइड, बेकिंग सोडा, वाशिंग सोडा, विरंजक चूर्ण आदि प्राप्त किए जा सकते हैं। इसे खनिज नमक भी कहा जाता है।


2. कॉस्टिक सोडा


रासायनिक नाम- सोडियम हाइड्रॉक्साइड अणु सूत्र-NaOH सोडियम क्लोराइड के जलीय विलयन में विद्युत प्रवाह द्वारा, NaCI वियोजित NaOH प्रदान करता है। यह प्रक्रिया क्लोर-क्षार प्रक्रिया कहलाती है।


2NaCl(aq) + 2H₂O(1) → 2NaOH (aq) + Cl₂(g) + H₂(g)


उपयोग सोडियम हाइड्रॉक्साइड का उपयोग धातुओं से ग्रीज हटाने में, साबुन तथा अपमार्जक, कागज निर्माण में, कृत्रिम फाइबर आदि के निर्माण में होता है।



3. विरंजक चूर्ण


रासायनिक नाम कैल्सियम क्लोरोहाइपोक्लोराइट अथवा क्लोराइट ऑफ लाइम 


सामान्य नाम – ब्लीचिंग पाउडर – अणुसूत्र Ca(OCI)Cl अथवा CaOCl₂



निर्माण की विधि औद्योगिक स्तर पर इसे हेसन-क्लेवर अथवा बैचमैन विधियों द्वारा शुष्क बुझे चूने पर क्लोरीन गैस की क्रिया द्वारा प्राप्त करते हैं। 


 Ca(OH)2 + Cl₂ → CaOCl₂ + H₂0.




उपयोग इसका उपयोग सूती तथा लिनेन वस्त्रों तथा लकड़ी की लुग्दी के विरंजन, पेयजल के शोधन (जीवाणुनाशक के रूप में), क्लोरोफॉर्म के निर्माण, यौगिकों के ऑक्सीकरण तथा चीनी को सफेद करने हेतु आदि में किया जाता है।


नोट विरंजक चूर्ण मिश्रण है, इसका अणुसूत्र तथा अणुभार नहीं होता है।


4. खाने का सोडा/बेकिंग सोडा


रासायनिक नाम सोडियम हाइड्रोजन कार्बोनेट अथवा सोडियम बाइकार्बोनेट    


  अणु सूत्र NaHCO      अणुभार 84


निर्माण की विधि प्रयोगशाला में इसे सोडियम कार्बोनेट के ठण्डे जलीय विलयन में कार्बन डाइऑक्साइड गैस प्रवाहित करके बनाया जाता है।


Na₂CO₃ + H₂O + CO₂ →2NaHCO₃


सोडियम कार्बोनेट       सोडियम बाइकार्बोनेट



उपयोग इसे बेकिंग पाउडर (बेकिंग सोडा तथा पोटैशियम हाइड्रोजन टारट्रेट का मिश्रण), झागयुक्त पेय पदार्थों, आमाशय की अम्लता को दूर करने वाली औषधि (प्रतिअम्ल के रूप में) के निर्माण में, चर्म रोग के निदान में, कच्चे दूध के फटने के समय को बढ़ाने हेतु तथा आग बुझाने वाले यन्त्रों आदि में प्रयुक्त किया जाता है।



5. धावन सोडा/धोने का सोडा


रासायनिक नाम सोडियम कार्बोनेट डेकाहाइड्रेट 


सामान्य नाम सोडा ऐश या क्रिस्टलीय सोडियम कार्बोनेट


अणुभार   286    अणु सूत्र Na₂CO₃.10H₂0


निर्माण की विधि धावन सोडा, बेकिंग सोडा को गर्म करके पुनः जलीय-क्रिस्टलीकरण द्वारा प्राप्त किया जाता है।


Na₂CO₃ (S) + 10H₂O () →Na₂CO₃.10H₂O (s)


सोडियम कार्बोनेट   सोडियम कार्बोनेट डेकाहाइड्रेट


उपयोग इसे कपड़े धोने के सोडे के रूप में, जल की कठोरता दूर करने में, काँच, कागज, कॉस्टिक सोडा, डिटर्जेन्ट पाउडर आदि के निर्माण में, प्रयोगशाला अभिकर्मक के रूप में, आँखों की दवाई में, जीवाणुनाशक तथा रोगाणुरोधकों के रूप में प्रयोग किया जाता है।


6. प्लास्टर ऑफ पेरिस


रासायनिक नाम- कैल्सियम सल्फेट


अणु सूत्र CaSO4 ½H2O


सामान्य नाम - प्लास्टर ऑफ पेरिस 


अणुभार 136.134


निर्माण की विधि जब कैल्सियम सल्फेट डाइहाइड्रेट (अर्थात् जिप्सम) को 373K ताप पर गर्म किया जाता है, तो निर्जलीकरण के द्वारा प्लास्टर ऑफ पेरिस का निर्माण होता है।


CaSO₄. 2H₂0    → CaSO₄.½ H₂O




उपयोग


• इसका उपयोग टूटी हुई हड्डियों को जोड़ने के लिए प्लास्टर चढ़ाने में किया जाता है।


• इसका उपयोग सामान जैसे- मूर्तियों व खिलौनों के निर्माण में किया जाता है।


 • इसका उपयोग दन्त चिकित्सा, दीवारों को चिकना बनाने तथा उन पर अलंकरण कार्य करने में भी किया जाता है।


. इसे अग्निरोधक पदार्थ के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।




क्रिस्टलन-जल


लवण के इकाई सूत्र में स्थित, जल के निश्चित अणुओं की संख्या को क्रिस्टल का जल कहते हैं। 


जैसे-कॉपर सल्फेट के इकाई सूत्र में पाँच अणु जल के उपस्थित होते हैं। अर्थात् CuSO₄.5H₂O नीला थोथा। इसी प्रकार, NaCO₃.10H₂O होता है। उपरोक्त सूत्र की सहायता से ज्ञात कर सकते हैं, कि अणु आर्द्र है अथवा नहीं। जिप्सम लवण में दो अणु क्रिस्टलन-जल पाया जाता है-CuSO₄ 2H₂0 


जल के निकल जाने पर अणु ऐनहाइड्राइड अणु कहलाता है।



अतिलघु उत्तरीय प्रश्न      2 अंक


प्रश्न 1. अम्ल और क्षारक की आधुनिक अवधारणा क्या है? प्रत्येक का एक-एक उदाहरण देते हुए स्पष्ट कीजिए। सम्बन्धित रासायनिक समीकरण भी लिखिए।


अथवा अम्ल तथा क्षार की आधुनिक अवधारणा स्पष्ट कीजिए 


अथवा अम्ल तथा भस्म की आधुनिक अवधारणा दीजिए। एक प्रबल अम्ल तथा एक दुर्बल भस्म का नाम भी लिखिए।



उत्तर अम्ल वे पदार्थ हैं, जो जलीय विलयन में वियोजित अथवा आयनित होकर हाइड्रोजन आयन (H⁺) अथवा हाइड्रोनियम आयन (H₃O⁺) देते हैं।


उदाहरण HCI, H₂SO₄आदि।


HCl(aq)  ⇔ H⁺ + Cl⁻


क्षार वे पदार्थ हैं, जो जलीय विलयन में वियोजित अथवा आयनित होकर हाइड्रॉक्साइड आयन (OH⁻) देते हैं।


 उदाहरण NaOH, KOH, NH₄OH आदि।


NaOH (aq)   ⇔ Na⁺ + OH⁻




प्रबल अम्ल HCI, H₂SO₄, HNO₃


 दुर्बल क्षार (भस्म) NH₄OH


प्रश्न 2. किसी प्रबल अम्ल तथा प्रबल क्षार की उदासीनीकरण ऊष्मा स्थिर होती है। क्यों?




उत्तर प्रबल अम्ल तथा प्रबल क्षार तनु विलयन में पूर्णतया आयनित होकर H⁺ (हाइड्रोजन आयन) तथा OH⁻(हाइड्रॉक्साइड आयन) देते हैं, जो संयोग करके H₂O (जल) बना लेते हैं, अतः प्रबल अम्ल तथा प्रबल क्षार की उदासीनीकरण ऊष्मा वास्तव में H⁺ तथा OH⁻आयनों द्वारा जल (H₂O) की सम्भवन ऊष्मा है, जिसका मान सदैव - 13.7 किलोकैलोरी होता है। यही कारण है कि प्रबल अम्ल तथा प्रबल क्षार की ऊष्मा का मान सदैव स्थिर (अर्थात् - 13.7 किलोकैलोरी) होता है।


प्रश्न 3. आसवित जल विद्युत का चालक क्यों नहीं होता, जबकि वर्षा का जल होता है?



 उत्तर वर्षा के जल में घुलित लवणों के कारण आयन उपस्थित होते हैं, जो उसे विद्युत का सुचालक बनाते हैं, जबकि आसवित जल में कोई आयन उपस्थित नहीं

होते, अतः यह विद्युत का चालक नहीं होता। 



प्रश्न 4. जल की अनुपस्थिति में अम्ल का व्यवहार अम्लीय क्यों नहीं होता है?


उत्तर अम्ल के अणुओं के आयनीकरण के लिए जल की उपस्थिति आवश्यक है।


HA+ H₂O → H₃O⁺ + A⁻ अम्ल


आयनीकरण के पश्चात् उत्पन्न H₃O⁺ आयन ही अम्लीय गुण प्रदर्शित करते हैं। शुष्क अवस्था में आयनों की अनुपस्थिति होने के कारण अम्ल अम्लीय व्यवहार प्रदर्शित नहीं करते।


प्रश्न 5. हाइड्रोजन आयन सान्द्रण से क्या तात्पर्य है? उदासीन विलयन में हाइड्रोजन आयन सान्द्रण का मान कितना होता है ?


 

उत्तर हाइड्रोजन आयन सान्द्रण किसी जलीय विलयन के एक लीटर आयतन में उपस्थित हाइड्रोजन के ग्राम-आयनों (मोलो) की संख्या को उस विलयन का हाइड्रोजन आयन सान्द्रण कहते हैं। इसे [H] द्वारा प्रदर्शित करते हैं। उदासीन विलयन में हाइड्रोजन आयन सान्द्रण का मान 1x10⁻⁷ मोल प्रति लीटर होता है।


प्रश्न 6. जल का आयनिक गुणनफल क्या है? 25°C पर इसका मान लिखिए।


अथवा जल का आयनिक गुणनफल क्या है? स्पष्ट करें



उत्तर जल का आयनिक गुणनफल यह स्थिर ताप पर जल में उपस्थित हाइड्रोजन आयनों के सान्द्रण [H⁺] तथा हाइड्रॉक्साइड आयनों के सान्द्रण [OH⁻ ] के गुणनफल के बराबर होता है। इसे Kω से प्रदर्शित करते हैं। अर्थात्


Kω = [H⁺]  [OH ⁻] 


25°C पर जल के आयनिक गुणनफल का मान लगभग 1x10⁻¹⁴ होता है। 



प्रश्न 7. ताजे दूध के pH का मान 6 होता है। दही बन जाने पर इसके pH के मान में क्या परिवर्तन होगा? अपना उत्तर समझाइए।


उत्तर जब दूध से दही का निर्माण होता है, तो दूध में उपस्थित शर्करा लैक्टोस लैक्टिक अम्ल में परिवर्तित हो जाती है। अतः दूध (pH = 6) का pH मान दही

(pH < 6) बनने पर अपेक्षाकृत कम हो जायेगा।



प्रश्न 8. उदासीनीकरण अभिक्रिया क्या है? दो उदाहरण दीजिए।


 उत्तर किसी अम्ल की किसी क्षारक से अभिक्रिया के फलस्वरूप लवण तथा जल के निर्माण की क्रिया को उदासीनीकरण अभिक्रिया कहते हैं। 



उदाहरण


NaOH   +  HCI  →NaCl +H₂O


Ca(OH)2   +  2HCI → CaCl₂ +H₂O





प्रश्न 9. खाने का सोडा बनाने की विधि का रासायनिक समीकरण लिखिए। इस पर ताप का प्रभाव भी लिखिए। 


अथवा खाने का सोडा बनाने की विधि लिखिए। इसे धावन सोडे में कैसे परिवर्तित करेंगे? सम्बन्धित समीकरण भी लिखिए। 


अथवा खाने के सोडे का रासायनिक नाम तथा अणुसूत्र लिखिए। इसके बनाने की विधि का केवल रासायनिक समीकरण लिखिए।


उत्तर खाने के सोडे का रासायनिक नाम सोडियम बाइकार्बोनेट  (NaHCO₃) होता है।


बनाने की विधि प्रयोगशाला में इसे सोडियम कार्बोनेट के ठण्डे जलीय विलयन में कार्बन डाइऑक्साइड गैस प्रवाहित करके बनाया जाता है।


Na₂CO₃ + CO₂ + H₃O → 2NaHCO₃


सोडियम कार्बोनेट             सोडियम बाइकार्बोनेट


                                        (खाने का सोडा)



ताप का प्रभाव (100°C से उच्च ताप) 


2NaHCO₃ → Na₂CO₃ + H₂O + CO₂


(100°C से उच्च ताप)   सोडियम कार्बनिट 


                                    (धावन सोडा)



प्रश्न 12. बेकिंग सोड़ा बनाने की दो विधियाँ रासायनिक समीकरण सहित लिखिए।



उत्तर (i) सोडियम बाइकार्बोनेट (NaHCO₃) का निर्माण सोडियम कार्बोनेट (Na₂CO₃) के संतृप्त जलीय विलयन में कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) गैस प्रवाहित करने पर होता है।


Na₂CO₃ + CO₂ → 2NaHCO₃


सोडियम कार्बोनेट        सोडियम बाइकार्बोनेट



(ii) सोडियम क्लोराइड की अभिक्रिया, अमोनिया, जल व कार्बन डाइऑक्साइड से करवाने पर बेकिंग सोडा (सोडियम बाइकार्बनिट) प्राप्त होता है। 


NaCl + H₂O+CO₂+NH₃—, NaHCO₃+NH₄Cl




प्रश्न 13. धावन सोडा बनाने का रासायनिक समीकरण तथा इसका एक उपयोग भी लिखिए।


उत्तर धावन सोडा बनाने की रासायनिक अभिक्रिया 2NaOH + CO₂ → Na₂CO₃ + H₂0


उपयोग जल की कठोरता दूर करने में।


प्रश्न 14. धावन सोडा का रासायनिक नाम तथा अणु सूत्र लिखिए। इसके बनाने की विधि का केवल रासायनिक समीकरण लिखिए।


उत्तर धावन सोडा का रासायनिक नाम सोडियम कार्बोनेट डेकाहाइड्रेट


अणु सूत्र Na₂CO₃. 10H₂O



बनाने की विधि 

2NaOH + CO₂→ Na₂CO₃+ H₂O



प्रश्न 15. प्लास्टर ऑफ पेरिस बनाने की एक विधि लिखिए तथा इसकी जल के साथ रासायनिक अभिक्रिया लिखिए।


अथवा प्लास्टर ऑफ पेरिस बनाने की विधि तथा एक उपयोग लिखिए। 



उत्तर निर्माण की विधि जब कैल्सियम सल्फेट डाइहाइड्रेट (अर्थात् जिप्सम) को 120°C ताप पर गर्म किया जाता है, तो निर्जलीकरण के द्वारा प्लास्टर ऑफ

पेरिस का निर्माण होता है।

                       120°C

CaSO₄ 2H2O    →CaSO₄.½ H₂O+3/2 H₂O


जिप्सम                  प्लास्टर ऑफ पेरिस


जल से क्रिया  इसकी जल से अभिक्रिया कराने पर जिप्सम का निर्माण होता है। इसे प्लास्टर ऑफ पेरिस का जमना (Setting of plaster of Paris) कहते हैं। यह क्रिया ऊष्माक्षेपी होती है।


CaSO₄.½ H₂O + 3/2H₂O  → CaSO₄ 2H₂0 


अथवा


(CaSO₄)₂ .2H2O + 3H₂O→ 2CaSO₄. 2H₂0


प्लास्टर ऑफ पेरिस                   जिप्सम





प्लास्टर ऑफ पेरिस के जमने से आयतन में प्रसार होता है।


उपयोग इसका उपयोग टूटी हुई हड्डियों को जोड़ने के लिए प्लास्टर चढ़ाने में किया जाता है।


प्रश्न 16. प्लास्टर ऑफ पेरिस को आर्द्रता-रोधी बर्तन में क्यों रखा जाना चाहिए? इसकी व्याख्या कीजिए।


उत्तर जल के संपर्क में आने पर प्लास्टर ऑफ पेरिस जल के साथ संयुक्त होकर एक कठोर पदार्थ जिप्सम बनाता है, जिसमें प्लास्टर ऑफ पेरिस वाले गुण नहीं होते।


CaSO₄.1/2 H₂O + 1-½ H₂O प्लास्टर ऑफ पेरिस → CaSO₄ .2H₂O जल जिप्सम


अतः प्लास्टर ऑफ पेरिस को आर्द्रतारोधी बर्तन में रखना अधिक सुरक्षित है। 



प्रश्न 17. पीतल एवं ताँबे के बर्तनों में दही तथा खट्टे पदार्थ क्यों नहीं रखने चाहिए?


उत्तर खट्टे पदार्थों (जैसे- दही, नींबू का रस, इमली का रस, अचार, आदि) में उपस्थित अम्ल तांबे अथवा पीतल से अभिक्रिया करके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक लवण उत्पन्न करता है। अतः इन्हें पीतल या ताँबे के बर्तनों में न रखकर, काँच अथवा चीनी मिट्टी के बर्तनों में रखना चाहिए।


प्रश्न 18. धातु के साथ अम्ल की अभिक्रिया होने पर सामान्यतः कौन-सी गैस निकलती है? एक उदाहरण के द्वारा समझाइए। इस गैस की उपस्थिति की जाँच आप कैसे करेंगे?


उत्तर सामान्यतया जब कोई धातु तनु अम्लो (HCI अथवा H₂SO₄आदि) से अभिक्रिया करती है, तो हाइड्रोजन गैस उत्पन्न होती है। इस गैस अर्थात् हाइड्रोजन के परीक्षण हेतु एक जलती हुई मोमबत्ती परखनली के मुँह के पास लाने पर वह धड़ाके (पॉप) की आवाज के साथ जलती है।


 उदाहरण


Mg(s) + 2HCl(aq)   →  MgCl₂ (aq) + H₂ (g)


 Mg(s) + H2SO (aq) → MgSO₄ (aq) + H₂(g)


              तनु


प्रश्न 19. अम्ल का जलीय विलयन विद्युत का चालन क्यों करता है?



उत्तर अम्ल को जल में मिलाने पर यह आयनीकृत हो जाता है। जब इस जलीय विलयन में विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है, तो इसमें उपस्थित आयन ही विद्युत का चालन करते हैं।



प्रश्न 20. शुष्क हाइड्रोजन क्लोराइड गैस शुष्क लिटमस पत्र के रंग को क्यों नहीं परिवर्तित करती?


उत्तर शुष्क हाइड्रोजन क्लोराइड गैस का आयनीकरण नहीं होता है। जब इसका जलीय विलयन बनाते हैं, तब ही इसमें H₃O+ तथा CI⁻ आयन उत्पन्न होते हैं। इसी अवस्था में इसमें उपस्थित H₃O+ आयनों के कारण नम हाइड्रोजन क्लोराइड गैस या हाइड्रोक्लोरिक अम्ल शुष्क लिटमस पत्र को नीले से लाल कर देते हैं। अर्थात् अम्लीय गुण प्रदर्शित करते हैं, जबकि शुष्क हाइड्रोजन क्लोराइड गैस आयनों की अनुपस्थिति के कारण ऐसा नहीं करती है। 


प्रश्न 21. अम्ल को तनुकृत करते समय यह क्यों अनुशंसित करते हैं कि अम्ल को जल में मिलाना चाहिए, न कि जल को अम्ल में? 



उत्तर अम्ल की तनुकरण अभिक्रिया अत्यंत ही ऊष्माक्षेपी क्रिया है, अर्थात् जब अम्ल में जल मिलाया जाता है, तो अभिक्रिया में बहुत अधिक ऊष्मा उत्पन्न होने के कारण मिश्रण आस्फलित होकर पात्र से बाहर आ सकता है। इससे जो व्यक्ति वहाँ उपस्थित हैं, उन्हें क्षति हो सकती है। किन्तु इसके विपरीत जब एक पात्र में जल लेकर उसमें दूसरे पात्र से धीरे-धीरे दीवार के सहारे से अम्ल मिलाते हैं, तो ऊष्मा धीरे-धीरे उत्पन्न होती है व अभिक्रिया अनियंत्रित नहीं होती। अतः अम्ल 

को जल में मिलाया जाना उचित है, इसका विपरीत नहीं। 



प्रश्न 22. H⁺(aq) आयन की सांद्रता का विलयन की प्रकृति पर क्या प्रभाव पड़ता है? 


उत्तर H⁺(aq) आयन की सांद्रता विलयन की अम्लीय प्रकृति के समानुपाती होती है। इसका अर्थ है कि H⁺आयन सांद्रता के बढ़ने के साथ-साथ विलयन की अम्लीय प्रकृति बढ़ती है और H⁺ आयन सांद्रता कम होने के साथ-साथ अम्लीय प्रकृति घटती है। 


प्रश्न 23. क्या क्षारकीय विलयन में Ht (aq) आयन होते हैं? अगर हाँ, तो यह क्षारकीय क्यों होता है?


उत्तर हाँ, क्षारकीय विलयन में H⁺ (aq) आयन भी होते हैं परंतु इनकी सांद्रता OH⁻(aq) आयनों की सांद्रता की अपेक्षा कम होती है। इसका कारण यह है कि ये विलयन क्षारक तथा जल के मिलने से बनते हैं।


H₂O    ⇔  H⁺+ OH⁻


 [ जल एक ध्रुवीय विलायक है।


क्षारक    ⇔ धनायन + OH⁻


इसलिये ये विलयन क्षारकीय होते हैं। 



प्रश्न 24. कोई किसान खेत की मृदा की किस परिस्थिति में बिना बुझा हुआ चूना (कैल्सियम ऑक्साइड), बुझा हुआ चूना (कैल्सियम हाइड्रॉक्साइड) या चॉक (कैल्सियम कार्बोनेट) का उपयोग करेगा? 


उत्तर ये तीनों यौगिक, कैल्सियम ऑक्साइड बुझा हुआ चूना तथा चॉक क्षारकीय प्रकृति के हैं। अत: इनका उपयोग अम्लीय प्रकृति की मिट्टी को कम अम्लीय करने, उदासीन अथवा कुछ क्षारकीय करने हेतु किया जाना उचित है। इसका निर्णय उन फसलों के चयन पर भी निर्भर करता है, जिन्हें वहाँ उगाया जाना है।



           लघु उत्तरीय प्रश्न


प्रश्न 1. अम्लों तथा क्षारकों में अन्तर बताइए।


उत्तर


अम्लों तथा क्षारकों में अन्तर





अम्ल

क्षारक

अम्लों का स्वाद खट्टा होता है।

क्षारकों का स्वाद कड़वा होता है।


ये नीले लिटमस को लाल कर देते हैं।

ये लाल लिटमस को नीला कर देते हैं।

इनकी प्रकृति संक्षारक होती है अर्थात् इनके सम्पर्क में लकड़ी, कपड़ा, त्वचा, आदि आने पर नष्ट हो जाते हैं।


इनकी प्रकृति भी संक्षारक होती है। परन्तु ये प्रबल अम्लों की अपेक्षा कम संक्षारक होते हैं।


जब ये अम्लों के साथ क्रिया करते हैं, तो क्षारीय गुण विलुप्त हो जाता है।


जब ये क्षारों के साथ क्रिया करते हैं, तो अम्लीय गुण विलुप्त हो जाता है।

ये जल में विलेय होकर H⁺आयन देते हैं।

ये जल में विलेय होकर OH⁻आयन देते हैं।

उदाहरण HCI, H₂SO₄. HCIO₄. आदि।

उदाहरण KOH, NaOH, Ca(OH)₂ आदि












प्रश्न 4. सूचक क्या हैं? एक उदाहरण की सहायता से अम्ल-क्षार सूचकों के अम्लीय तथा क्षारीय माध्यम में रंग परिवर्तन को स्पष्ट कीजिए।


 

रंग भिन्न-भिन्न होता है। अत: pH मान में उचित परिवर्तन के साथ इनके रंग में परिवर्तन हो जाता है। उदाहरण लिटमस पेपर, मेथिल ऑरेन्ज, फीनॉल्फ्थैलीन, आदि।


उत्तर सूचक ये वे रंजक (Dye) हैं, जो किसी अम्ल अथवा क्षार के सम्पर्क में आने पर अपना रंग परिवर्तित कर लेते हैं। इनका अम्लीय तथा क्षारीय माध्यमों में रंग भिन्न-भिन्न होता है। अत: pH मान में उचित परिवर्तन के साथ इनके रंग में परिवर्तन हो जाता है। 


उदाहरण लिटमस पेपर, मेथिल ऑरेन्ज, फीनॉल्फ्थैलीन, आदि।



प्रयोगशाला में अम्लों तथा क्षारों के परीक्षण के लिए लिटमस पेपर सूचक का प्रयोग किया जाता है। यह निम्नलिखित दो प्रकार का होता है।


(i) नीला लिटमस पेपर


(ii) लाल लिटमस पेपर


अम्ल नीले लिटमस पेपर को लाल कर देते हैं तथा लाल लिटमस पेपर पर कोई प्रभाव नहीं डालते हैं। क्षार लाल लिटमस पेपर को नीला कर देते हैं तथा नीले लिटमस पेपर पर कोई प्रभाव नहीं डालते हैं।



प्रश्न 6. एक ग्वाला ताजे दूध में थोड़ा बेकिंग सोडा मिलाता है।


 (i) वह ताजे दूध के pH मान को 6 से बदल कर थोड़ा क्षारीय क्यों बना देता है?


(ii) इस दूध को दही बनने में अधिक समय क्यों लगता है? 



उत्तर (i) जब दूध खट्टा होता है तो उसमें अम्ल उत्पन्न होता है। बेकिंग सोडा (क्षारीय) मिलाने से यह उत्पन्न होने वाले अम्ल को उदासीन कर देता है तथा दूध खट्टा होने से बच जाता है। अत: pH को बढ़ाकर क्षारीय

बना देते हैं, जिससे दूध जल्दी नहीं फटता।


(ii) दूध से दही बनते समय दूध की लैक्टोस शर्करा लैक्टिक अम्ल में बदल जाती है। परन्तु बेकिंग सोडे की उपस्थिति में दूध अपेक्षाकृत क्षारीय होता है, जिससे उत्पन्न होने वाला अम्ल उदासीन हो जाता है।


अतः इससे दही बनने में अधिक समय लगता है।


प्रश्न 7. धोने के सोडा एवं विरंजक चूर्ण के दो-दो प्रमुख उपयोग बताइए।



उत्तर धोने के सोडे के उपयोग


(i) इसका उपयोग जल की स्थायी कठोरता को दूर करने के लिए किया जाता है। 


(ii) सोडियम कार्बोनेट का उपयोग काँच, साबुन आदि उद्योगों में किया जाता है।


विरंजक चूर्ण के उपयोग




(i) विरंजक चूर्ण का उपयोग जीवाणुनाशक के रूप में तथा जल के शुद्धिकरण में किया जाता है।


(ii) विरंजक चूर्ण का उपयोग ऑक्सीकारक के रूप में तथा चीनी सफेद करने में किया जाता है।


प्रश्न 8. निम्नलिखित पर ताप का प्रभाव लिखिए (केवल रासायनिक समीकरण लिखिए)


 (i) प्लास्टर ऑफ पेरिस


(ii) सोडियम बाइकार्बोनेट


उत्तर (i) प्लास्टर ऑफ पेरिस पर ताप का प्रभाव यदि कैल्सियम सल्फेट डाइहाइड्रेट या कैल्सियम सल्फेट अर्द्ध-हाइड्रेट को 120°C से अधिक ताप पर गर्म किया जाता है, तो निर्जलीय प्लास्टर प्राप्त होता है। इसे

मृत तापित प्लास्टर कहा जाता है। 


                      120C

CaSO₄ .2H₂0    →     CaSO₄ + 2H₂O


CaSO₄.½H₂O  →   CaSO₄ +½H₂O


400°C से अधिक ताप पर गर्म करने पर कैल्सियम सल्फेट का अपघटन हो जाता है। जिसके फलस्वरूप कैल्सियम ऑक्साइड प्राप्त होता है तथा SO₂

और 0₂ गैसें  मुक्त होती हैं।


2CaSO₄ → 2CaO+ 2S0₂ ↑ + 0₂ > 400C


(ii) 2NaHCO₃ → NaCO₃ + CO₂ + H₂O 



        विस्तृत उत्तरीय प्रश्न



प्रश्न 1. (i) प्रबल एवं दुर्बल अम्ल क्या है? अम्लों की निम्नलिखित सूची से प्रबल अम्लों को दुर्बल अम्लों से पृथक् कीजिए।


हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, साइट्रिक अम्ल, ऐसीटिक अम्ल, नाइट्रिक अम्ल, फॉर्मिक अम्ल, सल्फ्यूरिक अम्ल 


(ii) ऊष्मण के द्वारा आप बेकिंग पाउडर तथा धावन सोडा में विभेद कैसे करोगे?



उत्तर (i) प्रबल अम्ल वे अम्ल जो अपने जलीय विलयन में पूर्णतया आयनित होकर अत्यधिक मात्रा में हाइड्रोजन आयन (H⁺ या हाइड्रोनियम आयन (H₃O⁺) उत्पन्न करते हैं, प्रबल अम्ल कहलाते हैं।



दुर्बल अम्ल वे अम्ल जो अपने जलीय विलयन में पूर्णतया आयनित नहीं होते तथा विलयन में कम हाइड्रोजन आयन (H⁺) या हाइड्रोनियम आयन (H₃O⁺) प्रदान करते हैं, दुर्बल अम्ल कहलाते है।


सूची में दिए गए अम्लों में 


प्रबल अम्ल हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI), नाइट्रिक अम्ल (HNO₃,), सल्फ्यूरिक अम्ल (H₂SO₄


दुर्बल अम्ल ऐसीटिक अम्ल (CH₃COOH), फॉर्मिक अम्ल (HCOOH)


(ii) बेकिंग सोडा (NaHCO₃) को गर्म करने पर कार्बन डाइऑक्साइड गैस (CO₂) उत्पन्न होती है जिसे चूने के पानी में प्रवाहित करने पर वह दूधिया हो जाता है।


2NaHCO₃ बेकिंग सोडा  ऊष्मा → Na₃CO₃ + H₂O+ CO₂




घावन सोडा (Na₂CO₃ .10H₂0) को गर्म करने पर गैस नहीं निकलती है।


Na₂ CO₃.10H₂0. → Na₂CO₃+ 10H₂O 




प्रश्न 2. बेकिंग पाउडर का रासायनिक नाम तथा अणु सूत्र क्या है? इसको बनाने की विधि तथा दो प्रमुख रासायनिक गुण समीकरण देते हुए लिखिए। 




उत्तर बेकिंग पाउडर सोडियम बाइकार्बोनेट (बेकिंग सोडा) तथा पोटैशियम हाइड्रोजन टारट्रेट का मिश्रण बेकिंग पाउडर कहलाता है। 


(i) बेकिंग सोडे का रासायनिक नाम सोडियम बाइकार्बोनेट अथवा सोडियम हाइड्रोजन कार्बोनेट 



(ii) अणु सूत्र NaHCO₃ 


निर्माण विधि इसे प्रयोगशाला में धावन सोडे (सोडियम कार्बोनेट) के जलीय विलयन में कार्बन डाइऑक्साइड गैस प्रवाहित करके प्राप्त किया जाता है।


Na₂CO₃ + H₂O + CO₂  → 2NaHCO₃


 इसके प्रमुख रासायनिक गुण निम्नलिखित हैं


 (i) इसे 100°C से अधिक ताप तक गर्म करने पर यह अपघटित होकर सोडियम कार्बोनेट बनाता है।


                  100°C


2NaHCO₃     →    Na₂CO₃ + H₂O + CO₂


सोडियम बाइकार्बनेट         सोडियम कार्बनेट


(ii) यह अम्लों के साथ क्रिया करके सोडियम लवण, जल तथा कार्बन डाइऑक्साइड मुक्त करता है।


NaHCO₃ + HCI  → NaCl + H₂O + CO₂  सोडियम बाइकार्बोनेट         सोडियम लवण




                आंकिक प्रश्न


प्रश्न 1. pH4 मान के विलयन में H⁺ आयनों की सान्द्रता बताइए। इस विलयन की प्रकृति बताइए।


 हल


[H⁺ | =10⁻pH




[H⁺ ] = 10⁻⁴मोल/लीटर क्योंकि इस विलयन का pH मान 7 से कम है, अत: विलयन की प्रकृति अम्लीय होगी।





       क्या होता है जब ?


केवल रासायनिक समीकरण दीजिए।



डाइऑक्साइड गैस प्रवाहित


(i) सोडियम कार्बोनेट के विलयन में कार्बन डाइऑक्साइड गैस प्रवाहित करते हैं। 


(ii) सोडियम बाइकार्बोनेट पर ताप पर प्रभाव।


 अथवा  खाने के सोहे अथवा सोडियम बाइकार्बोनेट को गर्म करते हैं। 


 (iii) सोडियम बाइकार्बोनेट तनु सल्फ्यूरिक अम्ल से अभिक्रिया करता है।


(iv) ब्लीचिंग पाउडर कार्बन डाइऑक्साइड से अभिक्रिया करता है। 


 (v) ब्लीचिंग पाउडर को तनु ऐसीटिक अम्ल के साथ गर्म करते हैं। 


(vi) अमोनियम क्लोराइड (नौसादर) को बुझे चूने (कैल्सियम हाइड्रॉक्साइड) के साथ गर्म करते हैं।


(vii) अमोनियम क्लोराइड (नौसादर) को गर्म करते हैं।


(viii) प्लास्टर ऑफ पेरिस को गर्म किया जाता है।


 (ix) विरंजक चूर्ण की क्रिया तनु सल्फ्यूरिक अम्ल से करायी जाती है।


(x) जिप्सम को 373 K पर गर्म किया जाता है।


(xi) बुझे हुए चूने में क्लोरीन गैस प्रवाहित की जाती है। 


(xii) कार्बन डाइऑक्साइड गैस को चूने के पानी में प्रवाहित किया जाता है।



उत्तर (i) Na₂CO₃ + H₃O + CO2 →2NaHCO₃



                                      सोडियम बाइकार्बोनेट


(ii) 2NaHCO3       →  Na₂CO₃+ CO2 +H2O

 सोडियम बाइकार्बोनेट (100°C से उच्च ताप) सोडियम बाइकार्बोनेट


(iii) 2NaHCO₃+ H₂SO₄ → Na₂SO₄ + 2H₂O + 2CO₂


(तनु) सोडियम बाइकार्बोनेट  सल्फ्यूरिक अम्ल       सोडियम  सल्फेट


(iv) CaOCl₂ + CO₂→ CaCO₃ + Cl₂ ↑


विरंजक चूर्ण        कैल्सियम कार्बोनेट  क्लोरीन 


(v) CaOCl₂ + 2CH₃COOH    →(CH3COO)₂Ca + H₂O + Cl₂


 ब्लीचिंग पाउडर ऐसीटिक अम्ल कैल्सियम ऐसीटेट


(vi) 2NH₄Cl + Ca(OH)₂→CaCl₂ +2H₂O+2NH₃ अमोनिया


नौसादर बुझा चूना


कैल्सियम क्लोराइड




(vii) NH₄CI → NH₃(g) + HCl(g) अमोनियम


क्लोराइड (नौसादर)   अमोनिया   हाइड्रोजन गैस क्लोराइड


(viii) CaSO₄.2H₂O 120°C→ CaSO₄+ H₃O


प्लास्टर ऑफ पेरिस       कैल्सियम        सल्फेट



(ix) CaOCl2 विरंजक चूर्ण +H2SO4→CaSO4 + H2O + Cl₂ ↑




up ncert class 10 science chapter 3 Metals and Non-metals notes in hindi


यूपी बोर्ड कक्षा 10 विज्ञान अध्याय 3 धातु एवं अधातु का सम्पूर्ण हल





धातु एवं अधातु 

Metals and Non-metals






सभी महत्वपूर्ण परिभाषा



1. वे तत्त्व जो ऊष्मा तथा विद्युत का चालन करते हैं तथा आघातवर्धनीय तथा तन्य होते हैं, धातु कहलाते हैं। 


2.भूपर्पटी पर सर्वाधिक पाई जाने वाली धातु ऐलुमिनियम है।


3.धातुएँ चमकदार होती हैं तथा इन पर पॉलिश या लेप किया जा सकता है।


 4.धातुओं के गलनांक तथा क्वथनांक उच्च होते हैं (सोडियम तथा पोटैशियम को छोड़कर)।



5.वे तत्त्व जो ऊष्मा तथा विद्युत का चालन नहीं करते हैं, आघातवर्धनीय व तन्य नहीं होते हैं तथा भंगुर होते हैं, अधातु कहलाते हैं।


6. भूपर्पटी पर सर्वाधिक पाई जाने वाली अधातु ऑक्सीजन है। 


7.अधातुएँ चमकदार नहीं होतीं, ये मलिन होती हैं।


8.अधातुओं के गलनांक तथा क्वथनांक अपेक्षाकृत कम होते हैं (डायमण्ड को छोड़कर) । 


9. जब धातुओं को ऑक्सीजन (वायु) में जलाया जाता है तब धातु ऑक्साइड बनते हैं।


10.धातुएँ जल से अभिक्रिया करके धातु हाइड्रॉक्साइड तथा हाइड्रोजन गैस बनाती हैं। 


11. सामान्यतया सभी धातुएँ अम्लों से हाइड्रोजन विस्थापित करती हैं।


12. 1भाग सान्द्र नाइट्रिक अम्ल तथा 3 भाग सान्द्र हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का ताजा तैयार किया गया मिश्रण अम्लराज कहलाता है।


13.ऐसी श्रेणी जिसमें सामान्य धातुओं को उनके घटते हुए सक्रियता क्रम में व्यवस्थित किया जाता है, सक्रियता श्रेणी कहते हैं।


14. धातुएँ प्रकृति में दो अवस्थाओं में पाई जाती हैं


(i) मुक्त अथवा स्वतन्त्र अवस्था में, 


(ii) संयुक्त अवस्था अथवा यौगिकों के रूप में। 



15. प्रकृति में धातु तथा उसके यौगिक जिस रूप में पाए जाते हैं, उन्हें खनिज कहते हैं।


16. सभी खनिज अयस्क नहीं होते, परन्तु सभी अयस्क खनिज होते हैं।


17.धातुओं को उनके अयस्कों से निष्कर्षित करने की विधि धातुकर्म कहलाती है। 



18.धातुओं को अयस्क से प्राप्त करना अयस्क की प्रकृति तथा स्वयं धातुओं के भौतिक और रासायनिक गुणों पर निर्भर करता है।


19. अयस्क से धातुओं के निष्कर्षण के विभिन्न पद हैं-अयस्क का पीसना, सान्द्रण, निस्तापन, जारण (भर्जन), प्रगलन व धातुओं का शोधन


 20. अयस्क से मिट्टी, रेत आदि को दूर करने को सान्द्रण कहते हैं। इसके अन्तर्गत अयस्क को आधात्री से पृथक् किया जाता है।


21.अयस्क में प्राय: मिट्टी, बालू, चूना तथा पत्थर आदि अशुद्धियों के रूप में मिले रहते हैं। इन्हें आघात्री या मैट्रिक्स कहते हैं।


22.अयस्कों के सान्द्रण के लिए सबसे अधिक फेन-प्लवन विधि का उपयोग किया जाता है। सल्फाइड अयस्कों का सान्द्रण प्रायः इसी विधि से करते हैं। 


23.निस्तापन की क्रिया में सान्द्रित अयस्क को वायु की अनुपस्थिति में उच्च ताप पर गर्म करते हैं जिससे अयस्क का अपघटन हो जाता है।


24.भर्जन (जारण) के अन्तर्गत सान्द्रित अयस्क को अकेले या अन्य पदार्थों के साथ मिलाकर वायु की नियन्त्रित मात्रा में गर्म किया जाता है। 


25. अयस्क में उचित गालक तथा कोक मिलाकर मिश्रण को उच्च ताप पर गलाने की क्रिया प्रगलन कहलाती है।


26. प्राप्त धातु का शोधन करने की अनेक विधियाँ हैं, जैसे- आसवन, द्रवण, ऑक्सीजन, विद्युत अपघटन, अमलगमन तथा वाष्प- प्रावस्था शोधन आदि।


27. कॉपर का मुख्य अयस्क कॉपर पाइराइट है। 


28.जब दो या दो से अधिक धातुओं को एक निश्चित अनुपात में मिलाकर पिघलाया जाता है, तो ये धातुएँ परस्पर मिल जाती हैं तथा एक समाग मिश्रण बनाती हैं





बहुविकल्पीय प्रश्र



प्रश्न 1. धातु वे तत्व हैं जिनमें


(a) धनायन बनाने की प्रवृत्ति होती है


(b) ऋणायन बनाने की प्रवृत्ति होती है


(c) हथौड़े से पीटने पर छोटे-छोटे कणों में टूट जाने का गुण होता है 


(d) विद्युत तथा ऊष्मा के कुचालक होने का गुण होता है


उत्तर (a) धातु वे तत्व होते हैं, जो इलेक्ट्रॉन त्यागकर धनायन बनाने की प्रवृत्ति रखते हैं।


प्रश्न 2. धातु जो सामान्य ताप पर द्रव है


(a) मर्करी


(b) जल 


(c) ब्रोमीन 


(d) लोहा


उत्तर (a) मर्करी (पारा) धातु सामान्य ताप पर द्रव अवस्था में पायी जाती है।


प्रश्न 3. ऐन्टीमनी है


(a) उपधातु


(b) धातु


(c) अधातु


(d) अक्रिय गैस


उत्तर (a) ऐन्टीमनी एक उपधातु है, जो धातु और अधातु दोनों के गुण प्रदर्शित करती है।


प्रश्न 4. धातुओं के ऑक्साइड होते हैं


(a) अम्लीय


(b) क्षारीय


(c) उभयधर्मी


(d) उदासीन


उत्तर (b) धातुओं के ऑक्साइड सामान्यतः क्षारीय व्यवहार दर्शाते हैं। ये जल से अभिक्रिया करके क्षार का निर्माण करते हैं, जो लाल लिटमस को नीला कर देता है।



प्रश्न 5. निम्न में से कौन-सी धातु अम्ल से हाइड्रोजन विस्थापित करती है? 


(a) Mg 


(b) Cu


 (c) Pt. 


(d) Hg



उत्तर (a) सक्रियता श्रेणी में हाइड्रोजन से पहले (ऊपर) स्थित धातुएँ हाइड्रोजन की अपेक्षा अधिक सक्रिय होने के कारण, अम्लों से हाइड्रोजन को विस्थापित कर देती हैं। दिए गए तत्वों में से केवल Mg ही सक्रियता श्रेणी में H से ऊपर स्थित है अतः यह अम्ल से हाइड्रोजन को विस्थापित कर देती है।


प्रश्न 6. निम्न में से कौन-सी धातु अम्ल से हाइड्रोजन विस्थापित करती है?



(a) Zn


(b) Cu


(c) Ag


(d) Hg


अथवा अम्ल से क्रिया करके हाइड्रोजन गैस विस्थापित करने वाली धातु है



(a) Zn


(b) Cu


(c) PL


(d) Ag




उत्तर (a) Zn धातु अम्लों से अभिक्रिया कर हाइड्रोजन गैस को विस्थापित करती है, क्योंकि यह सक्रियता श्रेणी में हाइड्रोजन से पहले (ऊपर) स्थित है अर्थात् हाइड्रोजन की अपेक्षा अधिक क्रियाशील है, जबकि दी गई अन्य धातुएँ (Cu, Ag, Hg, Pt) इस श्रेणी में हाइड्रोजन के पश्चात् (नीचे) स्थित है अर्थात् हाइड्रोजन की अपेक्षा कम क्रियाशील हैं।


प्रश्न 7. निम्नलिखित में कौन-सी धातु अम्ल से हाइड्रोजन विस्थापित नहीं करती है?



(a) Mg


 (b) Fe


(c) Cu


(d) Zn



उत्तर (c) धातुओं की सक्रियता श्रेणी में हाइड्रोजन के पहले स्थित धातुएँ ही अम्ल से हाइड्रोजन विस्थापित करती हैं। कॉपर धातु, इस श्रेणी में हाइड्रोजन के बाद स्थित होने के कारण (अर्थात् हाइड्रोजन से कम क्रियाशील होने के कारण) अम्ल से हाइड्रोजन विस्थापित नहीं करती है।


प्रश्न 8. जस्ता धातु, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से क्रिया करके कौन-सी गैस निष्कासित करती है?


(a) ओजोन 


(b) ऑक्सीजन 


(c) हाइड्रोजन


 (d) नाइट्रोजन 


उत्तर (c) Zn + 2HCI  →ZnCl₂ + H₂जस्ता धातु हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से क्रिया करके हाइड्रोजन गैस निष्कासित करती है।


प्रश्न 9. निम्नलिखित में से कौन-सी धातु ठण्डे जल के साथ सामान्य ताप पर ही हाइड्रोजन गैस निकालती है?


(a) कॉपर (Cu)


(b) आयरन (Fe)


(c) मैग्नीशियम


(d) सोडियम (Na)



 उत्तर (d) सक्रियता श्रेणी में शीर्ष पर स्थित धातुएँ (जैसे- पोटैशियम, सोडियम आदि) अत्यधिक क्रियाशील होने के कारण ठण्डे जल के साथ क्रिया करके भी हाइड्रोजन मुक्त करती हैं। 


प्रश्न 10. निम्न में से कौन-सी धातु ठण्डे जल के साथ हाइड्रोजन गैस निकालती है? 



(a) तौबा


 (b) सोना 


(C) पोटैशियम 


(d) ऐलुमिनियम



उत्तर (c) 


प्रश्न 11. सिल्वर नाइट्रेट विलयन में ताँबे की छीलन डालने पर विलयन नीला हो जाता है। इसका कारण है 



(a) Ag' आयन के कारण


(b) Ag की उपस्थिति


(C) Cut आवन की उपस्थिति 


 (d) NO, आयन की उपस्थिति




उत्तर (c) सक्रियता श्रेणी में ताँबा (Cu), सिल्वर (Ag) से पहले (ऊपर) स्थित है तथा इस श्रेणी में पहले आने वाली धातु (अधिक क्रियाशील) बाद में आने वाली धातु (कम क्रियाशील) को उसके लक्षण के विलयन से विस्थापित कर देती है, अत: ताँबा सिल्वर नाइट्रेट से सिल्वर को विस्थापित करके कॉपर नाइट्रेट बनाता है। इस प्रकार विलयन में Cu" आयनों की उपस्थिति हो जाती है जिनके नीले रंग के कारण विलयन का रंग भी नीला हो जाता है।


प्रश्न 12. धातु जो सरलता से ऑक्सीकृत हो जाती है वह है


(a) Cu


(b) Ag


(c) AL


(d) Pt


उत्तर (c) जिस धातु की क्रियाशीलता जितनी अधिक होगी, वह उतनी ही सरलता से ऑक्सीकृत होगी। चूँकि दी गई धातुओं में AI धातु सर्वाधिक क्रियाशील है अतः वह सरलता से ऑक्सीकृत होगी।


प्रश्न 13. तत्त्व A, B, C, D के मानक अपचयन विभव क्रमशः + 060, - 0.35,- 150, - 2.71 वोल्ट हैं। सबसे अधिक क्रियाशील तत्त्व होगा


(a) A


(b) B


(c) C


(d) D


उत्तर (c) जिस तत्व के E° का मान जितना कम (अर्थात् अधिक ऋणात्मक) होता है, वह उतना ही अधिक क्रियाशील होता है अत: C(-2.71) सबसे अधिक क्रियाशील तत्व है।


प्रश्न 14. निम्नलिखित में कौन अधिक विद्युत ऋणात्मक तत्व है?


(a) ।


(b) Na


(c) Br


(d) Mg


उत्तर (c) अधातु तत्व विद्युत ऋणात्मक होते हैं तथा प्रश्न में आयोडीन (ID) एवं ब्रोमीन (Br) दोनों अधातु हैं। लेकिन वर्ग-17 (Halogen समूह) में ब्रोमीन, आयोडीन से ऊपर अव्यवस्थित है तथा वर्ग में ऊपर से नीचे की ओर जाने पर परमाणु का आकार तो बढ़ता है लेकिन विद्युत ऋणात्मकता घटती जाती है।



प्रश्न 15. निम्न में कौन-सा युग्म विस्थापन अभिक्रिया प्रदर्शित करता है।


(a) NaCl विलयन एवं कॉपर धातु


(b) MgCl, विलयन एवं ऐलुमिनियम धातु 


(c) FeSO, विलयन एवं सिल्वर धातु 


(d) AgNO, विलयन एवं कॉपर धातु


उत्तर (d) AgNO, विलयन एवं कॉपर धातु, क्योंकि कॉपर, सिल्वर से अधिक क्रियाशील है।


प्रश्न 16. लोहे के फ्राइंग पैन (frying pan) को जंग से बचाने के लिए निम्न में से कौन-सी विधि उपयुक्त है? 



(a) ग्रीस लगाकर


(b) पेंट लगाकर


 (c) जिंक की परत चढ़ाकर 


(d) इन सभी द्वारा



उत्तर (d) इन सभी के द्वारा। ये सभी संक्षारण को रोकने की विधियाँ हैं।



प्रश्न 17. निम्न में से कौन-सी धातु अम्ल से हाइड्रोजन (H₂) विस्थापित करती है?


(a) Mg


(b) Cu


(c) Pt


(d) Hg


उत्तर (a) श्रेणी में हाइड्रोजन के ऊपर स्थित धातुएँ हाइड्रोजन की अपेक्षा अधिक सक्रिय होने के कारण अम्लों से H, को विस्थापित कर देती हैं। दिए गए तत्वों में से केवल मैग्नीशियम (Mg) ही सक्रियता श्रेणी में हाइड्रोजन (H) से ऊपर स्थित है, अत: यह अम्ल से हाइड्रोजन को विस्थापित कर देती है।


प्रश्न 18. निम्नलिखित में से कौन-सी धातु अम्ल से हाइड्रोजन विस्थापित नहीं करती है?


(a) Mg


 (b) Fe


(c) Cu


(d)Zn

उत्तर (c) सक्रियता श्रेणी में कॉपर हाइड्रोजन से नीचे स्थित है, अतः यह अम्ल से क्रिया करने पर हाइड्रोजन विस्थापित नहीं करती।


प्रश्न 19. ताँबे का अयस्क है


(a) बॉक्साइट 


(b) मैलेकाइट


(c) कार्नलाइट 


(d) सीडेराइट


उत्तर (b) मैलेकाइट [CuCO₃.Cu(OH)₂) ताँबे (Cu) का अयस्क है।


प्रश्न 20. ताम्र ग्लान्स का रासायनिक सूत्र है



(a) CuS


(b) Cu₂O 


(c) CuFe₂S₂


(d) CuCO₃


उत्तर (a) ताम्र ग्लान्स (Cu₂S) को कैल्कोसाइट भी कहा जाता है, जोकि कॉपर का सल्फाइड अयस्क है।


प्रश्न 21. क्लोराइड अयस्क का उदाहरण है।


(a) बॉक्साइट


(b) मैलेकाइट


(c) सीडेराइट


(d) हॉर्न सिल्वर


उत्तर (d) हॉर्न सिल्वर (AgCl) सिल्वर का अयस्क है। CI की उपस्थिति के कारण इसे क्लोराइड खनिज की श्रेणी में सम्मिलित किया जाता है।


प्रश्न 22. लोहे के फ्राइन्ग पैन (frying pan) को जंग से बचाने के लिए निम्न में से कौन-सी विधि उपयुक्त है ?


(a) ग्रीस लगाकर


(b) पेन्ट लगाकर


(c) जिंक की परत चढ़ाकर 


(d) इन सभी के द्वारा


उत्तर (d) इन सभी के द्वारा। ये सभी संक्षारण को रोकने की विधियाँ हैं।


प्रश्न 23. खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखने के लिए डिब्बों में जिंक के स्थान पर टिन का लेपन होता है, क्योंकि



(a) जिंक अपेक्षाकृत कम अभिक्रियाशील है


 (b) टिन अपेक्षाकृत कम अभिक्रियाशील हैं।


(c) जिंक का गलनांक कम होता है।


(d) टिन का गलनांक कम होता है


उत्तर (b) खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखने के लिए डिब्बों में टिन का लेपन होता है, क्योंकि यह जिंक से अपेक्षाकृत कम अभिक्रियाशील है।


प्रश्न 24. यदि कॉपर को वायु में खुला रखते हैं, तो इसकी भूरी चमकीली सतह धीरे-धीरे अपनी चमक खो देती है तथा इस पर एक हरे रंग की परत जमा हो जाती है, यह निम्न के बनने के कारण होता है


(a) CuSO₃


(c) Cu(NO₃)₂


(b) CuCO₃


(d) CuO



उत्तर (b) CuCO₃ बेसिक कॉपर कार्बोनेट (हरा) की परत बनती है।



प्रश्न 25. आघातवर्धनीयता प्रदर्शित करता है।



(a) सल्फर


(b) आयोडीन


(c) फॉस्फोरस


(d) ताँबा


उत्तर- (d) ताँबा


प्रश्न-26. निम्नलिखित में से कौन-सी धातु जल के साथ सामान्य ताप पर ही अभिक्रिया कर लेती है अर्थात् हाइड्रोजन गैस निकालती है?


या कौन-सी धातु ठंडे जल के साथ अभिक्रिया कर लेती है? 


(a) कॉपर


(b) आयरन 


(c) मैग्नीशियम


(d) सोडियम/कैल्सियम



उत्तर- (d) सोडियम/ कैल्सियम


प्रश्न 27. निम्नलिखित में से कौन-सी धातु ठण्डे जल में अभिक्रिया करके हाइड्रोजन गैस देती है?


 (a) Ag (b) Na (c) Al (d) Cu




उत्तर-(b) Na


प्रश्न 28. निम्न में कौन-सा युगल विस्थापन अभिक्रिया प्रदर्शित करता है?


(a) NaCl विलयन एवं कॉपर धातु


(b) MgCl₃विलयन एवं ऐलुमिनियम धातु 


(c) FeSO₃ विलयन एवं सिल्वर धातु


(d) AgNO₃ विलयन एवं कॉपर धातु 


उत्तर- (d) AgNO₃विलयन एवं कॉपर धातु


प्रश्न 29. कोई धातु ऑक्सीजन के साथ अभिक्रिया कर उच्च गलनांक वाला यौगिक निर्मित करती है। यह यौगिक जल में विलेय है।यह तत्त्व क्या हो सकता है?


(a) कैल्सियम (b) कार्बन (c) सिलिकॉन (d) लोहा


उत्तर-(a) कैल्सियम


प्रश्न 30. खाद्य पदार्थ के डिब्बों पर जिंक की बजाय टिन का लेप होता  है क्योंकि



(a) टिन की अपेक्षा जिंक महँगा है


(b) टिन की अपेक्षा जिंक का गलनांक अधिक है


(c) टिन की अपेक्षा जिंक अधिक अभिक्रियाशील है


(d) टिन की अपेक्षा जिंक कम अभिक्रियाशील है 


उत्तर- (c) टिन की अपेक्षा जिंक अधिक अभिक्रियाशील है।


प्रश्न 31. निम्न में से कौन-सी धातु अम्ल से हाइड्रोजन विस्थापित नहीं करती है?



(a) Fe


(b) Zn


(c) Cu


(d) Mg


उत्तर- (c) Cu


प्रश्न 32. निम्नलिखित में से कौन-सी धातु अम्ल में से हाइड्रोजन विस्थापित करती है?


(a) Mg


(c) Cu


(d) Hg


(b) Pt


उत्तर- (a) Mg


प्रश्न 33. जस्ता धातु हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से क्रिया करके कौन-सी गैस निष्कासित करती है?



(a) ओजोन


(b) ऑक्सीजन


(c) हाइड्रोजन 


(d) नाइट्रोजन


उत्तर- (c) हाइड्रोजन


प्रश्न 34. तत्त्व A, B, C, D के मानक अपचयन विभव क्रमशः +0.60, 0.35, 1.50, -2.71 वोल्ट हैं। सबसे अधिक क्रियाशील तत्त्व होगा



(a) A


(b) B


(c) C


(d) D


उत्तर- (d) D


प्रश्न 35. फफोलेदार ताँबे में कॉपर की प्रतिशत मात्रा है।


 (a) 98


(c) 70.


(d) 30


उत्तर- (a) 98


प्रश्न 36. फफोलेदार कॉपर है



(a) शुद्ध कॉपर


(b) कॉपर का अयस्क


(c) कॉपर की मिश्र धातु


(d) कॉपर जिसमें 2% अशुद्धियाँ होती हैं 



उत्तर- (d) कॉपर जिसमें 2% अशुद्धियाँ होती हैं


प्रश्न 37. मैट में मुख्यतः होता है


(a) FeS


(b) Cu,S


(c) Cu, S तथा FeS


(d) Cu, S तथा Fen S


उत्तर- (c) Cu, S तथा FeS



प्रश्न 38. कॉपर पायराइट को वायु में गर्म करके सल्फर को दूर करने की क्रिया को कहते हैं


(a) निस्तापन (b) भर्जन (c) प्रगलन (d) बेसेमरीकरण


उत्तर- (b) भर्जन


प्रश्न 39. परावर्तनी भट्ठी का उपयोग होता है



(a) प्रगलन में


(b) निस्तापन में


(c) बेसेमरीकरण में


(d) अतिशीतलन में


उत्तर- (b) निस्तापन में


प्रश्न 40. लोहे के फ्राइंग पैन को जंग से बचाने के लिए निम्न में से कौन-सी विधि उपयुक्त है?



(a) ग्रीस लगाकर


(b) पेंट लगाकर


(c) जिंक की परत चढ़ाकर 


(d) ये सभी


उत्तर- (c) जिंक की परत चढ़ाकर




प्रश्न 41. मुद्रा मिश्रधातु है 


(a) Cu (95%), Sn (4%), P (1%)


(b) Cu (80%), Zn ( 20% )


(c) Cu (88%), Sn ( 12% )


(d) Cu (90%), Zn (2%), Sn (8%)


उत्तर- (a) Cu (95%), Sn (4%), P (1%)


प्रश्न 42. पीतल है


(a) धातु


(b) अधातु


(c) उपधातु


(d) मिश्र धातु


उत्तर


(d) मिश्रधातु


प्रश्न 43. जर्मन सिल्वर में कौन-सी धातु नहीं होती है?



(a) Cu 


(b) Zn


(c) Ag


(d) Ni


उत्तर

(c) Ag



प्रश्न 44. काँसे की प्रतिमाएँ बनी होती हैं



(a) कॉपर-जिंक की


(b) कॉपर-टिन की


(c) कॉपर-निकिल की


(d) कॉपर-आयरन की


उत्तर-


(b) कॉपर-टिन की


प्रश्न 45. अमलगम होते हैं।



(a) उपधातु 


(b) मिश्र धातु 


(c) यौगिक 


(d) विषमांगी मिश्रण


उत्तर-


(d) विषमांगी मिश्रण


प्रश्न 46. निम्नलिखित युग्मों में से कौन-सा युग्म प्रतिस्थापनीय  अभिक्रिया देता है?


(a) सोडियम क्लोराइड विलयन एवं कॉपर धातु


(b) मैग्नीशियम क्लोराइड विलयन एवं ऐलुमिनियम धातु


(c) फेरस सल्फेट विलयन एवं सिल्वर धातु


(d) सिल्वर नाइट्रेट विलयन एवं कॉपर धातु



उत्तर


(b) मैग्नीशियम क्लोराइड विलयन एवं ऐलुमिनियम धातु



प्रश्न 47. लेड नाइट्रेट का रासायनिक सूत्र है।



(a) PbNO₃


(b) Pb (NO3)₂


(c) Pb (NO₂)₂


(d) PbO


उत्तर - (a) PbNO₃





धातुओं तथा अधातुओं में अन्तर लिखिए उदाहरण सहित


धातु और अधातु किसे कहते हैं उदाहरण सहित





धातु


वे तत्व जो ऊष्मा तथा विद्युत का चालन करते हैं, धातु कहलाते हैं अथवा धातु वे तत्व होते हैं, जो इलेक्ट्रॉन त्यागकर धनायन बनाने की प्रवृत्ति रखते हैं अर्थात् धातुएँ विद्युत धनात्मक होती हैं। धातुएँ आघातवर्धनीय (Malleable) तथा तन्य (Ductile) होती हैं। सामान्यतः ये कमरे के ताप पर ठोस होती हैं, परन्तु मर्करी कमरे के ताप पर द्रव अवस्था में होती है।


उदाहरण –  ऐलुमिनियम (AI), कॉपर (Cu) (मुद्रा धातु), उत्कृष्ट धातुएँ (Ag, Au, Pt), क्षारीय धातुएँ (Li, Na, K), क्षारीय मृदा धातुएँ (Be, Mg, Ca) इत्यादि।




अधातु


वे तत्व जो ऊष्मा तथा विद्युत का चालन नहीं करते हैं, अधातु कहलाते हैं अथवा अधातु वे तत्व होते हैं, जो इलेक्ट्रॉन ग्रहण करके ऋणायन बनाने की प्रवृत्ति रखते हैं अर्थात् अधातुएँ विद्युत ऋणात्मक होती हैं। ये आघातवर्धनीय व तन्य नहीं होते हैं, परन्तु भंगुर (Brittle) होते हैं। 


उदाहरण कार्बन (C), नाइट्रोजन (N), सल्फर (S) इत्यादि।


नोट अत्यधिक छोटे आकार के कारण हाइड्रोजन में धनायन बनाने की प्रवृत्ति के साथ-साथ, इलेक्ट्रॉन ग्रहण करके स्थायी ऋणायन बनाने की प्रवृत्ति भी होती है। साथ ही यह धातुओं के अन्य सामान्य लक्षण; जैसे-आघातवर्धनीयता, धात्विक चमक आदि भी नहीं दर्शाती हैं, अतः यह एक अधातु है।



उपधातु


वे तत्व जिनमें धातु तथा अधातु दोनों के गुण पाए जाते हैं, उपधातु कहलाते हैं। 


उदाहरण आर्सेनिक (As), ऐन्टीमनी (Sb) इत्यादि।




धातुओं तथा अधातुओं के भौतिक गुणों में अन्तर



धातु

अधातु

i.साधारण ताप पर पारे (मर्करी) के अतिरिक्त सभी धातुएँ ठोस होती हैं।

साधारण ताप पर ब्रोमीन (द्रव) के अतिरिक्त सभी अधातुएँ ठोस या गैस अवस्था में पायी जाती हैं।


ii.धातुओं में एक विशेष प्रकार की धात्विक चमक होती है।

आयोडीन व ग्रेफाइट के अतिरिक्त किसी भी अधातु में चमक नहीं होती है।

iii.सोडियम तथा पोटैशियम के अतिरिक्त सभी इनका घनत्व प्रायः कम होता है। धातुओं का घनत्व पानी से अधिक होता है।

इनका घनत्व प्राय: कम होता है।

iv.इनके गलनांक तथा क्वथनांक प्रायः अधिक होते है।

इनके गलनांक तथा क्वथनांक प्रायः कम होते हैं।

v.ये ऊष्मा तथा विद्युत की सुचालक होती हैं।

ग्रेफाइट को छोड़कर सभी अधातुएँ ऊष्मा तथा विद्युत की कुचालक होती है।




धातुओं तथा अधातुओं के रासायनिक गुणधर्म



धातु

अधातु

i.धातुएँ इलेक्ट्रॉनों को त्यागकर धन विद्युती लक्षण दर्शाती हैं।

अधातुएँ इलेक्ट्रॉनों को ग्रहण करके ऋण विद्युती लक्षण दर्शाती हैं।

ii.धातुएँ अम्ल के साथ लवण बनाती हैं।

अधातुएँ अम्लों के साथ लवण का निर्माण नहीं करती हैं।

iii.कुछ धातुएँ अम्ल से क्रिया कर हाइड्रोजन गैस उत्पन्न करती हैं। Zn (ठोस) + H2SO4 (द्रव) → ZnSO, (द्रव) + H2 ↑

अधातुएँ अम्लों से क्रिया करके हाइड्रोजन गैस उत्पन्न नहीं करती हैं।


C +2H2SO4 →2SO2 +2H2O + CO2

iv.धातुओं के ऑक्साइड सामान्यतः क्षारीय होते हैं। ये जल से अभिक्रिया करके क्षार का निर्माण करते हैं जो लाल लिटमस को नीला कर देता है; परन्तु हैं। ऐलुमिनियम, जिंक तथा टिन धातुओं के ऑक्साइड उभयधर्मी होते हैं। Na2O + 2HCI  →2NaCl + H20

अधातुओं के ऑक्साइड अम्लीय प्रकृति के होते हैं, परन्तु नाइट्रस ऑक्साइड (N₂O) तथा कार्बन मोनॉक्साइड उदासीन होते


Cl₂O₇ + 2NaOH क्लोरीन हेप्टाऑक्साइड 2NaCIO₄ + H20 (अम्लीय)




प्रश्न . धातु तथा अधातु के किन्हीं चार सामान्य गुणों का उल्लेख कीजिए।




उत्तर 


धातुओं के सामान्य गुण



(i) शुद्ध रूप में धातु की सतह चमकदार होती है, धातु के इस गुणधर्म को धात्विक चमक कहते हैं।


(ii) धातुएँ सामान्यत: कठोर होती हैं सोडियम तथा पोटैशियम मृदु धातुएँ हैं।


(iii) धातुएँ आघातवर्धनीय होती हैं अर्थात् धातुओं को हथौड़े से पीटकर, बिना तोड़े, पतली चादरों में परिवर्तित किया जाता है।


(iv) धातुओं में तन्यता का गुण पाया जाता है अर्थात् इनसे महीन तार बनाए जाते हैं। सोना, चाँदी अधिक तन्य धातुएँ हैं लेकिन सोना सर्वाधिक तन्य धातु है। एक ग्राम सोने से 2 किमी लम्बा तार खींचा जा सकता है।




अधातुओं के सामान्य गुण


(i) अधिकांश अधातुएँ साधारण ताप पर गैस अवस्था में होती हैं। ब्रोमीन ऐसी अधातु है जो साधारण ताप पर द्रव अवस्था में होती है।


(ii) अधातुएँ भंगुर होती हैं, इनमें तन्यता व आघातवर्धनीय गुण नहीं पाया जाता है।


उदाहरण सल्फर और फॉस्फोरस को हथौड़े से पीटने पर ये टूट जाते हैं।


 (iii) अधातुओं में चमक नहीं पायी जाती है। 


(iv) ग्रेफाइट को छोड़कर सभी अधातुएँ विद्युत व ऊष्मा की कुचालक होती हैं।









मिश्रधातु


दो या दो से अधिक धातुओं को गलित अवस्था में मिश्रित करने पर निर्मित समांगी मिश्रण को मिश्रधातु कहते हैं। मिश्रधातुएँ गलित धातुओं को उचित मात्रा में मिलाकर ठण्डा करने पर प्राप्त होती हैं। कॉपर की दो मुख्य मिश्रधातुएँ हैं। पीतल Cu = 70% Zn = 30% तार, मशीन के पुर्जे तथा बर्तन बनाने में काँसा Cu = 80% Sn = 12% बर्तन तथा मूर्तियाँ बनाने में।


धातुओं का परिष्करण (शोधन)


परिष्करण के लिए सबसे सामान्य विधि विद्युत अपघटनी परिष्करण है। कॉपर, टिन, निकैल, सिल्वर, गोल्ड, आदि अनेक धातुओं का परिष्करण विद्युत अपघटन द्वारा किया जाता है।


प्रक्रिया इस प्रक्रम में, अशुद्ध धातु का ऐनोड तथा शुद्ध धातु की पतली परत का कैथोड के रूप में प्रयोग किया जाता है। धातु के लवण विलयन का उपयोग विद्युत अपघट्य के रूप में होता है। जब विद्युत अपघट्य से विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है, तो विद्युत अपघट्य से धातु आयन अपचयित होकर कैथोड पर निक्षेपित हो जाती है। अशुद्धि ऐनोड के नीचे एकत्रित हो जाती है तथा ऐनोड पंक कहलाती है।


उदाहरण कच्चे कॉपर के विद्युत अपघटनी परिष्करण में विद्युत अपघट्य अम्लीकृत कॉपर सल्फेट इलेक्ट्रोड कैथोड (ऋणात्मक आवेशित): कॉपर (शुद्ध) ऐनोड (धनात्मक आवेश) कॉपर (अशुद्ध) कॉपर सल्फेट का वियोजन (aq)



संक्षारण धातुओं का, उनकी सतह का वायु, आर्द्रता (नमी) अथवा रसायन (जैसे अम्ल) के प्रभाव द्वारा नष्ट होना (खा जाना), संक्षारण कहलाता है। नम वायु (या आर्द्र वायु) में खुला छोड़ देने पर अधिकांश धातुएँ संक्षारित हो जाती हैं। संक्षारण एक मन्द प्रक्रिया है। उदाहरण लोहे में जंग लगना, चाँदी का मलिन हो जाना, कॉपर की सतह पर हरे रंग की परत का जमना आदि।


संक्षारण से सुरक्षा


(i) गैल्वनीकरण आयरन की वस्तुओं के ऊपर जिंक धातु की पतली परत चढ़ाने का प्रक्रम गैल्वनीकरण कहलाता है। जिंक धातु की यह पतली परत, लोहे को जंग लगने से बचाती है, क्योंकि आर्द्र वायु में खुला छोड़ने पर जिंक धातु संक्षारित नहीं होती है।


(ii) टिन प्लेटिंग तथा क्रोम प्लेंटिग टिन तथा क्रोमियम धातु संक्षारण रोधी होते हैं।

अतः जब लोहे की वस्तु पर टिन धातु की पतली परत को इलेक्ट्रोप्लेटिंग द्वारा निक्षेपित कर देते हैं, तो आयरन तथा इस्पात वस्तुएँ संक्षारण से सुरक्षित हो जाती हैं।


नोट जब धातु की सतह पर अन्य धातु की पतली परत को विद्युत धारा की सहायता से चढ़ाया जाता है, तो इसे इलेक्ट्रोप्लेटिंग कहते हैं।


(iii) धातुओं को मिश्रधातु में परिवर्तित करके यह धातु के गुणों में सुधार की विधि है। जिसमें दो या दो से अधिक धातुओं को मिलाते हैं।


(iv) रंगाई करके धातु की सतह को किसी अम्ल अवरोधक रंग से रंगाई करने पर धातु, वायु या किसी विलयन के प्रभाव से बच जाती है।


(v) ग्रीस या तेल लगाकर जब ग्रीस या तेल को लोहे की वस्तु की सतह पर लगा देते हैं, तो नमी इसके सम्पर्क में नहीं आ पाती है, जिससे लोह जंग से सुरक्षित हो जाता है। उदाहरण लोहे के पुर्जें तथा मशीनों को ग्रीस से पोत देते हैं।




अम्लराज या ऐक्वा-रेजिया


सान्द्र हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI) तथा सान्द्र नाइट्रिक अम्ल (HNO₃) का वह मिश्रण, जिसमें आयतन के अनुसार 3 भाग सान्द्र हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI) तथा 1 भाग सान्द्र नाइट्रिक अम्ल (HNO₃) होता है, अम्लराज कहलाता है। यह सधूम्र होता है तथा इसकी प्रकृति संक्षारक होती है। यह उत्कृष्ट अक्रिय धातुओं जैसे-सोना (Au) तथा प्लेटिनम (Pt) को गलाने की क्षमता रखता है।


अयस्क


वे खनिज, जिनसे धातु का निष्कर्षण सुगमता तथा मितव्ययता (अर्थात् कम खर्च) के साथ किया जाता है, अयस्क कहलाते हैं। उदाहरण-हॉर्न सिल्वर (AgCl), कार्नेलाइट (KCI. MgCl₂.6H₂O), आदि। .


अतः स्पष्ट है कि सभी अयस्क खनिज होते हैं परन्तु सभी खनिज अयस्क नहीं होते।


किसी धातु के एक से अधिक अयस्क हो सकते हैं। यह धातु को प्राप्त करने के स्थान, प्राकृतिक वातावरण, किसी विशेष खनिज की पृथ्वी में उपलब्ध मात्रा एवं उस स्थान (देश) में उपलब्ध साधन, आदि पर निर्भर करता है। अयस्कों को उनके यौगिक की प्रकृति के आधार पर निम्न भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है


(i) ऑक्साइड अयस्क बॉक्साइट (Al₂0₃.2H₂O), कोरण्डम (Al₂O₃). क्यूप्राइट (Cu₂O), हेमेटाइट (Fe₃O₄), मैग्नेटाइट (Fe₃O₄), जिंकाइट (ZnO), आदि।


(ii) कार्बोनेट अयस्क कैलेमाइन (ZnCO₃), सीरूसाइट (PbCO₃), लाइमस्टोन (CaCO₃), सीडेराइट (FeCO₃), आदि।


(iii) सल्फाइड अयस्क कॉपर पायराइट (CuFeS₂), अर्जेन्टाइट (Ag₂S), जिंक ब्लैण्ड (ZnS), सिनेबार (HgS), आयरन पायराइट (FeS₂), आदि।


(iv) क्लोराइड अयस्क हॉर्न सिल्वर (AgCl),


कार्नेलाइट (KCI. MgCl₂ 6H₂O), आदि।



खनिज तथा अयस्क में अन्तर


खनिज तथा अयस्क अथवा अयस्क व खनिज में अन्तर को स्पष्ट कीजिए




(i) खनिज वे तत्व अथवा यौगिक; जिनके रूप में धातुएँ भूपर्पटी में उपस्थित होती हैं, खनिज कहलाते हैं।


(ii) अयस्क वे खनिज, जिनसे धातु का निष्कर्षण लाभप्रद ढंग से किया जा सके, अयस्क कहलाते हैं। 


उदाहरण— बॉक्साइट ऐलुमिनियम का अयस्क है। 


(ii) गैंग अयस्क में उपस्थित रेत, मिट्टी अथवा अन्य अशुद्धियों को गैंग कहते हैं।




प्रश्न – खनिज तथा अयस्क अथवा अयस्क व खनिज में अन्तर को स्पष्ट कीजिए। 


अथवा उदाहरण देते हुए खनिज तथा अयस्क को स्पष्ट कीजिए।




उत्तर खनिज तथा अयस्क में अन्तर निम्नलिखित हैं






खनिज

अयस्क


प्रकृति में भू-पर्पटी के नीचे धातुएँ जिन यौगिकों के रूप में पायी जाती हैं, उन्हें खनिज कहते हैं।

जिस खनिज में धातु अधिक मात्रा में उपस्थित हो तथा उससे धातु को आसानी से एवं कम खर्च में प्राप्त किया जा सके, अयस्क कहलाते हैं।


सभी खनिज अयस्क नहीं होते हैं।

सभी अयस्क खनिज होते हैं।

सभी खनिजों को धातु निष्कर्षण के लिए प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है।

सभी अयस्कों को धातु निष्कर्षण के लिए प्रयुक्त किया जाता है।


उदाहरण कॉपर पाइराइट (CuFeS₂)

उदाहरण हॉर्न सिल्वर (AgCI)





प्रश्न . लोहे को जंग से बचाने के लिए दो उपाय बताइए। 


उत्तर लोहे को जंग से बचाने की दो विधियाँ निम्न हैं


(i) पेंट करना लोहे पर बनी पेंट की पर्त उसको वायु के संपर्क में आने से रोकती है।


(ii) गैल्वनीकरण/यशद्लेपन लोहे की वस्तुओं को पिघले जिंक में डुबाने पर उस पर जिंक की पर्त बन जाती है। यह पर्त लोहे की जंग से सुरक्षा करती है। जिंक अधिक अभिक्रियाशील होने के कारण लोहे की अपेक्षा पहले संक्षारित होगा। 




प्रश्न . इलेक्ट्रोड विभव क्या है? इसे कैसे मापा जाता है ? एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए।


उत्तर 


इलेक्ट्रोड विभवकिसी धातु की छड़ को उसके लवण के विलयन में डुबोने पर धातु की छड़ आवेशित (धनावेशित अथवा ऋणावेशित) हो जाती है, जिसके फलस्वरूप धातु की छड़ तथा इसके विलयन के मध्य एक विभवान्तर उत्पन्न हो जाता है, जिसे इलेक्ट्रोड विभव कहते हैं।


उदाहरण कॉपर (Cu) की छड़ को कॉपर सल्फेट (CuSO₄) के विलयन में डुबाने पर विलयन में उपस्थित कॉपर आयन (Cu+), कॉपर धातु (छड़) से इलेक्ट्रॉन ग्रहण करके कॉपर परमाणु (Cu) बनाते हैं, जो कॉपर छड़ पर एकत्रित हो जाते हैं।


इस प्रकार कॉपर की छड़ पर धनावेश (Cu+ के कारण) तथा विलयन पर ऋणावेश (SO₂⁻ के कारण) उत्पन्न हो जाता है। इसके फलस्वरूप इनके मध्य विभव उत्पन्न हो जाता है, जिसे इलेक्ट्रोड विभव कहते हैं।


Cu → Cu²+ + 2e¯ 


(कॉपर धातु की छड़)


CuSO₄    ⇔ Cu²+ + SO₄²⁻ + 2e⁻ 


(कॉपर सल्फेट का विलयन ) (छड़पर एकत्रित)


 ( विलयन में एकत्रित)



 इलेक्ट्रोड विभव का मापन


एक स्वतन्त्र इलेक्ट्रोड के विभव का प्रत्यक्ष मापन करना सम्भव नहीं है, परन्तु दो इलेक्ट्रोडों के मध्य का विभवान्तर सही ढंग से मापा जा सकता है। इसे इलेक्ट्रोड विभव के मापन की अप्रत्यक्ष विधि कहते हैं। इस विधि में धातु इलेक्ट्रोड, जिसका विभव ज्ञात करना है, को ज्ञात विभव वाले इलेक्ट्रोड के साथ जोड़ दिया जाता है। इस ज्ञात विभव वाले इलेक्ट्रोड को सन्दर्भ इलेक्ट्रोड (मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड) कहते हैं। धातु इलेक्ट्रोड तथा सन्दर्भ इलेक्ट्रोड को जोड़कर एक सेल बनाते हैं तथा परिणामी सेल का विभव प्रयोगों द्वारा ज्ञात कर लेते हैं। सन्दर्भ इलेक्ट्रोड का विभव हमें पहले से ही ज्ञात होता है अतः इन दोनों विभव मानों की सहायता से धातु के इलेक्ट्रोड विभव की गणना कर ली जाती है। 


उदाहरण मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड का विभव शून्य होता है। इससे जिंक धातु का मानक इलेक्ट्रोड जोड़ने पर प्राप्त सेल में विद्युत धारा हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड से जिंक इलेक्ट्रोड की ओर प्रवाहित होती है। वोल्टमीटर से मापने पर इनके विभवों का अन्तर 0.76 वोल्ट प्राप्त होता है। विद्युत सदैव अधिक विभव वाली वस्तु से कम विभव वाली वस्तु की ओर प्रवाहित होती है। अत: जिंक का मानक इलेक्ट्रोड विभव, हाइड्रोजन के मानक इलेक्ट्रोड विभव (0.00 वोल्ट) से 0.76 वोल्ट कम होता है।


अर्थात् जिंक इलेक्ट्रोड का विभव = मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड का विभव- सेल का विभवान्तर


= 0.00 – 0.76 =-0.76 वोल्ट


विद्युत रासायनिक श्रेणी किसे कहते हैं परिभाषा उदाहरण सहित


सक्रियता श्रेणी किसे कहते हैं परिभाषा उदाहरण सहित




धातुओं की सक्रियता श्रेणी


धातुओं को उनकी क्रियाशीलता के घटते हुए क्रम में व्यवस्थित करने पर प्राप्त श्रेणी को विद्युत रासायनिक श्रेणी अथवा सक्रियता श्रेणी कहते हैं। दूसरे शब्दों में, धातुओं को उनके मानक अपचयन विभव के बढ़ते हुए क्रम में रखने पर प्राप्त श्रेणी को विद्युत रासायनिक श्रेणी अथवा सक्रियता श्रेणी कहते हैं। यह श्रेणी निम्न है


K (सर्वाधिक क्रियाशील) > Ba> Sr> Ca > Na > Mg > Al> Zn > Fe > Cd > Ni > Sn > H > Cu> Hg > Ag > Pt > Au (सबसे कम क्रियाशील)




विधुत रसायनिक श्रेणी के गुण


(i) इस श्रेणी में पहले (ऊपर) आने वाली धातुएँ आसानी से ऑक्सीकृत होती हैं। [दूसरे शब्दों में, जिस धातु की क्रियाशीलता जितनी अधिक होगी, वह उतनी ही सरलता से ऑक्सीकृत होगी।]


(ii) इस श्रेणी में पहले (ऊपर) वाली धातुएँ अर्थात् अधिक क्रियाशील धातुएँ बाद वाली धातुओं (अर्थात् कम क्रियाशील) को उनके लवण के विलयन से विस्थापित कर देती हैं।


(iii) हाइड्रोजन से पहले (ऊपर) वाली धातुएँ अम्लों से अभिक्रिया करके हाइड्रोजन गैस विस्थापित करती हैं। श्रेणी में धातु का स्थान जितना ऊपर होता है, उसकी अम्लों से क्रिया करके हाइड्रोजन विस्थापित करने की क्षमता उतनी ही अधिक होती है।


(iv) इस श्रेणी में शीर्ष पर स्थित धातुएँ; जैसे- Li, Na, K आदि अधिक क्रियाशील होने के कारण ठण्डे जल के साथ क्रिया करके भी हाइड्रोजन गैस मुक्त करती हैं।



मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड किसे कहते हैं सचित्र वर्णन



मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड


वह हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड, जिसमें हाइड्रोजन गैस का दाब 1 वायुमण्डल रखा जाए तथा विलयन में हाइड्रोजन आयनों (H+) की सान्द्रता 1 M हो, मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड कहलाता है।


इस इलेक्ट्रोड का विद्युत वाहक बल प्रत्येक ताप पर 0.00 वोल्ट माना गया है।






मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड का सचित्र वर्णन कीजिए तथा इसकी एक उपयोगिता लिखिए।



 अर्द्ध-सेलों का सचित्र वर्णन कीजिए तथा इसकी उपयोगिता लिखिए।





उत्तर – मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड (अर्द्ध-सेल) 1 मोलर सान्द्रता के HCI विलयन को एक पात्र में लेते हैं, अब प्लेटिनम (Pt) के तार के एक सिरे पर Pr धातु की छोटी प्लेट को उपयोग में लेकर तार को काँच की नली में सील करके पात्र में लिए गए HCI के 1 मोलर विलयन में डुबाते हैं। काँच की नली में 1- वायुमण्डलीय दाब पर आवश्यकता अनुसार, H₂-गैस उत्सर्जित एवं प्रवाहित की जा सकती है।







उपयोगिता जिस एकल अर्द्ध-सेल का विभव मापन करना होता है, उसे मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड (अर्द्ध-सेल) के साथ सुचालक तार द्वारा बाह्य परिपथ में जोड़ देते हैं। अब इससे अपचयित अथवा ऑक्सीकृत होने वाले इलेक्ट्रोड के मानक विभव का मापन किया जा सकता है।




 रेडॉक्स विभव क्या है? विद्युत रासायनिक श्रेणी की दो उपयोगिता लिखिए।





उत्तर – रेडॉक्स विभव किसी सेल में ऑक्सीकरण तथा अपचयन अभिक्रियाएँ होने पर, धातु तथा विलयन में उपस्थित आयनों के मध्य स्थापित होने वाले साम्य में विभवान्तर को रेडॉक्स विभव कहते हैं। 



किसी पदार्थ की रेडॉक्स अभिक्रिया,



Mⁿ+  +  ne- → M अपचयित रूप


ऑक्सीकृत रूप



के लिए ताप T, रेडॉक्स इलेक्ट्रोड के विभव E, पदार्थ के ऑक्सीकृत रूप की सान्द्रता [Oxi] तथा अपचयित रूप की सान्द्रता [Red] में निम्न सम्बन्ध होता है 



E = E° - (2.303RT)/ nF - log10 [Red]/ [Oxi]



यहाँ, E° मानक इलेक्ट्रोड विभव है। 



प्रश्न . लोहे को जंग से बचाने के लिए दो उपाय बताइए। उत्तर लोहे को जंग से बचाने की दो विधियाँ निम्न हैं


(i) पेंट करना लोहे पर बनी पेंट की पर्त उसको वायु के संपर्क में आने से रोकती है।


(ii) गैल्वनीकरण/यशद्लेपन लोहे की वस्तुओं को पिघले जिंक में डुबाने पर उस पर जिंक की पर्त बन जाती है। यह पर्त लोहे की जंग से सुरक्षा करती है। जिंक अधिक अभिक्रियाशील होने के कारण लोहे की अपेक्षा पहले संक्षारित होगा। 


प्रश्न . लोहे (Fe) पर निम्न में से किस धातु की परत चढ़ाई जा सकती है और क्यों ? Mg, Cu, Ag




उत्तर विद्युत रासायनिक श्रेणी में ऊपर से नीचे जाने पर क्रियाशीलता घटती जाती है। अतः लोहे पर इससे कम क्रियाशील धातु की परत आसानी से चढ़ायी जा सकती है। चूँकि Cu तथा Ag, लोहे से कम क्रियाशील हैं, अत: लोहे को Cu 2+ या Ag+ धनायनों के विलयन में डालने पर इस पर Cu या Ag की परत चढ़ जाती है। यदि Fe को अधिक क्रियाशील धातु (जैसे-Mg) के विलयन में डाला जाता है, तो इस पर कोई परत नहीं चढ़ती है।





लघु उत्तरीय प्रश्न             4 अंक


प्रश्न . विद्युत रासायनिक श्रेणी की सहायता से धातुओं द्वारा अम्लों से हाइड्रोजन विस्थापित करने की क्षमता किस प्रकार ज्ञात करते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए। 


उत्तर विद्युत रासायनिक श्रेणी सक्रियता में जो धातुएँ हाइड्रोजन से ऊपर स्थित होती हैं, वे अम्लों से हाइड्रोजन गैस विस्थापित करती हैं तथा श्रेणी में धातु का स्थान जितना ऊपर होता है, उसकी अम्लों से क्रिया करके हाइड्रोजन विस्थापित करने की क्षमता भी उतनी ही अधिक होती है। अतः विद्युत रासायनिक श्रेणी धातुओं व अधातुओं की क्रियाशीलता का निर्धारण करती हैं।


उदाहरण– विद्युत रासायनिक श्रेणी में सोडियम व पोटैशियम हाइड्रोजन से ऊपर स्थित हैं। अतः ये दोनों ही अम्लों से हाइड्रोजन विस्थापित कर देती हैं परन्तु कॉपर (Cu) या सोना (Au), आदि धातुएँ हाइड्रोजन से नीचे स्थित होने के कारण ऐसा नहीं कर पाती हैं।




प्रश्न 11. (i) अयस्कों का सान्द्रण क्यों आवश्यक है? समझाइए। (ii) सल्फाइड अयस्कों के सान्द्रण में प्रयुक्त विधि का नाम बताइए।



उत्तर 

(i) अयस्क में प्राय: मिट्टी, बालू, चूना, पत्थर आदि अशुद्धियों के रूप में मिले रहते हैं। ये अशुद्धियाँ आधात्री या मैट्रिक्स कहलाती हैं। अयस्क से आधात्री को पृथक् करने का प्रक्रम सान्द्रण कहलाता है। अयस्क का सान्द्रण करने पर अयस्क में धातु की प्रतिशतता बढ़ जाती है, अतः धातु का निष्कर्षण सुविधाजनक रूप से किया जा सकता है। 


(ii) सल्फाइड अयस्कों का सान्द्रण झाग प्लवन विधि द्वारा किया जाता है। 





यूपी बोर्ड कक्षा 10वी विज्ञान अध्याय 4 कार्बन तथा उसके यौगिक


up ncert class 10 science chapter 04 carban tatha uske yaugik full solutions notes








अध्याय 4 कार्बन तथा उसके यौगिक



बहुविकल्पीय प्रश्न       1 अंक





प्रश्न 1. बकमिन्स्टर फुलेरीन एक अपररूप है।


(a) फॉस्फोरस का


(c) कार्बन का


(b) सल्फर का


(d) टिन का


उत्तर (c) बकमिन्स्टर फुलेरीन कार्बन का एक अपररूप है।



प्रश्न 2. प्रोपेन का रासायनिक सूत्र है


 (a) CH₄


 (b) C₃H₈


(c) C₄H₈


(d)C₂H₆


उत्तर (b) C₃H₈


प्रश्न 3. ऐल्काइन का सूत्र है


(a) C₃H₄


(b) C₃H₆


 (c) C₄H₁₀


(d) C₂H₆


उत्तर (a) C₃H₄


प्रश्न 4. एथेन का आण्विक सूत्र C₂H₆है, इसमें



(a) 6 सहसंयोजक आबन्ध हैं


(b) 7 सहसंयोजक आबन्ध हैं


(c) 8 सहसंयोजक आबन्ध हैं 


(d) 9 सहसंयोजक आबन्ध हैं



उत्तर (b) 7 सहसंयोजक आबंध हैं।



प्रश्न 5. C₂H₆का आई.यू.पी.ए.सी. नाम है।


(a) मेथेन


(b) एथेन


(c) एथाइन


(d) एथिलीन


उत्तर (b) एथेन


प्रश्न 6. एथिल ऐल्कोहॉल का आई.यू.पी.ए.सी. नाम है


(a) एथेनॉल


(b) मेथेनॉल


(d) एथेनोइक अम्ल


(c) ऐसीटिक अम्ल



उत्तर

(a) एथेनॉल



प्रश्न 7. ऐल्कोहॉलों के विहाइड्रोजनीकरण द्वारा प्राप्त होता है


(a) अम्ल


 (b) एस्टर


 (c) ऐल्डिहाइड 


(d) ऐमीन



उत्तर (c) उत्प्रेरक की उपस्थिति में ऐल्कोहॉल के विहाइड्रोजनीकरण से कार्बोनिल यौगिक का निर्माण होता है।



प्रश्न 8. ब्यूटेनॉन चर्तु-कार्बन यौगिक है, जिसका प्रकार्यात्मक समूह है।


 (a) कार्बोक्सिलिक अम्ल 


(b) ऐल्डिहाइड


(C) कीटोन


(d) ऐल्कोहॉल


उत्तर (c) कीटोन 



प्रश्न 9. दिए गए कार्बनिक यौगिकों में कीटोनिक प्रकार्यात्मक समूह वाला है




(a)CHCOOH


(b)CH₃COCH₃ 


(c) HCOOH 


(d) CH₃CH₂OH


उत्तर (b) CH₃COCH₃ 





प्रश्न 10. ऐसीटोन का IUPAC नाम है।




(a) ब्यूटेनोन


(b) प्रापेनोन


(C) ब्यूटेनॉल


(d) प्रोपेनॉल


उत्तर (b) इसका IUPAC नाम प्रोपेनोन है।


प्रश्न 11. निम्नलिखित में से एल्डिहाइड है


(a) एथेनॉल 


(b) एथेनल


(c) एथीन


(d) एथाइन


उत्तर 

एथेनल



प्रश्न 13. ऐसीटिक अम्ल (CH₃COOH) का आई. यू.पी.ए.सी. नाम है


(a) एथेनॉल (c) मेथेनोइक अम्ल


(b) एथेनोइक अम्ल (d) प्रोपेनोइक अम्ल



उत्तर (b) एथेनोइक





अतिलघु उत्तरीय प्रश्न      2 अंक


प्रश्न 1. प्रयोगशाला में सर्वप्रथम किस कार्बनिक यौगिक का निर्माण हुआ था?उसका नाम एवं सूत्र लिखिए। सम्बन्धित अभिक्रिया भी दीजिए। 




उत्तर यूरिया (NH₂CONH₂) सर्वप्रथम निर्मित कार्बनिक यौगिक था, जो फ्रेडरिक व्होलर ने प्रयोगशाला में अमोनियम सायनेट को गर्म करके बनाया था।


ऊष्मा NH₄CNO → NH₂CONH₂यूरिया


अमोनियम सायनेट



प्रश्न . जैव शक्ति सिद्धान्त पर टिप्पणी लिखिए।




उत्तर फ्रांसीसी वैज्ञानिक बर्जीलियस के समय तक वैज्ञानिक जैव जगत से प्राप्त यौगिकों में से किसी भी यौगिक को प्रयोगशाला में संश्लेषित करने में असमर्थ थे। इस कारण यह धारणा बन गई कि जैव जगत से प्राप्त होने वाले यौगिकों का निर्माण प्रयोगशाला में नहीं किया जा सकता है। बर्जीलियस ने इस धारणा पर आधारित जैव शक्ति सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इस सिद्धान्त के अनुसार, जैव जगत से प्राप्त होने वाले यौगिकों के निर्माण में जैव शक्ति की उपस्थिति आवश्यक है। इस सिद्धान्त का मुख्य आधार यह था कि कार्बनिक यौगिकों का निर्माण केवल जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों द्वारा प्रकृति में ही सम्भव था



प्रश्न 3. निम्न का सामान्य गुण तथा संरचना बताइए।


 (i) हीरा (ii) ग्रेफाइट


उत्तर (i) हीरा यह रंगहीन, पारदर्शी, अत्यधिक कठोर तथा उच्च अपवर्तन गुणांक (Refractive index) के कारण अत्यंत चमकीला है। हीरा प्रकृति में उपलब्ध पदार्थों में सबसे कठोर है। यह मुक्त इलेक्ट्रॉनों की अनुपस्थिति के कारण विद्युत का कुचालक है, परन्तु इसका गलनांक तथा ऊष्मीय चालकता अत्यधिक होती है।

संरचना हीरे की संरचना में प्रत्येक कार्बन परमाणु एक नियमित चतुष्फलक (Regular tetrahedron) के कोनों पर स्थित चार अन्य कार्बन परमाणुओं से सहसंयोजी आबन्ध द्वारा जुड़ा होता है। वास्तव में, हीरे की संरचना में कार्बन परमाणुओं की अति विशाल संख्या, प्रबल सहसंयोजक आबन्धों के द्वारा दृढ़ त्रि-आयामी संरचना के रूप में रहती है। अर्थात् हीरे की संरचना में प्रत्येक कार्बन परमाणु के सभी 4 संयोजक इलेक्ट्रॉन आबन्ध बनाने में प्रयुक्त हो जाते हैं, जिससे हमें हीरे की दृढ़ चतुष्फलकीय संरचना (Tetrahedral) प्राप्त होती है। अनेक चतुष्फलकीय संरचनाएँ मिलकर हीरे की दृढ़-त्रिविम व्यवस्था देते हैं, जिससे इसका गलनांक अत्यंत उच्च पाया जाता है। 


(ii) ग्रेफाइट यह काले-भूरे रंग का अपारदर्शी पदार्थ है। यह हीरे से हल्का, मुलायम एवं स्पर्श करने पर चिकना होने की अनुभूति देता है। मुक्त इलेक्ट्रॉनों की उपस्थिति के कारण यह विद्युत का अच्छा सुचालक है। परन्तु ऊष्मा का कुचालक है।


संरचना ग्रेफाइट में कार्बन के परमाणु षट्कोणीय वलयों (Hexagonal rings) के रूप में पाए जाते हैं। ग्रेफाइट की परतों में, प्रत्येक कार्बन परमाणु तीन अन्य कार्बन परमाणुओं से सहसंयोजक आबन्धों द्वारा जुड़ा होता है, जिससे समतल षट्कोणीय वलय प्राप्त होता है। ग्रेफाइट के क्रिस्टल में कार्बन परमाणुओं की विभिन्न परतें काफी दूर-दूर होने के कारण ऊपर-नीचे की परतों में स्थित कार्बन परमाणुओं के बीच प्रबल सहसंयोजक आबन्ध नहीं बन पाते। ग्रेफाइट के क्रिस्टल में प्रत्येक कार्बन परमाणु के चार संयोजक इलेक्ट्रॉनों में से केवल तीन संयोजक इलेक्ट्रॉन आबन्ध बनाने में प्रयुक्त होते हैं तथा प्रत्येक कार्बन परमाणु का एक एक संयोजी इलेक्ट्रॉन स्वतंत्र रहता है। स्वतंत्र इलेक्ट्रॉनों की उपस्थिति के कारण ग्रेफाइट विद्युत का सुचालक हो जाता है। चूंकि ग्रेफाइट की विभिन्न परते दुर्बल बलों द्वारा जुड़ी है, इसलिए वे आसानी से एक दूसरे के ऊपर फिसल सकती है। 



प्रश्न 4. एक ही तत्व के विभिन्न परमाणुओं का शृंखलन का गुण कैटीनेशन कहलाता है। कार्बन व सिलिकॉन दोनों तत्वों द्वारा शृंखलन प्रदर्शित होता है। इन दोनों तत्वों के शृंखलन गुण की परस्पर तुलना कारण सहित कीजिए।



उत्तर कार्बन यौगिकों में जिस सीमा तक श्रृंखलन का गुण पाया जाता है, वह किसी और तत्व में नहीं मिलता। सिलिकॉन हाइड्रोजन के साथ यौगिक बनाते हैं, जिसमें सात या आठ परमाणुओं तक की शृंखला हो सकती है, लेकिन ये यौगिक अति अभिक्रियाशील होते हैं। जबकि C-C बन्ध अत्यन्त प्रबल होते हैं, अत: यह स्थायी होता है


फलस्वरूप अनेक कार्बन परमाणुओं के साथ आपस में जुड़े हुए अनेक यौगिक प्राप्त होते हैं। कार्बन की चतुः सहसंयोजकता होती है, अन्य तत्वों के साथ कार्बन द्वारा बनाए गए आबन्ध अत्यन्त प्रबल होते हैं, इसका कारण कार्बन का छोटा आकार है जबकि बड़ा परमाणु होने के कारण सिलिकॉन द्वारा बनाए गए आबन्ध कार्बन आबन्ध की तुलना में दुर्बल होते हैं। 


प्रश्न 5. जब साबुन को जल में डाला जाता है, तो मिसेल का निर्माण होता है, क्यों? क्या एथेनॉल जैसे दूसरे विलायकों में भी मिसेल का निर्माण होगा?




उत्तर साबुन का अणु दो सिरे वाला होता है-जलरागी (आयनिक भाग) तथा जलविरागी (हाइड्रोकार्बन भाग)। जब साबुन जल की सतह पर होता है, तब इसके अणु अपने को इस प्रकार व्यवस्थित कर लेते हैं कि इसका आयनिक भाग जल के अंदर होता है और हाइड्रोकार्बन भाग जल के बाहर होता है।


जब साबुन को जल में घोला जाता है तथा उसमें मैला कपड़ा भी रगड़ा जाता है, तब तैलीय धूल के कण हाइड्रोकार्बन भाग से तथा जल के अणु आयनिक भाग से जुड़ जाते हैं। अब ये सभी साबुन के अणुओं के आयनिक (ऋणात्मक) भाग बाहर की ओर तथा हाइड्रोकार्बन भाग भीतर की ओर व्यवस्थित होकर मिसेल बनाते हैं। इसका कारण यह है कि साबुन के आयनिक भागों में परस्पर आयन-आयन प्रतिकर्षण होता है।


ये कोलॉइड के रूप में रहते हैं तथा अवक्षेपित नहीं होते। वहीं, एथेनॉल अथवा दूसरे ऐसे विलायकों में साबुन के दोनों सिरे पूर्णतया घुल जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि एथेनॉल ध्रुवीय सहसंयोजी यौगिक है। अत: एथेनॉल जैसे दूसरे विलायकों में मिसेल का निर्माण नहीं होगा।



कार्बन के अपररूप एवं उनके गुण


कार्बन की सर्वतोमुखी प्रकृति क्या होती है


हीरा, ग्रेफाइट तथा फुलेरीन पर संचिप्त टिप्पणी



यदि कोई तत्व, विभिन्न भौतिक रूपों में पाया जाता है, तो वे, उस तत्व के अपररूप कहलाते हैं। कार्बन के तीन प्रमुख अपररूप निम्नलिखित हैं 



हीरा


यह रंगहीन, पारदर्शी, अत्यधिक कठोर तथा उच्च अपवर्तन गुणांक के कारण अत्यन्त चमकीला है। हीरा प्रकृति में उपलब्ध पदार्थों में सबसे कठोर है। यह विद्युत का कुचालक है, परन्तु इसका गलनांक तथा ऊष्मीय चालकता अत्यधिक होती है।


ग्रेफाइट


यह काले-भूरे रंग का अपारदर्शी पदार्थ है। यह हीरे से हल्का, मुलायम एवं स्पर्श करने पर चिकना होने की अनुभूति देता है। यह विद्युत का अच्छा सुचालक है, परन्तु ऊष्मा का कुचालक है। ग्रेफाइट सर्वाधिक स्थायी अपररूप है।


फुलेरीन


C₆₀ का नाम बकमिंस्टरफुलेरीन (Buckminster fullerence) या बकी बॉल (Bucky Ball) C₆₀ की संरचना फुटबॉल जैसी होने के कारण रखा गया है। गोलाकार अणुओं के रूप में परस्पर जुड़े 60 कार्बन परमाणुओं के गुच्छों युक्त कार्बन (फुलेरीन) का अपररूप है। बकमिंस्टरफुलेरीन के अणु में 60 कार्बन परमाणु, षट्भुजीय और पंजभुजीय वलयों में व्यवस्थित होते हैं। C₆₀ सर्वाधिक क्रियाशील अपररूप है।



कार्बन की सर्वतोमुखी प्रकृति


अनुमान के अनुसार, कार्बन के लगभग तीन मिलियन यौगिक वर्तमान में ज्ञात हैं। कार्बन द्वारा इतनी अधिक संख्या में यौगिकों का बनाना निम्नलिखित कारकों के कारण है


(i) शृंखलन यह कार्बन परमाणु में एक अद्वितीय गुण है, जिसके द्वारा कार्बन परमाणु परस्पर जुड़कर कार्बन परमाणुओं की विभिन्न प्रकार की लम्बी-लम्बी श्रृंखलाएँ बना सकते हैं। कार्बन का यह गुण श्रृंखलन कहलाता है।


(ii) चतुः संयोजी कार्बन कार्बन की संयोजकता चार होने के कारण, यह कार्बन के अतिरिक्त अन्य परमाणुओं जैसे-हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, हैलोजन (जैसे क्लोरीन) या सल्फर आदि के साथ सहसंयोजी आबन्ध बना सकता है, जिसके परिणामस्वरूप हमें कार्बन के असंख्य यौगिक प्राप्त होते हैं।


(iii) बहु आबन्ध बनाने की प्रवृत्ति अपने छोटे आकार के कारण कार्बन में सहसंयोजन द्वारा बहु-आबन्ध (द्वि-तथा त्रि-आबन्ध) बनाने की प्रवृत्ति अत्यधिक पायी जाती है। कार्बन विभिन्न यौगिकों में स्वयं से, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन तथा सल्फर आदि के साथ अनेक स्थायी यौगिक बनाता है।









प्रश्न.हाइड्रोजनीकरण क्या है? इसका औद्योगिक अनुप्रयोग क्या है?


अथवा 


वनस्पति तेल को घी में परिवर्तित करने के लिए सामान्यतः काम में आने वाली रासायनिक अभिक्रिया का नाम दीजिए। सम्बन्धित अभिक्रिया को विस्तार में समझाइए


उत्तर हाइड्रोजनीकरण असंतृप्त हाइड्रोकार्बनों (ऐल्कीन/ऐल्काइन) के साथ हाइड्रोजन की योग अभिक्रिया को हाइड्रोजनीकरण (Hydrogenation) कहते हैं। यह अभिक्रिया निकेल (Ni), पैलेडियम (Pd) आदि उत्प्रेरकों की उपस्थिति में होती है। 


औद्योगिक अनुप्रयोग जब वनस्पति तेलों में निकेल (Ni) उत्प्रेरक की उपस्थिति में हाइड्रोजन गैस को उच्च ताप पर प्रवाहित किया जाता है, तब वनस्पति घी बनता है। यह प्रक्रिया तेलों का कठोरीकरण कहलाती है।



प्रश्न . सजातीय श्रेणी की परिभाषा दीजिए। इसे एक उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।


अथवा सजातीय श्रेणी क्या है? उदाहरण के साथ समझाइए। 


 उत्तर जब कार्बनिक यौगिकों का सामान्य अणुसूत्र क्रियात्मक समूह समान हों तथा इन्हें अणुभार 14 के अन्तर से घटते हुए या बढ़ते हुए क्रम में व्यवस्थित किया जाए, तो एक श्रेणी का निर्माण होता है, इसे सजातीय श्रेणी कहते हैं। 


उदाहरण CH₄(मेथेन), C₂H, (एथेन) 



प्रश्न. सहसंयोजी यौगिकों के दो गुण बताइए।


उत्तर (i) अन्तरा-आण्विक बल के कम होने के कारण सहसंयोजी यौगिकों के क्वथनांक एवं गलनांक कम होते हैं। 



(ii) सामान्यतः ये विद्युत के कुचालक होते है, क्योंकि परमाणुओं के बीच इलेक्ट्रॉनों की साझेदारी होती है तथा कोई आवेशित आयन उपलब्ध नहीं होता है।



प्रश्न . डिटर्जेन्ट के उपयोगों को उदाहरण द्वारा लिखिए।


उत्तर 


डिटरजेन्ट के उपयोग


(i) अपमार्जकों का प्रयोग कठोर जल के साथ किया जाता है क्योंकि यह ऐल्काइल बेंजीन सल्फोनेट से निर्मित होता है। 


(ii) अपमार्जकों का उपयोग घरों में बर्तनों व कपड़ों की सफाई के लिये किया जाता है। 



ईंधन और जीवाश्म ईंधन किसे कहते हैं कितने प्रकार के होते होते हैं



ज्वाला किसे कहते हैं कितने प्रकार की होती है





ईंधन


वे पदार्थ, जो जलने पर प्रकाश एवं ऊष्मा देते हैं, ईंधन कहलाते हैं। जैसे-कार्बन, हाइड्रोकार्बन आदि।



जीवाश्म ईंधन 

ये ईंधन, लम्बे समय पूर्व जो प्रागैतिहासिक पुराने पौधों तथा जन्तुओं (जीवाश्मों) के धरती में चट्टानों की परतों के नीचे दब गए थे, उनके विघटन से बनते हैं, जीवाश्म ईंधन कहलाते हैं।


कुछ प्रमुख जीवाश्म ईंधन निम्नलिखित हैं



1. कोयला


यह कार्बन, हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन के यौगिकों का जटिल मिश्रण है तथा इसमें कुछ मात्रा में मुक्त कार्बन के साथ नाइट्रोजन तथा सल्फर होते हैं। यह पौधों, फर्न तथा पेड़ों के विघटन से बनते हैं, जो लाखों वर्ष पूर्व पृथ्वी में दब गए थे।



2. पेट्रोलियम


प्रकृति में चट्टानों के नीचे दबा हुआ गाढ़ा, चिपचिपा, गहरे रंग वाला तथा विशिष्ट गन्ध वाला द्रव पाया जाता है। इस द्रव में C से C40-45 तक लम्बी श्रृंखला वाले ऐलिफैटिक यौगिक पाए जाते हैं इसलिए इसे पेट्रोलियम कहते हैं। ग्रीक भाषा में 'petra' का अर्थ चट्टान होता है तथा 'oleum' का अर्थ तेल होता है। ऐलिफैटिक हाइड्रोकार्बन पेट्रोलियम का मुख्य घटक है।




ज्वाला


यह, वह स्थान है जहाँ ईंधन के जलने के समय गैसीय पदार्थों का दहन होता है। ऑक्सीजन की मात्रा व ईंधन के दहन के आधार पर, ज्वाला दो प्रकार की होती है।


(i) नीली या अदीप्त ज्वाला पर्याप्त ऑक्सीजन की उपस्थिति में ईंधन का पूर्ण दहन होता है, जिससे नीली ज्वाला उत्पन्न होती है, किन्तु प्रकाश उत्पन्न नहीं होता। उदाहरण गैस स्टोव में LPG का दहन।


(ii) पीली या दीप्त ज्वाला अपर्याप्त वायु की पूर्ति की स्थिति में ईंधन का अपूर्ण दहन होता है, जिसके कारण बिना जले कार्बन कणों का निर्माण होता है, जो पीले रंग का प्रकाश उत्पन्न करते हैं। उदाहरण मोम के वाष्प का जलना।



साबुन किसे कहते हैं इसके निर्माण तथा शोधन की विधि


अपमार्जक किसे कहते हैं परिभाषा उदाहरण सहित

 

साबुन तथा अपमार्जक किसे कहते हैं



साबुन तथा अपमार्जक


उच्च अणु भार वाले मोनो कार्बोक्सिलिक अम्लों के सोडियम तथा पोटैशियम लवण साबुन कहलाते हैं। लम्बी श्रृंखला वाले कार्बोक्सिलिक अम्लों के अमोनियम या सल्फोनेट लवण अपमार्जक कहलाते हैं। अपमार्जक की लम्बी हाइड्रोजन शृंखला का निर्माण तेल या वसा से न करके पेट्रोलियम से किया जाता है।


सफाई कार्य के लिए साबुन की अपेक्षा अपमार्जक अधिक प्रभावशाली होते हैं, क्योंकि अपमार्जक Ca²⁺एवं Mg²⁺आयनों के साथ अवक्षेप नहीं देते हैं जो जल की कठोरता के लिए उत्तरदायी होते हैं, जबकि साबुन इन आयनों के साथ अवक्षेप देते हैं। इन्हें साबुन-रहित साबुन भी कहा जाता है।


साबुन तथा अपमार्जक का निर्माण वसा अम्लों के ग्लिसरॉल एस्टरों को जलीय सोडियम हाइड्रॉक्साइड के साथ गर्म करने पर साबुन का निर्माण होता है। इस अभिक्रिया को साबुनीकरण (Saponification) कहते हैं।


वसा + सोडियम हाइड्रॉक्साइड (NaOH) →साबुन + ग्लिसरॉल




(स्टिएरिक अम्ल का ग्लिसरॉल एस्टर) 





 साबुन के अणु की संरचना


रासायनिक रूप से साबुन के निम्न दो भाग होते हैं


(i) अध्रुवीय हाइड्रोकार्बन भाग यह भाग वसा में विलेय होता है। इसे जलविरोधी (Hydrophobic) अथवा वसा स्नेही (Lipophilic) भी कहते हैं।


(ii) ध्रुवीय हाइड्रोकार्बन भाग यह भाग जल में विलेय होता है। इसे जलस्नेही (Hydrophilic) अथवा वसाविरोधी (Lipophobic) भी कहते हैं।





साबुन की शोधन क्रिया (मिसेल निर्माण)


साबुन को जल में विलेय करने पर यह जल में कोलॉइडी निलंबन बनाता है, जिसमें साबुन के अणु परस्पर गुच्छे के रूप में एकत्रित होकर गोलाकार साबुन का मिसेल बनाते हैं।


मिसेल के रूप में साबुन अनेक वस्तुओं को (जैसे-वस्त्र, शरीर, पात्र आदि) स्वच्छ करने में सक्षम होता है, क्योंकि तैलीय मैल मिसेल के केंद्र में एकत्र हो जाते हैं। विलयन में मिसेल, कोलॉइड के रूप में बने रहते हैं तथा आयन-आयन विकर्षण के कारण अवक्षेपित नहीं होते। इस प्रकार, मिसेल में तैरते मैल को आसानी से हटाया जा सकता है। साबुन के मिसेल, अपने बड़े आकार के कारण प्रकाश को प्रकीर्णित कर सकते हैं। यही कारण है, कि साबुन का घोल बादल जैसा दिखता है।




यूपी बोर्ड कक्षा 10 विज्ञान अध्याय 5 तत्वों का आवर्त वर्गीकरण का सम्पूर्ण हल



up ncert class 10 science chapter 5 periodic classification of elements full solutions notes








तत्त्वों का आवर्त वर्गीकरण


Periodic Classification of Elements




आवर्त सारणी की प्रमुख विशेषताएं


1.तत्त्वों को उनके गुणधर्मों में समानता के आधार पर वर्गीकृत किया गया है।


2.डॉबेराइनर ने तत्त्वों को त्रिक में वर्गीकृत किया जबकि न्यूलैंड्स ने अष्टक का सिद्धान्त दिया।


3.मेण्डेलीफ ने तत्त्वों को उनके परमाणु द्रव्यमान के आरोही क्रम तथा रासायनिक गुणधर्मों के आधार पर वर्गीकृत किया।


4.मेण्डेलीफ ने आवर्त सारणी में खाली स्थानों के आधार पर नए तत्त्वों की भविष्यवाणी की।


5. मेण्डेलीफ की आधुनिक आवर्त सारणी में I से लेकर VIII समूह तथा उसके बाद 0 (शून्य) है।


6.तत्त्वों को परमाणु द्रव्यमान के आरोही क्रम में व्यवस्थित करने से होने वाली विसंगतियाँ, परमाणु संख्या के आरोही क्रम में व्यवस्थित करने से दूर हो गई। तत्त्व के इस आधारभूत गुणधर्म अर्थात् संख्या की खोज मोज्ले ने की।


7. आधुनिक आवर्त सारणी में तत्त्वों को 18 ऊर्ध्व स्तम्भों, जिन्हें समूह कहते हैं तथा 7 क्षैतिज पंक्तियों जिन्हें आवर्त कहते हैं, में व्यवस्थित किया।


8. इस प्रकार व्यवस्थित तत्त्व, परमाणु साइज, संयोजकता या संयोजन क्षमता तथा धात्विक एवं अधात्विक अभिलक्षण जैसे गुणधर्मों में आवर्तिता प्रदर्शित करते हैं।







बहुविकल्पीय प्रश्न           1 अंक




प्रश्न 1. आधुनिक आवर्त वर्गीकरण का आधार है 


(a) परमाणु भार 


(b) परमाणु क्रमांक


(C) संयोजकता 


(d) रासायनिक क्रियाशीलता





 उत्तर (b) मोजले ने सन् 1913 में परमाणु क्रमांक की खोज करने के पश्चात् यह सिद्ध किया कि परमाणु का आधारभूत गुण परमाणु क्रमांक है न कि परमाणु भार। इस आधार पर उसने एक नया नियम दिया, जिसे आधुनिक आवर्त नियम कहा जाता है। इस नियम के अनुसार, तत्वों के भौतिक तथा रासायनिक गुण उनके परमाणु क्रमांकों के आवर्ती फलन होते हैं।


प्रश्न 2. निरूपक तत्व है


(a) Na 


(b) K


(c) Sc


(d) He



उत्तर (a) आवर्त सारणी में तीसरे आवर्त के तत्व निरूपक तत्व या प्रारूपिक तत्व कहलाते हैं। ये तत्व अपने-अपने समूह में उपस्थित अन्य तत्वों का आदर्श प्रतिनिधित्व करते हैं, अतः सोडियम (Na) प्रथम समूह का निरूपक तत्व है।


प्रश्न 3. यूरेनियम है


(a) क्षार धातु


(b) अधातु


 (C) स्थायी तत्व


(d) अन्तः संक्रमण धातु



उत्तर (d) अन्तः संक्रमण धातु


प्रश्न 4. सर्वाधिक धनविद्युती तत्व है


(a) Na


(b) Al


(c) F


(d) K


उत्तर (d) धनविद्युती लक्षण परमाणु क्रमांक बढ़ने के साथ वर्ग में ऊपर से नीचे जाने पर बढ़ता जाता है। इसलिए, पोटैशियम (K) का धनविद्युती लक्षण सर्वाधिक है।


प्रश्न 5. आवर्त सारणी में बाईं से दाईं ओर जाने पर प्रवृत्तियों के बारे में कौन-सा कथन असत्य है? है



(a) तत्वों की धात्विक प्रकृति घटती 


(b) संयोजी इलेक्ट्रॉनों की संख्या बढ़ जाती है


(c) परमाणु आसानी से इलेक्ट्रॉन का त्याग करते हैं


(d) इनके ऑक्साइड अधिक अम्लीय हो जाते हैं 


उत्तर (c) परमाणु आसानी से इलेक्ट्रॉन का त्याग करते हैं। यह कथन असत्य है, क्योंकि बाई से दाईं ओर जाने पर धात्विक गुण कम होता है। तथा अधात्विक (e ग्रहण करने का) गुण बढ़ता है।


प्रश्न 6.विकर्ण सम्बन्ध के तत्व हैं



(a) Li तथा Be


(b) LI तथा Mg


(c) Li तथा Na


(d) Al तथा Si



उत्तर (b) Li के गुण अपने से विकर्णतः स्थित Mg के गुणों के समान हैं। इस कारण लीथियम (Li), मैग्नीशियम (Mg) के साथ विकर्ण सम्बन्ध दर्शाता है।


प्रश्न 7. किस तत्व का ऑक्साइड उभयधर्मी है?


(a) C के


(b) Na के


(c) Mg के


(d) Sn के



 उत्तर (d) Sn के ऑक्साइड उभयधर्मी प्रकृति के होते हैं अर्थात् अम्ल तथा क्षार दोनों से क्रिया करते हैं।



प्रश्न 8. निम्न में से उभयधर्मी ऑक्साइड है


(a) Na₂O          (c) Al₂O₃


(b) MgO          (d) Po₅


उत्तर (c) Al₂O₃उभयधर्मी ऑक्साइड है अर्थात् अम्लीय व क्षारीय दोनों प्रवृत्ति दर्शाता है।


प्रश्न 9. निम्न में अम्लीय ऑक्साइड है


(a) Alp Os


(b) KO


(c) Mgo


(d) P₂O₅


उत्तर (d) अधात्विक ऑक्साइड अम्लीय होते हैं तथा फॉस्फोरस (P) एक अधातु है। P₂O₅जल में घुलकर अम्ल का निर्माण करता है।


PO +3H O2H, PO,


फॉस्फोरिक अम्ल


अत: B.O, अम्लीय ऑक्साइड है।


प्रश्न 10. निम्न में सर्वाधिक अम्लीय है।


(a) Bip


(b) Sb2O3. 


(c) N₂O₅


(d) AS 2 O 3


उत्तर (c) अधात्विक ऑक्साइड अम्लीय होते हैं तथा धात्विक लक्षण में वृद्धि के साथ अम्लीय लक्षण कम होता जाता है। किसी समूह (वर्ग) में नीचे जाने पर अधात्विक लक्षण में कमी होने के कारण अम्लीय लक्षण में भी कमी होती जाती है, अतः दिए गए ऑक्साइडों में से N₂O₅सर्वाधिक अम्लीय है।


नोट N, P, As, Sb तथा Bi समान वर्ग में इसी क्रम में रखे गए हैं।


प्रश्न 11. निम्न तत्वों में से किसकी विद्युत ऋणात्मकता सबसे कम है? 


(a) Na


(b) Mg


(c) Al


(d) S


उत्तर (a) सोडियम धातु का आकार अन्य धातुओं (Mg. Al, Si) से अधिक होने के कारण इसकी विद्युत-ऋणात्मकता सबसे कम होती है तथा विद्युत धनात्मकता का मान अधिक होता है।


प्रश्न 12. मुद्रा धातु है


(a) Zn


(b) Sn


(c) Pb


(d) Cu


उत्तर (d) Cu को मुद्रा धातु कहते हैं, क्योंकि इसका उपयोग मुद्रा के निर्माण में किया जाता है।


प्रश्न 13. निम्नलिखित में क्षारीय है


(a) Na 


(b) Be


(C) Al


(d) Zn


 उत्तर (a) सोडियम धातु आवर्त सारणी में तीसरे आवर्त के प्रथम वर्ग (समूह) का तत्व है। प्रथम वर्ग (समूह) के सदस्यों को क्षारीय धातुएं कहा जाता है।


प्रश्न 14.तत्व जो क्षारीय ऑक्साइड बनाता है, का परमाणु क्रमांक है।



(a) 18


(b) 17 


(c) 14


(d) 19


उत्तर (d) 19, जोकि पोटैशियम का परमाणु क्रमांक है तथा वर्ग-1 का सदस्य है। वर्ग-1 के सभी धातुएँ क्षारीय ऑक्साइड बनाते हैं।



प्रश्न 15. क्षार धातुएँ हैं


(a) Be, Mg, Ca 


(b) Li, Na. K


(c) B, Al Ga


(d) Cu, Ag. Au 



उत्तर (b) प्रथम वर्ग के तत्वों को क्षार धातुएँ कहते हैं तथा Li, Na. K प्रथम वर्ग के सदस्य है अर्थात् क्षार धातुएँ है।


प्रश्न 16. तृतीय आवर्त का तत्व है।


(a) , Na          (c) B


(b) 3 Sr           (d) 19K


उत्तर (a) परमाणु क्रमांक Na का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 2, 8, 1है। इसमें 3 कोश उपस्थित है अतः यह तीसरे आवर्त का तत्व है। 



प्रश्न 17. निऑन है


(a) क्षार धातु


(b) अक्रिय गैस


(c) उपधातु


(d) संक्रमण तत्व


उत्तर (b) निऑन (Ne) एक अक्रिय गैस है।


प्रश्न 18. एक तत्व के क्लोराइड का सूत्र MCI, है। इसके ऑक्साइड का सूत्र है?


(a) MO₂


(b)MO


(c) M₂O₃


(d) M₂O


उत्तर (b) MO में तत्व M के क्लोराइड का सूत्र MCI, है अर्थात् इसमें M की संयोजकता +2 अत: इसके ऑक्साइड का सूत्र MO होगा।


प्रश्न 19. एक तत्व का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 1s², 2s² 2p⁶, 3s² 3p⁶ है| आवर्त सारणी में इसका स्थान होगा


अथवा परमाणु क्रमांक 17 वाले तत्व का आवर्त सारणी में स्थान है।


(a) आवर्त-3, वर्ग VA


(b) आवर्त -5, वर्ग II A


(c) आवर्त-3, वर्ग VIIA 


(d) आवर्त-2, वर्ग VIIA


उत्तर (c) परमाणु क्रमांक 17 वाले तत्व का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 2, 8, 7 है इस तत्व की तीसरी कक्षा में 7 इलेक्ट्रॉन हैं, अत: यह सातवें (VII A) समूह के तृतीय आवर्त का तत्व है।


प्रश्न 20. तत्व X, XCl, सूत्र वाला एक क्लोराइड बनाता है, जो एक ठोस है तथा जिसका गलनांक अधिक है। आवर्त सारणी में यह तत्व संभवतः किस समूह के अंतर्गत होगा?


(a) Na


(b) Mg


(c) Al


(d) Si


उत्तर (b) Mgक्लोराइड बनाते हैं।

Cl की संयोजकता 1 तथा Mg की 2 है अतः ये MgCl, सूत्र वाला



प्रश्न 21. आधुनिक आवर्त वर्गीकरण का आधार है


(a) परमाणु भार


(c) संयोजकता


(b) परमाणु क्रमांक


(d) रासायनिक क्रियाशीलता


उत्तर (b) मोजले ने सन् 1913 में परमाणु क्रमांक की खोज करने के पश्चात् यह सिद्ध किया कि परमाणु का आधारभूत गुण परमाणु क्रमांक है न कि परमाणु भार। इस आधार पर उसने एक नया नियम दिया, जिसे आधुनिक आवर्त नियम कहा जाता है। इस नियम के अनुसार, तत्वों के भौतिक तथा रासायनिक गुण उनके परमाणु क्रमांकों के आवर्ती फलन होते हैं।


प्रश्न 22. निरूपक तत्व है



(a) Na


(c) Sc


(b) K


(d) He


अथवा प्रारूपिक तत्व है।


(a) Na


(b) K


(c) Sc


(d) He


 उत्तर (a) आवर्त सारणी में तीसरे आवर्त के तत्व निरूपक तत्व कहलाते हैं। ये तत्व अपने-अपने समूह में उपस्थित अन्य तत्वों का आदर्श प्रतिनिधित्व करते हैं, अत: सोडियम (Na) प्रथम समूह का निरूपक तत्व है।


प्रश्न 23. विकर्ण सम्बन्ध के तत्व हैं



(a) Li तथा Be


(b) Li तथा Mg


(d) Al तथा Si


(c) Li तथा Na


उत्तर (b) Li के गुण Mg के गुणों के समान है। इस कारण लीथियम, मैग्नीशियम के साथ विकर्ण सम्बन्ध दर्शाता है। 


प्रश्न 24. Li विकर्ण सम्बन्ध दर्शाता है।



(a) Na के साथ


(b) K के साथ


(c) AI के साथ


(d) Mg के साथ


उत्तर (d) Mg के साथ, क्योंकि यह Li के विकर्णतः स्थित है।


प्रश्न 25. निम्न में से कौन-सा अधिक विद्युत धनी है?


(a) Na


(b) K


(c) Mg


(d) F


उत्तर (b) विद्युत धनी लक्षण परमाणु क्रमांक बढ़ने के साथ बढ़ते हैं इसलिए पोटैशियम (K) का धनविद्युती लक्षण सर्वाधिक है।



प्रश्न 26. सर्वाधिक धनविद्युती तत्व है 


(a) Na 


(b) Al


(C) F


(d) K




उत्तर (d) विद्युत धनी लक्षण परमाणु क्रमांक बढ़ने के साथ वर्ग में ऊपर से नीचे जाने पर बढ़ता जाता है इसलिए पोटैशियम (K) का धनविद्युती लक्षण सर्वाधिक है।


प्रश्न 27. किस तत्व का ऑक्साइड उभयधर्मी है?


(a) C के


(b) Na के


(c) Mg के


(d) Sn के


उत्तर (d) Sn के ऑक्साइड उभयधर्मी प्रकृति के होते हैं अर्थात् अम्ल तथा क्षार दोनों से क्रिया करते हैं।


प्रश्न 28. निम्न में से उभयधर्मी ऑक्साइड है



(a) Na₂0       (b) MgO


(c) Al₂O₃    (d) P₂O₅


उत्तर (c) Al₂0₃ उभयधर्मी ऑक्साइड है अर्थात् अम्लीय व क्षारीय दोनों प्रवृत्ति दर्शाता है।


प्रश्न 29. निम्न में अम्लीय ऑक्साइड है


(a) Al₂O₂


(b)K₂O


(C ) MgO


(d) P₂O₅



उत्तर (d) अधात्विक ऑक्साइड अम्लीय होते हैं तथा फॉस्फोरस (P) एक अधातु है। PO₅ जल में घुलकर अम्ल का निर्माण करता है।



प्रश्न 30. मुद्रा धातु है


(a) Zn


(b) Sn


(c) Pb 


(d) Cu


उत्तर (d) Cu को मुद्रा धातु कहते हैं क्योंकि इसका उपयोग मुद्रा के निर्माण में किया जाता है।



प्रश्न 31. निम्नलिखित में क्षारीय धातु है 


(b) Be


(a) Na


(c) Al


(d) Zn


उत्तर (a) सोडियम धातु आवर्त सारणी में तीसरे आवर्त के प्रथम वर्ग (समूह) का तत्व है। प्रथम वर्ग (समूह) के सदस्यों को क्षारीय धातुएँ कहा जाता है।




प्रश्न 32. तत्त्व जो क्षारीय ऑक्साइड बनाता है, का परमाणु क्रमांक है 


(a) 18 


(b) 17 


(c) 14


(d) 19


उत्तर (d) 19, जोकि पोटैशियम का परमाणु क्रमांक है तथा वर्ग-1 का सदस्य है। वर्ग-1 के सभी धातुएँ क्षारीय ऑक्साइड बनाते हैं।


प्रश्न 33. क्षार धातुएँ हैं


 (a) Be. Mg. Ca


(D) Li, Na. K


(c) B. AJ Ga.


(d) Cu. Ag. Au


उत्तर (b) प्रथम वर्ग के तत्वों को क्षार धातुएँ कहते हैं तथा Li, Na. K प्रथम वर्ग के सदस्य है अर्थात् क्षार धातुएं है।



प्रश्न 34. Li विकर्ण सम्बन्ध दर्शाता है



(a) Na के साथ


(b) K के साथ


(c) Al के साथ


(d) Mg के साथ


उत्तर- (d) Mg के साथ


प्रश्न 35. निरूपक (प्रारूपिक) तत्त्व है


(a) Na


(b) K


(c) Sc


(d) He


उत्तर- (a) Na


प्रश्न 36. निम्नलिखित में क्षारीय धातु है


(a) Na


(b) Be


(c) Al


(d) Zn


उत्तर- (a) Na


प्रश्न 37. उभयधर्मी ऑक्साइड है




(a) Na₂O


(b) MgO


(c) AI₂O₃


(d) PO₅


उत्तर- (c) Al₂O₃


प्रश्न 38. एक तत्त्व के क्लोराइड का सूत्र MCI₂है। इसके ऑक्साइड का सूत्र है



(a) MO₂


(b) MO


(c) M₂O₃


(d) M₂0


उत्तर- (b) MO


प्रश्न 39. एक तत्त्व M के कार्बोनेट का सूत्र MCO₃है। इसमें क्लोराइड का सूत्र होगा



(a) MCl₂


(c) MCI


(b) MCl₃


(d) M₂Cl




उत्तर- (a) MCI₂



लघुउत्तरीय प्रश्न



प्रश्न 1. Mg, Al, S, CI में कौन-सा तत्व अधिक विद्युत-ऋणी है व क्यों?



उत्तर ये सभी तृतीय आवर्त के तत्व हैं तथा Mg से Cl की तरफ परमाणु क्रमांक बढ़ने के साथ तत्व का आकार घटता जाता है अर्थात् बाएँ से दाएँ जाने पर विद्युत-ऋणात्मकता (इलेक्ट्रॉन को आकर्षित करने की क्षमता) का मान बढ़ता है। अतः Cl सर्वाधिक विद्युत-ऋणी है। 


प्रश्न 2. 11 Na तथा 12 Mg में किस तत्व के आयनन विभव का मान अधिक होगा? कारण दीजिए।


उत्तर आवर्त सारणी में बाएँ से दाएँ जाने पर परमाणवीय आकार घटता है। इसलिए Mg का परमाणवीय आकार Na से कम है, क्योंकि बाएँ से दाएँ जाने पर परमाणु क्रमांक में वृद्धि के साथ नाभिकीय आवेश में वृद्धि होती है तथा छोटे आकार के परमाणु से इलेक्ट्रॉन निकालने के लिए Na की अपेक्षा अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अत: Mg के आयनन विभव का मान Na से अधिक होता है।


प्रश्न 3. (i) क्षारीय मृदा तत्व पर टिप्पणी लिखिए।


अथवा क्षारीय मृदा तत्व क्या होते हैं?


(ii) किसी एक क्षारीय ऑक्साइड तथा उदासीन ऑक्साइड का सूत्र लिखिए। 


उत्तर 

(i) आवर्त सारणी के वर्ग-II के तत्व, जैसे-Be, Mg, Ca, Sr, Ba तथा Ra क्षारीय मृदा धातु कहलाते हैं। इनके ऑक्साइडों के क्षारीय गुण और मिट्टी में पाए जाने के कारण इन्हें क्षारीय मृदा तत्व कहा जाता है। 


(ii) क्षारीय ऑक्साइड - NazO; उदासीन ऑक्साइड – CO



प्रश्न 4. आवर्त सारणी के किसी आवर्त में बाएँ से दाएँ जाने पर निम्नलिखित गुणों में क्या परिवर्तन होता है?



 (i) परमाणु त्रिज्या


(iii) आयनन विभव



उत्तर (i) परमाणु त्रिज्या आवर्त में बाएँ से दाएँ जाने पर परमाणु त्रिज्या के मान में कमी आती है, क्योंकि आवर्त में बाएँ से दाएँ जाने पर नाभिकीय आवेश के मान में वृद्धि होती है (अर्थात्) नाभिकीय आकर्षण बल के में मान में वृद्धि होती है, परिणामस्वरूप त्रिज्या के मान में कमी आती है।



(iii) आयनन विभव आवर्त में बाएँ से दाएँ जाने पर आयनन विभव के मान में वृद्धि होती है, क्योंकि बाएँ से दाएँ जाने पर आवर्त में नाभिकीय आवेश में वृद्धि होने के कारण परमाणवीय आकार में कमी होती है। आवर्त सारणी में अक्रिय गैसों के आयनन विभव के मान उच्च होते हैं।


प्रश्न 5. द्वितीय आवर्त में बाएँ से दाएँ चलने पर तत्वों के निम्नलिखित गुण किस प्रकार परिवर्तित होते हैं?



(i) विद्युतऋणात्मकता


(ii) धात्विक प्रकृति


उत्तर (i) विद्युतऋणात्मकता किसी आवर्त (या द्वितीय आवर्त) में बाएँ से दाएँ जाने पर विद्युतऋणात्मकता के मान में वृद्धि होती है, अत: हैलोजन समूह के तत्व अधिक विद्युतऋणात्मक होते हैं।


(ii) धात्विक गुणों में परिवर्तन प्रत्येक आवर्त (या द्वितीय आवर्त) में बाएँ से दाएँ जाने पर तत्वों के परमाणु क्रमांकों में वृद्धि के साथ तत्वों की धात्विक प्रकृति घटती हैं। द्वितीय आवर्त में तत्वों की धात्विक प्रकृति निम्न प्रकार घटती है 


 धात्विक लक्षण घटता है

धातु   Li    Be    B    C    N   O   F अधातु

           



प्रश्न 6. Mg, Al, S, CI में कौन-सा तत्व अधिक विद्युत ऋणी है क्यों?



उत्तर ये सभी तृतीय आवर्त के तत्व हैं तथा Mg से Cl की तरफ परमाणु क्रमांक बढ़ने के साथ तत्व का आकार घटता जाता है अर्थात् बाएँ से दाएँ जाने पर विद्युतऋणात्मकता (इलेक्ट्रॉन को आकर्षित करने की क्षमता) का मान बढ़ता है। अत: Cl सर्वाधिक विद्युत ऋणी है। 





प्रश्न 7. क्या डॉबेराइनर के त्रिक, न्यूलैंड्स के अष्टक के स्तंभ में भी पाए जाते हैं? तुलना करके पता कीजिए। 


 उत्तर- हाँ, डॉबेराइनर के त्रिक, न्यूलैंड्स के अष्टक के स्तंभ में भी पाए जाते हैं। 


उदाहरणार्थ: Li, Na, K डॉबेराइनर के त्रिक हैं जो न्यूलैंड्स के अष्टक के 'रे' स्तंभ में उपस्थित हैं।




प्रश्न 8. डॉबेराइनर के वर्गीकरण की क्या सीमाएँ हैं?


उत्तर


(i) उस समय ज्ञात सभी तत्त्वों का वर्गीकरण डॉबेराइनर के त्रिक के आधार पर नहीं हो सका।


(ii) डॉबेराइनर केवल तीन तत्त्वों के त्रिक को उस समय पहचान सके। यही कारण है कि डॉबेराइनर के त्रिक को मान्यता प्राप्त नहीं हुई।


प्रश्न.9 न्यूलैंड्स के अष्टक सिद्धांत की क्या सीमाएँ हैं? 


 उत्तर


(1) यह नियम केवल Ca तक के परमाणु भार वाले तत्त्वों को वर्गीकृत कर पाता है। इसके बाद आठवाँ तत्त्व प्रथम तत्त्व से समानता प्रदर्शित नहीं करता है।


(ii) न्यूलैंड्स ने माना कि केवल 56 तत्त्व ही सम्भव हैं, अन्य तत्त्वों का आविष्कार नहीं हो सकता।


(iii) न्यूलैंड्स के अष्टक में कुछ ऐसे भी तत्त्व हैं जिनके गुणों में समानता नहीं पाई जाती है।


प्रश्न 10. आधुनिक आवर्त नियम लिखिए।


उत्तर- आधुनिक आवर्त नियम के अनुसार तत्त्वों के भौतिक तथा रासायनिक गुण उनके परमाणु क्रमांकों के आवर्ती फलन होते हैं।




लघु उत्तरीय प्रश्न      4 अंक


प्रश्न 1. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए।


(i) डोबेराइनर का त्रिक सिद्धान्त


 (ii) न्यूलैण्ड का अष्टक सिद्धान्त 


अथवा निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।


(i) न्यूलैण्ड का अष्टक नियम


(ii) निरूपक या प्रारूपिक तत्व


अथवा प्रारूपिक तत्व या निरूपक तत्व क्या हैं? इनकी विशेषताएँ लिखिए।




उत्तर


(i) डोबेराइनर का त्रिक नियम


डोबेराइनर ने समान गुण वाले तीन-तीन तत्वों के समूह बनाए तथा यह ज्ञात किया कि यदि समान गुण वाले तीन तत्वों को उनके बढ़ते हुए परमाणु

भार के क्रम में रखा जाए, तो बीच वाले तत्व का परमाणु भार पहले तथा तीसरे तत्व के परमाणु भारों के औसत के बराबर होता है। इस प्रकार के समूह डोबेराइनर के त्रिक समूह कहलाते हैं।



दोनों सिरों के तत्वों का औसत परमाणु भार = 7+39 = 23 2


अतः Na तत्व का परमाणु भार = 23


इसी प्रकार, क्लोरीन, ब्रोमीन एवं आयोडीन भी एक त्रिक का निर्माण करते हैं। उपरोक्त नियम सफल नहीं हो सका क्योंकि अधिकांश तत्वों के परमाणु भार त्रिक समूह नहीं बना सकें।



(ii) न्यूलैण्ड का अष्टक नियम


सन् 1863 में न्यूलैण्ड ने देखा कि यदि तत्वों को उनके परमाणु भारों के बढ़ते हुए क्रम में व्यवस्थित किया जाए, तो प्रत्येक आठवें तत्व के गुण पहले तत्व के गुणों से समानता प्रदर्शित करते हैं, जिस प्रकार संगीत में आठवें स्वर की ध्वनि प्रथम स्वर के समान होती है।





प्रश्न 2. संक्रमण तत्व किसे कहते हैं? इन तत्वों की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।


अथवा संक्रमण तत्वों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।


उत्तर संक्रमण तत्व वे तत्व जिनकी बाहरी दो उपकक्षाएँ पूर्णतया नियमानुसार भरी हुई नहीं होती हैं तथा वे परिवर्तनशील संयोजकता प्रदर्शित करते हैं, संक्रमण तत्व कहलाते हैं। VIII समूह के तत्व तथा इस प्रकार के सभी B उपसमूह के तत्व संक्रमण तत्व कहलाते हैं।


इनकी सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं



(i) संक्रमण तत्व रंगीन आयन बनाते हैं।


(ii) इन तत्वों में संकुल यौगिक बनाने की प्रवृत्ति पायी जाती है।


 (iii) ये तत्व परिवर्तनशील संयोजकता प्रदर्शित करते हैं।


(iv) इन तत्वों में रिक्त कक्षक होने के कारण ये उत्प्रेरक के रूप में कार्य करते हैं।


(v) इन तत्वों में अयुग्मित इलेक्ट्रॉन की उपस्थिति के कारण ये अनुचुम्बकीय प्रवृत्ति दर्शाते हैं




मेण्डेलीफ की मूल आवर्त सारणी किसे कहते हैं इसके गुण तथा दोष



मेण्डेलीफ की आवर्त सारणी 





अब तक हमें 116 तत्वों की जानकारी है तथा इनमें से 94 तत्व प्राकृतिक रूप में पाए जाते हैं। तत्वों के वर्गीकरण में डोबेराइनर, न्यूलैण्ड, मेण्डेलीफ तथा बोहर आदि वैज्ञानिकों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान है।


मेण्डेलीफ की मूल आवर्त सारणी


 इसके अनुसार, तत्वों के भौतिक एवं रासायनिक गुणधर्म उनके परमाणु भारों के आवर्ती फलन होते हैं अर्थात् तत्वों को उनके बढ़ते परमाणु भारों के क्रम में व्यवस्थित करने पर एक निश्चित समयान्तराल पर गुणों की पुनरावृत्ति होती है।


मेण्डेलीफ की मूल आवर्त सारणी के मुख्य तथ्य


मेण्डेलीफ की मूल आवर्त सारणी के मुख्य तथ्य निम्नलिखित हैं


(i) इस सारणी में तत्वों को परमाणु भार (सामान्य लक्षण) के बढ़ते क्रम में रखा गया है।


(ii) इस सारणी में 12 क्षैतिज पंक्तियाँ (Horizontal rows) या श्रेणियाँ (Series) एवं 8 ऊर्ध्वाधर स्तम्भ (Vertical columns) या समूह या वर्ग (Groups) हैं।


(iii) एक समूह के सभी तत्वों के गुण समान होते हैं।


(iv) तत्वों को क्रमबद्ध करते समय यह ध्यान रखा गया है कि समान गुणों वाले तत्व एक ही समूह में रहें, ऐसा करने हेतु कहीं-कहीं एक रिक्त स्थान छोड़ा गया है।


मेण्डेलीफ आवर्त सारणी की उपलब्धियाँ


(i) तत्वों के गुणों का क्रमबद्ध अध्ययन इस सारणी से तत्वों के गुणों का अध्ययन सरल हो गया, क्योंकि समान गुणों वाले तत्वों को एक ही समूह में रखा गया है।


(ii) नए तत्वों की खोज इस सारणी में मेण्डेलीफ ने कई खाली स्थान छोड़ दिए थे क्योंकि उनके अनुसार, इन स्थानों के तत्व भविष्य में खोजे जाने थे अर्थात् इन तत्वों के गुणों तथा परमाणु की भविष्यवाणी हो चुकी थी। बाद में ये सभी तत्व खोजे गए व इनके गुण भी वही मिले, जो मेण्डेलीफ द्वारा बताए गए थे। उदाहरण स्कैण्डियम (44.96), गैलियम (69.72) तथा जर्मेनियम (72.59) ऐसे ही तीन तत्व हैं। गैलियम व जर्मेनियम को प्रारम्भ में क्रमश: एका-ऐलुमिनियम (Eka-aluminium) तथा एका-सिलिकॉन (Eka-silicon) नाम दिया गया था।


(iii) परमाणु भारों एवं संयोजकता में संशोधन यह सारणी बनाते समय मेण्डेलीफ ने अनेक तत्वों के परमाणु भारों में संशोधन किया।


चूँकि परमाणु भार = तुल्यांकी भार ×संयोजकता


एवं Be का तुल्यांकी भार = 4.5


अतः इसे त्रिसंयोजी मान कर इसका परमाणु भार = 4.5 x 3 = 13.5 माना गया। परन्तु इसके गुण द्वितीय समूह के समान पाए गए, अतः इसकी संयोजकता में संशोधन करके Be की संयोजकता 2 की गई और सही परमाणु भार 4.5 x 2 = 9 प्राप्त किया। अतः इसे द्वितीय समूह में स्थान दिया गया।


(iv) तत्वों के गुणों में समानता के आधार पर सारणी बनाते समय मेण्डेलीफ ने कुछ स्थानों पर अधिक परमाणु भार के तत्वों को कम परमाणु भार के तत्वों से पहले रखा।


(v) अक्रिय गैसों (He, Ne, Ar आदि) की खोज बाद में हुई। अतः इन्हें एक नए वर्ग में अलग स्थान दिया गया।



मेण्डेलीफ की मूल आवर्त सारणी के दोष



(i) असमान गुणों वाले तत्वों को एक ही समूह में रखना।


 (ii) समान गुणों वाले तत्वों को भिन्न-भिन्न समूहों में रखना।


(iii) भारी तत्वों को हल्के तत्वों से पहले रखना।


(iv) समस्थानिकों तथा समभारिकों का स्थान


(v) आठवें समूह के तत्वों को तीन उर्ध्वाधर स्तम्भों में रखा जाना।











आधुनिक आवर्त सारणी किसे कहते हैं इसकी विशेषताएं


मोजले की आवर्त सारणी




आधुनिक आवर्त सारणी


हेनरी मोजले ने सन् 1913 में परमाणु क्रमांक की खोज करने के पश्चात् यह सिद्ध किया, कि परमाणु का आधारभूत गुण परमाणु क्रमांक है, न कि परमाणु भार। इस आधार पर उसने एक नया (संशोधित) नियम दिया, जिसे आधुनिक आवर्त नियम कहा जाता है।


इस नियम के अनुसार, तत्वों के भौतिक तथा रासायनिक गुण उनके परमाणु क्रमांकों के आवर्ती फलन होते हैं। अर्थात् तत्वों को उनके बढ़ते परमाणु क्रमांकों के क्रम में व्यवस्थित करने पर एक निश्चित समयान्तराल के पश्चात् गुणों की पुनरावृत्ति होती है।


तृतीय आवर्त के तत्व प्रारूपिक तत्व कहलाते हैं, क्योंकि ये अपने-अपने वर्गों के मुख्य लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं।


उदाहरण Na (प्रथम वर्ग/तृतीय-आवर्त) प्रारूपिक तत्व है।


प्रारूपिक तत्वों की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं


(a) ये अपने समूह की संयोजकता को दर्शाते हैं।


 (b) ये समूह के विद्युत रासायनिक लक्षणों को प्रकट करते हैं।




आधुनिक आवर्त सारणी के गुण


 आधुनिक आवर्त सारणी में 18 ऊर्ध्वाधर कॉलम जिन्हें वर्ग कहते हैं तथा 7 क्षैतिज पंक्ति होती हैं जिन्हें आवर्त कहते हैं।





वर्ग की विशेषताएँ


आधुनिक आवर्त सारणी में वर्गों की विशेषताएँ (गुण) निम्नलिखित हैं 


1• वर्गों को उपवर्गों में विभाजित नहीं किया गया है।


2.किसी वर्ग के सभी तत्वों के संयोजी इलेक्ट्रॉनों की संख्या समान होती है। 


3. तत्वों के भौतिक गुणों (जैसे-गलनांक, क्वथनांक, घनत्व, आदि) में क्रमिक परिवर्तन होता है।


4. किसी वर्ग के सभी तत्वों की संयोजकता समान होती है।



आवतों की विशेषताएँ


आधुनिक आवर्त सारणी में आवर्त की विशेषताएँ (गुण) निम्नलिखित हैं


1.आवर्त में तत्वों के संयोजी इलेक्ट्रॉनों की संख्या समान नहीं होती, परन्तु कक्षकों की संख्या समान रहती है।


2• संयोजी कक्षक में बाएँ से दाएँ जाने पर परमाणु क्रमांक में एक यूनिट की वृद्धि के साथ संयोजी इलेक्ट्रॉनों की संख्या में भी एक यूनिट की वृद्धि होती है। अतः भिन्न तत्वों के परमाणु, जिनके कक्षकों की संख्या समान हो, समान आवर्त में रखे जाते हैं।


3• संयोजी कक्षकों में इलेक्ट्रॉनों की संख्या बदलने के साथ ही तत्वों के रासायनिक गुण बदल जाते हैं।


4• विभिन्न आवर्तो में, इलेक्ट्रॉनों की संख्या भिन्न हो सकती है, इसे कक्षकों में इलेक्ट्रॉनों के भरने के आधार पर समझाया जा सकता है। किसी कक्षक में इलेक्ट्रॉनों की अधिकतम संख्या 2n² हो सकती है।

 जहाँ, n = दिए गए परमाणु के कक्षकों की संख्या है।


जैसे-K- कक्षक (कोश) = 2 x (1)² = 2 (अति लघु आवर्त)


L- कक्षक (कोश) = 2 x (2)² = 8 (लघु आवर्त)


M- कक्षक (कोश) = 2 × (3)² = 18 (दीर्घ आवर्त) परन्तु अन्तिम कक्षा में अधिकतम केवल 8 इलेक्ट्रॉन हो सकते हैं अतः इसे लघु आवर्त कहा जाता है।


5.चतुर्थ एवं पाँचवें आवर्त में 18 तत्व होते हैं एवं इन्हें दीर्घ आवर्त कहा जाता है।



6. छठें तथा सातवें आवर्त में 32 तत्व हो सकते हैं, अतः इन्हें भी दीर्घ आवर्त कहा जाता है।




दीर्घाकार या प्रवर्धित आवर्त सारणी


(i) दीर्घाकार आवर्त सारणी में मेण्डेलीफ की आवर्त सारणी की भाँति ही क्षैतिज पंक्तियों की संख्या 7 है जिन्हें आवर्त कहते हैं परन्तु वर्गों की कुल संख्या 18 है।


(ii) इस आवर्त सारणी में परमाणु क्रमांक 58 से 71 तक के तत्वों को लैन्थेनॉइड व 90 से 103 तक के तत्वों को ऐक्टिनॉइड के रूप में सारणी से बाहर रखा गया है।


(iii) इस सारणी में शून्य वर्ग को अक्रिय गैस कहा जाता है। 


(iv) इस सारणी में वर्ग-1 (H को छोड़कर) के तत्वों को क्षार धातु तथा वर्ग-2 के तत्वों को क्षारीय मृदा धातुएँ कहते हैं।


(v) इस सारणी में वर्ग-13, 14, 15, 16 तथा 17 के तत्वों को सामान्य तत्व कहा जाता है, जिनमें धातु, अधातु एवं उपधातु सम्मिलित हैं तथा सारणी में वर्ग-3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 तथा 12 के तत्वों को संक्रमण तत्व कहते हैं। वर्ग-11 के तत्वो को मुद्रा या सिक्का धातु भी कहा जाता है, क्योंकि इनका उपयोग मुद्रा के निर्माण में किया जाता है। 


(vi) दीर्घाकार आवर्त सारणी में अधिक धात्विक लक्षण वाले तत्वों को बाएँ ओर तथा अधिक अधात्विक लक्षण वाले तत्वों को दाएँ ओर रखा गया है।





प्रश्न . दीर्घाकार आवर्त सारणी की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।



या दीर्घाकार आवर्त-सारणी के चार गुण लिखिए। 


उत्तर- दीर्घ आवर्त सारणी की प्रमुख विशेषताएँ


1. यह सारणी तत्त्वों के अधिक मौलिक गुण (परमाणु क्रमांक) पर आधारित है।


2. इसमें तत्त्वों की स्थिति का सीधा सम्बन्ध उसके परमाणुओं के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास से है; अतः यह एक अति आदर्श प्रबन्ध है।


3. इससे तत्त्वों के रासायनिक गुणों में समानता, भिन्नता तथा अन्य क्रमिक परिवर्तनों का स्वयं ही आभास हो जाता है।


4. इस आवर्त सारणी को याद करना सरल है।


5. इसमें उप-समूहों को बिल्कुल ही पृथक कर दिया गया है तथा उप-समूहों के अन्तर्गत सभी तत्त्व परस्पर समानता दर्शाते हैं।


6. इस सारणी में आगे और भी विभाजन किये गये हैं: जैसे—सक्रिय तत्त्व, संक्रमण तत्त्व, विरल मृदा धातु (लैन्थेनाइड) व रेडियो-ऐक्टिव धातु (ऐक्टिनाइड), उपधातु आदि।



विकर्ण सम्बंध किसे कहते हैं परिभाषा उदाहरण सहित





विकर्ण सम्बन्ध


आवर्त सारणी के दूसरे व तीसरे लघु आवर्गों में 8-8 तत्व हैं। इन द्वितीय व तृतीय


आवर्गों के कुछ तत्वों में विकर्ण सम्बन्ध हैं अर्थात् विकर्ण के सिरों पर स्थित दोनों


तत्वों के गुणों में समानता पायी जाती है, इसे विकर्ण सम्बन्ध कहा जाता है।


दूसरा आवर्त      Li       Be        B         C



तीसरा आवर्त    Na      Mg       Al         Si



विकर्ण सम्बन्ध के कारण, Li के गुण Mg के गुणों से समानता दर्शाते हैं, Be के गुण AI के गुणों से तथा B के गुण Si के गुणों के साथ समानता दर्शाते हैं।



                   अथवा 



विकर्ण सम्बन्ध


s- तथा p-ब्लॉक तत्वों में किसी वर्ग के दूसरे आवर्त का तत्व अपने वर्ग के शेष तत्वों की अपेक्षा अगले वर्ष के तीसरे आवर्त के तत्व के साथ अधिक समानता प्रदर्शित करता है, जिसे विकर्ण सम्बन्ध कहते हैं।


उदाहरण


Li            Be            B               C              N


Na         Mg           AI               Si              P




मेण्डेलीफ के आवर्त नियम और आधुनिक आवर्त नियमों के अन्तर को लिखिए।


उत्तर आधुनिक आवर्त नियम तत्वों के परमाणु क्रमांकों पर, जबकि मेण्डेलीफ का आवर्त नियम परमाणु भारों पर आधारित है। आवर्त के लक्षण



(i) आवर्त सारणी के आवर्त में तत्वों की संयोजकता बाएँ से दाएँ जाने पर मध्य तक बढ़ती है, तत्पश्चात घटती है।


(ii) आवर्त में तत्वों के धात्विक गुण बाएँ से दाएँ जाने पर घटते हैं।





मेन्डेलीफ की आवर्त सारणी एवं आधुनिक आवर्त सारणी में तत्वों की व्यवस्था की तुलना कीजिए।


उत्तर





मेन्डेलीफ की आवर्त सारणी

आधुनिक आवर्त सारणी

तत्वों को बढ़ते हुए परमाणु द्रव्यमानों के क्रम में व्यवस्थित किया गया है।

तत्वों को बढ़ते हुए परमाणु क्रमांकों के क्रम में व्यवस्थित किया गया है।

इसमें 8 समूह तथा 6 आवर्त हैं।

इसमें 18 समूह तथा 7 आवर्त हैं।

इसमें 7 समूहों को A तथा B उपसमूहों में बाँटा गया है।

इसमें समूहों को उपसमूहों में नहीं बाँटा गया है।




प्रश्न (i) क्षारीय मृदा तत्व पर टिप्पणी लिखिए।


अथवा क्षारीय मृदा तत्व क्या होते हैं?



(ii) किसी एक क्षारीय ऑक्साइड तथा उदासीन ऑक्साइड का सूत्र लिखिए।




उत्तर (i) आवर्त सारणी के वर्ग-II के तत्व; जैसे- Be, Mg, Ca, Sr, Ba तथा Ra क्षारीय मृदा धातु कहलाते हैं। इनके ऑक्साइडों के क्षारीय गुण और मिट्टी में पाए जाने के कारण इन्हें क्षारीय मृदा तत्व कहा जाता है। 


(ii) क्षारीय ऑक्साइड – Nag O; 


उदासीन ऑक्साइड – CO 





इलेक्ट्रॉनिक विन्यास की सहायता से किसी तत्व की आवर्त सारणी में स्थिति ज्ञात करना




इसके लिए सर्वप्रथम दिए गए तत्व का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास लिखते हैं। इलेक्ट्रॉनिक विन्यास में उपस्थित कोशों की संख्या तत्व की आवर्त संख्या को दर्शाती है। इलेक्ट्रॉनिक विन्यास द्वारा प्रदर्शित संयोजी इलेक्ट्रॉनों की संख्या तत्व की वर्ग संख्या को दर्शाती है।


 उदाहरण परमाणु क्रमांक 19 वाले तत्व का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 2, 8, 8. 1 है। चूँकि इसमें चार कोश उपस्थित हैं अतः यह चतुर्थ आवर्त का तत्व है। अन्तिम कोश में एक इलेक्ट्रॉन की उपस्थिति के कारण इसकी वर्ग संख्या 1 (IA) है। एक इलेक्ट्रॉन का दान करने के पश्चात् यह स्थायी विन्यास प्राप्त कर लेता है अतः इसकी संयोजकता भी 1 है।






up ncert class 10 science chapter 6 Life Processes full solutions notes in hindi


यूपी बोर्ड कक्षा 10 विज्ञान अध्याय 6 जैव प्रक्रम का सम्पूर्ण हल 





            अध्याय – 6

जैव प्रक्रम (Life Processes)



 महत्वपूर्ण परिभाषा



1.अनुरक्षण कार्य में भाग लेने वाले सभी प्रक्रमों को सम्मिलित रूप से जैव प्रक्रम कहते हैं।


2.भोजन ग्रहण करने से लेकर, पाचन, अवशोषण, कोशिकाओं तक परिवहन, ऊर्जा उत्पादन में इनका उपयोग, स्वांगीकरण तथा भविष्य के लिए शरीर में इन पदार्थों का संचय होने तक की सम्पूर्ण क्रियाओं को सम्मिलित रूप से पोषण कहते हैं।


3.स्वपोषी पोषण (autotrophic nutrition) में जीव अपना भोजन सरल अकार्बनिक पदार्थों व ऊर्जा का उपयोग करके स्वयं बनाते हैं।


4.हरे पौधे अपना भोजन पर्णहरिम की सहायता से सूर्य के प्रकाश में, कार्बन डाइऑक्साइड व जल द्वारा स्वयं बनाते हैं। यह प्रक्रिया प्रकाश-संश्लेषण कहलाती है।


5.विषमपोषी पोषण (hetrotrophic nutrition) अन्तर्गत वे सभी जीव आते हैं जो अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते अर्थात् हरे पौधों को छोड़कर अन्य सभी जीव।


6. सभी जीवों में कोशिकीय स्तर पर ऑक्सीजन की उपस्थिति में जैविक ऑक्सीकरण (biological oxidation) की क्रिया को श्वसन कहते हैं।


7.हमारे शरीर में भोज्य पदार्थों, वर्ज्य पदार्थों ऑक्सीजन कार्बन डाइऑक्साइड तथा लवण आदि का परिवहन रुधिर द्वारा होता है।


8.आंतरिक परिवहन हेतु मनुष्य में दो प्रकार का परिसंचरण तंत्र (circulatory system) होता है, जिन्हें रुधिर परिसंचरण तंत्र (blood vascular system) एवं लसीका परिसंचरण तंत्र (lympatic circulatory system) कहते हैं।


9.मानव में उत्सर्जी अंग के रूप में एक जोड़ी वृक्क एक मूत्र वाहिनी, एक मूत्राशय तथा एक मूत्र मार्ग होता है।




बहुविकल्पीय प्रश्न   1 अंक




प्रश्न 1. केवल जल में घुलनशील होता है।


 (a) विटामिन-A


 (b) विटामिन-D


(c) विटामिन-K 


(d) विटामिन-C


उत्तर (d) विटामिन-C जल में घुलनशील होता है।


प्रश्न 2. स्वपोषी पोषण के लिए आवश्यक हैं


 (a) कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल


(b) क्लोरोफिल


(c) सूर्य का प्रकाश


(d) उपरोक्त सभी


उत्तर (d) स्वपोषी पोषण के लिए ये सभी, जैसे- पर्णहरित, सूर्य का प्रकाश, कार्बन डाइऑक्साइड व जल आवश्यक है।


प्रश्न 3. पादपों में प्रकाश-संश्लेषण द्वारा भोजन का निर्माण होता है 


 (a) जड़ में 


(b) पत्ती में


 (d) तने में 


(d) पुष्प में



उत्तर (b) प्रायः पादपों की पत्तियों में प्रकाश-संश्लेषण द्वारा भोजन का निर्माण होता है।




प्रश्न 4. प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न होने वाली ऑक्सीजन गैस कहाँ से प्राप्त होती है? 


(a) कार्बन डाइऑक्साइड से 


(b) जल से


(c) वायु से 


(d) पर्णहरिम के विघटन से 


उत्तर (b) प्रकाश संश्लेषण क्रिया में मुक्त O₂का स्रोत जल होता है।


प्रश्न 5. हरितलवक के स्ट्रोमा में कौन-सी क्रिया होती है?


(a) प्रकाशिक अभिक्रिया 


(b) अप्रकाशिक अभिक्रिया


 (d) इनमें से कोई नहीं


(c) दोनों (a) व (b)


उत्तर (b) हरितलवक के स्ट्रोमा में प्रकाश की अनुपस्थिति में अप्रकाशिक अभिक्रिया (कैल्विन चक्र) सम्पन्न होती है।



प्रश्न 6. द्वार कोशिकाएँ पाई जाती हैं 


(a) जड़ों में 


(b) रन्ध्रों में 


(c) वात रन्ध्रों में 


(d) इन सभी में 


उत्तर (b) रन्ध्रों में दो सेम के बीज के आकार की द्वार कोशिकाएँ पाई जाती हैं।


प्रश्न 7. पादपों में वायु प्रदूषण कम करने वाली प्रक्रिया है


(a) श्वसन


(b) प्रकाश-संश्लेषण


(c) वाष्पोत्सर्जन 


(d) प्रोटीन



उत्तर (b) प्रकाश-संश्लेषण द्वारा वायुमण्डल का शुद्धिकरण (ऑक्सीजन की मुक्ति) होता है, जिससे प्रदूषण में कमी आती है।


प्रश्न 8. प्रत्येक जबड़े में अग्रचर्वणकों की संख्या होती है 


(a) एक जोड़ी


 (b) दो जोड़ी


 (c) तीन जोड़ी 


(d) चार जोड़ी



उत्तर (b) प्रत्येक जबड़े में अग्रचर्वणकों की संख्या दो जोड़ी होती हैं। 


प्रश्न 9. मनुष्य में दूध के दाँतों की संख्या कितनी होती है? 


(a) 20


 (b) 24 


(c) 28


 (d) 32



उत्तर (a) शिशुओं में दूध के दाँत 20 होते हैं, इनमें मुख्यतया अग्रचर्वणक दाँत नहीं पाए जाते हैं।


प्रश्न 10. निम्नलिखित में से मनुष्य की लार में पाया जाता है 


(a) टायलिन


(b) लाइसोजाइम


(C) पेप्सिन


(d) दोनों (a) व (b)


उत्तर (d) मनुष्य की लार में टायलिन तथा लाइसोजाइम दोनों एन्जाइम पाए जाते हैं, जिसमें टायलिन मण्ड पर क्रिया करके उसे शर्करा में बदल देता है तथा लाइसोजाइम जीवाणुओं को नष्ट करता है।


प्रश्न 11. ग्रासनली द्वार पर लटकी पत्ती के समान उपास्थि रचना कहलाती है


(a) एपीफैरिंक्स 


(b) घांटीढापन 


(c) एल्वियोलाई 


(d) श्लेष्मावरण 


उत्तर (b) ग्रासनली द्वार पर पत्ती के समान लटकी हुई उपास्थि की बनी संरचना घांटीढापन कहलाती है। ये भोजन को श्वासनली में जाने से रोकती है।


प्रश्न 12.आहारनाल की 'C' के आकार की संरचना है 


(a) आमाशय


(b) ग्रहणी


(c) ग्रसनी


(d) कृमिरूप परिशेषिका


उत्तर (b) आहारनाल की 'C' के आकार की संरचना ग्रहणी कहलाती है।। यह लगभग 25 सेमी लम्बी होती है।


प्रश्न 13.कृमिरूप परिशेषिका का भाग है।



(a) छोटी ऑत 


(b) अग्न्याशय


(c) बड़ी आँत


 (d) ग्रासनली 


उत्तर (c) बड़ी आँत में सीकम से लगभग 7-10 सेमी लम्बी कृमिरूपी परिशेषिका जुड़ी रहती है, जो सेलुलोस के पाचन में मदद करती है।



 प्रश्न 14. यकृत स्रावित करता है


(a) लार 


(b) अग्न्याशय रस


(c) जठर रस


(d) पित्तरस


 


उत्तर (d) यकृत से पित्तरस का स्त्रावण होता है।


प्रश्न 15. पित्तरस का स्त्राव होता है।



 (a) पित्ताशय में 


(b) यकृत में


(b) अग्न्याशय रस


(d) अग्न्याशय में 



प्रश्न 16. अग्न्याशयी रस किसके पाचन में सहायक होता है?



(a) प्रोटीन के


(b) प्रोटीन एवं वसा के


(C) प्रोटीन एवं कार्बोहाइड्रेट के


(d) इन सभी के


उत्तर (d) अग्न्याशयी रस प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और वसा सभी के पाचन में सहायक होता है। इस कारण इसे पूर्ण पाचक रस कहा जाता है।




प्रश्न 17. पित्त का निर्माण होता है


(a) पित्ताशय


(b) यकृत


(c) अग्न्याशय


(d) वृषण


उत्तर (b) पित्त का निर्माण यकृत द्वारा होता है, जोकि बाद में पित्ताशय में संचयित होता है।




प्रश्न 18 . ग्लाइकोजेनेसिस क्रिया में बनता है


(a) ग्लूकोस


(b) ग्लाइकोजन 


(c) विटामिन्स


 (d) प्रोटीन्स



उत्तर (b) ग्लाइकोजेनेसिस की क्रिया में यकृत अतिरिक्त ग्लूकोस को ग्लाइकोजन में बदल देता है।





अतिलघु उत्तरीय प्रश्न         2 अंक



प्रश्न 1. सन्तुलित आहार किसे कहते हैं?


उत्तर – वह भोजन, जिसमें भोजन के सभी घटक (वसा, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन, प्रोटीन, खनिज लवण तथा जल) आवश्यक तथा सन्तुलित मात्रा में उपस्थित हों, सन्तुलित आहार कहलाता है।



प्रश्न 2. पोषण को परिभाषित कीजिए तथा मृतोजीवी एवं परजीवी पोषण में अन्तर बताइए।


उत्तर – जीवों द्वारा भोजन तथा अन्य खाद्य पदार्थों के पाचन से पोषक तत्वों को प्राप्त करने की क्रिया को पोषण कहते हैं। मृतोजीवी जीव मृत कार्बनिक पदार्थों के अपघटन से ऊर्जा प्राप्त करते हैं

 (उदाहरण- कुछ जीवाणु, कवक), जबकि परजीवी बड़े पोषद् (Host) पर आश्रित रहते हुए उनसे निरन्तर पोषण प्राप्त करते हैं (उदाहरण- टीनिया, जोंक, अमरबेल ) 


प्रश्न 3. स्वपोषी पोषण क्या है? उदाहरण देकर संक्षेप में समझाइए । 


 अथवा स्वपोषी पोषण के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ कौन-सी है? इसके उपोत्पाद या अन्तिम उत्पाद क्या है?



उत्तर – स्वपोषण का शाब्दिक अर्थ है स्वयं को पोषित करना, जैसे-हरे पादप कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) और जल (H₂O) से प्रकाश तथा पर्णहरिम की उपस्थिति में प्रकाश-संश्लेषण क्रिया द्वारा अपने भोज्य पदार्थों का निर्माण स्वयं कर लेते हैं। इस प्रकार वे जीव, जो अपने भोजन का निर्माण स्वयं करते हैं, स्वपोषी कहलाते हैं तथा ऐसा पोषण स्वपोषी पोषण कहलाता है। पृथ्वी पर पाए जाने वाले अधिकांश पौधे स्वपोषित हैं। स्वपोषण के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ जल, कार्बन डाइऑक्साइड, पर्णहरित व सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति होती है और इसके उपोत्पाद ग्लूकोस व ऑक्सीजन है।


पर्णहरित


6CO₂ +12H₂O जल सूर्य का प्रकाश →C₂H₁₂0₆+ 6H₂O+ 60₂ ग्लूकोस जल ऑक्सीजन


कार्बनडाइ ऑक्साइड


प्रश्न 4. वसा का पाचन आहारनाल के किस भाग में होता है? उस पाचक रस का नाम लिखिए, जो वसा के पाचन में सहायक होता है? 


अथवा हमारे शरीर में वसा का पाचन कैसे होता है? यह प्रक्रम कहाँ होता है?



उत्तर – वसा का पाचन मुख्य रूप से आहारनाल की छोटी आँत में होता है। ग्रहणी में पित्त रस द्वारा वसा का इमल्सीकरण होता है तथा छोटी आँत में पाए जाने वाले लाइपेज एन्जाइम द्वारा वसा का पाचन किया जाता है। यह भोजन की वसा को वसीय अम्ल तथा ग्लिसरॉल के अणुओं में विखण्डित कर देता है। 


लघु उत्तरीय प्रश्न 4 अंक




प्रश्न 1. जैव क्रियाएँ किसे कहते हैं? इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए। ये कितने प्रकार की होती है?



उत्तर समस्त जीवधारियों में उसकी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु शरीर में कुछ संश्लेषणात्मक एवं विश्लेषणात्मक क्रियाएँ सदैव चलती रहती हैं, जो जीव को जीवित बनाए रखने के लिए आवश्यक होती हैं, इन्हें जैविक क्रियाएँ कहते हैं; जैसे-पोषण, श्वसन, परिवहन, उत्सर्जन, वृद्धि, जनन, आदि। जैविक क्रियाओं का नियन्त्रण विशेष प्रकार से होता है। जीवधारी विभिन्न प्रकार से इन क्रियाओं को सम्पादित करते हैं, फिर भी इनमें मौलिक समानता पाई जाती है। जन्तुओं और पौधों में होने वाली समस्त जैविक क्रियाएँ मूलतया समान होती हैं। निम्न श्रेणी के जीवधारियों में जैविक क्रियाओं का संचालन सरल और उच्च श्रेणी के जीवधारियों में जैविक क्रियाओं का संचालन जटिल होता है।


जीवों में होने वाली समस्त जैव-रासायनिक अभिक्रियाओं को दो समूहों में बाँट लेते हैं


(i) अपचयी क्रियाएँ इन जैव क्रियाओं में जटिल कार्बनिक पदार्थ सरल कार्बनिक पदार्थों में विखण्डित हो जाते हैं; जैसे- पाचन, श्वसन, आदि।


 (ii) उपचयी क्रियाएँ इन जैव प्रक्रियाओं में सरल कार्बनिक पदार्थों से जटिल कार्बनिक पदार्थों का सश्लेषण होता है; जैसे- पौधों में प्रकाश-संश्लेषण, जन्तुओं में प्रोटीन, वसा, न्यूक्लिक अम्ल, आदि का संश्लेषण।





प्रश्न 2. प्रकाश-संश्लेषण की परिभाषा लिखिए तथा इसकी रासायनिक अभिक्रिया का समीकरण दीजिए।


अथवा प्रकाश-संश्लेषण की प्रणाली की व्याख्या कीजिए।




उत्तर 'प्रकाश-संश्लेषण वह जैव-रासायनिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा सरल अकार्बनिक यौगिकों; जैसे- कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल को प्रकाशीय ऊर्जा (सूर्य का प्रकाश) तथा पर्णहरिम की उपस्थिति में कार्बोहाइड्रेट्स (ग्लूकोस) के रूप में बदल दिया जाता है।'


इसे निम्न समीकरण द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है


                सूर्य का प्रकाश

6CO₂ + 12H₂O → C₆H₁₂0₆+ 6H₂O + 6 0₂

डाइऑक्साइड

                     पर्णहरिम     ग्लूकोस



इस क्रिया में ऑक्सीजन मुक्त होती है। यहाँ उत्पन्न कार्बोहाइड्रेट को पादपों में ऊर्जा की आवश्यकता अनुसार श्वसन में उपयोग कर लिया जाता है तथा शेष ग्लूकोस मण्ड के रूप में संचित होकर खाद्य भण्डारण का निर्माण करता है।


प्रश्न 3. पित्तरस क्या है? यह रस कहाँ स्त्रावित तथा एकत्र होता है?


 उत्तर पित्तरस यकृत की कोशिकाओं में बनता है। यह पित्ताशय नामक संरचना में संचित रहता है, जोकि यकृत के नीचे स्थित होती है। पित्तरस में पाचक एन्जाइम उपस्थित नहीं होते हैं, किन्तु यह वसा के पाचन में सहायक है। 


प्रश्न 4. मानव शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि का नाम लिखिए तथा उसके कार्य का वर्णन कीजिए।



उत्तर –  मानव शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि यकृत होती है।


चकृत के कार्य


i.पित्त रस का स्रावण करना


ii.यूरिया का संश्लेषण करना।


iii.हिपेरिन प्रतिस्कन्दन कारक का प्रावण


iv.ग्लाइकोजन का संचय करना। 


प्रश्न 5. पाचन क्रिया भौतिक क्रिया है अथवा रासायनिक क्रिया है। 


उत्तर पाचन क्रिया मुख्यतया एक रासायनिक क्रिया है, साथ-ही-साथ इसमें कुछ भौतिक क्रियाएँ भी सम्पन्न होती हैं।


(i) रासायनिक पाचन इसके अन्तर्गत पाचक ग्रन्थियों द्वारा स्त्रावित रस के एन्जाइम्स जटिल अघुलनशील भोज्य पदार्थों को सरल घुलनशील इकाइयों में तोड़ देते हैं।


(ii) यान्त्रिक या भौतिक पाचन इसमें भोजन को चबाना, आमाशय में भोजन की लुगदी बनाना, आहारनाल में क्रमाकुंचन गति (पेशीय संकुचन) के कारण भोजन को आगे खिसकाना, आदि सम्मिलित हैं।


प्रश्न 6. क्रमाकुंचन से आप क्या समझते हैं?


अथवा आहारनाल में होने वाली क्रमाकुंचन गति का क्या लाभ है?




उत्तर – आहारनाल में होने वाली क्रमाकुंचन गति भोजन को पाचन नलिका में सुगमता से (लेई के समान) आगे बढ़ाने में सहायक होती है। आमाशय में यह भोजन के पाचन में सहायक भी होती है। क्रमाकुंचन गति स्वायत्त तन्त्रिका के नियन्त्रण में एक प्रतिवर्ती क्रिया के रूप में होती है।




प्रश्न 7. वसा का पाचन आहारनाल के किस भाग में होता है? उस पाचक रस का नाम लिखिए, जो वसा के पाचन में सहायक होता है? 


 अथवा हमारे शरीर में वसा का पाचन कैसे होता है? यह प्रक्रम कहाँ होता है?



उत्तर – वसा का पाचन मुख्य रूप से आहारनाल की छोटी आँत में होता है। ग्रहणी में पित्त रस द्वारा वसा का इमल्सीकरण होता है तथा छोटी आँत में पाए जाने वाले लाइपेज एन्जाइम द्वारा वसा का पाचन किया जाता है। यह भोजन की वसा को वसीय अम्ल तथा ग्लिसरॉल के अणुओं में विखण्डित कर देता है। 



प्रश्न 8. पोषण क्या है? स्वपोषी पोषण की परिभाषा लिखिए। यह कितने प्रकार का होता है, प्रत्येक का एक-एक उदाहरण भी लिखिए? 


 अथवा स्वपोषी पोषण से आप क्या समझते हैं? प्रकाश-संश्लेशण में इसकी भूमिका बताइए।



उत्तर  स्वपोषी पोषण दो प्रकार का होता है


(i) प्रकाश-संश्लेषी अधिकांश पौधे तथा कुछ जीवाणु पर्णहरित तथा प्रकाश की उपस्थिति में वायुमण्डल से CO₂ तथा मृदा से जल (H₂O) लेकर भोजन का निर्माण करते हैं। इस क्रिया में ऊर्जा का उपयोग होता है।


(ii) रसायन-संश्लेषी कुछ जीवाणु जल की अपेक्षा विभिन्न प्रकार के रसायनों की ऊर्जा का उपयोग कर खाद्य संश्लेषण करते हैं। यह क्रिया पर्णहरित की अनुपस्थिति में होती है; जैसे-नाइट्रीकारक जीवाणु, सल्फर जीवाणु, आदि। 



प्रश्न 9. प्रकाश-संश्लेषण को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए।


उत्तर प्रकाश-संश्लेषण की दर को बाह्य और अन्त:कारक प्रभावित करते हैं। ये कारक निम्न हैं


(i) प्रकाश-संश्लेषण को प्रभावित करने वाले बाह्य कारक ये निम्नवत् हैं


प्रकाश (Light) प्रकाश-संश्लेषण की दर दृश्य प्रकाश की उपस्थिति में अधिकतम होती है। प्रकाश-संश्लेषण की प्रक्रिया प्रकाश की तीव्रता बढ़ाने के साथ बढ़ती है, लेकिन तीव्रता बहुत अधिक बढ़ाने पर प्रकाश-संश्लेषण की दर अचानक कम हो जाती है, क्योंकि अधिक तीव्रता पर पर्णहरिम का सोलेराइजेशन हो जाता है।


कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon dioxide) वायुमण्डल में CO₂मात्रा बढ़ने से प्रकाश-संश्लेषण की दर भी बढ़ जाती है। 


• तापमान (Temperature) पादपों में प्रकाश-संश्लेषण की दर 10-35°C तापमान तक बढ़ती है। इससे कम अथवा अधिक तापक्रम पर एन्जाइम का विकृतीकरण हो जाता है, जिससे प्रकाश-संश्लेषण की दर कम हो जाती है।


खनिज लवण (Minerals) खनिज लवणों; जैसे-Mg, Mn, Fe. Mo, S की कमी से भी प्रकाश-संश्लेषण की दर कम हो जाती है।




जल (Water) जल से प्राप्त हाइड्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड का अपचयन करती है। अत: जल की मात्रा बढ़ने से प्रकाश-संश्लेषण की दर बढ़ जाती है।


(ii) प्रकाश-संश्लेषण को प्रभावित करने वाले अन्तःकारक पत्ती की संरचना, रन्ध्र की संरचना, स्थिति, संख्या और वितरण एवं खम्भ ऊतक की कोशिकाओं में पर्णहरिम की मात्रा, आदि होते हैं।




प्रश्न 10. आमाशय किसे कहते हैं? इसके तीन प्रमुख कार्य लिखिए। 


अथवा आमाशय में अम्ल की भूमिका क्या है?


उत्तर आमाशय उदर गुहा में स्थित J-आकार की थैलेनुमा संरचना है। यह आहारनाल का सबसे चौड़ा भाग है, जिसकी लम्बाई लगभग 24 सेमी तथा चौड़ाई 10 सेमी होती है।



आमाशय के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं


(i) आमाशय में पेशीय क्रमाकुंचन गति के कारण भोजन लुगदी (Chyme) में रूपान्तरित होता है।


(ii) जठर रस में उपस्थित HCI भोजन को सड़ने से बचाता है तथा जीवाणुओं को नष्ट करता है।


(iii) आमाशय से स्रावित जठर रस में उपस्थित पेप्सिन, रेनिन तथा लाइपेज एन्जाइम क्रमश: प्रोटीन, दुग्ध तथा वसा का पाचन करते हैं।







प्रश्न 11 . रन्ध्र क्या है? इसकी उपयोगिता स्पष्ट कीजिए। 


उत्तर पादप की पत्तियाँ तथा अन्य कोमल वायवीय भागों की बाह्य त्वचा में छोटे-छोटे छिद्र पाए जाते हैं। इन्हें रन्ध्र कहते हैं। प्रकाश-संश्लेषण के लिए, गैसों का आदान-प्रदान रन्ध्रों के द्वारा होता है।


प्रश्न 12. दन्त क्षरण से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।


उत्तर दन्त क्षरण में इनेमल व डेन्टाइन का मृदुकरण होने लगता है। इसमें जीवाणुओं द्वारा शर्करा से अम्लों का निर्माण होता है, जिससे इनेमल का क्षरण होता है। यहाँ दाँतों में फँसे भोजन के कणों पर जीवाणुओं के समूह चिपक कर दंतप्लैक का निर्माण करते हैं। दाँतों में ब्रश करने से ये प्लैक अम्ल उत्पन्न होने से पहले ही हटा दिया जाता है। सूक्ष्मजीवों के मसूड़ों में पहुँचने के कारण सूजन व संक्रमण उत्पन्न हो जाते हैं।




प्रश्न 13 . लार में कौन-सा एन्जाइम होता है और वह किसका पाचन करता है?


 अथवा लार में कौन-सा एन्जाइम पाया जाता है? उसका नाम लिखिए तथा बताइए कि यह क्या कार्य करता है?



अथवा भोजन के पाचन में लार की क्या भूमिका है?


उत्तर लार में टायलिन या एमाइलेज एन्जाइम पाया जाता है। यह स्टार्च का आंशिक पाचन करता है। मनुष्य में तीन जोड़ी लार ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं। लार में उपस्थित टायलिन नामक एन्जाइम की उपस्थिति में मण्ड या स्टार्च माल्टोस शर्करा में बदल जाता है।



प्रश्न 14. जैव क्रियाएँ किसे कहते हैं? इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए। ये कितने प्रकार की होती है?




उत्तर समस्त जीवधारियों में उसकी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु शरीर में कुछ संश्लेषणात्मक एवं विश्लेषणात्मक क्रियाएँ सदैव चलती रहती हैं, जो जीव को जीवित बनाए रखने के लिए आवश्यक होती हैं, इन्हें जैविक क्रियाएँ कहते हैं; जैसे-पोषण, श्वसन, परिवहन, उत्सर्जन, वृद्धि, जनन, आदि। जैविक क्रियाओं का नियन्त्रण विशेष प्रकार से होता है। जीवधारी विभिन्न प्रकार से इन क्रियाओं को सम्पादित करते हैं, फिर भी इनमें मौलिक समानता पाई जाती है। जन्तुओं और पौधों में होने वाली समस्त जैविक क्रियाएँ मूलतया समान होती हैं। निम्न श्रेणी के जीवधारियों में जैविक क्रियाओं का संचालन सरल और उच्च श्रेणी के जीवधारियों में जैविक क्रियाओं का संचालन जटिल होता है। जीवों में होने वाली समस्त जैव-रासायनिक अभिक्रियाओं को दो समूहों में बाँट लेते हैं


(i) अपचयी क्रियाएँ इन जैव क्रियाओं में जटिल कार्बनिक पदार्थ सरल कार्बनिक पदार्थों में विखण्डित हो जाते हैं; जैसे- पाचन, श्वसन, आदि।


(ii) उपचयी क्रियाएँ इन जैव प्रक्रियाओं में सरल कार्बनिक पदार्थों से जटिल कार्बनिक पदार्थों का सश्लेषण होता है; जैसे- पौधों में प्रकाश-संश्लेषण, जन्तुओं में प्रोटीन, वसा, न्यूक्लिक अम्ल, आदि का संश्लेषण।




प्रश्न 15. पाचन क्रिया भौतिक क्रिया है अथवा रासायनिक क्रिया है। 


 उत्तर पाचन क्रिया मुख्यतया एक रासायनिक क्रिया है, साथ-ही-साथ इसमें कुछ भौतिक क्रियाएँ भी सम्पन्न होती हैं


(i) रासायनिक पाचन इसके अन्तर्गत पाचक ग्रन्थियों द्वारा स्त्रावित रस के एन्जाइम्स जटिल अघुलनशील भोज्य पदार्थों को सरल घुलनशील इकाइयों में तोड़ देते हैं।


(ii) यान्त्रिक या भौतिक पाचन इसमें भोजन को चबाना, आमाशय में भोजन की लुगदी बनाना, आहारनाल में क्रमाकुंचन गति (पेशीय संकुचन) के कारण भोजन को आगे खिसकाना, आदि सम्मिलित हैं।


पोषण किसे कहते हैं परिभाषा उदाहरण सहित


सभी जीवों को जीवित रहने के लिए तथा शरीर में होने वाली विभिन्न उपापचयी क्रियाओं को करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा भोजन से प्राप्त होती है। अतः जीवों द्वारा भोजन तथा अन्य खाद्य पदार्थों के पाचन से पोषक तत्वों को प्राप्त करने की क्रिया को पोषण कहते हैं। 


पोषक तत्व


भोजन में उपस्थित वे तत्व जो जीवों में वृद्धि, विकास, मरम्मत, प्रतिरक्षा हेतु आवश्यक होते हैं, पोषक तत्व (Nutrients) कहलाते हैं। 


सन्तुलित आहार


वह भोजन, जिसमें भोजन के सभी घटक (वसा, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन, प्रोटीन, खनिज लवण तथा जल) आवश्यक तथा सन्तुलित मात्रा में उपस्थित हों, सन्तुलित आहार कहलाता है।


नोट मनुष्य में उपापचयी क्रियाओं के लिए विटामिन्स होते हैं। यह दो प्रकार के होते हैं-जल में विलेय व वसा में विलेय


• जल में विलेय विटामिन्स- B व C


• वसा में विलेय विटामिन्स - A, D,Eव K



पोषण की विधियाँ


जीवों में पोषण प्राप्त करने की अनेक विधियाँ पाई जाती हैं। इन्हें दो मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है; स्वपोषी एवं विषमपोषी (परपोषी) पोषण। 



स्वपोषी पोषण


कुछ जीव (जैसे-पादप व जीवाणु) सरल अकार्बनिक तत्वों (जल एवं CO2) द्वारा अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। इस प्रकार प्राप्त पोषण, स्वपोषी पोषण कहलाता है। 



विषमपोषी (परपोषी) पोषण


जबकि अन्य जीव (जैसे-जन्तु, कुछ जीवाणु व कवक) जटिल कार्बनिक तत्वों (जैसे-कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन) को सरल तत्वों में तोड़कर एवं स्वांगीकृत करके पोषण प्राप्त करते हैं। यह विषमपोषी (परपोषी) पोषण कहलाता है। इस कार्य हेतु ये जीव जैव-उत्प्रेरकों का उपयोग करते हैं, जिन्हें एन्जाइम कहते हैं।



प्रश्न 16.मनुष्य के दन्तविन्यास का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। 


अथवा मनुष्य के दाँतों की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।


अथवा मनुष्य में पाए जाने वाले दाँतों के प्रकार तथा उनके कार्यों का वर्णन कीजिए।



उत्तर – मनुष्य का दन्तविन्यास भोजन को काटने तथा चबाने के लिए मनुष्य के दोनों जबड़ों में दाँत पाए जाते हैं। मनुष्य के दाँत गर्तदन्ती (Thecodont), द्विबारदन्ती (Diphyodont) तथा विषमदन्ती (Heterodont) होते हैं। मनुष्य में निम्नलिखित चार प्रकार के दाँत पाए जाते हैं 


(i) कृन्तक (Incisors) यह चार ऊपरी जबड़े में तथा चार निचले जबड़े में सामने की ओर स्थित होते हैं। ये भोजन को कुतरने या काटने के काम आते हैं। 


(ii) रदनक (Canines) इनके शिखर नुकीले होते हैं। ये भोजन को चीरने-फाड़ने का काम करते हैं। ऊपरी और निचले जबड़े में दो-दो रदनक होते हैं। ये माँसभक्षियों में अधिक विकसित होते हैं।


(iii) अग्रचर्वणक (Premolars) इनकी संख्या ऊपरी तथा निचले जबड़े में चार-चार होती है। ये भोजन को चबाने का कार्य करते हैं। 


(iv) चर्वणक (Molars) ये ऊपरी तथा निचले जबड़े में छः-छः होते हैं। इनका शिखर अधिक चौड़ा व उभारयुक्त होता है। ये भी भोजन को पीसने का कार्य करते हैं। 


वयस्क मानव का दन्तसूत्र I 2/2, C 1/1 ,Pm 2/2, M 3/3 , 8/8 × 2 = 32



दन्तसूत्र में I = कृन्तक, C = रदनक, Pm = अग्रचर्वणक तथा M = चर्वणक को दर्शाते हैं।



प्रश्न 17. मनुष्य की लार ग्रन्थियों के नाम लिखिए। ये कहाँ स्थित होती हैं और कहाँ खुलती हैं?



उत्तर लार ग्रन्थियाँ – मनुष्य में तीन जोड़ी लार ग्रन्थियाँ पृथक् वाहिनियों द्वारा मुखगुहा में खुलती हैं, जो निम्नवत् हैं


(i) कर्णपूर्व या पैरोटिड ग्रन्थियाँ ये कर्ण पल्लवों के नीचे स्थित होती हैं तथा स्टेन्सन (Stensen) की नलिका के द्वारा मुखगुहा में खुलती हैं।


(ii) अधोहनु या सबमैक्सिलरी ग्रन्थियाँ ये निचले जबड़े के पश्च भाग पर स्थित होती हैं तथा वॉरटन (Whorton) की नलिका के द्वारा मुखगुहा में खुलती हैं।


(iii) अधोजिह्वा या सबलिंग्वल ग्रन्थियाँ ये जिह्वा के नीचे स्थित सबसे छोटे आकार की ग्रन्थियाँ हैं। ये रिविनस (Rivinus) की नलिकाओं के द्वारा मुखगुहा में खुलती हैं।



 मानव पाचन तन्त्र कि क्रियाविधि तथा स्वच्छ नामांकित चित्र बनाइए।







भोजन के पाचन की क्रियाविधि


जटिल व अघुलनशील खाद्य पदार्थों को भौतिक एवं रासायनिक क्रियाओं के द्वारा घुलनशील पदार्थों में बदलकर, इन्हें अवशोषण योग्य छोटे-छोटे सरल घटकों में तोड़ने की क्रिया को पाचन (Digestion) कहते हैं।


(i) अन्तर्ग्रहण इसमें भोजन को चबाना, आमाशय में भोजन की लुगदी बनना, आहारनाल में क्रमाकुंचन गति (पेशीय संकुचन) के कारण भोजन को आगे खिसकाना, आदि सम्मिलित हैं। क्रमाकुंचन गति स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र के नियन्त्रण में एक प्रतिवर्ती प्रतिक्रिया के रूप में होती है।


(ii) पाचन इसके अन्तर्गत पाचक ग्रन्थियों द्वारा स्रावित रस के एन्जाइम्स जटिल अघुलनशील भोज्य पदार्थो को सरल घुलनशील इकाइयों में तोड़ देते हैं।


(iii) अवशोषण प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, न्यूक्लिक अम्ल तथा न्यूक्लियोटाइड के अन्तिम उत्पादों का अवशोषण रसांकुर के भीतर उपस्थित रुधिर केशिकाओं में, जबकि वसा के अन्तिम उत्पाद का अवशोषण लसिका वाहिनियों द्वारा होता है। पचे हुए सरल खाद्य अणुओं का अवशोषण आहारनाल की छोटी आँत में होता है। वसा का पाचन मुख्य रूप से छोटी आँत में होता है।


(iv) स्वांगीकरण पचे हुए पदार्थ कोशिका के जीवद्रव्य में पहुँचने के बाद, उसी में विलीन हो जाते हैं। इसे स्वांगीकरण कहते हैं।


(v) मल विसर्जन पाचन समाप्त होने के पश्चात् आहारनाल में कुछ अपशिष्ट पदार्थ शेष रह जाते हैं, जिनका पाचन संपन्न नहीं हो पाता है। अतः इनका मानव शरीर से उत्सर्जन हो जाता है।


नोट पाचन क्रिया भौतिक क्रिया भी है व रासायनिक भी। भौतिक क्रिया के अन्तर्गत चबाना, क्रमाकुंचन, भोजन की लुगदी बनाना, आदि होते हैं, जबकि रासायनिक क्रिया में विभिन्न एन्जाइमों के द्वारा भोजन का अपचयन होता है।



प्रश्न 18. पर्णरन्ध्रों (स्टोमेटा) के खुलने तथा बन्द होने की क्रियाविधि का वर्णन कीजिए।



अथवा रन्ध्र (स्टोमेटा) का स्वच्छ एवं नामांकित चित्र बनाइए। 


अथवा बताइए कि द्वार कोशिकाएँ किस प्रकार रन्ध्रों के खुलने तथा बन्द होने का नियमन करती है?


अथवा रन्ध्र का नामांकित चित्र बनाइए तथा द्वार (गार्ड) कोशिकाओं का वर्णन कीजिए।


 उत्तर - रन्ध्र की संरचना रन्ध्र मुख्य रूप से पत्तियों की बाह्यत्वचा पर पाए जाते हैं। प्रत्येक रन्ध्र में दो अर्द्धचन्द्राकार सेम के बीज के आकार की द्वार कोशिकाएँ (Guard cells) तथा मध्य में एक रन्ध्रीय गुहा (Stomatal cavity) पाई जाती है। द्वार कोशिकाओं की बाहरी भित्ति पतली तथा आन्तरिक भित्ति मोटी होती है। इसमें हरितलवक पाए जाते हैं।


पर्णरन्ध्र के खुलने तथा बन्द होने की क्रियाविधि रन्ध्रीय गति रक्षक कोशिकाओं की आशूनता पर निर्भर करती है। रक्षक कोशिकाओं के पर रन्ध्र खुल जाते हैं और श्लथ (Flaccid) दशा में रन्ध्र बन्द हो जाते हैं। दिन के समय रक्षक कोशिकाओं की CO₂प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया में प्रयुक्त आशून होने हो जाने के कारण इनका माध्यम क्षारीय हो जाता है। इससे फॉस्फोरायलेज एंजाइम के सक्रियण के कारण रक्षक कोशिकाओं में संचित स्टार्च ग्लूकोस में बदल जाता है। फलस्वरूप रक्षक कोशिकाओं की सान्द्रता बढ़ जाती है। ये समीपवर्ती कोशिकाओं से जल ग्रहण करके आशून (स्फीत) हो जाती है। रक्षक कोशिका की भीतरी मोटी सतह के भीतर की ओर खिंचाव आने से रन्ध्र खुल जाते हैं। रात्रि में प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया नहीं होती है। अतः रक्षक कोशिकाओं में श्वसन के कारण CO₂ की मात्रा बढ़ जाने से इनका माध्यम अम्लीय हो जाता है। इसके फलस्वरूप रक्षक कोशिकाओं का ग्लूकोस स्टार्च में बदल जाता है। इसके कारण रक्षक कोशिकाओं की सान्द्रता में कमी हो जाती है। रक्षक कोशिकाओं से जल समीपवर्ती कोशिकाओं में विसरित हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप रक्षक कोशिकाएँ श्लथ स्थिति में आ जाती है और रन्ध्र बन्द हो जाते हैं।

पादपों में रन्ध्र की उपयोगिता




(i) वाष्पोत्सर्जन में सहायक,


 (ii) प्रकाश-संश्लेषण तथा श्वसन क्रिया (गैसीय विनिमय) में सहायक।


 


प्रश्न 19. आहारनाल से सम्बन्धित पाचक ग्रन्थियों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए और उनके मुख्य कार्य बताइए।


उत्तर – पाचक ग्रन्थियाँ आहारनाल में यकृत तथा अग्न्याशय मुख्य पाचक ग्रन्थियाँ होती हैं।


यकृत यह शरीर की सबसे बड़ी पाचक ग्रन्थि है। इसका भार लगभग 1500 ग्राम होता है। इसके ऊपर स्थित एक छोटी थैलीनुमा संरचना पित्ताशय (Gall bladder) कहलाती है, जिसमें पित्त रस एकत्रित होता है।


अग्न्याशय – यकृत के बाद यह शरीर की दूसरी सबसे बड़ी ग्रन्थि है। यह लगभग 12-15 सेमी लंबी तथा 'J' के आकार की होती है। यह उदरगुहा में आमाशय व शेषांत्र के बीच स्थित होती है। यह एक मिश्रित ग्रन्थि (Mixed gland) है। इसका बाह्यस्रावी भाग क्षारीय अग्न्याशयी रस का स्रावण करता है तथा अन्तःस्रावी भाग हॉर्मोन्स का स्रावण करता है। 


अग्न्याशय के कार्य निम्नलिखित हैं



(i) इसके बाह्यस्रावी भाग से अग्न्याशयी रस का स्रावण होता है, जिसमें तीन प्रमुख एन्जाइम्स; जैसे-ट्रिप्सिन, एमाइलॉप्सिन तथा स्टीएप्सिन उपस्थित होते हैं।


(ii) अन्तःस्रावी भाग से इन्सुलिन तथा ग्लूकैगॉन का स्रावण होता है, जो रुधिर में शर्करा की मात्रा का नियमन करते हैं।




प्रश्न 20. अग्न्याशय की संरचना तथा कार्यों का वर्णन कीजिए| 


अथवा अग्न्याशय के अन्तःस्रावी भाग में स्थित एल्फा तथा बीटा कोशिकाओं से निकलने वाले हॉर्मोन्स के नाम तथा कार्य का वर्णन कीजिए।


अथवा अग्न्याशय द्वारा स्रावित दो पाचक एन्जाइम के नाम एवं कार्य लिखिए।


अथवा अग्न्याशय की अनुप्रस्थ काट का नामांकित चित्र बनाइए।


 उत्तर – संरचना की दृष्टि से अग्न्याशय छोटे-छोटे पिण्डकों से बना होता है। इन पिण्डकों की कोशिकाएँ घनाकार तथा स्रावी होती हैं। पिण्डकों के मध्य में लैंगरहैन्स की द्वीपिकाएँ समूह के रूप में पाई जाती हैं। यह एक मिश्रित ग्रन्थि है।


 इसके दो भाग होते हैं


(i) बहि:स्रावी भाग व (ii) अन्तःस्रावी भाग


इसका बहिःस्रावी भाग व अग्न्याशयी रस स्रावित करता है। यह पूर्ण पाचक रस है। इसमें प्रोटीन पाचक ट्रिप्सिन तथा काइमोट्रिप्सिन, कार्बोहाइड्रेट पाचक एमाइलेज तथा वसा पाचक अग्न्याशयी लाइपेज एन्जाइम होते हैं। अतः अग्न्याशय के निष्क्रिय हो जाने पर भोजन का पूर्ण पाचन नहीं हो सकेगा।



अग्न्याशय में स्थित अन्तःस्रावी भाग की लैगरहैन्स की द्वीपिकाओं की B-कोशिकाओं से इन्सुलिन हॉर्मोन तथा a-कोशिकाओं से ग्लूकैगॉन हॉर्मोन स्रावित होता है। इन्सुलिन आवश्यकता से अधिक शर्करा (ग्लूकोस) को ग्लाइकोजन में और ग्लूकैगॉन हॉर्मोन ग्लाइकोजन को ग्लूकोस में बदलने का कार्य करते हैं। अतः अग्न्याशय के निष्क्रिय या नष्ट हो जाने से शरीर में शर्करा का सन्तुलन बिगड़ जाता है। 



प्रश्न 21. मुख से लेकर आमाशय तक होने वाली पाचन क्रिया को प्रभावित करने वाले एन्जाइमों के कार्यों का उल्लेख कीजिए।


अथवा पाचक एन्जाइमों का क्या कार्य है?



उत्तर – मुख से लेकर आमाशय तक अनेक एन्जाइम स्त्रावित होते हैं, जो भोजन के पाचन में सहायक होते हैं।


मुख में कार्बोहाइड्रेट का पाचन होता है। लार में a-एमाइलेज या टाइलिन (a-amylase or Ptyalin) नामक पाचक एन्जाइम होता है, जो मण्ड को शर्करा में परिवर्तित कर देता है। इसमें लाइसोजाइम (Lysozyme) भी होता है, जो प्रतिजीवाणु कारक होता है। 


आमाशय के मध्य भाग में फण्डिक ग्रन्थियाँ उपस्थित होती है। ये जठर रस स्त्रावित करती है, जिसमें पेप्सिन (Pepsin), रेनिन (Renin) नामक एन्जाइम होते हैं। ये श्लेष्म तथा गैस्ट्रिन (Gastrin) नामक हॉर्मोन भी स्रावित करती है। ये HCI अम्ल का भी स्त्रावण करती है, जोकि जठर रस को अम्लीय माध्यम (pH 1.5-2.5) प्रदान करता है एवं निष्क्रिय पेप्सिनोजन (Pepsinogen) को सक्रिय पेप्सिन (Pepsin) में बदल देता है। रेनिन दुग्ध प्रोटीन का पाचन करता है।


पेप्सिन प्रोटीन का पाचन करता है तथा लाइपेज वसा का पाचन करता है। 



प्रश्न 22. पाचक रस पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। 


अथवा मनुष्य में पाए जाने वाले पाचक रसों के कार्यों का वर्णन कीजिए।


अथवा पित्तरस भोजन के पाचन में किस प्रकार सहायता करता है? 


उत्तर – पाचक रस भोजन के पाचन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पाचक रस निम्न प्रकार के होते हैं


(i) लार ये भोजन को निगलने में सहायक होती है तथा कार्बोहाइड्रेट को पचाने में भी भाग लेती है। लार में उपस्थित टायलिन नामक एन्जाइम मण्ड को शर्करा में बदल देता है।


(ii) जठर रस जठर (आमाशय) की ग्रन्थियों से जठर रस निकलता है तथा जिसमें HCI, पेप्सिन, लाइपेज तथा रेनिन नामक एन्जाइम उपस्थित होते हैं।


(iii) पित्तरस तथा अग्न्याशयी रस ग्रहणी में अग्न्याशय से निकलने वाला अग्न्याशयी रस तथा यकृत से निकलने वाला पित्तरस आकर मिलते हैं। पित्तरस में कोई एन्जाइम नहीं होता है। यह भोजन के अम्लीय माध्यम को क्षारीय माध्यम में बदल देता है तथा पित्त लवण वसा का इमल्सीकरण करते हैं। अग्न्याशयी रस में ट्रिप्सिन, लाइपेज, एमाइलॉप्सिन, आदि एन्जाइम उपस्थित होते हैं, जो क्षारीय माध्यम में ही सक्रिय होते हैं।


(iv) आँत रस इसके एन्जाइम अधपचे भोजन पर क्रिया करते हैं। आँत रस में निम्न एन्जाइम क्रिया करते हैं


(a) सुक्रेज यह शर्करा को ग्लूकोस में बदल देता है।


(b) लैक्टेज यह लैक्टोस शर्करा को ग्लूकोस में बदल देता है।


(c) माल्टेज यह माल्टोस शर्करा को ग्लूकोस में बदल देता है।


(d) इरेप्सिन यह शेष प्रोटीन तथा उसके अवयवों को अमीनो अम्लों में बदल देता है। 



विस्तृत उत्तरीय प्रश्न    7 अंक


प्रश्न 1. पोषण क्या है? पोषण की आवश्यकता क्यों पड़ती है? पोषण के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए। पाचन तथा पोषण में अन्तर बताइए।



अथवा 'भोजन ऊर्जा का स्रोत है' कथन की पुष्टि कीजिए 


अथवा क्या किसी जीव के लिए 'पोषण' आवश्यक है? विवेचना कीजिए।



उत्तर – पोषण जीवों द्वारा भोजन तथा अन्य खाद्य पदार्थों के पाचन से पोषक तत्वों को प्राप्त करने की क्रिया को पोषण कहते हैं। सभी जीवों को जीवित रहने के लिए तथा शरीर में होने वाली विभिन्न उपापचयी क्रियाओं हेतु ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा भोजन से प्राप्त होती है।


पोषण के आधार पर जीव दो प्रकार के होते हैं


(i) स्वपोषी – वे जीवधारी, जो प्रकाश या रासायनिक ऊर्जा का उपयोग कर अकार्बनिक पदार्थों से अपना भोजन बनाते हैं। उदाहरण पादप, नील हरित शैवाल, आदि।


(ii) परपोषी – जो जीवधारी अपने भोज्य पदार्थों का निर्माण स्वयं नहीं कर पाते हैं, बल्कि भोजन हेतु अन्य जीवों; जैसे- पादप या जन्तुओं पर निर्भर होते हैं, परपोषी कहलाते हैं; उदाहरण मानव, शेर, चील, जोंक, आदि। 


पोषण या भोजन की आवश्यकता


(i) ऊर्जा की आपूर्ति विभिन्न जैविक कार्यों में व्यय होने वाली ऊर्जा की आपूर्ति भोजन के ऑक्सीकरण के फलस्वरूप होती है। ऊर्जा उत्पादन हेतु मुख्यतया कार्बोहाइड्रेट्स (ग्लूकोस), वसा तथा कभी-कभी प्रोटीन का भी उपयोग होता है। इनसे मुक्त रासायनिक ऊर्जा ATP के रूप में संचित हो जाती है। ATP जैविक कार्यों के लिए ऊर्जा प्रदान करता है।


(ii) शरीर की वृद्धि पचे हुए खाद्य पदार्थों का जीवद्रव्य द्वारा आत्मसात् कर लेना स्वांगीकरण कहलाता है। इससे जीवद्रव्य की मात्रा में वृद्धि होती है और जीवधारियों में भी वृद्धि होती है। प्रोटीन्स, खनिज लवण, विटामिन्स, आदि शरीर की वृद्धि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।


(iii) शरीर में टूट-फूट की मरम्मत भोजन के पोषक तत्व मुख्यतया प्रोटीन्स से शरीर में प्रतिदिन होने वाली टूट-फूट की मरम्मत होती है। खनिज लवण व विटामिन्स, मरम्मत क्रियाओं को प्रेरित करते हैं।


(iv) रोगों से रक्षा सन्तुलित भोजन स्वास्थ्यवर्धक होता है। यह शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। भोजन के अवयव; जैसे-प्रोटीन्स, विटामिन्स, खनिज लवण, आदि इस कार्य के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पोषक पदार्थ हैं। 




पाचन और पोषण में अन्तर



पाचन

पोषण

जटिल और अघुलनशील भोज्य पदार्थों को भौतिक और रासायनिक क्रियाओं द्वारा घुलनशील पदार्थों में बदलने की क्रिया को पाचन कहते हैं।

जीवों द्वारा भोजन और अन्य खाद्य पदार्थों के पाचन से पोषक तत्वों को प्राप्त करने की क्रिया को पोषण कहते हैं।




प्रश्न 2. स्वयंपोषी पोषण एवं विषमपोषी पोषण में क्या अन्तर है? 


उत्तर


स्वयंपोषी एवं विषमपोषी पोषण में अन्तर



स्वयंपोषी पोषण


विषमपोषी पोषण

वे जीव जो स्वयं अपने भोजन का निर्माण करते हैं, स्वपोषी कहलाते हैं तथा पोषण का यह प्रकार स्वपोषी या स्वयंपोषी पोषण कहलाता है।

वे जीव जो भोजन हेतु अन्य जीवों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आश्रित रहते हैं, विषमपोषी कहलाते हैं तथा पोषण का यह प्रकार विषमपोषी पोषण कहलाता है।

ये दो प्रकार के होते हैं - रसायन संश्लेषी एवं प्रकाश-संश्लेषी

ये तीन प्रकार के होते हैं - परभक्षी, परजीवी तथा मृतोपजीवी।

स्वपोषी जीव पारितन्त्र में उत्पादक कहलाते हैं।

विषमपोषी जीव पारितन्त्र में उपभोक्ता या अपघटक कहलाते हैं।

स्वपोषी जीव उपचय क्रियाओं द्वारा सरल तत्वों से जटिल यौगिकों का निर्माण करते हैं।


विषमपोषी जीव अपचय क्रियाओं द्वारा जटिल तत्वों से सरल यौगिकों का निर्माण करते हैं।

यह पोषण, विषमपोषी पोषण की तुलना में अधिक ऊर्जा दक्ष होता है।

यह पोषण, स्वपोषी पोषण की कम ऊर्जा दक्ष होता है। तुलना में

नील-हरित, शैवाल, सल्फर एवं कुछ नाइट्रीकारक जीवाणु तथा सभी हरे पादप इसी श्रेणी में आते हैं।

सभी जन्तु, कवक एवं अन्य जीवाणु इस श्रेणी में आते हैं।




प्रश्न 3. प्रयोग द्वारा सिद्ध कीजिए कि प्रकाश-संश्लेषण के लिए प्रकाश एवं कार्बन डाइऑक्साइड आवश्यक है। 


अथवा प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड का क्या महत्त्व है? प्रयोग द्वारा स्पष्ट करें।


 उत्तर – प्रकाश की आवश्यकता का प्रदर्शन सर्वप्रथम एक गमले में लगे पादप को अन्धकार में 48-72 घण्टे रखकर स्टार्चविहीन कर लेते हैं। एक पत्ती के दोनों ओर काला कागज क्लिप की सहायता से लगाकर पादप को 3-4 घण्टे के लिए प्रकाश में रख देते हैं। फिर पत्ती को तोड़कर आयोडीन का परीक्षण करते हैं।







(a) स्टार्च परीक्षण से पूर्व 


(b) स्टार्च परीक्षण के बाद


 पर्णहरिम की आवश्यकता का प्रदर्शन


पत्ती का वह भाग, जो काले कागज से ढका था, नीला नहीं होता है, क्योंकि इसमें प्रकाश के अभाव में स्टार्च का निर्माण नहीं हुआ, जबकि पत्ती का शेष भाग स्टार्च के कारण नीला हो जाता है। अतः प्रयोग से स्पष्ट है कि प्रकाश-संश्लेषण के लिए प्रकाश आवश्यक है।


कार्बन डाइऑक्साइड गैस की आवश्यकता का प्रदर्शन एक बड़े एवं चौड़े मुँह की बोतल में KOH का घोल लेते हैं। एक मण्डरहित पादप की पत्ती को चौड़े मुँह की बोतल के अन्दर इस प्रकार लगाते हैं कि उसका आधा भाग बोतल में तथा आधा बोतल के बाहर रहता है।


प्रकाश-संश्लेषण में कार्बन डाइऑक्साइड की आवश्यकता


इस उपकरण को 3-4 घण्टे तक धूप में रखकर आयोडीन परीक्षण करने पर पत्ती का वह भाग, जो बोतल के बाहर था, नीला पड़ जाता है, परन्तु बोतल के अन्दर के भाग पर आयोडीन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।


इसका कारण यह है कि बोतल के अन्दर वाले भाग में प्रकाश-संश्लेषण द्वारा स्टार्च का निर्माण नहीं हुआ, क्योंकि बोतल में CO, उपलब्ध नहीं थी। इस बोतल की कार्बन डाइऑक्साइड KOH द्वारा अवशोषित कर ली जाती है। इस प्रयोग से स्पष्ट है कि प्रकाश-संश्लेषण क्रिया के लिए CO, आवश्यक है। इस प्रयोग को मोल का प्रयोग कहते हैं।





प्रश्न 4. मनुष्य के पाचन तन्त्र का सचित्र वर्णन कीजिए।


अथवा मनुष्य की आहारनाल तथा उससे सम्बन्धित पाचक ग्रन्थियों का स्वच्छ नामांकित चित्र बनाइए। अग्न्याशयी रस का पाचन की कार्यिकी में क्या महत्त्व है


अथवा मानव आहारनाल का वर्णन कीजिए



उत्तर मनुष्य की आहारनाल मनुष्य की आहारनाल 8-10 मीटर लम्बी होती है। विभिन्न भागों में इसका व्यास अलग-अलग होता है। इसके निम्नलिखित भाग होते हैं।


(i) मुख, मुखगुहा तथा ग्रसनी मुखगुहा ऊपरी तथा निचले जबड़े के मध्य स्थित होती है। व्यस्क में दोनों जबड़ों पर 16-16 दाँत लगे होते हैं। प्रत्येक जबड़े पर सामने दो जोड़ी कृन्तक, एक-एक रदनक, दो-दो अग्रचर्वणक तथा उसके बाद तीन-तीन चर्वणक होते हैं। अग्रचर्वणक व चर्वणकों को दाढ़ कहते हैं। मनुष्य में दाँतों के प्रकार, उनकी संख्या व उनके कार्य निम्न तालिका में दिए गए हैं


दाँतों के प्रकार


प्रत्येक जबड़े में दाँतों की संख्या


दाँतों का कार्य


कृन्तक (1)


दो जोड़ी (4)


भोजन को कुतरना


रदनक (C)


एक जोड़ी (2)


भोजन को फाड़ना व चीरना


अग्रचर्वणक (Pm) दो जोड़ी (4)


भोजन को चबाना व पीसना


भोजन को पीसना


चर्वणक (M)


तीन जोड़ी (6)


जिह्वा मुखगुहा के फर्श पर जिह्वा स्थित होती है, जो भोजन के स्वाद का के अनुभव कराती है। इसके अतिरिक्त भोजन चबाते समय उसमें लार मिलाने में सहायता करती है। यह चबाए गए भोजन को निगलने में भी मदद करती है। 



मुखगुहा की दीवारों में लार ग्रन्थियाँ होती हैं। मुखगुहा के ऊपरी भाग को तालू कहते हैं। मुखगुहा का पिछला भाग ग्रसनी कहलाता है। ग्रसनी के अन्दर एक बड़ा छिद्र होता है। इसको निगलद्वार कहते हैं। इसके द्वारा ग्रासनली ग्रसनी में खुलती है। इसके पास ही श्वासनली का छिद्र व घांटीद्वार होता है।


(ii) भोजन नली या ग्रसिका या ग्रासनली यह लम्बी वलित नलिका होती है और श्वासनली के नीचे स्थित होती है। यह उपास्थिल, छल्ले युक्त होती है। यह तन्तुपट या डायफ्राम को भेदकर उदरगुहा में स्थित आमाशय (Stomach) में खुलती है।


(iii) आमाशय यह Jआकार की थैलीनुमा रचना होती है। इसकी लम्बाई लगभग 25-30 सेमी और चौड़ाई 7-10 सेमी होती है। इसका चौड़ा प्रारम्भिक भाग कार्डियक, मध्य भाग फण्डिक तथा अन्तिम संकरा भाग पाइलोरिक भाग कहलाता है। आमाशय की जठर ग्रन्थियों से जठर रस स्रावित होता है।


(iv) ग्रहणी यह आमाशय के साथ C-आकार की संरचना होती है। इसकी लम्बाई लगभग 25 सेमी होती है। पित्त नलिका तथा अग्न्याशय नलिका ग्रहणी के निचले भाग में खुलती है।


(v) छोटी आँत यह ग्रहणी के निचले भाग से प्रारम्भ होती है। यह नली सबसे अधिक लम्बी होती है। अत: यह कुण्डलित अवस्था में उदरगुहा में स्थित होती है। इसके चारों ओर बड़ी आँत होती है। क्षुद्रान्त्र की भित्ति में आँत्रीय ग्रन्थियाँ होती हैं, जिनसे पाचक आँत्रीय रस निकलता है। इसकी भित्ति में अनेक छोटे-छोटे अँगुली के आकार के रसांकुर होते हैं।


(vi) बड़ी आँत या वृहदान्त्र यह अधिक चौड़ी होती है। छोटी आँत से इसकी लम्बाई कम होती है। छोटी आँत एक छोटे-से थैले जैसे भाग में खुलती है, जिसका एक सिरा 7-10 सेमी लम्बी संकरी व बन्द नली के रूप में एक ओर निकला रहता है। इसे कृमिरूप परिशेषिका कहते हैं।


थैले के दूसरी ओर से लगभग 3 इंच चौड़ी नली, कोलन निकलती है, जो निकलने के बाद एक ओर गुहा के ऊपर की ओर उठती है, बाद में समानान्तर होकर नीचे उतरती है तथा अन्त में मलाशय में खुल जाती है।


(vii) मलाशय यह बड़ी आँत का ही अन्तिम भाग है। यह लगभग 7-8 सेमी लम्बा होता है। यहाँ अपशिष्ट भोजन एकत्रित होता है। 


(viii) गुदा मलाशय का अन्तिम भाग छल्लेदार माँसपेशियों का बना होता है।


इसके बाहर खुलने वाले छिद्र को गुदाद्वार (Anal aperture) कहते हैं। 




प्रश्न 5. मानव में पाचन तन्त्र का नामांकित चित्र बनाइए तथा यकृत के कार्यों का वर्णन कीजिए।



उत्तर





यकृत के कार्य यकृत शरीर की सबसे बड़ी एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थि हैं। इसके महत्त्वपूर्ण कार्य निम्नवत् हैं


(i) यकृत पित्तरस स्रावित करता है। यह क्षारीय तरल होता है। पित्तरस भोजन का माध्यम क्षारीय करता है। यह भोजन को सड़ने से बचाता है। हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करता है तथा आहारनाल में क्रमाकुंचन गति उत्पन्न करता है। पित्त वर्णक तथा लवणों को आहारनाल के माध्यम से उत्सर्जित करता है। पित्तरस वसा का इमल्सीकरण करता है।


(ii) आवश्यकता से अधिक ग्लूकोस को ग्लाइकोजन के रूप में संचित करता है। इसे ग्लाइकोजेनेसिस कहते हैं।


(iii) आवश्यकता पड़ने पर अमीनो अम्ल तथा वसीय अम्लों को शर्करा में बदल देता है। इसे ग्लाइकोनियोजेनेसिस कहते हैं। 


(iv) यकृत कोशिकाएँ ग्लाइकोजन को ग्लूकोस में बदल देती है। इसे ग्लाइकोजिनोलाइसिस कहते हैं।


(v) यकृत अनके अकार्बनिक पदार्थों का संचय करता है तथा यकृत वसा एवं विटामिन संश्लेषण में सहायता करता है।


(vi) यकृत कोशिकाएँ प्रोथ्रॉम्बिन तथा फाइब्रिनोजन रुधिर प्रोटीन का संश्लेषण करती है, जो चोट लगने पर रुधिर का थक्का बनाने का कार्य करती है।


(vii) यकृत में यूरिया का संश्लेषण एवं विषैले पदार्थों को कम हानिकारक बनाने का कार्य करता है। 


प्रश्न 6. मानव पाचन तन्त्र का नामांकित चित्र बनाइए। पाचन क्रिया का वर्णन कीजिए।


अथवा मानव पाचन तन्त्र का नामांकित चित्र बनाकर आमाशय तथा क्षुद्रान्त्र में होने वाली पाचन-क्रिया का वर्णन कीजिए।



 उत्तर

मानव में पाचन की क्रियाविधि निम्न अंगों द्वारा पूर्ण होती है


1. मुखगुहा में पाचन मुखगुहा में स्टार्च पर टायलिन या एमाइलेज एन्जाइम कार्य करता है और स्टार्च को माल्टोस में अपघटित कर देता है। मनुष्य की लार में उपस्थित लाइसोजाइम नामक एन्जाइम बैक्टीरिया को नष्ट करता है।


ग्रासनली में कोई पाचक एन्जाइम स्रावित नहीं होता। भोजन ग्रासनली से कार्डियक अवरोधक द्वारा होता हुआ आमाशय में पहुँचता है।


2. आमाशय में पाचन भोजन ग्रासनली से होकर आमाशय में प्रवेश करता है। आमाशय में प्रोटीन व वसा का पाचन प्रारम्भ हो जाता है, लेकिन कार्बोहाइड्रेट का पाचन नहीं होता।


आमाशयी रस एवं HCI भोजन को जीवाणुरहित एवं अम्लीय माध्यम प्रदान करता है। पेप्सिन, प्रोटीन का पाचन करके उन्हें पेप्टोन्स में परिवर्तित कर देता है। रेनिन, दुग्ध को दही में परिवर्तित करता है। यह आंशिक पचित भोजन काइम कहलाता है।





                   B. श्वसन


श्वसन एक जैव-रासायनिक ऑक्सीकरण अभिक्रिया है, जिसमें विशेष मानव अंग वातावरण से ऑक्सीजन (O₂) को ग्रहण करके उसे शरीर की कोशिकाओं तक पहुँचाते हैं। अतः श्वसन वह क्रिया है, जिसमें कोशिका में कार्बनिक यौगिकों (प्रायः ग्लूकोस) का ऑक्सीकरण होता है।


इस क्रिया में CO₂तथा ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस ऊर्जा को विशेष अणुओं में विभवीय ऊर्जा के रूप में संचित किया जाता है। यह ऊर्जा मानव शरीर की विभिन्न उपापचयी क्रियाओं द्वारा उपयोग में लाई जाती है। इस क्रिया में जीवित कोशिकाओं में कार्बनिक भोज्य पदार्थों का जैव-रासायनिक ऑक्सीकरण होता है। यह क्रिया एन्जाइमों की सहायता से सामान्य ताप पर होती है। कार्बनिक पदार्थों में संचित रासायनिक ऊर्जा गतिज ऊर्जा के रूप में मुक्त होती है। यह मुक्त ऊर्जा ATP में संचित होती है, जोकि जैविक क्रियाओं के काम आती है।


C₆H₁₂0₆ + 60₂  → 6CO₂ + 6H₂0+ 38 ATP




बहुविकल्पीय प्रश्न      1. अंक


प्रश्न1. ग्लाइकोलाइसिस की प्रक्रिया सम्पन्न होती है.



(a) कोशिकाद्रव्य में


(b) राइबोसोम्स में


(c) माइटोकॉण्ड्रिया में


(d) अन्तःप्रद्रव्यी जालिका में


उत्तर (a) ग्लाइकोलाइसिस की प्रक्रिया कोशिकाद्रव्य में सम्पन्न होती है।


प्रश्न 2. प्रचलित रूप से ऊर्जा गृह कहलाता है


(a) क्लोरोप्लास्ट


(b) राइबोसोम्स


(c) माइटोकॉण्ड्रिया


(d) लाइसोसोम्स


उत्तर (c) माइटोकॉण्ड्रिया को प्रचलित रूप से ऊर्जा गृह कहते हैं।


प्रश्न 3. ATP तथा NADP.2H का निर्माण होता है



(a) माइटोकॉण्ड्रिया में


(b) क्लोरोप्लास्ट में


(c) परॉक्सीसोम्स में


(d) लाइसोसोम्स में


उत्तर (a) माइटोकॉण्ड्रिया में ATP तथा NADP.2H का निर्माण होता है।


प्रश्न 4. ग्लाइकोलाइसिस के अन्त में कितने ATP अणुओं का लाभ होता है?


(a) दो


(b) शून्य


(c) चार


(d) आठ



उत्तर (a) ग्लाइकोलाइसिस के अन्त में दो ATP अणुओं का शुद्ध लाभ होता है। यह क्रिया कोशिकाद्रव्य में होती है।



प्रश्न 5. एक अणु ग्लूकोस के पूर्ण ऑक्सीकरण से कितने ATP अणु प्राप्त होते हैं?


(a) 32


(b) 34


(c) 36


(d) 38


उत्तर (d) एक अणु ग्लूकोस के पूर्ण ऑक्सीकरण से कुल 38 ATP अणु प्राप्त होते हैं।


प्रश्न 6. कोशिकीय प्रक्रमों में ऊर्जा मुद्रा है


(a) माइटोकॉण्ड्रिया


(b) ग्लूकोस


(c) ATP


(d) पाइरुवेट


उत्तर (c) ATP को ऊर्जा की मुद्रा कहा जाता है।




अतिलघु उत्तरीय प्रश्न        2 अंक


प्रश्न 1. श्वसन को परिभाषित कीजिए।


अथना श्वसन क्रिया को परिभाषित कीजिए तथा बताइए कि इस क्रिया में किस प्रकार ऊर्जा ATP में स्थानान्तरित होती है?



 उत्तर श्वसन वह क्रिया है, जिसमें कोशिका में कार्बनिक यौगिकों (प्रायःग्लूकोस) का ऑक्सीकरण होता है। इस क्रिया में CO₂ तथा ऊर्जा उत्पन्न होती


हैं। इस ऊर्जा को विशेष ATP अणुओं में विभवीय ऊर्जा के रूप में संचित किया जाता है। 


C₆H₁₂O₆ + 60₂→ 6CO₂ + 6H₂O + 673 किलो कैलोरी ऊर्जा 



 प्रश्न 2. उस श्वसन प्रक्रिया का नाम लिखिए, जिसमें O₂की आवश्यकता नहीं होती।



उत्तर अनॉक्सीश्वसन में ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं होती है। इस क्रिया में ग्लूकोस का पूर्ण ऑक्सीकरण नहीं होता है। अतः यहाँ एथिल एल्कोहॉल (C₂H₅OH) तथा CO₂बनते हैं। इसमें ग्लूकोस के एक अणु से ATP के दो अणु प्राप्त होते हैं।




प्रश्न 3. श्वसन क्रिया कोशिका के किस अंगक में होती है?


 उत्तर श्वसन क्रिया कोशिका के कोशिकाद्रव्य तथा माइटोकॉण्ड्रिया में होती है। कोशिकीय श्वसन को दो भागों में विभाजित किया गया है




(i) ग्लाइकोलाइसिस यह क्रिया कोशिकाद्रव्य में सम्पन्न होती है।


(ii) क्रेब्स चक्र यह क्रिया माइटोकॉण्ड्रिया में सम्पन्न होती है।




प्रश्न 4. श्वसन क्रिया में ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड के वाहक का नाम लिखिए।



उत्तर श्वसन क्रिया में ऑक्सीजन का परिवहन हीमोग्लोबिन द्वारा होता है और कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन मुख्यतया बाइकार्बोनेट के रूप में होता है। कुछ मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का वहन हीमोग्लोबिन और रुधिर प्लाज्मा द्वारा भी होता है।



प्रश्न 6. श्वसन तथा दहन में अन्तर लिखिए।


अथवा श्वसन तथा दहन में कोई चार अन्तर बताइए।




उत्तर


श्वसन और दहन में अन्तर में



श्वसन

दहन

यह जैविक नियन्त्रण में होने वाली जैव- रासायनिक ऑक्सीकरण क्रिया है।

यह अनियन्त्रित रासायनिक ऑक्सीकरण की क्रिया है।

यह क्रिया सामान्य ताप (25-45°C) पर होती है तथा इसमें कम ऊर्जा उत्पन्न होती है।


यह क्रिया उच्च ताप पर होती है तथा इसमें उच्च ऊष्मा (ऊर्जा) उत्पन्न होती है।


यह क्रिया एन्जाइम्स की सहायता से होती है।

इसमें एन्जाइम्स की आवश्यकता नहीं होती है।





ऑक्सी श्वसन तथा अनॉक्सी श्वसन में निम्न अन्तर है


ऑक्सी श्वसन

अनॉक्सी श्वसन

यह उच्च वर्गीय पादपों में मिलता है।

यह प्रोकैरियोटिक सूक्ष्मजीवों, जैसे जीवाणुओं, यीस्ट तथा कवक में मिलता है।

ऊर्जा अधिक मात्रा (लगभग 38 ATP-673 किलो कैलोरी) में निकलती है।


ऊर्जा बहुत कम मात्रा (2ATP-27 किलो कैलोरी) में निकलती है।


इस क्रिया में O2 की आवश्यकता होती है


इस क्रिया में O2 की आवश्यकता नहीं होती है। होती है।


इस क्रिया के अन्त में शर्करा का सम्पूर्ण ऑक्सीकरण होकर CO2 तथा H2O बनता है।

क्रिया के अन्त में शर्करा का अपूर्ण ऑक्सीकरण होने से CO2 तथा C2H5OH बनते हैं।







लघु उत्तरीय प्रश्न      4 अंक




प्रश्न 1. श्वसन क्रिया को समझाइए। ऑक्सी तथा अनॉक्सी श्वसन में अन्तर बनाइए। 


अथवा वायवीय तथा अवायवीय श्वसन में क्या अन्तर है? कुछ जीवों के नाम लिखिए, जिनमें अवायवीय श्वसन होता है। 


अथवा वायवीय श्वसन किस प्रकार अवायवीय श्वसन से भिन्न होता है?


उत्तर श्वसन जीवित कोशिकाओं में होने वाली वह ऑक्सीकरण क्रिया है, जिसमें विभिन्न जटिल कार्बनिक पदार्थों; जैसे-कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, आदि के अपघटन से कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल मुक्त होते हैं व ऊर्जा उत्पन्न होती है। यह ऊर्जा विभिन्न शारीरिक क्रियाओं के लिए ATP के रूप में संचित हो जाती है।


C₆H₁₂0₆ + 60₂ →  6CO₂ + 6H₂O + 673 किलो कैलोरी (38 ATP) 




 ऑक्सी श्वसन तथा अनॉक्सी श्वसन में निम्न अन्तर है


ऑक्सी श्वसन

अनॉक्सी श्वसन

यह उच्च वर्गीय पादपों में मिलता है।

यह प्रोकैरियोटिक सूक्ष्मजीवों, जैसे जीवाणुओं, यीस्ट तथा कवक में मिलता है।

ऊर्जा अधिक मात्रा (लगभग 38 ATP-673 किलो कैलोरी) में निकलती है।


ऊर्जा बहुत कम मात्रा (2ATP-27 किलो कैलोरी) में निकलती है।


इस क्रिया में O2 की आवश्यकता होती है


इस क्रिया में O2 की आवश्यकता नहीं होती है। होती है।


इस क्रिया के अन्त में शर्करा का सम्पूर्ण ऑक्सीकरण होकर CO2 तथा H2O बनता है।

क्रिया के अन्त में शर्करा का अपूर्ण ऑक्सीकरण होने से CO2 तथा C2H5OH बनते हैं।







प्रश्न 2. श्वसन तथा श्वासोच्छ्वास में अन्तर कीजिए।


उत्तर




श्वसन और श्वासोच्छ्वास में अन्तर



श्वसन


श्वसन एक अपचयी क्रिया है, जिसमें ग्लूकोस का ऑक्सीकरण होता है,जिससे CO₂ और ऊर्जा उत्पन्न होती हैं

यह एक भौतिक प्रक्रिया है, जिसमें शरीर ऑक्सीजन का अन्तर्ग्रहण करता है और CO₂का बहिःक्षेपण करता है।


यह क्रिया कोशिकाओं के अन्दर होती है।

यह क्रिया कोशिकाओं के बाहर होती है।

इस क्रिया में एन्जाइमों की आवश्यकता होती हैं

इसमें एन्जाइम्स की आवश्यकता नहीं होती

इस क्रिया में मुख्य श्वसनांग माइटोकॉण्ड्रिया होता है।

इसमें मुख्य श्वसनांग फेफड़े होते हैं।







प्रश्न 3. मनुष्य की श्वसन क्रिया में गैसीय विनिमय तथा गैसीय परिवहन किस प्रकार होता है? स्पष्ट कीजिए।



अथवा मनुष्य में ऑक्सीजन एवं कार्बन डाइऑक्साइड का विनिमय किस अंग में होता है? उसके कार्य को चित्र के माध्यम से स्पष्ट कीजिए।


अथवा मानव में साँस लेने की प्रक्रिया की व्याख्या कीजिए।


उत्तर – गैसीय विनिमय मनुष्य में कार्बन डाइऑक्साइड तथा ऑक्सीजन का विनिमय फेफड़ों में स्थित संरचना वायु कोष्ठों द्वारा होता है। प्रत्येक वायुकोष या वायुकोष्ठक शल्की उपकला की चपटी पतली कोशिकाओं से बनता है। इनकी कम मोटाई सरलता से गैसीय विनिमय में विशेष योगदान देती है। वायुकोष्ठक या वायुकोषों की बाह्य सतह पर रुधिर केशिकाओं का जाल फैला रहता है, जो फुफ्फुस धमनी के अत्यधिक शाखान्वित होने से बनता है। इन केशिकाओं से शरीर में ऑक्सीजनरहित रुधिर आता है, इसमें CO, की मात्रा अधिक होती है वायुकोष्ठको से CO, बाहर विसरित हो जाती है तथा O, रुधिर केशिकाओं से रुधिर में विसरित हो जाती है। वायुकोष्ठकों की , युक्त रुधिर केशिकाएँ आपस में मिलकर रुधिर वाहिनी का निर्माण करती हैं। ये अपेक्षाकृत मोटी होती हैं तथा फुफ्फुस शिरा में खुलती हैं।






0₂ का परिवहन फेफड़ों की वायु में O, का विसरण दाब अधिक होने के कारण 02 विसरण द्वारा रुधिर कोशिकाओं में पहुँचकर हीमोग्लोबिन से क्रिया करके ऑक्सीहीमोग्लोबिन नामक अस्थायी यौगिक बनाती है। ऑक्सीहीमोग्लोबिन ऊतक में पहुँचकर हीमोग्लोबिन तथा O, में विघटित हो जाता है। इस प्रकार ऊतक या कोशिकाओं को O, प्राप्त होती रहती है।


CO₂ का परिवहन कोशिकाओं में भोज्य पदार्थों के जैव-रासायनिक ऑक्सीकरण के फलस्वरूप ऊर्जा मुक्त होती है। इसी के साथ CO₂ तथा H₂O भी बनते हैं। CO₂ निम्न प्रकार से फेफड़ों तक पहुँचती है


(i) कार्बोनिक अम्ल के रूप में लगभग 5-7% CO₂ घुलकर कार्बोनिक अम्ल बनाती है। रुधिर प्लाज्मा में



(ii) कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन लगभग 10-23% CO₂ हीमोग्लोबिन से क्रिया करके कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन बनाती है।


(iii) बाइकार्बोनेट्स के रूप में लगभग 70-85% CO₂ सोडियम तथा पोटैशियम बाइकार्बोनेट बनाती है। श्वसन सतह पर क्लोराइड शिफ्ट के फलस्वरूप CO₂ मुक्त होकर वातावरण में चली जाती है। 





प्रश्न 4. कोशिकीय श्वसन द्वारा मोचित ऊर्जा किस अणु के संश्लेषण में प्रयुक्त होती है? इस अणु के अनृस्थ सहलग्नता खण्डित होने पर कितनी ऊर्जा मोचित होती है? 


उत्तर – कोशिकीय श्वसन द्वारा मोचित ऊर्जा ATP अणु के संश्लेषण में प्रयुक्त होती है। इसमें प्रयुक्त अभिक्रियाओं में 2 ATP अणु ऊर्जा उपयोग में आती है। एक अणु ADP से ATP के निर्माण के लिए 12 किलो कैलोरी ऊर्जा आवश्यक होती है, अतः कोशिकीय श्वसन क्रिया में 38 ATP अणुओं में कुल 456 किलो कैलोरी ऊर्जा अनुबन्धित होती है। शेष ऊर्जा (673 किलो कैलोरी) ऊष्मा के रूप में विमुक्त हो जाती है।




प्रश्न 5. हीमोग्लोबिन क्या है? यह कहाँ पाया जाता है? श्वसन क्रिया में इसकी क्या भूमिका है?


अथवा हीमोग्लोबिन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।


अथवा हमारे शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी के क्या परिणाम हो सकते हैं?



उत्तर – हीमोग्लोबिन यह एक जटिल प्रोटीन है। इसका निर्माण लौहयुक्त वर्णक हीम तथा ग्लोबिन प्रोटीन से होता है। सभी पृष्ठवंशियों में यह लाल रुधिराणुओं में पाया जाता है। केंचुएँ तथा अपृष्ठवंशियों में यह रुधिर प्लाज्मा में घुला रहता है। हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन से मिलकर अस्थायी यौगिक ऑक्सीहीमोग्लोबिन बनाता है। कोशिकाओं तथा ऊतकों में पहुँचकर ऑक्सीहीमोग्लोबिन विखण्डित होकर ऑक्सीजन को मुक्त कर देता है। यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। अत: हमारे शरीर में हीमोग्लोबिन श्वसन वर्णक का कार्य करता है, जो ऑक्सीजन के लिए उच्च बन्धुता रखता है। यह श्वसन में सहायता करता है तथा रुधिर में पाए जाने के कारण पूरे शरीर ऑक्सीजन का संचरण इसी के माध्यम से होता है, यदि इसकी अनुपस्थिति रहेगी, तो ऑक्सीजन के परिवहन के बिना हम जीवित नहीं रह पाएँगे।




विस्तृत उत्तरीय प्रश्न      7 अंक




प्रश्न 1. श्वसन की परिभाषा लिखिए। मनुष्य के फेफड़ों की संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए।


अथवा श्वसन किसे कहते हैं? मनुष्य के श्वसन अंगों का निम्नांकित चित्र बनाकर उनके कार्यों का वर्णन कीजिए।



उत्तर जैविक कार्यों के लिए आवश्यक ऊर्जा कार्बनिक भोज्य पदार्थों के जैव-रासायनिक ऑक्सीकरण से प्राप्त होती है। कोशिकाओं के इस जैविक प्रक्रम को श्वसन कहते हैं। मनुष्य में श्वसनांग नासिका, नासामार्ग, कण्ठ या स्वरयन्त्र या ग्रसनी, श्वास नलिका एवं फेफड़े (मुख्य श्वसन अंग) होते हैं। 


(i) नासिका एवं नासामार्ग चेहरे पर नासिका, दो बाह्य नासाछिद्रों से बाहर खुलती है। नासिका नासागुहा में खुलती है तथा यह गुहा पीछे घुमावदार, टेढ़े-मेढ़े मार्ग, नासामार्ग में खुलती है। नासामार्ग सीलिया युक्त श्लेष्मक कला से ढका रहता है। इसकी कोशिकाएँ श्लेष्म स्रावित करती हैं। नासामार्ग पीछे ग्रसनी (Pharynx) में खुलता है। यहाँ उपस्थित रोम तथा श्लेष्मा द्वारा वायु का निस्यन्दन होता है। 


(ii) ग्रसनी नासामार्ग से वायु गले में स्थित ग्रसनी में आती है। ग्रसनी में वायुनाल तथा ग्रासनाल दोनों खुलती हैं। वायुनाल के छिद्र को घांटीद्वार (Glottis) कहते हैं। इस पर एक ढक्कन के समान संरचना पाई जाती है। इस ढक्कननुमा संरचना को घांटीढापन (Epiglottis) कहते हैं। यह भोजन करते समय भोजन के कणों को वायुनाल में जाने से रोकता है। 


(iii) वायुनाल यह 10-12 सेमी लम्बी तथा 1.5-2.5 सेमी व्यास की उपास्थिल छल्लेनुमा नली होती है। यह निम्न दो भागों में बँटी होती हैं


(a) कण्ठ या स्वर यन्त्र यह वायुनाल का अगला बक्सेनुमा भाग है, जो उपास्थि की बनी तीन प्रकार की चार प्लेटों से मिलकर बना होता है। इसकी गुहा को कण्ठ कोष कहते हैं। कण्ठ कोष में दो जोड़ी वाक् रज्जु (Vocal cords) होते हैं। इन वाक् रज्जुओं में कम्पन्न से ही ध्वनि उत्पन्न होती है। इस कारण इसे ध्वनि उत्पादक अंग भी कहते हैं। हमारे गले में कण्ठ (Larynx) की उपास्थि ही उभार के रूप में होती है। इसे टेंटुआ (Adam's apple) भी कहते हैं।





(b) श्वासनली यह गर्दन की पूरी लम्बाई में फैली होती है। इसका कुछ भाग वक्ष गुहा में भी पहुँचता है। इसकी दीवार पतली, लचीली तथा 'C' आकार की उपास्थि से निर्मित 16-20 अधूरे छल्लों से बनी होती है। ये छल्ले श्वासनली (Trachea) में वायु न होने पर इसे पिचकने गुहा में आकर दो शाखाओं, श्वसनियों (Bronchi) में विभाजित हो जाती है। प्रत्येक श्वसनी अपनी तरफ के फेफड़े में प्रवेश करने के पश्चात् अनेक छोटी शाखाओं, श्वसनिकाओं (Bronchioles) में विभाजित हो जाती है। प्रत्येक श्वसनिका अन्त में फुफ्फुस के वायुकोषों (Alveoli) में समाप्त हो जाती है। इस प्रकार श्वास के समय ली गई वायु नासिका से वायुकोषों तक पहुँचती है। 


(iv) फेफड़े या फुफ्फुस यह प्रमुख श्वसनांग है। यह वक्षगुहा में हृदय के पार्श्व में स्थित कोमल एवं लचीला अंग है। प्रत्येक फेफड़े के चारों ओर दोहरी झिल्लीयुक्त गुहा होती है, जिसे फुफ्फुस गुहा (Pleural cavity) कहते हैं। झिल्लियों को फुफ्फुसावरण कहते हैं एवं इसमें एक लसदार तरल पदार्थ होता है। ये फुफ्फुसावरण व तरल पदार्थ फेफड़ों की रक्षा करते हैं। एक जोड़ी फेफड़े में दायाँ फेफड़ा बाएँ की अपेक्षा कुछ बड़ा होता है। यह अधूरी खाँच द्वारा तीन पिण्डों में विभक्त रहता है। बायाँ फेफड़ा एक ही अधूरी खाँच द्वारा दो पिण्डों में बँटा रहता है। इन खाँचों के अतिरिक्त फेफड़े की बाहरी सतह सपाट तथा चिकनी होती है। फेफड़े स्पंजी एवं असंख्य वायुकोषों में विभक्त रहते हैं।


प्रत्येक वायुकोष (Alveolus) शल्की उपकला से बना होता है, जिसकी बाहरी सतह पर रुधिर केशिकाओं का जाल फैला रहता है। यह फुफ्फुस धमनी के अत्यधिक शाखान्वित होने से बनता है।


रुधिर केशिकाओं एवं फेफड़ों की गुहा में स्थित वायु में O₂एवं CO₂का विसरण द्वारा आदान-प्रदान होता है।




प्रश्न 2. मनुष्य में श्वास लेने की क्रियाविधि का सचित्र वर्णन कीजिए।


अथवा मनुष्य के श्वसन अंगों की विशेषताएँ लिखिए। श्वसन और दहन में अन्तर स्पष्ट कीजिए । मनुष्य में श्वासोच्छ्वास की क्रियाविधि का वर्णन कीजिए।


अथवा प्राणियों की श्वसन सतह में क्या विशेषताएँ होनी चाहिए? 


उत्तर – मनुष्य के श्वसन अंग की विशेषताएँ श्वसन अंगों में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं


(i) श्वसन सतह में रुधिर केशिकाओं का जाल जितना अधिक फैला होगा, वायु-विनिमय उतना ही सुचारु रूप से होगा।


(ii) श्वसन अंग का पृष्ठीय क्षेत्रफल अधिक होना चाहिए।


(iii) श्वसन सतह नम और पतली होनी चाहिए।


(iv) श्वसन अंग तक कार्बन डाइऑक्साइड और ऑक्सीजन को लाने व ले जाने का उचित प्रबन्ध होना चाहिए।



प्राणियों की श्वसन सतह की विशेषताएँ


जन्तुओं में श्वसन के प्रकारों एवं श्वसनांगों में बहुत अधिक विविधता पाई जाती है। कुछ जीवों में त्वचा द्वारा सरलतापूर्वक श्वसन संपन्न हो जाता है, तो कुछ में इस कार्य हेतु जटिल तन्त्र पाया जाता है। जीवों में प्रभावी गैसीय विनिमय हेतु श्वसन सतह में निम्न विशेषताएँ होनी चाहिए


(i) पतली भित्ति


(ii) तीव्र विसरण हेतु नमी


(iii) बड़ा पृष्ठीय क्षेत्रफल


(iv) रुधिर प्रवाह का आधिक्य।



मनुष्य में श्वासोच्छ्वास क्रियाविधि


श्वासोच्छ्वास क्रियाविधि निम्नलिखित दो चरणों में पूर्ण होती हैं


(i) अन्तः श्वसन (Inspiration) इस क्रिया में शुद्ध वायु (O) श्वसनांगों द्वारा फेफड़ों में पहुँचती है। इस प्रक्रिया में डायफ्राम एवं बाह्य अन्तरापर्शुक (Internal intercostal) पेशियाँ संकुचित हो जाती हैं एवं डायफ्राम समतल (Flattened) हो जाता है। निचली पसलियाँ बाहर एवं ऊपर की ओर फैलती हैं तथा छाती फूल जाती है, जिसके फलस्वरूप वक्षगुहा (Thoracic cavity) का आयतन बढ़ जाता है और फेफड़ों में वायु का दाब कम हो जाता है। अन्ततया वायु नासारन्ध्र (Nostrils), कण्ठद्वार (Larynx) तथा श्वासनली (Trachea) में होते हुए फेफड़ों में भर जाती है।






मनुष्य में साँस लेने की क्रिया का प्रदर्शन


(ii) निःश्वसन (Expiration) इस क्रिया में आन्तरिक अन्तरापर्शुक पेशियों तथा डायफ्राम में शिथिलन से ही पसलियाँ, स्टर्नम और डायफ्राम अपनी पूर्व स्थिति में आ जाते हैं, जिससे वक्ष गुहा का आयतन कम हो जाने से फेफड़ों का आयतन कम हो जाता है। फेफड़ों पर दबाव बढ़ जाता है और वायु बाहर निकल जाती है।



                 C. परिवहन




मानव में परिवहन


कोशिकाओं तक भोजन तथा O2 को पहुँचाने के लिए, कोशिकाओं में उपापचय के फलस्वरूप बने उत्सर्जी पदार्थों को उत्सर्जी अंगों तक पहुँचाने के लिए एवं हॉर्मोन्स, आदि के वितरण के लिए शरीर में परिसंचरण तन्त्र (Circulatory system) की आवश्यकता होती है। इसके अन्तर्गत रुधिर, लसिका, हृदय एवं वाहिनियाँ आती हैं। जिसमें रुधिर एवं लसिका प्रमुख तरल ऊतक होते हैं। मानव का परिसंचरण तन्त्र निम्न दो भागों में बँटा होता है


1. रुधिर परिसंचरण तन्त्र


मानव में यह तन्त्र रुधिर, हृदय तथा रुधिर वाहिनियों से मिलकर बना होता है। रुधिर परिसंचरण की खोज विलियम हार्वे ने की थी।


(i) रुधिर


यह एक संयोजी ऊतक है, जो प्लाज्मा (55%), रुधिर कणिकाओं (RBC, WBC, प्लेटलेट्स), प्रतिस्कन्दकों (हिपेरिन), अकार्बनिक लवणों (पोटैशियम, कैल्शियम क्लोराइड), वर्णकों (हीमोग्लोबिन), आदि का जटिल सम्मिश्रण होता है। रुधिर ऑक्सीजन व पोषक पदार्थों के परिवहन तथा रुधिर का थक्का जमाने में आवश्यक होता है। लाल रुधिराणुओं में उपस्थित हीमोग्लोबिन के कारण ही रुधिर का रंग लाल होता है। मानव नर के एक घन मिमी रुधिर में 50-55 लाख घन मिली लाल रुधिर कणिकाएँ पाई जाती हैं। लाल रुधिर कणिकाओं की सतह पर प्रतिजन व प्लाज्मा में प्रतिरक्षी पाए जाते हैं।


(ii) हृदय


यह दोहरी झिल्ली से बनी थैलीनुमा संरचना में सुरक्षित रहता है, जिसे हृदयावरण (Pericardium) कहते हैं। हृदयावरण की दोनों झिल्लियों के मध्य हृदयावरणीय तरल पदार्थ पाया जाता है, जो हृदय की बाह्य आघातों से सुरक्षा करता है। मनुष्य के हृदय में चार वेश्म होते हैं अर्थात् दो अलिन्द व दो निलय। बायाँ निलय सबसे बड़ा वेश्म होता है।


             बहुविकल्पीय प्रश्न 1 अंक




प्रश्न 1. मनुष्य के हृदय में कोष्ठों (वेश्मों) की संख्या होती है 


(a) एक


(b) दो


(C) तीन


(d) चार


उत्तर (d) मानव हृदय में चार वेश्म; दो अलिन्द और दो निलय होते हैं।


प्रश्न 2. पल्मोनरी शिरा खुलती है या रुधिर लाती है



 (a) दाएँ अलिन्द में।      (c) बाएँ निलय में


(b) बाएँ अलिन्द में।         (d) दाएँ निलय में


उत्तर (b) दो पतली फुफ्फुसीय अथवा पल्मोनरी शिराएँ बाएँ अलिन्द में खुलती हैं। ये फेफड़ों से शुद्ध रुधिर लाती हैं।


 प्रश्न 3. फुफ्फुस धमनियों से अशुद्ध रुधिर चला जाता है



(a) हृदय में 


(b) फेफड़ों में


(c) शरीर की अग्र एवं पश्च महाधमनियों में


(d) दाएँ अलिन्द में


उत्तर (b) फुफ्फुसीय धमनियाँ हृदय से अशुद्ध रुधिर को शुद्धिकरण अथवा ऑक्सीजनीकरण के लिए फेफड़ों तक ले जाती हैं।


प्रश्न 4. फेफड़ों में शुद्ध रुधिर आता है। 


(a) बाएँ अलिन्द से


(b) दाएँ अलिन्द से 


(C) बाएँ निलय से


(d) दाएँ निलय से


उत्तर (c) फेफड़ों में बाएँ निलय से शुद्ध रुधिर आता है।


प्रश्न 5. शुद्ध रुधिर को शरीर के विभिन्न भागों में ले जाती है



(a) शिराएँ


(b) महाशिरा 


(C) दायाँ निलय


(d) महाधमनी



उत्तर (d) महाधमनी शुद्ध रुधिर को शरीर के विभिन्न भागों में ले जाती है और साथ ही शरीर की कोशिकाओं में पोषक पदार्थ, ऑक्सीजन और हॉर्मोन भी पहुँचाती है।


प्रश्न 6. दाएँ निलय से अशुद्ध रुधिर किस अंग में जाता है? 


(a) फेफड़ों में 


(b) आहारनाल में


(C) हृदय में


(d) त्वचा में


उत्तर (a) दाएँ निलय से अशुद्ध रुधिर फुफ्फुसीय धमनी द्वारा फेफड़ों में शुद्ध होने के लिए जाता है।


प्रश्न 7. पादपों में जाइलम का कार्य होता है।



(a) उत्सर्जी वर्ज्य पदार्थों का संवहन


(b) जल का संवहन


(C) भोजन का संवहन


(d) अमीनो अम्लों का संवहन


उत्तर (b) पादपों में जल का संवहन जाइलम द्वारा होता है।


प्रश्न 8. जल तथा खनिज लवणों को कौन-सा ऊतक पादप के विभिन्न भागों में पहुँचाता है? 


(a) मृदूतक


(b) जाइलम


(c) फ्लोएम


(d) कैम्बियम



उत्तर (b) जाइलम पादपों में जल तथा खनिज लवणों को जड़ से पादप के विभिन्न भागों में पहुंचाता है।


प्रश्न 9. फ्लोएम द्वारा भोजन का स्थानान्तरण होता है 



(a) सुक्रोस के रूप में


(b) प्रोटीन के रूप में


(c) हॉर्मोन्स के रूप में


(d) वसा के रूप में


उत्तर (a) फ्लोएम द्वारा भोजन का स्थानान्तरण सुक्रोस शर्करा के रूप में होता है।




प्रश्न 10. गर्मियों के दिनों में किस कारण दोपहर में पादप मुरझा जाते हैं?


 (a) वाष्पोत्सर्जन की कमी के कारण


 (b) वाष्पोत्सर्जन की अधिकता के कारण


 (c) प्रकाश-संश्लेषण की कमी के कारण


 (d) प्रकाश-संश्लेषण की अधिकता के कारण


 उत्तर (b) वाष्पोत्सर्जन की अधिकता के कारण पादप दोपहर में मुरझा जाते हैं। 



अतिलघु उत्तरीय प्रश्न   2 अंक



प्रश्न 1. दो तरल ऊतकों के नाम लिखिए।


उत्तर रुधिर तथा लसिका प्रमुख तरल ऊतक हैं। रुधिर में लाल रुधिर कणिकाएँ पाई जाती है, जबकि लसिका में ये अनुपस्थित होती हैं। रुधिर में श्वेत रुधिर कणिकाएँ कम, जबकि लसिका में अधिक होती हैं।



प्रश्न 2. मानव नर के एक घन मिमी रुधिर में कितनी लाल रुधिर कणिकाएँ होती हैं?




उत्तर मानव नर के एक घन मिमी रुधिर में 50-55 लाख घन मिली लाल रुधिर कणिकाएँ (RBCs) पाई जाती है। RBCs में केन्द्रक, गॉल्जीकाय, माइटोकॉण्ड्रिया तथा सेन्ट्रियोल परिपक्वन के समय विलुप्त हो जाते हैं। 


प्रश्न 3. हीमोग्लोबिन कहाँ होता है? इसका मुख्य कार्य लिखिए। 


उत्तर रुधिर का रंग लाल रुधिराणुओं में उपस्थित हीमोग्लोबिन के कारण लाल होता है। हीमोग्लोबिन एक लौह संयुक्त प्रोटीन है, जिसमें O₂ तथा CO₂ के साथ जुड़ने की क्षमता होती है। हीमोग्लोबिन O₂कणों को वायु कोषों से प्राप्त कर ऑक्सीहीमोग्लोबिन में परिवर्तित हो जाता है और ऑक्सीजन का शरीर के सभी अंगों तक परिवहन करता है।




प्रश्न 4. रुधिर में प्रतिजन तथा प्रतिरक्षी कहाँ उपस्थित होते हैं? 


उत्तर रुधिर में प्रतिजन लाल रुधिराणुओं (RBC) की सतह पर तथा प्रतिरक्षी प्लाज्मा में उपस्थित होते हैं। प्रतिजन विशेष ग्लाइकोप्रोटीन्स होते हैं। RBCs की सतह पर दो प्रकार के प्रतिजन-A व B एवं दो ही प्रकार के प्रतिरक्षी a व b पाए जाते हैं।


प्रश्न 5. मनुष्य के हृदय में कितने वेश्म होते हैं? इनमें सबसे बड़ा वेश्म कौन-सा है? 


उत्तर मानव हृदय एक गहरे लाल रंग की तिकोनी मांसल संरचना है। इसमें चार वेश्म (Chamber) होते हैं। इसके आगे के चौड़े भाग को अलिन्द (Auricle) तथा पीछे के संकरे भाग को निलय (Ventricle) कहते हैं। अलिन्द व निलय एक पट द्वारा दाएँ व बाएँ अलिन्द व निलय में बँटे होते हैं। बायाँ निलय सबसे बड़ा वेश्म होता है।



प्रश्न 6. मनुष्य के हृदय का दायाँ एवं बायाँ भागों में बँटवारे से होने वाले लाभ का वर्णन कीजिए।



उत्तर हृदय का दायाँ व बाँया बँटवारा ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को मिलने से रोकने में लाभदायक होता है। इस तरह का विभाजन शरीर को उच्च दक्षता पूर्ण ऑक्सीजन की पूर्ति करता है। मनुष्य को उच्च ऊर्जा की आवश्यकता होती है, इसलिए दोहरा परिसंचरण बहुत लाभदायक है।


प्रश्न 7. रुधिर वाहिनियाँ किन्हें कहते हैं? इनके प्रकार लिखिए।



उत्तर रुधिर हृदय के द्वारा पम्प होता हुआ विस्तृत रूप से फैली मोटी पतली रुधिर वाहिनियों में निरन्तर बहता रहता है। ये रुधिर वाहिनियाँ तीन प्रकार की होती है


1. धमनी


2. शिराएँ


3. केशिकाएँ



प्रश्न 8. फुफ्फुसीय धमनी में किस प्रकार का रुधिर पाया जाता है और क्यों ?


 उत्तर फुफ्फुसीय धमनी में अशुद्ध रुधिर पाया जाता है। यह इसे शुद्ध करने के लिए फेफड़ों में पहुँचाती है।



फुफ्फुसीय धमनी के अलावा सभी धमनियों में शुद्ध (O₂) रुधिर बहता है, जिसके कारण ये गुलाबी रंग की प्रतीत होती है।



प्रश्न 9. धमनी किसे कहते हैं? पल्मोनरी धमनी में किस प्रकार का रुधिर पाया जाता है?


उत्तर धमनी परिसंचरण तन्त्र की वह वाहिनिकाएँ होती हैं, जो रुधिर को हृदय से शरीर के विभिन्न भागों तक ले जाती हैं। पल्मोनरी धमनी में अनॉक्सीकृत रुधिर पाया जाता है।


प्रश्न 10. धमनी तथा शिरा को परिभाषित करें।


उत्तर 


धमनी वह रुधिर वाहिनियाँ, जो रुधिर का परिवहन हृदय से सम्पूर्ण शरीर के अंगों या ऊतकों तक करती है, धमनी कहलाती हैं। यह गुलाबी रंग की होती है। 


शिरा वह रुधिर वाहिनियाँ, जो रुधिर को सम्पूर्ण शरीर से एकत्रित करके हृदय तक लाती है, शिरा कहलाती हैं। यह चमकीली नीली या बैंगनी होती है।



प्रश्न 11. धमनी, शिरा व केशिका में पारस्परिक सम्बन्ध का नामांकित चित्र बनाइए।






प्रश्न 12. रुधिर दाब किसे कहते हैं?


उत्तर वह दबाव, जिसके कारण रुधिर धमनियों में प्रवाहित होता है, रुधिर दाब या रक्त चाप कहलाता है। ये दो प्रकार का, प्राकुंचन रुधिर दाब (120mmHg) तथा अनुशिथिलन रुधिर दाब (80mmHg) होता है। रुधिर दाब को स्फिग्मोमैनोमीटर यन्त्र द्वारा मापा जाता है।



प्रश्न 13. परासरण किसे कहते हैं?


उत्तर जब दो विभिन्न सान्द्रता वाले विलयनों को एक अर्द्धपारगम्य झिल्ली द्वारा अलग कर दिया जाता है, तो कम सान्द्रता वाले विलयन से अधिक सान्द्रता वाले विलयन की ओर जल अथवा विलायक के अणुओं की गति करने की क्रिया को परासरण कहते हैं।




प्रश्न 14. जाइलम तथा फ्लोएम में अन्तर स्पष्ट कीजिए। अथवा जाइलम तथा फ्लोएम में पदार्थों के परिवहन में क्या अन्तर है?




जाइलम तथा फ्लोएम में अन्तर



जाइलम (दारु)

फ्लोएम (पोषवाह)

दारु एक जटिल ऊतक, है, जो वाहिनिकाओं, वाहिकाओं, दारु मृदूतक और दारु रेशों से मिलकर बना होता है।

यह चालनी नलिकाओं, सहकोशिकाओं, पोषवाह मृदूतक और पोषवाह रेशों से मिलकर बना होता है।

वाहिकाओं का निर्माण परस्पर उपस्थित कोशिकाओं की भित्ति के पूर्ण अथवा आंशिक विघटन से होता है।

चालनी नलिकाएँ आपस में चालनी पट्टिकाओं द्वारा जुड़ी रहती हैं।

दारु मृदूतक कोशिकाएँ जीवित होती हैं।

चालनी नलिकाएँ और सहकोशिकाएँ जीवित होती हैं।


दारु का मुख्य कार्य जड़ों द्वारा अवशोषित जल और खनिज लवणों को पादप के अन्य भागों में पहुँचाना होता है।

इसका मुख्य कार्य पत्तियों द्वारा निर्मित भोज्य पदार्थों को पादप के अन्य भागों में पहुंचना होता है







प्रश्न 15. पादपों में जल एवं खनिज तथा खाद्य उत्पादों के संवहन हेतु वाहिकाओं का वर्णन कीजिए व उनके नाम बताइए।


उत्तर पादपों में जल व खनिज लवणों का संवहन जाइलम वाहिकाओं द्वारा होता है। भोजन का संवहन फ्लोएम की चालनी नलिकाओं द्वारा होता है। पत्तियों के द्वारा बना भोजन इन नलिकाओं द्वारा पादपों के विभिन्न भागों में पहुँचता है। 


प्रश्न 16. मूलदाब की परिभाषा दीजिए।


उत्तर मूलदाब वह दाब है, जो जड़ों की वल्कुट कोशिकाओं द्वारा पूर्ण स्फीत अवस्था में उत्पन्न होता है, जिसके फलस्वरूप कोशिकाओं में एकत्रित जल न केवल जाइलम में पहुँचता है, बल्कि तने में भी कुछ ऊँचाई तक चढ़ता है।


   लघु उत्तरीय प्रश्न   4 अंक



प्रश्न 1. बन्द और खुले रुधिर परिसंचरण से क्या तात्पर्य है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।



उत्तर – रुधिर परिसंचरण दो प्रकार का होता है


(i) बन्द रुधिर परिसंचरण इसमें रुधिर, रुधिर वाहिनियों में बहता है। रुधिर वाहिनियों के अन्तर्गत धमनियाँ, शिराएँ और रुधिर केशिकाएँ आती हैं। रुधिर केशिकाओं द्वारा पदार्थों का आदान-प्रदान होता है; उदाहरण केंचुएँ व मानव में स्पष्ट रुधिर वाहिनियों का बन्द परिसंचरण तन्त्र होता है।


(ii) खुला रुधिर परिसंचरण इसमें रुधिर, रुधिर पात्रों या गुहा में भरा होता है अर्थात् वाहिनियों का अभाव होता है। यहाँ अंग रुधिर में डूबे रहते हैं; उदाहरण आर्थ्रोपोडा के सदस्यों (कॉकरोच, मकड़ी, आदि) में।


प्रश्न 2. मनुष्य में दोहरे परिसंचरण की व्याख्या कीजिए। यह क्यों आवश्यक है?


अथवा मनुष्य में दोहरे रुधिर परिसंचरण को आरेखित चित्र द्वारा दर्शाइए। 


अथवा मानव हृदय में रुधिर परिसंचरण को 'दोहरा परिसंचरण' क्यों कहते हैं? 


उत्तर मनुष्य में प्रत्येक चक्र में दो बार रुधिर हृदय में जाता है, इसे दोहरा परिसंचरण कहते हैं। हृदय कई कोष्ठों में बँटा होता है। ऑक्सीजन प्रचुर रुधिर फुफ्फुस से हृदय में बाईं ओर स्थित कोष्ठ-बायाँ अलिन्द में आता है। इस रुधिर को एकत्रित करते समय बायाँ अलिन्द शिथिल रहता है। जब अगला, कोष्ठ बायाँ निलय

फैलता है, तब यह संकुचित होता है, जिससे रुधिर इसमें स्थानांतरित होता है। इसके पश्चात् जब बायाँ निलय संकुचित होता है, तब रुधिर शरीर में पम्पित हो जाता है। ऊपर वाला दायाँ कोष्ठ, दायाँ अलिन्द जब फैलता है, तो शरीर से विऑक्सीजनित रुधिर इसमें आ जाता है। जैसे ही दायाँ अलिन्द संकुचित होता है, नीचे वाला संगत कोष्ठ, दायाँ निलय फैल जाता है। यह रुधिर को दाएँ निलय में स्थानांतरित कर देता है, जो रुधिर को ऑक्सीजनीकरण हेतु विभाजन फुफ्फुस में पंप कर देता है।


मनुष्य में दोहरे परिसंचरण की आवश्यकता हृदय का दायाँ व बायाँ बँटवारा ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को मिलने से रोकने में लाभदायक होता है। इस तरह का विभाजन शरीर को उच्च दक्षतापूर्ण ऑक्सीजन की पूर्ति कराता है। मनुष्य को उच्च ऊर्जा की आवश्यकता होती है, इसलिए दोहरा परिसंचरण बहुत लाभदायक है।


मनुष्य में दोहरे रुधिर परिसंचरण तन्त्र को निम्न चित्र द्वारा दर्शाया गया है




प्रश्न 3. रुधिर के चार कार्य बताइए।


 उत्तर रुधिर के कार्य निम्नलिखित हैं



(i) गैसों का परिवहन रुधिर गैसों (O₂तथा CO₂) का परिवहन करता है। रुधिर की लाल रुधिर कणिकाएँ हीमोग्लोबिन तथा ऑक्सीजन से क्रिया करके ऑक्सीहीमोग्लोबिन का निर्माण करती हैं। यह ऊतकों में पहुँचकर ऑक्सीजन और हीमोग्लोबिन में टूट जाता है। ऑक्सीजन ऊतकों द्वारा ग्रहण कर ली जाती है तथा CO₂का परिवहन हीमोग्लोबिन एवं कार्बोनेट लवण करते हैं।


(ii) पोषक पदार्थों का परिवहन आँत में अवशोषित भोज्य पदार्थ रुधिर प्लाज्मा द्वारा ऊतकों में पहुँचाए जाते हैं।


(iii) उत्सर्जी पदार्थों का परिवहन शरीर में उपापचयी क्रियाओं के कारण यूरिया, आदि उत्सर्जी पदार्थ बनते रहते हैं। ये रुधिर द्वारा पहले यकृत में फिर यकृत से वृक्कों में पहुँचते हैं।


(iv) शरीर ताप का नियन्त्रण और नियमन रुधिर शरीर के सभी भागों में ताप को समान बनाए रखता है तथा हॉमोनों का परिवहन करता है।



प्रश्न 4. मानव रुधिर की संरचना एवं कार्य का संक्षिप्त में वर्णन कीजिए।


अथवा रुधिर के चार कार्यों को लिखिए।



उत्तर मानव रुधिर एक तरल संयोजी ऊतक है। यह जल से थोड़ा गाढ़ा एवं हल्का क्षारीय (pH 7.3-7.4) होता है।




 रुधिर के निम्न दो मुख्य घटक हैं।


(i) प्लाज्मा (Plasma) यह रुधिर का लगभग 55% भाग बनाता है, जिसमें 90% जल तथा 10% में जटिल कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ होते हैं। इसे रुधिर का निर्जीव भाग कहते हैं, क्योंकि इसमें रुधिर कणिकाओं का अभाव होता है। प्लाज्मा के कार्बनिक पदार्थों में प्रतिरक्षी, ग्लूकोस, अमीनो अम्ल, वसीय अम्ल, हॉमोन, एन्जाइम, विटामिन तथा प्रोटीन (जैसे-एल्ब्युमिन, ग्लोब्यूलिन, प्रोथ्रॉम्बिन, फाइब्रिनोजन, हिपैरिन) आदि पदार्थ आते हैं।


हिपैरिन (Heparin) मानव रुधिर में प्रतिस्कन्दक (Anticoagulant) की भूमिका निभाता है। यह रुधिर वाहिनियों में रुधिर के स्कन्दन (Clotting) को रोकता है।


इसके विपरीत प्रोथ्रॉम्बिन (Prothrombin) व फाइब्रिनोजन (Fibrinogen) प्रोटीन चोट लगने पर रुधिर के स्कन्दन में मदद करते हैं। अकार्बनिक पदार्थों में पोटैशियम, सोडियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम के फॉस्फेट, बाइकार्बोनेट, सल्फेट, क्लोराइड, आदि सम्मिलित होते हैं।


(ii) रुधिर कणिकाएँ या रुधिराणु (Blood corpuscles) ये रुधिर का लगभग 45% भाग बनाते हैं। रुधिर में रुधिर कणिकाएँ तीन प्रकार की होती हैं 


(a) लाल रुधिर कणिकाएँ


 (b) श्वेत रुधिर कणिकाएँ 


(c) रुधिर प्लेटलेट्स। 



प्रश्न 5. रुधिर तथा लसिका में दो-दो अन्तर बताइए। अथवा रुधिर तथा लसिका में भिन्नता बताइए। 


उत्तर रुधिर तथा लसिका में अन्तर निम्नलिखित हैं



रुधिर


लसिका

रुधिर में लाल रुधिराणु पाए जाते हैं।इसलिए रुधिर का रंग लाल होता है।

लसिका में लाल रुधिराणु नहीं पाए जाते हैं। इसलिए लसिका का रंग श्वेत होता है।

इसमें विलेय प्लाज्मा प्रोटीन अधिक होती है तथा न्यूट्रोफिल्स की संख्या भी अधिक होती है।

इसमे अविलेय प्लाज्मा प्रोटीन अधिक होती है तथा लिम्फोसाइट्स की संख्या भी अधिक होती है।

ऑक्सीजन तथा पोषक पदार्थ अधिक मात्रा में पाए जाते हैं।

उत्सर्जी पदार्थों की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है।


WBC की संख्या कम होती है।

WBC की संख्या अधिक होती है।





[4]


प्रश्न 6. हृदय क्या है? एक लेख द्वारा स्पष्ट कीजिए कि यह एक पम्प के रूप में कार्य करता है।


(2019)


उत्तर 

हृदय – यह मानव शरीर का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है, जो विशेष प्रकार की हृदयी पेशियों के द्वारा बना होता है, जो जीवनपर्यन्त रुधिर परिसंचरण का कार्य करता है।


मानव हृदय की क्रियाविधि हृदय पम्प की भाँति कार्य करता है। यह रुधिर को ग्रहण कर दबाव के साथ उसे अंगों की ओर भेजता है। यह नियमित, सतत् एवं जीवनपर्यन्त काम करता रहता है। हृदय की पेशियों के सिकुड़ने की अवस्था को प्रकुंचन (Systol) एवं फैलने को अनुशिथिलन (Diastole) कहते हैं।


अलिन्द के बाद निलय सिकुड़ते हैं तथा निलय के बाद अलिन्द, यह प्रक्रिया लगातार अनवरत् चलती रहती है। इस प्रकार फैलने सिकुड़ने की क्रिया से एक हृदय स्पन्दन बनता है अर्थात् प्रत्येक हृदय स्पन्दन में हद पेशियों को एक बार प्रकुंचन तथा एक बार अनुशिथिलन अवस्था मे आना होता है।


मानव का हृदय एक मिनट में 70-72 बार स्पन्दित होता है, जिसे हृदय स्पन्दन की दर कहते हैं। शरीर के सभी अंगों से अनॉक्सीकृत या अशुद्ध रुधिर ऊपरी एवं निम्न महाशिराओं द्वारा दाहिने अलिन्द में आता है। इसी तरह फेफड़ों द्वारा ऑक्सीकृत या शुद्ध रुधिर बाएँ अलिन्द में आता है। दोनों अलिन्दों के रुधिर से भरने के बाद इनमें एक साथ संकुचन होता है, जिससे इनका रुधिर अलिन्द-निलय छिद्रों द्वारा अपनी ओर के निलयों में आ जाता है।


निलयों में रुधिर आने पर दोनों निलयों में संकुचन होता है। अत: दाहिने निलय का अनॉक्सीकृत या अशुद्ध रुधिर पल्मोनरी महाधमनी द्वारा फेफड़ों में जाता है, जबकि बाएँ निलय का ऑक्सीकृत रुधिर कैरोटिको-सिस्टेमिक महाधमनी द्वारा सम्पूर्ण शरीर में पहुँचता है। यही महाधमनी कशेरुक दण्ड के नीचे पृष्ठ महाधमनी बनाती है। निलयों के संकुचन के समाप्त होने पर अलिन्दों में पुन: संकुचन प्रारम्भ हो जाता है। रुधिर का यह परिसंचरण दोहरा परिसंचरण कहलाता है।


प्रश्न 7. मनुष्य के हृदय की आन्तरिक संरचना का स्वच्छ नामांकित चित्र बनाइए।


अथवा हृदय की खड़ी काट का नामांकित चित्र बनाइए।




प्रश्न 8. धमनी एवं शिरा में अन्तर लिखिए। 


उत्तर धमनी एवं शिरा में अन्तर निम्नलिखित हैं





धमनी

शिरा

ये हृदय से रुधिर को अंगों की ओर ले जाती है।

ये शरीर के विभिन्न अंगों से रुधिर को हृदय की ओर लाती है।


धमनियों में शुद्ध रुधिर प्रवाहित होता है (पल्मोनरी धमनी को छोड़कर)।

शिराओं में अशुद्ध रुधिर प्रवाहित होता है। (पल्मोनरी शिरा को छोड़कर)।


धमनियों में रुधिर अत्यधिक दबाव के साथ बहता है।

शिराओं में रुधिर बहुत कम दबाव के साथ बहता है।


धमनियों की भित्ति मोटी व लचीली होती है व इनमें कपाट नहीं पाए जाते हैं।

शिराओं की भित्ति पतली और कम लचीली होती है व इनमें कपाट पाए जाते हैं।





प्रश्न 10. विसरण तथा परासरण में क्या अन्तर है?



उत्तर – विसरण तथा परासरण में अन्तर निम्न प्रकार से हैं



विसरण

परासरण

विसरण क्रिया ठोस द्रव एवं गैस सभी में हो सकती है।


यह क्रिया केवल द्रव और उसमें घुले पदार्थों में ही होती है।

विसरण करने वाले दो पदार्थों के बीच किसी प्रकार की कला की आवश्यकता नहीं होती है।

परासरण के लिए दोनों द्रव्यों के मध्य अर्द्धपारगम्य कला का होना आवश्यक है।

विसरण सभी दिशाओं में होने वाली क्रिया है।

यह निश्चित दिशाओं में होने वाली क्रिया है।


इस क्रिया में विसरण दाब उत्पन्न होता है जिसके कारण अणु गति करते हैं।

इस क्रिया में परासरण दाब उत्पन्न होता है, जो घोल की सान्द्रता पर निर्भर करता है।




प्रश्न 11. विसरण क्रिया तथा रसारोहण को समझाइए।


अथवा रसारोहण पर टिप्पणी लिखिए। 


उत्तर विसरण क्रिया – किसी पदार्थ के सूक्ष्मकणों के अपने अधिक सान्द्रता वाले क्षेत्र से कम सान्द्रता वाले क्षेत्र की ओर गमन को विसरण कहते हैं।


विसरण की क्रिया का कारण, पदार्थ के अणुओं में निरन्तर अनियमित गति का होते रहना है। गैस अथवा द्रव के अणुओं के बीच आकर्षण बल कम होने के कारण अणुओं के एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की पर्याप्त स्वतन्त्रता रहती हैं। इसलिए विसरण की क्रिया मुख्यतया द्रवों और गैसों में होती है।



रसारोहण – पादपों की जड़ों द्वारा अवशोषित जल और उसमें उपस्थित लवणों का पादप में ऊपर की ओर चढ़ने की क्रिया को रसारोहण कहते हैं। रसारोहण के माध्यम से जल और लवण पादप के विभिन्न भागों तक पहुँच जाते हैं। इस जल को गुरुत्वाकर्षण के विपरीत ऊपर चढ़ने हेतु बल की आवश्यकता होती है। यह बल जल के अपने संसंजक बल और आसंजक बल के बीच आकर्षण के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है। दोनों बल मिलकर जल के अणुओं को वाहिकाओं की संकरी नलिकाओं से होकर ऊपर को खींचते हैं, जो केशिकीय उन्नयन कहलाता है।



प्रश्न 12. वाष्पोत्सर्जन की परिभाषा लिखिए तथा उसको प्रभावित करने वाले केवल चार कारकों का उल्लेख कीजिए


अथवा वाष्पोत्सर्जन किसे कहते हैं? इस क्रिया को प्रभावित करने वाले चार कारकों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। 


उत्तर – वाष्पोत्सर्जन पादपों के वायवीय भागों से वाष्प के रूप में होने वाली जलहानि को वाष्पोत्सर्जन कहते हैं। वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले वातावरणीय कारक निम्न हैं


(i) वायुमण्डलीय आर्द्रता वायु की आर्द्रता बढ़ने से वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है और आर्द्रता घटने से वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाती है।


(ii) वायु की गति इसकी गति, जितनी अधिक होगी वाष्पोत्सर्जन की दर भी उतनी अधिक होगी, लेकिन तेज हवा चलने पर पर्णरन्ध्र बन्द हो जाते हैं और वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है।


(iii) तापमान वायुमण्डलीय ताप में वृद्धि होने के कारण वायु की आर्द्रता कम हो जाती है। वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाती है। तापमान कम होने पर वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है।


(iv) प्रकाश तीव्रता प्रकाश की तीव्रता में वृद्धि के साथ तापमान में वृद्धि और वायुमण्डलीय आर्द्रता कम हो जाती है, जिससे वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाता है।


प्रश्न 13. वाष्पोत्सर्जन के चार प्रमुख महत्त्व बताइए।


अथवा वाष्पोत्सर्जन को परिभाषित कीजिए। इसके महत्त्व पर टिप्पणी कीजिए।


अथवा पौधों के लिए वाष्पोत्सर्जन क्यों महत्वपूर्ण है? 


उत्तर 


वाष्पोत्सर्जन का महत्त्व


(i) जड़ों द्वारा अत्यधिक मात्रा में अवशोषित जल इस क्रिया के द्वारा वातावरण में वाष्पित हो जाता है। जिससे जल चक्र बना रहता है।


(ii) वाष्पोत्सर्जन के कारण एक प्रकार का चूषक बल अथवा वाष्पोत्सर्जन खिंचाव उत्पन्न हो जाता है, जो रसारोहण और जल के मृदा में अवशोषण में सहायक होता है।


(iii) वाष्पोत्सर्जन द्वारा पादप का ताप सामान्य बना रहता है।


(iv) अधिक वाष्पोत्सर्जन के कारण फलों में शर्करा की सान्द्रता बढ़ जाती है, जिससे वह अधिक मीठे हो जाते हैं।



प्रश्न 14. वाष्पोत्सर्जन किसे कहते हैं? प्रयोग द्वारा वाष्पोत्सर्जन क्रिया की विवेचना कीजिए।


अथवा वाष्पोत्सर्जन किसे कहते हैं? इसके महत्व को चित्र की सहायता से समझाइए।



उत्तर 


प्रयोग एक गमले में लगे स्वस्थ पादप को, जिसमें पत्तियाँ अधिक हों, अच्छी तरह पानी से सींच लेते हैं। इसकी मिट्टी और गमले को रबड़ अथवा पॉलिथीन की चादर से पूरी तरह ढक देते हैं या गमले को काँच की प्लेट पर रखकर बेलजार से ढक देते हैं।




बेलजार के आधार पर ग्रीस लगाकर उपकरण को पूर्णतया वायुरुद्ध कर देते हैं। उपकरण को धूप में रख देते हैं। कुछ समय के बाद बेलजार की भीतरी सतह पर जल की छोटी-छोटी बूँदें दिखाई देने लगती हैं। इस प्रयोग से सिद्ध होता है कि पादप के वायवीय अंगों से जलवाष्प निकलती है, जो संघनित होकर जल की बूँदों के रूप में एकत्र हो जाती है। इससे स्पष्ट है कि पादपों में वाष्पोत्सर्जन होता है।



विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 7 अंक




प्रश्न 1. रुधिर की संरचना तथा कार्य का वर्णन कीजिए


अथवा रुधिर कोशिकाओं के नाम तथा उनके प्रमुख कार्य लिखिए।



उत्तर 


मानव में रुधिर कणिकाएँ निम्नलिखित तीन प्रकार के होती हैं


(i) लाल रुधिर कणिकाएँ (Red Blood Corpuscles or RBCs) ये लाल रंग की केन्द्रकरहित तथा उभयावतल (Biconcave) कणिकाएँ होती हैं। इनका लाल रंग इनमें उपस्थित हीमोग्लोबिन नामक श्वसन वर्णक (Respiratory pigment) के कारण होता है। ये ऑक्सीजन के परिवहन का कार्य करती हैं।


(ii) श्वेत रुधिर कणिकाएँ या ल्यूकोसाइट्स (White Blood Corpuscles or WBCs) ये लाल रुधिर कणिकाओं से बड़ी, केन्द्रकयुक्त, अमीबाभ (Amoeboid) तथा रंगहीन कणिकाएँ होती हैं। श्वेत रुधिराणु दो प्रकार के होते हैं


(a) कणिकामय श्वेत रुधिराणु (Granulocytes) इनका कोशिकाद्रव्य कणिकामय तथा केन्द्रक पालियुक्त होता है। ये असममित आकृति के होते हैं। अभिरंजन गुणधर्मो (Staining characteristics) के आधार पर


इन्हें तीन भागों में बाँटा जा सकता है



एसिडोफिल्स या इओसिनोफिल्स (Acidophils or Eosinophils) रोगों के संक्रमण के समय इनकी संख्या बढ़ जाती है। ये शरीर को प्रतिरक्षा प्रदान करने में सहायक होती हैं तथा एलर्जी व अतिसंवेदनशीलता में महत्त्वपूर्ण कार्य करती हैं।


बैसोफिल्स (Basophils) इनका केन्द्रक 2-3 पालियों में विभाजित तथा 'S' आकृति का दिखाई देता है। ये हिपैरिन, हिस्टैमिन एवं सिरोटोनिन नामक पदार्थों का स्रावण करती हैं।


न्यूट्रोफिल्स (Neutrophils) श्वेत रुधिर कणिकाओं में इनकी संख्या सबसे अधिक (60-70%) होती है। इनका केन्द्रक 3-5 पालियों में विभाजित रहता है। ये भक्षकाणु (Phagocytosis) क्रिया में सबसे अधिक सक्रिय होती हैं।


(b) कणिकारहित श्वेत रुधिराणु (Agranulocytes) इन श्वेत रुधिर कणिकाओं के कोशिकाद्रव्य में कणिकाएँ नहीं पाई जाती हैं।


ये दो प्रकार की होती हैं


लिम्फोसाइट्स या लसिकाणु (Lymphocytes) इनका कार्य प्रतिरक्षी (Antibodies) का निर्माण करना तथा शरीर की सुरक्षा करना होता है।


मोनोसाइट्स (Monocytes) ऊतक द्रव्य में जाकर ये वृहद् भक्षकाणु (Macrophages) में परिवर्तित हो जाती हैं। इनका कार्य भक्षकाणु क्रिया द्वारा जीवाणुओं का भक्षण करना होता है।


(iii) रुधिर प्लेटलेट्स या थ्रॉम्बोसाइट्स (Blood Platelet or Thrombocytes) ये केवल स्तनधारियों के रुधिर में पाई जाती हैं। ये केन्द्रकरहित, गोल या अण्डाकार होती है। ये चोट लगने पर रुधिर का थक्का जमने की क्रिया में सहायक होती है।



प्रश्न 2. मनुष्य में आन्तरिक परिवहन किस प्रकार होता है? संक्षेप में वर्णन कीजिए।



उत्तर मनुष्य में आन्तरिक परिवहन दो प्रकार से होता है


1. रुधिर परिसंचरण


2. लसिका परिसंचरण


1. रुधिर परिसंचरण तन्त्र रुधिर सदैव निश्चित वाहिनियों में बहता है तथा शरीर के ऊतकों के साथ सीधे सम्पर्क में कभी नहीं आता है। शारीरिक ऊतकों में रुधिर पहुँचाने का यह सबसे उपयुक्त तरीका है। इसमें रुधिर हृदय, धमनियों और शिराओं में बहता है।



2. लसिका परिसंचरण तन्त्र मनुष्य में रुधिर परिसंचरण तन्त्र के अतिरिक्त एक अन्य तरल परिसंचरण तन्त्र भी पाया जाता है, जिसे लसिका परिसंचरण तन्त्र कहते हैं। यह तन्त्र लसिका वाहिनियों (Lymph vessels) द्वारा सम्पूर्ण शरीर में फैला होता है। लसिका परिसंचरण तन्त्र निम्न अंगों से मिलकर बना होता है।


(i) लसिका केशिकाएँ (Lymph capillaries) लसिका केशिकाएँ शरीर के विभिन्न अंगों में स्थित महीन नलिकाएँ हैं। आँत के रसांकुर (Villi) में स्थित इनकी अन्तिम शाखाओं को आक्षीर वाहिनियाँ (Lacteals) कहते हैं।


(ii) लसिका वाहिनियाँ (Lymph vessels) लसिका केशिकाएँ परस्पर मिलकर लसिका वाहिनियों का निर्माण करती हैं। लसिका वाहिनियों के अन्दर लसिका नामक द्रव्य भरा होता है, जो रुधिर प्लाज्मा का ही अंश होता है। बाएँ अग्रपाद, दोनों पश्चपादों, सिर तथा ग्रीवा के बाएँ भागों, आहारनाल, वक्ष एवं उदर गुहा के अन्य भागों की लसिका वाहिनियाँ, शरीर की देहभित्ति के नीचे स्थित एक बड़ी बाईं वक्षीय लसिका वाहिनी (Left thoracic lymph duct) में खुलती है तथा यह वाहिनी उदर गुहा में उपस्थित सिर्स्टना काइली (Cisterna chyli) नामक एक बड़ी थैली से जुड़ी रहती है। आगे यह बाईं अधोक्षक शिरा (Left subclavian vein) में खुलती है।


इसी प्रकार दाएँ हाथ तथा सिर, ग्रीवा एवं वक्ष के दाएँ भागों की लसिका वाहिनियाँ एक बड़ी दाईं वक्षीय लसिका वाहिनी (Right thoracic lymph duct) में खुलती हैं, जो बाईं से छोटी होती है और दाईं अधोक्षक शिरा (Right subclavian vein) में खुलती है।


(iii) लसिका गाँठें (Lymph nodules) कुछ स्थानों पर लसिका वाहिनियाँ फूलकर लसिका गाँठों का निर्माण करती हैं। इनके मुख्य कार्य निम्न हैं


(a) इनमें निर्मित लिम्फोसाइट्स लसिका में मुक्त होती हैं।


(b) ये लसिका को छानकर स्वच्छ करती हैं।


(c) ये प्रतिरक्षी (Antibody) का संश्लेषण करती हैं।


(d) ये जीवाणुओं एवं अन्य हानिकारक पदार्थों को नष्ट करती हैं।


(iv) लसिका अंग (Lymph organs) थाइमस ग्रन्थि, प्लीहा (Spleen) एवं टॉन्सिल्स प्रमुख लसिका अंग हैं।



प्रश्न 3. रुधिर परिवहन को परिभाषित कीजिए। खुले, बन्द तथा दोहरे रुधिर परिवहन तन्त्र को समझाइए। रुधिर की संरचना एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।


उत्तर शुद्ध रुधिर के हृदय से शरीर के विभिन्न अंगों में जाने व अंगों से अशुद्ध रुधिर के हृदय में आने को रुधिर परिवहन कहते हैं। रुधिर ऑक्सीजन के परिवहन का मुख्य माध्यम है। रुधिर की लाल रुधिर कणिकाओं में उपस्थित हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन से क्रिया करके एक अस्थायी यौगिक ऑक्सीहीमोग्लोबिन का निर्माण करता है, जो ऊतकों में पहुँचकर ऑक्सीजन और हीमोग्लोबिन में विखण्डित हो जाता है।



प्रश्न 4. स्वच्छ और नामांकित चित्र की सहायता से मानव हृदय की आन्तरिक संरचना का वर्णन कीजिए। धमनी तथा शिरा में अन्तर बताइए।


अथवा मनुष्य के हृदय की आन्तरिक संरचना का चित्रों सहित वर्णन कीजिए।



अथवा मानव हृदय का एक स्वच्छ नामांकित व्यवस्थात्मक काट दृश्य बनाइए तथा यह स्पष्ट कीजिए कि हृदय के किस भाग में ऑक्सीजनित रुधिर तथा विऑक्सीजनित रुधिर रहता है? चित्र में रुधिर चक्रण प्रक्रिया को कणाकार चिन्ह से समझाइए। 



अथवा मानव हृदय की अनुदैर्ध्य काट का नामांकित चित्र बनाकर उसकी संरचना का वर्णन कीजिए तथा तीर की सहायता से रुधिर परिसंचरण का मार्ग प्रदर्शित कीजिए। 


उत्तर – मनुष्य के हृदय की आन्तरिक संरचना हृदय की आन्तरिक संरचना का वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है


 (i) अलिन्द एवं निलय मानव हृदय की अनुलम्ब काट का अध्ययन करने पर मनुष्य के चतुष्वेश्मी हृदय में चार पूर्णवेश्म अर्थात् दो अलिन्द तथा दो निलय दिखाई देते हैं। प्रत्येक ओर का अलिन्द व निलय (Atrium and ventricle) आपस में सम्बन्धित होते हैं। अलिन्दों की दीवारें अपेक्षाकृत पतली होती है, जबकि निलयों की दीवारें मोटी होती हैं। दोनों अलिन्द अन्तराअलिन्दीय पट्ट (Interatrial septum) तथा दोनों निलय अन्तरानिलयी पट्ट (Interventricular septum) द्वारा पृथक् होते हैं। मानव हृदय में बायाँ निलय सबसे बड़ा वेश्म होता है। 


(ii) फोसा ओवैलिस अन्तराअलिन्दीय पट्ट के पश्च भाग पर (दाहिनी तरफ) एक छोटा-सा अण्डाकार गड्ढा होता है, जो फोसा ओवैलिस (Fossa ovalis) कहलाता है। भ्रूण में यह छिद्र फोरामेन ओवैलिस के नाम से जाना जाता है।


(iii) महाशिरा दाहिने अलिन्द में दो मोटी महाशिराएँ अलग-अलग छिद्रों द्वारा खुलती हैं, इन्हें अग्र महाशिरा (Inferior vena cava) तथा पश्च महाशिरा (Superior vena cava) कहते हैं।


 (iv) ट्रेबीकुली कॉर्नी गुहाओं की ओर निलयों की दीवार सपाट न होकर छोटे-छोटे अनियमित भंजों के रूप में उभरी होती है, ये भंज ट्रेबीकुली कॉन (Trabeculae carnae) कहलाते हैं।


(v) कोरोनरी साइनस अन्तराअलिन्दीय पट के समीप हृदय की दीवारों से आने वाले रुधिर हेतु कोरोनरी साइनस (Coronary sinus) का छिद्र होता है। इस छिद्र पर कोरोनरी या थिबेसियन कपाट (Thebasian valve) होता है।


(vi) स्पन्दन केन्द्र दाएँ अलिन्द में महाशिराओं के छिद्रों के समीप शिरा, अलिन्द गाँठ (Sino-auricular node) होती है, जो स्पन्दन केन्द्र (Pacemaker)कहलाती है।


(vii) फुफ्फुस तथा धमनी महाकांड चाप दाएँ निलय से फुफ्फुस चाप निकलता हैं, जो अशुद्ध रुधिर को फेफड़ों तक पहुँचाता है। बाएँ निलय से धमनी महाकांड चाप निकलता है, जो सम्पूर्ण शरीर को शुद्ध रुधिर पहुँचाता है। दोनों चापों के एक-दूसरे के ऊपर से निकलने के स्थान पर एक स्नायु आरटीरिओसम (Ligament arteriosum) नामक ठोस स्नायु होता है। भ्रूणावस्था में इस स्नायु के स्थान पर डक्टस आरटीरिओसस (Ductus arteriosus or botalli) नामक एक महीन धमनी होती है।


फुफ्फुस चाप तथा धमनी महाकांड चाप (Pulmonary and cortico-systemic arch) के आधार पर तीन अर्द्धचन्द्राकार कपाट (Semilunar valves) लगे होते हैं। ये कपाट रुधिर को वापस हृदय में जाने से रोकते हैं। अलिन्द, अलिन्द-निलय छिद्र (Atrio-ventricular apertures) द्वारा निलय में खुलते हैं। इन छिद्रों पर वलनीय अलिन्द-निलय कपाट (Cuspid Atrio-ventricular valve) स्थित होते हैं। ये कपाट रुधिर को अलिन्द से निलय में तो जाने देते हैं, परन्तु वापस नहीं आने देते।


(viii) त्रिवलन तथा द्विवलन कपाट दाएँ अलिन्द व निलय के मध्य अलिन्द-निलय कपाट में तीन वलन होते हैं। अतः ये त्रिवलनी कपाट (Tricuspid valve) कहलाते हैं। बाएँ अलिन्द व निलय के मध्य कपाट पर दो वलन होते हैं, जिसे द्विवलन कपाट (Bicuspid valve) या मिटूल कपाट (Mitral valve) कहते हैं। कण्डरा रज्जु या कॉर्डी टेन्डनी (Chordae tendinae) एक तरफ कपाटों से तथा दूसरी तरफ निलय की भित्ति से जुड़े रहते हैं तथा हृदय स्पन्दन के दौरान वलन कपाटों को उलटने से बचाते हैं। 



 प्रश्न 5. मनुष्य के हृदय की संरचना तथा क्रियाविधि का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। 



अथवा मनुष्य के हृदय की बाह्य संरचना का नामांकित चित्र बनाइए तथा दोहरे रुधिर परिसंचरण का महत्त्व बताइए।



उत्तर मनुष्य के हृदय की बाह्य संरचना हृदय वक्षगुहा में फेफड़ों के मध्य में स्थित होता है। इसका अधिकांश भाग वक्ष के बाईं ओर तथा थोड़ा-सा भाग अस्थि के दाईं ओर होता है।






हृदय में दो अलिन्द और दो निलय सहित चार वेश्म होते हैं। हृदय का आकार बन्द मुट्ठी के समान होता है। हृदय का भार 300 ग्राम, रंग गहरा लाल अथवा बैंगनी होता है।


हृदय चारों ओर से दोहरे हृदयावरण से घिरा रहता है। दोनों झिल्लियों के मध्य हृदयावरणीय तरल भरा होता है। हृदय हृद खाँच अथवा कोरोनरी सल्कस द्वारा अलिन्द और निलय में विभाजित रहता है। हृदय के दाएँ अलिन्द में शरीर के विभिन्न भागों से आया अशुद्ध रुधिर भरा होता है।


हृदय के बाएँ अलिन्द में फेफड़ों से आया शुद्ध रुधिर भरा होता है। अग्र और पश्च महाशिराएँ दाएँ अलिन्द में खुलती हैं। पल्मोनरी शिराएँ बाएँ अलिन्द में खुलती हैं। दोनों निलय एक अन्तरानिलयी खाँच द्वारा विभाजित रहते हैं। बायाँ निलय बड़ा और अधिक पेशीय होता है। दाएँ निलय से पल्मोनरी चाप निकलती है। बाएँ निलय से कैरोटिको सिस्टेमिक चाप निकलती है।



प्रश्न 6. वाष्पोत्सर्जन किसे कहते हैं? यह कितने प्रकार से होता है? रन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन की क्रियाविधि का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। वाष्पोत्सर्जन तथा बिन्दुस्रावण में अन्तर लिखिए। 


अथवा वाष्पोत्सर्जन को परिभाषित कीजिए। यह कितने प्रकार का होता है? नामांकित चित्र की सहायता से रन्ध्र के खुलने तथा बन्द होने की क्रिया को दर्शाइए। 


अथवा वाष्पोत्सर्जन किसे कहते हैं? इस क्रिया में रन्ध्र की क्या भूमिका है? सचित्र समझाइए।


उत्तर – वाष्पोत्सर्जन पादप के वायवीय भागों से वाष्प के रूप में होने वाली जल-हानि को वाष्पोत्सर्जन (Transpiration) कहते हैं। 


यह तीन प्रकार का होता है


(i) रन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन लगभग 80-90% जल-हानि रन्ध्रों द्वारा होती है।


(ii) उपत्वचीय वाष्पोत्सर्जन लगभग 3-9% जल-हानि बाह्यत्वचा या उपचर्म द्वारा होती है।


(iii) वातरन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन काष्ठीय पादपों में लगभग 1% जल-हानि वातरन्ध्रों द्वारा होती है। 


रन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन क्रियाविधि वाष्पोत्सर्जन तथा गैसीय विनिमय (ऑक्सीजन एवं कार्बन डाइऑक्साइड का आदान-प्रदान) पत्तियों में पाए जाने वाले छोटे छिद्रों अर्थात् रन्ध्र द्वारा होता है। सामान्यतया ये रन्ध्र दिन में खुले रहते हैं और रात में बन्द हो जाते हैं।



रन्ध्र का बन्द होना और खुलना रक्षक कोशिकाओं के स्फीति (Turgor) में बदलाव से होता है। प्रत्येक रक्षक कोशिका की आन्तरिक भित्ति रन्ध्रछिद्र की तरफ काफी मोटी एवं तन्यतापूर्ण होती है। रन्ध्र को घेरे दोनों रक्षक कोशिकाओं में जब स्फीति दाब बढ़ने लगता है, तो पतली बाहरी भित्तियाँ बाहर की ओर खिचती हैं। और आन्तरिक भित्ति अर्द्धचन्द्राकार स्थिति में आ जाती है।




रन्ध्र के खुलने और बन्द होने की विधि


पानी की कमी होने पर जब रक्षक कोशिका की स्फीति समाप्त होती है (या जल तनाव खत्म होता है) जो अन्य आन्तरिक भित्तियाँ पुनः अपनी मूल स्थिति में जाती हैं, तब रक्षक कोशिकाओं की बाह्य झिल्ली ढीली पड़ जाती हैं और रन्ध्र छिद्र बन्द हो जाते हैं।




वाष्पोत्सर्जन और बिन्दुस्रावण में अन्तर



वाष्पोत्सर्जन

बिन्दुस्रावण


वाष्पोत्सर्जन पादप की वायवीय सतह से रन्ध्र, उपत्वचा एवं वातरन्ध्र से होने वाली क्रिया है।

बिन्दुस्राव जलरन्ध्रों से होने वाली एक निश्चित क्रिया है।

इस प्रक्रिया में जल, वाष्प के रूप में विसरित होता है।

इसमें जल कोशिका रस के रूप में उत्सर्जित होता है।


इसके कारण उत्पन्न वाष्पोत्सर्जनाकर्षण के कारण जल 

निष्क्रिय अवशोषण होता है।

यह क्रिया जड़ के मूलदाब के कारण होती है।


अन्तराकोशिकीय स्थानों में जो जलवाष्प संचित होती है, वही रन्ध्रों द्वारा विसरित होती है।

जाइलम वाहिकाओं के खुले सिरों से कोशिका रस तरल रूप में पत्तियों के शीर्ष से निकलता दिखाई देता है।





प्रश्न 7. मूलरोमों द्वारा जल का अवशोषण किस प्रकार होता है? चित्र की सहायता से समझाइए।



अथवा पादपों में जल संवहन का सचित्र वर्णन कीजिए।


अथवा पादप में जल और खनिज लवण के वहन की विधि का वर्णन कीजिए। 


अथवा जड़ों द्वारा जल की अवशोषण विधि का सचित्र वर्णन कीजिए।


अथवा पादपों में जल का परिवहन किसके द्वारा होता है? इसकी क्रियाविधि समझाइए। 


उत्तर पादपों में जल का परिवहन पादपों में जल परिवहन का निम्न पदों में अध्ययन किया जा सकता है


(i) मूलरोमों द्वारा जल का अवशोषण भूमि में जल का अवशोषण मूलरोमों द्वारा होता है। मूलरोम मृदा कणों के बीच फँसे रहते हैं एवं केशिका जल के सम्पर्क में रहते हैं। प्रत्येक मूलरोम के मध्य में एक बड़ी धानी होती है, जिसके कोशिका रस में खनिज लवण, शर्कराएँ व कार्बनिक अम्ल घुले रहते हैं। भूमि के जल की सान्द्रता कोशिका रस की सान्द्रता से कम होती है



अर्थात् कोशिका रस का परासरण दाब भूमि के जल के परासरण दाब से अधिक होता है। जल कोशिकाद्रव्य के उच्च परासरण दाब के कारण अर्द्धपारगम्य प्लाज्मा झिल्ली में से होकर मूलरोम में प्रवेश करता है।


(ii) जड़ में जल का संवहन जल का मूलरोम में जैसे-जैसे प्रवेश होता है। इसके कारण स्फीति दाब बढ़ जाता है एवं जल कॉर्टेक्स (वल्कुट) की कोशिकाओं में पहुँचने लगता है, जिससे कॉर्टेक्स की कोशिकाएँ पूर्णतया स्फीति हो जाती है और इनकी लचीली भित्तियाँ कोशिकाओं के अन्तःद्रव्य पर दबाव डालती हैं।


जल के संवहन


परिणामस्वरूप जल जाइलम वाहिकाओं में चला जाता है एवं कॉर्टेक्स की कोशिकाएँ श्लथ हो जाती है। ये कोशिका जल प्राप्त करके पुनः स्फीति हो जाती है और जल को जाइलम वाहिकाओं में धकेल देती है। इससे कोशिकाओं में एक प्रकार का दाब उत्पन्न हो जाता है, जिसके कारण जल अन्तःत्वचा की मार्ग कोशिकाओं में से होकर जाइलम वाहिकाओं में पहुँचता है और तने में कुछ ऊँचाई तक चढ़ जाता है। इस प्रकार के दाब को मूलदाब कहते हैं। यह क्रिया निरन्तर चलती रहती है।



प्रश्न 8. पादपों में खाद्य पदार्थों का स्थानान्तरण किस प्रकार होता है? यह क्रिया पादपों के लिए क्यों आवश्यक है?


अथवा फ्लोएम में खाद्य स्थानान्तरण की मुंच परिकल्पना को समझाइए। अथवा पादपों में फ्लोएम द्वारा भोज्य पदार्थों के स्थानान्तरण को समझाइए।


उत्तर – खाद्य पदार्थों का स्थानान्तरण पादप प्रकाश-संश्लेषण के फलस्वरूप कार्बनिक भोज्य पदार्थों का संश्लेषण करते हैं। इन संश्लेषित खाद्य पदार्थों का स्थानान्तरण पत्तियों से तरल अवस्था में पादप के सभी भागों की ओर होता है। मज्जा रश्मियों द्वारा कुछ भोज्य पदार्थ पावय दिशा में भी वितरित कर दिया जाता है। इस प्रकार खाद्य पदार्थों का स्थानान्तरण फ्लोएम के माध्यम से होता है।


मुंच परिकल्पना यह परिकल्पना खाद्य पदार्थों के स्थानान्तरण सम्बन्धित है। इस सम्बन्ध में मुंच की व्यापक प्रवाह की परिकल्पना सर्वमान्य है।






मुंच (1927-30) के अनुसार, भोज्य पदार्थों का स्थानान्तरण अधिक सान्द्रता वाले स्थान से कम सान्द्रता वाले स्थानों की ओर होता रहता है। पर्णमध्योतक कोशिकाओं में निरन्तर भोज्य पदार्थों के बनते रहने के कारण परासरण दाब अधिक बना रहता है।


जड़ अथवा भोजन संचय करने वाले भागों में शर्करा (घुलनशील भोज्य पदार्थ) के निरन्तर उपयोग के कारण अथवा भोज्य पदार्थों के अघुलनशील अवस्था में बदलकर संचित हो जाने के कारण इन कोशिकाओं का परासरणी दाब निरन्तर कम बना रहता है। इसके कारण पर्णमध्योतक कोशिकाओं से भोज्य पदार्थ अविरल रूप से फ्लोएम द्वारा जड़ की ओर प्रवाहित होते रहते हैं।



प्रश्न 9. मूलदाब किसे कहते हैं? नामांकित चित्र की सहायता से मूलदाब दर्शाइए। 


 उत्तर –  यह लगभग दो वायुमण्डलीय दाब के बराबर होता है। इसके फलस्वरूप जल पादपों में कुछ ऊँचाई तक चढ़ जाता है।



प्रयोग : मूलदाब का प्रदर्शन मूलदाब प्रदर्शन के लिए गमले में लगा हुआ एक स्वस्थ व शाकीय (Herbaceous) पादप लेते हैं, जिसमें काफी मात्रा में जल दिया जा चुका हो। पादप के तने को गमले की मिट्टी से कुछ सेन्टीमीटर ऊपर से काट देते हैं।




तने के कटे हुए सिरे को रबड़ की नली की सहायता से शीशे के मैनोमीटर से जोड़ देते हैं। इसकी नली में कुछ जल डालकर उसमें पारा भर देते हैं। कुछ समय बाद मैनोमीटर की नली में पारे का तल ऊपर चढ़ता दिखाई देता है। मैनोमीटर की नली में पारे के तल का ऊपर चढ़ना मूलदाब के कारण होता है। इसी दाब के कारण मूलरोमों द्वारा अवशोषित जल जाइलम वाहिकाओं में ऊपर तक पहुँचा दिया जाता है। यदि किसी पादप का ऊपरी सिरा काट दिया जाए, तो कटे स्थान से रस टपकने लगता है। वह मूलदाब के कारण होता है। इसी प्रकार ताड़ी (खजूर) के पादप के कटे भाग से रस टपकने की क्रिया मूलदाब के कारण ही होती है।




                   D. उत्सर्जन


जैव प्रक्रम जिसमें हानिकारक उपापचयी वर्ज्य पदार्थों का निष्कासन होता है, उत्सर्जन (Excretion) कहलाता है तथा उत्सर्जन को कार्यान्वित करने वाले अंग उत्सर्जी अंग कहलाते हैं। एककोशिकीय जीव सरल विसरण द्वारा कोशिकीय सतह से अपशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन करते हैं।


मानव में उत्सर्जन


मानव में मुख्य उत्सर्जी अंग वृक्क होते हैं। वृक्क यूरिया (मुख्य उत्सर्जी पदार्थ) को रुधिर में से पृथक् कर मूत्र का निर्माण करता है। इनसे सम्बन्धित अन्य सहायक उत्सर्जी अंग निम्नलिखित हैं


एक जोड़ी मूत्रवाहिनियाँ (Ureters) मूत्र को वृक्क से मूत्राशय में लाती है। 


मूत्राशय (Urinary bladder) मूत्रण तक मूत्र को संचित रखता है। 


मूत्रमार्ग (Urethra) मूत्र को मूत्राशय से शरीर के बाहर की ओर निकालना।


मनुष्य के वृक्क ये संख्या में दो, उदर गुहा में कशेरुकदण्ड के पार्श्व में स्थित, सेम के बीज के आकार की संरचनाएँ हैं। प्रत्येक वृक्क लगभग 10 सेमी लम्बा, 6 सेमी चौड़ा तथा 2.5 सेमी मोटा होता है। दायाँ वृक्क बाएँ की अपेक्षा कुछ नीचे स्थित होता है। वृक्क का बाहरी किनारा उभरा हुआ होता है, किन्तु भीतरी किनारा धँसा हुआ होता है, जिसमें से मूत्र नलिका निकलती है। इस धँसे हुए स्थान को हाइलस कहते हैं। मूत्र नलिका एक पेशीय थैलेनुमा मूत्राशय में खुलती है। मूत्राशय में संचित मूत्र समय-समय पर शरीर से बाहर निष्कासित कर दिया जाता है।


वृक्क की आन्तरिक संरचना वृक्क के मध्य में लगभग खोखला तथा कीप के आकार का भाग होता है। यही क्रमश: संकरा होकर मूत्र नलिका का निर्माण करता इसे पेल्विस कहते हैं। वृक्क का बाहरी भाग वल्कुट (Cortex) तथा भीतरी भाग मेड्यूला (Medulla) कहलाता है।


मेड्यूला में 8-15 त्रिभुजाकार संरचनाएँ पाई जाती हैं, जिन्हें पिरामिड कहते हैं। ये वल्कुट द्वारा एक-दूसरे से पृथक् रहते हैं, जिन्हें बर्टीनी के रीनल कॉलम कहते हैं।


वृक्क में असंख्य अत्यन्त कुण्डलित तथा लम्बी नलिकाएँ होती हैं। इन्हें वृक्क नलिकाएँ या नेफ्रॉन (Nephron) कहते हैं। बोमेन सम्पुट वृक्क नलिकाओं का भाग है। बोमेन सम्पुट या मैल्पीघी सम्पुट प्यालेनुमा होता है।


वृक्क के कार्य यह अतिरिक्त जल एवं लवणों का शरीर में से निष्कासन कर परासरण नियमन एवं समस्थैतिकता बनाए रखता है। यकृत में निर्मित यूरिया का रुधिर में से निस्यंदन करता है।


नोटयकृत यूरिया का संश्लेषण करता है। यह रुधिर में उपस्थित अमोनिया का यूरिया में परिवर्तन करता है।


मूत्र का निर्माण


वृक्क के नेफ्रॉन में मूत्र निर्माण निम्नलिखित तीन प्रक्रियाओं द्वारा होता है


परानिस्यंदन कोशिकागुच्छ की रुधिर केशिकाओं में रुधिर का दाब बढ़ जाता है। इस बढ़े हुए दाब के कारण रुधिर का तरल भाग छनकर बोमेन संपुट में आ जाता है।


वरणात्मक या चयनात्मक पुनरावशोषण यहाँ विसरण तथा सक्रिय पुनरावशोषण द्वारा क्रमशः जल तथा अन्य घटकों का अवशोषण होता है। इस क्रिया में महत्त्वपूर्ण तत्व- ग्लूकोस, विटामिन, अमीनो अम्ल आदि पुनः रुधिर में पहुँचा दिए जाते हैं।


वाहिकीय स्रावण


वृक्क नलिकाओं के समीपस्थ तथा दूरस्थ भाग की नलिकाएँ परिनलिका जाल (Peritubular network) की रुधिर केशिकाओं से हानिकारक उत्सर्जी पदार्थ (जैसे-K+, H+यूरिक अम्ल), जो छनने से रह गए थे, सक्रिय विसरण द्वारा वृक्क की संग्राहक नलिका में मुक्त कर दिए जाते हैं। तत्पश्चात् मूत्र, मूत्रवाहिनी द्वारा मूत्राशय में तब तक एकत्रित रहता है, जब तक कि फैले हुए मूत्राशय का दाब मूत्रमार्ग द्वारा उसे बाहर न कर दें। 



नोट समस्थैतिकता शरीर के अन्तः वातावरण के रासायनिक संघटन को स्थिर एवं सन्तुलित बनाने की जैविक प्रक्रिया समस्थैतिकता (Homeostasis)

कहलाती है।


कृत्रिम वृक्क (अपोहन)


वृक्क के अक्रिय होने की अवस्था में कृत्रिम वृक्क का उपयोग किया जा सकता है। कृत्रिम वृक्क नाइट्रोजनी अपशिष्ट उत्पादों को रुधिर से अपोहन द्वारा निकालने की एक युक्ति है। कृत्रिम वृक्क में प्राकृतिक वृक्क की भाँति पुनरावशोषण प्रक्रम नहीं पाया जाता है। वृक्क में परानिस्यन्दन के दौरान प्राप्त 150-180 लीटर नेफ्रिक निस्यन्द में से केवल 1.5 लीटर भाग ही मूत्र के रूप में उत्सर्जित होता है, जिसका कारण पुनरावशोषण होता है।


पादपों में उत्सर्जन


पादप भी जन्तुओं की भाँति उत्सर्जन प्रक्रम का नियमन करते हैं, किंतु पादप उत्सर्जन के लिए जन्तुओं से बिल्कुल भिन्न युक्तियाँ प्रयुक्त करते हैं, जो निम्न हैं


गैसीय अपशिष्ट उत्पादों का उत्सर्जन पादप दिन में प्रकाश-संश्लेषण के दौरान बनी ऑक्सीजन एवं रात्रि में श्वसन द्वारा उत्पन्न CO, के उत्सर्जन हेतु रन्ध्रों एवं वातरन्ध्रों का उपयोग करते हैं।


तरल अपशिष्ट उत्पादों का उत्सर्जन


पादप अतिरिक्त जल को वाष्पोत्सर्जन (Transpiration) तथा बिंदुस्रावण (Guttation) प्रक्रम द्वारा निष्कासित करते हैं। उदाहरण रबड़, लौंग का तेल, गोंद आदि जलीय अपशिष्ट उत्पादों के उदाहरण है।


ठोस अपशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन


बहुवर्षीय पादपों में मृत कोशिकाओं, ऊतकों या रिक्तिकाओं (जैसे-कठोर काष्ठ) में अपशिष्ट पदार्थ संचित हो जाते हैं, जैसे- टेनिन, लिग्निन, आदि। इसके अतिरिक्त कुछ अपशिष्ट पदार्थ छाल या पर्ण में संचित होकर पादप से पृथक् हो जाते हैं। उदाहरण टेनिन का उपयोग चमड़े के शोधन में किया जाता है।


नोट पादप पर लगी पत्तियों से बूँदों के रूप में जल का स्राव, बिन्दुस्रावण कहलाता है। यह क्रिया मुख्यतया शाकीय पादपों में तीव्र अवशोषण एवं कम वाष्पीकरण की स्थिति में सम्पन्न होती है।


गोंद आन्तरिक पादप ऊतक (मुख्यतया सेलुलोस) का निम्नीकृत उत्पाद है। रेजिन विभिन्न तेलों के ऑक्सीकृत उत्पाद होते हैं।



         बहुविकल्पीय प्रश्न 1 अंक


प्रश्न 1. मनुष्य में मुख्य उत्सर्जी अंग क्या हैं?


(a) वृक्क


(b) फेफड़े


(c) त्वचा 


(d) यकृत


 उत्तर (a) मानव का मुख्य उत्सर्जी अंग वृक्क होता है। फेफड़े, यकृत एवं त्वचा अतिरिक्त उत्सर्जी अंगों के अन्तर्गत आते हैं।


प्रश्न 2. मनुष्य में वृक्क, एक तन्त्र का भाग है, जो सम्बन्धित है


(a) पोषण


(b) श्वसन


(c) उत्सर्जन


(d) परिवहन


उत्तर (c) मनुष्य में वृक्क, उत्सर्जन तन्त्र से सम्बन्धित है।


प्रश्न 3. वृक्क बना होता है


(a) मूत्र वाहिनियों से


(b) मैल्पीघियन नलिकाओं से


(c) नेफ्रॉन से


 (d) शुक्रजनक नलिकाओं से




उत्तर (c) प्रत्येक वृक्क में लगभग 8-12 लाख महीन, लम्बे तथा कुण्डलित नेफ्रॉन होते हैं।


प्रश्न 4. बोमेन सम्पुट भाग है


(a) पित्त वाहिनी का


(b) अग्न्याशय वाहिनी का


(c) प्रोस्टेट ग्रन्थि का


(d) वृक्क नलिका का


उत्तर (d) बोमेन सम्पुट वृक्क नलिकाओं का भाग है। बोमेन सम्पुट या मैल्पीघी सम्पुट प्यालेनुमा होता है।


प्रश्न 5. यकृत संश्लेषित करता है


(a) शर्करा


(b) रुधिर


(c) यूरिया


(d) प्रोटीन


उत्तर (c) यकृत यूरिया का संश्लेषण करता है। यह रुधिर में उपस्थित अमोनिया का यूरिया में परिवर्तन करता है।



अतिलघु उत्तरीय प्रश्न  2 अंक


प्रश्न 1. उत्सर्जन क्या है? एककोशिकीय जीव किस प्रकार अपने अपशिष्टों को निष्कासित करते हैं?


उत्तर उत्सर्जन मनुष्य सहित सभी कशेरुकी जन्तुओं के शरीर में उपापचय क्रियाओं के फलस्वरूप बनने वाले हानिकारक नाइट्रोजनयुक्त अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने की क्रिया को उत्सर्जन कहते हैं। एककोशिकीय जीव सरल विसरण द्वारा कोशिकीय सतह से अपशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन करते हैं।


प्रश्न 2. निम्न संरचनाओं के क्या कार्य हैं ?


(i) वृक्क


(ii) मूत्रवाहिनी


(iii) मूत्राशय


(iv) मूत्रमार्ग


उत्तर


 (i) वृक्क यूरिया को रुधिर में से पृथक् कर मूत्र का निर्माण करना को वृक्क 


(ii) मूत्रवाहिनी मूत्र से मूत्राशय में लाना।


(iii) मूत्राशय मूत्रण तक मूत्र को संचित रखना।


(iv) मूत्रमार्ग मूत्र को मूत्राशय से शरीर के बाहर की ओर निकालना।


प्रश्न 3. मूत्र का निर्माण कैसे होता है?


उत्तर वृक्कीय धमनी से रुधिर, वृक्क में उच्च रुधिर दाब से वृक्काणु के ग्लोमेरुलस में प्रवेशित होकर निस्यंदित होता है। यहाँ से परानिस्यंदित द्रव कुंडलित नलिकीय भाग में जाता है, जहाँ आवश्यक लवणों, जल, अमीनो अम्ल, आदि का पुनरावशोषण होता है तथा मूत्र का निर्माण होता है।



लघु उत्तरीय प्रश्न 4 अंक



प्रश्न 1. उत्सर्जन किसे कहते हैं? मनुष्य के शरीर में कौन-कौन से उत्सर्जी अंग पाए जाते हैं?


अथवा मानव में उत्सर्जन तन्त्र के कौन-कौन से अंग होते हैं? नामांकित चित्र बनाकर इनको प्रदर्शित कीजिए।




उत्तर 

 मनुष्य के शरीर में उत्सर्जन अंग निम्न हैं



(i) वृक्क (Kidneys) ये मुख्य उत्सर्जी अंग है। ये हानिकारक पदार्थों को रुधिर से छानकर पृथक् कर लेते हैं तथा इन्हें मूत्र के रूप में बाहर निकाल देते हैं।


(ii) त्वचा (Skin) यह उत्सर्जी पदार्थों को पसीने के रूप में मुक्त करती है।


(iii) यकृत (Liver) यह उपापचय के फलस्वरूप बने हानिकारक पदार्थों को कम हानिकारक पदार्थों में बदलकर उत्सर्जन में सहायता करता है। में यकृत अमोनिया को यूरिया में बदलता है। मनुष्य


(iv) फेफड़े (Lungs) ये CO2 का उत्सर्जन करते हैं।




प्रश्न 2. मानव के वृक्क की खड़ी काट का चित्र बनाइए और उसके प्रमुख भागों के नाम लिखिए।


उत्तर – मानव के वृक्क की आन्तरिक संरचना को रेखाचित्र द्वारा दर्शाया गया है








प्रश्न 3. वृक्क के प्रमुख कार्य कौन-कौन से हैं? लिखिए।


उत्तर – वृक्क के कार्य निम्न हैं



(i) वृक्क रुधिर के माध्यम से शरीर के अन्तःवातावरण को सन्तुलित बनाए रखते हैं तथा रुधिर के pH मान को स्थिर रखते हैं।


(ii) ये नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थों को मूत्र के रूप में बाहर निकालते हैं।


(iii) ये रुधिर के परासरणी दाब पर नियन्त्रण रखकर दाब को भी नियन्त्रित रखते हैं तथा ऑक्सीजन की कमी होने पर RBCs के निर्माण को प्रेरित करते हैं।


(iv) ये अनेक प्रकार के बाह्य पदार्थों (औषधि की अतिरिक्त मात्रा, औषधियों के रंग तथा विषैले पदार्थ) को निष्कासित करते हैं।



प्रश्न 4. वृक्काणु (नेफ्रॉन) का स्वच्छ नामांकित चित्र बनाइए तथा इसके कार्यों का वर्णन कीजिए।



उत्तर 


वृक्काणु के कार्य


इसका प्राथमिक कार्य रुधिर में से यूरिया व नाइट्रोजन वर्ज्य पदार्थों को हटाना होता है। इसके अतिरिक्त इसके अन्य कार्य अमोनियम विष, औषधियाँ, रंगा पदार्थ, H+ या K+ आयन, जल, आदि की मात्रा को रुधिर में कम करके रुधिर की समस्थैतिकता को बनाए रखना है। यह मूत्र का निर्माण व चयनात्मक पुनरावशोषण द्वारा लाभदायक पदार्थों को वापस रुधिर में पहुँचाने का कार्य भी करती है।



प्रश्न 5. पादपों के गैसीय और जलीय अपशिष्ट के बारे में बताइए। अथवा पौधों में वातरन्ध्रों की उपयोगिता का उल्लेख कीजिए।


उत्तर पादप भी जन्तुओं की भाँति उत्सर्जन प्रक्रम का नियमन करते हैं, किन्तु पादप उत्सर्जन के लिए जन्तुओं से बिल्कुल भिन्न युक्तियाँ प्रयुक्त करते हैं, जो निम्न हैं



गैसीय अपशिष्ट उत्पादों का उत्सर्जन पादप दिन में प्रकाश-संश्लेषण के दौरान बनी ऑक्सीजन एवं रात्रि में श्वसन द्वारा उत्पन्न CO₂ के उत्सर्जन हेतु रन्ध्रों एवं तने में उपस्थित वातरन्ध्रों का उपयोग करते हैं। 


तरल अपशिष्ट उत्पादों का उत्सर्जन पादप अतिरिक्त जल को वाष्पोत्सर्जन (Transpiration) तथा बिंदुस्रावण (Guttation) प्रक्रम द्वारा निष्कासित करते हैं। पादपों में जल का स्रावण रन्ध्रों द्वारा होता है। इसके अतिरिक्त पादप जाइलम में रेजिन एवं गोंद के रूप में अपशिष्ट पदार्थों को संचित करते हैं। गोंद पादप के आन्तरिक ऊतकों (सेलुलोस) के विघटन द्वारा निर्मित होती है, जबकि रेजिन का निर्माण अनेक आवश्यक तेलों के ऑक्सीकरण द्वारा होता है।


रबर के पादप द्वारा स्रावित लैटेक्स भी अपशिष्ट पदार्थ का उदाहरण है। इसके अतिरिक्त इनमें विभिन्न तेलों; जैसे-लौंग का तेल, चंदन का तेल, आदि का भी स्रावण होता है।



       विस्तृत उत्तरीय प्रश्न  7 अंक


प्रश्न 1. उत्सर्जन से क्या तात्पर्य है? मनुष्य के उत्सर्जी अंगों के नाम लिखिए। वृक्क नलिका का नामांकित चित्र बनाइए ।



अथवा वृक्कों में मूत्र निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए। 


अथवा वृक्क की रचना का वर्णन कीजिए।


अथवा मनुष्य के वृक्क की नामांकित चित्रों सहित संरचना, कार्य तथा मूत्र निर्माण क्रियाविधि का वर्णन कीजिए।


अथवा वृक्काणु (नेफ्रॉन) की रचना तथा क्रियाविधि का वर्णन कीजिए


उत्तर 


मनुष्य के उत्सर्जी अंग वृक्क, मूत्रवाहिनी, मूत्राशय तथा मूत्रमार्ग मिलकर मुख्य उत्सर्जी तन्त्र बनाते हैं। मनुष्य में मुख्य उत्सर्जी अंग वृक्क होता है। यह उत्सर्जन क्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह अमोनिया को यूरिया में बदलता है। अन्य उत्सर्जी अंग हैं


त्वचा - यह पसीने के रूप में उत्सर्जी पदार्थों को मुक्त करती है। 


यकृत - यह उपापचय की क्रिया के फलस्वरूप बनने वाले हानिकारक पदार्थों को कम हानिकारक पदार्थों में परिवर्तित कर उत्सर्जन में सहायक है; जैसे-मनुष्य में अमोनिया को यूरिया में बदलना यकृत का ही कार्य है।



वृक्क ये संख्या में दो, उदर गुहा में कशेरुकदण्ड के पार्श्व में स्थित, सेम के बीज के आकार की संरचनाएँ हैं। प्रत्येक वृक्क लगभग 10 सेमी लम्बा, 6 सेमी चौड़ा तथा 2.5 सेमी मोटा होता है। दायाँ वृक्क बाएँ की अपेक्षा कुछ नीचे स्थित होता है।


वृक्क का बाहरी किनारा उभरा हुआ होता है, किन्तु भीतरी किनारा धँसा हुआ होता है, जिसमें से मूत्र नलिका निकलती है। इस धँसे हुए स्थान को हाइलस कहते हैं। मूत्र नलिका एक पेशीय थैलेनुमा मूत्राशय में खुलती है। मूत्राशय में संचित मूत्र समय-समय पर शरीर से बाहर निष्कासित कर दिया जाता है। 


 


वृक्क की आन्तरिक संरचना वृक्क के मध्य में लगभग खोखला तथा कीप के आकार का भाग होता है। यही क्रमशः संकरा होकर मूत्र नलिका का निर्माण करता है, इसे पेल्विस कहते हैं। वृक्क का बाहरी भाग वल्कुट (Cortex) तथा भीतरी भाग मेड्यूला (Medulla) कहलाता है।




वृक्क में असंख्य अत्यन्त कुण्डलित तथा लम्बी नलिकाएँ होती हैं। इन्हें वृक्क नलिकाएँ या नेफ्रॉन (Nephron) कहते हैं। ये वृक्क की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई होती हैं। वृक्क नलिकाएँ एक बड़ी संग्रह नलिका में खुलती हैं। प्रत्येक संग्रह नलिका पिरामिड में खुलती है। वृक्क में 10-12 पिरामिड दिखाई देते हैं, जो अपने संकरे भाग द्वारा पेल्विस में खुलते हैं।




class 10 science chapter 07 How do Organisms Reproduce notes in hindi


कक्षा 10वी विज्ञान अध्याय 07जीव जनन कैसे करते हैं? का सम्पूर्ण हल

  

जीव जनन कैसे करते हैं?

How do Organisms Reproduce?




07 जीव जनन कैसे करते हैं?


महत्त्वपूर्ण परिभाषा


1.जीव सदृश प्रतीत होते हैं, क्योंकि इनका अभिकल्प, आकार एवं आकृति समान होता है।


2.जनन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा जीव अपने समान सन्तान उत्पन्न करता है; अतः यह जीवन चक्र (life cycle) को पूर्ण करने तथा वंश को चलाये रखने के लिए अनिवार्य क्रिया है।


3.कुछ बहुकोशिकीय जीवों विशेषकर तन्तुवत शैवालों एवं कवकों में प्रौढ़ तन्तु दो या अधिक खण्डों (fragments) में टूट जाते हैं।


4.पूर्णरूपेण विभेदित कुछ बहुकोशिक जीवों में अपने कायिक भाग से नए जीव के निर्माण की क्षमता होती है। यदि किन्हीं कारणों से जीव क्षत-विक्षत हो जाता है या इसका कुछ भाग टूटकर अलग हो जाता है तो ऐसे बना प्रत्येक टुकड़ा वृद्धि एवं विकास करके नया जीव बन जाता है।


5.मुकुल हाइड्रा के शरीर पर एक स्थान पर कोशिकाओं के नियमित विभाजन के कारण उभार के रूप में विकसित होता है।


6.लैंगिक जनन वह प्रक्रिया है। जिसमें दो विशेष कोशिकायें, जिन्हें युग्मक, (gamets) कहते हैं, के संयुग्मन (fasion) से बने युग्मनज (zygote) के विभाजन एवं वृद्धि से नयी सन्तान का विकास होता है। इस प्रकार के संयुग्मन को निषेचन (fertilization) कहते हैं।


7.एकलिंगी जंतुओं में बहुधा लैंगिक द्विरूपता (sexual diamorphism) पाई जाती है अर्थात् इनमें नर (male) तथा मादा (female) को अलग-अलग में पहचाना जा सकता है।


8.जनन कोशिकाओं का उत्पादन करने वाले अंग तथा जनन कोशिकाओं को निषेचन के स्थान तक पहुँचाने वाले अंगों को संयुक्त रूप से नर जनन तंत्र कहते हैं।


9.परिवार कल्याण हेतु बच्चों की संख्या सीमित कर, परिवार को नियोजित करने की प्रक्रिया को परिवार नियोजन (family planning) कहते हैं।






प्रत्येक जीव कुछ निश्चित समय तक ही जीवित रहता है, जो उस जीव का जीवनकाल (Lifespan) कहलाता है। अतः अपनी जाति या वंश की निरन्तरता को बनाए रखने के लिए अपने जैसे जीवों को उत्पन्न करने की क्रिया को जनन कहते हैं।


जनन का आधार


जनन के पश्चात् उत्पन्न सन्तति अपने जनक के समान होती है। इसका प्रमुख कारण आनुवंशिक पदार्थ डीऑक्सीराइबोस न्यूक्लिक अम्ल (DNA) है, जो सम्पूर्ण जीव की आनुवंशिक इकाई होती है। यह जनन कोशिका के केन्द्रक में संघनित गुणसूत्र के रूप में उपस्थित होता है। इनमें आनुवंशिक गुणों का सन्देश छुपा होता है, जो जनक से सन्तति पीढ़ी में जाता है, परन्तु इन सन्ततियों में कभी-कभी वातावरणीय कारकों के द्वारा DNA की संरचना में परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है और सन्तति में जनक की तुलना में कुछ विविधताएँ उत्पन्न हो जाती हैं, जिन्हें विभिन्नताएँ कहते हैं। विभिन्नताओं की अनुपस्थिति में कोई भी जाति विकास नहीं कर सकती। ऐसा होने पर उस जाति के सभी सदस्य समान होंगे।


विभिन्नता का महत्त्व


1.ये पर्यावरणीय परिवर्तनों के लिए पूर्व अनुकूलन का कार्य करती हैं।

2. ये जाति अस्तित्व के संघर्ष में सहायक होती हैं।


3.ये उन्नत जातियों के निर्माण एवं विकास में सहायक होती हैं। 


4.इनके द्वारा नए लक्षणों का विकास होता है।


5.ये जाति निर्माण में सहायक होती हैं।


जनन के प्रकार


यह दो प्रकार का होता है


1. अलैंगिक जनन


2. लैंगिक जनन


1. अलैंगिक जनन (एकल जीवों में प्रजनन की विधि)


इस प्रकार के जनन में विशेष जनन कोशिकाओं के बिना ही, एक जनक द्वारा नई सन्तति का निर्माण होता है। इसके फलस्वरूप, जिस सन्तति का जन्म होता है, वह आनुवंशिक रूप से पूरी तरह अपने जनक के समान होती है। इसके अन्तर्गत निम्न विधियाँ आती हैं


(i) विखण्डन


इस विधि में परिपक्व जीव विभाजित होकर दो या अधिक कोशिकाओं में विभक्त हो जाता है। इसमें सर्वप्रथम केन्द्रक विभाजित होता है तथा बाद में कोशिकाद्रव्य विभाजित होता है। इस विधि द्वारा प्रायः एककोशिकीय जन्तु प्रजनन करते हैं।


यह दो प्रकार का होता है


(a) द्विविखण्डन कुछ प्रोटोजोअन्स जैसे- अमीबा, पैरामीशियम आदि में कोशिकाएँ विभाजन द्वारा सामान्यतया दो बराबर भागों में विभक्त हो जाती हैं; इस प्रक्रिया में पहले केन्द्रक का विभाजन होता है, तत्पश्चात् कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm) का विभाजन होता है, जिससे प्रत्येक कोशिका दो सन्तति कोशिकाओं में बँट जाती है।


(b) बहुविखण्डन कुछ एककोशिकीय जन्तुओं में कोशिकाद्रव्य विभाजित होकर सूक्ष्म विखण्ड बना लेते हैं। अनुकूल परिस्थितियों में कोशिका आवरण फटने पर ये विखण्ड मुक्त होकर स्वतन्त्र जीवों के रूप में विकसित हो जाते हैं, उदाहरण प्लाज्मोडियम (मलेरिया परजीवी)।



(ii) खण्डन द्वारा


इस विधि में बहुकोशिकीय जीव पूर्ण वृद्धि करके दो या अधिक खण्डों में टूट जाते हैं। इसके पश्चात् प्रत्येक खण्ड वृद्धि करके पूर्ण जीव बना लेता है; उदाहरण स्पाइरोगायरा, राइजोपस, यूलोथिक्स, हाइड्रा


(iii) पुनरुद्भवन (पुनर्जनन)


किसी जन्तु के किसी भी कटे हुए भाग से नए जन्तु की उत्पत्ति को पुनरुद्भवन (पुनर्जनन) कहते हैं, उदाहरण हाइड्रा, प्लेनेरिया, आदि।


(iv) मुकुलन


इस प्रक्रिया में एक छोटा सा उभार बाहर की ओर निकलने लगता है, जिसे मुकुल (Bud) कहते हैं। यह मुकुल धीरे-धीरे बड़ा हो जाता है और मातृकोशिका से अलग होकर स्वतन्त्र पादप बना लेता है; उदाहरण यीस्ट, हाइड्रा ।


(v) कायिक प्रवर्धन


पादप के किसी भी कायिक भाग से सम्पूर्ण पादप प्राप्त करने की प्रक्रिया को कायिक प्रवर्धन कहते हैं। यह मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है


(a) प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन पादपों में स्वतः होने वाले कायिक प्रवर्धन को प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन कहते हैं। यह जड़, तना, पत्तियों, आदि द्वारा हो सकता है। भूमिगत तनों द्वारा आलू (कन्द), प्याज (शल्ककन्द), अदरक (प्रकन्द) तथा अरबी (घनकन्द), आदि में कायिक जनन होता है। पर्णकलिकाओं द्वारा ब्रायोफिल्लम में कायिक जनन होता है।


(b) कृत्रिम कायिक प्रवर्धन इसमें निम्न या अशुद्ध जाति के पादप पर उच्च या शुद्ध किस्म के पादप को रोपित किया जाता है। इस विधि में निम्न किस्म के जाति के तने को तिरछा काट लिया जाता है, जिसे स्कन्ध कहते हैं; उदाहरण गुलाब,गन्ना, अंगूर, चमेली, आदि।


(vi) बीजाणु द्वारा


बीजाणु का निर्माण एककोशिकीय और बहुकोशिकीय दोनों ही प्रकार के जीवों में होता है। एककोशिकीय पादपों में बहुविखण्डन के पश्चात् चलबीजाणुओं का निर्माण होता है; उदाहरण क्लैमाइडोमोनास ।


बीजाणु निर्माण में, जनक पादप अपने बीजाणुधानी में सैकड़ों प्रजनन इकाईयाँ पैदा करता है, जिन्हें 'बीजाणु' कहते हैं। जब पादपों की यह बीजाणुधानी फटती है, तो ये बीजाणु वायु, भूमि, भोजन या मृदा पर बिखर जाते हैं और नए पादप को जन्म देते हैं। राइजोपस, म्यूकर, आदि कवक बीजाणु निर्माण के उदाहरण हैं।


2. लैंगिक जनन


प्रजनन की वह क्रिया जिसमें विशेष जनन कोशिकाएँ अर्थात् दो युग्मकों के मिलने से बनी रचना युग्मनज द्वारा नए जीव की उत्पत्ति होती है। युग्मकों के संयोग को संयुग्मन या निषेचन कहते हैं। युग्मकों का निर्माण एक ही जनक या दो अलग-अलग जनकों (नर एवं मादा) से हो सकता है।


लैंगिक जनन का महत्व


(i) जाति / स्पीशीज़ की समष्टि में पाई जाने वाली विभिन्नता उस स्पीशीज़ के अस्तित्व को बनाए रखने में सहायक है अर्थात् लैंगिक जनन में जनक दो विपरीत लिंगों के होने से विभिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं।


(ii) कायिक कोशिकाओं में गुणसूत्रों एवं DNA की संख्या आधी होती है। लैंगिक जनन में युग्मन द्वारा सन्तति में DNA एवं गुणसूत्रों की मात्रा पुनर्स्थापित हो जाती है।



पुष्पीय पादपों में लैंगिक जनन


पादपों में पुष्प जनन हेतु बनी एक विशिष्ट संरचना होती है। पुष्प एक संघनित रूपान्तरित तना होता है। पुष्प वृन्त के शिखर पर पुष्पासन होता है। पुष्पासन पर चार पुष्प चक्र लगे होते हैं। इन्हें परिधि से केंद्र की और क्रमशः बाह्य दलपुंज, दलपुंज, पुमंग तथा जायांग कहते हैं।


(i) बाह्य दलपुंज इसकी इकाई संरचना बाहादल कहलाती है। यह पुष्प का सबसे बाहरी चक्र होता है। बाहादल पुष्पासन पर सबसे बाहर की ओर स्थित तथा हरे रंग के होते हैं। यह कलिकावस्था में पुष्प की रक्षा करते हैं।


(ii) दलपुंज इसकी इकाई, दल कहलाती है। यह पुष्प का द्वितीय चक्र होता है। यह प्राय: रंगीन होते हैं तथा परागण में सहायक होते हैं। 


(iii) पुमंग यह पुष्प का तीसरा चक्र होता है। इसका निर्माण पुंकेसरों द्वारा होता है। यह पुष्प का नर जनन अंग होता है। परागकोष में परागकण या लघुबीजाणु

(Microspores) बनते हैं।


(iv) जायांग या स्त्रीकेसर यह पुष्प का सबसे भीतरी चक्र होता है। इसका निर्माण अण्डप से होता है। जायांग के मध्य का पतला लम्बा भाग वर्तिका कहलाता है। यह पुष्प का मादा जनन अंग है। अण्डाशय में बीजाण्ड बनते हैं। वर्तिकाग्र परागण के समय परागकणों को ग्रहण करते हैं। निषेचन के पश्चात् बीजाण्ड से बीज तथा अण्डाशय से फल का निर्माण होता है।


#. जब पुष्प में पुंकेसर अथवा स्त्रीकेसर में से कोई एक जननांग उपस्थित होता है, तो पुष्प एकलिंगी कहलाते हैं, जैसे-पपीता, तरबूजा


#.जब पुष्प में पुंकेसर अथवा स्त्रीकेसर दोनों उपस्थित होते हैं, तो उन्हें उभयलिंगी पुष्प कहते हैं, जैसे-गुड़हल, सरसों।


परागण – किसी पुष्प के परागकणों का उसी पुष्प या उसी जाति के किसी अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुँचने की क्रिया को 'परागण' कहते हैं। परागकण परागकोष में स्थित होते हैं। परागण मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है,


(i) स्व-परागण एक पुष्प के परागकण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर या पादप के किसी अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र पर या कायिक जनन द्वारा तैयार किए गए, उसी

जाति के किसी अन्य पादप के वर्तिकाग्र पर पहुँचने को 'स्व-परागण' कहते हैं।


(i) पर-परागण जब एक पुष्प के परागकण लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न उसी जाति के अन्य पादप के वर्तिकाग्र पर विभिन्न माध्यमों से पहुंचते हैं, तो इसे पर-परागण कहते हैं। एकलिंगी पुष्पों पपीता, मक्का में पर-परागण पाया जाता है। पर-परागण कीटों द्वारा, वायु द्वारा, जल द्वारा और जन्तुओं के माध्यम से होता है।


नोट कीट परागण साल्विया में, मक्का में वायु परागण जबकि वैलिस्नेरिया में जल परागण होता है।


पादपों में निषेचन क्रिया


पुष्पी पादपों में बीजाण्ड के भ्रूणकोष में निषेचन क्रिया होती है। परागकण का जनन केन्द्रक दो नर युग्मक बनाता है। परागकण से निकली परागनलिका बीजाण्ड में प्राय: बीजाण्डद्वार से प्रवेश करके दोनों नर युग्मकों को मुक्त कर देती है।


एक नर युग्मक अण्डकोशिका से संलयित होकर द्विगुणित (20) युग्मनज बनाता है। यह सत्य निषेचन कहलाता है। दूसरा नर युग्मक द्विगुणित द्वितीयक केन्द्रक से मिलकर त्रिगुणित (30) प्राथमिक भ्रूणपोष केन्द्रक बनाता है।


यह वृद्धि करके पोषक ऊतक भ्रूणपोष का निर्माण करता है। इस प्रक्रिया को त्रिक संलयन (Triple fusion) कहते हैं। यहाँ निषेचन की क्रिया दो बार (सत्य निषेचन व त्रिक संलयन) होती हैं। अतः इसे द्विनिषेचन (Double fertilisation) भी कहते हैं। द्विनिषेचन आवृतबीजी पादपों का विशिष्ट लक्षण है। आवृतबीजी पादपों में निषेचनोपरान्त बीज कवच का निर्माण अच्यावरण (Integuments) से होता है। बीज में भावी पादप अथवा भ्रूण होता है, भ्रूण द्वारा नवोद्भिद पादप को जन्म देने की प्रक्रिया को अंकुरण कहते हैं।


नोट निषेचन के पश्चात् अण्डाशय फल में तथा बीजाण्ड बीज में परिवर्तित हो जाता है। 



मानव में लैंगिक जनन


किसी भी प्राणी के जनन करने योग्य हो जाने को यौवनारम्भ (Adolescent) कहते हैं। इसकी आयु पुरुषों में 15-18 वर्ष तक तथा स्त्रियों में 11-14 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में स्त्री एवं पुरुषों के लक्षणों में कुछ महत्त्वपूर्ण बदलाव आते हैं, जोकि गौण लैंगिक लक्षण कहलाते हैं; जैसे- पुरुषों में भारी स्वर, शुक्राणुओं का निर्माण, हॉर्मोन श्रावण एवं स्त्रियों में स्तन विकास, मासिक धर्म, आदि। 



नर जनन तन्त्र


(i) वृषण पुरुषों में एक जोड़ी वृषण, उदरगुहा से बाहर शिश्न के पास वृषण कोष (Scrotal sacs or scrotum) में सुरक्षित पाए जाते हैं। वृषण कोष की थैलेनुमा संरचना होती है, जिसका तापमान शरीर से लगभग 2-2.5°C कम रहता है। वृषणों में कुण्डलित शुक्रनलिकाएँ उपस्थित होती हैं, जिनमें शुक्राणुजनन होता है।


(ii) अधिवृषण वृषणों से चिपकी नलिकाकार, लम्बी संरचना होती है। इनमें शुक्राणु परिपक्व होते हैं।


(iii) शुक्रवाहिनियाँ शुक्राणु इनके द्वारा उदरगुहा में स्थित शुक्राशय में पहुँचते हैं।


 (iv) शुक्राशय यह थैलीनुमा संरचना होती है। इसका क्षारीय पोषक तरल का स्रावण होता है, जिसमें शुक्राणु गति करते हैं। शुक्राणु इस तरल के साथ मिलकर वीर्य (Semen) का निर्माण करते हैं। शुक्राशय से निकलने वाली एक छोटी नलिका शुक्रवाहिनी से मिलकर स्खलन नलिका (Ejaculatory duct) बनाती है।


(v) मूत्रमार्ग शुक्राशय स्खलन नलिका की सहायता से मूत्रमार्ग में खुलता है, जो शिश्न के शीर्ष सिरे पर मूत्र जनन छिद्र द्वारा बाहर खुलता है। यह शुक्राणु तथा मूत्र के बाहर निकलने का संयुक्त मार्ग होता है।


(vi) शिश्न यह बेलनाकार पेशीय मैथुनांग (Copulatory organ) होता है, जो मैथुन क्रिया में सहायक होता है। यह रुधिर एवं पेशियों द्वारा निर्मित होता है। 


(vii) सहायक ग्रन्थियाँ प्रोस्टेट (Prostate), काउपर (Cowper), पेरीनियल (Perineal) ग्रन्थि नर जनन तन्त्र की सहायक ग्रन्थियाँ होती हैं। ये वीर्य निर्माण, शुक्राणुओं को पोषण देने तथा उनको जीवित रखने में सहायता करती हैं। 



मादा जनन तन्त्र


(i) अण्डाशय इनमें अण्ड कोशिका का निर्माण होता है। ये मादा हॉर्मोन प्रोजेस्टेरॉन तथा एस्ट्रोजन का भी स्रावण करते हैं।


(ii) अण्डवाहिनियाँ अथवा फैलोपियन नालिका अण्डकोशिकाओं को अण्डाशय से गर्भाशय तक पहुँचाती हैं।


(iii) गर्भाशय यह दोनों अण्डवाहिनियों के खुलने का स्थान होता है। भ्रूण का परिवर्धन एवं भरण-पोषण यहीं होता है।



 (iv) योनि नलिका समान, मूत्राशय तथा मलाशय के मध्य स्थित होती है। यह मैथुनांग है एवं रजोधर्म के स्रावण का मार्ग भी है।


(v) सहायक ग्रन्थियाँ बार्थोलिन एवं पेरीनियल सहायक ग्रन्थियाँ होती हैं।




 निषेचन एवं पश्च निषेचन परिवर्तन


नर तथा मादा युग्मक अगुणित होते हैं। मैथुन के समय शुक्राणु योनि मार्ग में स्थापित होते हैं जहाँ से वे ऊपर की ओर गति करके अण्डवाहिका तक पहुँच जाते हैं, जहाँ अण्डकोशिका से मिल जाते हैं। इस शुक्राणु एवं अण्डकोशिका के संयोजन को निषेचन कहते हैं। जिसके फलस्वरूप द्विगुणित युग्मनज का निर्माण होता है।


निषेचन के एक सप्ताह पश्चात् निषेचित अण्ड या युग्मनज (Zygote) गर्भाशय में स्थापित हो जाता है। यह प्रक्रिया गर्भाधान (Implantation) कहलाती है। भ्रूण (Embryo) को माँ के रुधिर से ही पोषण मिलता है, इसके लिए एक विशेष प्रकार की संरचना होती है, जिसे जरायु या अपरा (Placenta) कहते हैं। युग्मनज गर्भ में लगभग 9 माह के समय में विकसित हो जाता है। गर्भाशय की पेशियों के लयबद्ध संकुचन से शिशु का जन्म होता है।


मासिक चक्र


अण्डाशय प्रत्येक माह एक अण्डे का मोचन करता है। अतः निषेचन अण्ड की प्राप्ति हेतु गर्भाशय प्रतिमाह तैयारी करता है, जैसे-स्पंजी, अन्तः मित्ति, मांसल, परन्तु निषेचन ना होने की अवस्था में यह परत धीरे-धीरे टूट कर योनि मार्ग से रुधिर एवं म्यूकस के रूप में निष्कासित होती है। इस चक्र में लगभग एक माह का समय लगता है। अतः इसे ऋतुस्राव अथवा रजोधर्म कहते हैं। इसकी अवधि 2 से 8 दिनों की होती है।


जनन स्वास्थ्य


"जनन स्वास्थ्य का तात्पर्य, जनन के समस्त स्वस्थ विषयों के योग से है, जिसमें शारीरिक, भावनात्मक, व्यावहारिक तथा सामाजिक पहलू भी सम्मिलित हैं।"



लिंगानुपात


यह जनसंख्या में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या का अनुपात होता है। एक स्वस्थ समाज हेतु पुरुषों एवं महिलाओं की संख्या लगभग समान होनी चाहिए। वर्तमान में हमारे देश में कुछ क्षेत्रों में पुत्र की चाह में भ्रूण परीक्षण कर गर्भस्थ लड़की की हत्या कर देने के कारण इसमें असन्तुलन उत्पन्न हो गया है। अतः गर्भस्थ शिशु के लिंग परीक्षण पर कानूनन प्रतिबन्ध लगाया जा चुका है।


जनसंख्या आकार


एक समष्टि या जनसंख्या में कुल व्यक्तियों की संख्या जनसंख्या का आकार कहलाती है। वर्तमान में विश्व भर में मानवों की तीव्रता से बढ़ती जनसंख्या चिन्ता का प्रमुख कारण है। इसमें जन्म दर एवं मृत्यु दर सम्मिलित होती है। एक वृद्धि करती हुई जनसंख्या में जन्म दर, मृत्यु दर से अधिक होती है।


 जन्म दर नियन्त्रण


परिवार कल्याण हेतु बच्चों की संख्या सीमित कर, परिवार को नियोजित करने की प्रक्रिया को परिवार नियोजन कहते हैं। नीचे दी गई अस्थायी और स्थायी विधियों द्वारा आसानी से परिवार को नियोजित किया जा सकता है


(a) लूप अथवा कॉपर-टी स्त्रियाँ लूप लगवाकर गर्भधारण करने से अपना बचाव कर सकती हैं। यह सिर्फ गर्भधारण को रोकती है, यौन रोगों से रक्षा नहीं करती है।


(b) निरोध निरोध का प्रयोग पुरुष द्वारा किया जाता है। इसके प्रयोग से गर्भधारण होने की कोई भी सम्भावना नहीं होती है।


(C) गर्भ निरोधक गोलियाँ आजकल ऐसी गोलियाँ उपलब्ध हैं, जिनके सेवन से गर्भधारण की सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं। स्त्रियों के लिए अनेक प्रकार की गर्भ निरोधक गोलियाँ उपलब्ध हैं; जैसे-माला-डी, पर्ल्स, सहेली, आदि।


(d) गर्भ समापन गर्भधारण करने के बाद भी एक सीमित काल के भीतर, किसी कुशल व शिक्षित विशेषज्ञ डॉक्टर से गर्भ समापन कराया जा सकता है। 


(e) महिला का ऑपरेशन (नसबन्दी-Tubectomy) यह विधि पूर्ण तथा स्थाई विधि है। इस विधि में स्त्रियों की अण्डवाहिनी को काटकर बाँध दिया जाता है, जिससे अण्डाणु अण्डवाहिका (Fallopian tube) में आगे नहीं बढ़ पाते हैं।


(f) पुरुष का ऑपरेशन (नसबन्दी-Vasectomy) पुरुषों में शुक्रवाहिनी के ऑपरेशन से भी गर्भधारण की समस्या स्थाई रूप से दूर हो जाती है। इसमें पुरुष की शुक्रवाहिनी काट कर बाँध दी जाती है।


यौन संचारित रोग


वे रोग, जो सम्भोग के समय यौन सम्बन्धों द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संचारित होते हैं, यौन संचारित रोग कहलाते हैं, इन्हें रजित रोग (Veneral Diseases or VD) भी कहते हैं।



बहुविकल्पीय प्रश्न 1 अंक



प्रश्न 1. जीवों में विभिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं


(a) वर्धी (कायिक) जनन द्वारा


(b) अलैंगिक जनन द्वारा


(c) लैंगिक जनन द्वारा


(d) बीजाणु निर्माण द्वारा


उत्तर (c) जीवों में विभिन्नताएँ लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न होती हैं। ये विभिन्नताएँ भिन्न-भिन्न गुणसूत्रों की संरचना में परिवर्तन के कारण विकसित होती हैं।


प्रश्न 2. अलैंगिक जनन मुकुलन द्वारा होता है


(a) अमीबा में


(c) प्लाज्मोडियम में


(b) यीस्ट में


(d) लीशमानिया में


उत्तर (b) यीस्ट में अलैंगिक जनन मुकुलन द्वारा होता है।


प्रश्न 3. मुकुलन पाया जाता है


(a) प्लेनेरिया में


(c) लिशमानिया में


(b) हाइड्रा में


(d) इन सभी में



उत्तर (b) हाइड्रा में अलैंगिक जनन मुकुलन द्वारा सम्पन्न होता है।



प्रश्न 4. पौधों में कायिक प्रवर्धन के लिए कौन-सा भाग अधिक अनुकूल है?


(a) तना


(b) पत्ती 


(c) जड़ 


(d) प्रकलिका



उत्तर (a) पौधों में कायिक प्रवर्धन के लिए तना सबसे अधिक अनुकूल होता है।



प्रश्न 5. परागकोष में होते हैं


(a) बाह्यदल 


(b) अण्डाशय


(C) बीजाण्ड


(d) परागकण 


उत्तर (d) परागकोष में परागकण होते हैं।


प्रश्न 6. लघुबीजाणु उत्पन्न होते हैं


(a) पुमंग में


(b) जायांग में


(C) पुंकेसरों में


(d) परागकोष में


उत्तर (d) पुंकेसर के परागकोष में परागधानी में सूक्ष्म बीजाणुजनन द्वारा अगुणित परागकण या लघुबीजाणु बनते हैं।


प्रश्न 7. एक पुष्प के स्त्रीकेसर के मध्य भाग को कहते हैं


(a) वर्तिकाग्र 


(b) वर्तिका


(c) अण्डाशय


(d) अण्ड (बीजाण्ड)


उत्तर (b) स्त्रीकेसर या जायांग पुष्प के मादा जननांग है। इसकी इकाई को अण्डप कहते हैं। जायांग का मध्य पतला भाग वर्तिका कहलाता है। 


प्रश्न 8. परागकणों का परागकोष से वर्तिकाग्र तक स्थानान्तरण कहलाता है.



(a) परागण


(b) अण्डोत्सर्ग


(C) निषेचन


(d) इनमें से कोई नहीं


उत्तर (a) परागकणों का परागकोष से वर्तिकाग्र तक स्थानान्तरण परागण कहलाता है। ये दो प्रकार का होता है; स्व-परागण तथा पर परागण


प्रश्न 9. कीट परागण होता है


(a) मक्का में।       (C) साल्विया में


(b) वैलिस्नेरिया में।    (d) इनमें से कोई नहीं


उत्तर (c) कीट परागण साल्विया में होता है, जबकि मक्का में वायु परागण तथा वैलिस्नेरिया में जल परागण होता है।


प्रश्न 10. निषेचन के दौरान, परागकण से निकलने वाली परागनलिका सामान्यतया किसके द्वारा बीजाण्ड में प्रवेश करती है?


(a) अध्यावरण


(b) बीजाण्डद्वार 


(C) निभागी


(d) अण्डद्वार


उत्तर (b) निषेचन के दौरान प्रायः परागनलिका बीजाण्ड में बीजाण्डद्वार की ओर से प्रवेश कर नर युग्मकों को मुक्त करती है।


प्रश्न 11.परागकण का जनन केन्द्रक नर युग्मक बनाता है


(a) 4


(b) 2


(c) 3


(d) 1


उत्तर (b) परागकण का जनन केन्द्रक 2 नर युग्मक बनाता है। एक नर युग्मक सत्य निषेचन में तथा दूसरा त्रिक संलयन में भाग लेता है।


प्रश्न 12. पुष्पीय पादपों में निषेचन होता है


(a) बीजाण्ड में 


(b) अण्डाशय में


 (C) पराग नलिका में


(d) भ्रूणकोष में


 उत्तर (d) पुष्पीय पादपों में निषेचन बीजाण्ड के भ्रूणकोष में होता है। यह एक थैलीनुमा संरचना होती है, जिसमें एक अण्डकोशिका, दो सहायक कोशिकाएँ, तीन प्रतिध्रुवीय कोशिकाएँ तथा एक द्वितीयक केन्द्रक पाया जाता है।




प्रश्न 13. द्विनिषेचन पाया जाता है।


अथवा द्विनिषेचन विशेष लक्षण है 


(a) सभी जीवों में 


(b) सभी पादपों में


(c) आवृतबीजी पादपों में


(d) केवल जलीय पादपों में



उत्तर (c) द्विनिषेचन पुष्पी पादपों या आवृतबीजी पादपों का विशिष्ट लक्षण है।



प्रश्न 14. द्विनिषेचन क्रिया में त्रिक संलयन के पश्चात् बनने वाले ऊतक का नाम है


(a) भ्रूणपोष


(b) भ्रूण


(c) मूलांकुर


(d) इनमें से कोई नहीं


उत्तर (a) द्विनिषेचन क्रिया में त्रिक संलयन के पश्चात् बनने वाले ऊतक को भ्रूणपोष कहते हैं। भ्रूणपोष में भोज्य पदार्थ एकत्रित हो जाता है। भ्रूण के परिवर्धन के समय उसे पोषण देता है।


प्रश्न 15. निषेचन के बाद पुष्प का कौन-सा भाग फल में बदल जाता है? 


(a) पुंकेसर


(b) वर्तिका


(c) अण्डाशय


 (d) बीजाण्ड


उत्तर (c) निषेचन के बाद अण्डाशय फल में परिवर्तित हो जाता है। बीजाण्ड बीज में परिवर्तित हो जाता है।


प्रश्न 16. जाइगोट में गुणसूत्रों की संख्या होती है



 (a) 4X


(b) 3X


(c) 2X


(d) X


उत्तर (d) जाइगोट (युग्मनज) में गुणसूत्रों की संख्या X होती है।


प्रश्न 17. नर जनन अंगों से सम्बन्धित ग्रन्थि है।


(a) प्रोस्टेट ग्रन्थि


(C) एड्रीनल ग्रन्थि


(b) श्वेत ग्रन्थि


(d) एपिडिडाइमिस


उत्तर (a) प्रोस्टेट ग्रन्थि नर जनन अंगों से सम्बन्धित ग्रन्थि है। यह वीर्य निर्माण, शुक्राणुओं को पोषण देने तथा उनको जीवित रखने में सहायता करती है।


प्रश्न 18. निम्नलिखित में से कौन-सा टेस्टोस्टेरॉन हॉर्मोन का कार्य नहीं है?



 (a) लड़कों में यौवानावस्था के लक्षणों का नियन्त्रण


(b) शुक्राणुओं के उत्पादन का नियन्त्रण


(C) हड्डियों और पेशियों का विकास


(d) शरीर वृद्धि के लिए उपापचय का नियमन



 उत्तर (c) हड्डियों और पेशियों का विकास टेस्टोस्टेरॉन हॉर्मोन का कार्य नहीं है।


प्रश्न 19. निम्न में से कौन मानव में मादा जनन तन्त्र का भाग नहीं है?


(a) अण्डाशय।         (b) गर्भाशय


(c) शुक्रवाहिका।        (d) डिम्बवाहिनी 


उत्तर (c) शुक्रवाहिका नर जनन अंग से सम्बन्धित नलिका है।





        अतिलघु उत्तरीय प्रश्न    2 अंक


प्रश्न 1. एककोशिकीय एवं बहुकोशिकीय जीवों की जनन पद्धति में क्या अन्तर है?


उत्तर – एककोशिकीय जीवों की अपेक्षा बहुकोशिकीय जीवों को जनन के लिए अपेक्षाकृत अधिक जटिल विधि की आवश्यकता होती है, क्योंकि विशेष कार्य हेतु इनमें विशिष्ट कोशिकाएँ संगठित होकर ऊतक का निर्माण करती हैं तथा ऊतक संगठित होकर अंग बनाते हैं, शरीर में इनकी स्थिति भी निश्चित होती है, जबकि एककोशिकीय जीव सरल संरचना वाले होते हैं तथा इनमें जनन की कोई विशेष कोशिकाएँ भी नहीं होती हैं। 


प्रश्न 2. पुनरूद्भवन से क्या तात्पर्य है? पुनरूद्भवन को एक उदाहरण से स्पष्ट कीजिए। 


उत्तर– किसी जन्तु के किसी भी कटे हुए भाग से नए जन्तु की उत्पत्ति को पुनरुद्भवन (पुनर्जनन) कहते हैं; उदाहरण हाइड्रा, प्लेनेरिया, आदि। 



प्रश्न 3. पादपों में अलैंगिक जनन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। 


अथवा अलैंगिक जनन की अपेक्षा लैंगिक जनन के क्या लाभ हैं?



उत्तर – इस प्रकार के जनन में विशेष जनन कोशिकाओं के बिना ही एक जनक द्वारा नई सन्तति का निर्माण होता है। इसके फलस्वरूप, जिस सन्तति का जन्म होता है, वह आनुवंशिकी रूप से पूरी तरह अपने जनक के समान होती है। अतः इनकी सन्ततियों में विभिन्नताएँ होने की प्रायः सम्भावनाएँ नहीं होती हैं।


अलैगिक जनन विधि मुख्यतया एकल जीव, निम्न पादपों तथा जन्तुओं में पाई जाती उदाहरण प्रोटोजोआ, कवकों तथा कुछ निम्न जीव; जैसे-प्रोटिस्टा, स्पंज, सीलेन्ट्रेटा व प्लेनेरिया, आदि।


इसके विपरीत लैंगिक प्रजनन द्वारा युग्मकों के संलयन से विभिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं, जो जाति के अस्तित्व के लिए जरूरी है। ये विभिन्नताएँ जैव-विकास का मुख्य आधार हैं। यह जनन सामान्यतया निम्न श्रेणी के जन्तुओं में अनुपस्थित होता है, किन्तु उच्च श्रेणी के जन्तुओं में उपस्थित होता है।


प्रश्न 4. पादपों में कायिक जनन की दो विधियों का उदाहरण सहित उल्लेख कीजिए। 



उत्तर – पादपों में कायिक जनन विभिन्न वर्धी भागों के आधार पर विभिन्न प्रकार का होता है। इनमें से दो उदाहरण निम्न हैं



(i) जड़ों द्वारा जड़ों में भोजन का संचय होता है। जड़ों पर अपस्थानिक कलिकाएँ उपस्थित होती हैं। अनुकूल परिस्थितियों में यह नए पादप का निर्माण करती है; उदाहरण शकरकन्द, सतावर, आदि।


(ii) पत्ती द्वारा मांसल पत्तियों में भोजन का संग्रह होता है। यह पर्ण कलिकाओं का निर्माण करती है। अनुकूल परिस्थितियों में यह नए पादप का निर्माण करती है; उदाहरण ब्रायोफिल्लम, बिगोनिया, घाव पत्ता, आदि।


प्रश्न 5. जीवों के जनन की विखण्डन एवं खण्डन विधि को उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।



उत्तर (i) विखण्डन इस विधि में कोशिका दो भागों में विभाजित होकर नई सन्तति कोशिकाओं का निर्माण करती हैं; उदाहरण जीवाणु, यूग्लीना


(ii) खण्डन इसमें सूकाय के कायिक सूत्र या तन्तु टूट जाते हैं तथा इन टूटे सूत्रों का प्रत्येक भाग वृद्धि करके नए पादप का निर्माण कर लेता है; उदाहरण शैवाल, कवक, आदि।




प्रश्न 6. अगर प्लेनेरिया या हाइड्रा को कई टुकड़ों में काट दें, तो इसका क्या परिणाम होगा? इस क्रिया का वर्णन कीजिए। 


अथवा प्लेनेरिया में पुनरुद्भवन द्वारा अलैंगिक जनन का वर्णन कीजिए।


 उत्तर – यदि प्लेनेरिया या हाइड्रा को अनेक टुकड़ों में काटा जाता है, तो प्रत्येक भाग वृद्धि एवं विभाजन द्वारा सम्पूर्ण हाइड्रा या प्लेनेरिया का निर्माण कर लेता है। शरीर के नवनिर्माण की इस प्रक्रिया को पुनरुद्भवन कहते हैं। ट्रेम्बले के अनुसार, पुनः 1.6 मिमी तक का हाइड्रा का टुकड़ा पूर्ण जीव का निर्माण कर सकता है। 



प्रश्न 7. पुष्प की अनुदैर्ध्य काट का नामांकित चित्र बनाइए। 


उत्तर पुष्प की अनुदैर्ध्य काट का नामांकित चित्र निम्न हैं






प्रश्न 8. पुष्पीय पौधों में लैंगिक जनन किन अंगों के द्वारा होता है? एकलिंगी तथा उभयलिंगी पुष्प क्या हैं? उदाहरण सहित बताइए। 



उत्तर – पुष्पीय पौधों में लैंगिक जनन पुंकेसर या पुमंग (नर जनन अंग) और स्त्रीकेसर या जायांग (मादा जनन अंग) के द्वारा होता है।


जननांगों के आधार पर पुष्प दो प्रकार के होते हैं 


(i) एकलिंगी पुष्प जब पुष्प में पुंकेसर या स्त्रीकेसर में से कोई एक जननांग उपस्थित होता है, तो पुष्प एकलिंगी कहलाते हैं, जैसे-पपीता, तरबूज, आदि ।



 (ii) उभयलिंगी पुष्प जब एक ही पुष्प में पुंकेसर एवं स्त्रीकेसर दोनों उपस्थित होते हैं, तो पुष्प उभयलिंगी कहलाते हैं, जैसे-गुड़हल, सरसों, आदि।


प्रश्न 9. पुमंग एवं जायांग में अन्तर स्पष्ट कीजिए।



उत्तर पुमंग एवं जायांग में अन्तर निम्न प्रकार से हैं





पुमंग

जायांग

यह नर जनन अंग है व इसकी प्रत्येक इकाई को पुंकेसर कहते हैं।

यह मादा जनन अंग है व इसकी प्रत्येक इकाई को अण्डप कहते हैं।

पुंकेसर का अगला फूला हुआ भाग परागकोष कहलाता है, जिसमें नर युग्मक या परागकण बनते हैं।

अण्डप का निचला फूला हुआ भाग अण्डाशय कहलाता है, जिसमें बीजाण्ड उपस्थित होता है। बीजाण्ड में मादा युग्मक या अण्ड बनता है।





प्रश्न 10. परागण पर टिप्पणी लिखिए।


अथवा स्वपरागण तथा परपरागण में विभेद कीजिए। 


उत्तर किसी पुष्प के परागकणों का उसी पुष्प या उसी जाति के दूसरे पादप के किसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुँचने की क्रिया को परागण कहते हैं। यह पादपों में लैंगिक जनन हेतु एक अत्यन्त आवश्यक क्रिया है। इसके अभाव में पादप में बीज का निर्माण नहीं होता है। 



स्व-परागण तथा पर-परागण में अन्तर



स्व-परागण

परपरागण

यह एक ही पुष्प या एक ही पादप के दो पुष्पों में अथवा कायिक जनन द्वारा तैयार अन्य पादप के पुष्पों में होता है।

यह एक ही जाति के लैंगिक प्रजनन द्वारा तैयार दो भिन्न पादपों के पुष्पों के मध्य 

होता है।

इसमें पुष्प का द्विलिंगी होना आवश्यक है।


पुष्प द्विलिंगी अथवा एकलिंगी हो सकते हैं। नर व मादा पुष्प अलग-अलग पादपों पर भी हो सकते हैं।





प्रश्न 11. एकलिंगी पुष्पों में परागण किस प्रकार का होता है? समझाइए।


उत्तर जब एक पुष्प के परागकण लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न उसी जाति के अन्य पादप के वर्तिकाग्र पर विभिन्न माध्यमों से पहुँचते हैं, तो इसे पर-परागण कहते हैं। एकलिंगी पुष्पों में प्राय: पर-परागण पाया जाता है; जैसे-पपीता, मक्का, आदि। इसका कारण एकलिंगी पुष्पों में नर तथा मादा जननांग अलग-अलग होते है। पर-परागण कीटों, वायु, जल द्वारा और जन्तुओं के माध्यम से होता है।



प्रश्न 12. मक्का में परागण किस माध्यम से होता है?


उत्तर मक्का में पर-परागण वायु द्वारा होता है। इसमें परागकण अत्यधिक मात्रा में बनते हैं, क्योंकि वायु के माध्यम से इनकी हानि बहुत अधिक होती है। परागकण हल्के, शुष्क तथा जलरोधी होते हैं। 



प्रश्न 13. भ्रूणपोष केन्द्रक में गुणसूत्रों की संख्या कितनी होती है?



उत्तर – भ्रूणपोष केन्द्रक त्रिगुणित (3n) होता है। त्रिसमेकन से बना त्रिगुणित केन्द्रक, प्राथमिक भ्रूणकोष केन्द्रक के बाद में भ्रूणपोष का निर्माण करता है, जो भ्रूण के परिवर्धन के समय भ्रूण के पोषण के काम आता है। भ्रूणपोष के कारण भ्रूण का उचित परिवर्धन होता है तथा अच्छे व स्वस्थ बीज बनते हैं।




प्रश्न 14. पुष्प का कौन-सा भाग फल एवं बीज उत्पन्न करता है? 


उत्तर निषेचन पश्चात् अण्डाशय फल में व अण्डाशय भित्ति, फल भित्ति में बदल जाती है व बीजाण्ड द्वारा बीज का निर्माण होता है।


प्रश्न 15. अलैंगिक तथा लैंगिक जनन में कोई चार अन्तर लिखिए। उत्तर अलैगिक तथा लैंगिक जनन में अन्तर निम्नलिखित हैं



अलैगिक जनन


लैंगिक जनन

इसके द्वारा शरीर का बना कोई भाग या इससे बनी हुई विशिष्ट संरचनाएँ नए जीव का निर्माण करती है।

इस प्रकार के जनन में नर एवं मादा युग्मक मिलकर नए जीव का निर्माण करते हैं।


यह अपेक्षाकृत सरल होता है तथा सन्तति आनुवंशिक तौर पर जनक के समान होती है।


यह जटिल प्रक्रिया है तथा सन्तति आनुवंशिक तौर पर जनक से भिन्न होती है

अलैंगिक जनन में विखण्डन, मुकुलन, द्विविभाजन, बीजाणुजनन, आदि विधियां उपयोग में आती हैं।


इसमें नर तथा मादा (जन्तुओं में) के

युग्मकों को क्रमशः शुक्राणु एवं अण्डाणु कहते हैं, जो परस्पर मिलकर युग्मनज का निर्माण करते हैं।

यह जनन सामान्यतया निम्न श्रेणी के जन्तुओं में उपस्थित होता है, किन्तु उच्च श्रेणी के जन्तु में अनुपस्थित होता है।

यह जनन सामान्यतया निम्न श्रेणी के जन्तुओं में अनुपस्थित होता है, किन्तु उच्च श्रेणी के जन्तुओं में उपस्थित होता है।





प्रश्न 16. तम्बाकू के पौधे में नर युग्मक में 24 गुणसूत्र होते हैं। मादा युग्मक में गुणसूत्रों की संख्या कितनी होगी? युग्मनज में गुणसूत्रों की संख्या कितनी होगी? 


उत्तर – तम्बाकू के नर तथा मादा युग्मकों में गुणसूत्रों की संख्या 24 और युग्मनज में गुणसूत्रों संख्या 48 होगी क्योंकि लैंगिक जनन करने वाले जीवों में युग्मकजनन के कारण युग्मकों में गुणसूत्रों की संख्या आधी (अगुणित) रह जाती है, परन्तु निषेचन के समय नर तथा मादा युग्मकों के संलयन के फलस्वरूप सन्तति में गुणसूत्रों की संख्या जनकों के समान हो जाती है।


 प्रश्न 17. मानव के वृषण के कार्य का उल्लेख कीजिए।


उत्तर – मानव में वृषण एक नर जननांग है। ये उदर गुहा के बाहर वृषण कोष में स्थित होता है, जिसका मुख्य कार्य शुक्राणुओं का उत्पादन करना है। इसका तापमान शरीर के तापमान से 2-3°C कम होता है, जो शुक्राणुओं के निर्माण में सहायक होता है।




प्रश्न 18. (i) मानव शरीर में शुक्राणु के निर्माण से निकास तक के पथ को बताइए।


 (ii) मानव में प्रोस्टेट ग्रन्थि एवं शुक्राशय की क्या भूमिका है?


उत्तर (i) शुक्रजनन नलिका वृषण → शुक्रवाहिका → अधिवृषण योनि ←मूत्रमार्ग ←जननमूत्र कोटर ←शुक्रवाहिनी ←


(ii) शुक्राशय शुक्राणु के लिए श्यान द्रव्य बनाते हैं, जो वीर्य का भाग होता है। यह शुक्राणु को संरक्षण एवं पोषण प्रदान करता है। 


प्रोस्टेट ग्रन्थि क्षारीय द्रव स्रावित करती है, जो मूत्रमार्ग में अपशिष्ट मूत्र से उत्पन्न अम्लता को निष्प्रभावित करता है। यह वीर्य का मुख्य भाग भी बनाता है।



प्रश्न 19. यदि निषेचन न हो, तो गर्भाशय में क्या-क्या परिवर्तन होते हैं?


अथवा ऋतुस्राव क्यों होता है?


उत्तर – यदि निषेचन नहीं होता है, तो गर्भाशय की भीतरी परत, जो मोटी और ऊतकीय होती है। यह परत धीरे-धीर टूटकर योनि मार्ग से रुधिर एवं म्यूकस के रूप में निष्कासित होती है। इस चक्र में एक महीने का समय लगता है। यह ऋतुस्राव या रजोधर्म कहलाता है। ऋतुस्राव की अवधि 2-8 दिनों की होती है।




प्रश्न 20. माँ के शरीर में गर्भस्थ भ्रूण को पोषण किस प्रकार प्राप्त होता है?


 उत्तर – माँ का शरीर गर्भधारण के बाद उसके विकास के लिए विशेष रूप से अनुकूलित होता है। अतः गर्भाशय प्रत्येक माह भ्रूण को ग्रहण करने एवं उसके पोषण हेतु तैयारी करता है। इसकी आन्तरिक परत मोटी होती जाती है तथा भ्रूण के पोषण हेतु रुधिर प्रवाह भी बढ़ जाता है। भ्रूण को माँ के रुधिर से ही पोषक पदार्थ तथा ऑक्सीजन मिलती है। इसके लिए एक विशेष संरचना अपरा या प्लेसेन्टा होती है।



प्रश्न 21. गर्भनिरोधक युक्तियाँ अपनाने के क्या कारण हो सकते हैं? उत्तर गर्भनिरोधक युक्तियों को अपनाने के निम्न कारण हैं


(i) इसके द्वारा जन्म दर पर नियन्त्रण किया जाता है। 


(ii) इनके द्वारा जल्दी-जल्दी गर्भधारण को रोका जा सकता है, क्योंकि जल्दी-जल्दी गर्भधारण करने से स्त्री और सन्तानों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है


(iii) इसकी सहायता से जनसंख्या नियन्त्रण किया जा सकता है।


(iv) इन युक्तियों के प्रयोग से लैंगिक या यौन संचारित रोगों से बचा जा सकता है; जैसे-एड्स।



प्रश्न 22. यदि कोई महिला कॉपर-टी का प्रयोग कर रही है, तो क्या यह उसकी यौन संचारित रोगों से रक्षा करेगी? 


 उत्तर नहीं, यदि कोई महिला कॉपर-टी का प्रयोग कर रही है, तो यह उसकी यौन संचारित रोगों से रक्षा नहीं करेगी, क्योंकि यह केवल गर्भधारण को रोकने की युक्ति है।



लघु उत्तरीय प्रश्न अंक 4


प्रश्न 1. बीजरहित पादपों में जनन क्रिया किस विधि द्वारा होती है?उदाहरण भी दीजिए।



 उत्तर निम्न श्रेणी के अनेक पादप ऐसे होते हैं, जिनमें बीजों का निर्माण नहीं होता है। इस प्रकार के पादपों में अलैंगिक जनन पाया जाता है। सामान्यतया बीजरहित पादपों में अलैगिक जनन की विधियाँ निम्न प्रकार होती हैं


(i) विखण्डन इस विधि में कोशिका दो भागों में विभाजित होकर नई सन्तति कोशिकाओं का निर्माण करती हैं; उदाहरण जीवाणु, युग्लीना।


(ii) मुकुलन इस प्रकार के पादपों की मातृ कोशिका पर एक मुकुल (कायिक उभार) का विकास होता है। मुकुल वृद्धि करके मातृ पादप से पृथक् हो जाती है और बाद में यह मुकुल वृद्धि कर नया पादप बनता है; उदाहरण यीस्ट |


(iii) खण्डन इसमें सूकाय के कायिक सूत्र या तन्तु टूट जाते हैं तथा इन टूटे सूत्रों का प्रत्येक भाग वृद्धि करके नए पादप का निर्माण कर लेता है; उदाहरण शैवाल, कवक, आदि।


(iv) बीजाणुओं द्वारा निम्न श्रेणी के पादपों में विभिन्न प्रकार के बीजाणुओं का निर्माण होता है, जो अनुकूल परिस्थितियों में अंकुरित होकर नए पादप (चलबीजाणु, अचलबीजाणु, हिप्नोस्पोर्स, क्लैमाइडोस्पोर, आदि) का निर्माण करते हैं; उदाहरण शैवाल, ब्रायोफाइटा, आदि।


प्रश्न 2. कायिक जनन का क्या महत्त्व है?


अथवा वर्धी जनन पर टिप्पणी कीजिए। अथवा कायिक जनन किसे कहते हैं? पादपों में इस विधि से क्या लाभ हैं? 


अथवा कुछ पादपों को उगाने के लिए कायिक प्रवर्धन का उपयोग क्यों किया जाता है?



उत्तर – कायिक प्रवर्धन या जनन जब पादप का कोई भी वर्धी भाग, मातृ पादप से अलग होकर एक नए पादप का निर्माण करता है, तो इसे कायिक जनन कहते हैं। कायिक जनन द्वारा उगाए गए पादपों में बीज की आवश्यकता नहीं होती है और बीज द्वारा उगाए गए पादपों की अपेक्षा पुष्प व फल कम समय में आ जाते हैं; उदाहरण गुलाब, अंगूर, केला, संतरा, आदि। 



कायिक जनन के लाभ



(i) इस विधि द्वारा कम समय में अनेक पादप विकसित किए जा सकते हैं।


(ii) नए पादप, मातृ पादप के समान होते हैं और इनमें विभिन्नताएँ नहीं होती हैं। 



(iii) कायिक जनन द्वारा विकसित पादप बाह्य वातावरण से अप्रभावित रहते हैं।


(iv) पादपों के वाँछित लक्षण पीढ़ी-दर-पीढ़ी बने रहते हैं।


प्रश्न 3. कायिक प्रवर्धन किसे कहते हैं? इसकी विधियों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।


अथवा पादपों में कायिक प्रजनन की दो विधियों का उदाहरण सहित उल्लेख कीजिए 


अथवा कायिक जनन किसे कहते हैं? तने द्वारा इस विधि का एक उदाहरण दीजिए।




उत्तर –कायिक प्रवर्धन विभिन्न वर्धी भागों के आधार पर निम्न प्रकार का होता है


 (i) प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन इस क्रिया में प्राकृतिक रूप से पादप का कोई भी अंग या रूपान्तरित भाग मातृ पादप से अलग होकर नया पादप बनाता है। यह अनुकूल परिस्थितियों में सम्पन्न होता है। कायिक अंगों से जनन के आधार पर प्राकृतिक कायिक जनन को निम्नलिखित भागों में बाँटा गया है


(a) जड़ों द्वारा जड़ों में भोजन संचय होता है तथा इन पर अपस्थानिक कलिकाएँ उपस्थित होती हैं, वे पादप का निर्माण करती हैं;


उदाहरण शकरकन्द, सतावर, पुदीना, आदि।


 (b) पत्ती द्वारा मांसल पर्णों (पत्तियों) में भोजन संग्रह होता है। इनमें पर्ण कलिकाओं का निर्माण होता है, जो नए पादप का निर्माण करती हैं; उदाहरण ब्रायोफिल्लम, बिग्नोनिया, घाव पत्ता, आदि।


(c) तनों द्वारा जिन तनों में भोजन संग्रह होता है, उनमें पर्वसन्धियों पर अपस्थानिक कलिकाएँ उपस्थित होती हैं, जो नए पादप के निर्माण में सहायक होती हैं; उदाहरण आलू।



(ii) कृत्रिम कायिक प्रवर्धन मानव द्वारा पादपों में कृत्रिम ढंग से किए गए कायिक जनन को कृत्रिम कायिक जनन या प्रवर्धन कहते हैं। 


पादपों में कृत्रिम कायिक जनन की विधियाँ निम्नलिखित हैं


(a) दाब लगाना वह पादप, जिनकी शाखाएँ कठोर होती हैं। अतः सरलता से कलम के रूप में प्रवर्धित नहीं हो पाती हैं। इसलिए पादप पर लगे शाखा के कुछ भाग को छीलकर शाखा को भूमि में दबा देते हैं। बाद में, मृदा में दबे हुए भाग से अपस्थानिक जड़ें निकल आती हैं। अब इस अवस्था में शाखा को जनक पादप से काटकर अलग करके इसे मिट्टी में रोप देते हैं; उदाहरण नींबू, चमेली, अंगूर, आदि।


(b) कलम लगाना इस विधि में अच्छे विकसित परिपक्व पादपों की शाखाओं को काटकर भूमि में दबा दिया जाता है। इन शाखाओं पर कुछ कक्षस्थ कलिकाओं का होना आवश्यक है। शाखा के भूमिगत भाग की पर्व सन्धियों से अपस्थानिक जड़ें निकलती हैं। इनकी कक्षस्थ कलिकाएँ वृद्धि करके एक नए पादप का निर्माण करती हैं इस विधि द्वारा पादपों को उगाया जाता है; उदाहरण गुलाब, गन्ना, गुड़हल, आदि।



(c) पैबन्द लगाना या रोपण इसमें निम्न या अशुद्ध जाति के तने को तिरछा काट लिया जाता है, जिसे स्कन्ध (Stock) कहते हैं तथा उच्च किस्म की जाति के पादप की एक शाखा या कलम (श्यान) को इसी प्रकार तिरछी काटकर मिलान करके इसके साथ जोड़ दिया जाता है। कुछ दिनों पश्चात् स्कन्ध तथा कलम दोनों आपस में जुड़ जाते हैं।


प्रश्न 4. एक पुष्प का नामांकित चित्र बनाए। इसके विभिन्न भागों के कार्यों का उल्लेख कीजिए।


 उत्तर पुष्प तने का विशिष्ट रूपान्तरण होता है। इसके विभिन्न भाग जनन के लिए रूपान्तरित हो जाते हैं। पुष्प का फूला हुआ या चपटा भाग पुष्पासन कहलाता है।


पुष्पासन पर क्रमश: बाह्यदल, दल, पुंकेसर तथा अण्डप लगे रहते हैं। पुष्पीय भागों को दो समूह में वर्गीकृत किया जा सकता है



1. सहायक चक्र




(i) बाह्य दलपुंज यह पुष्प का सबसे बाहरी चक्र होता है। इसमें इकाई बाह्यदल होते हैं। दल प्रायः हरे होते हैं। यह कलिकावस्था में पुष्प की सुरक्षा करते हैं।




(ii) दलपुंज यह पुष्प का द्वितीय चक्र होता है। इसका निर्माण दल की इकाईयों से होता है। ये प्राय: रंगीन होते हैं एवं परागण में सहायक होते हैं।



2. जनन चक्र


(i) पुमंग यह पुष्प का तीसरा चक्र होता है। इसका निर्माण पुंकेसरों से होता है। यह पुष्प का नर भाग है। पुंकेसर परागकोष, योजी तथा पुंतन्तु से मिलकर बना होता है। परागकोष में परागकण या लघुबीजाणु निर्मित होते हैं।



(ii) जायांग यह पुष्प का सबसे भीतरी चक्र होता है, जिसका निर्माण अण्डप द्वारा होता है। अण्डप का निर्माण अण्डाशय, वर्तिका तथा वर्तिकाग्र से होता है। अण्डाशय में बीजाण्ड बनते हैं। वर्तिकाग्र परागण के समय परागकणों को ग्रहण करती है।



प्रश्न 5. आवृतबीजी बाह्य अण्डप के अनुदैर्ध्य काट का नामांकित चित्र बनाइए।


उत्तर आवृतबीजी बाह्य अण्डप के अनुदैर्ध्य काट को निम्न चित्र से दर्शाया गया है




प्रश्न 6. परागकण क्या है? ये कहाँ पाए जाते हैं? विभिन्न प्रकार के परागकण का उल्लेख कीजिए।


उत्तर पादप में परागकण नर युग्मक होते हैं। ये पुंकेसर के फूले हुए भाग परागकोष में पाए जाते हैं। 


परागण मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है


(i) स्वपरागण किसी पादप के पुष्प के परागकण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर या उस पादप के किसी अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र पर अथवा कायिक जनन द्वारा तैयार किए गए उसी जाति के किसी अन्य पादप के पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुँचने की क्रिया को स्व-परागण कहते हैं।



(ii) पर-परागण जब एक पुष्प के परागकण लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न उसी जाति के अन्य पादप के वर्तिकाग्र पर विभिन्न माध्यमों में पहुँचते हैं, तो इसे पर-परागण कहते हैं। पर परागण कीटों द्वारा, वायु द्वारा, जल द्वारा और जन्तुओं के माध्यम से होता है।



प्रश्न 7. परागण तथा निषेचन में अन्तर स्पष्ट कीजिए। अथवा परागण क्रिया निषेचन से किस प्रकार भिन्न है?


उत्तर परागण तथा निषेचन में अन्तर निम्न प्रकार से हैं



परागण

निषेचन

इस क्रिया में परागण समान जाति के पुष्पों के वर्तिकाग्र पर पहुँचते हैं।

निषेचन में नर तथा मादा युग्मको का संलयन होता है। 

परागण के लिए बाह्य माध्यम, जैसे-वायु, जल, कीट, जन्तु, आदि की आवश्यकता होती है।


इसके लिए माध्यम अर्थात् बाह्य साधन की आवश्यकता नहीं होती है।

परागण एक बाह्य क्रिया है।

यह एक आन्तरिक क्रिया होती है।

इसके लिए किसी पूर्व क्रिया कि आवश्यकता नहीं पड़ती है।

पादपों में निषेचन हेतु पहले परागण क्रिया होना आवश्यक होता है।



प्रश्न 8. स्व-परागण तथा पर परागण में दो-दो अन्तर स्पष्ट कीजिए तथा एक-एक उदाहरण दीजिए।


  अथवा परागण किसे कहते हैं? स्व-परागण एवं पर-परागण में उदाहरण सहित अन्तर स्पष्ट कीजिए। 


उत्तर 




स्व-परागण

पर परागण


यह एक ही पुष्प या एक ही पादप के दो पुष्पों में या कायिक जनन द्वारा तैयार अन्य पादप के पुष्पों में होता है।

यह एक ही जाति के लैंगिक प्रजनन द्वारा तैयार दो भिन्न पादपों के पुष्पों के मध्य होता है।


इसमें पुष्प का द्विलिंगी होना आवश्यक है।


पुष्प द्विलिंगी या एकलिंगी हो सकते हैं। नर व मादा पुष्प अलग-अलग पादपों पर भी हो सकते हैं। 


इसमें बाह्य माध्यम की आवश्यकता नहीं होती है।


इसमें परागकणों को अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुँचने के लिए बाह्य माध्यम (जल, वायु, कीट, पक्षी, आदि) की आवश्यकता पड़ती है


पुष्पों में समकालपक्वता पाई जाती है। अर्थात् परागकोष एवं वर्तिका समान समय में परिपक्व होते हैं, उदाहरण सदाबहार, मूँगफली।


पुष्पों में भिन्नकालपक्वता पाई जाती अर्थात् पुष्प का परागकोष तथा वर्तिकाग्र अलग-अलग समय पर परिपक्व होते हैं; उदाहरण सूरजमुखी, गेंदा।





प्रश्न 9. पुष्प में निषेचन क्रिया को प्रदर्शित करने हेतु स्त्रीकेसर की लम्ब काट का नामांकित चित्र बनाइए एवं वर्णन कीजिए। 



उत्तर निषेचन – नर तथा मादा केन्द्रकों का संलयन निषेचन कहलाता है।  वर्तिकाग्र (Stigma) से परागण के समय एक तरल पदार्थ स्रावित होता है, इन तरल पदार्थों का अवशोषण करके परागकण फूल जाते हैं। परिणामस्वरूप जनन छिद्रों से पराग नलिका बाहर निकल आती है तथा वृद्धि करके रसायनानुवर्तन द्वारा वर्तिकाग्र एवं वर्तिका से होती हुई युग्मकों समेत अण्डाशय में स्थित बीजाण्ड में प्रवेश कर जाती है। पराग नलिका बीजाण्ड में प्रवेश कर नर युग्मकों को मुक्त कर देती है। एक नर युग्मक अण्ड कोशिका से संलयित होकर द्विगुणित युग्मनज (Zygote) का निर्माण करता है। तत्पश्चात् यह द्विगुणित युग्मनज वृद्धि और विभाजन के फलस्वरूप भ्रूण का निर्माण करता है।







प्रश्न 10. द्विनिषेचन तथा त्रिक संलयन किसे कहते हैं?


अथवा आवृतबीजियों में द्विनिषेचन किसे कहते हैं? 


अथवा द्विनिषेचन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।


उत्तर पुष्पी पादपों में निषेचन के दौरान परागकण की परागनलिका बीजाण्ड में प्रवेश कर दो नर युग्मकों को मुक्त कर देती है। एक नर युग्मक अण्ड कोशिका से संलयित होकर युग्मनज बनाता है, जिससे भ्रूण का विकास होता है। इसे सत्य निषेचन भी कहते हैं तथा दूसरा नर युग्मक द्वितीयक केन्द्रक (2n) को निषेचित करता है, इससे त्रिगुणित भ्रूणपोष केन्द्रक (3n) बनता है, जो त्रिगुणित भ्रूणपोष बनता है। इस प्रक्रिया को त्रिक संलयन कहते हैं। यहाँ निषेचन की क्रिया दो बार (सत्य व त्रिक संलयन) होती है। अतः इसे द्विनिषेचन भी कहते हैं।




प्रश्न 11. पुष्प में निषेचन के उपरान्त होने वाले परिवर्तनों का वर्णन कीजिए।


 उत्तर नर तथा मादा युग्मकों के संलयन को निषेचन कहते हैं।


निषेचन के पश्चात् होने वाले परिवर्तन निम्न हैं


(i) बाह्यदल ये प्रायः मुरझाकर गिर जाते हैं, परन्तु कई पादपों में चिरस्थायी होते हैं; उदाहरण टमाटर, बैंगन, आदि।


(ii) दल, पुंकेसर, वर्तिकाग्र, वर्तिका मुरझाकर गिर जाते हैं।


 (iii) अण्डाशय व अण्डाशय भित्ति अण्डाशय फल में तथा अण्डाशय भित्ति फलभित्ति में बदल जाती है।


(iv) बीजाण्ड ये बीज का निर्माण करता है।


(a) अण्डद्वार ये बीजद्वार बनाता है।


(b) बीजाण्डकाय ये नष्ट हो जाता है।


(c) भ्रूणकोष अण्डकोशिका ये भ्रूण बनाती है।


सहायक कोशिकाएँ ये नष्ट हो जाती हैं। 


प्रतिमुख कोशिकाएँ ये नष्ट हो जाती हैं।


द्वितीयक केन्द्रक ये भ्रूणपोष बनाता है, जो भ्रूण के परिवर्धन के समय भ्रूण के पोषण के काम आता है।


इस प्रकार अन्त में फल तथा इसके अन्दर एक या अनेक भ्रूणपोषी या अभ्रूणपोषी बीज होते हैं।


प्रश्न 12. यौवनारम्भ क्या है? यौवनावस्था प्रारम्भ होने के समय बालक/बालिका में उत्पन्न होने वाले तीन-तीन गौण लैंगिक लक्षणों का वर्णन कीजिए।


अथवा गौण लैंगिक लक्षण किसे कहते हैं? यौवनारम्भ के समय बालक एवं बालिकाओं के शरीर में विकसित होने वाले प्रत्येक के दो-दो गौण लक्षणों का उल्लेख कीजिए।




अथवा गौण लैंगिक लक्षण किसे कहते हैं? लड़के व लड़कियों में कितने वर्ष की आयु में इनका विकास होता है? 


अथवा यौवनारम्भ के समय लड़कियों में कौन-कौन से परिवर्तन दिखाई देते हैं?




उत्तर – किसी भी प्राणी के जनन करने योग्य हो जाने को यौवनारम्भ (Adolescent) कहते हैं। इसकी आयु पुरुषों में 15-18 वर्ष तक तथा स्त्रियों में 11-14 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में स्त्री एवं पुरुषों के लक्षणों में कुछ महत्त्वपूर्ण बदलाव आते हैं, जोकि गौण लैंगिक लक्षणों के कारण होते हैं। अतः गौण लैंगिक लक्षण लैंगिक विभेद के वे लक्षण हैं, जोकि किसी जन्तु में पैदा होने के बाद विशेषकर यौवनावस्था में प्रदर्शित होते हैं तथा नर एवं मादा द्वारा एक-दूसरे को परस्पर आकर्षित करने के उपयोग में आते हैं। पुरुष एवं स्त्री में पाए जाने वाले द्वितीयक लैंगिक लक्षणों का विवरण निम्नलिखित हैं



पुरुष के द्वितीयक (गौण) लैंगिक लक्षण


 (i) चेहरे व शरीर पर बाल उग जाते हैं तथा स्वर भारी हो जाता है।


(ii) वृषण कोषों तथा शिश्न के आकार में वृद्धि हो जाती है।


(iii) शुक्रजनन नलिकाओं में शुक्राणुओं का निर्माण शुरू हो जाता है। 



(iv) अस्थियाँ व पेशियाँ मजबूत तथा कन्धे चौड़े हो जाते हैं व शरीर की लम्बाई बढ़ने लगती है।


(v)  बगल जननांगों के आस-पास, बगलो, आदि स्थानों पर बाल उग जाते हैं। वृषण से स्त्रावित हॉर्मोन्स (टेस्टोस्टेरॉन व एण्डोस्टेरॉन) नर में यौवनावस्था को प्रेरित करते हैं।




स्त्री के द्वितीयक (गौण) लैंगिक लक्षण


 (i) बाह्य जननांगों तथा स्तनों का विकास प्रारम्भ हो जाता है।


(ii) अण्डोत्सर्ग तथा मासिक धर्म या आर्तव चक्र प्रारम्भ हो जाता है।


(iii) श्रोणि मेखला तथा नितम्ब चौड़े हो जाते हैं।


(iv) स्वर मधुर व तीव्र हो जाता है।


(v) बगल, जननांगों, आदि के आस-पास बाल उग जाते हैं। मादा में एस्ट्रोजन, प्रोजेस्टेरॉन हॉर्मोन अण्डाशय के कार्यों व विकास का नियन्त्रण करते हैं तथा मादा में यौवानावस्था को प्रेरित करते हैं।



प्रश्न 13. जनसंख्या वृद्धि के चार कारण लिखिए।




उत्तर जनसंख्या वृद्धि के कारण जनसंख्या वृद्धि के निम्नलिखित कारण हैं। 



(i) निम्न सामाजिक स्तर हमारे देश में लोगों का रहन-सहन का स्तर निम्न (Low) है। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली अधिकांश जनता निर्धन है, जो यह विश्वास करती है कि जितने अधिक बच्चे होंगे, वे उतना ही अधिक धनोपार्जन करेंगे। इस कारण निर्धन परिवार के लोग परिवार नियोजन पर ध्यान नहीं देते हैं।


(ii) निरक्षरता भारत में निरक्षरता का प्रतिशत अधिक है। अतः लोग छोटे परिवार का महत्त्व नहीं समझते हैं, इस कारण लगातार सन्तानोत्पत्ति होती रहती है।



(iii) सामाजिक रीति-रिवाज हमारे देश में बच्चों को ईश्वर की देन माना जाता है। परिवार में पुत्र का जन्म भी आवश्यक समझा जाता है। यह भी माना जाता है कि वंश का नाम पुत्र से ही चलता है। इस कारण पुत्र प्राप्ति की कामना में लोग कई सन्ताने पैदा कर लेते हैं। इसके कारण परिवार बड़ा हो जाता है। 


(iv) कम आयु में विवाह ग्रामीण तथा अशिक्षित परिवारों में आज भी बाल विवाह की प्रथा प्रचलन में हैं। अनेक कानूनी प्रतिबन्धों के बावजूद कम आयु में ही अनेक विवाह सम्पन्न हो जाते हैं, जिसके कारण कम आयु में ही ये दम्पति सन्तान उत्पन्न करने लगते हैं।



प्रश्न 14. जनसंख्या- एक समस्या पर संक्षिप्त विवरण दीजिए।


अथवा जनसंख्या वृद्धि से होने वाली चार हानियाँ (समस्याएँ) लिखिए। 


अथवा जनसंख्या वृद्धि का मानव समाज पर दुष्प्रभाव पर संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।



उत्तर जनसंख्या किसी विशेष स्थान, क्षेत्र या नगर में रहने वाले कुल लोगों की संख्या, जनसंख्या कहलाती है। जनसंख्या में बढ़ोत्तरी को जनसंख्या वृद्धि कहा जाता है, जो वर्तमान में चिन्ता का विषय है।


जनसंख्या वृद्धि के कारण हानियाँ 



जनसंख्या वृद्धि के कारण निम्नलिखित समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं


(i) शिक्षा व्यवस्था की समस्या बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में शिक्षण संस्थाएँ कम होने से विद्यालयों में उपस्थित संसाधनों पर बोझ पड़ता है तथा बच्चों को पढ़ाई के लिए प्रवेश पाना कठिन हो गया है, जैसे-विद्यालयों के कमरे, फर्नीचर, खेल के मैदान, आदि बढ़ती जनसंख्या के लिए पर्याप्त नहीं हैं।


 (ii) रोजगार की समस्या जनसंख्या वृद्धि से बेरोजगारी की समस्या भी बढ़ती जा रही है। 


(iii) खाद्य आपूर्ति की समस्या जनसंख्या की वृद्धि के अनुपात में खाद्यानों का उत्पादन कम हो रहा है, जिसके कारण लोगों को खाद्य सामग्री कम मात्रा में उपलब्ध हो पा रही है। बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं। 


(iv) स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवा समस्या परिवार में बच्चे अधिक होने से माँ का स्वास्थ्य खराब हो जाता है, जिससे बच्चों की उचित परवरिश नहीं होने से वे बीमार तथा दुर्बल हो जाते हैं। हमारे देश में अस्पतालों की संख्या कम होने के साथ-साथ उन्हें पर्याप्त औषधियाँ भी उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। 


प्रश्न 15. परिवार नियोजन किसे कहते हैं? मानव जनसंख्या वृद्धि को रोकने के उपायों का उल्लेख कीजिए।


अथवा परिवार नियोजन को परिभाषित कीजिए। नियोजित परिवार के लिए दो स्थाई विधियों का उल्लेख कीजिए ।


अथवा परिवार नियोजन के किन्हीं दो उपायों का वर्णन कीजिए। परिवार नियोजन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।


अथवा परिवार नियोजन की भिन्न विधियों का वर्णन कीजिए।


 अथवा मानव जनसंख्या का नियन्त्रण करने के समुचित उपायों का उल्लेख कीजिए।


अथवा परिवार नियोजन की स्थायी विधियाँ कौन-सी होती हैं? किन्हीं दो पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।


अथवा परिवार नियोजन पर संक्षिप्त में टिप्पणी लिखिए।


उत्तर परिवार कल्याण हेतु बच्चों की संख्या सीमित कर, परिवार को नियोजित करने की प्रक्रिया को परिवार नियोजन (Family planning) कहते हैं। जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने की प्रक्रिया या उपायों में परिवार नियोजन की विधियाँ महत्त्वपूर्ण हैं। परिवार नियोजन की विधियाँ निम्नलिखित हैं


(i) अस्थायी विधियाँ


(a) सुरक्षित काल में सम्पर्क मासिक धर्म से एक सप्ताह पूर्व व एक सप्ताह बाद का समय सुरक्षित काल माना जाता है। इस काल में लैंगिक सम्पर्क स्थापित करने पर गर्भधारण की सम्भावना कम रहती है, परन्तु यह विधि अधिक विश्वसनीय नहीं है।


(b) धैर्य असुरक्षित काल में आत्मसंयम रखना चाहिए तथा लैंगिक सम्पर्क स्थापित नहीं करना चाहिए।


(c) लूप स्त्रियाँ लूप लगवाकर गर्भधारण करने से अपना बचाव कर सकती हैं।


 (d) निरोध निरोध का प्रयोग पुरुष तथा स्त्री में से किसी एक द्वारा किया जाता है। इसके प्रयोग से गर्भधारण होने की कोई भी सम्भावना नहीं हो सकती है।


(e) गर्भ निरोधक गोलियाँ आजकल ऐसी गोलियाँ उपलब्ध सेवन से गर्भधारण की सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं। 


(f) गर्भ समापन गर्भधारण करने के बाद भी एक सीमित काल के भीतर, हैं, जिनकेकिसी कुशल व विशेषज्ञ डॉक्टर से गर्भ समापन कराया जा सकता है।



(ii) स्थायी विधियाँ


(a) स्त्री का नसबन्दी ऑपरेशन स्त्री में अण्डनलिका के ऑपरेशन के बाद गर्भधारण नहीं हो सकता, यह विधि स्थाई होती है। यह कार्य सन्तान उत्पत्ति के समय ही कराया जा सकता है।


(b) पुरुष का नसबन्दी ऑपरेशन पुरुष में शुक्रनलिका के ऑपरेशन से भी गर्भधारण की समस्या स्थाई रूप से दूर हो जाती है


 (iii) अन्य विधियाँ


(a) टीका गर्भधारण रोकने हेतु सीमित प्रभाव वाला टीका विकसित कर लिया गया है।


(b) विवाह योग्य आयु लड़के के लिए 25 वर्ष तथा लड़की के लिए 21 वर्ष की जानी चाहिए।




विस्तृत उत्तरीय प्रश्न     7 अंक




प्रश्न 1. पादपों में प्रजनन पर एक निबन्ध लिखिए। 


उत्तर प्रत्येक सजीव अपनी जाति की निरन्तरता बनाए रखने हेतु अपने जैसे ही जीव उत्पन्न करता है, इसी प्रक्रिया को प्रजनन कहते हैं।



पादपों में प्रजनन मुख्यतया दो प्रकार का होता है 



(v) कायिक जनन जब पादप के कायिक भागों, जैसे-जड़, तना, पत्ती, आदि के द्वारा नए पादप की उत्पत्ति होती है, तो इस प्रक्रिया को कायिक जनन या प्रवर्धन कहते हैं। यह दो प्रकार से होता है 


 महत्त्व (i) अलैंगिक जनन से प्राप्त सन्तति सदैव जनक के समान होती है।


(ii) इससे कम समय में अधिक सन्तति प्राप्त होती है।


2. लैंगिक जनन उच्च पादपों में लैंगिक जनन हेतु विशिष्ट संरचना पुष्प, (रूपान्तरित तना या प्ररोह) पाई जाती है। यहाँ नर तथा मादा जननांगों में बने अगुणित युग्मक निषेचन द्वारा नए पादप का निर्माण करते हैं। पुष्प यह एक संघनित तना होता है, जिससे क्रमशः बाह्य दलपुंज, दलपुंज,पुमंग तथा जायांग उपस्थित होते हैं। पादपों में लैंगिक जनन चार चरणों में सम्पन्न होता है


(i) युग्मकजनन नर जननांग (पुमंग) तथा मादा जननांग (जायांग) में क्रमश: अगुणित नर युग्मक तथा मादा युग्मक के निर्माण की प्रक्रिया को युग्मकजनन कहते हैं। परागकण नर युग्मकोद्भिद् होता है तथा भ्रूणकोष मादा युग्मकोद्भिद् होता है।


(ii) परागण परागकणों का मादा के वर्तिकाग्र तक पहुँचने की क्रिया को परागण कहते हैं।


(iii) निषेचन अगुणित नर मादा युग्मकों के संलयन की प्रक्रिया को निषेचन कहते हैं। इससे द्विगुणित युग्मनज का निर्माण होता है, जो भ्रूण बनता है। 



(iv) फल तथा बीज का निर्माण निषेचन पश्चात् अण्डाशय, फल तथा बीजाण्ड बीज में परिवर्तित हो जाता है। बीज के अंकुरण से नए पादप का निर्माण होता है।


महत्त्व (i) लैगिक जनन से सन्तति में विभिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं।


 (ii) इससे नई जातियाँ विकसित होती हैं।


प्रश्न 2. परागण की परिभाषा लिखिए। पर-परागण की विभिन्न विधियों का संक्षिप्त विवरण दीजिए। इसके महत्त्व को समझाइए।



उत्तर 

पर-परागण की विधियाँ पादपों में पर-परागण कीटों, वायु, जल एवं जन्तुओं द्वारा होता है, जो निम्न प्रकार से है



(i) कीटों द्वारा परागण कीटों को आकर्षित करने के लिए पादपों में विशेष युक्तियाँ; जैसे-पुष्पों का रंग, सुगन्ध, मकरन्द, आदि की उपस्थिति पाई जाती है। कीट परागित पुष्प बड़े ही आकर्षक एवं मकरन्द युक्त होते हैं।इन पुष्पों के वर्तिकाग्र प्रायः चिपचिपे होते हैं, 


उदाहरण- आक, साल्विया, पीपल, आदि।




(ii) वायु द्वारा परागण अनेक पादपों में वायु द्वारा परागण होता है। इसके लिए अनेक युक्तियाँ पाई जाती हैं; जैसे-पुष्प प्राय: छोटे और समूह में लगे होते हैं। इन पुष्पों में सुगन्ध, मकरन्द और रंग का अभाव होता है। इनकी वर्तिकाग्र खुरदरे एवं चिपचिपे होते हैं। परागकण हल्के और शुष्क होते हैं; उदाहरण गेहूँ, मक्का, ज्वार, आदि।



 (iii) जल द्वारा परागण यह परागण जल में उगने वाले पादपों में पाया जाता है। जल परागण के लिए पुष्पों के परागकणों, वर्तिका, वर्तिकाग्र, आदि में अनेक अनुकूलन पाए जाते हैं। पुष्प रंगहीन, मकरन्दहीन और गन्धहीन होते हैं। परागकण हल्के होते हैं, इनका घनत्व अधिक होता है तथा ये संख्या में अधिक होते हैं। इससे परागकण जल सतह पर तैरते हुए मादा पुष्प के सम्पर्क में आते हैं। परागकण वर्तिकाग्र द्वारा ग्रहण कर लिए जाते हैं; उदाहरण वैलिस्नेरिया, हाइड्रिला, सिरेटोफिलम, आदि।


(iv) जन्तु परागण कुछ पादपों में परागण घोंघों, पक्षियों, चमगादड़, आदि की सहायता से होता है; उदाहरण सेमल, कदम्ब, बिगोनिया, आदि में 



पर-परागण का महत्त्व


(i) पर-परागण द्वारा पादपों में विभिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं।


 (ii) विभिन्नताओं के परिणामस्वरूप पादपों में नई एवं उन्नत प्रजातियाँ विकसित होती हैं। अत: पर-परागण जैव-विकास में सहायक होता है।


(iii) पर-परागण के द्वारा स्वस्थ एवं रोग प्रतिरोधक पादप विकसित होते हैं।


(iv) पर-परागण के द्वारा बनने वाले बीज स्वस्थ, संख्या में अधिक एवं अधिक जनन क्षमता वाले होते हैं। 



 प्रश्न 3. पर-परागण किसे कहते हैं? पर-परागण की विभिन्न विधियों के नाम लिखिए। परागकण के अंकुरण का सचित्र वर्णन कीजिए।



उत्तर 


पर परागण जब एक पुष्प के परागकण लिंगी जनन द्वारा उत्पन्न उसी जाति के अन्य पादप के वर्तिकाग्र पर विभिन्न माध्यमों से पहुँचते हैं, तो इसे पर परागण कहते हैं। एक लिंगी पुष्प, पपीता, मक्का, आदि में पर-परागण पाया जाता है।



 परागकण का अंकुरण वर्तिकाग्र से परागण के समय एक तरल पदार्थ स्रावित होता है, जिसमें प्राय: शर्करा या मैलिक अम्ल जैसे रसायन पाए जाते हैं। इन तरल पदार्थों का अवशोषण करके परागकण फूल जाते हैं। परिणामस्वरूप अन्त: चोल जनन छिद्रों से परागनलिका के रूप में बाहर निकल आता है। परागनलिका में दो केन्द्रक पाए जाते हैं, जिन्हें जनन केन्द्रक तथा वर्धी केन्द्रक कहते हैं।





परागनलिका रसायनानुवर्तन वृद्धि करके वर्तिका से होती हुई अण्डाशय में स्थित बीजाण्ड में प्रवेश कर जाती है। परागनलिका में जनन केन्द्रक सूत्री विभाजन द्वारा दो नर युग्मक का निर्माण करते हैं। परागनलिका इन नर युग्मकों को बीजाण्ड में पहुँचाती है, जिसके फलस्वरूप निषेचन क्रिया सम्पन्न होती है। 



प्रश्न 5. पुरुष के जनन अंगों का सचित्र वर्णन कीजिए।


अथवा मानव के नर जनन तन्त्र का स्वच्छ नामांकित चित्र बनाइए। 




उत्तर


 प्रजनन जीवधारियों द्वारा लैंगिक क्रियाओं के फलस्वरूप अपने जैसी सन्तानों को उत्पन्न करने की क्रिया को प्रजनन कहते हैं। मनुष्य एकलिंगी प्राणी है। नर जनन तन्त्र इसके अन्तर्गत निम्नलिखित अंग आते हैं



(i) वृषण पुरुष में एक जोड़ा वृषण (Testes) उदर गुहा से बाहर की ओर, थैले जैसी रचनाओं, वृषणकोष (Scrotal sacs) में स्थित होते हैं। वृषण लगभग 4-5 सेमी लम्बा, 2.5 सेमी चौड़ा तथा 3 सेमी मोटा होता है।


प्रत्येक वृषण के भीतर अनेक महीन तथा कुण्डलित शुक्र नलिकाएँ (Seminiferous tubules) होती हैं। इनमें स्थित जनन कोशिकाएँ (Germ cells) शुक्राणुजनन की क्रिया के द्वारा शुक्राणुओं (Sperms) का निर्माण करती हैं। वृषण के शरीर से बाहर कोष में स्थित होने से इनका ताप शरीर से लगभग 2-2.5°C कम रहता है। इससे शुक्राणु निर्माण में सहायता मिलती है।







(ii) अधिवृषण या एपिडिडाइमिस शुक्राणु दूसरी अनेक नलिकाओं से होते हुए वृषण के बाहर की ओर स्थित एक अति कुण्डलित नलिका से बने अधिवृषण या एपिडिडाइमिस (Epididymis) में प्रवेश करते हैं। यह लगभग 6 मीटर लम्बी अत्यधिक कुण्डलित संरचना होती है, जो वृषण के अग्र, पश्च एवं भीतरी भाग को ढके रहती है। अधिवृषण (Epididymis) में शुक्राणु परिपक्व होते हैं।


(iii) शुक्रवाहिनी अधिवृषण के अन्तिम छोर से एक मोटी संरचना शुक्रवाहिनी (Vas deferens) निकलती है। शुक्राणु, शुक्रवाहिनी के द्वारा उदरगुहा में स्थित

शुक्राशय में पहुंचते हैं।



(iv) शुक्राशय यह एक थैलीनुमा रचना होती है। शुक्रवाहिनी उदरगुहा में पहुँचकर मूत्रनली (Ureter) के साथ एक फन्दा बनाती हुई शुक्राशय में प्रवेश करती है। शुक्राणु, शुक्राशय स्राव के साथ मिलकर वीर्य (Semen) निर्मित करते हैं।


(v) मूत्रमार्ग शुक्राशय एक संकरी नली, जिसे स्खलन नलिका (Ejaculatory duct) कहते हैं, के द्वारा मूत्राशय (Urinary bladder) के संकरे भाग मूत्रमार्ग (Urethra) में खुलता है। मूत्रमार्ग शिश्न के शीर्ष पर स्थित एक छिद्र द्वारा खुलता है। इस छिद्र को मूत्र जनन छिद्र कहते हैं। शिश्न मैथुन क्रिया में सहायक होता है।


(vi) सहायक ग्रन्थियाँ जनन अंगों के अतिरिक्त अनेक सहायक ग्रन्थियाँ; जैसे-प्रोस्टेट (Prostate), काउपर्स (Cowper's), पेरीनियल (Perineal), आदि होती हैं, जो वीर्य बनाने सहित शुक्राणुओं के पोषण और उनको जीवित रखने में सहायक होती हैं। 






प्रश्न 6. स्त्री के जनन अंगों का सचित्र वर्णन कीजिए। 


उत्तर मादा जनन तन्त्र इसके अन्तर्गत निम्न जनन अंग आते हैं।


(i) अण्डाशय एक जोड़ी अण्डाशय उदरगुहा में स्थित होते हैं। अण्डाशय संयोजी ऊतक से बनी ठोस अण्डाकार संरचना (लगभग 3 सेमी लम्बा, 2 सेमी चौड़ा तथा 1 सेमी मोटा) होती है। अण्डाशय में ग्राफियन पुटिकाएँ छोटे-छोटे दानों-जैसी रचनाओं के रूप में उभरी होती हैं। यहीं अण्डाणु का निर्माण होता है।


(ii) अण्डवाहिनी इसका प्रारम्भिक भाग अण्डाशय से सटी हुई झालरदार कीपनुमा संरचना अण्डवाहिनी मुखिका (Oviducal funnel) बनाता है, जो फैलोपियन नलिका में खुलती है। अण्डवाहिनी का प्रारम्भिक संकरा भाग फैलोपियन नलिका तथा पश्च भाग गर्भाशय कहलाता है। अण्डे का निषेचन फैलोपियन नलिका में होता है। 


(iii) गर्भाशय दोनों अण्डवाहिनी मिलकर पेशीय थैलीनुमा एवं उल्टे नाशपाती के आकार की संरचना गर्भाशय में खुलती हैं। इसका सामान्य आकार 8 सेमी लम्बा, 5 सेमी चौड़ा

तथा 2 सेमी मोटा होता है। गर्भाशय अत्यधिक फैल सकता है। गर्भावस्था में भ्रूण का रोपण गर्भाशय में होता है।


(iv) योनि यह लगभग 8 सेमी लम्बी नलिकारूपी संरचना होती है। मूत्राशय तथा योनि मादा जनन छिद्र द्वारा शरीर से बाहर खुलती है। मादा जनन छिद्र भाग की बाह्य सतह पर एक पेशीय संरचना क्लाइटोरिस होती है। 


(v) सहायक ग्रन्थियाँ


(a) बार्थोलिन ग्रन्थियाँ ये योनि के पार्श्व में स्थित होती हैं। इनसे स्रावित तरल योनि को क्षारीय तथा चिकना बनाता है। 


(b) पेरीनियल ग्रन्थियाँ इनसे विशिष्ट गन्धवत् तरल स्रावित होता है, जो लैंगिक आकर्षण उत्पन्न करता है।




प्रश्न 7. परिवार नियोजन की आवश्यकता एवं उसकी विधियों पर निबन्ध लिखिए।


अथवा भारत की जनसंख्या वृद्धि, जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण एवं परिवार नियोजन के उपायों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।


अथवा परिवार नियोजन के विभिन्न उपायों को समझाइए।


अथवा जनसंख्या वृद्धि के कारण लिखिए।



उत्तर – भारत की जनसंख्या वृद्धि हमारे देश की जनसंख्या सन् 1981 में लगभग 70 करोड़ थी और आज 121 करोड़ से भी अधिक हो गई है। जनसंख्या में इस विस्फोटक वृद्धि के कारण भोजन, आवास, शिक्षा में कमी, रोजगार की समस्या, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधा का अभाव उत्पन्न हो गया है।


जनसंख्या में इस विस्फोटक वृद्धि के कारण देश के आर्थिक विकास में अवरोध उत्पन्न हो रहा है। अत: इस वृद्धि पर रोक लगाना हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है। 



जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण


(i) कानूनी व्यवस्था जनसंख्या नियन्त्रण हेतु संविधान में कठोर कानूनी व्यवस्था होनी चाहिए। संविधान के 42वें संशोधन (सन् 1976) में संसद और विधान सभाओं को जनसंख्या नियन्त्रण के लिए कानून बनाने के अधिकार प्रदान किए गए हैं। अत: राज्य सरकारों को परिवारों को सीमित रखने सम्बन्धी कानून बनाने चाहिए।


(ii) शिक्षा व्यवस्था जनसंख्या वृद्धि रोकने तथा परिवार को सीमित करने के सम्बन्ध में जनता को शिक्षित करने के कार्यक्रम में तेजी लानी चाहिए।


(iii) आर्थिक स्थिति में सुधार लोगों को समय पर उचित रोजगार तथा व्यवसाय मिलने चाहिए, जिससे उनके आर्थिक स्तर में सुधार हो सके।


(iv) परिवार कल्याण सम्बन्धी कार्यक्रमों को बढ़ाना परिवारों को सीमित रखने हेतु लोगों में परिवार कल्याण कार्यक्रमों में रूचि बढ़ानी होगी। इस हेतु सीमित परिवार वाले व्यक्तियों के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा, मुफ्त इलाज ,सरकारी नौकरियों की व्यवस्था, में प्राथमिकता, आदि कार्यक्रम चलाने चाहिए।



जनसंख्या वृद्धि को नियन्त्रित करने के लिए परिवार नियोजन की आवश्यकता है। परिवार नियोजन की विधियों को उपयोग में लाकर जनसंख्या वृद्धि से होने वाली हानियों को समाप्त किया जा सकता है।




 class 10 science chapter 8 Heredity and Organic Evolution up board ncert notes in hindi



कक्षा 10 वी विज्ञान अध्याय 8 आनुवंशिकता एवं जैव विकास का सम्पूर्ण हल




आनुवंशिकता एवं जैव विकास

Heredity and Organic Evolution


#. वंशागति (heredity) तथा विभिन्नताओं (varcations) के अध्ययन को आनुवंशिकी (Genetics) कहते हैं।


#.विभिन्न जीवों में पायी जाने वाली विभिन्नताएँ केवल एक पीढ़ी का परिणाम नहीं है। ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी होने वाले परिवर्तनों के संचयन का परिणाम है।


#. आनुवंशिक लक्षण पैतृक जीव से सन्तानों को कुछ निश्चित नियम के अनुसार वंशागत होते हैं जिन्हें आनुवंशिकता के नियम कहते हैं। इस नियम के अनुसार जीवों के विभिन्न लक्षण पूर्ण विश्वसनीयता के साथ वंशागत होते हैं।


#. मानव में माता एवं पिता दोनों ही समान माता में आनुवंशिक पदार्थ (D.N.A.) को सन्तति में स्थानान्तरित करते हैं। अतः सन्तान (शिशु) का प्रत्येक लक्षण माता एवं पिता के D.N.A. से प्रभावित होगा।


#. कोशिका के D.N.A. में प्रोटीन-संश्लेषण के लिए सूचना स्रोत होता है। जिस प्रोटीन के लिए यह सूचना होती है, उसे उस प्रोटीन का जीन (gene) कहते हैं।


#.लैंगिक जनन वह प्रक्रिया है जिसमें दो विपरीत लिंगी जीवों के समागम से सन्तति की उत्पत्ति होती है।


#. मनुष्य की सभी कायिक कोशिकाओं तथा युग्मक का निर्माण करने वाली जनन कोशिकाओं में 46 गुणसूत्र होते हैं। इनमें से 44 गुणसूत्र (22 जोड़े) समजात होते हैं, जिन्हें ऑटोसोम्स (autosomes) कहते हैं। शेष एक जोड़ा गुणसूत्र लिंग गुणसूत्र (sex chromosomes) कहलाता है।


#. जैव विकास मन्द गति से होने वाला वह क्रमिक परिवर्तन है जिसके परिणामस्वरूप आज के युग के जटिल व उच्च कोटि के जीव पूर्वकाल के सरल एवं निम्न कोटि के जीवों से उत्पन्न हुए हैं।


#."जीवों को, उनकी समानता, असमानता व अन्य सन्बन्धों के आधार पर समूह व उपसमूहों में बाँटना वर्गीकरण कहलाता है।"


#.जैव विकास के सिद्धान्त का अर्थ कोई वास्तविक 'प्रगति' नहीं है। विविधताओं की उत्पत्ति एवं प्राकृतिक चयन द्वारा उसे स्वरूप देना मात्र ही विकास है।


 आनुवंशिकता एवं जैव-विकास


वे लक्षण, जो एक पीढ़ी (माता-पिता) से दूसरी पीढ़ी (सन्तानों) में वंशागत (Inherit) होते हैं, आनुवंशिक लक्षण अथवा विशेषक (Hereditary characters or traits) कहलाते हैं तथा आनुवंशिक लक्षणों के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरित होने की प्रक्रिया को वंशागति (Heredity) कहते हैं।


जनन के दौरान विभिन्नताओं का संचयन


पूर्ववर्ती पीढ़ी से वंशागत सन्तति को एक आधारिक शारीरिक अभिकल्प एवं कुछ विभिन्नताएँ प्राप्त होती हैं। एक ही जाति (Species) के विभिन्न सदस्यों के मध्य लक्षणों में पाई जाने वाली असमानताएँ (Dissimilarities) या अन्तर (Differences), जिनके कारण वे एक-दूसरे से अलग लगते हैं, विभिन्नताएँ कहलाती हैं। विभिन्नताओं की अनुपस्थिति में भी जाति विकास नहीं कर सकती है। ऐसा होने पर उस जाति के सभी सदस्य समान होंगे।


आनुवंशिकता


विज्ञान की वह शाखा, जिसके अन्तर्गत जीवों की आनुवंशिक समानताओं और असमानताओं एवं वंशागति का अध्ययन किया जाता है, आनुवंशिकी (Genetics) कहलाती है। आनुवंशिकी शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम विलियम बेटसन (1906) ने किया था। 'आनुवंशिकी' शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा से हुई है, जिसका अर्थ है 'To become To grow intol


वंशागत लक्षण


जीवों के विभिन्न लक्षण (बाह्य एवं आन्तरिक) उनके जननिक पदार्थों में स्थित सूचनाओं के ही परिणाम हैं। ये सूचनाएँ DNA में जीन्स के रूप में उपस्थित रहती हैं। DNA मुख्य आनुवंशिक पदार्थ होता है। विभिन्न जीवों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन सूचनाओं का स्थानान्तरण युग्मकों के रूप में होता रहता है। नवीन सन्ततियों में पहुँचने के उपरान्त इन जीन्स के प्रकटीकरण की ( प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। जीन्स की सूचनाओं के प्रकटीकरण से ही भिन्न-भिन्न लक्षणों की उत्पत्ति होती है, जिन्हें वंशागत लक्षण कहते हैं, जैसे- ऊँचाई, त्वचा का रंग, दो प्रकार के कर्ण पल्लव, आदि।


टी. एच. मॉर्गन ने फल मक्खी (ड्रोसोफिला) पर प्रयोग किए तथा आनुवंशिक प्रयोग द्वारा सहप्रभाविता की खोज की।



 नोट


1.जब तुलनात्मक लक्षणों वाले नर तथा मादा के मध्य निषेचन कराया जाता है, तो इस क्रिया को संकरण कहते हैं और इससे उत्पन्न सन्तानों को संकर कहते हैं, जैसे- शुद्ध लम्बे (TT) तथा शुद्ध बौने (tt) पादपों को क्रॉस कराने पर संकर लम्बे (Ti) पादप प्राप्त होते हैं। इनमें प्रभावी तथा अप्रभावी दोनों जीन पाए जाते हैं।


2.मानव आनुवंशिकी के अन्तर्गत मनुष्य में वंशागत होने वाले लक्षणों का अध्ययन किया जाता है। इन लक्षणों को मानव आनुवंशिकी विशेषक कहते हैं अर्थात् माता-पिता के शारीरिक, कायिक एवं मानसिक लक्षणों का सन्तानों में पहुँचना ही आनुवंशिकता कहलाता है।


3.संकर विषमयुग्मजी सन्तति (Tt) और उनके शुद्ध या समयुग्मजी (प्रभावी/अप्रभावी) जनक के मध्य संकरण करवाने को संकर पूर्वज संकरण कहते हैं, जैसे विषमयुग्मजी बैंगनी पुष्प वाले पादप का संकरण प्रभावी समयुग्मजी बैंगनी पुष्प वाले जनक पादपों से कराने पर सभी बैंगनी पुष्प उत्पन्न होते हैं, परन्तु विषमयुग्मजी बैंगनी पुष्प वाले पादप का संकरण अप्रभावी समयुग्मजी सफेद पुष्प वाले पादप से कराने पर बैंगनी व सफेद 1:1 में प्राप्त होते हैं।


आनुवंशिकी की शब्दावली


(i) जीन या कारक (Gene or Factor) मेण्डल के अनुसार, सजीवों के प्रत्येक लक्षण का नियन्त्रण कुछ कारकों या निर्धारकों द्वारा होता है। आधुनिक आनुवंशिकी में इन्हीं कारकों को जीन कहा जाता है।



(ii) युग्मविकल्पी अथवा एलीलोमॉर्फ (Allelomorph) विपरीत लक्षणों वाले युग्मों को युग्मविकल्पी (Alleles) कहते हैं, जैसे Rr युग्म में ऐक गुणसूत्र पर R तथा दूसरे गुणसूत्र परयुग्मविकल्प उपस्थित होता है। अतः एक ही विपर्यासी लक्षण (Contrasting character) के दोनों विकल्पों को नियन्त्रित करने वाले जीन के युग्म को युग्मविकल्पी कहते हैं।


(iii) समयुग्मजी एवं विषमयुग्मजी (Homozygous and Heterozygous) जब एक विपर्यासी लक्षण को नियन्त्रित करने वाले दोनों जीन एक ही प्रकार के हो, तो इसे समयुग्मजी कहते हैं। इसमें स्व-परागण या अन्तः प्रजनन होने पर सन्तति पैतृकों के समलक्षणी एवं समजीनी होते हैं। समयुग्मजी लक्षण शुद्ध होते हैं, किन्तु जब विपर्यासी लक्षण को नियन्त्रित करने वाले दोनों जीन अलग-अलग हो, तो इसे विषमयुग्मजी कहा जाता है।


(iv) शुद्ध जाति (Pure Species) ऐसे पादप, जो समान लक्षण वाले पादपों से उत्पन्न होते हैं, वे शुद्ध जाति के पादप कहलाते हैं, इसमें लक्षणों के कारक अथवा जीन समयुग्मजी होते हैं, जैसे- TT, tt, RR, rr, आदि।


(v) लक्षणप्रारूप एवं जीनप्रारूप (Phenotype and Genotype) लक्षणप्रारूप जीव के विभिन्न दैहिक लक्षण, जैसे-आकार, आकृति, रंग एवं स्वभाव, आदि को व्यक्त करता है। समान लक्षणप्रारूप वाले जीवों की जीनी संरचना समान हो सकती है और नहीं भी। जीनप्रारूप जीव के जीनी संगठन को व्यक्त करता है।


(vi) प्रभावी एवं अप्रभावी (Dominant and Recessive) युग्मविकल्पी कारकों में वह लक्षण, जो समयुग्मजी और विषमयुग्मजी दोनों अवस्थाओं में प्रदर्शित होता है, प्रभावी लक्षण कहलाता है, उदाहरण पादप का लम्बापन, पुष्प का लाल रंग, आदि। वह लक्षण, जो केवल समयुग्मजी स्थिति में प्रदर्शित होता है तथा विषमयुग्मजी अवस्था में अपने आप को प्रदर्शित नहीं कर पाता है, अप्रभावी लक्षण कहलाता है; उदाहरण बौनापन, पुष्प का सफेद रंग, आदि।


(vii) संकर एवं संकरण (Hybrid and Hybridisation) जब तुलनात्मक लक्षण वाले नर और मादा के मध्य निषेचन कराया जाता है, तो इस क्रिया को संकरण कहते हैं और इससे उत्पन्न सन्तानों को संकर कहते हैं, जैसे-शुद्ध लम्बे (TT) तथा शुद्ध बौने (tt) पादपों को क्रॉस कराने पर संकर लम्बे (Tt) पादप प्राप्त होते हैं।


(viii) एकसंकर संकरण (Monohybrid Cross) मेण्डल ने अपने प्रयोग में एक समय में केवल एक तुलनात्मक आनुवंशिक लक्षण की वंशागति का अध्ययन किया, इसे एकसंकर संकरण कहते हैं, जैसे- लाल पुष्प वाले पादप तथा सफेद पुष्प वाले पादप के मध्य संकरण


(ix) द्विसंकर संकरण (Dihybrid Cross) जब दो तुलनात्मक आनुवंशिक लक्षणों को ध्यान में रखकर संकरण कराया जाता है, तो इसे द्विसंकर संकरण कहते हैं, जैसे गोल व पीले बीज वाले पादप का हरे व झुर्रीदार बीज वाले पादप के मध्य संकरण। 


(x) संकर पूर्वज संकरण (Back Cross) F-पीढ़ी में प्राप्त सन्तानों और उनके किसी भी एक जनक के बीच होने वाले संकरण को संकर पूर्वज संकरण कहते हैं, जैसे- Ttx tt

या Tt x TT |


(xi) परीक्षण संकरण (Test Cross) जब F -पीढ़ी के विषमयुग्मजी संकर का संकरण,समयुग्मजी अप्रभावी जीन के साथ कराया जाता है, तो इसे परीक्षण संकरण कहते हैं, जैसे- F-पीढ़ी में प्राप्त सन्तति संकर लम्बे (Tt) तथा शुद्ध बौने पादप (tt) के मध्य संकरण। इस संकरण में बनने वाली सन्तानों में सदैव 1 : 1 का अनुपात पाया जाता है। 



(xii) F-पीढ़ी (F, Generation) पैतृक पीढ़ी (P) के बीच संकरण कराने से प्राप्त पीढ़ी, प्रथम सन्तानीय पीढ़ी (First filial generation or F) कहलाती है।


(xiii) Fy-पीढ़ी (F, Generation) प्रथम सन्तानीय पीढ़ी से प्राप्त जीवों के स्व-संकरण से प्राप्त पीढ़ी, द्वितीयक सन्तानीय पीढ़ी (Second filial generation or F) कहलाती है।



लक्षणों की वंशागति के नियम : मेण्डल का योगदान


मेण्डल ने मटर के पादप के अनेक विपर्यासी (विकल्पी) लक्षणों का अध्ययन किया जो स्थूल रूप से दिखाई देते हैं। जीवों में गुणसूत्रों के जोड़े पर स्थित विपरीत तुलनात्मक लक्षणों के जोड़े को एलील कहते हैं। ये गुणसूत्र एक ही विस्थल (Locus) पर स्थित होते हैं, जैसे-पुष्प के रंग के लिए बैंगनी व सफेद, बीज के आकार के लिए गोल एवं झुर्रीदार, पादप की लम्बाई के लिए बौना एवं लम्बा लक्षण, आदि। इन लक्षणों की संकरण पद्धति के सही ज्ञान के लिए मेण्डल ने दो प्रकार के संकरण कराए।


ऑस्ट्रिया के पादरी ग्रेगर जॉन मेण्डल को 'आनुवंशिकी का जनक' कहा जाता है। मेण्डल ने मटर (Pisum sativum) के पादप पर संकरण सम्बन्धी अनेक प्रयोग किए। इन्होंने इस पादप में सात विपर्यासी लक्षणों की वंशागति का अध्ययन किया। मेण्डल ने एक समय में केवल एक ही लक्षण की वंशागति का अध्ययन किया। सन् 1900 में हॉलैण्ड के ह्यूगो डी ब्रीज जर्मनी के कार्ल कॉरेन्स तथा ऑस्ट्रिया के एरिक वॉन शेरमार्क ने मेण्डल के नियमों की पुष्टि की।


1. एकसंकर संकरण


एकाकी लक्षणों के तुलनात्मक या विपर्यासी लक्षणप्रारूपों की वंशागति के अध्ययन हेतु किए गए प्रयोगों को एकसंकर संकरण कहते हैं। इसके लिए मेण्डल ने मटर के शुद्ध लम्बे और शुद्ध बौने पादपों का चयन किया। इन्हें पैतृक या जनक पीढ़ी (Parental generation) के पादप कहा तथा चित्रों एवं वर्णनों में इनके लिए P संकेताक्षरों का प्रयोग किया। मटर के इन लम्बे और बौने पादपों के मध्य संकरण (Hybrid) कराया गया।


(i) प्रभाविता का नियम इस नियम के अनुसार, जब परस्पर विपर्यासी (विपरीत) लक्षण वाले पादपों के बीच संकरण कराया जाता है, तो F-पीढ़ी की सन्तानों में, जो लक्षण प्रदर्शित होता है, उसे प्रभावी लक्षण कहते हैं तथा जो लक्षण इस पीढ़ी की सन्तानों में प्रदर्शित नहीं होता, वह अप्रभावी लक्षण कहलाता है। इस नियम को मेण्डल के एकसंकर संकरण प्रयोग द्वारा समझा जा सकता है।


(ii) पृथक्करण या युग्मकों की शुद्धता का नियम इस नियम के अनुसार, एक जोड़ी के जीन युग्मक निर्माण के समय एक-दूसरे से पृथक् हो जाते हैं और एक युग्मक से में जीन युग्म का एक जीन ही पहुँचता है। इसे युग्मकों की शुद्धता का नियम कहते हैं। यह नियम भी एकसंकर संकरण के प्रयोग द्वारा सिद्ध होता है। ग्रेगर जॉन मेण्डल ने यह नियम प्रतिपादित किया।


2. द्विसंकर संकरण


मेण्डल ने बाद में एक ही समय पर दो जोड़ी विपर्यासी लक्षणों के स्थानान्तरण तथा पृथक्करण के प्रयोगों का व्यावहारिक अध्ययन किया, जिसे द्विसंकर संकरण कहते हैं। मेण्डल ने जब गोल बीज व पीले बीजपत्र (RRYY) वाले पादपों तथा झुर्रीदार बीज व हरे बीजपत्र (rryy) वाले पादपों (P.) के मध्य संकरण करवाया, तो F, पीढ़ी में केवल गोल बीज तथा पीले बीजपत्र वाले पादप उत्पन्न हुए। झुर्रीदार बीजों की उपस्थिति अप्रभावी लक्षण है, जबकि मटर में बीजों का आकार तथा पीला रंग प्रभावी लक्षण है। के संयोजन प्राप्त हुए


इन पादपों में स्व-परागण करवाने पर उन्हें चार प्रकार 


(I) पादप गोल बीज तथा पीले बीजपत्रयुक्त = 315


(ii) पादप गोल बीज तथा हरे बीजपत्रयुक्त = 108


 (iii) पादप झुर्रीदार बीज तथा पीले बीजपत्रयुक्त = 101


(iv) पादप झुर्रीदार बीज तथा हरे बीजपत्रयुक्त = 32


इस प्रकार F2 -पीढ़ी की सन्ततियों में इन चार प्रकार के पादपों की संख्या में क्रमश: 9:3:3:1 का अनुपात रहा। ये लक्षणप्रारूप अनुपात है, इसे द्विसंकर अनुपात (Dihybrid ratio) भी कहते हैं।


स्वतन्त्र अपव्यूहन का नियम इस नियम के अनुसार, जब दो या दो से अधिक असम्बन्धित प्रभावी लक्षणों वाले पादपों के मध्य संकरण कराया जाता है, तो उनके जीन युग्म के कारकों का पृथक्करण एवं अपव्यूहन स्वतन्त्र रूप से होता है अर्थात् ये • स्वतन्त्र रूप से पृथक् होकर जनकों के किसी भी लक्षण के साथ संयोग बनाते हुए सन्तानीय पीढ़ियों में जाते हैं। मेण्डल के इस नियम की व्याख्या द्विसंकर संकरण के आधार पर की जा सकती है।



लक्षणों की अभिव्यक्ति


DNA का वह भाग, जिसमें किसी प्रोटीन संश्लेषण के लिए सूचना होती है, उसे जीन कहते हैं। जीन शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम जॉहन्सन ने किया था। प्रोटीन विभिन्न लक्षणों की अभिव्यक्ति को नियन्त्रित करते हैं। जैसे-पादप की लम्बाई की मात्रा पर निर्भर करती है और हॉर्मोन एन्जाइम पर निर्भर, जिससे यह उत्पादित होता है। यदि यह एन्जाइम (प्रकिण्व) दक्षता से कार्य करेगा तो हॉर्मोन पर्याप्त मात्रा में बनेगा तथा पादप लम्बा होगा। यदि इस प्रोटीन के जीन में कुछ परिवर्तन आते हैं, तो प्रोटीन की क्षमता पर प्रभाव पड़ने से हॉर्मोन की मात्रा कम होगी परिणामस्वरूप पादप बौना होगा। अतः जीन लक्षणों को नियन्त्रित करते हैं।


वंशागति की क्रियाविधि


प्रत्येक जीव में जीन या गुणसूत्रों द्वारा लक्षणों की वंशागति होती हैं, जो उन्हें जनक से प्राप्त होते हैं। लैगिंक जनन में निर्मित जनन कोशिका अगुणित होती हैं, जहाँ नर एवं मादा के अगुणित युग्मक परस्पर समेकित होकर द्विगुणित जीव का निर्माण करते हैं। सन्तति में जीनों का एक समुच्चय नर से तथा दूसरा समुच्चय मादा से आता है। अतः प्रत्येक कोशिका में लक्षणों के जीनों की दो प्रतियाँ होती हैं। जनन के समय ये जीन प्रतियाँ अगुणित जनन कोशिका में पृथक्-पृथक् होकर चली जाती है, जिससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुणसूत्रों की संख्या स्थिर बनी रहती है।


लिंग निर्धारण


"लिंग-निर्धारण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा यह सुनिश्चित होता है कि एकलिंगी जन्तुओं में लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न होने वाला नया प्राणी नर होगा या मादा"।


मनुष्य में लिंग-निर्धारण


मनुष्य की कोशिकाओं में 46 गुणसूत्र उपस्थित होते हैं। इनमें से 22 जोड़ें नर तथा मादा में दोनों में समान होते हैं। अतः इन्हें ऑटोसोम्स या कायिक गुणसूत्र कहते हैं। स्त्री में 23वाँ जोड़ा भी समयुग्मजी XX-गुणसूत्रों वाला होता है, किन्तु पुरुष में 23वें जोड़े के गुणसूत्र विषमयुग्मजी XY होते हैं।


यह मानव में लिंग का निर्धारण करते हैं, इन्हें हेटेरोसोम्स या एलोसोम्स या लिंग गुणसूत्र भी कहते हैं। पुरुष में 23वें जोड़ें के गुणसूत्रों में एक लम्बा, किन्तु दूसरा छोटा होता है और इन्हें XY से प्रदर्शित करते हैं। इनमें से X-गुणसूत्र बड़ा तथा y गुणसूत्र छोटा होता है। इस प्रकार पुरुष में 22 जोड़ें + XY = 46 गुणसूत्र पाए जाते हैं, जबकि स्त्री में 22 जोड़े + XX = 46 गुणसूत्र पाए जाते हैं।


जैव-विकास


सरल संरचना वाले जीवों से आधुनिक जटिल जीवों के क्रमिक विकास को जैव-विकास (Organic evolution) कहते हैं अर्थात् जैव-विकास धीमी गति से होने वाला वह क्रमिक परिवर्तन है, जिसके परिणामस्वरूप पूर्व काल के सरल संरचना तथा निम्न कोटि वाले प्राणियों, से आधुनिक जटिल तथा उच्च कोटि के प्राणियों का विकास हुआ है।


किसी समष्टि होने के कारण जीन की आवृत्ति को कोई भी सामान्य दुर्घटना प्रभावित कर सकती है। यह आनुवंशिक अपवहन (Genetic drift) का सिद्धान्त है, जो बिना किसी अनुकूलन के भी विभिन्नता उत्पन्न कर सकता है। जीन अपवहन संकल्पना हार्डी वीनबर्ग ने दी। की


उपार्जित एवं वंशागत लक्षण


वे लक्षण, जो जीव के जीवनकाल के दौरान वातावरणीय प्रभावों के कारण उत्पन्न होते हैं तथा अगली पीढ़ी में वंशागत नहीं होते हैं, उपार्जित लक्षण कहलाते हैं। उदाहरण ज्ञान, अनुभव, शारीरिक विकलांगता, आदि। यह सिद्धान्त जीन बैप्टिस्ट डी लैमार्क ने प्रस्तुत किया।


वे लक्षण, जो जीवों को जन्मजात या उनके जनकों से प्राप्त होते हैं अर्थात् एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरित होते हैं, वंशागत लक्षण कहलाते हैं।


नोट प्राकृतिक चुनाव द्वारा 'जातियों की उत्पत्ति' नामक पुस्तक के लेखक चार्ल्स डार्विन है। ये अपने जैव-विकास के सिद्धान्त में अपने दिए गए उदाहरणों की व्याख्या भिन्नताओं के कारण नहीं कर पाए थे।



पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति


डार्विन के सिद्धान्त के अनुसार, पृथ्वी पर सरल जीवों से जटिल स्वरूप वाले जीवों का विकास हुआ है। जे. बी. एस. हेल्डेन नामक ब्रिटिश वैज्ञानिक ने बताया की जीवों की उत्पत्ति सर्वप्रथम उन सरल अकार्बनिक अणुओं से हुई होगी, जो पृथ्वी की उत्पत्ति के समय बने थे। जीवन के प्रारम्भिक जीवों की उत्पत्ति आदि सागर के जल में हुई थी। उन्होंने बताया, कि पृथ्वी पर उस समय का वातावरण, पृथ्वी के वर्तमान वातावरण से भिन्न था। उस वातावरण में कुछ जटिल कार्बनिक अणुओं का संश्लेषण हुआ, जो जीवन के लिए आवश्यक थे। इस परिकल्पना को स्टैनले मिलर एवं हेराल्ड यूरे ने सिद्ध किया।


रूस के प्रसिद्ध जीव-रसायनज्ञ ए. आई. ओपेरिन ने जीवन के उद्भव की जैव-रासायनिक परिकल्पना प्रस्तुत की। इस परिकल्पना के अनुसार, आदिकालीन पृथ्वी पर केवल कार्बनिक यौगिक उपस्थित थे, जो समुद्र के जल में घुले हुए थे। इन्हीं यौगिकों के संयोग से सर्वप्रथम एक ऐसी रचना का निर्माण हुआ, जिसमें जीवन के लक्षण विद्यमान थे।


नोट जीव-जगत में प्रत्येक जीव जीवित रहने के लिए संघर्ष करता है, जिसे जीवन संघर्ष कहते हैं। यह मत चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन का था।


डार्विन ने प्राकृतिक चयन द्वारा जातियों की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रस्तुत किया, जिसमें बताया कि जीवों में सन्तान उत्पन्न करने की प्रचुर क्षमता होती है। प्रत्येक जीव को भोजन, आवास के लिए अर्थात् जीवित रहने के लिए, वातावरण में संघर्ष करना पड़ता है और जो योग्य होता है वही जीवित रहता है, जबकि अयोग्य समाप्त हो जाता है। हर्बट स्पेन्सर ने सर्वप्रथम योग्यतम् की उत्तरजीविता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया, जिसे डार्विन ने प्राकृतिक चयन कहा।


जाति उद्भभव


जाति अन्तः प्रजनन करने वाले ऐसे जीवों का समूह है, जो अनेक स्थानों में समूहों में रहते हैं। किसी जनसंख्या के सारे सदस्यों के जीन मिलकर उस जनसंख्या के जीन पूल बनाते हैं। एक जननिक रूप से समांग जनसंख्या का दो या दो से अधिक जनसंख्याओं जो आनुवंशिक रूप से भिन्न तथा जननिक पृथक्करण युक्त हो, में टूटना, नई जाति का निर्माण या जाति उद्भवन (Speciation) कहलाता है। ये जातियाँ छोटे-छोटे स्थानिक या भौगोलिक समूहों में बँटी होती हैं। ये समूह आबादी कहलाते हैं। इन आबादियों में जीन पुनर्योजन (Gene recombination), स्वतन्त्र अपव्यूहन (Independent assortment), जीन उत्परिवर्तन (Gene mutation) व गुणसूत्र विपथन (Chromosomal aberrations) द्वारा विभिन्नताएँ बढ़ती जाती हैं, जिसके फलस्वरूप जीव संयोगिक लैंगिक संगम करने में सक्षम नहीं रह पाते हैं। अन्त में इन आबादियों के जीवों के मध्य पृथक्करण या जननीय अलगाव हो जाता है, जिससे प्रत्येक आबादी से एक नई जाति का निर्माण हो जाता है।


विकास एवं वर्गीकरण


जैव-विकास एक लगातार चलने वाली विकास की प्रक्रिया है, परन्तु यह प्रक्रिया इतनी धीमी व लम्बी होती है, कि इसे प्रकृति में होते हुए देख पाना सम्भव नहीं है। अतः इस प्रक्रिया का अध्ययन विभिन्न प्रमाणों की सहायता से किया जाता है, जो निम्नलिखित हैं


(i) समजातता या समजात अंग ऐसे अंग, जो मूल रचना तथा उद्भव में समान होते हैं, किन्तु अलग-अलग कार्यों हेतु अनुकूलित होने के कारण असमान दिखाई देते हैं तथा जिनका विकास भ्रूण (Embryo) के समान भागों से होता है, समजात अंग कहलाते हैं। इनकी यह समानता समजातता कहलाती है।


उदाहरण सील के फ्लीपर (अगली टाँगें) तैरने के लिए, घोड़े की अगली टाँगे दौड़ने के लिए, मनुष्य के हाथ वस्तुओं को पकड़ने के लिए अनुकूलित होते हैं। इनके कार्यों में अन्तर होते हुए भी इनकी मूल संरचना और उत्पत्ति में समानता होती है।


(ii) समरूपता एवं समरूप अंग ऐसे अंग जो, रचना व उत्पत्ति में भिन्न हो, किन्तु कार्यों तथा बाह्य आकारिकी में समान हो, समरूप या समवृत्ति अंग कहलाते हैं तथा इस दिखावटी समानता को समरूपता या समवृत्तिता कहते हैं।



उदाहरण कीट, पक्षी एवं चमगादड़ के पंख उड़ने का कार्य करते हैं, परन्तु ये मूल संरचना तथा उत्पत्ति में भिन्न होते हैं। कीटों के पंख काइटिन के बने होते हैं एवं इनमें कंकाल नहीं होता है, जबकि चमगादड़ के पंख धड़ के नीचे फैली त्वचा से बने होते हैं।


जीवाश्म


जीव की मृत्यु के बाद उसके शरीर का अपघटन हो जाता है तथा वह समाप्त हो जाता है, परन्तु कभी-कभी जीव का शरीर या उसके कुछ भाग ऐसे वातावरण में चले जाते हैं, जिसके कारण इनका अपघटन पूरी तरह से नहीं हो पाता है और वह मिट्टी में दबकर अपनी छाप छोड़े देते हैं। जीव के इस प्रकार के परिरक्षित अवशेष जीवाश्म कहलाते हैं। पत्थर पर पेड़ का तना, डाइनोसॉर, अमोनाइट ये सभी जीवाश्म के उदाहरण हैं।


दूसरे शब्दों में विभिन्न प्राचीन जीवों के अवशेष जो हमें भूपटल की चट्टानों में परिरक्षित (Preserved) मिलते हैं, जीवाश्म (Fossils) कहलाते हैं तथा इनके अध्ययन सम्बन्धी विज्ञान को जीवाश्म या पुराजीवी विज्ञान कहते हैं। जीवाश्म की आयु हम दो प्रकार से जान सकते हैं। प्रथम विधि में किसी स्थान पर खुदाई करने पर पृथ्वी की सतह पर मिलने वाले जीवाश्म पृथ्वी के गहरे स्तर पर पाए गए जाने वाले जीवाश्मों की अपेक्षा अधिक नए होते हैं। दूसरी विधि है फॉसिल डेटिंग' जिसमें जीवाश्म में पाए जाने वाले किसी एक तत्व के विभिन्न समस्थानिकों के अनुपात के आधार पर जीवाश्म का समय निर्धारण किया जाता है।


जीवाश्मों की आयु के निर्धारण के लिए सर्वप्रथम स्तरित या तलछटी चट्टानों के उन स्तरों की आयु का निर्धारण किया जाता है, जिनमें जीवाश्म पाए जाते हैं। पूर्व वैज्ञानिक, इनकी आयु का निर्धारण स्तरों की मोटाई के आधार पर करते थे, परन्तु वर्तमान में वैज्ञानिक, रेडियोधर्मी तत्वों की मात्राओं से इन स्तरों की आयु का निर्धारण करते हैं। इसे विकिरण मात्रिक अवधि निर्धारण कहते हैं।


विकास के चरण


विकास जीवों में आकस्मिक घटना नहीं थी। विकास क्रमिक रूप से अनेक पीढ़ियों में हुआ। सरल अंगों से जटिल अंगों का विकास हुआ, जो परिवर्तन या विभिन्नता उपयोगी थी। वे कालान्तर में अग्रसर हुई। जैसे


प्लेनेरिया में अति सरल आँख होती है। ऊष्मारोधन के लिए विकसित हुए पर कालान्तर में उड़ने के लिए भी उपयोगी हो गए।कृत्रिम चयन के अन्तर्गत जंगली गोभी का विकास, आदि।


आण्विक जातिवृत्त


जीवों से सम्बन्धित उद्विकासीय इतिहास जातिवृत्त कहलाता है। आण्विक जातिवृत्त दूरस्थ सम्बन्धी जीवों के DNA में संचित विभिन्नताओं का पता करता है। इसका कारण निकट सम्बन्धी जीवों में दूरस्थ सम्बन्धी जीवों की तुलना में विभिन्नताओं का कम होना है।


मानव का विकास


मानव का उद्भव अफ्रीका से हुआ है। वहीं से धीरे-धीरे पश्चिमी एशिया, फिर वहाँ से मध्य एशिया, यूरेशिया, दक्षिणी एशिया तथा पूर्व एशिया तक फैल गए। इसके पश्चात् वहाँ से उन्होंने इण्डोनेशिया के द्वीपों फिलीपींस से ऑस्ट्रेलिया तक का सफर किया और फिर बेरिंग लैड ब्रिज को पार करके अमेरिका पहुँचे। इसी सफर से हर दिशा में विभिन्न अनुकूलन के कारण आधुनिक मानव का विकास हुआ। आधुनिक मानव का वैज्ञानिक नाम 'होमो सेपियन्स सैपियन्स' है। अतः मानव का विकास एक ही जाति के सदस्यों से हुआ है।


बहुविकल्पीय प्रश्न  1 अंक


प्रश्न 1. आनुवंशिकता के प्रयोग के लिए मेण्डल ने निम्नलिखित में से कौन-से पादप का उपयोग किया?


(a) पपीता


(b) आलू


(c) मटर


(d) अंगूर


उत्तर (c) आनुवंशिकता के अपने प्रयोगों के लिए मेण्डल ने उद्यान मटर (पाइसम सेटाइवम) का उपयोग किया।



प्रश्न 2. मटर के लम्बे पादपों का क्रॉस बौने पादपों से कराने पर प्रथम पीढ़ी में लम्बे मटर के पादप प्राप्त होते हैं, द्वितीय पीढ़ी में प्राप्त पादप होंगे 


(a) लम्बे तथा बौने दोनों


(b) लम्बे मटर के पादप 


(c) बौने मटर के पादप 


(d) इनमें से कोई नहीं


उत्तर (a) जब शुद्ध लम्बे पादप (TT) का शुद्ध बौने पादप (tt) के साथ संकरण कराया जाता है, तो प्रथम सन्तानीय पीढ़ी (F) में सदैव लम्बे पादप प्राप्त होते हैं। साथ ही इन प्रथम पीढ़ी के लम्बे पादप में स्व-परागण कराके उत्पन्न बीजों को जब पुनः बोया जाता है, तो द्वितीय पीढ़ी (F) में लम्बे व बौने दोनों प्रकार के पादप मिलते हैं।


प्रश्न 3. उद्यान मटर में अप्रभावी लक्षण है 


(a) लम्बे तने 


(b) झुर्रीदार बीज 


(c) रंगीन बीज 


(d) गोल बीज



उत्तर (b) झुर्रीदार बीजों की उपस्थिति उद्यान मटर का अप्रभावी लक्षण है।


 प्रश्न 4. विपरीत लक्षणों के जोड़ों को कहते हैं



(a) युग्मविकल्पी या एलीलोमॉर्फ


 (b) निर्धारक 


(c) समयुग्मजी 


(d) समरूप



उत्तर (a) विपरीत लक्षणों के जोड़ों को युग्मविकल्पी या एलीलोमॉर्फ कहा जाता है।


प्रश्न 5. एकसंकर क्रॉस का जीनप्रारूप अनुपात होता है 


(a) 3:1


(b) 1:2:1 


(c) 2:1:1:2 


 (d) 9:3:3:1



उत्तर (b) एकसंकर क्रॉस का (F) पीढ़ी में जीनोटाइप या जीनप्रारूप 1:2:1 होता है।


प्रश्न 6. गुलाबी रंग के दो पुष्पों के बीच संकरण कराए जाने पर 1 लाल रंग की, 2 गुलाबी रंग की और 1 सफेद रंग की सन्तति उत्पन्न हुई। इस संकरण का स्वरूप क्या होगा?



(a) दोहरा निषेचन के कारण


 (b) अपूर्ण प्रभाविता के कारण


(c) प्रभाविता के कारण


 (d) इनमें से कोई नहीं


उत्तर (b) अपूर्ण प्रभाविता के कारण गुलाबी रंग के दो पुष्पों के बीच संकरण कराए जाने पर 1 लाल रंग की, 2 गुलाबी रंग की और 1 सफेद रंग की सन्तति उत्पन्न हुई।


प्रश्न 7.निम्नलिखित में से कौन-सा जीनप्रारूप शुद्ध गोल बीजों को प्रकट करता है?



(a) tt


(b) Tt


 (c) IT


 (d) RR


उत्तर (d) RR जीनप्रारूप शुद्ध गोल बीजों को प्रकट करता है।


प्रश्न 8. पुरुष में लिंग गुणसूत्र होता है



 (a) XY


 (b) XX


(c) Y


(d) X


उत्तर (a) पुरुष में लिंग गुणसूत्र 'XY' होता है।


 प्रश्न 9. DNA पाया जाता है


(a) कोशिकाद्रव्य में 


(b) केन्द्रकद्रव्य में


(c) केन्द्रिका में


(d) केन्द्रक में 



उत्तर (b) DNA केन्द्रकद्रव्य में पाया जाता है।


प्रश्न10. गुणसूत्र किस पदार्थ से बने होते हैं?


 (a) प्रोटीन से


(b) RNA से


(c) DNA से


(d) दोनों (a) व (c)


उत्तर (d) गुणसूत्र DNA तथा प्रोटीन्स दोनों के बने होते हैं।


प्रश्न 11. केवल प्रोटीन के बने होते हैं



(a) क्लोरोप्लास्ट


(b) लाइसोसोम


(C) प्रायोन्स


(d) जीन्स


उत्तर (c) प्रायोन्स केवल प्रोटीन के बने होते हैं।



 प्रश्न 12. 'जीन' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया था?


(a) खुराना ने


(b) पुन्नेट ने


(C) जॉहन्सन न


 (d) वाटसन एवं क्रिक ने 



उत्तर (c) 'जीन' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम जॉहन्सन ने किया था।




प्रश्न 13. उत्परिवर्तन का कारण है। 


(a) जीन परिवर्तन


(b) जीवन संघर्ष


(C) गुणसूत्रों की संख्या में परिवर्तन


 (d) ये सभी


उत्तर (d) जीन परिवर्तन, जीवन संघर्ष तथा गुणसूत्रों की संख्या में परिवर्तन, आदि सभी उत्परिवर्तन के कारण हैं।


प्रश्न 14. डार्विन के अनुसार नई प्रजातियों की उत्पत्ति होती है


(a) प्राकृतिक वरण से


(b) उत्परिवर्तन से


(c) प्रसंकरण से


(d) उपार्जित लक्षण से



 उत्तर (a) डार्विन के अनुसार नई जातियों की उत्पत्ति प्राकृतिक वरण से होती है।



प्रश्न 15. डार्विन की सबसे बड़ी कमी थी


(a) जीवन संघर्ष की व्याख्या न होना


(b) योग्यतम की उत्तरजीविता की व्याख्या न होना


(C) भिन्नताओं के कारणों की व्याख्या न होना 


(d) सन्तानोत्पत्ति की प्रचुर क्षमता की व्याख्या न होना


उत्तर (c) डार्विन अपने जैव-विकास के सिद्धान्त में अपने दिए गए उदाहरणों की व्याख्या भिन्नताओं के कारण नहीं कर पाए थे।


प्रश्न 16.'जातियों की उत्पत्ति पुस्तक के लेखक है


(a) अरस्तू          (c) डार्विन


(d) ह्यूगो डी ब्रीज        (b) लैमार्क


उत्तर (c) प्राकृतिक चुनाव द्वारा 'जातियों की उत्पत्ति नामक पुस्तक के लेखक चार्ल्स डार्विन है।


प्रश्न 17. समजात अंगों का उदाहरण है


(a) मनुष्य के हाथ तथा कुत्ते के अग्रपाद


 (b) मनुष्य के दाँत तथा हाथी के दाँत


(c) आलू एवं घास के उपरिभूस्तारी 


(d) उपरोक्त सभी


उत्तर (d) उपरोक्त सभी


प्रश्न 18. विकासीय दृष्टिकोण से हमारी किससे अधिक समानता है?


(a) चीन के विद्यार्थी


(b) चिम्पैंजी


(c) मकड़ी


(d) जीवाणु


उत्तर (a) विकासीय दृष्टिकोण से हमारी चीन के विद्यार्थी से अधिक समानता है।


प्रश्न 19. विकास के दृष्टिकोण से मानव से सबसे निकटवर्ती है


(a) बन्दर


(b) चमगादड़


(C) खरगोश


 (d) चिम्पैंजी


उत्तर (d) विकास के दृष्टिकोण से मानव से सबसे निकटवर्ती चिम्पैंजी है।


अतिलघु उत्तरीय प्रश्न 2 अंक



प्रश्न 1. एलील या युग्मविकल्पी किसे कहते हैं?


उत्तर जीवों में गुणसूत्रों के जोड़े पर स्थित विपरीत तुलनात्मक लक्षणों के जोड़े की एलील कहते हैं। ये गुणसूत्र एक ही विस्थल (Locus) पर स्थित होते हैं; जैसे-पुष्प के रंग के लिए बैंगनी व सफेद, बीज के आकार के लिए गोल एवं झुरौंदार, पादप की लम्बाई के लिए बौना एवं लम्बा लक्षण, आदि।


प्रश्न 2. संकर तथा संकरण किसे कहते हैं?


उत्तर जब तुलनात्मक लक्षणों वाले नर तथा मादा के मध्य निषेचन कराया जाता है, तो इस क्रिया को संकरण कहते हैं और इससे उत्पन्न सन्तानों को संकर कहते हैं; जैसे-शुद्ध लम्बे (TT) तथा शुद्ध बौने (tt) पादपों को क्रॉस कराने पर संकर लम्बे (Tt) पादप प्राप्त होते हैं। इनमें प्रभावी तथा अप्रभावी दोनों जीन पाए जाते हैं।



प्रश्न 3. संकर पूर्वज संकरण किसे कहते हैं?


 उत्तर संकर विषमयुग्मजी सन्तति (Tt) और उनके शुद्ध या समयुग्मजी (प्रभावी/अप्रभावी) जनक के मध्य संकरण करवाने को संकर पूर्वज संकरण कहते हैं, जैसे-विषमयुग्मजी बैंगनी पुष्प वाले पादप का संकरण प्रभावी समयुग्मजी बैंगनी पुष्प वाले जनक पादपों से कराने पर सभी बैंगनी पुष्प उत्पन्न होते हैं, परन्तु विषमयुग्मजी बैंगनी पुष्प वाले पादप का संकरण अप्रभावी समयुग्मजी सफेद पुष्प वाले पादप से कराने पर बैंगनी व सफेद 11 में प्राप्त होते हैं। 


प्रश्न 4. मेण्डल ने अपने प्रयोगों के लिए किस पौधे को चुना? इस पौधे को चुनने के कारण बताइए।


 उत्तर मेण्डल ने अपने प्रयोगों के लिए मटर के पौधे को चुना


 मटर के पौधे के चयन के कारण निम्न हैं


(a) मटर का पौधा वार्षिक पौधा है। अतः इसका जीवन चक्र छोटा होता है, जिससे कुछ ही समय में इसकी अनेक पीढ़ियों के अध्ययन में सुविधा मिलती है।


(b) मटर के पौधे में द्विलिंगी पुष्प पाए जाते हैं अर्थात् नर व मादा जननांग एक ही पुष्प पर पाए जाते हैं।


(c) मटर के पौधों में अनेक तुलनात्मक लक्षण पाए जाते हैं।


 (d) इनमें कृत्रिम पर-परागण द्वारा संकरण कराया जा सकता है। 


प्रश्न 5. मेण्डल के प्रयोगों के आधार पर प्रभावी तथा अप्रभावी लक्षणों को समझाइए। 


 उत्तर – प्रभावी एवं अप्रभावी युग्मविकल्पी कारकों में वह लक्षण, जो समयुग्मजी और विषमयुग्मजी दोनों अवस्थाओं में प्रदर्शित होता है, प्रभावी लक्षण कहलाता है; उदाहरण पौधे का लम्बापन, पुष्प का लाल रंग, आदि। वह लक्षण, जो केवल समयुग्मजी स्थिति में प्रदर्शित होता है तथा विषमयुग्मजी अवस्था में अपने आप को प्रदर्शित नहीं कर पाता है, अप्रभावी लक्षण कहलाता है; 


उदाहरण बौनापन, पुष्प का सफेद रंग, आदि।


प्रश्न 6. DNA का पूरा नाम लिखिए। यह प्रोटीन-संश्लेषण कैसे करता है?


उत्तर DNA का पूरा नाम डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक अम्ल है। DNA द्वारा RNA का संश्लेषण किया जाता है, जोकि प्रोटीन संश्लेषण के लिए अतिआवश्यक होता है। इस प्रक्रम को अनुलेखन (Transcription) कहते हैं। 


प्रश्न 7. पुरुषों में पाए जाने वाले लिंग गुणसूत्र का विवरण दीजिए। 


उत्तर – लिंग निर्धारण करने वाले गुणसूत्र लिंग गुणसूत्र कहलाते हैं, इन्हें हेटेरोसोम (Heterosome) भी कहते हैं। लिंग गुणसूत्र नर और मादा दोनों में अलग-अलग होते हैं। ये प्राय: X और Y-गुणसूत्र कहलाते हैं। मनुष्य में लिंग निर्धारण इन्हीं गुणसूत्रों द्वारा होता है। पुरुषों में पाए जाने वाले लिंग गुणसूत्र XY होते हैं।


प्रश्न 8. पहलवान की सन्तान प्रायः पहलवान नहीं होती है, कारण स्पष्ट कीजिए। 


उत्तर – पहलवान होना एक कायिक लक्षण है, जिसका सम्बन्ध किसी भी आनुवंशिकता से नहीं होता है। अतः पहलवान की सन्तान पहलवान नहीं हो सकती है अर्थात् निरन्तर अभ्यास से पहलवान की पेशियाँ सुविकसित हो जाती हैं। अभ्यास न करने से पहलवान के पुत्र में पिता के समान पेशियों का अभाव होता है अर्थात् यह आवश्यक नहीं है कि पहलवान की सन्तान पहलवान ही हो, क्योंकि कायिक लक्षणों में होने वाले परिवर्तन होते हैं, जैसे-सुविकसित माँसपेशियाँ होना वंशागत नहीं। 


प्रश्न 9. यदि किसी चूहे की पूँछ काटकर प्रजनन कराया जाए, तो बच्चा कैसा पैदा होगा और क्यों? 


उत्तर यदि किसी चूहे की पूँछ काटकर प्रजनन कराया जाए, तो चूहे का बच्चा सामान्य अर्थात् पूँछ युक्त पैदा होगा, क्योकि कटी पूँछ एक वंशागत लक्षण नहीं है। शारीरिक संरचनाओं में होने वाले परिवर्तन सन्तानों में स्थानान्तरित नहीं होते हैं। केवल जनन कोशिकाओं में होने वाले परिवर्तन एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक जाते हैं।



प्रश्न 10. जाति उद्भव क्या है? किसी एक उद्विकास कारक का नाम लिखिए।


उत्तर प्रकृति में नई जाति के निर्माण की प्रक्रिया को जाति उद्भव कहते हैं। जातियों के निर्माण में संकरण तथा बहुगुणिता का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। इसके अतिरिक्त वातावरणीय अनुकूलन से उत्पन्न विभिन्नताएँ जाति के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


प्रश्न 11. जीवाश्म को परिभाषित कीजिए। एक उदाहरण के साथ उसके महत्त्व को समझाइए। 


अथवा जीवाश्म किसे कहते है? जीवाश्म कितने पुराने हैं, इसका आकलन किस प्रकार करते हैं?


उत्तर पत्थरों अथवा पहाड़ों पर प्राचीन काल के जन्तु एवं पौधों के अवशेष पाए जाते हैं। इन अवशेषों को जीवाश्म कहते है; उदाहरण बर्फ में सुरक्षित जीवों में मॉथ, गैंडा, मोलस्क जीवों के कवच, आदि। जीवाश्मों की सहायता से हमें विभिन्न कालों में हुई घटनाओं का पता चलता है तथा पौधों व जन्तुओं के विकास के क्रम का पता चलता है। पत्थर की आयु से जीवाश्म की आयु ज्ञात की जा सकती है। यह रेडियोधर्मी पदार्थ (जोकि जीवाश्मों में होते हैं) के द्वारा निर्धारित की जा सकती है।



प्रश्न 12. विकासीय सम्बन्ध स्थापित करने में जीवाश्म का क्या महत्त्व है?


 उत्तर जीवाश्मों के अध्ययन से जीवों के विकास क्रम या जातिवृत्त का ज्ञान होता है। जीवाश्मों की सहायता से हमें विभिन्न कालों में हुई घटनाओं का पता चलता है। जैव-विकास के सन्दर्भ में सबसे ठोस प्रमाण जीवाश्मों से ही प्राप्त होते हैं। जीवाश्मों के अध्ययन से जन्तुओं व पादपों के विकास के क्रम का पता चलता है। जीवाश्मों के अध्ययन से यह प्रमाण मिलते हैं, कि अमीबा जैसे-सरल एककोशिकीय जीवों से अकशेरुकियों व उनसे कशेरुकियों का निर्माण हुआ। कुछ जीवाश्म जन्तु दो भिन्न जन्तु समूहों के मध्य एक संयोजक कड़ी के रूप में होते हैं और एक जीव (निम्न वर्ग) से दूसरे जीव (उच्च वर्ग) के उद्विकास को दर्शाते हैं।



प्रश्न 13. जीवाश्मों के आयु निर्धारण की विधियों को समझाइए। 


 उत्तर जीवाश्मों की आयु के निर्धारण के लिए सर्वप्रथम स्तरित या तलछटी चट्टानों के उन स्तरों की आयु का निर्धारण किया जाता है, जिनमें जीवाश्म पाए जाते हैं। पूर्व वैज्ञानिक, इनकी आयु का निर्धारण स्तरों की मोटाई के आधार पर करते थे, परन्तु वर्तमान में वैज्ञानिक, रेडियोधर्मी तत्वों की मात्राओं से इन स्तरों की आयु का निर्धारण करते हैं। इसे विकिरण मात्रिक अवधि निर्धारण कहते हैं।



            लघु उत्तरीय प्रश्न  4 अंक


प्रश्न 1.मीन क्या है? इसका सर्वप्रथम प्रयोग किसने किया? इसकी उपयोगिता का उल्लेख कीजिए।


 उत्तर मेण्डल ने सजीवों के प्रत्येक लक्षण के लिए किसी एक कारक को उत्तरदायी माना था। जहन्सन (Johannsen) ने इस कारक के लिए 'जीन' शब्द का प्रयोग किया। जीन गुणसूत्रों में उपस्थित DNA अणुओं के सूक्ष्म खण्डों को कहते हैं, जो लक्षणों के रूप में व्यक्त होते हैं। जीन आनुवंशिकता की इकाई होती है। प्रायः एक जीन एक लक्षण को निर्धारित करता है। कुछ लक्षणों का निर्धारण एक से अधिक जीन्स द्वारा भी होता है एवं कभी-कभी किसी जीन द्वारा अनेक लक्षणों को प्रभावित किया जा सकता है। 


प्रश्न 2. आनुवंशिकता से आप क्या समझते हैं? इसके जन्मदाता कौन थे? इसकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। 


 उत्तर जीव विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत सजातीय और परस्पर सम्बन्धित जीवों की आनुवंशिक समानताओं तथा विभिन्नताओं का अध्ययन किया जाता है, आनुवंशिकी या आनुवंशिकता कहलाती है।इसके जन्मदाता ग्रेगर जॉन मेण्डल थे व मेण्डल ने मेण्डलेलिज्म दिया था।


इसकी विशेषताएँ निम्न है 


1.आनुवंशिकी के माध्यम से भावी सन्तान के गुणों का ज्ञान हो जाता है। 


2.इसके आधार पर उच्च लक्षणों वाली सन्तानों को प्राप्त किया जा सकता है।


3.रोग प्रतिरोधी पादपों; जैसे-गेहूँ, गन्ना, चावल, आदि की किस्मों का विकास किया जा सकता है।


4.उन्नत किस्में बनाकर उनके उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है।


5. आनुवंशिक रोगों की खोज एवं उनके निदान में भी इसका प्रयोग होता है। 


प्रश्न 3. एलीलोमॉर्फ (युग्मविकल्पी) एवं कारक को उदाहरण सहित समझाइए।


अथवा एलील पर टिप्पणी लिखिए।



उत्तर 


एलील या एलीलोमॉर्फ तुलनात्मक रूप से विपरीत लक्षणों का निर्धारण करने वाले युग्मों को एलील्स कहते हैं, जैसे-पादप की लम्बाई के लिए लम्बा, बौना; बीज के लिए गोल, झुर्रीदार तथा पुष्प के लिए लाल, सफेद रंग, आदि युग्मविकल्पी या एलीलोमॉर्फ कहलाते हैं। 



कारक जीवों में सभी लक्षण इकाइयों के रूप में उपस्थित होते हैं, जिन्हें कारक कहते हैं। प्रत्येक इकाई लक्षण कारकों के एक युग्म द्वारा नियन्त्रित होता है। इनमें से एक कारक मातृक एवं दूसरा पैतृक होता है। युग्म के दोनों कारक विपरीत प्रभाव के हो सकते हैं, किन्तु उनमें से एक ही कारक अपना प्रभाव प्रदर्शित कर पाता है एवं दूसरा अप्रभावी अर्थात् छिपा रहता है; उदाहरण लम्बाई के लिए T तथा कारक उत्तरदायी है।



प्रश्न 4. समयुग्मजी एवं विषमयुग्मजी में अन्तर लिखिए।


 उत्तर 


समयुग्मजी या शुद्ध जाति जब किसी लक्षण के जोड़े के दोनों जीन प्रभावी या अप्रभावी अर्थात् समान होते हैं, तो इस जोड़े को समयुग्मजी कहते हैं। समयुग्मजी शुद्ध लक्षण होते हैं; जैसे-शुद्ध लम्बे (TT) तथा शुद्ध बौने (tt) पादप। 


विषमयुग्मजी या संकर जाति जब किसी लक्षण के जोड़े के दोनों जीन्स विपरीत लक्षणों वाले अर्थात् असमान होते हैं, तो इस जोड़े को विषमयुग्मजी कहते हैं, ये संकर भी कहलाते हैं। ऐसी स्थिति में केवल प्रभावी लक्षण प्रदर्शित होता है; जैसे-संकर लम्बे पादप (Tt)



प्रश्न 5. मेण्डल का प्रथम नियम लिखिए। इसको विस्तृत रूप में समझाइए। 


अथवा शुद्ध लम्बे एवं शुद्ध बौने पादपों के मध्य संकरण से -पीढ़ी में किस प्रकार के वंशज प्राप्त होंगे? समझाइए ऐसा क्यों?



अथवा शुद्ध लम्बे तथा शुद्ध बौने किस्म के पादपो में संकरण कराने पर प्रथम पीढ़ी में किस प्रकार के पादप प्राप्त होंगे? यह परिणाम मेण्डल के किस नियम की पुष्टि करता है? इस नियम की परिभाषा दीजिए। 


 उत्तर शुद्ध लम्बे एवं शुद्ध बौने पादपों में संकरण करवाने पर पीढ़ी में प्रभाविता के नियमानुसार संकर या विषमयुग्मजी लम्बे (Tt) पादप प्राप्त होंगे। इसमें प्रभावी जीन, अप्रभावी जीन को प्रदर्शित नहीं होने देते हैं।"


प्रभाविता का नियम इस नियम के अनुसार, परस्पर विपरीत लक्षणों वाले पादपों में संकरण करने पर F-पीढ़ी सन्तति में प्रदर्शित लक्षण प्रभावी लक्षण होते हैं और जो लक्षण प्रदर्शित नहीं होते हैं वे अप्रभावी लक्षण कहलाते हैं।



प्रयोग 1 जब शुद्ध लम्बे तथा शुद्ध बौने पादपों के बीच संकरण कराया जाता है, तो प्रथम पीढ़ी (F) में प्राप्त सभी पादप लम्बे होते हैं, क्योंकि लम्बेपन का गुण प्रभावी तथा बौनेपन का गुण अप्रभावी होता है।


प्रश्न 6. शुद्ध एवं संकर जाति (नस्ल) में अन्तर स्पष्ट कीजिए।


 उत्तर

शुद्ध जाति यदि किसी लक्षण के लिए किसी जाति में उपस्थित जीन का युग्म समयुग्मजी या समान होता है, तो उस लक्षण के लिए वह जाति शुद्ध कही जाती है। शुद्ध जाति में उस लक्षण के लिए सभी युग्मकों में समान प्रभाव वाले कारक उपस्थित होते हैं।



संकर जाति यदि किसी लक्षण के लिए किसी जाति में उपस्थित जीन का युग्म विषमयुग्मजी या असमान होते हैं, तो उस लक्षण के लिए वह संकर कहलाती है। संकर जाति में उस लक्षण के लिए भिन्न-भिन्न प्रभाव वाले कारक या जीन्स होते हैं अर्थात् 50% प्रभावी एवं 50% अप्रभावी लक्षण वाले जीन उपस्थित होंगे।



प्रश्न 7. मेण्डल के पृथक्करण नियम का उपयुक्त उदाहरण देते हुए समझाइए।


अथवा उदाहरण सहित मेण्डल के पृथक्करण के नियम की व्याख्या कीजिए। 


अथवा मेण्डल के एकसंकर प्रयोग को केवल रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शित कीजिए।



उत्तर 


पृथक्करण या युग्मकों की शुद्धता का नियम इस नियम के अनुसार, किसी जीन युग्म के अवयव युग्मक निर्माण के समय एक-दूसरे से पृथक् जाते हैं और एक युग्मक में जीन युग्म का एक जीन पहुँचता है। इसे युग्मकों की शुद्धता का नियम कहते हैं। उदाहरण जब शुद्ध लम्बे (TT) तथा शुद्ध बौने (tt) पादपों के मध्य संकरण कराया जाता है, तो प्रथम पीढ़ी (F) में द्वितीय तथा सभी पादप संकर लम्बे (Tt) प्राप्त होते हैं। -पीढ़ी के पादपों में स्व-परागण कराने पर द्वितीय तथा F पीढ़ी में लम्बे तथा बौने पादप 3:1 के फीनोटाइप अनुपात में तथा 1:2:1 के जीनोटाइप अनुपात में प्राप्त होते हैं, क्योंकि युग्मक बनते समय तुलनात्मक लक्षणों के जीन T तथा पृथक् हो जाते हैं। और एक युग्मक में इनमें से केवल एक जीन ही पहुँचता है। जिस कारण एक बौना (समयुग्मजी अप्रभावी) पादप प्राप्त होता है। इसी कारण इसे युग्मकों की शुद्धता का नियम अथवा पृथक्करण का नियम कहते हैं।





प्रश्न 8. स्वतन्त्र अपव्यूहन का नियम लिखिए।


उत्तर 


स्वतन्त्र अपव्यूहन नियम के अनुसार जब दो या दो से अधिक असम्बन्धित प्रभावी लक्षणों वाले पादपों के मध्य संकरण कराया जाता है, तो उनके जीन युग्म के कारकों का पृथक्करण एवं अपव्यूहन स्वतन्त्र रूप से होता है अर्थात् ये स्वतन्त्र रूप से पृथक् होकर जनकों के अन्य किसी भी लक्षण के साथ संयोग न बनाते हुए सन्तानीय पीढ़ियों में जाते हैं।



प्रश्न 9. लक्षणप्रारूप तथा जीनप्रारूप में अन्तर स्पष्ट कीजिए।


अथवा लक्षणप्रारूप (फीनोटाइप) तथा जीनप्रारूप (जीनोटाइप) में अन्तर कीजिए। 



अथना फीनोटाइप एवं जीनोटाइप को स्पष्ट कीजिए।


अथवा जीनप्रारूप तथा लक्षणप्रारूप में अन्तर बताइए। उत्तर लक्षणप्रारूप तथा जीनप्रारूप में निम्नलिखित अन्तर हैं






लक्षणप्रारूप

जीनप्रारूप


लक्षणप्रारूप जीव के विभिन्न गुणों जैसे- आकार, आकृति, रंग एवं स्वभाव, आदि को व्यक्त करता है।

जीनप्रारूप जीव के जीनी संगठन को व्यक्त करता है, जो कि उसमें विभिन्न लक्षणों को निर्धारित करता है।


यह दिखाई नहीं देते हैं।

यह दिखाई नहीं देते हैं।

समान लक्षणप्रारूप वाले जीवों की जीनी संरचना समान हो सकती है और नहीं भी।

समान जीनप्रारूप वाले जीवों के लक्षणप्रारूप सदैव समान रहते हैं।




प्रश्न 10. मेण्डल के प्रभाविता नियम से आप क्या समझते हैं? द्विसंकर संकरण के चित्र की सहायता से इसे स्पष्ट कीजिए


 उत्तर


द्विसंकर संकरण द्वारा प्रभाविता के नियम की पुष्टि जब दो तुलनात्मक आनुवंशिक लक्षणों पर ध्यान केन्द्रित कर संकरण करवाया जाता है, तो इसे द्विसंकर संकरण कहते हैं; उदाहरण जब पीले गोल तथा हरे झुर्रीदार बीज वाले शुद्ध जनक पौधों में संकरण कराया जाता है, तो प्रथम पीढ़ी (F) में सभी संकर पौधे गोल तथा पीले बीज वाले होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है, कि बीजो का पीला रंग एवं गोल आकार प्रभावी गुण है तथा हरा रंग एवं झुर्रीदार आकार अप्रभावी गुण है। F-पीढ़ी के पौधों में स्व-परागण कराने पर F-पीढ़ी में चार प्रकार के बीज वाले पौधे 9 : 3 : 3 :1 के अनुपात में प्राप्त होते हैं


(a) पीले गोल-9


(b) हरे गोल-3


(e) पीले झुर्रीदार-3


(d) हरे झुर्रीदार-1



प्रश्न 11. लिंग गुप्पसूत्र किसे कहते हैं? मानव में लिंग निर्धारण की प्रक्रिया को समझाइए।



अथवा मानव में लिंग निर्धारण कैसे होता है? 



उत्तर – मनुष्य में 46 गुणसूत्र पाए जाते हैं। इनमें से 22 जोड़े नर व मादा में समान होते हैं। इन गुणसूत्रों को कायिक गुणसूत्र या ऑटोसोम्स कहते हैं। स्त्री में 28वाँ जोड़ा समयुग्मजी (XX) गुणसूत्र वाला होता है तथा पुरुष में 23वाँ जोड़ा विषमयुग्मजी (XY) गुणसूत्र वाला होता हैं, जिन्हें लिंग गुणसूत्र या हेटेरोसोम्स या एलोसोम्स भी कहते हैं। इन्हें XY से प्रदर्शित करते हैं। 



मनुष्य में लिंग-निर्धारण


युग्मकजनन के समय, अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा अगुणित युग्मकों का निर्माण होता है, जिनमें स्त्री में बने हुए युग्मक (अण्ड) में 22 + X गुणसूत्र तथा पुरुष में दो प्रकार के युग्मक (शुगणु) 22 + X तथा 22 + y गुणसूत्रों वाले बनते हैं। निषेचन के समय नर से प्राप्त शुक्राणु (Y या X गुणसूत्र वाला) अण्ड से मिलता

है। इसके फलस्वरूप बने युग्मनज में 44 + XX या 44 + XY गुणसूत्र हो सकते हैं। इस प्रकार लिंग का निर्धारण निषेचन के समय शुक्राणु के गुणसूत्र द्वारा ही



प्रश्न 12. रासायनिक उद्विकास पर टिप्पणी लिखिए।


उत्तर 


रासायनिक उद्विकास के अनुसार, जीवन की उत्पत्ति एक अत्यन्त धीमी प्रक्रिया है, जोकि अचानक ही उत्पन्न नहीं हुई है। यह आदि पृथ्वी पर वातावरणीय दशाओं में करोड़ों वर्षों तक अनेकानेक भौतिक रासायनिक प्रक्रियाओं का परिणाम है। इस प्रक्रिया में सबसे पहले अकार्बनिक तथा बाद में कार्बनिक पदार्थों का निर्माण हुआ था। इन पदार्थों में परस्पर क्रियाओं के फलस्वरूप पहले सरल अणु बाद में जटिल कार्बनिक पदार्थों का निर्माण हुआ था। इन रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरूप कोएसरवेट्स का निर्माण हुआ। इसके पश्चात् न्यूक्लियोप्रोटीन्स के कारण स्वद्विगुणन की क्षमता का विकास हुआ। इस प्रकार विषाणु सदृश सजीवों की उत्पत्ति हुई। इनसे ही प्रोकैरियोटिक एवं यूकैरियोटिक कोशिकाओं की उत्पत्ति हुई।


प्रश्न 13. 'अवशेषी अंग जैव-विकास को प्रमाणित करते हैं।' कथन को स्पष्ट कीजिए।


उत्तर जन्तुओं के शरीर में अनेक ऐसी रचनाएँ पाई जाती हैं, जिनका शरीर में कोई महत्त्व नहीं होता है। ये अवशेषी अंग कहलाते हैं। अवशेषी अंगों की उपस्थिति से प्रमाणित होता है कि ये रचनाएँ इन जन्तुओं के पूर्वजों में कभी विकसित और उपयोगी रही होगी। मनुष्य में 100 से भी अधिक अवशेषी रचनाएँ पाई जाती है; उदाहरण कान की पेशियाँ, निक्टेटिंग मैम्ब्रेन, कर्णपल्लवों की पेशियाँ, पुच्छ कशेरुकाएँ, अक्कल दाढ़, आदि। 


प्रश्न 14. मरुस्थलीय पादपों की जड़ें जमीन में काफी गहराई में बढ़ती है। ऐसी जड़ों का उद्विकास डार्विनवाद एवं लैमार्कवाद के प्रकाश में अलग-अलग समझाइए।


 उत्तर


 डार्विनवाद के अनुसार, मरुस्थल में विभिन्न गहराई तक पहुँचने वाली जड़ वाले पादप पाए जाते हैं। कम गहराई तक पहुँचने वाली जड़ों वाले पादप मरुस्थल में पूरे वर्ष जीवित नहीं रह पाते हैं। अधिक गहराई में जाने वाली जड़ वाले पादप जल प्राप्त कर लेने के कारण पूरे वर्ष जीवित रहते हैं।


लैमार्कवाद के अनुसार, मरुस्थल में जल धीरे-धीरे अधिक गहराई में चला गया इसलिए जड़ें जल की खोज में निरन्तर जल की ओर बढ़ने का प्रयत्न करने के कारण लम्बी हो गई। इस प्रयत्न के फलस्वरूप मरुस्थलीय पादपों का यह लक्षण वंशागत होकर एक स्थाई लक्षण बन गया है।


प्रश्न 15. नव-डार्विनवाद के अनुसार, जैव-विकास की क्रिया के विभिन्न पदों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।


उत्तर – डार्विनवाद की कमियों को दूर करके इसे नव-डार्विनवाद के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह निम्न तथ्यों पर आधारित है


(i) विभिन्नताएँ लैंगिक जनन, उत्परिवर्तन, आदि के कारण जीन ढाँचों में परिवर्तन होने से विभिन्न प्रकार की विभिन्नताएँ उत्पन्न होती है। ये विभिन्नताएँ वंशागत होती हैं।


(ii) प्राकृतिक वरण या चयन ऐसी विभिन्नताएँ और उत्परिवर्तन, जो वातावरण में रहने के लिए उपयुक्त एवं लाभप्रद होते हैं, को स्थापित करने की क्रिया को ही प्राकृतिक वरण कहते हैं। 


(iii) जातियों का पृथक्करण भौगोलिक और लैंगिक पृथक्करण के फलस्वरूप भिन्न प्रजाति के जीवधारियों में प्रजनन नहीं होता है। वातावरण के लिए अनुकूलित होने के कारण अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न जातियाँ पाई जाती है। हजारों वर्षों तक इन जातियों में अनुकूलन हेतु विभिन्नताएँ एकत्र होकर जब लैंगिक रूप से पृथक् हो जाती है, जो नई जाति बन जाती है। अत: जीन में होने वाले उत्परिवर्तन जैव-विकास के लिए कच्चे पदार्थ का कार्य करते हैं। 


प्रश्न 16. लैमार्कवाद एवं डार्विनवाद की तुलना कीजिए।


उत्तर लैमार्कवाद तथा डार्विनवाद की तुलना निम्न प्रकार




लैमार्कवाद

डार्विनवाद

लैमार्कवाद के अनुसार, जिराफ के पूर्वज छोटी गर्दन वाले तथा छोटे कद के थे। ऊँचे वृक्षों की पत्तियों तक पहुँचने के लिए उन्हें अपनी गर्दन को ऊपर खींचना पड़ता था तथा वे टाँगों को उचका कर पत्तियों तक पहुँचने का प्रयत्न करते थे।

डार्विन के अनुसार, जिराफ के पूर्वजों में गर्दन की लम्बाई भिन्न-भिन्न थी। लम्बाई में यह भिन्नता, विभिन्नता (Variation) के कारण थी। यह विभिन्नता आनुवंशिक थी।

जिराफों की सन्तति में गर्दन की लम्बाई पूर्वजों की गर्दन से अधिक थी। इन्हें भी पत्तियों तक पहुँचने में अपनी गर्दन को खींचना पड़ता था।

जीवन संघर्ष में लम्बी गर्दन वाले जिराफ अधिक उपयुक्त पाए गए तथा प्राकृतिक चयन के फलस्वरूप छोटी गर्दन वाले जिराफ नष्ट हो गए।

इस प्रकार गर्दन व टाँगों से अधिक उपयोग से इनकी लम्बाई पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ती गई तथा आधुनिक जिराफ का विकास हुआ।

इस प्रकार प्रतियोगिता एवं संघर्ष के फलस्वरूप, प्राकृतिक चयन के अनुसार लम्बी गर्दन वाले जिराफ ही बचे रहे तथा शेष नष्ट हो गए।





प्रश्न 17. उत्परिवर्तन किसे कहते हैं? उत्परिवर्तनवाद किस वैज्ञानिक ने प्रस्तुत किया?


अथवा उत्परिवर्तनवाद पर टिप्पणी लिखिए।


अथवा ह्यूगो डी व्रीज के उत्परिवर्तनवाद की विशेषताओं कीजिए।


उत्तर उत्परिवर्तनवाद का सिद्धान्त ह्यूगो डी व्रीज ने सन् 1901 में दिया। इस सिद्धान्त के अनुसार, किसी जाति के पादपों में अचानक, जो विभिन्नताएँ उत्पन्न हो जाती हैं, उन्हें उत्परिवर्तन कहते हैं। जीवों में अकस्मात् हुए उत्परिवर्तन नई जाति का सृजन करते हैं।


उत्परिवर्तनवाद की मुख्य विशेषताएं निम्न हैं 


(i) उत्परिवर्तन अनिश्चित होते हैं तथा ये लाभदायक तथा हानिकारक दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं।


(ii) उत्परिवर्तन द्वारा जीन अथवा गुणसूत्रों की संरचना में परिवर्तन हो जाता है। 


(iii) ये परिवर्तन या भिन्नताएँ जननद्रव्य में होती हैं एवं इनका प्रभाव सन्तानों में परिवर्तन के रूप में दिखाई देता है।


 (iv) उत्परिवर्तन प्रभावी एवं अप्रभावी दोनों ही प्रकार के होते हैं।


 (v) वह प्राणी, जिसमें उत्परिवर्तन विकसित होता है, उत्परिवर्तक कहलाता है। यह शुद्ध नस्ल का होता है।



प्रश्न 18. जीवन की उत्पत्ति से आप क्या समझते हैं? नई जातियों के पर प्रकाश डालिए।


उत्तर जीवन की उत्पत्ति लगभग 4 अरब वर्ष पूर्व हुई। जीव की उत्पत्ति से सम्बन्धित आधुनिकवाद में ओपेरिन के रासायनिक उद्विकास को मान्यता दी गई जिन्होंने हेकल के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया, कि जीवन की उत्पत्ति अकार्बनिक पदार्थों से भौतिक क्रियाओं के फलस्वरूप हुई।



जाति उद्भवन एक जाति अन्तःप्रजनन करने वाले जीवों का समूह है, जो एक या अनेक जनसंख्याओं में रहते हैं। एक नई जाति के निर्माण की प्रक्रिया को जाति उद्भवन कहते हैं।


जातियाँ छोटे-छोटे स्थानिक या भौगोलिक समूहों में बँटी होती हैं। ये समूह आबादी कहलाते हैं। इन आबादियों में जीन पुनयोजन, स्वतन्त्र अपव्यूहन, जीन उत्परिवर्तन व गुणसूत्र विपथन द्वारा अन्तर बढ़ते जाते हैं, जिसके फलस्वरूप जीव संयोगिक लैंगिक संगम करने में सक्षम नहीं रह पाते हैं। अन्त में इन आबादियों के जीवों के मध्य पृथक्करण या जननीय अलगाव हो जाता है, जिससे प्रत्येक आबादी से एक नई जाति का निर्माण हो जाता है।


यह मुख्यतः निम्न दो प्रकार का होता है


(i) विस्थानिक जाति उद्भवन एक जाति की कुछ जनसंख्याओं का भौगोलिक पृथक्करण हो जाता है। हजारों वर्षों के उपरान्त ये दो जनसंख्याएँ विकास के क्रम में भिन्न हो जाती हैं। जब ये दो जनसंख्या दोबारा सम्पर्क में आती हैं, तब इनके बीच प्रजनन नहीं होता है। इस प्रकार प्रत्येक जनसंख्या एक नई जाति बन जाती है।


(ii) समस्थानिक जाति उद्भवन जब एक जाति की, एक ही भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाली दो जनसंख्याएँ जननिक रूप से पृथक् हो जाती हैं, तब ये जनसंख्या धीरे-धीरे एक-दूसरे से भिन्न होती चली जाती हैं और अलग जातियाँ बन जाती हैं।


प्रश्न 19. जैव-विकास के पक्ष में कोई दो प्रमाण लिखिए तथा किसी एक को आधार मानकर जैव-विकास सिद्धान्त को सत्यापित कीजिए। 


अथवा जैव-विकास को उपयुक्त उदाहरण की सहायता से स्पष्ट कीजिए।


उत्तर 


जैव-विकास के प्रमाण


 (i) अफ्रीका के जंगलों में वातावरणीय परिवर्तन के कारण घास तथा शाकीय पादप नष्ट हो गए, जिस कारण जिराफ पूर्वजों को, जोकि सामान्य आकार के थे, ऊँचे पादपों से भोजन प्राप्त करने के प्रयास में अपनी गर्दन तथा आगे की टाँगों का अधिक उपयोग करना पड़ा। इसी कारण इनकी लम्बाई बढ़ गई।


(ii) रेंगकर चलने के कारण साँपों में पादों की अनुपयोगिता के कारण यह लुप्त हो गए। लैमार्कवाद के अनुसार, कोई जीव यदि उसके किसी अंग का अधिक उपयोग करें, तो वह आगे की पीढ़ी में विकसित होता जाता है, किन्तु यदि वह किसी अंग का उपयोग न करे, तो वह लुप्त या निष्क्रिय हो जाता है।


प्रश्न 20. उद्विकास के क्रम में मानव के पूर्वज पूँछ युक्त प्राणी थे, परन्तु आधुनिक मानव में पूँछ अवशेषी अंग हो गई है। लैमार्कवाद के अनुसार इसकी व्याख्या कीजिए।


उत्तर – लैमार्कवाद के अनुसार, यदि कोई प्राणी अपने किसी अंग को उपयोग में लेना बन्द कर दे अर्थात् वह अंग उसके लिए अनुपयोगी हो जाए, तो आने वाली पीढ़ियों में यह लक्षण (अंग) लुप्त या निष्क्रिय हो जाता है।


उदाहरण मानव के पूर्वज वृक्षाश्रयी थे तथा चारों पैरों से चलते थे। इस कार्य में पूँछ सन्तुलन तथा वृक्ष पर पकड़ बनाने का कार्य करती थी, किन्तु समय के साथ मानव भूमि पर दो पैरों से चलने लगा, जिस कारण उसकी पूँछ की उपयोगिता समाप्त हो गई तथा यह पुच्छीय कशेरुक के रूप में केवल अवशेषी रह गई है।



प्रश्न 21. अलैगिक जनन की अपेक्षा लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न विभिन्नताएँ अधिक स्थायी होती हैं। व्याख्या कीजिए। यह लैंगिक प्रजनन करने वाले जीवों को किस प्रकार प्रभावित करती है?


उत्तर – जीवों के इन लक्षणों की उत्पत्ति का नियन्त्रण जीनों की सहायता से होता है, जो गुणसूत्रों पर क्रोमैटिन के रूप में केन्द्रक के भीतर स्थित होते हैं। अतः वशागति में जीनों का व्यवहार गुणसूत्रों के व्यवहार पर आश्रित होता है। हालांकि सन्तति में उपस्थित सभी गुण जनकों के समान नहीं होते हैं, उनमें कुछ विभिन्नताएँ भी उपस्थित होती हैं।


सामान्य वातावरणीय परिस्थितियों में जैव समष्टियों में प्रकट होने वाली विभिन्नताओं का मुख्य आधार लैंगिक जनन में युग्मकजनन के समय अर्द्धसूत्री विभाजन के दौरान होने वाला जीन विनिमय एवं युग्मकों का संलयन अर्थात् निषेचन होता है। विभिन्नताओं की अनुपस्थिति में कोई भी जाति विकास नहीं कर सकती है। ऐसा होने पर उस जाति के सभी सदस्य समान होंगे। किसी एक जाति के विभिन्न सदस्यों में वातावरणीय स्थिति के आधार पर विभिन्नताएँ लाभदायक तथा हानिकारक हो सकती हैं। विभिन्नताओं के कारण जीव परिवर्तनशील वातावरण के प्रति अनुकूलता प्राप्त कर पाता है, जोकि प्राकृतिक चयन एवं नई जाति की उत्पत्ति हेतु अनिवार्य है।


प्रश्न 22. जीवाश्म क्या हैं? ये कैसे बनते हैं?


उत्तर जीवाश्म पत्थरो अथवा पहाड़ों पर प्राचीन काल के जन्तु एवं पौधों के अवशेष पाए जाते हैं। इन अवशेषों को जीवाश्म कहते हैं। जीवाश्म बनने की प्रक्रिया को जीवाश्मीकरण कहते हैं। जीवाश्मीकरण की प्रक्रिया करोड़ों सालों में पूर्ण होती है। जब कोई जीव मृत्यु के पश्चात् हजारों-करोड़ों सालों तक रेत की परतों में दबा रह जाता है एवं गहराई में दबने के कारण इनका सूक्ष्मजीवों द्वारा अपघटन नहीं हो पाता, तब अधिक दाब के कारण वहाँ चट्टानों का निर्माण हो जाता है। इसके काफी समय बाद जब चट्टानें किसी कारणवश टूट जाती हैं या फट जाती है, तो चट्टानों की परतों में उस करोड़ों सालों से दबे जीव के अवशेष प्राप्त होते हैं, ये जीवाश्म कहलाते हैं व इस प्रकार वातावरणीय कारकों व विशेष परिस्थितियों में जीवाश्म का निर्माण होता है।



प्रश्न 23. समजात तथा समरूप अंगों को उदाहरण देकर समझाइए 


उत्तर


 समजातता या समजात अंग ऐसे अंग, जो संरचना और उत्पत्ति में समान हों, लेकिन कार्य में भिन्न हो, समजात अंग कहलाते हैं। इनकी इस समानता को समजातता कहते हैं; उदाहरण सील के फ्लीपर (अगली टाँगे) तैरने के लिए, घोड़े की अगली टाँगे दौड़ने के लिए, मनुष्य के हाथ वस्तुओं को पकड़ने के लिए अनुकूलित होते हैं। इनके कार्यों में अन्तर होते हुए भी इनकी मूल संरचना और उत्पत्ति में समानता है।


सील पक्षी चमगादड़ घोड़ा मनुष्य A- ह्यूमरस B-रेडियस अल्ना (कार्पल्स) C-मेटाकार्पल्स D-फैलैन्टस विभिन्न कशेरुकियों के अग्रपादों में 




समजातता


समरूप अंग ऐसे अंग, जो संरचना तथा उत्पत्ति में भिन्न हों, लेकिन कार्य में समान हों, समवृत्ति अंग कहलाते हैं; उदाहरण कीट, पक्षी एवं चमगादड़ के पंख उड़ने का कार्य करते हैं, परन्तु मूल संरचना तथा उत्पत्ति भिन्न होती है। कीटों के पंख काइटिन के बने होते हैं। इनमें कंकाल नहीं होता है, जबकि चमगादड़ के पंख घड़ के नीचे फैली त्वचा से बने होते हैं।



विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 7 अंक


प्रश्न 1. मनुष्य में लिंग निर्धारण किस प्रकार होता है? रेखाचित्र भी बनाइए।


 अथवा सन्तति में नर एवं मादा जनकों द्वारा आनुवंशिक योगदान में बराबर की भागीदारी किस प्रकार सुनिश्चित की जाती है? 


 अथवा मानवों में नर अथवा मादा शिशु के पैदा होने की सांख्यकीय सम्भावना 50 50 होती है। उपयुक्त व्याख्या कीजिए।


अथवा मानव कोशिका में गुणसूत्रों की संख्या बताइए। स्त्री और पुरुष लिए गुणसूत्रों में अन्तर बताइए। अथना मनुष्य में बच्चे का लिंग निर्धारण कैसे होता है



उत्तर –  निष्कर्ष 50% लड़के 50% लड़कियाँ


लिंग निर्धारण की प्रक्रिया में 50% सम्भावना नर शिशु व 50% सम्भावना मादा शिशु की होती है। अतः इसी प्रकार यह भी सिद्ध होता है कि आनुवंशिकी में दोनों जनकों की बराबर भागीदारी सुनिश्चित होती है।



प्रश्न 2. मेण्डल के नियम क्या हैं? उनको उचित चित्रों द्वारा समझाइए।


अथवा मेण्डल के आनुवंशिकता के नियमों की विवेचना कीजिए।


अथवा मेण्डल के वंशागति के नियमों का वर्णन कीजिए। 


अथवा मेण्डल के प्रभाविता के नियम से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।


अथवा द्विसंकर क्रॉस से आप क्या समझते हैं? उदाहरण द्वारा समझाइए।


अथवा आनुवंशिकता को परिभाषित कीजिए। मेण्डल के आनुवंशिकता के नियम का उल्लेख कीजिए।


अथवा स्वतन्त्र अपव्यूहन से आप क्या समझते हैं? केवल रेखाचित्र द्वारा द्विसंकर क्रॉस को समझाइए।


अथवा मेण्डल के स्वतन्त्र अपव्यूहन के नियम को द्विसंकरीय संकरण द्वारा मण्डल के द्विसकर संकरण से आप क्या समझते हैं? मटर के गोल एवं पीले बीजों का मटर के हरे व झुर्रीदार बीजों के साथ संकरण किया। F-पीढ़ी में सभी मटर के बीज पीले व गोल थे। E-पीढ़ी का फीनोटाइप का अनुपात ज्ञात कीजिए।




अथना मेण्डल के नियमों की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।


अथवा द्विगुण संकरण की सहायता से मेण्डल के वंशागति नियमों को समझाइए।


 अथवा मेण्डल के आनुवंशिकता का नियम क्या है? गोल, झुर्रीदार तथा पीले एवं हरे मटर के बीजों वाले लक्षणों के आधार पर उनके वंशागति नियमों को चित्र की सहायता से स्पष्ट कीजिए। 



 उत्तर 


आनुवंशिकता जीवों को सभी लक्षण अपने जनकों से प्राप्त होते हैं। इन लक्षणों को आनुवंशिक लक्षण कहते हैं। ये आनुवंशिक लक्षण जनक से उसकी सन्तति में जाते रहते हैं। इन लक्षणों की वंशागति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में होती है। इस प्रक्रिया को आनुवंशिकता कहते हैं, जैसे- मनुष्य की सन्तान मनुष्य, बिल्ली की सन्तान बिल्ली, हाथी की सन्तान हाथी ही होती है।


मेण्डल ने मटर (Pisum sativum) के पादप में संकरण कराया और अपने परिणामो के आधार पर वंशागति के महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले। मेण्डल के बाद डी ब्रीज, काल करिन्स तथा एरिक वॉन से मार्क ने मेण्डल के किए गए कार्य की पुष्टि की। मेण्डल के इन निष्कर्षों को ही मेण्डल के आनुवंशिकता के नियम कहते हैं।



मेण्डल के आनुवंशिकता के नियम मेण्डल ने अपने प्रयोगों के आधार पर निम्नलिखित तीन नियमों का प्रतिपादन किया। इन नियमों को मेण्डल के आनुवंशिकता के नियम के नाम से जाना जाता है।


द्विसंकर संकरण जब दो तुलनात्मक आनुवंशिक लक्षणों को ध्यान में रखकर संकरण करवाया जाता है, तो इसे द्विसंकर संकरण कहते हैं। इसमें R-पीढ़ी में प्रभाविता के नियमानुसार प्रभावी लक्षण प्रदर्शित होते हैं। युग्मक निर्माण के समय तुलनात्मक लक्षणों के जीन पृथक् होकर युग्मकों में पहुंचते हैं। -पीढ़ी के युग्मक परस्पर मिलकर E-पीढ़ी में 9:38 1 के फीनोटाइप अनुपात में प्रदर्शित होते हैं। F-पीढ़ी में युग्मकों

के अनियमित रूप से मिलने पर नए-नए संयोग बनते हैं।


जब पीले गोल (YYRR) तथा हरे झुर्रीदार (yyrr) बीज वाले शुद्ध जनक पादपों में संकरण कराया जाता है, तो प्रथम पीढ़ी (F) में सभी संकर पादप गोल तथा पीले (YyRr) बीज वाले होते हैं। F पीढ़ी के पादपों में स्व-परागण कराने पर E-पीढ़ी में चार प्रकार के बीज वाले पादप 9: 3:3:1 के अनुपात में प्राप्त होते हैं


(i) गोल पीले


(ii) गोल हरे 


(iii) झुर्रीदार पीले


 (iv) झुर्रीदार हरे


इस प्रयोग से स्पष्ट होता है कि आनुवंशिक लक्षण स्वतन्त्र रूप से अपव्यूहन करते हैं, क्योंकि पीला रंग गोल बीजो तक और हरा रंग झुरींदार बीजो तक सीमित नहीं रहता है। ये स्वतन्त्र रूप से सन्तानों में पहुंचकर नए-नए संयोग बनाते हैं अर्थात् प्रत्येक लक्षण स्वतन्त्र रूप से पृथक् हो  जाता है। जीनप्रारूप अनुपात 1:2:2:4:1:2:1:2:1



प्रश्न 4. जीवन की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ओपेरिन सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। 


अथवा जीवन की उत्पत्ति की आधुनिक परिकल्पना का वर्णन कीजिए।


उत्तर ओपेरिन सिद्धान्त या जीवन की उत्पत्ति का जैव-रासायनिक सिद्धान्त ए. आई. ओपेरिन के अनुसार, पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति आठ चरणों में हुई 


(i) प्रथम चरण (परमाणु अवस्था) इस अवस्था को परमाणु अवस्था भी कहते हैं। पृथ्वी का तापक्रम कम होने से भारी परमाणु जैसे-ताँबा, निकिल, लौह, आदि ने पृथ्वी का केन्द्रीय भाग बनाया, जबकि हल्के परमाणु; जैसे-हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, कार्बन, आदि से वायुमण्डल का निर्माण हुआ।


(ii) द्वितीय चरण (अणु अवस्था) पृथ्वी का तापक्रम धीरे-धीरे कम होने लगा, जिसके कारण परमाणुओं के परस्पर क्रिया करने से अणु तथा सरल अकार्बनिक यौगिकों का निर्माण हुआ। इससे H₂, H₂O एवं NH₃ आदि यौगिक बने। आदि वायुमण्डल अपचायक था। पृथ्वी के ठण्डा होने पर स्थलमण्डल का निर्माण हुआ एवं अन्त में जब तापमान 100°C से कम हुआ, तो आदिसागरों का निर्माण हुआ।


(iii) तृतीय चरण (कार्बनिक यौगिकों का निर्माण) आदि वायुमण्डल में मीथेन (CH4) तथा अमोनिया (NH3) का निर्माण हुआ। मीथेन, अमोनिया, हाइड्रोजन सायनाइड, हाइड्रोजन, आदि से रासायनिक क्रिया द्वारा आदिसागर में पहले असंतृप्त और फिर संतृप्त हाइड्रोकार्बन अणुओं का निर्माण हुआ। संतृप्त हाइड्रोकार्बन से शर्करा, अमीनो अम्ल तथा नाइट्रोजन क्षारों का निर्माण हुआ।


(iv) चतुर्थ चरण (विशिष्ट जटिल कार्बनिक पदार्थ का निर्माण) इस चरण में स्टार्च, सेलुलोस, आदि जटिल कार्बोहाइड्रेट्स का निर्माण हुआ। प्रोटीन अणु, ग्लिसरॉल एवं वसा अणु भी निर्मित हुए। विभिन्न प्रोटीन अणुओं के परस्पर मिलने से क्रमशः कोलॉइडल कण, कोलॉइडल तन्त्र एवं कोएसरवेट्स का निर्माण हुआ। कोएसरवेट्स में अपनी सतह से जल अवशोषण करके कला का निर्माण हुआ। इनमें गुणन द्वारा संख्या में वृद्धि होने लगी। ये किण्वन द्वारा ऊर्जा प्राप्त करने लगे थे।


(v) पंचम चरण (कोलॉइड्स, कोएसरवेट्स तथा न्यूक्लियोप्रोटीन्स का निर्माण) आदिसागर में उपस्थित, 'कोएसरवेट्स' ने रासायनिक क्रिया द्वारा कार्बनिक यौगिकों का निर्माण किया। जिसके फलस्वरूप इनमें स्वद्विगुणन की क्षमता आ गई, इन्हें न्यूक्लिक अम्ल कहते हैं। न्यूक्लिक अम्ल व प्रोटीन्स के मिलने से न्यूक्लियोप्रोटीन्स बने। गुणसूत्रों एवं विषाणु का निर्माण न्यूक्लियोप्रोटीन्स से होता है।


(vi) षष्ठम चरण (आदि कोशिकाओं का निर्माण) कोएसरवेट्स तथा न्यूक्लियोप्रोटीन्स के मिलने से प्रोकैरियोटिक कोशिकाओं की उत्पत्ति हुई। आदि कोशिकाएँ विषमपोषी रही होगी, जिनमें राइबोसोम्स '70S' प्रकार के पाए जाते हैं।


(vii) सप्तम चरण (सुकेन्द्रकीय (Eukaryotic) कोशिकाओं की उत्पत्ति) लगभग 1.5 अरब वर्ष पहले प्रोकैरियोटिक कोशिकाओं से जैव-विकास द्वारा यूकैरियोटिक कोशिकाओं की उत्पत्ति हुई। आदिसागर में जीवन संघर्ष के फलस्वरूप रसायन-संश्लेषी स्वपोषी कोशिकाओं का विकास कोशिकाएँ रासायनिक ऊर्जा का उपयोग करके भोजन बनाती थी। 


(viii) अष्ठम चरण यूकैरियोटिक कोशिकाओं में सबसे पहले प्रोटिस्टा का निर्माण हुआ अर्थात् धीरे-धीरे एककोशिकीय से बहुकोशिकीय जीवों का उद्विकास हुआ।


प्रश्न 4. लैमार्कवाद का उदाहरण सहित विस्तार से वर्णन कीजिए। 


अर्थना लैमार्कवाद को समझाइए। लैमार्कवाद की आलोचनाओं पर प्रकाश  डालिए।




अथवा उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धान्त क्या है? 


 उत्तर जीन बैप्टिस्ट डी लैमार्क (1744-1829) एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक थे। इन्होंने सन् 1809 में जैव-विकास के बारे में अपने सिद्धान्त को 'फिलॉसफी जुलोजिक नामक पुस्तक में प्रकाशित कराया। उनका सिद्धान्त लैमार्कवाद के नाम से प्रचलित हुआ।


इन्होंने मुख्यतया चार बातों पर प्रकाश डाला, जो निम्न हैं


(i) जीवों के आकार में वृद्धि की प्रवृत्ति लैमार्क के अनुसार, जीवधारियों और उनके अंगों के आकार में वृद्धि तथा विकास की स्वभाविक प्रवृत्ति होती है।


(ii) वातावरण का सीधा प्रभाव वातावरण के परिवर्तन के अनुसार, जीव स्वयं को अनुकूल बनाने के लिए अपने शरीर की संरचना और आदतों में परिवर्तन कर लेता है।


(iii) अंगों का उपयोग और अनुप्रयोग वातावरण के प्रभाव के फलस्वरूप जीवधारी अपने अंगों का उपयोग अथवा अनुपयोग करते हैं। उपयोग में आने वाले अंग अधिक विकसित होने लगते हैं। इसके विपरीत उपयोग में न आने वाले अंगों का धीरे-धीरे ह्रास होने लगता है और अन्त में वे लुप्त हो जाते हैं या अवशेषी अंगों के रूप में पाए जाते हैं। 


(iv) उपार्जित लक्षणों की वंशागति इसके अनुसार, प्रत्येक जीव अपने जीवनकाल में जिस वातावरण में रहता है, उसके प्रभाव से अनेक लक्षण उपार्जित करता है। यही उपार्जित लक्षण उसकी सन्तानों में पहुँच जाते हैं तथा धीरे-धीरे नई जाति बन जाती है। कोई भी अंग, जिसका लगातार प्रयोग होता है, धीरे-धीरे आकार में बढ़ता जाता है तथा जिस अंग का प्रयोग नहीं होता, उसका क्रमशः ह्रास होता है।


उदाहरण


(a) जिराफों के पूर्वज वृक्षों की पत्तियाँ खाते थे, जिसके लिए उन्हें गर्दन ऊपर करनी पड़ती थी। ऊँचे वृक्षों की पत्तियाँ खाने के कारण लगातार खींचने से जिराफ की गर्दन व अगली टाँगे लम्बी हो गई।



 (b) साँप रेंगकर चलते हैं। अतः उनके लिए टाँगों का कोई उपयोग नहीं था। लगातार प्रयोग न करने के कारण पैर व मेखला धीरे-धीरे छोटे होते गए व अन्त में विलुप्त हो गए।


(c) जब चिड़ियों ने पानी में जाना शुरू किया, तो तैरने के लिए पैरों को लगातार फैलाना पड़ता था, इससे धीरे-धीरे बत्तख, आदि के पैरों में अँगुलियों के बीच झिल्ली बन गई।


 लैमार्कवाद की आलोचना


(i) भारत में लड़कियों में बचपन में ही नाक व कान में छेद करने की परम्परा सदियों से चली आ रही है, किन्तु आज तक एक भी लड़की कान या नाक में छेद के साथ पैदा नहीं हुई है। 


(ii) आदमी रोज दाढ़ी बनाते हैं, किन्तु फिर भी दाढ़ी लुप्त नहीं हुई है।


(iii) निपुण संगीतकारों के बच्चों के कण्ठ में वही निपुणता जन्म से नहीं होती। 


(iv) लैमार्कवाद की सबसे कटु व प्रभाव पूर्ण आलोचना अगस्त वीजमैन अपने विकलीकरण प्रयोग द्वारा की। उन्होंने 40 पीढ़ियों तक सफेद चूहों की पूँछ काटी, किन्तु 41वीं पीढ़ी के चूहों की पूँछ पहली पीढ़ी से जरा भी छोटी नहीं हुई थी।



प्रश्न 5. डार्विन के प्राकृतिक वरणवाद को उपयुक्त उदाहरण सहित समझाइए। 


अथवा प्राकृतिक वरणवाद किसने प्रस्तुत किया है? इसको उदाहरण सहित समझाइए। 


अथवा डार्विन सिद्धान्त के प्राकृतिक वरणवाद के किन्हीं चार तथ्यों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए। 


अथवा नई जातियों के उद्भव का सिद्धान्त किस वैज्ञानिक ने प्रस्तुत किया? इसकी मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। 



उत्तर 


चार्ल्स डार्विन (1859) ने जैव-विकास के सम्बन्ध में प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। इन्होंने अपनी पुस्तक 'ऑन द ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज़ ऑफ नैचुरल सलेक्शन' प्रकाशित की। 


डार्विनवाद मुख्यतया निम्नलिखित तथ्यों पर आधारित है



(i) जीवों में सन्तानोत्पत्ति की प्रचुर क्षमता सभी जीवधारियों में सन्तानोत्पत्ति की अपार क्षमता होती है, जिसके कारण उनके सदस्यों की संख्या तेजी से बढ़ती है। मादा ऐस्कैरिस अपने जीवनकाल में 2.5 करोड़ अण्डे देती हैं। एक सीप एक जननकाल में 10 लाख अण्डे देती हैं। अतः जीव अधिक-से-अधिक सन्तान उत्पन्न करते हैं, जबकि इस प्रजनन दर की तुलना में पृथ्वी पर भोजन एवं आवास सीमित ही है।


(ii) जीवन संघर्ष प्राणियों को भोजन, प्रकाश एवं सुरक्षित आवास की आवश्यकता पूर्ति हेतु अन्य प्राणियों से स्पर्धा करनी पड़ती है। इसे जीवन संघर्ष कहते हैं। यह निम्न प्रकार का होता है 


(a) अन्त: जातीय संघर्ष यह संघर्ष एक ही जाति के सदस्यों के मध्य होता है। सभी सदस्यों की आवश्यकताएँ समान होने के कारण यह अधिकvघातक होता है; उदाहरण दो कुत्तों में हड्डी के कारण झगड़ा होना।


(b) अन्तर्जातीय संघर्ष यह संघर्ष भिन्न-भिन्न जातियों के सदस्यों के मध्य होता है; उदाहरण साँप तथा बाज में एवं शेर तथा बाघ में भोजन हेतु प्रतिस्पर्धा।


(c) वातावरणीय संघर्ष जीवधारियों में वातावरणीय कारकों; उदाहरण बाढ़, सूखा, ताप, वायु, आदि से बचने के लिए जीवनपर्यन्त संघर्ष चलता रहता है।


(iii) विभिन्नताएँ तथा इनकी वंशागति प्रकृति में प्रत्येक जाति के जीवों में विभिन्नताएँ मिलती है। इन्हीं विभिन्नताओं के कारण कुछ जीव वातावरण के प्रति अनुकूलित होते हैं। ऐसे जीव, जिनमें ये विभिन्नताएँ वातावरण के अनुकूलन के कारण उत्पन्न होती है, वे जीवित रहते हैं और हानिकारक विभिन्नता वाले जीव नष्ट हो जाते हैं। ये विभिन्नताएँ सन्तानों में वंशागत हो जाती हैं, जिससे वे अपने वातावरण में जीवित रहने के लिए अनुकूलित हो सकें।


(iv) योग्यतम् की उत्तरजीविता जीवन संघर्ष में, वे ही जीव जीवित रहते हैं, जो वातावरण के लिए अनुकूल होता है एवं आवश्यकतानुसार परिवर्तन करके स्वयं की ओर अधिक अनुकूल बना लेता है, जो जीव स्वयं को अनुकूलित नहीं कर पाते है, वे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। स्पैन्सर ने इसे "योग्यतम की उत्तरजीविता' कहा है; उदाहरण पोलर बीयर केवल बर्फीले ग्लेशियरों में ही जीवित रह सकते हैं। यह सामान्य तापमान वाले वातावरण में मर सकते हैं।


(v) प्राकृतिक चयन जीवित रहने के लिए जीवों में संघर्ष होता है, इसमें जो जीव प्राकृतिक वातावरण के अनुकूल होते हैं, वे ही जीवित रहते हैं एवं अन्य जीव नष्ट हो जाते हैं। अतः प्रकृति में श्रेष्ठ व अनुकूल जीवों का ही वरण होता है। डार्विन ने इसे प्राकृतिक चयन कहा।


(vi) नई जातियों की उत्पत्ति डार्विन के अनुसार, विभिन्नताएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंशागत होती है। साथ ही साथ सन्तान में भी कुछ विशेष लक्षण या विभिन्नताएँ उत्पन्न हो जाती हैं। कुछ पीढ़ियों के बाद लक्षणों तथा विभिन्नताओं की वंशागति इतनी स्थाई हो जाती है कि सन्तानें अपने पूर्वजों से भिन्न हो जाती हैं और इस तरह नई जातियों की उत्पत्ति हो जाती हैं; उदाहरण डार्विन की फिन्च



प्रश्न 13. DNA तथा RNA में अन्तर लिखिए।


या


DNA व RNA में केवल दो अन्तर लिखिए।


उत्तर-


DNA तथा RNA में अन्तर



DNA

RNA

यह मुख्य रूप से गुणसूत्रों में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त अल्प मात्रा में हरितलवक व माइटोकॉण्ड्रिया में पाया जाता है।

यह मुख्य रूप से कोशिकाद्रव्य व अल्प मात्रा में केन्द्रक में पाया जाता है।

इसका एक अणु द्वि-शृंखलायुक्त होता है, जिसमें अनेक न्यूक्लिओटाइड्स अणु लगे होते हैं।


इसका एक अणु शृंखलायुक्त होता है जिस पर अनेक न्यूक्लियोओटाइड्स लगे रहते हैं।

इसके नाइट्रोजन क्षारक हैं— एडीनीन, ग्वानीन, साइटोसीन व थाइमीन।

इसके नाइट्रोजन क्षारक ग्वानीन, हैं—एडीनीन, साइटोसीन व यूरेसिल।

इसमें शर्करा डी-ऑक्सीराइबोस पायी जाती है।

इसमें राइबोस शर्करा पायी जाती है।


इसमें प्यूरीन्स व पिरिमिडीन्स का अनुपात समान होता है।


इसमें दोनों का अनुपात समान नहीं होता है।

इसका संश्लेषणकारी विकर DNA पॉलीमरेज है।

इसका संश्लेषणकारी विकर RNA पॉलीमरेज है।


यह एक आनुवंशिक पदार्थ है जो कोशिका की क्रियाओं का नियन्त्रण करता है।

यह यदा-कदा आनुवंशिक पदार्थ है तथा प्रोटीन संश्लेषण में दूत का कार्य करता है





Up ncert class 10 science chapter 09 light reflection and refraction notes in hindi



कक्षा 10वी विज्ञान अध्याय 09 प्रकाश-परावर्तन तथा अपवर्तन का सम्पूर्ण हल







09  प्रकाश-परावर्तन तथा अपवर्तन

light reflection and refraction


ऐसा विकिरण या ऊर्जा जो हमारी आँखों में दृष्टि संवेदना उत्पन्न करता है, में प्रकाश कहलाता है। इस दृष्टि संवेदना के कारण हमारी आँख अपने चारों ओर रखी वस्तुओं को देख पाती है।


प्रकाश का परावर्तन


जब प्रकाश किसी पॉलिशदार या चिकने तल पर गिरता है, तो उसका अधिकांश भाग तल से टकराकर उसी माध्यम में वापस लौट आता है। प्रकाश के चिकने या पॉलिशदार तल से टकराकर लौटने की इस प्रक्रिया को प्रकाश का परावर्तन कहते हैं।


परावर्तन के नियम


परावर्तन के दो नियम होते हैं


(1) आपतित किरण, आपतन बिन्दु पर अभिलम्ब तथा परावर्तित किरण तीनों एक ही तल में होते हैं।


(2) परावर्तन कोण सदैव आपतन कोण के बराबर होता है


समतल पृष्ठ से प्रकाश का परावर्तन


प्रतिबिम्ब


वस्तु के किसी बिन्दु से चलने वाली प्रकाश किरणें परावर्तन या अपवर्तन के पश्चात् जिस बिन्दु पर मिलती हैं या मिलती हुई प्रतीत होती हैं उस बिन्दु को प्रथम बिन्दु का प्रतिबिम्ब कहते हैं। प्रतिबिम्ब निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं


1. वास्तविक प्रतिबिम्ब


वस्तु के किसी बिन्दु से चलने वाली प्रकाश किरणें परावर्तन के पश्चात् किसी दूसरे बिन्दु पर वास्तव में मिलती हैं, तो इस दूसरे बिन्दु पर बने प्रतिबिम्ब को उस बिन्दु का वास्तविक प्रतिबिम्ब कहते हैं।


2. आभासी प्रतिबिम्ब


वस्तु के किसी बिन्दु से चलने वाली प्रकाश किरणे परावर्तन के पश्चात किसी दूसरे बिन्दु पर वास्तव में नहीं मिलती हैं परन्तु दूसरे बिन्दु से आती हुई प्रतीत होती हैं, तो इस बिन्दु पर बने प्रतिबिम्ब को उस हिन्दु का आभासी प्रतिबिम्ब कहते हैं।


दर्पण


यदि किसी चिकने पारदर्शी तल के एक पृष्ठ पर कलई अथवा लाल ऑक्साइड का लेप करके दूसरे पृष्ठ को परावर्तक पृष्ठ बना दिया जाये, तो वह निकाय दर्पण कहलाता है।


दर्पण दो प्रकार के होते हैं


1. समतल दर्पण

ऐसे दर्पण, जिनका परावर्तक पृष्ठ समतल होता है, समतल दर्पण कहलाते हैं।


2. गोलीय दर्पण 

ऐसे दर्पण, जिनका परावर्तक पृष्ठ गोलीय होता है, गोलीय दर्पण कहलाते हैं।


गोलीय दर्पण काँच के खोखले गोले का काटा गया भाग होता है। इसके एक तल पर पारे तथा लाल ऑक्साइड का लेप होता है तथा दूसरा तल परावर्तन तल होता है।


गोलीय दर्पण दो प्रकार के होते हैं


 (i) अवतल दर्पण वह गोलीय दर्पण, जिनमें उभरे तल पर कलई होती है तथा परावर्तन दबे हुए तल से होता है, उसे अवतल दर्पण कहते हैं। 


(ii) उत्तल दर्पण वह गोलीय दर्पण, जिनमें दबे हुए तल पर कलई होती है तथा परावर्तन बाहरी उभरी सतह से होता है, उसे उत्तल दर्पण कहते हैं। इसका दृष्टि क्षेत्र अधिक होता है।





गोलीय दर्पण से सम्बन्धित परिभाषाएँ


(i) दर्पण का ध्रुव गोलीय दर्पण में परावर्तक तल के मध्य बिन्दु को ध्रुव (P) कहते हैं।



 (ii) वक्रता केन्द्र गोलीय दर्पण काँच के जिस खोखले गोले का भाग होता है, उस गोले के केन्द्र को दर्पण का वक्रता केन्द्र कहते हैं।


 (iii) वक्रता त्रिज्या वक्रता केन्द्र से दर्पण के ध्रुव तक की दूरी दर्पण की वक्रता त्रिज्या कहलाती है।


(iv) मुख्य अक्ष गोलीय दर्पण के ध्रुव (P) तथा वक्रता केन्द्र (C) को मिलाने वाली सीधी

रेखा, गोलीय दर्पण की मुख्य अक्ष कहलाती है। 


(v) दर्पण का द्वारक गोलीय दर्पण के परावर्तक पृष्ठ के व्यास को दर्पण का द्वारक कहते हैं। चित्र में, M1, M2 दर्पण का द्वारक है।


(vi) मुख्य फोकस गोलीय दर्पण की मुख्य अक्ष के समान्तर आने वाली प्रकाश की किरणें गोलीय दर्पण से परावर्तन के पश्चात् मुख्य अक्ष के जिस बिन्दु पर मिलती हैं या मिलती हुई प्रतीत होती हैं उस बिन्दु को दर्पण का मुख्य फोकस अथवा फोकस कहते हैं। इसे F से प्रदर्शित करते हैं।





(vi) फोकस दूरी गोलीय दर्पण के ध्रुव से मुख्य फोकस तक की दूरी को दर्पण की फोकस दूरी कहते हैं। इसे से प्रदर्शित करते हैं। यदि दर्पण का द्वारक छोटा है, तो f= R/2 अर्थात् गोलीय दर्पण का मुख्य फोकस, ध्रुव तथा दर्पण की वक्रता त्रिज्या का मध्य बिन्दु होता है।


नोट समतल दर्पण की फोकस दूरी अनन्त होती है।


(vii) फोकस तल फोकस बिन्दु से होकर जाने वाले तथा मुख्य अक्ष के लम्बवत् तल को फोकस तल कहते हैं।





अवतल दर्पण द्वारा प्रतिबिम्ब का बनना


वस्तु की स्थिति

प्रतिबिम्ब की स्थिति

प्रतिबिम्ब की प्रकृति एवं आकार

1.अनन्त पर

फोकस तल में

वास्तविक, उल्टा तथा वस्तु से छोटा

2.अनन्त तथा वक्रता केन्द्र के बीच

फोकस तथा वक्रता केन्द्र के बीच

वास्तविक, उल्टा तथा वस्तु से छोटा

3.वक्रता केन्द्र पर

वक्रता केन्द्र पर

वास्तविक, उल्टा तथा वस्तु के बराबर

4.वक्रता केन्द्र तथा मुख्य फोकस के बीच

अनन्त तथा वक्रता केन्द्र के बीच

वास्तविक, उल्टा तथा वस्तु से बड़ा

5.फोकस पर

अनन्त पर


वास्तविक, उल्टा तथा वस्तु से बहुत बड़ा

6.मुख्य फोकस तथा ध्रुव के बीच

दर्पण के पीछे अनन्त  तथा ध्रुव के बीच


आभासी, सीधा तथा वस्तु से बडा


उत्तल दर्पण द्वारा प्रतिबिम्ब का बनना 




वस्तु की स्थिति

प्रतिबिम्ब की स्थिति

प्रतिबिम्ब की प्रकृति एवं आकार

1. अनन्त पर

फोकस तल में दर्पण के पीछे

आभासी, उल्टा तथा वस्तु से छोटा

2.अनन्त तथा वक्रता केन्द्र के बीच

फोकस तथा वक्रता केन्द्र के बीच,दर्पण के बीच

वास्तविक, उल्टा तथा वस्तु से छोटा





अवतल तथा उत्तल दर्पण के उपयोग




(1) अवतल दर्पण का उपयोग मोटरकारों, रेलवे इंजनों, स्टीमरों तथा सर्चलाइट लैम्पों में परावर्तक के रूप में तथा डॉक्टरों द्वारा आँख, नाक तथा गले आदि को देखने में किया जाता है।


(2) उत्तल दर्पण का उपयोग गली तथा बाजारों में लगे लैम्पों के ऊपर किया जाता है तथा इसका उपयोग वाहनों में पीछे का दृश्य देखने के लिए भी किया जाता है।


गोलीय दर्पणों के लिए चिन्ह परिपाटी 



 अवतल दर्पण के लिए f v तथा u का मान ऋणात्मक (-) लेते हैं।


#.यदि अवतल दर्पण में प्रतिबिम्ब दर्पण के पीछे बनता है, तो v का मान धनात्मक (+)

तथा दर्पण के सामने बनने पर v का मान ऋणात्मक (-) लेते हैं।


#. उत्तल दर्पण के लिए f एवं R का मान घनात्मक (+) तथा u का मान ऋणात्मक (-) लेते हैं। उत्तल दर्पण में प्रतिबिम्ब दर्पण के पीछे बनता है। अतः v का मान धनात्मक (+) लेंगे।


गोलीय दर्पण के लिए u.v तथा f में सम्बन्ध


गोलीय दर्पण के लिए फोकस दूरी तथा दर्पण से वस्तु और प्रतिबिम्ब की दूरियों के लिए निम्न सम्बन्ध होता है


1/f = 1/v + 1/u




जहाँ, u= दर्पण से वस्तु की दूरी, v = दर्पण से प्रतिबिम्ब की दूरी तथा f= दर्पण की फोकस दूरी।


प्रकाश का अपवर्तन


प्रकाश किरण के एक माध्यम से दूसरे माध्यम में प्रवेश करने पर उनके पथ में परिवर्तन होने की घटना को प्रकाश का अपवर्तन कहते हैं। प्रकाश के अपवर्तन का कारण प्रकाश की चाल का विभिन्न माध्यमों में भिन्न-भिन्न होना है। जब प्रकाश विरल माध्यम से सघन माध्यम में संचरित होता है, तो अपवर्तित किरण अभिलम्ब की ओर झुक जाती है

 (i>r)


प्रकाश सघन माध्यम से विरल माध्यम में संचरित होता है, तो यह अभिलम्ब से दूर हट जाती है। (i <r)



जहाँ i आपतन कोण, तथा r अपवर्तन कोण।


अपवर्तन का कारण


प्रकाश की चाल विभिन्न माध्यमों में भिन्न-भिन्न होती है। अतः जब प्रकाश एक माध्यम से दूसरे माध्यम में प्रवेश करता है, तो चाल में परिवर्तन होने के कारण प्रकाश की किरण अभिलम्ब से दूर अथवा अभिलम्ब के पास हो जाती है अर्थात् प्रकाश का अपवर्तन हो जाता है।


अपवर्तन के नियम


प्रकाश के अपवर्तन के दो नियम होते हैं


(i) आपतित किरण, अपवर्तित किरण तथा आपतन बिन्दु पर अभिलम्ब तीनों एक ही तल में होते हैं।


(i) आपतन कोण की ज्या (sin i) तथा अपवर्तन कोण की ज्या (sin r) का अनुपात

एक नियतांक होता है


 अर्थात्


sin i /sin r = नियतांक



इसे स्नेल का नियम भी कहते हैं तथा इस नियतांक को पहले माध्यम के सापेक्ष दूसरे माध्यम का अपवर्तनांक (μ) कहते हैं।




अपवर्तनांक


यदि प्रकाश की किरणें माध्यम 1 से माध्यम 2 में प्रवेश करती हैं, तो अपवर्तनांक को ₁μ₂लिखा जाता है तथा ₁μ₂ को माध्यम 2 का माध्यम 1 के लिए सापेक्ष अपवर्तनांक कहते हैं।


₁μ₂    = μ₂/ μ₁ =sini /sinr


यदि किसी माध्यम का अपवर्तनांक निर्वात् के सापेक्ष लिया जाता है, तो यह माध्यम का निरपेक्ष अपवर्तनांक कहलाता है। किसी माध्यम का निरपेक्ष अपवर्तनांक साधारणतया अपवर्तनांक कहलाता है।


काँच व जल युग्म के लिए


ʷμᵍ =ₐμᵍ / ₐμʷ


नोट वायु का अपवर्तनांक सबसे कम तथा हीरे का अपवर्तनांक सबसे अधिक होता है।



आयताकार काँच की झिल्ली से अपवर्तन


जब प्रकाश की किरण किसी आयताकार काँच से गुजरती है तो आपतित किरण तथा निर्गत् किरण एक-दूसरे के समान्तर होती है लेकिन किरण अपने मार्ग से थोड़ा विस्थापित हो जाती है। जब प्रकाश की किरण आयताकार काँच की झिल्ली से गुजरती है, तो निर्गत् किरण तथा आपतित किरण के मध्य लम्बवत् दूरी पार्श्व विस्थापन कहलाती है।



अपवर्तन की इस प्रक्रिया में अपवर्तन दो बार होता है, प्रथम बार जब प्रकाश की किरण वायु से काँच की झिल्ली में पृष्ठ AB से गमन करती है तथा दूसरी बार पृष्ठ CD पर, जब यह कौंच से वायु में गमन करती है। आयताकार काँच के स्लैब के विपरीत पृष्ठों AB तथा CD पर किरण के मुड़ने का परिमाण समान तथा विपरीत है। इसी कारण निर्गत् किरण आपतित किरण के समांतर निकलती है। तथापि प्रकाश किरण में थोड़ा-सा पार्रिवक विस्थापन होता है। 


चित्र में, i =आपतन कोण, r=अपवर्तन कोण तथा e= निर्गत कोण


लेन्स


ऐसा पारदर्शी माध्यम (जैसे-काँच), जो दो गोलीय पृष्ठों या एक गोलीय तथा एक समतल पृष्ठ से घिरा होता है, लेन्स कहलाता है। 


लेन्स निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं


1. उत्तल लेन्स


वे लेन्स जो बीच में से मोटे तथा किनारों से पतले होते हैं, उन्हें उत्तल लेन्स कहते हैं।


 2. अवतल लेन्स


वे लेन्स जो बीच में से पतले तथा किनारों पर से मोटे होते हैं, उन्हें अवतल लेन्स कहते हैं।


लेन्सों से सम्बन्धित कुछ परिभाषाएँ


(i) प्रकाशिक केन्द्र लेन्स के मुख्य अक्ष पर स्थित वह बिन्दु, जिससे होकर जाने वाली प्रकाश की किरण अपवर्तन के पश्चात् बिना विचलित हुए सीधी निकल जाती है, लेन्स का प्रकाशिक केन्द्र कहलाता है। इसे O से प्रदर्शित करते हैं।


(ii) वक्रता केन्द्र उत्तल लेन्स व अवतल लेन्स के गोलीय पृष्ठ जिस गोले के भाग होते हैं, उस गोले का केन्द्र लेन्स का वक्रता केन्द्र कहलाता है।


 (iii) वक्रता त्रिज्या लेन्स जिस गोले का भाग होता है, उस गोले की त्रिज्या को लेन्स की वक्रता त्रिज्या कहते हैं।


(iv) मुख्य अक्ष लेन्स के दोनों गोलीय पृष्ठों के वक्रता केन्द्रों से गुजरने वाली एक काल्पनिक सीधी रेखा को लेन्स का मुख्य अक्ष (XX') कहते हैं।






(v) मुख्य फोकस अथवा फोकस लेन्स के दो फोकस होते हैं, प्रथम फोकस (F1) तथा द्वितीय फोकस (F2)


गोलीय पृष्ठ के मुख्य अक्ष पर स्थित वह बिन्दु जिससे गुजरने वाली प्रकाश की किरण अपवर्तन के पश्चात् मुख्य अक्ष के समान्तर हो जाती हैं, उस बिन्दु को प्रथम फोकस (F1) कहते हैं। इसी प्रकार लेन्स के मुख्य अक्ष के समान्तर चलने वाली प्रकाश किरणें लेन्स से अपवर्तन के पश्चात् अक्ष के जिस बिन्दु पर मिलती हैं या मिलती हुई प्रतीत होती हैं, उस बिन्दु को द्वितीय फोकस (F2) कहते हैं।


 (vi) फोकस दूरी लेन्स के प्रकाशिक केन्द्र व फोकस के मध्य की दूरी को फोकस दूरी कहते हैं।


 (vii) फोकस तल लेन्स के फोकस से होकर जाने वाले तथा मुख्य अक्ष के अभिलम्बवत् तल को लेन्स का फोकस तल कहते हैं। 


(viii) द्वारक लेन्स के अर्द्धवृत्ताकार सिरों के व्यास को लेन्स का द्वारक (AB) कहते हैं।


लेन्सों द्वारा प्रतिबिम्ब बनाने के नियम


(i) प्रथम नियम लेन्स के मुख्य अक्ष के समान्तर चलने वाली प्रकाश की किरणें अपवर्तन के पश्चात् द्वितीय फोकस से होकर जाती हैं।


 (ii) द्वितीय नियम लेन्स के प्रथम मुख्य फोकस से होकर जाने वाली (उत्तल लेन्स में) या प्रथम मुख्य फोकस की ओर से जाती हुई प्रतीत होने वाली (अवतल लेन्स में) प्रकाश की किरणें अपवर्तन के पश्चात् मुख्य अक्ष के समान्तर हो जाती है।


(iii) तृतीय नियम लेन्स के प्रकाशिक केन्द्र से होकर जाने वाली प्रकाश की किरणें अपवर्तन के पश्चात् बिना विचलित हुए सीधी निकल जाती है।


(i) उत्तल लेन्स का उपयोग 


(i)विभिन्न प्रकाशिक यन्त्रों में जैसे-दूरदर्शी, सूक्ष्मदर्शी एवं डॉक्टरों के द्वारा आँख व कान की जाँच करने के लिए किया जाता है। 


(ii) मानव नेत्र में दृष्टि दोष के निवारण हेतु चश्में में दोनों लेन्सों का उपयोग होता है।


गोलीय लेन्सों के लिए चिन्ह परिपाटी


गोलीय लेन्सों के लिए चिन्ह परिपाटी, गोलीय दर्पणों के समान होती है। उत्त लेन्स की फोकस दूरी धनात्मक (+) तथा अवतल लेन्स की फोकस दूरी ऋणात्मक (-) होता है।



लेन्स सूत्र


लैन्स के लिए बिम्ब की दूरी u, प्रतिबिम्ब की दूरी तथा फोकस दूरी में सम्बन्ध को V


लेन्स सूत्र कहा जाता है जो निम्न हैं।


1/f = 1/v -1/u


v u दोनों प्रकार के लेन्सों के लिए लेन्स सूत्र एक ही होता है। लेन्सों में सभी दूरियाँ प्रकाशिक केन्द्र से मापी जाती हैं।


बहुविकल्पीय प्रश्न 1 अंक



प्रश्न 1. समतल दर्पण की फोकस दूरी है


(a) शून्य 


(b) अनन्त


(c) 25 सेमी


(d) 25 सेमी


उत्तर (b) समतल दर्पण की फोकस दूरी अनन्त होती है।


प्रश्न 2. समतल दर्पण के सामने एक वस्तु दर्पण से 10 सेमी की दूरी पर रखी गई है, तो दर्पण से प्रतिबिम्ब की दूरी होगी


(a) 5 सेमी


(b) 10 सेमी


(d) 0


उत्तर (b) 



 प्रश्न 3. समतल दर्पण द्वारा निर्मित प्रतिबिम्ब का आवर्धन होता है




(a) 1


(b) 1 से कम 


(c) 1 से अधिक 


 (d) अनन्त



उत्तर (a)



प्रश्न 4. दर्पण की फोकस दूरी f तथा वक्रता त्रिज्या R के बीच सम्बन्ध है



(a) f= R


(c) 2 f= R


(d) f= 2R


उत्तर (c) 


प्रश्न 5. एक उत्तल दर्पण की फोकस दूरी 12 सेमी है, दर्पण के उत्तल पृष्ठ की वक्रता त्रिज्या होगी


(a) 6 सेमी


(b) 12 सेमी


(c) 18 सेमी


(d) 24 सेमी


उत्तर (d) 


प्रश्न 6. एक उत्तल दर्पण की फोकस दूरी 20 सेमी है। उसकी वक्रता त्रिज्या होगी


(a) 10 सेमी


(b) 20 सेमी


(c) 40 सेमी


(d) 80 सेमी 


उत्तर (c) 



प्रश्न 7. एक अवतल दर्पण की वक्रता त्रिज्या 20 सेमी है। इसकी फोकस दूरी होगी


(a) -20 सेमी


(b) -10 सेमी


(c) 40 सेमी


(d) 10 सेमी


उत्तर (b) 



प्रश्न 8. एक उत्तल दर्पण की फोकस दूरी होगी, जिसकी वक्रता त्रिज्या 32 सेमी है


(a) 32 सेमी


(c) 61 सेमी


(b) 16 सेमी


(d) 8 सेमी



उत्तर (b) 


प्रश्न 9. किस दर्पण के सामने, किसी वस्तु को रखने पर उसका प्रतिबिम्ब वास्तविक, उल्टा व आकार में कुछ छोटा बनेगा?


(a) उत्तल 


(b) अवतल


(c) समतल


(d) इनमें से कोई नहीं


उत्तर (b) 


प्रश्न 10. अवतल दर्पण द्वारा किसी वस्तु का सीधा व बड़ा प्रतिबिम्ब बनाने के लिए उसे रखना होगा


अथवा अवतल दर्पण द्वारा किसी वस्तु का बना प्रतिबिम्ब आभासी, सीधा तथा वस्तु से बड़ा पाया गया। वस्तु की स्थिति होगी।


(a) दर्पण के वक्रता केन्द्र C पर 


(b) दर्पण के फोकस बिन्दु F पर


(c) दर्पण के वक्रता केन्द्र C और उसके फोकस बिन्दु F के बीच में 


(d) दर्पण के ध्रुव P और उसके फोकस बिन्दु F के बीच में 


उत्तर (d) 


प्रश्न 11. किसी दर्पण से आप चाहे कितनी ही दूरी पर खड़े हों, आपका प्रतिबिम्ब सदैव सीधा प्रतीत होता है, तो वह दर्पण होगा 


(a) केवल समतल 


(b) केवल अवतल


(c) केवल उत्तल


(d) समतल तथा उत्तल


उत्तर (d) समतल तथा उत्तल, क्योंकि समतल तथा उत्तल दर्पण द्वारा प्रतिबिम्ब सदैव सीधा बनता है।


प्रश्न 12. अनन्त एवं उत्तल दर्पण के ध्रुव P के बीच रखी वस्तु का प्रतिबिम्ब कहाँ और किस प्रकृति का होगा?


 (a) दर्पण के पीछे, P एवं F के बीच, आभासी एवं सीध


(b) दर्पण के पीछे, Pएवं F के बीच, आभासी एवं उल्टा 


(c) दर्पण के सामने, वास्तविक एवं सीधा


(d) दर्पण के सामने, आभासी एवं सीधा (यहाँ F फोकस है


उत्तर (a) 



प्रश्न 13. टॉच, सर्चलाइटों तथा वाहनों की हैडलाइटों में बल्ब कहाँ लगा होता है?



(a) परावर्तक के ध्रुव एवं फोकस के बीच


(b) परावर्तक के फोकस के अत्यधिक निकट


(c) परावर्तक के फोकस एवं वक्रता के बीच 


(d) परावर्तक के वक्रता केन्द्र पर


उत्तर (b) 




अतिलघु उत्तरीय प्रश्न 2 अंक



प्रश्न1. समतल दर्पण द्वारा बने प्रतिबिम्ब के गुणधर्म बताइए। 


उत्तर समतल दर्पण द्वारा बने प्रतिबिम्ब के गुण निम्नलिखित होते हैं



(i) समतल दर्पण द्वारा बना हुआ प्रतिबिम्ब आभासी एवं सीधा होता है। 


(ii) प्रतिबिम्ब का आकार वस्तु के बराबर होता है। अतः आवर्धन का मान 1 सेमी है।


 (iii) प्रतिबिम्ब दर्पण से उतनी ही दूर पीछे होता जितनी कि वस्तु दर्पण के आगे होती है। 


(iv) h ऊँचाई के मनुष्य को अपना पूर्ण प्रतिबिम्ब देखने के लिए समतल दर्पण की आवश्यक न्यूनतम ऊँचाई (h/2) होती है। 


प्रश्न 2. अवतल दर्पण तथा उत्तल दर्पण से बनने वाले आभासी प्रतिबिम्ब में क्या अन्तर है? 


उत्तर अवतल दर्पण से बनने वाला आभासी प्रतिबिम्ब सीधा तथा वस्तु से बड़ा होता है जबकि उत्तल दर्पण से बनने वाला आभासी प्रतिबिम्ब उल्टा तथा वस्तु से छोटा होता है।



प्रश्न 3. एक उत्तल दर्पण की फोकस दूरी 10 सेमी है। इसके द्वारा किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब अधिक-से-अधिक कितनी दूरी पर बनेगा? 


उत्तर वस्तु का प्रतिबिम्ब अधिक-से-अधिक 10 सेमी पर बनेगा, क्योंकि उत्तल दर्पण के लिए आवर्धन सदैव धनात्मक व 1 से कम होता है। 


 प्रश्न 4. गोलीय दर्पण की फोकस दूरी व वक्रता त्रिज्या के सम्बन्ध का सूत्र लिखिए। 


 उत्तर गोलीय दर्पण की वक्रता त्रिज्या (R), उसकी फोकस दूरी (f) की दोगुनी के


होती है अर्थात् R = 2f


प्रश्न 5. एक अवतल दर्पण के वक्रता केन्द्र एवं फोकस के मध्य रखी वस्तु का प्रतिबिम्ब के बनने का किरण आरेख खींचिए। 


अथवा एक अवतल दर्पण से फोकस तथा वक्रता केन्द्र के बीच स्थित वस्तु के प्रतिबिम्ब का किरण आरेख बनाइए तथा प्रतिबिम्ब की प्रकृति तथा उसका आकार बताइए


उत्तर जब वस्तु मुख्य फोकस तथा वक्रता केन्द्र के बीच रखी जाती है, तब प्रतिबिम्ब दर्पण के वक्रता केन्द्र तथा अनन्त के बीच बनता है तथा वास्तविक, उल्टा व वस्तु से बड़ा होता है। किरण आरेख


प्रश्न 6. 15 सेमी फोकस दूरी के एक अवतल दर्पण का उपयोग करके हम किसी बिम्ब का सीधा प्रतिबिम्ब बनाना चाहते हैं। बिम्ब की दर्पण से दूरी परिसर क्या होनी चाहिए? प्रतिबिम्ब की प्रकृति कैसी होगी यदि प्रतिबिम्ब बिम्ब से बड़ा अथवा छोटा है? इस स्थिति में प्रतिबिम्ब बनने का एक किरण आरेख बनाइए।



उत्तर बिम्ब को दर्पण से 15 सेमी से कम दूरी पर रखना चाहिए, जिससे प्रतिबिम्ब आभासी, सीधा तथा बिम्ब से बड़ा बनेगा।


किरण आरेख




प्रश्न 7. अवतल दर्पण के ध्रुव एवं फोकस दूरी के मध्य रखी वस्तु के प्रतिबिम्ब के बनने का किरण आरेंख खींचिए ।


 अथवा दर्पण द्वारा वस्तु का आवर्धित प्रतिबिम्ब बनने का किरण आरेख बनाइए।



उत्तर – जब वस्तु अवतल दर्पण के फोकस तथा ध्रुव के बीच होती है, तब प्रतिबिम्ब आभासी तथा आवर्धित (वस्तु से बड़ा) होता है और दर्पण के पीछे बनता है। 


किरण आरेख




प्रश्न 8. अवतल दर्पण के लिए तथा f में सम्बन्ध लिखिए।


उत्तर अवतल दर्पण के लिएu v तथा f में निम्न सम्बन्ध होता है


1/f = 1/u + 1/v


जहाँ, u = दर्पण से वस्तु की दूरी, v =दर्पण से प्रतिबिम्ब की दूरी तथा f = दर्पण की फोकस दूरी।



प्रश्न 9. सड़कों पर लगे लैम्पों के ऊपर किस दर्पण का उपयोग होता है? इस दर्पण का एक और उपयोग लिखिए।


उत्तर सड़कों पर लगे लैम्पों के ऊपर उत्तल दर्पण का उपयोग होता है। इस दर्पण का उपयोग वाहनों में पीछे का दृश्य देखने के लिए भी किया जाता है



प्रश्न 10. निम्न स्थितियों में प्रयुक्त दर्पण का प्रकार बताइए।



(i) किसी कार का अग्र-दीप ( हैड लाइट)


 (ii) किसी वाहन का पार्श्व/पश्च-दृश्य दर्पण


 (iii) सौर भटटी


अपने उत्तर की कारण सहित पुष्टि कीजिए। 


उत्तर (i) अवतल दर्पण, क्योंकि ये प्रकाश का शक्तिशाली किरण पुँज प्रदान करते हैं।


(ii) उत्तल दर्पण, क्योंकि ये सीधा अपितु छोटा (तथा आभासी) प्रतिबिम्ब बनाते हैं तथा इनका दृष्टि क्षेत्र भी अधिक होता है।


(iii) अवतल दर्पण, क्योंकि ये सूर्य के प्रकाश को कक्ष क्षेत्र में केंद्रित कर सकते हैं।



प्रश्न 11. प्रकाश के अपवर्तन सम्बन्धी स्नेल के नियम को लिखिए तथा समझाइए।


उत्तर आपतन कोण की ज्या (sini) व अपवर्तन कोण की ज्या (sin r) का अनुपात किन्हीं दो माध्यमों के लिए नियतांक होता है, जिसे दूसरे माध्यम का पहले माध्यम के सापेक्ष अपवर्तनांक कहते हैं



इस नियम को स्नेल का नियम कहते हैं।



प्रश्न 12. एक प्रकाश किरण पतले लेन्स से अपवर्तन के पश्चात् बिना विचलित हुए सीधी निकल जाती है। उस बिन्दु का नाम बताइए।


अथना प्रकाशिक केन्द्र से आप क्या समझते हैं? 


उत्तर – प्रत्येक लेन्स के लिए उसके मुख्य अक्ष पर स्थित एक ऐसा बिन्दु होता है. जिनमें से गुजरने वाली प्रकाश की किरणें बिना विचलित या विस्थापित हुए सीधे बाहर निकल जाती है, वह बिन्दु लेन्स का प्रकाशिक केन्द्र कहलाता है।



प्रश्न 13. यदि मिट्टी का तेल, तारपीन का तेल तथा जल के अपवर्तनांक क्रमशः 1.44, 1.47 तथा 1.33 हैं। इनमें प्रकाश की चाल किसमें सबसे अधिक होगी, और क्यों? 


उत्तर दिया है,


मिट्टी का तेल 1.44 "तारपीन का तेल -1.47, जल -1.33


जो माध्यम सबसे अधिक प्रकाशीय विरल है, अर्थात् जिसका अपवर्तनांक सबसे कम है, उस माध्यम में प्रकाश की गति सबसे तीव्र होगी। उपरोक्त तीनों माध्यमों में से जल का अपवर्तनांक सबसे कम है, अतः इनमें से जल ही ऐसा माध्यम है, जिसमें प्रकाश की गति सबसे तीव्र होगी।



प्रश्न 14. चित्र द्वारा दिखाइए कि दो अभिसारी लेन्सों को किस प्रकार व्यवस्थित किया जाए कि समान्तर आने वाली किरणें लेन्सों से गुजरने के बाद पुनः समान्तर हो जाएँ।



उत्तर


यदि दोनों लेन्सों के मध्य दूरी 2f होगी, तो प्रथम लेन्स से प्रतिबिम्ब फोकस बिन्दु (I) पर बनेगा। यह प्रतिबिम्ब L2 के लिए वस्तु का कार्य करेगा। इससे आपतित किरणें अपवर्तन के पश्चात् पुनः मुख्य अक्ष के समान्तर जायेगी।


लघु उत्तरीय प्रश्न 4 अंक


प्रश्न 1. उत्तल दर्पण तथा उसके फोकस के बीच स्थित वस्तु के बने प्रतिबिम्ब की स्थिति तथा प्रकृति को आवश्यक किरण आरेख द्वारा समझाइए।



उत्तर – जब वस्तु उत्तल दर्पण तथा उसके फोकस के बीच रखी जाती है, तब वस्तु का प्रतिबिम्ब आभासी, सीधा, वस्तु से छोटा तथा दर्पण के पीछे, दर्पण व फोकस के बीच बनता है। 


किरण आरेख





प्रश्न 2. प्रकाश के अपवर्तन के नियम समझाइए।


 उत्तर प्रकाश के अपवर्तन के निम्नलिखित दो नियम है



(i) प्रथम नियम अपवर्तन के प्रथम नियम के अनुसार, आपतित किरण, अपवर्तित किरण तथा आपतन बिन्दु पर अभिलम्ब तीनों एक ही तल में होते हैं।


(ii) द्वितीय नियम अपवर्तन के द्वितीय नियम के अनुसार, किन्हीं दो माध्यमों के लिए आपतन कोण (i) की ज्या (sine) तथा अपवर्तन कोण (r) की ज्या (sine) का अनुपात नियतांक होता है 


अर्थात्


sin i / sin r = नियतांक


इस नियम को स्नेल का नियम (Snell's law) भी कहते हैं। इस नियतांक को प्रथम माध्यम के सापेक्ष द्वितीय माध्यम का अपवर्तनांक कहते हैं। इसे n (या μ) द्वारा प्रदर्शित करते हैं तथा इसके दोनों ओर प्रथम व द्वितीय माध्यम का संकेत लिखा जाता है।




प्रश्न 4. किसी पेंसिल को जब जल से भरे गिलास में डुबोते हैं तो वह वायु तथा जल के अंतरापृष्ठ पर मुड़ी हुई प्रतीत होती है। यदि इस पेंसिल को जल के स्थान पर केरोसीन अथवा तारपीन के तेल में डुबोएँ, तो क्या यह इनमें भी इतनी ही मुड़ी हुई प्रतीत होगी? अपने उत्तर की व्याख्या कारण सहित समझाइए।



उत्तर जब किसी पेंसिल को जल से भरे गिलास में डुबोते हैं, तो वह वायु तथा जल के अंतरापृष्ठ पर मुड़ी हुई प्रतीत होती है। इसका कारण यह है कि अपवर्तन के कारण पेंसिल के जल में डूबे हुए भाग से आने वाला प्रकाश बिना डूबे हुए भाग की तुलना में अलग दिशा से आता है।



यदि इस पेंसिल को जल के स्थान पर केरोसीन अथवा तारपीन के तेल में डुबोएँ तो इन द्रवों के वायु के सापेक्ष भिन्न-भिन्न अपवर्तनांक होने के कारण, पेंसिल आपतित प्रकाश से भिन्न-भिन्न विचलन प्रदर्शित करेगी।



 प्रश्न 5. 2F दूरी पर स्थित किसी वस्तु की उत्तल लेन्स द्वारा निर्मित प्रतिबिम्ब की प्रकृति, स्थिति तथा सापेक्ष आकार को समझाइए। किरण आरेख खींचिए।


उत्तर – किरण आरेख





जब वस्तु 2F1 दूरी पर स्थित हो, तब 


(i) प्रतिविम्ब 2F2 दूरी पर बनेगा।


(ii) प्रतिबिम्ब का आकार वस्तु के आकार जैसा होगा।


(iii) प्रतिबिम्ब वास्तविक तथा उल्टा होगा।




प्रश्न 6. प्रथम मुख्य फोकस तथा द्वितीय मुख्य फोकस के मध्य स्थित वस्तु का उत्तल लेन्स द्वारा निर्मित प्रतिबिम्ब का किरण आरेख खींचिए। 


उत्तर किरण आरेख




इस अवस्था में प्रतिबिम्ब 2F, की दूसरी ओर बनेगा। यह वास्तविक, उल्टा तथाआवर्धित होगा।





Class 10 science chapter 10 human eye and colourful world full solutions notes



कक्षा 10 विज्ञान अध्याय 10 मानव नेत्र एवं रंगबिरंगा संसार 





10 मानव नेत्र एवं रंगबिरंगा संसार



महत्वपूर्ण परिभाषाएं



मानव नेत्र –मनुष्य नेत्र की सहायता से दूर अथवा पास की वस्तुओं को आसानी से देख सकता है। यह एक प्रकाश संवेदी अंग है।



 मानव नेत्र के भाग मानव नेत्र के निम्नलिखित भाग होते हैं


दृढ़पटल, रक्तक पटल, स्वच्छमण्डल (कॉर्निया), परितारिका (आइरिस), पुतली, अभिनेत्र लेंस, दृष्टिपटल (रेटिना), पक्ष्माभी माँसपेशियाँ, जलीय एवं कांचान द्रव, पीत बिन्दु, अन्ध बिन्दु।


अभिनेत्र लेंस की फोकस दूरी मानव नेत्र के अभिनेत्र लेंस से दृष्टिपटल (रेटिना) के बीच की दूरी को अभिनेत्र लेंस की फोकस दूरी कहते हैं। यह परिवर्तनशील होती है।


नेत्र की समंजन क्षमता मांसपेशियों द्वारा नेत्र लेंस की फोकस दूरी को आवश्यकतानुसार परिवर्तित करने की क्षमता को नेत्र की समंजन क्षमता कहते हैं। नेत्र की समंजन क्षमता निम्न दो बिन्दुओं पर ज्ञात की जा सकती है।


(i) नेत्र का दूर बिन्दु नेत्र से अधिकतम दूरी पर स्थित वह बिन्दु जिसे नेत्र बिना समंजन क्षमता से स्पष्ट देख सकता है। स्वस्थ मनुष्य के लिए इसका मान अनन्त होता है।


(ii) नेत्र का निकट बिन्दु वह निकटतम बिन्दु जिसे नेत्र अधिक समंजन क्षमता लगाकर देख सकता है, नेत्र का निकट बिन्दु कहलाता है। नेत्र से इस बिन्दु की दूरी को स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी कहते हैं। स्वस्थ नेत्र के लिए स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी 25 सेमी होती है।


 वर्णान्धता इस दोष से पीड़ित व्यक्ति कुछ निश्चित रंगों में अन्तर नहीं कर पाते। इस दोष के निवारण का कोई उपचार नहीं है।


 प्रिज्म किसी समांग पारदर्शी माध्यम की वह आकृति जो किसी कोण पर झुके दो समतल पृष्ठों से घिरा होता है, प्रिज्म कहलाता है।



#. श्वेत प्रकाश का इसके अवयवी वर्णों में विभाजन विक्षेपण कहलाता है।




मानव नेत्र


नेत्र, मनुष्य व सभी जीवों के लिए प्रकृति की एक बहुमूल्य देन है। नेत्र लगभग फोटो कैमरे की भाँति कार्य करता है, जिसका व्यास लगभग 25 मिमी होता है। नेत्र में वस्तुओं के वास्तविक प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनते हैं। नेत्र एक विशेष प्रकार का प्रकाशिक यन्त्र है। इसका लेन्स प्रोटीन से बने पारदर्शी पदार्थ का बना होता है।


मानव नेत्र की संरचना


नेत्र के निम्नलिखित भाग होते हैं


(i) दृढ़ पटल मनुष्य का नेत्र एक खोखले गोले के समान होता है, जिसका व्यास 25 मिमी होता है। यह बाहर से एक दृढ़ तथा अपारदर्शी श्वेत परत से ढका रहता है। इस परत को दृढ़ पटल कहते हैं। ये नेत्र के भीतरी भागों की सुरक्षा तथा प्रकाश के अपवर्तन में सहायता करता है।


(ii) रक्तक पटल दृढ़ पटल के भीतरी पृष्ठ पर लगी काले रंग की झिल्ली को रक्तक पटल कहते हैं। रक्तक पटल आँख पर आपतित होने वाले प्रकाश का अवशोषण करता है तथा आन्तरिक परावर्तन को रोकता है। इस प्रकार, यह कैमरे के प्रकाशरोधी बॉक्स की भाँति कार्य करता है।


(iii) कॉर्निया दृढ़ पटल के सामने का भाग उभरा हुआ तथा पारदर्शी होता है, इसे कॉर्निया कहते हैं। नेत्र में प्रकाश इसी भाग से होकर प्रवेश करता है।


 (iv) परितारिका अथवा आइरिस कॉर्निया के पीछे एक रंगीन एवं अपारदर्शी झिल्ली का पर्दा होता है, जिसे आइरिस कहते हैं।





(v) पुतली अथवा नेत्र तारा आइरिस के बीच में एक छिद्र होता है, जिसे पुतली अथवा नेत्र तारा कहते हैं। यह गोल तथा काली दिखाई देती है। कॉर्निया से आया प्रकाश पुतली से होकर ही लेन्स पर पड़ता है। पुतली की यह विशेषता होती है कि अन्धकार में यह अपने आप बड़ी तथा अधिक प्रकाश में अपने आप छोटी हो जाती है। इस प्रकार नेत्र में सीमित प्रकाश ही जा पाता है जब प्रकाश की मात्रा कम होती है, तो आइरिस की माँसपेशियाँ किनारों की ओर सिकुड़कर पुतली को बड़ा कर देती है, जिससे लेन्स पर पड़ने वाले प्रकाश की मात्रा बढ़ जाती है और जब प्रकाश की मात्रा अधिक होती है, तो पुतली की माँसपेशियाँ ढीली हो जाती हैं, जिससे पुतली छोटी हो जाती है और लेन्स पर कम प्रकाश आपतित होता है। इस क्रिया को पुतली समायोजन कहते हैं। नेत्र में यह क्रिया स्वतः होती रहती है।


(vi) नेत्र लेन्स आइरिस के ठीक पीछे प्रोटीन का बना पारदर्शक तथा मुलायम पदार्थ का एक द्विउत्तल लेन्स होता है, जिसे नेत्र लेन्स कहते है तथा यह अभिसारी प्रकृति का होता है। लेन्स के पिछले भाग की वक्रता त्रिज्या छोटी तथा अगले भाग की वक्रता त्रिज्या बड़ी होती है। लेन्स के पदार्थ का अपवर्तनांक लगभग 1.44 होता है।



(vii) नेत्रोद तथा जलीय द्रव कॉर्निया तथा लेन्स के बीच के भाग को नेत्रोद कहते हैं। इसमें जल के समान एक नमकीन पारदर्शी द्रव भरा रहता है, जिसे जलीय द्रव (Aqueous humour) कहते हैं। इसका अपवर्तनांक 1.336 होता है। 


(Viii) काँचाभ कक्ष तथा काँचाभ द्रव नेत्र लेन्स तथा रेटिना के बीच के भाग को काँचाभ कक्ष कहते हैं। इसमें गाढ़ा, पारदर्शी एवं उच्च अपवर्तनांक वाला द्रव भरा रहता है, इसे काँचाभ द्रव (Vitreous humour) कहते हैं। 



(ix) रेटिना रक्तक पटल के नीचे तथा नेत्र के सबसे अन्दर की ओर एक पारदर्शी झिल्ली होती है जिसे रेटिना कहते हैं, इसे दृष्टि पटल भी कहा जाता है। यह प्रकाश सुग्राही होती है तथा इस पर दृष्टि तन्त्रिकाओं का जाल फैला रहता है। सभी वस्तुओं का प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनता है। दृष्टि तन्त्रिकाओं के द्वारा ही रेटिना पर बने प्रतिबिम्ब के रूप, रंग एवं आकार, आदि का ज्ञान मस्तिष्क को होता है। रेटिना के अन्दर प्रकाश सुग्राही में दो प्रकार की कोशिकाएँ पाई जाती हैं जो कोशिका प्रकाश की तीव्रता का आभास कराती हैं, वे दण्डाकार कोशिका कहलाती हैं। इसके विपरीत, जो कोशिका मनुष्य को वस्तु के रंग का आभास कराती हैं, वे शंक्वाकार कोशिका कहलाती हैं।


(x) पीत बिन्दु रेटिना के बीचो-बीच एक पीला भाग होता है, जहाँ पर बना हुआ प्रतिबिम्ब सबसे अधिक स्पष्ट दिखाई देता है, इसे पीत बिन्दु कहते हैं। इस भाग की सुग्राहिता सबसे अधिक होती है।


(xi) अन्ध बिन्दु जिस बिन्दु से दृष्टि नाड़ियाँ मस्तिष्क को जाती हैं, उस बिन्दु को अन्ध बिन्दु कहते हैं। इस बिन्दु पर प्रकाश का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इस बिन्दु पर प्रकाश की सुग्राहिता शून्य होती हैं, जिससे इस बिन्दु पर बनने वाला प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं देता।


प्रतिबिम्ब का बनना


किसी वस्तु से चलने वाली प्रकाश की किरणें सर्वप्रथम नेत्र के कॉर्निया पर आपतित होती हैं तथा अपवर्तित होकर क्रमशः जलीय द्रव, नेत्र लेन्स तथा काँचाभ द्रव में से होती हुई रेटिना पर पहुँचती हैं, जहाँ पर वस्तु का वास्तविक व उल्टा प्रतिबिम्ब बनता है। प्रतिबिम्ब के बनने का संदेश प्रकाश तन्त्रिकाओं द्वारा मस्तिष्क में पहुँचता है जिससे मस्तिष्क अनुभव के आधार पर यह प्रतिबिम्ब सीधा दिखाई देता है।






मानव नेत्र से सम्बन्धित पद


(i) समंजन मानव नेत्र द्वारा निकट या दूर की वस्तु पर फोकस हेतु नेत्र लेन्स की फोकस दूरी में समायोजन को समंजन कहते हैं। 


(ii) समंजन क्षमता नेत्र द्वारा फोकस दूरी को कम या ज्यादा करने की क्षमता को नेत्र की समंजन क्षमता कहते हैं। स्वस्थ मनुष्य के लिए समंजन क्षमता 4D होती है। 



(iii) निकट बिन्दु वह निकटतम बिन्दु, जिसे नेत्र बिना किसी तनाव के सुस्पष्ट देख सकता है, उसे नेत्र का निकट बिन्दु कहते हैं। इस बिन्दु से नेत्र तक की दूरी, स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी कहलाती है। स्वस्थ नेत्र के लिए यह दूरी 25 सेमी होती है।


(iv) दूर बिन्दु वह दूरस्थ बिन्दु, जिसे नेत्र बिना किसी तनाव के स्पष्ट देख सकता है, उसे नेत्र का दूर बिन्दु कहते हैं। इस बिन्दु से नेत्र तक की दूरी, स्पष्ट दृष्टि की अधिकतम दूरी कहलाती है। स्वस्थ नेत्र के लिए यह दूरी अनन्त होती है। 


(v) दृष्टि विस्तार नेत्र के निकट बिन्दु तथा दूर बिन्दु के बीच की दूरी को दृष्टि विस्तार कहते हैं। यह सामान्य नेत्र के लिए लगभग 25 सेमी से अनन्त तक होता है।



दृष्टि दोष तथा उनके निवारण


जब आँखों की समंजन क्षमता क्षीण हो जाती है तब वस्तुएँ स्पष्ट नहीं दिखाई देती हैं। इस स्थिति में वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना के आगे या पीछे कहीं भी बन सकता है। इसी दोष को दृष्टि दोष कहते हैं। मानव नेत्र में निम्नलिखित प्रकार के दृष्टि दोष होते हैं


1. निकट दृष्टि दोष


निकट दृष्टि दोष से पीड़ित व्यक्ति को निकट की वस्तुएँ तो स्पष्ट दिखाई देती हैं परन्तु दूर की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई नहीं देती हैं। इस दोषयुक्त नेत्र का दूर बिन्दु अनन्त पर न होकर पास आ जाता है। अतः व्यक्ति दूर बिन्दु से अधिक दूरी पर स्थित वस्तुओं को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता है।


कारण निकट दृष्टि दोष होने के निम्नलिखित दो कारण होते हैं


(1) नेत्र लेन्स की नकता का बढ़ जाना, जिससे उनकी फोकस दूरी कम हो जाती है।


 (2) नेत्र लेन्स के गोलक का व्यास बढ़ जाना।


निवारण निकट दृष्टि दोष को दूर करने के लिए उचित फोकस दूरी वाले अवतल लेन्स के चश्मे का प्रयोग किया जाता है।


2. दूर दृष्टि दोष


दूर दृष्टि दोष से पीड़ित व्यक्ति को दूर की वस्तुएँ तो स्पष्ट दिखाई देती हैं परन्तु निकट की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई नहीं देती हैं। इस दोषयुक्त नेत्र का बिन्दु 25 सेमी से अधिक दूर हो जाता है। अतः व्यक्ति को 25 सेमी तथा उससे निकट स्थित वस्तुएं स्पष्ट रूप से नहीं दिखाई देती हैं।


कारण दूर दृष्टि दोष होने के निम्नलिखित दो कारण होते हैं 


(1) नेत्र लेन्स की वक्रता का कम हो जाना, जिससे उसकी फोकस दूरी बढ़ जाती है।


(2) नेत्र की मांसपेशियों के क्षीण हो जाने से नेत्र गोलक के व्यास का कम हो जाना।


निवारण दूर दृष्टि दोष को दूर करने के लिए उचित फोकस दूरी वाले उत्तल लेन्स के चश्मे का प्रयोग किया जाता है।


3. जरा दूरदृष्टिता


आयु में वृद्धि के साथ-साथ नेत्र की माँसपेशियाँ दुर्बल होती जाती हैं जिस कारण नेत्र की समंजन क्षमता घट जाती है। जिससे व्यक्ति को दूर अथवा निकट या दोनों ही स्थानों की वस्तुएँ स्पष्ट रूपसे दिखाई नहीं देती हैं। इसे ही जरा दूरदृष्टिता कहते हैं।


कारण पक्ष्माभी मांसपेशियों की शक्ति में कमी तथा नेत्र लेन्स के लचीलेपन में कमी आ जाने के कारण नेत्र में जरा दूरदृष्टिता दोष हो जाता है।



 निवारण जरा दूरदृष्टिता को दूर करने के लिए द्वि-फोक्सी लेन्सो का उपयोग किया जाता है। द्वि-फोकसी लेन्सों में अवतल तथा उत्तल दोनों लेन्स होते हैं। चश्में के ऊपरी भाग में अवतल लेन्स होता है, जो दूर की वस्तुओं को स्पष्ट देखने में सहायता करता है तथा निचले भाग में उत्तल लेन्स होता है, जो निकट की वस्तुओं को स्पष्ट देखने में सहायता करता है।


4. मोतियाबिन्द


मोतियाबिन्द नेत्र की यह स्थिति है, जिसमें नेत्र लेन्स दूधिया तथा धुंधला हो जाता है। नेत्र लेन्स की ऊपरी सतह पर एक पर्त जम जाती है। सामान्यतया मनुष्यों में यह अधिक आयु होने पर होता है। इसके कारण पूर्णरूप से अथवा आंशिक रूप से दिखाई देना बन्द हो जाता है। इसका निवारण नेत्र के मोतियाबिन्द की शल्य चिकित्सा करके किया जा सकता है।


प्रिज्म से प्रकाश का अपवर्तन


किसी समाग पारदर्शी माध्यम की उस आकृति को प्रिज्म कहते हैं, जो किसी कोण पर झुके हुए दो समतल पृष्ठों से घिरा होता है। इसमें दो त्रिभुजाकार आधार और तीन आयताकार अपवर्तक पृष्ठ होते हैं। दो अपवर्तक पृष्ठों के मध्य कोण को प्रिज्म कोण A कहते हैं।




काँच के त्रिभुज प्रिज्म से प्रकाश का अपवर्तन


उपरोक्त आरेख में प्रिज्म के पृष्ठ AB पर एक प्रकाश किरण PQ वायु से काँच में प्रवेश कर रही है. प्रकाश किरण अपवर्तित होकर अभिलम्ब की ओर मुड़ जाती है। द्वितीय सतह ACC पर प्रकाश किरण कौंच से वायु में प्रवेश करती है। अतः प्रकाश किरण अभिलम्ब से दूर हट जाती है।


यहाँ, PQ आपतित किरण, MR निर्गत किरण, 2 आपतन कोण, Ze= निर्गत कोण, QM = अपवर्तित किरण, ZA- प्रिज्म कोण, 27 अपवर्तन कोण तथा 2D विचलन कोण



विचलन कोण (D)


आपतित किरण व निर्गत् किरण के बीच बना कोण विचलन कोण (D) कहलाता है।


कोण =कोण i +कोण e-A 



काँच के प्रिज्म द्वारा श्वेत प्रकाश का वर्ण विक्षेपण



प्रिज्म से गुजरने वाले श्वेत प्रकाश का अपने अवयवी रंगों में विभक्त होना। प्रकाश का वर्ण विक्षेपण कहलाता है। श्वेत प्रकाश के वर्ण-क्रम में मुख्य रूप से सात रंग दिखाई देते हैं तथा प्रिज्म के आधार की ओर से इन रंगों का क्रम इस प्रकार होता है. सबसे पहले नीचे से बैंगनी (Violet) फिर क्रमानुसार जामुनी (Indigo), नीला (Blue), हरा (Green), पीला (Yellow), नारंगी (Orange) तथा अन्त में लाल (Red)। रंगों के इस क्रम को अंग्रेजी के शब्द VIBGYOR या


हिन्दी के शब्द बैंजनीहपीनाला द्वारा याद रखा जा सकता है। आइसेक न्यूटन ने सर्वप्रथम काँच के प्रिज्म द्वारा प्रकाश का स्पेक्ट्रम सर्वप्रथम प्राप्त किया था।





वर्ण विक्षेपण का कारण


किसी भी पारदर्शी पदार्थ (जैसे-काँच) का अपवर्तनांक प्रकाश के रंग (अर्थात् उसकी तरंगदैर्ध्य) पर निर्भर करता है। अपवर्तनांक जितना अधिक होगा, प्रकाश किरण में विचलन उतना ही अधिक होगा। लाल रंग के लिए काँच का अपवर्तनांक न्यूनतम तथा बैंगनी रंग के लिए काँच का अपवर्तनांक अधिकतम होता है। तरंगदैर्ध्य समानुपाती वेग समानुपाती 1 /विक्षेपण


श्वेत प्रकाश का संयुग्मन


यदि हम किसी प्रिज्म पर सूर्य के प्रकाश की एक किरण डाले तथा पर्दे के स्थान पर एक दूसरा प्रिज्म उल्टा करके पहले प्रिज्म के पृष्ठ के रखे, तो दूसरे प्रिज्म से जो प्रकाश बाहर निकलता है, वह पुनः श्वेत हो समान्तर जाता है। इससे सिद्ध होता है कि श्वेत प्रकाश सात रंगों से मिलकर बनता है, प्रिज्म श्वेत प्रकाश को केवल उसके अवयवी रंगों में विभक्त करता है।




इन्द्रधनुष


प्रकाश के वर्ण विक्षेपण का एक प्राकृतिक उदाहरण इन्द्रधनुष का बनना है। कभी-कभी वर्षा के समय तथा उसके बाद जब धूप निकलती है, तो आकाश में रंगीन संकेन्द्रीय वृत्तीय चाप सूर्य के विपरीत दिखाई पड़ते हैं। यह रंगीन संरचना इन्द्रधनुष कहलाती है।



वायुमण्डल अपवर्तन


वायुमण्डल में गर्म वायु तथा ठण्डी वायु की परतें होती हैं तथा ठंडी वायु का अपवर्तनांक गर्म वायु की तुलना में थोड़ा अधिक होता है। वायुमण्डल की इन परतों के कारण प्रकाश में उत्पन्न अपवर्तन, वायुमण्डलीय अपवर्तन कहलाता है। वायुमण्डलीय अपवर्तन पर आधारित कुछ घटनाएँ निम्नलिखित हैं




(i) तारों का टिमटिमाना।


 (ii) तारों की स्थिति का वास्तविक स्थिति से ऊपर दिखाई देना।


(iii) ग्रहों का न टिमटिमाना। 


(iv) अग्रिम सूर्योदय तथा विलम्बित सूर्यास्त



बहुविकल्पीय प्रश्न 1 अंक



प्रश्न 1. मानव नेत्र द्वारा वस्तु का प्रतिबिम्ब बनता है अथवा मनुष्य की स्वस्थ नेत्र में प्रतिबिम्ब बनता है



अथवा मानव नेत्र जिस भाग पर किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब बनाते है वह कौन-सा भाग है?


 (a) कॉर्निया पर


(b) आइरिस पर


(c) पुतली पर


(d) रेटिना या दृष्टिपटल पर


उत्तर (d) मनुष्य की स्वस्थ नेत्र में वस्तुओं के वास्तविक प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनते हैं।


प्रश्न 2. मानव नेत्र में रेटिना पर बनने वाला प्रतिबिम्ब 



(a) सीधा होता है परन्तु उल्टा दिखाई देता है


(b) उल्टा होता है परन्तु सीधा दिखाई देता है 


(c) सीधा होता है परन्तु सीधा दिखाई देता है 


(d) उल्टा होता है उल्टा ही दिखाई देता है।


उत्तर (b) मानव नेत्र में रेटिना पर वस्तु का प्रतिबिम्ब उल्टा बनता है, परन्तु मस्तिष्क अनुभव के आधार पर उसका ज्ञान सीधे रूप में कर लेता है।


प्रश्न 3. अभिनेत्र लेन्स की फोकस दूरी में परिवर्तन किया जाता है। 


(a) पुतली द्वारा


(c) पक्ष्माभी द्वारा


(b) दृष्टिपटल द्वारा


 (d) परितारिका द्वारा


उत्तर (c) पक्ष्माभी द्वारा नेत्र लेन्स की फोकस दूरी को आवश्यकतानुसार परिवर्तित किया जाता है। 


प्रश्न 4. जब प्रकाश नेत्र में प्रवेश करता है तो अधिकांश अपवर्तन कहाँ होता है


(a) क्रिस्टलीय लेन्स पर


(c) परितारिका पर


(b) स्वच्छ मंडल (कॉर्निया) पर


(d) पुतली पर


उत्तर (b) प्रकाश एक पतली झिल्ली से होकर नेत्र में प्रवेश करता है। इस झिल्ली को कॉर्निया या स्वच्छ मंडल कहते हैं। प्रकाश का अधिकांश अपवर्तन इस स्वच्छ मण्डल पर होता है।


प्रश्न 5. मानव नेत्र अभिनेत्र लेन्स की फोकस दूरी को समायोजित करके विभिन्न दूरियों पर रखी वस्तुओं को फोकसित कर सकता है। ऐसा हो पाने का क्या कारण है?



(a) जरा दूरदृष्टिता 


(b) समंजन


(C) निकट-दृष्टि


(d) दीर्घ-दृष्टि


उत्तर (b) मांसपेशियों द्वारा नेत्र लेन्स की फोकस दूरी को आवश्यकतानुसार परिवर्तित करने की क्षमता को नेत्र की समंजन क्षमता कहते हैं।


प्रश्न 6. सामान्य दृष्टि के लिए स्पष्ट दृष्टि की अल्पतम दूरी कितनी होती है? 


अथवा स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी है


अथवा स्वस्थ नेत्र का निकट बिन्दु होता है


अथवा स्वस्थ आँखों के लिए स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी होती है 


(a) 25 मी।         (c) 25 सेमी


(b) 2.5 सेमी।        (d) 2.5 मी


उत्तर (c) स्वस्थ नेत्र के लिए स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी 25 होती है।


प्रश्न 7. स्वस्थ नेत्र के लिए दूर बिन्दु स्थित होता है 


 (a) 25 सेमी पर


(b) 50 सेमी पर


(c) 100 सेमी पर


(d) अनन्त पर



 उत्तर (d) स्वस्थ नेत्र के लिए दूर बिन्दु अनन्त पर स्थित होता है।





प्रश्न 8. कक्षा में सबसे पीछे बेंच पर बैठा कोई विद्यार्थी श्यामपट्ट पर लिखे अक्षरों को पढ़ सकता है, परंतु पाठ्य पुस्तक में लिखे अक्षरों को नहीं पढ़ पाता। निम्नलिखित में कौन-सा कथन सही है? 


(a) विद्यार्थी के नेत्र का निकट बिन्दु दूर हो गया है 


(b) विद्यार्थी के नेत्र का निकट बिन्दु उसके पास आ गया है


(c) विद्यार्थी के नेत्र का दूर बिन्दु उसके पास आ गया है 


(d) विद्यार्थी के नेत्र का दूर बिन्दु उससे दूर हो गया है। 


उत्तर (d) विद्यार्थी दूर की वस्तुएँ स्पष्ट देख पाता है, लेकिन निकट वस्तुएँ स्पष्ट नहीं देख पाता। अतः उसे दूर दृष्टि दोष है इस दोष में नेत्र का निकट बिन्दु नेत्र से दूर हो जाता है।


प्रश्न 9. निकट दृष्टि दोष से पीड़ित व्यक्ति का दूर बिन्दु स्थित होता है


(a) 25 सेमी पर


(b) 25 सेमी से कम दूरी पर


(C) अनन्त पर


 (d) अनन्त से कम दूरी पर



उत्तर (d) निकट दृष्टि दोष से पीड़ित मनुष्य को निकट की वस्तुएँ, तो स्पष्ट दिखाई देती हैं परन्तु दूर की वस्तुएँ स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देती अर्थात् नेत्र का दूर बिन्दु अनन्त पर न होकर पास आ जाता है। 


प्रश्न 10. निकट दृष्टि दोष से पीड़ित एक व्यक्ति को यह दोष दूर करने के लिए किस लेन्स या दर्पण का उपयोग करना चाहिए?


(a) अवतल लेन्स


(b) अवतल दर्पण 


(c) उत्तल लेन्स


(d) उत्तल दर्पण



उत्तर (a) निकट दृष्टि दोष को दूर करने के लिए एक ऐसे अवतल लेन्स के चश्मे का उपयोग करते हैं, जिसके द्वारा अनन्त से चलने वाली किरणें अवतल लेन्स से अपवर्तन के पश्चात् नेत्र के दूर बिन्दु से आती हुई प्रतीत होती हैं।


प्रश्न 11. दूर दृष्टि दोष के कारण प्रतिबिम्ब बनता है


(a) रेटिना पर 


(b) रेटिना से आगे 


(c) रेटिना के पीछे


(d) कहीं नहीं




उत्तर (c) दूर दृष्टि दोष के कारण अनन्त (दूर) की वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर न बनकर, उसके पीछे बनता है।




प्रश्न 12. जब श्वेत प्रकाश प्रिज्म में से गुजरता है, तो सर्वाधिक विचलन होता है। 



(a) लाल रंग का          (C) बैंगनी रंग का


(b) पीले रंग का।             (d) हरे रंग का




उत्तर (c) जब श्वेत प्रकाश प्रिज्म में से गुजरता है, तो सर्वाधिक विचलन बैंगनी रंग का होता है, क्योंकि बैंगनी रंग की तरंगदैर्ध्य सबसे कम होती है।


प्रश्न 13. काँच का अपवर्तनांक अधिकतम होता है


(a) लाल रंग के लिए।      (b) पीले रंग के लिए


(C) बैंगनी रंग के लिए       (d) हरे रंग के लिए


उत्तर (c) काँच का अपवर्तनांक बैंगनी रंग के लिए अधिकतम होता है।


अतिलघु उत्तरीय प्रश्न 2 अंक


प्रश्न 1. मनुष्य की आँख में रेटिना का क्या कार्य होता है?


उत्तर मनुष्य की आँख में किसी भी वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनता है तथा रेटिना पर बने प्रतिबिम्ब के रूप, रंग एवं आकार आदि का ज्ञान मस्तिष्क द्वारा होता है।



प्रश्न 2. नीचे दिए गए चित्र में 1, 2, 3 तथा 4 का नाम लिखो।




उत्तर

 1 रेटिना


3. पुतली


2. पक्ष्माभी माँसपेशियाँ 


4. नेत्र लेन्स


प्रश्न 3. नेत्र के रेटिना पर दो प्रकाश संवेदी सेल कौन-से हैं? इनमें से कौन-सा नेत्र के रंग तथा प्रकाश की तीव्रता के लिए उत्तरदायी है? होती हैं


उत्तर मानव नेत्र में निम्न दो प्रकार की कोशिकाएं उत्तरदायी (i) दण्डाकार कोशिकाएँ (ii) शंक्वाकार कोशिकाएँ


 शंक्वाकार कोशिकाएँ प्रकाश के रंग के लिए तथा दण्डाकार कोशिकाएँ प्रकाश की तीव्रता के लिए सुग्राही होती हैं।



प्रश्न 4. जब कोई व्यक्ति तीव्र प्रकाश से कम प्रकाश के कमरे में प्रवेश करता है, तो वह कुछ समय के लिए किसी वस्तु को देख नहीं पाता है, लेकिन कुछ समय पश्चात् सभी वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई देने लगती हैं। स्पष्ट कीजिए, ऐसा क्यों होता है?


अथवा जब सिनेमा हॉल में बाहर से सूर्य के तीव्र प्रकाश से अन्दर जाते हैं तो कुछ समय के लिए वस्तुएँ दिखाई नहीं देती। संक्षेप रूप में व्याख्या कीजिए।


उत्तर – जब हम बाहर तीव्र प्रकाश से अन्दर हॉल में आते हैं, तो पुतली का आकार कम होता है लेकिन सिनेमा हॉल में वस्तुओं को देखने के लिए अधिक प्रकाश की आवश्यकता होती है। इस कारण पुतली के समायोजन में थोड़ा समय लगता है।


प्रश्न 5. स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी से क्या तात्पर्य है?


अथवा सामान्य नेत्र 25 सेमी से निकट रखी वस्तुओं को स्पष्ट क्यों नहीं देख पाते?



उत्तर वह निकटतम बिन्दु, जिसे नेत्र अपनी अधिकतम समंजन क्षमता लगाकर स्पष्ट देख सकता है, नेत्र का निकट बिन्दु कहलाता है। नेत्र से इस निकट बिन्दु की दूरी को स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी कहते हैं। स्वस्थ नेत्र के लिए स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी 25 सेमी होती है। इसलिये सामान्य नेत्र 25 सेमी से निकट रखी वस्तु को स्पष्ट नहीं देख पाते।




 प्रश्न 6. जब हम नेत्र से किसी वस्तु की दूरी को बढ़ा देते हैं, तो नेत्र पर प्रतिबिम्ब-दूरी का क्या प्रभाव पड़ता है? 


उत्तर नेत्र से किसी वस्तु की दूरी 25 सेमी से कम होने पर वस्तु घुंधली दिखाई पड़ती है, जबकि 25 सेमी से दूर अनन्त तक वह स्पष्ट दिखाई दे सकती है। 


प्रश्न 7. निकट दृष्टि दोष किसे कहते हैं?


अथना निकट दृष्टि दोष से आप क्या समझते हैं?


अथवा निकट दृष्टि दोष क्या है?


उत्तर निकट दृष्टि दोष से पीड़ित व्यक्ति को निकट की वस्तुएँ तो स्पष्ट दिखाई देती हैं परन्तु दूर की वस्तु स्पष्ट दिखाई नहीं देती है अर्थात् नेत्र का दूर बिन्दु अनन्त पर न होकर कुछ पास आ जाता है।


 प्रश्न 8. अंतिम पंक्ति में बैठे किसी विद्यार्थी को श्यामपट्ट पर लिखा हुआ पढ़ने में कठिनाई होती है। यह विद्यार्थी किस दृष्टिदोष से पीड़ित है? इसे किस प्रकार संशोधित किया जा सकता है? 


अथवा एक छात्र कक्षा में श्यामपट्ट पर लिखे अक्षरों को ठीक से नहीं देख पा रहा है, तो इसकी आँख में कौन-सा दोष है और इसको कैसे दूर किया जा सकता है?


 उत्तर यह विद्यार्थी निकट दृष्टिदोष से पीड़ित है। इसे आवश्यक क्षमता के अवतल लेन्स के प्रयोग से ठीक किया जा सकता है।


प्रश्न 9. नेत्र गोलक का आकार कैसे परिवर्तित होता है, निम्न स्थितियों के लिए 


(i) निकट दृष्टि दोष में (ii) तथा दूर दृष्टि दोष में ? प्रत्येक स्थिति में नेत्र गोलक के आकार की तुलना सामान्य आँख के गोलक से कीजिए। प्रत्येक स्थिति में गोलक के आकार का परिवर्तन प्रतिबिम्ब के आकार को किस प्रकार प्रभावित करता है?


उत्तर


 (i) निकट दृष्टि दोष से पीड़ित नेत्र के गोलक का आकार सामान्य नेत्र के गोलक से बड़ा होता है। इस कारण, लेन्स तथा रेटिना के मध्य की दूरी बढ़ जाती है इसके परिणामस्वरूप प्रतिबिम्ब रेटिना के सामने आगे बनता है।



(ii) दूर दृष्टि दोष से पीड़ित व्यक्ति के नेत्र गोलक का आकार सामान्य नेत्र गोलक से कम होता है इस कारण नेत्र लेन्स तथा रेटिना के मध्य की दूरी घट जाती है। अतः प्रतिबिम्ब रेटिना के पीछे स्थित होता है।




प्रश्न 10. दूर दृष्टि दोष क्या है? इसे दूर करने के लिए किस प्रकृति का लेन्स प्रयुक्त किया जाता है? 


अथवा दूर दृष्टि दोष क्या है? इस दोष को दूर करने के लिए क्या करना चाहिए?


उत्तर दूर दृष्टि दोष से पीड़ित व्यक्ति को दूर की वस्तुएँ तो स्पष्ट दिखाई देती हैं परन्तु निकट की वस्तुएँ स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देती है अर्थात् नेत्र का निकट बिन्दु 25 सेमी से अधिक हो जाता है। इस दोष को दूर करने हेतु उचित दूरी के उत्तल लेन्स का उपयोग किया जाता है। 


प्रश्न 11. एक व्यक्ति के चश्में में उत्तल लेन्स लगा है, बताइए उस व्यक्ति की आँख में कौन-सा दोष है?


उत्तर – यदि व्यक्ति के चश्में में उत्तल लेन्स लगा है, तो व्यक्ति के नेत्र में दूर दृष्टि दोष होगा।



प्रश्न 12. एक व्यक्ति के चश्में के ऊपरी भाग में अवतल लेन्स तथा निचले भाग में उत्तल लेन्स लगा है। मनुष्य की आँख में कौन-कौन-से दोष हैं?


अथवा एक व्यक्ति के द्वि-फोकस दूरी वाले लेन्स के ऊपरी भाग में अवतल लेन्स तथा निचले भाग में उत्तल लेन्स लगा है। उसके नेत्र में कौन-कौन से दोष हैं?



उत्तर – इस प्रकार के व्यक्ति की आँखों में जरा दूर दृष्टिता दोष होता है। इस दोष के निवारण हेतु द्वि-फोकसी (अवतल तथा उत्तल) लेन्स का उपयोग करते हैं। 



प्रश्न 13. क्यों दूर दृष्टि दोष से पीड़ित छात्र, जब दूर की वस्तुओं को देखता है, तो अपना चश्मा उतार लेता है? 


उत्तर – दूर दृष्टि दोष से पीड़ित छात्र, सामान्य दूर बिन्दु प्राप्त कर सकता है। यदि वह चश्में में उत्तल लेन्स का उपयोग करता है, तो उसकी अभिसरण की क्षमता बढ़ जाती है और दूरस्थ बिम्ब से समान्तर आने वाली प्रकाश की किरणें, रेटिना से पहले ही फोकसित हो जाती हैं। इस कारण उसे दूरस्थ वस्तुएँ धुंधली दिखाई देती है। अतः उसे अपना चश्मा उतारकर दूरस्थ वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई देती है। 


 प्रश्न 14. नेत्र में क्या परिवर्तन किए जाए कि यह भिन्न दूरियों पर स्थित बिम्बों को फोकसित कर सके?


 अथवा पक्ष्माभी माँसपेशियों का आँख के समंजन में क्या योगदान है? स्पष्ट कीजिए। 


अथवा हम पास की वस्तुओं और दूर की वस्तुओं को भी देखने योग्य कैसे बनाते हैं?




उत्तर – नेत्र को भिन्न दूरियों पर स्थित बिम्बों को फोकसित करने के लिए पक्ष्माभी माँसपेशियों में तनाव को परिवर्तित करना पड़ेगा। जब माँसपेशियाँ आराम की स्थिति में होती हैं, तो नेत्र लेन्स पतला हो जाता है तथा इसकी फोकस दूरी बढ़ जाती है तथा दूरस्थ बिम्बों को यह स्पष्ट देखने में सक्षम होती है। जब समीप स्थित बिम्ब को देखा जाता है, तो पक्ष्माभी माँसपेशियाँ सिकुड़ जाती हैं तथा लेन्स मोटा हो जाता है और इसकी फोकस दूरी कम हो जाती है।




प्रश्न 15. बहुत कम प्रकाश में हम वस्तुओं को देख सकते हैं, लेकिन उनके रंगों की पहचान नहीं कर सकते हैं। स्पष्ट कीजिए, क्यों?


उत्तर धीमें प्रकाश में रेटिना के केवल दण्डाकार कोशिकाएँ ही प्रभावी होते हैं। शंक्वाकार कोशिकाएँ अप्रभावी रहते हैं। दण्डाकार कोशिकाएँ रंगों में विभेदन नहीं कर पाते अर्थात् वे रंगों के लिए संवेदी नहीं हैं। अतः धीमे प्रकाश में वस्तुएँ तो दिखाई देती हैं लेकिन उनके रंगों में विभेदन नहीं हो पाता है।



प्रश्न 16. प्रिज्म से श्वेत प्रकाश के गुजरने पर न्यूनतम व अधिकतम विचलन किन रंगों का होता है?


उत्तर प्रिज्म से श्वेत प्रकाश के गुजरने पर न्यूनतम विचलन लाल रंग के प्रकाश का होता है तथा अधिकतम विचलन बैंगनी रंग के प्रकाश का होता है।



प्रश्न 17. एक किरण आरेख द्वारा प्रिज्म से श्वेत प्रकाश के विक्षेपण को समझाइए।




उत्तर


प्रश्न 18. जब एक श्वेत प्रकाश की किरण प्रिज्म से गुजरती है, तो यह सात रंगों में विभक्त हो जाती है। हम ये रंग क्यों प्राप्त करते हैं? चित्र में Xx स्पेक्ट्रम के सीमान्त रंगों को व्यक्त करते हैं। X Y की पहचान कीजिए।



उत्तर (i) प्रकाश के विभिन्न रंग भिन्न कोणों से विचलित होते हैं अर्थात् प्रिज्म के अन्दर विभिन्न चाल से गमन करते हैं।


(ii) y- लाल, X- बैंगनी



प्रश्न 19. आकाश में इन्द्रधनुष किन घटनाओं के कारण बनता है? इन घटनाओं को सही क्रम में लिखो । 


उत्तर – इन्द्रधनुष की रचना में प्रकाश का अपवर्तन, प्रकाश का प्रकीर्णन तथा आन्तरिक परावर्तन की घटनाएँ क्रमानुसार घटित होती हैं।



            लघु उत्तरीय प्रश्न 4 अंक


प्रश्न 1. मानव नेत्र की समंजन क्षमता को परिभाषित कीजिए।


(2019, 2016)


अथवा नेत्र की समंजन क्षमता का क्या अर्थ है? (2015, 13, 11, 04)


(2016)


अथवा आँख की समंजन क्षमता से आप क्या समझते हैं? उत्तर जब हम अनन्त पर स्थित किसी वस्तु को देखते हैं, तो नेत्र पर गिरने वाली समान्तर किरणे नेत्र लेन्स द्वारा रेटिना पर फोकस हो जाती हैं और नेत्र को वस्तु स्पष्ट दिखाई देती है [ चित्र (a)]। इस स्थिति में माँसपेशियाँ ढीली रहती हैं तथा नेत्र लेन्स की फोकस दूरी काफी अधिक होती है। जब नेत्र किसी समीप की वस्तु को देखता हैं, तो माँसपेशियाँ सिकुड़कर लेन्स के तलों की वक्रता त्रिज्याओं को छोटा कर देती है। इससे नेत्र लेन्स की फोकस दूरी कम हो जाती है और वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिम्ब पुनः रेटिना पर बन जाता है।  

नेत्र की इस प्रकार फोकस दूरी परिवर्तित करने की क्षमता को समंजन क्षमता कहते हैं।






प्रश्न 2. निकट दृष्टि दोष किसे कहते हैं? इस दोष का निवारण किस प्रकार किया जाता है? किरण आरेख द्वारा स्पष्ट कीजिए। 


अथवा निकट दृष्टि दोष क्या है? इस दोष के क्या कारण हैं? इनका निवारण कैसे किया जाता है? 



उत्तर निकट दृष्टि दोष इस दोष से पीड़ित मनुष्य को पास की वस्तुएँ तो स्पष्ट दिखाई देती हैं परन्तु एक निश्चित दूरी से आगे की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई नहीं देती हैं अर्थात् नेत्र का दूर बिन्दु अनन्त पर न होकर पास आ जाता है। चित्र में अनन्त से आने वाली किरणें दृष्टि पटल पर फोकस न होकर दृष्टि पटल से पहले ही बिन्दु P पर फोकस हो गई हैं इसलिए दृष्टि पटल पर स्पष्ट प्रतिबिम्ब नहीं बनता है।



निकट दृष्टि दोष के कारण इस दोष के दो कारण हैं


 (i) नेत्र लेन्स के पृष्ठों की वक्रता बढ़ जाना जिससे फोकस दूरी कम हो जाती है।


(ii) नेत्र के गोले का व्यास बढ़ जाना अर्थात् नेत्र लेन्स व रेटिना के बीच की दूरी का बढ़ जाना।



निवारण इस प्रकार के दोष को दूर करने के लिए एक ऐसे अवतल लेन्स का प्रयोग करते हैं कि अनन्त से चलने वाली किरणें अवतल लेन्स से अपवर्तन के पश्चात् नेत्र के दूर बिन्दु F से आती प्रतीत होती हैं। इससे ये किरणें नेत्र द्वारा अपवर्तित होकर रेटिना के पीत बिन्दु R पर मिल जाती हैं। इस प्रकार, अनन्त पर रखी वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर स्पष्ट बन जाता है और नेत्र को वस्तु स्पष्ट दिखाई देने लगती है।


प्रश्न 3. दूर दृष्टि दोष क्या है? इस दोष के क्या कारण हैं? इनका निवारण कैसे किया जाता है?


अथवा दूर दृष्टि दोष किसे कहते हैं? इस दोष का निवारण किस प्रकार किया जाता है। किरण आरेख द्वारा स्पष्ट कीजिए।


अथवा दूर दृष्टि दोष क्या है? इसका क्या कारण है? इस दोष के निवारण करने का सचित्र वर्णन कीजिए।



उत्तर – दूर दृष्टि दोष इस दोष से युक्त नेत्र द्वारा मनुष्य को दूर की वस्तुएँ तो स्पष्ट से दिखाई देती हैं, परन्तु पास की वस्तुएं स्पष्ट दिखाई नहीं देती हैं अर्थात् नेत्र का निकट बिन्दु 25 सेमी से अधिक दूर हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को पढ़ने के लिए पुस्तक 25 सेमी से अधिक दूर रखनी पड़ती है। इस दोष से समीप की वस्तु का प्रतिबिम्ब दृष्टि पटल R पर न बनकर उसके पीछे बनता है। चित्र में वस्तु का प्रतिबिम्ब दृष्टि पटल पर न बनकर उसके पीछे बिन्दु P पर बना है।





दूर दृष्टि दोष के कारण इस दोष के दो कारण हैं


(i) नेत्र लेन्स की वक्रता का कम हो जाना, जिससे फोकस दूरी बढ़ जाती है।


 (ii) नेत्र की माँसपेशियों के क्षीण हो जाने से नेत्र गोलक के व्यास का कम हो जाना।



निवारण इस दोष को दूर करने के लिए एक ऐसे उत्तल लेन्स का प्रयोग करते हैं जिससे दोषयुक्त नेत्र से 25 सेमी की दूरी पर रखी वस्तु से चलने वाली किरणें उत्तल लेन्स से अपवर्तन के पश्चात् नेत्र के निकट बिन्दु N से आती हुई प्रतीत होती हैं। इससे ये किरणें नेत्र से अपवर्तित होकर रेटिना के पीत बिन्दु R पर मिल जाती हैं। इस प्रकार वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर बन जाता है और नेत्र को वस्तु स्पष्ट दिखाई देने लगती है।



प्रश्न 4. इन्द्रधनुष का निर्माण किस प्रकार होता है? समझाइए अथना हमें आकाश में इन्द्रधनुष केवल वर्षा के पश्चात् ही क्यों दिखाई। देता है? 


उत्तर प्रकाश के वर्ण विशेषण का एक प्राकृतिक उदाहरण इन्द्रधनुष का बनना है। कभी-कभी वर्षा के समय तथा उसके बाद जब धूप निकलती है, तो आकाश में रंगीन संकेन्द्रीय वृत्तीय चाप सूर्य के विपरीत दिखाई पड़ते हैं। यह रंगीन संरचना इन्द्रधनुष कहलाती है।



वर्षा के बाद कुछ बूंदें वायुमण्डल में रह जाती हैं। ये बूँदें प्रिज्म की भाँति कार्य करती हैं। जब प्रकाश की कोई किरण बिन्दु Q पर बूंद में प्रवेश करती है, तब इसका वर्ण विक्षेपण होता है। उसी बूँद की दूसरी ओर की सतह पर बिन्दु R पर प्रकाश का आन्तरिक परावर्तन होता है।


आन्तरिक परावर्तन के पश्चात् प्रकाश किरण बिन्दु s पर पुनः विरल (वायु) माध्यम में प्रवेश कर जाती है। जिसके कारण आकाश में एक प्राकृतिक संकेन्द्रीय वृत्तीय वर्णक्रम बनता है। इन्द्रधनुष में बाहरी चाप का रंग लाल तथा भीतरी चाप का रंग बैंगनी होता है।


प्रश्न 5. किस कारण तारे वास्तविक स्थिति से ऊपर दिखाई देते हैं? समझाइए ।


 उत्तर – वायुमण्डलीय अपवर्तन के कारण तारे वास्तविक स्थिति से ऊपर दिखाई देते हैं। जब सूर्य से आने वाला प्रकाश, पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करता है, तो वायुमण्डल में अपवर्तन के कारण प्रत्येक बार प्रकाश की किरण अभिलम्ब की ओर झुक जाती है, क्योकि वायुमण्डल की ऊपरी परते विरल तथा नीचे की परतें सघन होती जाती है। इस कारण, तारों की वास्तविक स्थिति उसकी आभासी स्थिति से भिन्न होती है।






Up ncert class 10 science chapter 11 electricity full solutions notes in hindi



कक्षा 10वी विज्ञान अध्याय 11 विद्युत



Class 10 science chapter electricity notes in hindi



 




वैद्युत आवेश


वैद्युत आवेश पदार्थ का वह गुण है, जिसके कारण वह वैद्युत व चुम्बकीय प्रभाव उत्पन्न या अनुभव करता है।


आवेश,  q=ne


जहाँ, n = इलेक्ट्रॉनों की संख्या, e = इलेक्ट्रॉन पर आवेश है।


वैद्युत आवेश का मात्रक कूलॉम होता है।


वैद्युत आवेश दो प्रकार के होते हैं 


(i) ऋणात्मक वैद्युत आवेश 


(ii) धनात्मक वैद्युत आवेश


#.एक इलेक्ट्रॉन पर आवेश 1.6 x 10-¹⁹ कूलॉम ऋणावेश के बराबर होता है। अतः इलेक्ट्रॉन की कमी से वस्तु धनावेशित तथा इलेक्ट्रॉन की अधिकता से वस्तु ॠणावेशित होती है।


#. एक प्रोटॉन पर आवेश 1.6 × 10-¹⁹ कूलॉम धनावेश के बराबर होता है।




वैद्युत धारा


किसी चालक में वैद्युत आवेश के प्रवाह की दर को वैद्युत धारा कहते हैं। इसे I से प्रदर्शित करते हैं। यदि किसी चालक में t समय में q आवेश प्रवाहित हो, तो चालक में उत्पन्न 


वैद्युत धारा (I) = आवेश (q)/समय (t)


आवेश (q)  = ne




जहाँ, n = चालक में प्रवाहित इलेक्ट्रॉनों की संख्या है।


वैद्युत धारा का मात्रक कूलॉम/सेकण्ड तथा SI मात्रक ऐम्पियर होता है।


1 मिलीऐम्पियर = 10-³ ऐम्पियर


 1 माइक्रोऐम्पियर = 10-⁶ ऐम्पियर


#.किसी चालक में धारा का प्रवाह मुक्त इलेक्ट्रॉन के कारण होता है।


#.किसी परिपथ में धारा की दिशा धनात्मक आवेश के प्रवाह की दिशा में या इलेक्ट्रॉन के प्रवाह के विपरीत दिशा में होती है। 



अमीटर


किसी परिपथ में वैद्युत धारा की माप अमीटर नामक उपकरण से की जाती है व इसे परिपथ में श्रेणीक्रम में लगाया जाता है। इसका प्रतिरोध निम्न होता है।


वैद्युत विभव


एकांक धनावेश को अनन्त से किसी बिन्दु तक लाने में किया गया कार्य, उस बिन्दु का वैद्युत विभव कहलाता है। इसे V से प्रदर्शित करते हैं। यदि किसी आवेश को अनन्त से किसी बिन्दु तक लाने में W कार्य किया जाए, तो उस बिन्दु का वैद्युत विभव,


 V = w/q


वैद्युत विभव (V) का मात्रक जूल/कूलॉम अथवा वोल्ट होता है।





वोल्ट की परिभाषा


 यदि अनन्त से किसी बिन्दु तक 1 कूलॉम आवेश लाने में 1 जूल कार्य किया जाए, तो उस बिन्दु का वैद्युत विभव 1 वोल्ट होगा। 



1 मिलीवोल्ट = 10-³वोल्ट


1 माइक्रोवोल्ट = 10-⁶ वोल्ट


1 किलोवोल्ट = 10³ वोल्ट 1 मेगावोल्ट = 10⁶ वोल्ट




विभवान्तर


किसी वैद्युत परिपथ के दो बिन्दुओं के बीच एकांक आवेश को एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक ले जाने में किए गए कार्य को उन बिन्दुओं के बीच विभवान्तर कहते हैं। इसे V से प्रदर्शित करते हैं। यदि किसी चालक में आवेश q को एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक ले जाने में W जूल कार्य करना पड़े, तो उन बिन्दुओं के बीच विभवान्तर,


 V = W/q


विभवान्तर का मात्रक जूल/कूलॉम अथवा वोल्ट होता है।


वोल्टमीटर


किसी परिपथ में विभवान्तर की माप वोल्टमीटर नामक उपकरण से की जाती है व इसे परिपथ में समान्तर क्रम में लगाया जाता है। इसका प्रतिरोध उच्च होता है।


वैद्युत परिपथ


वैद्युत धारा के प्रवाह के बन्द मार्ग को वैद्युत परिपथ कहते हैं। प्रत्येक वैद्युत परिपथ में विभिन्न अवयव; जैसे-वैद्युत उपकरण, स्विच तार, आदि लगे होते हैं। किसी वैद्युत परिपथ का ऐसा आरेख, जो उसमें लगे उपकरणों व धारा स्रोत के विभिन्न सम्बन्धों को चिन्हों द्वारा प्रदर्शित करता है, वैद्युत परिपथ आरेख कहलाता है। इन अवयवों को परिपथ में परिपथ आरेख के अनुसार व्यवस्थित किया जाता है।





ओम का नियम


ओम के नियम के अनुसार, यदि किसी चालक की भौतिक अवस्थाएँ (जैसे-लम्बाई, परिच्छेद का क्षेत्रफल, चालक का पदार्थ व ताप) अपरिवर्तित रहें, तो चालक में बहने वाली धारा, चालक के सिरों के विभवान्तर के अनुक्रमानुपाती होती है। यदि किसी चालक के सिरों पर लगा विभवान्तर V तथा उसमें बहने वाली धारा I हो,


तब


V = RI अथवा I = V/ R


जहाँ, R एक नियतांक है, जिसका मान चालक के आकार (लम्बाई व अनुप्रस्थ-काट के क्षेत्रफल), पदार्थ व ताप पर निर्भर करता है। इसे चालक का वैद्युत प्रतिरोध कहते हैं।


 ओम का नियम केवल धात्विक चालकों तथा मिश्रधातु चालकों के लिए ही सत्य है।





यदि विभवान्तर V और इसके संगत धारा I के मध्य ग्राफ खींचा जाता है, तो ग्राफ में एक सरल रेखा प्राप्त होती है, जोकि मूलबिन्दु से जाती है।



वैद्युत प्रतिरोध


किसी चालक का वह गुण, जिसके कारण वह वैद्युत धारा के प्रवाह का विरोध करता है, चालक का प्रतिरोध अथवा वैद्युत प्रतिरोध कहलाता है। इसे R से व्यक्त करते हैं।


अर्थात्


प्रतिरोध (R) = विभवान्तर (V) /धारा (I)


प्रतिरोध का मात्रक वोल्ट / ऐम्पियर अथवा ओम होता है।


1 मेगाओम = 10⁶ ओम, 1 माइक्रोओम = 10-⁶


 ओम किसी चालक का प्रतिरोध लम्बाई, क्षेत्रफल, ताप व चालक के पदार्थ पर निर्भर करता है। ताप व लम्बाई बढ़ाने पर प्रतिरोध बढ़ता है, जबकि क्षेत्रफल बढ़ाने पर प्रतिरोध घटता है।


प्रतिरोध को प्रभावित करने वाले कारक



 वैद्युत प्रतिरोध निम्न कारकों पर निर्भर करता है


(i) लम्बाई किसी भी चालक तार का प्रतिरोध R. चालक की लम्बाई l के अनुक्रमानुपाती होता है अर्थात्


अतः हम कह सकते हैं कि किसी चालक की लम्बाई में वृद्धि होने पर चालक के प्रतिरोध में भी वृद्धि होती है। 


(ii) क्षेत्रफल किसी भी चालक तार का वैद्युत प्रतिरोध R चालक के अनुप्रस्थ- काट के क्षेत्रफल A के व्युत्क्रमानुपाती होता है 


अर्थात्


अतः हम कह सकते हैं कि किसी चालक के अनुप्रस्थ-काट के क्षेत्रफल A में वृद्धि होने पर चालक का प्रतिरोध R कम होता है। यही कारण है कि मोटे तार का प्रतिरोध कम व पतले तार का प्रतिरोध अधिक होता है।


(iii) पदार्थ की प्रकृति यदि समान लम्बाई व समान अनुप्रस्थ-काट के क्षेत्रफल के तारों को भिन्न-भिन्न पदार्थों द्वारा निर्मित किया जाता है, तो दोनों चालक तारों का प्रतिरोध भी भिन्न-भिन्न होता है।



विशिष्ट प्रतिरोध या प्रतिरोधकता


किसी चालक का प्रतिरोध R, उसकी लम्बाई l के अनुक्रमानुपाती तथा समान अनुप्रस्थ-काट के क्षेत्रफल A के व्युत्क्रमानुपाती होता है।


अर्थात्


 R = ρl/A अथवा ρ =RA/l


जहाँ, ρ एक नियतांक है, जिसका मान केवल चालक तार के पदार्थ पर निर्भर करता है। इसे पदार्थ का विशिष्ट प्रतिरोध अथवा विशिष्ट प्रतिरोधकता कहते हैं।


अतः किसी चालक के पदार्थ का विशिष्ट प्रतिरोध, उस पदार्थ के 1 मी लम्बे व 1 मी? अनुप्रस्थ-काट के क्षेत्रफल वाले तार के वैद्युत प्रतिरोध के बराबर होता है। विशिष्ट प्रतिरोध का मात्रक ओम-मी अथवा ओम-सेमी होता है।


प्रतिरोधों का संयोजन


संयोजन के प्रकार



दैनिक जीवन में समान्तर क्रम संयोजन की उपयोगिता


समान्तर क्रम संयोजन का दैनिक जीवन में बहुत अधिक लाभ है, क्योंकि घरों अथवा कार्यालयों में वैद्युत परिपथों का प्रतिरोध भिन्न होता है तथा उनके विभिन्न मान की धारा, प्रचालन के लिए चाहिए। समान्तर क्रम संयोजन में परिणामी प्रतिरोध का मान कम होता है। अतः उनकी आवश्यकता के अनुसार, धारा के मान का वितरण हो जाता है।



वैद्युत ऊर्जा


किसी चालक में वैद्युत आवेश प्रवाहित होने के कारण जो ऊर्जा व्यय होती है, उसे वैद्युत ऊर्जा कहते हैं।


अतः वैद्युत ऊर्जा, W = विभवान्तर x आवेश


W = V x q जूल किसी चालक में सेकण्ड t में व्यय वैद्युत ऊर्जा,


W = V.I.t जूल यदि चालक का प्रतिरोध R ओम है, तो व्यय वैद्युत ऊर्जा, W = I²Rt जूल


[ V = IR] [ओम के नियम से


वैद्युत धारा का ऊष्मीय प्रभाव


वैद्युत धारा के प्रवाह से किसी चालक तार के ताप बढ़ने की घटना को वैद्युत धारा का ऊष्मीय प्रभाव कहते हैं।

इसे जूल का ऊष्मीय प्रभाव कहते हैं।



 इस नियम के अनुसार प्रतिरोध में उत्पन्न ऊष्मा


(i) प्रतिरोध में प्रवाहित धारा के वर्ग के समानुपाती होती है।


(ii) प्रतिरोध के समानुपाती होती है।


(iii) उस समय के समानुपाती होती है, जिस समय के लिए धारा प्रतिरोध में प्रवाहित होती है।


वैद्युत ऊर्जा के विभिन्न रूपों में सूत्र निम्नलिखित हैं


H = I²Rt = V.I.t = V² t/R जूल


धारा के ऊष्मीय प्रभाव का उपयोग वैद्युत बल्ब व वैद्युत में किया जाता है।




इलेक्ट्रॉन-वोल्ट


जब कोई इलेक्ट्रॉन 1 वोल्ट के विभवान्तर द्वारा त्वरित होता है, तो उसके द्वारा अर्जित ऊर्जा 1 इलेक्ट्रॉन-वोल्ट कहलाती है।


1 इलेक्ट्रॉन-वोल्ट (eV) = 1.6 x 10-¹⁹ जूल




वैद्युत सामर्थ्य अथवा वैद्युत शक्ति


किसी वैद्युत परिपथ में वैद्युत ऊर्जा के व्यय होने की दर को वैद्युत सामर्थ्य अथवा वैद्युत शक्ति कहते हैं। इसे P से प्रदर्शित करते हैं।


वैद्युत सामर्थ्य, P  = ऊर्जा / समय


यदि किसी वैद्युत परिपथ में सेकण्ड में W जूल ऊर्जा व्यय होती है, तो परिपथ की


वैद्युत सामर्थ्य, P = W / t


इसका मात्रक जूल/सेकण्ड अथवा वाट होता है।


यदि W /t = 1 जूल/सेकण्ड है, तो P = 1 वाट


वाट की परिभाषा यदि किसी वैद्युत परिपथ में 1 जूल/सेकण्ड की दर से ऊर्जा व्यय हो रही है, तो उस परिपथ की वैद्युत सामर्थ्य 1 वाट होगी।


P = VI वाट                           [: W = Vit]



P = V²/R= वाट                      [: W = V²t/R



P = I² R वाट                           [:: W = I²Rt]



1 किलोवाट 10³ वाट, 1 मेगावाट = 10⁶ वाट 


यान्त्रिकी में सामर्थ्य का मात्रक अश्वशक्ति होता है। 1 अश्वशक्ति = 746 वाट




किलोवाट घण्टा (kWh)


किसी परिपथ में जुड़े 1 किलोवाट के उपकरण में 1 घण्टे में व्यय होने वाली वैद्युत ऊर्जा 1 किलोवाट-घण्टा अथवा 1 यूनिट कहलाती है।




'किलोवाट घण्टा अथवा यूनिटों की संख्या

:     ( वाट x घण्टे)/1000


(वोल्ट ⨯ ऐम्पियर x घण्टे)/1000


1 किलोवाट घण्टा = 3.6 x 10⁶ जूल,


1 मेगावाट-घण्टा = 10⁶ वाट-घण्टा



       बहुविकल्पीय प्रश्न 1 अंक


प्रश्न 1. एक इलेक्ट्रॉन पर आवेश होता है



(a) - 9.1x10-¹⁹ कूलॉम


(b) – 1.6 x 10-¹⁹ कूलॉम


(c) + 9.1 x 10-¹⁹ कूलॉम


(d) + 1.6 ×10-¹⁹ कूलॉम


उत्तर (b) इलेक्ट्रॉन ऋणात्मक वैद्युत आवेशित कण है, जिस पर आवेश - 1.6 × 10-¹⁹ कूलॉम के बराबर होता है।


प्रश्न 2. एक प्रोटॉन पर वैद्युत आवेश की मात्रा होती है



(a) 1.0x10-19 कूलॉम


(c) 1.6 × 10¹⁹ कूलॉम


(b) 6.25 × 10¹⁹ कूलॉम


(d) 1.6 x 10-¹⁹ कूलॉम


उत्तर (d) प्रोटॉन एक धनावेशित कण है तथा इस पर आवेश इलेक्ट्रॉन के आवेश के बराबर होता है, परन्तु प्रोटॉन का आवेश धनावेशित होता है। अत: प्रोटॉन पर वैद्युत आवेश की मात्रा 1.6 × 10-19 कूलॉम होती है।




प्रश्न 3. ऐम्पियर-सेकण्ड किसका मात्रक है?


(a) वैद्युत ऊर्जा का         


(b) वैद्युत वाहक बल का


(c) आवेश का


(d) वैद्युत धारा का


उत्तर (c) 



प्रश्न 4. किसी वैद्युत बल्ब के फिलामेण्ट द्वारा 1 ऐम्पियर धारा ली जाती है। फिलामेण्ट की अनुप्रस्थ काट से 16 सेकण्ड में प्रवाहित इलेक्ट्रॉनों की संख्या होगी


(a) 10²⁰


 (b) 10¹⁶


(c) 10⁸


(d) 10²³


उत्तर (a) 



प्रश्न 5. किसी चालक तार में वैद्युत धारा का प्रवाह होता है


(a) मुक्त इलेक्ट्रॉनों द्वारा


 (b) प्रोटॉनों द्वारा 


(c) आयनों द्वारा


(d) न्यूट्रॉनों द्वारा


उत्तर (a) 



प्रश्न 6. धारा के परिमाण का मात्रक है अथवा किसी वैद्युत परिपथ में बहने वाली वैद्युत धारा का मात्रक है


(a) ऐम्पियर


(b) वोल्ट


(c) ओम


(d) वाट


उत्तर - (a) 


प्रश्न 7. यदि एक इलेक्ट्रॉन को अनन्त से किसी बिन्दु तक लाने में किया गया कार्य 64 जूल है, तो उस बिन्दु पर कार्यरत् वैद्युत विभव का मान क्या होगा?


 (a) 4x10²⁰ वोल्ट


(b) 10²⁰ वोल्ट


(c ) 10¹⁹ वोल्ट


(d) 2 x 10²⁰ वोल्ट



उत्तर (a) 


प्रश्न 8. विभवान्तर का मापक यन्त्र है।


(a) धारामापी 


(b) वोल्टमीटर


 (c) अमीटर


(d) ओम-मीटर


 उत्तर (b) विभवान्तर का मापन वोल्टमीटर द्वारा किया जाता है।



प्रश्न 9. निम्न में से कौन-सा कथन ओम के नियम को व्यक्त करता है? 


(a) धारा / विभवान्तर = नियतांक 


(b) विभवान्तर x धारा = नियतांक 


(c) विभवान्तर = धारा x प्रतिरोध 


(d) धारा = विभवान्तर प्रतिरोध


उत्तर (c) 



प्रश्न 10. ओम के नियमानुसार, विभवान्तर व धारा के बीच ग्राफ होगा अथना ओम के नियम के अनुसार धारा व विभवान्तर में ग्राफ बनेगा



(a) एक सरल रेखा 


(b) एक वृत्त


(c) एक अर्द्धवृत्त


(d) एक लगातार दिशा बदलती रेखा


 उत्तर (a) ओम के नियमानुसार, विभवान्तर व धारा के बीच ग्राफ एक सरल रेखा होगी।


प्रश्न 11. ओम का नियम सत्य है



(a) केवल धात्विक चालकों के लिए


 (b) केवल अधात्विक चालकों के लिए


(c) केवल अर्द्धचालकों के लिए 


(d) सभी के लिए 


उत्तर (a) ओम का नियम केवल धात्विक चालकों तथा मिश्रधातु चालकों के लिए ही सत्य होता है।


प्रश्न 12. प्रतिरोध का मात्रक होता है।


(a) ओम


(b) ओम / सेमी


(C) ओम-सेमी


(d) वोल्ट


उत्तर (a) ओम 


प्रश्न 13. 1.5 वोल्ट वि. वा. बल के सेल का आन्तरिक प्रतिरोध 3 ओम है, तो सेल से प्राप्त धारा का अधिकतम मान होगा



(a) 1.5 ऐम्पियर


(b) 0.5 ऐम्पियर


 (c) 3.0 ऐम्पियर


 (d) 15.0 मिली ऐम्पियर 


उत्तर (b) 



प्रश्न 14.ताप बढ़ाने पर किसी चालक का वैद्युत प्रतिरोध


(a) अपरिवर्तित रहता है


 (b) बढ़ता है।


(c) घटता है


(d) कभी बढ़ता और कभी घटता है। 


उत्तर (b) 


प्रश्न 15. पाँच प्रतिरोधकों, जिनमें प्रत्येक का प्रतिरोध 1/5 ओम है, इनका उपयोग करके कितना अधिकतम प्रतिरोध बनाया जा सकता है?


(a) 1/5 ओम


(b) 10 ओम


(c) 5 ओम 


(d) 1 ओम



 उत्तर (d) अधिकतम प्रतिरोध प्राप्त करने के लिए प्रतिरोधकों को श्रेणीक्रम में जोड़ना होगा।




प्रश्न 16. 4 ओम के चार प्रतिरोध एक-दूसरे के समान्तर क्रम में जोड़े गए हैं. में तो तुल्य प्रतिरोध होगा


 (a) 4 ओम 


(b) 2 ओम 


(c) 3


 (d) 1 ओम 


उत्तर (d) 



प्रश्न 17. किलोवाट घण्टा किस भौतिक राशि का मात्रक है? 


(a) समय


(b) द्रव्यमान


(c) ऊर्जा


(d) शक्ति



उत्तर (c) किलोवाट-घण्टा वैद्युत ऊर्जा का मात्रक है। इसे साधारण भाषा में यूनिट भी कहा जाता है।


प्रश्न 18. 1 इलेक्ट्रॉन-वोल्ट तुल्य है


 (a) 1.6 x 10-¹⁹ जूल के


(b) 3.2 x 10-²⁴ जूल के


(c) 3.6x10¹⁶ जूल के


(d) 1.6 x 10¹⁹ जूल के


उत्तर (a) 1 इलेक्ट्रॉन-वोल्ट (eV) = 1.6 × 10-¹⁹जूल


प्रश्न 19. एक अश्व शक्ति बराबर होती है


(a) 726 वाट के


(b) 736 वाट के


(c) 746 वाट के


(d) 756 वाट के


उत्तर (c) एक अश्व शक्ति = 746 वाट






लघु उत्तरीय प्रश्न 2 अंक




प्रश्न 1. कूलॉम की परिभाषा लिखिए। 


उत्तर कूलॉम आवेश की इकाई है एक कूलॉम आवेश, आवेश की वह मात्रा है,जो किसी चालक में 1 ऐम्पियर की धारा बहने पर 1 सेकण्ड में प्रवाहित होता है।


  प्रश्न 2. 1 ऐम्पियर की परिभाषा दीजिए।


उत्तर – किसी परिपथ में 1 सेकण्ड में 1 कूलॉम आवेश प्रवाहित हो, तब परिपथ में प्रवाहित वैद्युत धारा ऐम्पियर होगी।



प्रश्न 3. वैद्युत धारा की दिशा तथा आवेश की गति की दिशा में क्या सम्बन्ध है?


  उत्तर – किसी परिपथ में धनात्मक आवेश के प्रवाह की दिशा को धारा प्रवाह की दिशा माना जाता है। अतः चालक में वैद्युत धारा की दिशा इलेक्ट्रॉन के बहने की

दिशा के विपरीत होती है।



प्रश्न 4. किसी चालक AB में इलेक्ट्रॉन A से B की ओर बह रहे हैं, धारा की दिशा ज्ञात कीजिए।



उत्तर – किसी चालक में वैद्युत धारा की दिशा इलेक्ट्रॉन के बहने की दिशा के विपरीत होती है। अतः चालक AB में धारा की दिशा B से A की ओर होगी।



प्रश्न 5. अमीटर का क्या कार्य है? इसे परिपथ में किस प्रकार जोड़ते हैं?


 उत्तर परिपथ में धारा मापन हेतु अमीटर का उपयोग किया जाता है। इसे परिपथ के श्रेणीक्रम में जोड़ा जाता है।



 प्रश्न 6. धातुओं में वैद्युत चालन किसके द्वारा होता है?


अथवा किसी धात्वीय तार में वैद्युत धारा का प्रवाह किसके द्वारा होता है? 



उत्तर किसी धात्वीय तार में वैद्युत धारा का प्रवाह मुक्त इलेक्ट्रॉनों द्वारा होता है।



प्रश्न 7. आवेश q, विभवान्तर V तथा कार्य W में क्या सम्बन्ध है ? 


उत्तर यदि किसी चालक में आवेश को एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक ले जाने में W जूल कार्य करना पड़े, तो उन बिन्दुओं के बीच विभवान्तर


V =  कार्य (W) / आवेश (q)



प्रश्न 8. ओम का नियम लिखिए।



उत्तर ओम के नियम के अनुसार, यदि किसी चालक की भौतिक अवस्थाएँ (जैसे-लम्बाई, परिच्छेद का क्षेत्रफल, चालक का पदार्थ व ताप) नियत रहें, तो चालक में बहने वाली धारा, चालक के सिरों के विभवान्तर के अनुक्रमानुपाती होती है।



प्रश्न 9. ओम के नियम की परिसीमाएँ लिखिए।


उत्तर कोई भी चालक ओम के नियम का पालन उसी समय तक करता है, जब तक कि चालक की भौतिक अवस्थाएँ; जैसे- लम्बाई, परिच्छेद का क्षेत्रफल, चालक का पदार्थ व ताप, नियत रहें।


प्रश्न 10. किसी धात्विक चालक के प्रतिरोध पर ताप परिवर्तन का क्या प्रभाव पड़ता है?


 उत्तर – धात्विक चालक का ताप बढ़ाने पर चालक का प्रतिरोध बढ़ जाता है और ताप कम करने पर चालक का प्रतिरोध कम हो जाता है।



प्रश्न 11. समान पदार्थ के दो तारों में यदि एक पतला तथा दूसरा मोटा हो, तो इनमें से किसमें वैद्युत धारा आसानी से प्रवाहित होगी, जबकि उन्हें समान वैद्युत स्रोत से संयोजित किया जाता है, क्यों?


उत्तर – किसी तार का प्रतिरोध (R) उसके अनुप्रस्थ-काट के क्षेत्रफल (A) के व्युत्क्रमानुपाती होता है। जो तार मोटा है, उसका अनुप्रस्थ-काट का क्षेत्रफल A अधिक है, अतः प्रतिरोध कम है। यही कारण है कि मोटे तार में से वैद्युत धारा अधिक सरलता से प्रवाहित होगी।


प्रश्न 12. दो तार, जिनके प्रतिरोध 4 ओम और 2 ओम हैं, श्रेणीक्रम में एक बैटरी से जुड़े हैं। पहले तार में 2 ऐम्पियर की धारा बह रही है। दूसरे तार में धारा का मान कितना होगा?


उत्तर – जब दो या दो से अधिक प्रतिरोध श्रेणीक्रम में जुड़े हों, तो उनमें प्रवाहित धारा समान होती है। चूँकि प्रतिरोध श्रेणीक्रम में जुड़े हैं, अतः दोनों प्रतिरोध तारों

में समान धारा 2 ऐम्पियर प्रवाहित होगी।


प्रश्न 13. वैद्युत धारा के ऊष्मीय प्रभाव से आप क्या समझते हैं?


 उत्तर वैद्युत धारा के प्रवाह से किसी चालक तार के ताप बढ़ने की घटना को वैद्युत धारा का ऊष्मीय प्रभाव कहते हैं। वैद्युत बल्ब, हीटर, इस्तरी तथा वैद्युत आर्क, आदि वैद्युत धारा के ऊष्मीय प्रभाव पर कार्य करते हैं। 


प्रश्न 14. किसी चालक तार में धारा प्रवाहित करने पर उसमें उत्पन्न ऊष्मा किन-किन कारकों पर निर्भर करती हैं? स्पष्ट कीजिए। 


उत्तर किसी चालक तार में धारा प्रवाहित करने पर उसमें उत्पन्न ऊष्मा चालक की लम्बाई, उसके तार तथा तार की मोटाई पर निर्भर करती है। 



प्रश्न 15. वैद्युत सामर्थ्य की परिभाषा लिखिए।


अथवा MKS पद्धति में वैद्युत सामर्थ्य का मात्रक लिखिए।


 उत्तर किसी वैद्युत परिपथ में वैद्युत ऊर्जा के व्यय होने की दर को वैद्युत सामर्थ्य अथवा वैद्युत शक्ति कहते हैं।


वैद्युत सामर्थ्य (P) = ऊर्जा/समय =जूल/सेकण्ड


अतः वैद्युत सामर्थ्य का MKS पद्धति में मात्रक जूल/सेकण्ड या वाट होता है। 




 प्रश्न 16. एक वैद्युत बल्ब पर 240 वोल्ट, 60 वाट लिखा है। इसका क्या अर्थ है?


उत्तर यदि किसी वैद्युत बल्ब पर 240 वोल्ट, 60 वाट लिखा है, तो इसका अर्थ है कि यदि वैद्युत बल्ब को 240 वोल्ट पर जलाया जाए, तो इसमें 60 वाट की

वैद्युत शक्ति क्षय होगी। 



प्रश्न 17. श्रेणीक्रम में संयोजित करने के स्थान पर वैद्युत युक्तियों को समांतर क्रम में संयोजित करने के क्या लाभ हैं?


उत्तर वैद्युत युक्तियों को समांतर क्रम में संयोजित करने के निम्न लाभ हैं



 (i) समांतर क्रम में प्रत्येक युक्ति में पूर्ण विद्युत विभव प्राप्त होता है, जबकि धारा विभक्त हो जाती हैं। प्रत्येक युक्ति में धारा उसके प्रतिरोध के अनुसार जाती है।


(ii) यदि एक युक्ति को ऑन/ऑफ करते हैं, तो अन्य युक्तियाँ अपना कार्य सुचारू रूप से करती रहती हैं।






class 10 science chapter 12 Magnetic Effects of Electric Current notes in hindi



कक्षा 10वी विज्ञान अध्याय 12 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव का सम्पूर्ण हल







विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव Magnetic Effects of Electric Current



Important Points



#.एक विशेष गुण वाला पदार्थ जो लोहे तथा निकिल को आकर्षित करता है और जिसकी कोई निश्चित आकृति भी नहीं होती, चुम्बक कहलाता है।



#. किसी चुम्बक के द्वारा लोहे के टुकड़ों को अपनी ओर आकर्षित करने के को गुण चुम्बकत्व कहते हैं।


#.किसी चुम्बक के चारों ओर का वह क्षेत्र, जिसमें चुम्बक के प्रभाव (चुम्बकीय सुई विक्षेपित हो जाए) का अनुभव किया जा सके। 



#. किसी चुम्बकीय क्षेत्र में चुम्बकीय रेखाएँ वे काल्पनिक रेखाएँ हैं जो उस स्थान में चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा को अविरत प्रदर्शित करती है तथा इन रेखाओं के किसी बिन्दु पर खींची गयी स्पर्श रेखा उस बिन्दु पर खींची गयी स्पर्श रेखा उस बिन्दु पर चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा प्रदर्शित करती है।


#.दक्षिण-हस्त अंगुष्ठ नियम के अनुसार, "यदि हम अपने दाएँ हाथ में विद्युत धारावाही चालक को इस प्रकार पकड़े कि अंगूठा विद्युत धारा की दिशा में हो व अँगुलियाँ तार पर लिपटी हों, तब लिपटी हुई अँगुलियों की दिशा चुम्बकीय बल रेखाओं की दिशा को प्रदर्शित करेंगी।”


#.विद्युतरोधी ताँबे के तार की बेलन की आकृति की पास-पास लिपटे अनेक फेरों वाली कुण्डली परिनालिका कहलाती है। 


#.लौह-चुम्बकीय पदार्थ से बनाए गए वे चुम्बक जो अल्प समय के लिए चुम्बकत्व धारण करते हैं, विद्युत चुम्बकत्व कहलाते हैं।


#.फ्लेमिंग के वाम- हस्त के नियमानुसार, "यदि हम अपने बाएँ हाथ के अंगूठे तथा उसके निकट वाली दोनों अँगुलियों को इस प्रकार फैलाते हैं कि तीनों एक-दूसरे के लम्बवत् रहें, तब यदि अंगूठे के पास वाली अँगुली (तर्जनी) चुम्बकीय क्षेत्र (B) की दिशा में तथा दूसरी अंगुली (मध्यमा) विद्युत धारा (I) की दिशा को दर्शाए तो अँगूठा चालक पर आरोपित बल (F) की दिशा को बताएगा।


#.विद्युत मोटर एक विद्युत यांत्रिक मशीन है जो विद्युत ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित करती है अर्थात् इसे उपयुक्त विद्युत स्रोत से जोड़ने पर यह घूमने लगती है।


#.“जब किसी बन्द विद्युत परिपथ से सम्बन्धित चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है तो उस परिपथ में एक विद्युत वाहक बल (e.m.f.) उत्पन्न हो जाता है और परिपथ में इसी विद्युत वाहक बल के कारण विद्युत धारा प्रवाहित होने लगती है। यह विद्युत धारा केवल तब तक प्रवाहित होती है जब तक कि चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता रहता है। इस घटना को विद्युत चुम्बकीय प्रेरण कहते हैं।


#.फ्लेमिंग के दक्षिण हस्त नियम के अनुसार, "यदि दाएँ हाथ का अंगूठा उसके पास वाली तर्जनी अँगुली तथा मध्यमा अँगुली को परस्पर लम्बवत् इस प्रकार फैलाएँ कि तर्जनी अंगुली चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा में तथा अँगूठा चालक की गति की दिशा में हो तब, मध्यमा अंगुली चालक की गति की दिशा में हो, तब मध्यमा अँगुली चालक में धारा की दिशा को दर्शाएँगी।


#.विद्युत जनित्र एक ऐसी युक्ति है जो यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करती है। इसके लिए यह फैराडे के वैद्युत चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धान्त पर आधारित है।


#. हम अपने घरों में विद्युत शक्ति की आपूर्ति मुख्य तारों [अथवा मेंस (mains)] या विद्युत खम्भों के सहारे या भूमिगत केवलों से प्राप्त करते हैं। केवल के तीन पृथक् विद्युतरोधी तार होते हैं


(i) विद्युन्मय तार (या फेज तार या धनात्मक तार) 


(ii) उदासीन तार (या ऋणात्मक तार) तथा 

(iii) तार भू-सम्पर्क (अर्थ)


#.फ्यूज एक सुरक्षा युक्ति है जो किसी विद्युत परिपथ की 'शॉर्ट सर्किट' अथवा 'ओवरलोड' परिस्थितियों में सुरक्षा करती है।




वैद्युत धारा का चुम्बकीय प्रभाव


जब किसी चालक तार में वैद्युत धारा प्रवाहित की जाती है, तो उसके चारों ओर एक चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है। इस घटना को वैद्युत धारा का चुम्बकीय प्रभाव कहते हैं।


नोट गतिमान आवेश के कारण चुम्बकीय क्षेत्र निर्मित होता है।


चुम्बकीय क्षेत्र


किसी चुम्बक के चारों ओर का वह क्षेत्र, जिसमें उस चुम्बक के प्रभाव का अनुभव किया जा सकता है, उसे चुम्बकीय क्षेत्र कहते हैं। यह एक सदिश राशि है तथा

इसका मात्रक टेस्ला अथवा वेबर / मीटर होता है।


चुम्बकीय बल रेखाएँ


 किसी चुम्बकीय क्षेत्र में चुम्बकीय बल रेखाएँ वे काल्पनिक रेखाएँ हैं, जो उस स्थान में चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा को अविरत प्रदर्शित करती हैं तथा इन रेखाओं के किसी बिन्दु पर खींची गई स्पर्श रेखा उस बिन्दु पर चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा को प्रदर्शित करती है।


छड़ चुम्बक के परित: क्षेत्र रेखाएँ


यदि चुम्बक के समीपस्थ लोहे के बुरादे को रखा जाता है, तो लोहे का बुरादा चित्रानुसार व्यवस्थित हो जाता है।




चुम्बकीय बल रेखाओं के गुण



(i) चुम्बकीय बल रेखाएँ सदैव चुम्बक के उत्तरी ध्रुव से निकलती हैं तथा वक्र बनाती हुई चुम्बक के दक्षिणी ध्रुव में प्रवेश करती हैं और चुम्बक के भीतर से होती हुई पुनः उत्तरी ध्रुव पर वापस आती हैं।


(ii) चुम्बक के बाहर इन बल रेखाओं की दिशा उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव की ओर तथा चुम्बक के अन्दर दक्षिणी ध्रुव से उत्तरी ध्रुव की ओर होती है।


(iii) चुम्बकीय बल रेखाएँ बन्द वक्र के रूप में चलती हैं। 


(iv) चुम्बकीय बल रेखाएँ एक-दूसरे को कभी नहीं काटती, क्योंकि एक बिन्दु पर चुम्बकीय क्षेत्र की दो दिशाएँ सम्भव नहीं हैं।


(v) चुम्बक के ध्रुवों के समीप, जहाँ चुम्बकीय क्षेत्र प्रबल होता है, वहाँ चुम्बकीय बल रेखाएँ पास-पास होती हैं तथा ध्रुव से दूर जाने पर चुम्बकीय क्षेत्र की प्रबलता घटती जाती है। अतः वहाँ चुम्बकीय बल रेखाएँ परस्पर दूर होती जाती हैं। 


(vi) एकसमान चुम्बकीय क्षेत्र में बल रेखाएँ परस्पर समान्तर व बराबर दूरियों पर होती हैं।


(vi) चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा, चुम्बकीय बल रेखा के किसी बिन्दु पर स्पर्श रेखा द्वारा प्रदर्शित करते हैं। किसी वैद्युत धारावाही चालक द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र सर्वप्रथम ओरेस्टेड ने प्रयोगों के आधार पर यह पता लगाया कि जब किसी चालक में वैद्युत धारा प्रवाहित की जाती है, तो उसके चारों ओर चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है। उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र धारावाही चालक की आकृति पर निर्भर करता है। विभिन्न स्थितियों में धारावाही चालक द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र निम्न हैं


1. सीधे धारावाही चालक के कारण उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र – जब किसी सीधे धारावाही चालक में धारा प्रवाहित करते हैं, तो चालक के समीप प्रेक्षण बिन्दु पर चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है। यह चुम्बकीय क्षेत्र चालक में प्रवाहित वैद्युत धारा के अनुक्रमानुपाती तथा प्रेक्षण बिन्दु की चालक से दूरी के व्युत्क्रमानुपाती होता है।


चालक के समीपस्थ बिन्दु पर चुम्बकीय क्षेत्र का मान ज्यादा होता है तथा दूरी बढ़ने के साथ-साथ चुम्बकीय क्षेत्र का मान भी कम हो जाता है। अतः सीधे धारावाही चालक तार में धारा की दिशा ज्ञात होने पर चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा भैक्सवेल के दाएँ हाथ के अंगूठे के नियमानुसार ज्ञात करते हैं।



मैक्सवेल के दाएँ हाथ के अँगूठे का नियम – इस नियम के अनुसार, यदि दाएँ हाथ में एक सीधे धारावाही चालक को इस प्रकार पकड़ें कि अँगुलियाँ तार पर लिपटी हों व अंगूठा धारा की दिशा में हो, तो लिपटी हुई अँगुलियों की दिशा चुम्बकीय बल रेखाओं की दिशा को प्रदर्शित करेगी।


2. वैद्युत धारावाही वृत्ताकार पाश (कुण्डली) के कारण चुम्बकीय क्षेत्र


किसी धारावाही पाश के कारण चुम्बकीय बल रेखाएँ चित्र द्वारा दर्शाई गई हैं। धारावाही वृत्ताकार पाश के प्रत्येक बिन्दु पर बने इसके चारों ओर चुम्बकीय क्षेत्र को प्रदर्शित करते हैं। पाश के केन्द्र पर चुम्बकीय क्षेत्र सीधी रेखाओं द्वारा प्रदर्शित है। अतः किसी धारावाही वृत्ताकार कुण्डली द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र को निम्न प्रकार बढ़ाया जा सकता है





(i) फेरों की संख्या बढ़ाकर 


(ii) कुण्डली में धारा का मान बढ़ाकर


3. धारावाही परिनालिका में प्रवाहित वैद्युत धारा के कारण चुम्बकीय क्षेत्र


किसी कुचालक बेलनाकार पाइप के ऊपर उसकी लम्बाई के अनुदिश एकसमान रूप से वैद्युतरोधी ताँबे के तारों को लपेटकर बनाई गई बहुत अधिक फेरों की कुण्डली, परिनालिका कहलाती है।


यदि इस कुण्डली में किसी सेल द्वारा वैद्युत धारा प्रवाहित की जाती है, तो यह एक दण्ड चुम्बक की भाँति व्यवहार करने लगती है। अर्थात् परिनालिका का एक सिरा उत्तरी ध्रुव व दूसरा सिरा दक्षिणी ध्रुव की तरह व्यवहार करता है।




#.परिनालिका के भीतर सभी बिन्दुओं पर चुम्बकीय क्षेत्र रेखाएँ समान्तर सरल रेखा के रूप में होती हैं अर्थात् परिनालिका के भीतर सभी बिन्दुओं पर चुम्बकीय क्षेत्र समान होता है।


#. धारावाही परिनालिका के अन्दर गर्म लोहे की छड़ रखने पर चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता बढ़ जाती है। 


#.धारावाही परिनालिका में धारा की दिशा बदलने पर परिनालिका की ध्रुवता बढ़ जाती है।






वैद्युत चुम्बक


परिनालिका के भीतर उत्पन्न प्रबल चुम्बकीय क्षेत्र का उपयोग किसी चुम्बकीय पदार्थ, जैसे- नम्र लोहे को परिनालिका के भीतर रखकर चुम्बक बनाने में किया जाता है। इस प्रकार बने चुम्बक को वैद्युत चुम्बक कहते हैं अर्थात् वैद्युत चुम्बक, वैद्युत धारा के चुम्बकीय प्रभाव पर कार्य करती है तथा इस चुम्बकीय प्रभाव का अस्तित्व परिनालिका में बहने वाली धारा तक ही रहता है। वैद्युत चुम्बक बनाने के लिए कच्चे लोहे का उपयोग किया जाता है।


चुम्बकीय क्षेत्र में किसी वैद्युत धारावाही चालक पर बल – जब किसी l लम्बाई के वैद्युत धारावाही चालक को बाह्य चुम्बकीय क्षेत्र में रखा  जाता है, तो बाह्य चुम्बकीय क्षेत्र के कारण धारावाही चालक पर बल लगता है, जो चालक को विस्थापित करता है। अर्थात् चुम्बकीय बल, F = iBl sinθ


जहाँ, B= चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता  i= चालक में धारा l= चालक की लम्बाई तथा  θ= चालक की लम्बाई तथा चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा के बीच का कोण है। यदि धारावाही चालक, बाह्य चुम्बकीय क्षेत्र के समान्तर (θ = 0°) रखा है, तो इस पर कोई बल नहीं लगता है। वैद्युत धारावाही चालक पर कार्यरत् बल, वैद्युत धारा की दिशा तथा चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा पर निर्भर करता है। यदि धारावाही चालक, चुम्बकीय क्षेत्र के लम्बवत् (θ = 90°) रखा है, तो इस पर चुम्बकीय क्षेत्र के कारण कार्यरत बल का मान अधिकतम होता है।


इस प्रकार, चुम्बकीय क्षेत्र में गतिमान आवेश पर कार्यरत् बल, F=qvBsinθ जहाँ, θ गतिमान आवेश की दिशा तथा चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा के बीच का कोण है। 



 फ्लेमिंग के बाएँ हाथ का नियम


इस नियम के अनुसार, यदि बाएँ हाथ के अंगूठे तथा उसके पास वाली दोनों अंगुलियों को इस प्रकार फैलाया जाए कि तीनों एक-दूसरे के लम्बवत् रहे, तब इस स्थिति में यदि प्रथम अंगुली चुम्बकीय क्षेत्र B की दिशा को तथा बीच वाली अंगुली प्रवाहित धारा (i) की दिशा को प्रदर्शित करे, तो अंगूठा चालक पर लगने वाले बल

F की दिशा को प्रदर्शित करेगा। 



वैद्युत मोटर


यह एक ऐसी युक्ति है, जिसके द्वारा वैद्युत ऊर्जा को यान्त्रिक ऊर्जा में बदला जाता है। इसमें एक कुण्डली को चुम्बकीय क्षेत्र में रखकर धारा प्रवाहित की जाती है, जिससे कुण्डली पर एक बल-युग्म कार्य करने लगता है। यह बल-युग्म कुण्डली को चुम्बकीय क्षेत्र में घुमाता है जिससे यान्त्रिक ऊर्जा प्राप्त होती है।


व्यापारिक वैद्युत मोटर


व्यापारिक वैद्युत मोटर में निम्न पुर्जों का उपयोग होता है


 (i) स्थायी चुम्बक के स्थान पर वैद्युत चुम्बक


(ii) वैद्युत धारावाही कुण्डली में चालक तारों के फेरों की संख्या बहुत अधिक होती है। 


(iii) वह नम्र लोहे की क्रोड जिस पर कुण्डली को लपेटा जाता है। यह कच्चे लोहे की क्रोड तथा कुण्डली का युग्म आर्मेचर कहलाता है, जिससे मोटर की शक्ति बढ़

जाती है।




वैद्युत चुम्बकीय प्रेरण तथा प्रेरित वैद्युत वाहक बल


परिवर्ती चुम्बकीय क्षेत्र द्वारा वैद्युत वाहक बल अथवा वैद्युत धारा उत्पन्न होने की घटना को वैद्युत चुम्बकीय प्रेरण कहते हैं तथा इस प्रकार उत्पन्न वैद्युत वाहक बल को प्रेरित वैद्युत वाहक बल कहते हैं। यदि कुण्डली का परिपथ बन्द होता है, तो कुण्डली में प्रेरित वैद्युत वाहक बल के कारण धारा प्रवाहित होती है, जिसे प्रेरित धारा कहते हैं।


चुम्बकीय फ्लक्स


किसी चुम्बकीय क्षेत्र में रखे पृष्ठ के अभिलम्बवत् गुजरने वाली चुम्बकीय बल रेखाओं की संख्या को उस पृष्ठ से सम्बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स कहते हैं।


अर्थात् चुम्बकीय फ्लक्स ∅ = BAcosθ जहाँ, θ= क्षेत्रफल सदिश व चुम्बकीय क्षेत्र के बीच का कोण है।


"फ्लेमिंग के दाएँ हाथ का नियम


फ्लेमिंग के दाएँ हाथ के नियम से प्रेरित वैद्युत धारा की दिशा ज्ञात की जाती है। इस नियमानुसार, यदि दाएँ हाथ का अंगूठा, उसके पास की तर्जनी अंगुली तथा मध्यमा अँगुली को परस्पर एक-दूसरे के लम्बवत् फैलाकर इस प्रकार रखें कि तर्जनी अंगुली चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा में तथा अंगूठा चालक गति की दिशा में हो, तो मध्यमा अंगुली चालक में धारा की दिशा बताएगी।




दिष्ट धारा


वह वैद्युत धारा, जिसका परिमाण एवं दिशा समय के साथ नियत रहती है, उसे दिष्ट धारा कहते हैं। प्राथमिक सेलों, संचायक सेलों तथा दिष्ट धारा डायनेमो द्वारा दिष्ट धारा प्राप्त होती है।


प्रत्यावर्ती धारा


प्रत्यावर्ती वोल्टेज के कारण परिपथ में जो धारा बहती है, वह निरन्तर शून्य व अधिकतम मानों के बीच बदलती रहती है, कुण्डली के पहले आधे चक्कर में धारा एक दिशा में तथा दूसरे आधे चक्कर में विपरीत दिशा में बहती है। इस प्रकार की धारा को प्रत्यावर्ती धारा कहते हैं। प्रत्यावर्ती वैद्युत जनित्र अर्थात् प्रत्यावर्ती धारा डायनेमो द्वारा प्राप्त धारा प्रत्यावर्ती धारा ही होती है। 



आवृत्ति


एक सेकण्ड में प्रत्यावर्ती धारा द्वारा पूर्ण किए गए चक्रों की संख्या को आवृत्ति कहते हैं। भारत में प्रत्यावर्ती धारा की आवृत्ति 50 हर्ट्ज है।



वैद्युत जनित्र या डायनेमो


वैद्युत जनित्र (डायनेमो) एक ऐसा यन्त्र है जो यान्त्रिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में  बदलता है। यह फैराडे के वैद्युत चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धान्त पर कार्य करता है। 


डायनेमो दो प्रकार के होते हैं। 


(i)प्रत्यावर्ती धारा डायनेमो


(ii) दिष्ट धारा डायनेमो





बहुविकल्पीय प्रश्न     1 अंक


प्रश्न 1. निम्न में से कौन सा चुम्बकीय क्षेत्र का मात्रक नहीं है? 


(a) वेबर / मी²     (c) गॉस


(b) टेस्ला           (d) न्यूटन / ऐम्पियर²


उत्तर (d) चुम्बकीय क्षेत्र का मात्रक न्यूटन /ऐम्पियर² नहीं है।



 प्रश्न 2. निम्नलिखित में से कौन किसी लंबे वैद्युत धारावाही तार के निकट चुम्बकीय क्षेत्र का सही वर्णन करता है?


(a) चुम्बकीय क्षेत्र की क्षेत्र रेखाएँ तार के लंबवत् होती हैं 


(b) चुम्बकीय क्षेत्र की क्षेत्र रेखाएँ तार के समांतर होती हैं


(c) चुम्बकीय क्षेत्र की क्षेत्र रेखाएँ अक्षीय होती हैं, जिनका उद्भव, तार से होता है


(d) चुम्बकीय क्षेत्र की संकेंद्री क्षेत्र रेखाओं का केंद्र तार होता है। 



उत्तर (d) चुम्बकीय क्षेत्र की संकेंद्री क्षेत्र रेखाओं का केंद्र तार होता है।


प्रश्न 3. परिवर्तनशील चुम्बकीय क्षेत्र के कारण किसी चालक में उत्पन्न प्रेरित विद्युत धारा की दिशा का आंकलन निम्नलिखित नियम से किया जा सकता है


(a) दाएँ हाथ के अंगूठे का नियम 


(b) ओम का नियम


(c) फ्लेमिंग के बाएँ हाथ का नियम


(d) फ्लेमिंग के दाएँ हाथ का नियम 


उत्तर (d) प्रेरित वैद्युत धारा की दिशा का आंकलन फ्लेमिंग के दाएँ हाथ के नियम द्वारा किया जाता है। 



प्रश्न 4. स्थिर चुम्बकीय क्षेत्र में ध्रुवों के बीच किसी वैद्युत धारावाही चालक पर लगने वाले बल की दिशा ज्ञात करने के लिए उपयुक्त नियम है 


(a) मैक्सवेल कॉर्क स्क्रू नियम 


(b) फ्लेमिंग के दाएँ हाथ का नियम


(c) फ्लेमिंग के बाएँ हाथ का नियम 


(d) ओम का नियम


उत्तर (c) स्थिर चुम्बकीय क्षेत्र में ध्रुवों के बीच किसी वैद्युत धारावाही चालक पर लगने वाले बल की दिशा ज्ञात करने के लिए उपयुक्त नियम फ्लेमिंग के बाएँ हाथ का नियम है।


प्रश्न 5. वैद्युत चुम्बकीय प्रेरण की परिघटना 


(a) किसी वस्तु को आवेशित करने की प्रक्रिया है.


(b) किसी कुंडली में वैद्युत धारा प्रवाहित होने के कारण चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करने की प्रक्रिया है 


(c) कुंडली तथा चुम्बक के बीच आपेक्षिक गति के कारण कुंडली में प्रेरित वैद्युत धारा उत्पन्न करना है


(d) किसी वैद्युत मोटर की कुंडली को घूर्णन कराने की प्रक्रिया हैं।


 उत्तर (c) कुंडली तथा चुम्बक के बीच आपेक्षिक गति के कारण कुंडली में प्रेरित वैद्युत धारा उत्पन्न करना है।


प्रश्न 6. वैद्युत धारा उत्पन्न करने की युक्ति है।


(a) जनित्र।          (C) अमीटर


(b) गैल्वेनोमीटर      (d) मीटर



उत्तर (a) जनित्र, वैद्युत धारा उत्पन्न करने की युक्ति है।




प्रश्न 7. डायनेमो परिवर्तित करता है


(a) रासायनिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में


(b) ध्वनि ऊर्जा को चुम्बकीय ऊर्जा में


(c) यान्त्रिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में 


(d) यान्त्रिक ऊर्जा को प्रकाश ऊर्जा में


उत्तर (c) वैद्युत जनित्र (डायनेमो) एक ऐसा यन्त्र है, जो यान्त्रिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में बदलता है।


प्रश्न 8. किसी AC जनित्र तथा DC जनित्र में एक मूलभूत अंतर यह है कि


(a) AC जनित्र में वैद्युत चुम्बक होता है जबकि DC मोटर में स्थायी चुम्बक होता है 


(b) DC जनित्र उच्च वोल्टता का जनन करता है


(c) AC जनित्र उच्च वोल्टता का जनन करता है


 (d) AC जनित्र में सर्पी वलय होते हैं जबकि DC जनित्र में दिकपरिवर्तक होता है


 उत्तर (d) AC जनित्र में सर्पी वलय होते हैं, जबकि DC जनित्र में दिकूपरिवर्तक होता है।


प्रश्न 9. डायनेमो उत्पन्न करता है


(a) आवेश               (c) वैद्युत क्षेत्र


(b) वैद्युत वाहक बल।  (d) चुम्बकीय क्षेत्र


उत्तर (b) डायनेमो, वैद्युत वाहक बल उत्पन्न करता है।


प्रश्न 10. निम्नलिखित प्रकथनों में कौन-सा सही है तथा कौन-सा गलत है? इसे प्रकथन के सामने अंकित कीजिए।



(a) वैद्युत मोटर यांत्रिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में रूपांतरित करता है 


(b) वैद्युत जनित्र वैद्युत चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धांत पर कार्य करता है 


(C) किसी लंबी वृत्ताकार वैद्युत धारावाही कुंडली के केंद्र पर चुम्बकीय क्षेत्र समांतर सीधी क्षेत्र रेखाएँ होती हैं 


(d) हरे वैद्युतरोधन वाला तार प्रायः वैद्युतमय तार होता है


उत्तर (a) गलत


(b) सही


(c) सही


(d) गलत


          अतिलघु उत्तरीय प्रश्न 2 अंक


प्रश्न 1. चुम्बकीय बल रेखाएँ किस रूप में प्राप्त होती हैं?


उत्तर चुम्बकीय बल रेखाएँ उत्तरी ध्रुव से उत्पन्न होकर, दक्षिणी ध्रुव पर समाप्त होती हैं। चुम्बक के अन्दर बल रेखाओं की दिशा दक्षिणी ध्रुव से उत्तरी ध्रुव की ओर होती है। अतः चुम्बकीय बल रेखाएँ बन्द वक्र के रूप में प्राप्त होती हैं।



प्रश्न 2. चुम्बक के निकट लाने पर दिक्सूचक की सुईं विक्षेपित क्यों हो जाती है?



उत्तर दिक्सूचक की सुई एक छोटा छड़ चुम्बक ही होती है। इसका एक उत्तरोमुखी ध्रुव या उत्तरी ध्रुव होता है तथा दूसरा दक्षिणोमुखी ध्रुव या दक्षिणी ध्रुव होता है। जब दिक्सूचक को किसी स्थान पर रखते हैं, तो इसका उत्तरी ध्रुव घूम कर उत्तर दिशा व दक्षिणी ध्रुव घूम कर दक्षिण दिशा की ओर जाकर स्थिर हो जाता है। इन दिशाओं की ओर संकेत करने हेतु सूईं विक्षेपित होती है।



प्रश्न 3. किसी कुंडली में वैद्युत धारा प्रेरित करने की विभिन्न विधियाँ स्पष्ट कीजिए।



उत्तर किसी कुंडली में वैद्युत धारा को निम्न विधियों द्वारा प्रेरित किया जा सकता है


(i) एक चुम्बक को कुंडली की ओर या उससे दूर ले जाकर अथवा कुंडली को चुम्बक की ओर या उससे दूर ले जाकर (चुम्बक तथा कुंडली में आपेक्षिक गति द्वारा)


(ii) कुंडली के पास रखी एक अन्य कुंडली में प्रवाहित वैद्युत धारा की मात्रा में परिवर्तन करके।



प्रश्न 4. धारा की दिशा बदलने पर परिनालिका की ध्रुवता पर क्या प्रभाव पड़ेगा?


उत्तर धारा की दिशा बदलने पर परिनालिका की ध्रुवता बढ़ जाती है।



 उत्तर धारावाही परिनालिका के अन्दर नर्म लोहे की छड़ रखने पर चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता बढ़ती है


  प्रश्न 5. धारावाही परिनालिका के अन्दर नर्म लोहे की छड़ रखने पर क्या प्रभाव पड़ेगा


उत्तर धारावाही परिनालिका के अन्दर नर्म लोहे की छड़ रखने पर चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता  बढ़ जाएगी।


 प्रश्न 6. धारावाही परिनालिका की अक्ष पर चुम्बकीय बल रेखाएँ कैसी होती हैं ? ध्रुवों के नाम लिखिए।


उत्तर धारावाही परिनालिका की अक्ष पर चुम्बकीय बल रेखाएँ परिनालिका की अक्ष के समान्तर होती हैं।


प्रश्न 7. निम्न चित्र में धारावाही परिनालिका के सिरों पर उसके चुम्बकीय ध्रुवों के नाम



उत्तर चित्र में बायाँ सिरा उत्तरी ध्रुव तथा दायाँ सिरा दक्षिणी ध्रुव होगा।


प्रश्न 8. यदि स्वतन्त्रतापूर्वक लटकी हुई परिनालिका में वैद्युत धारा की दिशा बदल दी जाए, तो क्या होता है? 



उत्तर वैद्युत धारा की दिशा बदल जाने पर परिनालिका 180° से घूम जाएगी।



प्रश्न 9. परिनालिका चुम्बक की भाँति कैसे व्यवहार करती है? क्या आप किसी छड़ चुम्बक की सहायता से किसी वैद्युत धारावाही परिनालिका के उत्तरी ध्रुव तथा दक्षिणी ध्रुव का निर्धारण कर सकते हैं?




उत्तर जब एक परिनालिका में वैद्युत धारा प्रवाहित की जाती है, तब यह वैद्युत चुम्बक की भाँति व्यवहार करती है। इस स्थिति में परिनालिका का एक सिरा उत्तरी ध्रुव तथा दूसरा सिरा दक्षिणी ध्रुव की भाँति कार्य करता है। जब हम परिनालिका के एक सिरे के पास छड़ चुम्बक का उत्तरी ध्रुव लाते हैं, तो उसका व्यवहार उसके ध्रुवों का निर्धारण करता है। परिनालिका का जो सिरा छड़ चुम्बक के उत्तरी ध्रुव को आकर्षित करता है वह दक्षिणी ध्रुव है तथा उससे दूसरी ओर का सिरा उत्तरी ध्रुव । 


प्रश्न 10. किसी चुम्बकीय क्षेत्र में स्थित वैद्युत धारावाही चालक पर आरोपित बल कब अधिकतम होता है?


 उत्तर जब चालक को चुम्बकीय क्षेत्र के अभिलम्बवत् दिशा में रखा जाता है, तब चालक पर आरोपित बल, 


F = Bil sinθअतः sin θका मान अधिकतम होने पर F का मान भी अधिकतम होगा। sinθ


चालक पर आरोपित बल अधिकतम होता है, क्योंकि का अधिकतम मान 1 होने के लिए θ = 90° होना चाहिए अर्थात् चालक को चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा के अभिलम्बवत् दिशा में रखा जाना आवश्यक है। 


प्रश्न 11. एक धारावाही तार किसी चुम्बकीय क्षेत्र में गति करता है, परन्तु तार में प्रेरित वैद्युत वाहक बल उत्पन्न नहीं होता है। ऐसा किस दशा में सम्भव है?


उत्तर यदि धारावाही तार किसी चुम्बकीय क्षेत्र के समान्तर गति करता है, तब प्रेरित वैद्युत वाहक बल उत्पन्न नहीं होता है।



प्रश्न 12. फ्लेमिंग के दाएँ हाथ का नियम बताइए।


उत्तर इस नियमानुसार, यदि दाएँ हाथ का अंगूठा, उसके पास की तर्जनी अँगुली तथा मध्यमा अँगुली को परस्पर एक-दूसरे के लम्बवत् फैलाकर इस प्रकार रखें कि तर्जनी अंगुली चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा में तथा अंगूठा चालक की गति की दिशा में हो, तो मध्यमा अंगुली चालक में धारा की दिशा बताएगी।


प्रश्न 13. डायनेमो क्या है?


 अथवा यान्त्रिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में बदलने वाले यन्त्र का नाम लिखिए। 


उत्तर डायनेमो एक ऐसा यन्त्र है, जो यान्त्रिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में बदलता है। इसका कार्य फैराडे के वैद्युत चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धान्त पर निर्भर है।



प्रश्न 14. मान लीजिए आप किसी चैम्बर में अपनी पीठ को किसी दीवार से लगा कर बैठे हैं। कोई इलेक्ट्रॉन पुंज आपके पीछे की दीवार से सामने वाली दीवार की ओर क्षैतिजतः गमन करते हुए किसी प्रबल चुम्बकीय क्षेत्र द्वारा आपके दाईं ओर विक्षेपित हो जाता है। चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा क्या है?


 उत्तर फ्लेमिंग के वामहस्त नियम के अनुसार, चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा नीचे की ओर अभिलम्बवत होगी।



           लघु उत्तरीय प्रश्न 4 अंक


प्रश्न 1. चुम्बकीय बल रेखाओं से क्या तात्पर्य है? इनके प्रमुख गुणों का उल्लेख कीजिए ।


अथना चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं के गुणों की सूची बनाइए। 


उत्तर किसी चुम्बकीय क्षेत्र में चुम्बकीय बल रेखाएँ वे काल्पनिक रेखाएँ हैं, जो उस स्थान में चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा को अविरत प्रदर्शित करती हैं तथा इन रेखाओं के किसी बिन्दु पर खींची गई स्पर्श रेखा उस बिन्दु पर चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा प्रदर्शित करती है।



 प्रश्न 2. दो चुम्बकीय क्षेत्र रेखाएँ एक-दूसरे को प्रतिच्छेद क्यों नहीं करती हैं? छड़ चुम्बक के चारों ओर चुम्बकीय क्षेत्र रेखाएँ खींचिए।


उत्तर यदि चुम्बकीय क्षेत्र रेखाएँ एक-दूसरे को प्रतिच्छेद करेंगी, तो एक ही बिन्दु पर चुम्बकीय क्षेत्र की दो दिशाएँ होंगी, जोकि असम्भव है। इस कारण दो चुम्बकीय क्षेत्र रेखाएँ एक-दूसरे को प्रतिच्छेद नहीं करती हैं।





प्रश्न 3. मेज के तल में पड़े तार के वृत्ताकार पाश पर विचार कीजिए। मान लीजिए इस पाश में दक्षिणावर्त वैद्युत धारा प्रवाहित हो रही है। दक्षिण हस्त अंगुष्ठ नियम को लागू करके पाश के भीतर तथा बाहर चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा ज्ञात कीजिए।



उत्तर वैद्युत धारावाही पाश के कारण उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र रेखाएँ निम्न हैं




चित्रानुसार, वृत्ताकार पाश का प्रत्येक भाग अपनी संकेंद्रित बल रेखाएँ निर्मित करता है। दक्षिण अंगुष्ठ नियम के अनुसार, वृत्ताकार पाश के भीतर की ओर चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा मेज के तल के नीचे की ओर अभिलम्बवत् होती है, जबकि पाश के बाहरी भाग में क्षेत्र की दिशा मेज के तल के ऊपर की ओर अभिलम्बवत् होती है। 




प्रश्न 4. धारावाही परिनालिका की चुम्बकीय बल रेखाओं को आरेख बनाकर दर्शाइए। परिनालिका के अन्दर नर्म लोहे की छड़ रखने पर क्या प्रभाव होगा? 


उत्तर -  धारावाही परिनालिका की चुम्बकीय बल रेखाएँ


किसी परिनालिका में धारा प्रवाहित करने के लिए इसके दोनों सिरों के बीच कुंजी (K), धारा नियन्त्रक (Rh) तथा बैटरी श्रेणीक्रम में चित्रानुसार जोड़ दिए जाते हैं।


जब कुँजी को बन्द कर देते हैं, तो परिनालिका में धारा प्रवाहित होने लगती है, परिनालिका के प्रत्येक फेरे में धारा की दिशा एक ही होती है। परिनालिका द्वारा उत्पन्न क्षेत्र इन वृत्ताकार कुण्डलियों से उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र का परिणामी बल क्षेत्र होता है। परिनालिका का वह सिरा जिससे होकर बल रेखाएँ अन्दर की ओर जाती हैं, दक्षिणी चुम्बकीय ध्रुव (S) की तरह व्यवहार करता है तथा दूसरा सिरा जिससे बल रेखाएँ बाहर निकलती हैं, उत्तरी ध्रुव (N) की तरह व्यवहार करता है। 


परिनालिका के अक्ष पर बल रेखाएँ अक्ष के समान्तर तथा बहुत पास-पास होती हैं। इसका अर्थ है कि परिनालिका के भीतर चुम्बकीय क्षेत्र प्रबल व एकसमान प्राप्त होता है। किन्तु इसके सिरों के पास चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता कम होती है। परिनालिका के बाहर चुम्बकीय क्षेत्र बिल्कुल वैसा ही होता है जैसा कि परिनालिका के अक्ष के अनुदिश रखे एक दण्ड चुम्बक के कारण। परिनालिका के अन्दर नर्म लोहे की छड़ रखने से परिनालिका द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र काफी बढ़ जाता है। 


प्रश्न 5. चुम्बकीय क्षेत्र में गतिमान आवेश पर लगने वाला बल किन बातों पर निर्भर करता है? इस बल के लिए आवश्यक सूत्र लिखिए। 


उत्तर चुम्बकीय क्षेत्र में गतिमान आवेश पर लगने वाला बल, निम्न कारकों पर निर्भर करता है


(ii) आवेश की चाल पर


(i) आवेश g पर q (iii) चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता B पर (iv) 0 तथा B के मध्य कोण θ पर गतिमान आवेश पर लगने वाला बल निम्न सूत्र द्वारा व्यक्त किया जाता है


F = quB sinθ



प्रश्न 6. चुम्बकीय बल की दिशा ज्ञात करने के नियम का उल्लेख कीजिए । 


अथवा फ्लेमिंग के बाएँ हाथ के नियम का सचित्र वर्णन कीजिए। 


उत्तर फ्लेमिंग के नियमानुसार, यदि बाएँ हाथ के अँगूठे, संकेत अँगुली तथा मध्यमा अँगुली को इस प्रकार फैलाएँ कि वे परस्पर लम्बवत् हो और संकेत अँगुली चुम्बकीय क्षेत्र (B) की दिशा को तथा मध्यमा अंगुली धारा (I) की दिशा को व्यक्त करे, तब अंगूठा चालक पर लगने वाले बल (F) की दिशा को व्यक्त करता है।


प्रश्न 7. दक्षिण हस्त अँगूठे के नियम में, हमारे विचार से छड़ AB का विस्थापन किस प्रकार प्रभावित होगा, यदि 


(i) छड़ AB में प्रवाहित वैद्युत धारा में वृद्धि हो जाए



(ii) अधिक प्रबल नाल चुम्बक प्रयोग किया जाए और 


(iii) छड़ AB की लंबाई में वृद्धि कर दी जाए?


उत्तर (i) छड़ AB में प्रवाहित वैद्युत धारा में वृद्धि करने पर चालक पर आरोपित बल में भी वृद्धि हो जाती है, अतः विस्थापन पहले की अपेक्षा अधिक होगा।


(ii) अधिक प्रबल नाल चुम्बक का प्रयोग करने पर, चुम्बकीय क्षेत्र अधिक प्रबल होगा। इसके कारण चालक पर अधिक मात्रा में बल आरोपित होगा व विस्थापन भी अधिक होगा।


(iii) चालक का विस्थापन इसकी लंबाई के अनुक्रमानुपाती होता है, अतः छड़ AB की लंबाई में वृद्धि करने पर इसके विस्थापन में भी वृद्धि होमी



प्रश्न 9. वैद्युत मोटर व वैद्युत जनित्र के बीच क्या अन्तर है? 


उत्तर वैद्युत मोटर व वैद्युत जनित्र के बीच निम्न अन्तर हैं।



वैद्युत मोटर

वैद्युत जनित्र

यह यान्त्रिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है।

यह वैद्युत ऊर्जा को यान्त्रिक ऊर्जा में परिवर्तित करता है।


कुण्डली को बाह्य स्रोत द्वारा धारा दी जाती है।

कुण्डली, चुम्बकीय क्षेत्र में घूर्णन करती है।

कुण्डली में वैद्युत द्वारा प्रवाहित करने पर कुण्डली में एक बलयुग्म कार्य करता है।


कुण्डली के चुम्बकीय क्षेत्र में घूर्णन करने से चुम्बकीय फ्लक्स के मान में परिवर्तन होता है


यह फ्लेमिंग के बाएँ हाथ के पर नियम पर कार्य करता है।

यह फ्लेमिंग के दाएं हाथ के पर नियम पर कार्य करता है।





विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 7 अंक


प्रश्न 1. वैद्युत मोटर का कार्यकारी सिद्धान्त क्या है? इसकी रचना एवं कार्यविधि चित्र बनाकर, स्पष्ट व्याख्या कीजिए।


अथवा वैद्युत मोटर का नामांकित आरेख खींचिए। इसका सिद्धान्त तथा कार्यविधि स्पष्ट कीजिए। वैद्युत मोटर में विभक्त वलय का क्या महत्त्व है? 


अथवा वैद्युत मोटर के सिद्धान्त, संरचना और कार्यविधि का सचित्र वर्णन कीजिए।



अथवा वैद्युत मोटर का नामांकित चित्र बनाइए तथा इसकी कार्यविधि समझाइए। इसका उपयोग किस प्रकार के ऊर्जा रूपान्तरण में होता है? 


अथवा उपयुक्त चित्र द्वारा एक वैद्युत मोटर की कार्यविधि समझाइए एवं इसकी उपयोगिता बताइए। 




 उत्तर वैद्युत मोटर वैद्युत मोटर एक ऐसा यन्त्र है, जो वैद्युत ऊर्जा को यान्त्रिक ऊर्जा में बदलता है।


सिद्धान्त वैद्युत मोटर का सिद्धान्त इस तथ्य पर आधारित है कि जब किसी कुण्डली को चुम्बकीय क्षेत्र में रखकर उसमें वैद्युत धारा प्रवाहित की जाती है, तो कुण्डली पर एक बलयुग्म कार्य करने लगता है, जो कुण्डली को उसके अक्ष पर घुमाने का प्रयास करता है। यदि कुण्डली अपने अक्ष पर घूमने के लिए स्वतन्त्र हो, तो वह घूमने लगती है।


संरचना वैद्युत मोटर के चार मुख्य भाग हैं।



(i) क्षेत्र चुम्बक यह एक शक्तिशाली स्थायी चुम्बक होती है, जिसके ध्रुव खण्ड N व S होते हैं।


(ii) आर्मेचर यह ताँबे के तार के अनेक फेरों वाली एक आयताकार कुण्डली ABCD होती है, जो कच्चे लोहे की क्रोड पर ताँबे के तार के पृथक्कित फेरे लपेटकर बनाई जाती है। यह चुम्बक के ध्रुवों NS के बीच घूमती है। 



(iii) विभक्त वलय ये दो अर्द्धवृत्ताकार वलयों अथवा दो खण्डों में विभक्त एक वलय के रूप में होते हैं। आर्मेचर की कुण्डली के सिरे इन दो अलग-अलग वलयों L व M से जुड़े होते हैं। ये वलय आर्मेचर के ध्रुव दण्ड से जुड़े होते हैं। 


(iv) ब्रुश विभक्त वलय L व M कार्बन धातु की बनी दो पत्तियों b1व b2 को स्पर्श करते इन्हें ब्रुश कहते हैं। इन ब्रुशों का सम्बन्ध दो संयोजक पेंचों से करके इनके बीच एक बैटरी लगा देते हैं। एक ब्रुश से वैद्युत धारा कुण्डली में प्रवेश करती है तथा दूसरे ब्रुश से वैद्युत धारा बाहर

निकलती है।


 कार्यविधि जब बैटरी से कुण्डली में वैद्युत धारा प्रवाहित करते हैं, तो फ्लेमिंग के बाएँ हाथ के नियम से, कुण्डली की भुजाओं AB तथा CD पर बराबर परन्तु विपरीत दिशा में दो बल कार्य करने लगते हैं, ये दोनों बल एक बल-युग्म बनाते है, जिसके कारण कुण्डली वामावर्त दिशा में घूमने लगती है। कुण्डली के साथ इसके सिरों पर लगे विभक्त वलय भी घूमने लगते हैं। इन विभक्त वलयों की मदद से धारा की दिशा इस प्रकार रखी जाती है कि कुण्डली पर बल-युग्म लगातार एक ही दिशा में कार्य करे अर्थात् कुण्डली एक ही दिशा में घूमती रहे।



उपयोग वैद्युत मोटर का उपयोग बिजली के पंखे, जल-पम्प, गेहूं पीसने की चक्की एवं अनेक वैद्युत उपकरणों में होता है।



प्रश्न 2. प्रत्यावर्ती धारा जनित्र के सिद्धान्त, संरचना और कार्यविधि का सचित्र वर्णन कीजिए।


अथवा वैद्युत जनित्र किस सिद्धान्त पर कार्य करता है? नामांकित चित्र बनाकर इसकी कार्यविधि समझाइए।



उत्तर प्रत्यावर्ती धारा जनित्र यह यान्त्रिक ऊर्जा को प्रत्यावर्ती धारा के रूप में वैद्युत ऊर्जा में बदलता है।


सिद्धान्त वैद्युत जनित्र वैद्युत चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धान्त पर कार्य करता है। जब किसी चालक से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है, तो उसमें वैद्युत वाहक बल उत्पन्न हो जाता है, जिसे प्रेरित वैद्युत वाहक बल कहते हैं और यदि परिपथ बन्द है, तो उसमें वैद्युत धारा प्रवाह होने लगती है, जिसे प्रेरित वैद्युत धारा कहते हैं।




प्रश्न 3. वैद्युत चुम्बकीय प्रेरण से आप क्या समझते हैं? फैराडे के वैद्युत चुम्बकीय प्रेरण सम्बन्धी नियमों को लिखिए। वैद्युत जनित्र का सिद्धान्त लिखिए।




उत्तर वैद्युत चुम्बकीय प्रेरण सम्बन्धी नियम


प्रथम नियम जब किसी कुण्डली से सम्बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स के मान में परिवर्तन होता है, तो कुण्डली में प्रेरित वैद्युत वाहक बल उत्पन्न होता है। यदि परिपथ बन्द है, तो कुण्डली में प्रेरित धारा प्रवाहित होती है।


द्वितीय नियम वैद्युत चुम्बकीय प्रेरण की प्रत्येक अवस्था में प्रेरित वैद्युत वाहक बल तथा प्रेरित धारा की दिशा इस प्रकार होती है कि वे उन कारणों का विरोध करते हैं, जिनके कारण उनकी उत्पत्ति हुई है। यह लेन्ज का नियम कहलाता है। लेन्ज का नियम ऊर्जा संरक्षण नियम पर आधारित होता है।



प्रश्न 4. डायनेमो क्या है? प्रत्यावर्ती धारा डायनेमो की संरचना तथा कार्यविधि का वर्णन कीजिए। 


अथवा प्रत्यावर्ती धारा जनित्र का स्वच्छ नामांकित चित्र खींचकर सिद्धान्त,  रचना एवं उसकी कार्यविधि का वर्णन कीजिए। 


 अथवा नामांकित आरेख खींचकर किसी वैद्युत डायनेमो का सिद्धान्त तथा कार्यविधि स्पष्ट कीजिए। इसमें बुशों का क्या कार्य है? 


उत्तर वह यन्त्र जो यान्त्रिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में बदल देता है, वैद्युत जनित्र (डायनेमो) कहलाता है। यह वैद्युत चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धान्त पर आधारित है। वैद्युत जनित्र में यान्त्रिक ऊर्जा का उपयोग चुम्बकीय क्षेत्र में रखे चालक को घूर्णी गति प्रदान करने में किया जाता है जिसके फलस्वरूप प्रेरित वैद्युत धारा उत्पन्न होती है।


वैद्युत जनित्र दो प्रकार के होते हैं


 (i) प्रत्यावर्ती धारा जनित्र


(ii) दिष्ट धारा जनित्र



प्रश्न 5. दिष्ट धारा वैद्युत जनित्र के सिद्धान्त एवं कार्यविधि का सचित्र वर्णन कीजिए।


उत्तर


दिष्ट धारा डायनेमो इसकी रचना प्रत्यावर्ती धारा डायनेमो के समान होती है। अन्तर केवल इतना है कि इसमें सर्पों वलयों के स्थान पर विभक्त वलयों

को उपयोग में लाते हैं।


 सिद्धान्त जब किसी बन्द कुण्डली को किसी शक्तिशाली चुम्बकीय क्षेत्र में तेजी से घुमाया जाता है, तो उसमें से होकर गुजरने वाले चुम्बकीय फ्लक्स में लगातार परिवर्तन होता रहता है, जिसके कारण कुण्डली में वैद्युत वाहक बल तथा एक वैद्युत धारा प्रेरित हो जाती है। कुण्डली को घुमाने में किया गया कार्य ही कुण्डली में वैद्युत ऊर्जा के रूप में परिणत हो जाता है। संरचना दिष्ट धारा जनित्र में निम्नलिखित मुख्य भाग होते हैं



इसके मुख्य भाग निम्नलिखित हैं


 (i) क्षेत्र चुम्बक यह एक शक्तिशाली चुम्बक NS होता है। इसका कार्य शक्तिशाली चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करना है, जिसमें कुण्डली घूमती है। इसके द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र की बल रेखाएँ N से Sकी ओर होती हैं।


(ii) आर्मेचर यह एक आयताकार कुण्डली a bed होती हैं, जो कच्चे लोहे के क्रोड पर पृथक्कित ताँबे के तार के बहुत से फेरों को लपेटकर बनाई जाती है। इसे आर्मेचर कुण्डली भी कहते हैं। इस कुण्डली को क्षेत्र के ध्रुव खण्डों NS शक्ति; जैसे-पेट्रोल इंजन अथवा जल-शक्ति आदि द्वारा तेजी के बीच बाह्य से घुमाया जाता है।





कक्षा 10वी विज्ञान अध्याय 13 ऊर्जा के स्त्रोत


class 10 science chapter 13 Sources of energy full solutions notes





ऊर्जा के स्त्रोत (Sources of Energy)



महत्वपूर्ण परिभाषा



#. दैनिक जीवन में कार्य करने के लिए हम ऊर्जा के भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग करते हैं।



#. ऊर्जा के वे स्रोत जिन्हें काफी लम्बे समय से प्रयोग में लाया जा रहा हो, ऊर्जा के पारम्परिक स्रोत कहलाते हैं।


#.वे ईंधन जिनका निर्माण सजीव प्राणियों के अवशेषों से करोड़ों वर्षों की जैविक क्रिया के बाद होता है, जीवाश्मी ईंधन कहलाते है।


 #.कोयला जीवाश्मी ईंधन का एक रूप है जो वनस्पतियों के कारण बनता है। इसको बनने में लाखों वर्ष लगते हैं।


#.LPG, प्रोपेन, ब्यूटेन, आइसो-ब्यूटेन आदि हाइड्रोकार्बनों का मिश्रण है।


#. प्राकृतिक गैस कई गैसों का मिश्रण होती है जिसमें मुख्यतया मीथेन होती है।



#. गिरते हुए या बहते हुए जल की ऊर्जा से जो विद्युत उत्पन्न होती है, उसे जल विद्युत कहते हैं। 


#.वैकल्पिक अथवा गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोत वे ऊर्जा स्रोत हैं जिनके भण्डार असीमित होते हैं वे अप्रचालित होने के कारण हमारी ऊर्जा की आवश्यकता को एक निश्चित सीमा तक ही पूरा कर पा रहे हैं।


#.सूर्य ऊर्जा का एक विशाल स्रोत है। इसकी अनुमानित आयु 4.6 x 10⁹ साल है और यह लगभग 5 x 10⁹ सालों तक ऊर्जा विकिरित करता रहेगा।


#.ऐसी युक्तियाँ जिनमें सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का अधिकांश भाग संगृहित किया जाता है, सौर तापन उपकरण कहलाते हैं।


 #.सोलर कुकर भोजन पकाने का एक बर्तन है जिसमें सौर ऊर्जा का उपयोग ईंधन के रूप में किया जाता है।


#. सौर ऊर्जा द्वारा ठण्डे जल को गरम करने के संयन्त्र को सौर जल हीटर कहते हैं।


#. ऊर्जा रूपान्तरण की युक्तियाँ जो प्रकाश-वैद्युत प्रभाव द्वारा सूर्य के प्रकाश को विद्युत शक्ति में बदलने के योग्य हैं, सोलर सेल कहलाते हैं। पास-पास सटे अनेक सोलर सेलों के समूह को सोलर पैनल कहते हैं।


#. पृथ्वी की सतह के अन्दर दबी हुई ऊष्मा अर्थात् ऊष्मीय ऊर्जा को भू-तापीय ऊर्जा कहते हैं।


#. नाभिकीय विखण्डन वह प्रक्रिया है जिसमें एक भारी नाभिक एक न्यूट्रॉन को ग्रहण करके लगभग समान द्रव्यमान के दो हल्के नाभिकों में टूट जाता है। संलयन कहलाती है।


#. जब दो या अधिक हल्के नाभिक तीव्र वेग से गति करते हुए आपस में संयुक्त होकर एक भारी नाभिक बनाएँ, तब यह प्रक्रिया नाभिकीय संलयन कहलाती हैं


मानव की उत्पत्ति के समय से ही ऊर्जा का विभिन्न रूपों में उपयोग होता रहा है। 



 ऊर्जा संरक्षण के नियम के अनुसार, विश्व की कुल ऊर्जा नियत है। ऊर्जा को केवल एक प्रारूप से दूसरे प्रारूप में रूपांतरित किया जाता है।


वह स्रोत जो सरलता से नियत दर पर, लम्बे समय तक ऊर्जा प्रदान कर सके ऊर्जा का स्रोत कहलाता है।


उत्तम ऊर्जा स्रोत


किसी उत्तम ऊर्जा स्रोत में निम्न विशेषताएँ होनी चाहिए 


(i) प्रति एकांक आयतन अथवा प्रति एकांक द्रव्यमान अधिक कार्य करने में सक्षमहोना चाहिए।


(ii) सरलता से सुलभ हो सके।


(iii) भंडारण व परिवहन में आसान हो।


(iv) कीमत बहुत अधिक नहीं होनी चाहिए।


ऊर्जा के पारंपरिक स्रोत


ऊर्जा के वे स्रोत, जो प्रकृति द्वारा प्रदत्त हैं तथा जिनका निर्माण अधिक समय में हुआ है, पारंपरिक स्रोत कहलाते हैं। प्रकृति में ये स्रोत सीमित और अनवीकरणीय होते हैं, जैसे- कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, विखंडित पदार्थ, आदि।


जीवाश्म ईंधन


लाखों वर्ष पूर्व पृथ्वी की सतह के अन्दर दबे पेड़-पौधे तथा जीव-जन्तु, जो उच्च ताप तथा दाब के कारण सतह के अन्दर जीवाश्म ईंधन के रूप में परिवर्तित हो गए, जीवाश्म ईंधन कहलाते हैं। जीवाश्म ईंधन के जलने पर CO₂, SO₂, NO₂, उत्पन्न होती हैं, जो वर्षा के समय जल में मिलकर अम्लीय वर्षा उत्पन्न करती हैं।


कोयला


यह कार्बन तथा कार्बन के अन्य तत्वों (हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, सल्फर, आदि) के साथ बनाए गए यौगिकों का मिश्रण है। यह ऊर्जा का वृहद् स्रोत है। इसका उपयोग घरों तथा उद्योगों में ईंधन के रूप में होता है।


पेट्रोलियम


यह काले रंग का एक विशेष गंध वाला अपरिष्कृत (Crude) तेल है, जो हाइड्रोकार्बनों का सम्मिश्रण होता है। इसमें पानी, लवण तथा पृथ्वी के कण के अतिरिक्त ऑक्सीजन, नाइट्रोजन तथा गंधक यौगिक भी मिश्रित होते हैं। इसका उपयोग मुख्य रूप से वाहनों में किया जाता है।


प्राकृतिक गैस


प्राकृतिक गैस एक महत्त्वपूर्ण स्वच्छ ऊर्जा संसाधन है। यह मुख्यतः मेथेन (CH₄) और कुछ मात्रा में एथेन (C₂H₆) और प्रोपेन (C₃H₈) से बनी होती है।


जीवाश्म ईंधन के दोष


1. जीवाश्म ईंधन जलने पर वायु प्रदूषण उत्पन्न करता है। . इसके जलने पर अम्लीय ऑक्साइड उत्पन्न होते हैं जो अम्लीय वर्षा करके पीने  योग्य पानी तथा पृथ्वी के अन्य स्रोत को प्रभावित करते हैं।


2.जीवाश्म ईंधन के जलने पर CO, मुक्त होती है। जीवाश्म ईंधन पूर्णतया ज्वलित नहीं है, कुछ अवशेष रह जाते हैं।


 जीवाश्म ईंधन से उत्पन्न प्रदूषण का नियंत्रण


जीवाश्म ईंधन के जलाने के कारण उत्पन्न होने वाले प्रदूषण को कुछ सीमाओं तक दहन प्रक्रम की दक्षता में वृद्धि करके कम किया जा सकता है। इसी के साथ दहन के फलस्वरूप निकलने वाली हानिकारक गैसो तथा राख से बचने के लिए विविध तकनीकों का उपयोग किया जाता है।




तापीय विद्युत संयंत्र


विद्युत संयन्त्रों में प्रतिदिन विशाल मात्रा में जीवाश्मी ईंधन का दहन करके जल उबालकर भाप बनाई जाती है जो टरबाइनों को घुमाकर विद्युत उत्पन्न करती है। समान दूरियों तक कोयले तथा पेट्रोलियम के परिवहन की तुलना में विद्युत संचरण अधिक दक्ष होता है। यही कारण है कि बहुत से तापीय विद्युत संयन्त्र कोयले तथा तेल के क्षेत्रों के निकट स्थापित किए गए हैं जिससे परिवहन का खर्चा बच जाता है। इन संयन्त्रों को तापीय विद्युत संयन्त्र कहने का कारण यह है कि इन संयन्त्रों में ईंधन के दहन द्वारा ऊष्मीय ऊर्जा उत्पन्न की जाती है जिसे विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित किया जाता है।


जल विद्युत संयंत्र


ऊर्जा का एक अन्य पारंपरिक स्रोत बहते जल की गतिज ऊर्जा अथवा किसी ऊँचाई पर स्थित जल की स्थितिज ऊर्जा है। जल विद्युत संयन्त्रों में गिरते जल की स्थितिज ऊर्जा को विद्युत में रूपांतरित किया जाता है, जिससे अधिक विद्युत ऊर्जा प्राप्त होती है।


जल विद्युत उत्पादन का सिद्धान्त - जल विद्युत उत्पन्न करने के लिए नदियों के बहाव को रोककर बड़े जलाशयों पर ऊँचे-ऊँचे बाँध बनाए जाते हैं। इन जलाशयों में जल संचित होता रहता है। जल विद्युत संयन्त्रों में ऊँचाई से गिरते जल की स्थितिज ऊर्जा का विद्युत ऊर्जा में रूपांतरण होता है। बाँध के ऊपरी भाग से पाइपों द्वारा जल, बाँध के आधार के पास स्थापित टरबाइन के ब्लेडों पर मुक्त रूप से गिरता है। फलस्वरूप टरबाइन के ब्लेड घूर्णन गति करते हैं और जनित्र द्वारा विद्युत उत्पादन होता है।


जलीय विद्युत के लाभ


1.इससे वातावरण प्रदूषित नहीं होता।


2.नदियों के किनारे बने बाँध, बाढ़ को रोकने में सहायक होते हैं तथा खेतों की सिंचाई करने में भी सहयोग करते हैं।


जलीय विद्युत के दोष


#.इससे खेतों की उत्पादक क्षमता में कमी आ जाती है, जिससे फसलें भी प्रभावित होती हैं।


#.बाँधों का निर्माण पहाड़ी क्षेत्रों में ही किया जा सकता है। अतः इनके निर्माण का क्षेत्र सीमित होता है।


#.वह वनस्पति जो बाँध के समीप है, पानी में डूब जाती है तथा यह ग्रीन हाउस गैस मेथेन का निर्माण करने लगती है।


#.उपरोक्त कारणों से बाँधों के निर्माण में वहाँ की जनता विरोध करती है।


 उदाहरण - टिहरी बाँध योजना (गंगा नदी पर ), सरदार सरोवर बाँध योजना (नर्मदा नदी पर )


ऊर्जा के पारंपरिक स्रोतों के उपयोग के लिए प्रौद्योगिकी में सुधार


1. जैव-मात्रा (बायोमास )


यह परंपरागत ऊर्जा का स्रोत है, लकड़ी, फसलों के अवशेष, गन्ने के छिलके, गाय के गोबर के उपले आदि को घरों तथा उद्योगों में ईंधन के रूप में उपयोग में लिया जाता है, जिसे जैव-मात्रा कहते हैं। जैव-मात्रा का उपयोग विद्युत के उत्पादन में भी किया जाता है। मेथेन (CH) गैस, वनस्पति तथा जानवरों के सड़ने के कारण बनती है।


2. चारकोल


लकड़ी को नियंत्रित हवा की उपस्थिति में जलाया जाता है, तो उसमें उपस्थित जल तथा वाष्पशील पदार्थ बाहर निकल जाते हैं तथा अवशेष के रूप में चारकोल रह जाता है। इसकी तापीय (या ऊष्मीय) क्षमता, लकड़ी से अधिक होती है तथा यह अपेक्षाकृत कम धुआँ उत्पन्न करता है।


3. पवन ऊर्जा


गतिशील वायु को पवन कहते हैं। वायु की तीव्र गति के कारण इसमें गतिज ऊर्जा होती है। इस ऊर्जा को पवन टरबाइन द्वारा प्राप्त किया जाता है। सूर्य द्वारा पृथ्वी की सतह पर असमान ऊष्मा उत्पन्न होने के कारण पृथ्वी की सतह पर दाब भिन्न स्थानों पर भिन्न हो जाता है। इस कारण पवन धाराएँ प्रवाहित होने लगती हैं। इस गतिज ऊर्जा का उपयोग निम्न कार्यों में किया जाता है


1.विद्युत उत्पादन में। 


2.पृथ्वी की सतह के अन्दर से पानी बाहर निकालने में।


3. अनाज पीसने की चक्कियों में।


पवन चक्की


पवन चक्की का उपयोग विद्युत उत्पादन में किया जाता है। पवन चक्की में ऊर्जा रूपान्तरण का क्रम निम्न होता है


पवन ऊर्जा यांत्रिक ऊर्जा विद्युत ऊर्जा पवन ऊर्जा के उपयोग की सीमाएँ


पवन ऊर्जा के उपयोग की सीमाएँ निम्नलिखित हैं इनको केवल उन्हीं स्थानों पर स्थापित किया जा सकता है, जहाँ पूरे साल वायु बहती रहती है। वायु की न्यूनतम गति 15 किमी / घंटा होनी चाहिए, जो सदैव नहीं होती। उत्पादित विद्युत को संग्रहित करने की सुविधा होनी चाहिए, जिससे वायु नहीं चलने की स्थिति में भी विद्युत उपलब्ध रहे।


 वैकल्पिक अथवा गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोत


आधुनिक समय मशीनीकरण का समय है, जिसमें निरंतर ऊर्जा की माँग बढ़ रही है। तथा परंपरागत ऊर्जा स्रोतों की सीमित मात्रा कम होती जा रही है। अतः आवश्यक ऊर्जा की पूर्ति के लिए ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों को खोजने की आवश्यकता है। कुछ गैर-परंपरागत ऊर्जा के स्रोत निम्न हैं


सौर ऊर्जा


सूर्य की विकिरण से प्राप्त ऊर्जा सौर ऊर्जा कहलाती है, जिससे ऊष्मा तथा प्रकाश प्राप्त होता है। सूर्य की सतह के अन्दर नाभिकीय संलयन के द्वारा इस ऊर्जा का. उत्पादन ऊष्मा तथा प्रकाश के रूप में होता है।


सौर ऊर्जा के लाभ


#.इससे प्रदूषण नहीं होता है तथा यह मूल्य रहित है।


#.यह हमारे देश में (ग्रीष्म देशों की भाँति ) प्रचुर मात्रा में उपलब्ध सौर ऊर्जा के व्यवहारिक उपयोग निम्न हैं


#. सौर कुकर द्वारा खाना बनाने में। कपड़े तथा अनाज सुखाने में।


सौर ऊर्जा की सीमाएँ


यह पूरे समय समान मात्रा में सभी स्थानों पर उपलब्ध नहीं होती है। रात्रि में उपलब्ध नहीं होती है तथा आकाश में बादल होने पर भी उपलब्ध नहीं होती है।


सौर ऊर्जा युक्तियाँ


वे युक्तियाँ जिनके प्रचालन के लिए सौर ऊर्जा का उपयोग होता है, सौर ऊर्जा युक्तियाँ कहलाती हैं, जैसे-सौर कुकर, सौर पैनल, सौर सैल, आदि।


(i) सौर कुकर इस युक्ति में सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करके खाना पकाया जाता है। इसमें एक पृथक्कृत धातु का बक्सा या लकड़ी का बक्सा होता है, जिसको अन्दर से काला पेंट कर दिया जाता है, जिससे यह अधिकतम सूर्य के विकिरणों का अवशोषण कर सके। इस बॉक्स के ऊपर एक काँच की पतली आवरण होती है, जो हरितगृह प्रभाव का कार्य करती हैं। बॉक्स में एक समतल दर्पण को परावर्तक के रूप में लगा दिया जाता है।


(ii) सौर सेल यह सौर ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करने की युक्ति है। ये सेल अर्द्धचालकों, जैसे-सिलिकन, जर्मेनियम तथा गेलियम से बने होते हैं। इन सेलों को फोटोवोल्टिक सेल भी कहते हैं। सौर सेल बनाने के लिए सिलिकन है।


अर्द्धचालक का उपयोग किया जाता है। यह वातावरण के अनुकूल है तथा कोई प्रदूषण उत्पन्न नहीं करता है। इसको बनाने की प्रक्रिया बहुत महँगी होती है।


 (d) सौर पैनल जब बहुत सारे सौर सेलों को एक क्रम में संयोजित कर दिया जाता है, तो यह संयोजन सौर पैनल कहलाता है। इससे प्राप्त विद्युत वाहक बल का मान अधिक होता है तथा धारा का मान भी अधिक प्राप्त होता है। यह व्यवस्था सौर पैनल कहलाती है। सौर सेल पैनल को झुकी हुई छत पर लगाया जाता है. जिससे अधिकतम सूर्य का प्रकाश इस पर आपत्ति हो सके।


समुद्रों से ऊर्जा


समुद्र एक नवीकरणीय ऊर्जा का स्रोत है। समुद्र से प्राप्त ऊर्जा के अनेक प्रारूप हैं। जिनका वर्णन निम्नलिखित हैं


1. ज्वारीय ऊर्जा


चन्द्रमा के आकर्षण के कारण समुद्र की सतह ऊपर व नीचे होती रहती है। इस प्रकार समुद्र की सतह पर तरंगे उत्पन्न हो जाती हैं। यही तरंगें ज्वारीय तरंगें कहलाती हैं। इन तरंगों के ऊपर नीचे जाने में जो ऊर्जा उत्पन्न होती है वही ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा कहलाती है।


2. तरंग ऊर्जा


तेज हवा के कारण समुद्र की सतह पर पानी में तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं। इन तरंगों में अत्यधिक गतिज ऊर्जा होती है। इस ऊर्जा का उपयोग, अनेक युक्तियों में; जैसे-जनित्र की टरबाइन के घूर्णन में तथा विद्युत के उत्पादन में किया जाता है।


3. महासागरीय तापीय ऊर्जा समुद्रों अथवा महासागरों के पृष्ठ का जल, सूर्य द्वारा तप्त हो जाता है, जबकि इनके गहराई वाले भाग का जल अपेक्षाकृत ठंडा होता है। ताप में इस अंतर का उपयोग सागरीय तापीय ऊर्जा रूपांतरण विद्युत संयन्त्र (Ocean Thermal Energy Conversion Plant या OTEC विद्युत संयन्त्र) में ऊर्जा प्राप्त करने के लिए किया जाता है। OTEC विद्युत संयन्त्र केवल तभी प्रचालित होते हैं, जब महासागर के पृष्ठ पर जल का ताप तथा 2 किमी तक की गहराई पर जल के ताप में 20°C का अंतर हो। पृष्ठ के तप्त जल का उपयोग अमोनिया जैसे- वाष्पशील द्रवों को उबालने में किया जाता है। 


4. भूतापीय ऊर्जा


भौमकीय परिवर्तनों के कारण भूपर्पटी में गहराइयों पर तप्त क्षेत्रों में पिघली चट्टानें ऊपर धकेल दी जाती हैं जो कुछ क्षेत्रों में एकत्र हो जाती हैं। इन क्षेत्रों को तप्त स्थल कहते हैं। जब भूमिगत जल इन तप्त स्थलों के संपर्क में आता है, तो भाप उत्पन्न होती है। कभी-कभी इस तप्त जल को पृथ्वी के पृष्ठ से बाहर निकलने के लिए निकास मार्ग मिल जाता है। इन निकास मार्गों को गरम चश्मा अथवा ऊष्ण स्रोत कहते हैं। कभी-कभी यह भाप चट्टानों के बीच में फँस जाती है, जहाँ इसका दाब अत्यधिक हो जाता है। तप्त स्थलों तक पाइप डालकर इस भाप को बाहर निकाल लिया जाता है। उच्च दाब पर निकली यह माप विद्युत जनित्र की टरबाइन को घुमाती है, जिससे विद्युत उत्पादन करते हैं।


नाभिकीय ऊर्जा


परमाणु के नाभिक में संग्रहित ऊर्जा, नाभिकीय ऊर्जा कहलाती है। यह ऊर्जा नाभिकीय अभिक्रियाओं में मुक्त होती है। नाभिकीय ऊर्जा की सबसे मुख्य कमी या हानि यह है, कि इसके उत्सर्जन में रेडियोएक्टिव पदार्थों का अभिक्रिया के बाद उत्पन्न होना। इन रेडियोएक्टिव पदार्थों को नियंत्रित अथवा समाप्त करना अत्यधिक कठिन होता है। नाभिकीय अभिक्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं


1. नाभिकीय विखंडन


जब किसी भारी नाभिक पर मन्दगामी न्यूट्रॉन की बौछार करते हैं, तो इसका विभाजन दो हल्के नामिकों में हो जाता है। इस अभिक्रिया में बहुत अधिक ऊर्जा मुक्त होती है। यह अभिक्रिया नाभिकीय विखंडन कहलाती है। यह विखंडन धीमी गति के न्यूट्रॉनों को उस पदार्थ के नामिक से टकराने पर होता है। इस सिद्धान्त के आधार पर नाभिकीय संयन्त्र विद्युत ऊर्जा का उत्पादन करते हैं।


2. नाभिकीय संलयन


जब दो या दो से अधिक हल्के नामिक किसी अभिक्रिया में संलयित होकर एक भारी नामिक बनाते हैं, तो इस अभिक्रिया में बहुत अधिक ऊर्जा उत्सर्जित होती है। इस • ऊर्जा पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता है। यही अभिक्रिया नाभिकीय संलयन कहलाती है। 


हाइड्रोजन बम


हाइड्रोजन बम ताप नाभिकीय अभिक्रिया' पर आधारित होता है। हाइड्रोजन बम के कोड में यूरेनियम अथवा प्लूटोनियम के विखंडन पर आधारित किसी नाभिकीय बम को रख देते हैं। यह नाभिकीय बम ऐसे पदार्थ में अंतःस्थापित किया जाता है जिनमें ड्यूटीरियम तथा लीथियम होते हैं। जब इस नाभिकीय बम (जो विखंडन पर आधारित है) को अधिविस्फोटित करते हैं, तो इस पदार्थ का ताप कुछ ही माइक्रोसेकंड में 10 K तक बढ़ जाता है। यह अति उच्च ताप हल्के नामिकों को संलयित होने के लिए पर्याप्त ऊर्जा उत्पन्न कर देता है जिसके फलस्वरूप अंति विशाल परिमाण की ऊर्जा मुक्त होती है।


परमाणु ऊर्जा उत्पादन में मुख्य खतरें निम्न हैं


1.प्रयुक्त ईंधन का रख-रखाव


2.नाभिकीय अवशेषों का उचित रख-रखाव न हो पाना


3.नाभिकीय विकिरणों का लीक होने का भय


नोट नाभिकीय अभिक्रिया के पश्चात् शेष पदार्थ, नाभिकीय अपशिष्ट कहलाता है।


जिससे  विकिरण उत्पन्न होते हैं।


पर्यावरण विषयक सरोकार


किसी भी ऊर्जा को प्राप्त करने पर वातावरण को क्षति पहुँचती है तथा वातावरण का संतुलन भी बिगड़ जाता है। जीवाश्म ईंधन की तुलना में वैकल्पिक स्रोतों से क्षति कम होती है।


ऊर्जा की बढ़ती खपत के पर्यावरण पर निम्न प्रभाव होंगे




#. जीवाश्म ईंधन को जलाने पर अम्लीय वर्षा की सम्भावनाएँ बढ़ेगी जिससे पेड़-पौधे, फसलें और खेती की भूमि प्रभावित होगी। पानी में रहने वाले जीव-जन्तुओं पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।


 #.जीवाश्म ईंधन के जलने पर हरित गृह प्रभाव की CO₂ गैस की मात्रा वातावरण में बढ़ जाएगी। नाभिकीय विद्युत तापीय घरों के निर्माण से वातावरण में रेडियोएक्टिवता की मात्रा बढ़ती जा रही है।


ऊर्जा स्रोतों की समाप्ति


जीवाश्म ईंधन स्रोत समाप्ति की ओर अग्रसर है। अतः नवीकरणीय स्रोतों की ओर अधिकतम ध्यान देना होगा तथा ऐसे ऊर्जा स्रोत का चयन करना होगा, जो सरलता से उपलब्ध हो व ऊर्जा निष्कर्षण की लागत, ऊर्जा स्रोत के उपयोग की उपलब्ध प्रौद्योगिकी की दक्षता जैसे कारकों पर निर्भर करता हो।


बहुविकल्पीय 1 अंक



प्रश्न 1. जीवाश्म ईंधन है


(a) पेड़-पौधे


(c) कोयला एवं पेट्रोलियम


(b) जीव-जन्तु 


(d) कोयला



उत्तर (c) कोयला एवं पेट्रोलियम जीवाश्म ईंधन है।


 प्रश्न 2. निम्नलिखित में कौन ऊर्जा का अनवीकरणीय स्रोत है?


(a) लकड़ी


(b) सूर्य 


(C) जीवाश्मी ईंधन


(d) पवन




उत्तर (c) जीवाश्मी ईंधन ऊर्जा का अनवीकरणीय स्रोत है।


प्रश्न 3. जीवाश्म ऊर्जा का स्रोत है।


(a) पवन ऊर्जा


 (b) सौर ऊर्जा


 (c)कोयला


 (d) जल विद्युत


 उत्तर (c) जीवाश्म ऊर्जा का स्रोत कोयला है।





प्रश्न 4. अम्लीय वर्षा होने का कारण यह है कि


 (a) सूर्य वायुमण्डल की ऊपरी परतों को तप्त करना आरम्भ करता है.


(b) जीवाश्मी ईंधनों के जलने पर वायुमण्डल में कार्बन, नाइट्रोजन व सल्फर के ऑक्साइड मुक्त होते हैं।


(c) बादलों के घर्षण के कारण विद्युत आवेश उत्पन्न होते हैं


 (d) पृथ्वी के वायुमण्डल में अम्ल होते हैं


उत्तर (b) जीवाश्मी ईंधनों के जलने पर वायुमण्डल में कार्बन, नाइट्रोजन व सल्फर के ऑक्साइड मुक्त होते हैं, जिससे अम्लीय वर्षा होती है।


प्रश्न 5. तापीय विद्युत संयन्त्र में उपयोग होने वाला ईंधन है।


(a) जल


(b) यूरेनियम


(C) जैव-मात्रा


(d) जीवाश्मी ईंधन


उत्तर (d) तापीय विद्युत संयन्त्र में जीवाश्मी ईंधन, ईंधन के रूप में उपयोग होता है।


प्रश्न 6. जल विद्युत संयन्त्र में ऊर्जा विद्युत में रूपान्तरित हो जाती है ।


 (a) संचित जल की स्थितिज


(b) संचित जल की गतिज ऊर्जा स्थितिज ऊर्जा में रूपान्तरित हो जाती है 


(C) जल से विद्युत निष्कर्ष की जाती है।


(d) विद्युत प्राप्त करने के लिए जल को भाप में रूपान्तरित किया जाता है


 उत्तर (a) जल विद्युत संयन्त्र में संचित जल की स्थितिज ऊर्जा विद्युत में रूपान्तरित होती है।


प्रश्न 7. निम्नलिखित में से कौन-सा जैव मात्रा ऊर्जा स्रोत का उदाहरण नहीं है?


(a) लकड़ी


(b) गोबर गैस


(c) नाभिकीय ऊर्जा


(d) कोयला


उत्तर (c) नाभिकीय ऊर्जा; 


प्रश्न 8. गर्म जल प्राप्त करने के लिए हम सौर जल तापक का उपयोग किस दिन नहीं कर सकते ?



(a) धूप वाले दिन


(b) बादलों वाले दिन


(c) गर्म वाले दिन


(d) पवनों (वायु) वाले दिन


उत्तर (b) बादलों वाले दिन; क्योंकि बादलों वाले दिन सौर विकिरण की उपलब्धता सीमित (निम्नतम) होगी तथा सौर जल तापक कार्य नहीं करेगा।


प्रश्न 9. जितने ऊर्जा स्रोत हम उपयोग में लाते हैं, उनमें से अधिकांश सौर ऊर्जा को निरूपित करते हैं। निम्नलिखित में से कौन-सा स्रोत अंततः सौर ऊर्जा से व्युत्पन्न नहीं है?


(a) भूतापीय ऊर्जा


(b) पवन ऊर्जा


(c) नाभिकीय ऊर्जा


(d) जैव-मात्रा


उत्तर (c) केवल नाभिकीय ऊर्जा, सौर ऊर्जा का उपयोग नहीं करती है, बल्कि नाभिकीय अभिक्रियाओं के फलस्वरूप नाभिकीय ऊर्जा का उत्पादन होता है।


प्रश्न10. महासागरीय तापीय ऊर्जा का कारण हैं



 (a) महासागर में तरंगों द्वारा संचित ऊर्जा


(b) महासागरों में विभिन्न स्तरों पर ताप में अन्तर


(C) महासागरों में विभिन्न स्तरों पर दाब में अन्तर


(d) महासागर में उत्पन्न ज्वार


उत्तर (b) महासागरीय तापीय ऊर्जा का कारण, महासागरों में विभिन्न स्तरों पर ताप में अन्तर होता है।


अतिलघु उत्तरीय प्रश्न 2 अंक


प्रश्न 1. ऊर्जा के आदर्श स्रोत के क्या गुण होते हैं? अथवा ऊर्जा का उत्तम स्रोत किसे कहते हैं?



उत्तर – ऊर्जा के आदर्श स्रोत के गुण निम्न हैं।


(i) यह प्रति एकांक द्रव्यमान/आयतन बहुत अधिक मात्रा में कार्य करता है।


(ii) यह सरलता से उपलब्ध होता है। 


(iii) इसका परिवहन व भण्डारण सरल होता है।


(iv) यह हानिकारक अवशेष उत्पन्न नहीं करता अर्थात् पर्यावरण की दृष्टि से इसका उपयोग सुरक्षित है।


 (v) इसकी कीमत या लागत मूल्य कम होता है।



प्रश्न 2. किन्हीं दो परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के नाम लिखिए। 


उत्तर कोयला तथा पेट्रोलियम



प्रश्न 3. जीवाश्म ईंधन के जलने से किस प्रकार जल प्रदूषण होता है? स्पष्ट कीजिए। 


उत्तर – जीवाश्म ईंधन के जलने पर निम्न गैसे जैसे- CO₂  ,O₂, NO₂, इत्यादि उत्पन्न होती है, जो वर्षा होने पर जल में मिल जाती है तथा अम्लीय वर्षा उत्पन्न करती है। 


प्रश्न 4, ऊर्जा स्रोत के रूप में जीवाश्मी ईंधनों तथा सूर्य की तुलना कीजिए और उनमें अंतर लिखिए। 


उत्तर


जीवाश्मी ईंधन तथा सूर्य में अन्तर




जीवाश्मी ईंधन

सूर्य

यह अनवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है तथा समाप्य भी


यह अनवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है तथा समाप्य भी।

इनके दहन से पर्यावरण का प्रदूषण होता है।


यह प्रदूषण रहित ऊर्जा स्रोत है केवल युक्तियों के संयोजन में कम-से-कम प्रदूषण हो सकता है। 


यह महँगा परन्तु सामान्यतया उपयोग किया जाने वाला स्रोत हैं।

यह निशुल्क उपलब्ध स्रोत है, परन्तु उपयोग किया जाने वाला इसकी ऊर्जा को उपयोग कर सकने वाली युक्तियों का संयोजन काफी खर्चीला है।





प्रश्न 5. कोयला तथा पेट्रोलियम जैसे प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग की आवश्यकता क्यों है?


उत्तर – कोयला तथा पेट्रोलियम जीवाश्मी ईंधन हैं, जिनकी पृथ्वी पर सीमित मात्रा है, जितनी तेजी से हम इनका उपयोग कर रहे हैं, उतनी ही तेजी से ये पृथ्वी से समाप्त हो जाएँगे। अतः भावी पीढ़ियों के लिए इनकी उपलब्धता बनी रहे,


इसके लिए इन प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग आवश्यक है। 



प्रश्न 6. तापीय विद्युत संयन्त्रों को कोयले अथवा तेल के भंडारों के समीप क्यों स्थापित किया जाता है?


 उत्तर – तापीय विद्युत संयन्त्र कोयले तथा तेल को ईंधन के रूप में प्रयुक्त करते हैं।


अतः कोयले व तेल के भंडार के समीप होने पर परिवहन का खर्चा बच जाता है?



प्रश्न 7. एक जल विद्युत संयन्त्र में किस ऊर्जा का रूपान्तरण होता है


उत्तर जल विद्युत उत्पादन के लिए एक जल विद्युत संयन्त्र में अधिक ऊँचाई से गिरते हुए जल की स्थितिज ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में रूपान्तरित किया जाता है, जिससे अधिक विद्युत ऊर्जा प्राप्त होती है।




प्रश्न 8. नदियों पर बाँध बनाकर जल-विद्युत उत्पादन के दो लाभ तथा दो हानियाँ लिखिए।




उत्तर


 लाभ


(i) सिंचाई के लिए जल उपलब्ध होता है। 


(ii) बाढ़ नियन्त्रण में सहायता मिलती है।



हानि


 (i) बाँध बनाने से बहुत-सी भूमि जलमग्न हो जाती है तथा बाँध के क्षेत्र में आने वाले गाँवों से लोगों को पलायन करना पड़ता है।


 (ii) नदी के जल-प्रवाह क्षेत्र से पर्यावरण तथा फसलों की उत्पादकता प्रभावित होती है।




प्रश्न 9. जैव-मात्रा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। 


उत्तर यह परम्परागत ऊर्जा का स्रोत है, लकड़ी, फसलों के अवशेष, गन्ने के छिलके, गाय के गोबर के उपले, आदि को घरों तथा उद्योगों में ईंधन के रूप में उपयोग में लिया जाता है, जिसे जैव-मात्रा कहते हैं। जैव-मात्रा का उपयोग विद्युत के उत्पादन में भी किया जाता है।


 मेथेन (CH₄)वनस्पति तथा जानवरों के सड़ने के कारण बनती है।


प्रश्न 10. लकड़ी का कोयला किस प्रकार तैयार किया जाता है? घरेलू ईंधन में लकड़ी की अपेक्षा कोयले के उपयोग का एक लाभ लिखिए।


उत्तर यह कार्बन तथा कार्बन के अन्य तत्वों (हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन सल्फर, आदि) के साथ बनाए गए यौगिकों का मिश्रण है। कोयला, हवा की अनुपस्थिति में लकड़ियों को जलाकर प्राप्त किया जाता है। कोयले की ऊष्मीय क्षमता या कैलोरिक मान, लकड़ी की तुलना में अधिक होता है। यह ऊर्जा का वृहद् स्रोत है। इसका उपयोग घरों तथा उद्योगों में ईंधन के रूप में होता है। 


प्रश्न 11. वायु में किस प्रकार की ऊर्जा होती है तथा इस ऊर्जा को किस युक्ति द्वारा प्राप्त किया जाता है?


 उत्तर – वायु में निहित ऊर्जा, पवन ऊर्जा कहलाती है। यह वायु की गति के कारण होती है। अतः यह गतिज ऊर्जा होती है। इस ऊर्जा को पवन टरबाइन द्वारा प्राप्त किया जाता है।



प्रश्न 12. दैनिक जीवन में सौर ऊर्जा का किन दो कार्यों के लिए आप उपयोग करते हैं? उन उपयोगों के नाम लिखिए। 


उत्तर – सौर ऊर्जा का उपयोग निम्न दो कार्यों के लिए किया जाता है


 (i) सौर कुकर द्वारा खाना बनाने में।


 (ii) कपड़े तथा अनाज सुखाने में।



प्रश्न 13. सौर कुकर का आंतरिक भाग काला क्यों कर दिया जाता है? 


उत्तर सौर कुकर के आंतरिक भाग पर काला पेंट कर दिया जाता है, जिससे यह कुकर के अन्दर आने वाले सभी विकिरणों को अवशोषित कर लेता है। इस कारण सौर कुकर के आंतरिक भाग का तापक्रम बढ़ जाता है।


प्रश्न 14. सौर कुकर का कौन-सा भाग हरितगृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी है?


उत्तर सौर कुकर में प्रयुक्त काँच की सीट हरितगृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी है,क्योंकि यह बक्से में सूर्य के विकिरण द्वारा उत्पन्न ऊष्मा को बक्से से बाहर नहीं जाने देती तथा हरित गृह प्रभाव उत्पन्न करती है।



प्रश्न 15. सौर कुकर के लिए कौन-सा दर्पण-अवतल, उत्तल अथवा समतल सर्वाधिक उपयुक्त होता है? क्यों?



उत्तर सौर कुकर के लिए सर्वाधिक उपयुक्त दर्पण अवतल दर्पण होता है, क्योंकि यह एक अभिसारी दर्पण है, जो सूर्य की किरणों को एक बिन्दु पर फोकसित

करता है, जिससे शीघ्र ही सौर कुकर का ताप बढ़ जाता है।


 प्रश्न 16. उन दो ऊर्जाओं के नाम लिखिए जो सौर ऊर्जा को महासागर प्रदर्शित करती हैं।


उत्तर ऊर्जा के प्रकार निम्न हैं 


(i) ज्वारीय ऊर्जा


 (ii) महासागरीय तापीय ऊर्जा



प्रश्न 17. ऊर्जा के दो वैकल्पिक स्रोतों के नाम लिखिए। 


उत्तर सौर ऊर्जा तथा नाभिकीय ऊर्जा।



प्रश्न 18. महासागरीय तापीय ऊर्जा के क्या कारण हैं?


उत्तर महासागर में भिन्न स्तरों पर तापमान में भिन्नता, महासागर की सबसे ऊपरी सतह का जल सूर्य से विकिरण द्वारा ऊष्मा पाकर गर्म हो जाता है, जबकि निम्न स्तरों पर जल का ताप अपेक्षाकृत कम होता है। इस ताप में अंतर का उपयोग, महासागरीय तापीय ऊर्जा संयन्त्रों द्वारा विद्युत ऊर्जा प्राप्त करने में किया जाता है।



प्रश्न 19. भूतापीय ऊर्जा क्या होती है?


 उत्तर भूपर्पटी में उपस्थित तप्त स्थलों से भूतापीय ऊर्जा प्राप्त होती है। तप्त स्थलो के संपर्क में आने वाला भूमिगत जल भाप में परिवर्तित हो जाता है। जब यह भाष चट्टानों में फंस जाती है, तो इसका दाब बढ़ जाता है, जिसे पाइपों द्वारा निकाल लिया जाता है। उच्च दाब पर निकली इस भाप की शक्ति से विद्युत जनित्र के टरबाइन को घुमा कर विद्युत उत्पादन किया जाता है, यही भूतापीय ऊर्जा कहलाती है।



प्रश्न 20. नाभिकीय विखंडन की प्रक्रिया की परिभाषा दीजिए।


उत्तर जब किसी भारी नाभिक पर मन्द गामी न्यूट्रॉन की बौछार करते हैं, तो इसका  विभाजन दो हल्के नाभिकों में हो जाता है। इस अभिक्रिया में बहुत अधिक ऊर्जा मुक्त होती है। यह अभिक्रिया नाभिकीय विखंडन कहलाती है।


 प्रश्न 21. ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों के नाम लिखिए एवं नाभिकीय ऊर्जा के महत्त्व का संक्षिप्त विवरण दीजिए।


उत्तर - ऊर्जा के निम्न स्रोत हैं


(i) परम्परागत स्त्रोत जीवाश्म ईंधन, तापीय विद्युत संयन्त्र, जल विद्युत संयन्त्र, कोयला, पेट्रोलियम, जैव गैस, पवन ऊर्जा, आदि। 


(ii) अपरम्परागत स्रोत सौर ऊर्जा, सौर पेनल, सौर सेल, समुद्री ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा, नाभिकीय ऊर्जा, आदि। नाभिकीय ऊर्जा का महत्त्व निम्नलिखित हैं।


(i) जीवाश्मी ईंधन से प्राप्त ऊर्जा की तुलना में यूरेनियम के विखण्डन से बहुत अधिक ऊर्जा प्राप्त होती है। जिसका उपयोग विद्युत उत्पादन के लिए नाभिकीय संयन्त्रों में किया जाता है।


(ii) जहाँ अन्य परम्परागत ऊर्जा स्त्रोत अतिशीघ्र समाप्त हो जाने वाले है; वहीं नाभिकीय ऊर्जा बहुत लम्बे समय तक हमारी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है।




प्रश्न 22. नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन में सबसे मुख्य समस्या क्या है?


उत्तर नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन में सबसे मुख्य समस्या है, प्रयुक्त अथवा अपशिष्ट ईंधन का सुरक्षापूर्ण विधि से निपटारा होना। यदि इसके लिए असुरक्षित विधियाँ अपनाई जाती हैं, तो पर्यावरण प्रदूषण का खतरा तो बढ़ता ही है, साथ ही साथ किसी भी संभावित दुर्घटना द्वारा उत्पन्न नाभिकीय विकिरण से होने वाली अपार क्षति की संभावना भी रहती है। इसके अतिरिक्त नाभिकीय ईंधन की उपलब्धता भी कम है। [2]


प्रश्न 23. नाभिकीय संलयन को परिभाषित कीजिए।



उत्तर दो हल्के नाभिकों के परस्पर संयुक्त होकर एक भारी नाभिक बनाने को नाभिकीय संलयन कहते हैं। इस अभिक्रिया में बहुत अधिक ऊर्जा उत्सर्जित होती

है। इस ऊर्जा पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता है।


उदाहरण


H+H→ H + H + 4.0MeV (ऊर्जा) ड्यूटीरियम ड्यूटीरियम ट्राइटियम प्रोटियम की प्रक्रिया



प्रश्न 24. नाभिकीय अपशिष्ट क्या है? जीवित प्राणियों के लिए उसके क्या खतरे हैं?


उत्तर नाभिकीय अभिक्रिया के पश्चात् शेष पदार्थ, नाभिकीय अपशिष्ट कहलाता है। यह अपशिष्ट रेडियोधर्मी होता है। जिससे βγ विकिरण उत्पन्न होते हैं, जो चर्म कैंसर व अन्य आनुवंशिक दोष उत्पन्न करते हैं। 


प्रश्न 25. रॉकेट ईंधन के रूप में हाइड्रोजन का उपयोग किया जाता रहा है। क्या आप इसे CNG की तुलना में अधिक स्वच्छ मानते हैं? क्यों अथवा क्यों नहीं ?


उत्तर – हाँ, हाइड्रोजन को CNG की तुलना में अधिक स्वच्छ ईंधन माना जाना उचित है, क्योंकि हाइड्रोजन के दहन के पश्चात् केवल जल उत्पन्न होता है, जो प्रदूषण रहित है, जबकि CNG के दहन से कार्बन डाइऑक्साइड भी उत्पन्न होती है, जो अधिक मात्रा में होने पर ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनती है। 


प्रश्न 26. ऐसे दो ऊर्जा स्रोतों के नाम लिखिए, जिन्हें आप समाप्य मानते हैं। अपने चयन के लिए तर्क दीजिए। 



उत्तर – दो सामान्य ऊर्जा स्रोत निम्न हैं




(i) जीवाश्मी ईंधन कोयला तथा पेट्रोलियम का अधिक उपयोग, इनके निर्माण में लगने वाला करोड़ों वर्षों का समय तथा इनकी उपलब्ध सीमित मात्रा के कारण ये ईंधन समाप्य तथा अनवीकरणीय कहे जा सकते हैं।


(ii) नाभिकीय ईंधन यूरेनियम, थोरियम, प्लूटोनियम, आदि नाभिकीय ईंधन प्रकृति में सीमित मात्रा में उपलब्ध है अतः अनवीकरणीय तथा समाप्य ऊर्जा स्रोत हैं।



प्रश्न 27. ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों के उत्पादन की आवश्यकता क्यों है? मुख्य दो कारण लिखिए।


 अथवा हम ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की खोज कर रहे हैं। इसके तीन कारण लिखिए।



उत्तर ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों के उत्पादन की आवश्यकता दिनों-दिन बढ़ रही है। इसके मुख्य कारण निम्न हैं


 (i) औद्योगिकीकरण से उन्नत जीवन स्तर में मशीनों का अधिकाधिक उपयोग।


 (ii) प्रकृति में जीवाश्मी ईंधनों (कोयला, पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस, आदि) के सीमित भंडारों का होना।


 (iii) जीवाश्म ईंधन के प्रयोग से होने वाले प्रदूषण के कारण।



          लघु उत्तरीय प्रश्न  4 अंक


प्रश्न 1. ऊर्जा स्रोतों का वर्गीकरण निम्नलिखित वर्गों में किस आधार पर करेंगे?



(i) नवीकरणीय तथा अनवीकरणीय (ii) समाप्य तथा अक्षय क्या (i) तथा (ii) के विकल्प समान हैं?


उत्तर 


(i) नवीकरणीय संसाधनों की पुन: पूर्ति कुछ ही समय पश्चात् पुनः चक्रण द्वारा हो जाती है, जबकि अनवीकरणीय संसाधनों का एक बार उपयोग होने के बाद उनका पुनः चक्रण नहीं होता। फिर से निर्माण में लगने वाला समय बहुत अधिक होने के कारण इनकी पुनः पूर्ति संभव नहीं है।


(ii) वे ऊर्जा स्रोत, जिनकी उपलब्धता प्रकृति में सीमित है तथा जिनके समाप्त हो जाने की संभावना है, समाप्य स्रोत कहलाते हैं, परंतु जो स्त्रोत प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं और जिनके समाप्त होने की सम्भावना ना हो, अक्षय स्रोत कहलाते हैं।


(i) तथा (ii) के विकल्प समान हैं, अर्थात् नवीकरणीय स्रोत ही अक्षय हैं। इसी प्रकार अनवीकरणीय स्रोत ही समाप्य हैं।



प्रश्न 2. जीवाश्म ईंधन की बढ़ती माँग ने पर्यावरण को नुकसान पहुँचाया है। इसके तीन दुष्प्रभाव लिखिए। जीवाश्म ईंधन का उपयोग कम करने के लिए तीन सुझाव दीजिए।


 अथवा जीवाश्मी ईंधन की क्या हानियाँ हैं?



उत्तर – जीवाश्म ईंधन को जलाने पर उत्पन्न दुष्प्रभाव निम्न हैं।


(i) जीवाश्म ईंधन जलने पर वायु प्रदूषण उत्पन्न करता है।


 (ii) इसके जलने पर अम्लीय ऑक्साइड उत्पन्न होते हैं, जो अम्लीय वर्षा करके पीने योग्य पानी तथा पृथ्वी के अन्य स्रोत को प्रभावित करते हैं।


 (iii) जीवाश्म ईंधन के जलने पर CO² मुक्त होती है।.


(iv) जीवाश्म ईंधन पूर्णतया ज्वलित नहीं है, कुछ अवशेष रह जाते है। 


जीवाश्म ईंधन का उपयोग कम करने के लिए तीन सुझाव निम्न हैं


(i) CNG, LPG, इत्यादि साफ ईंधनों का उपयोग।


 (ii) निजी (प्राइवेट) वाहन के स्थान पर स्थानीय लोकल वाहन का प्रयोग।


 (iii) ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोत का अधिक से अधिक उपयोग करनाथ)


प्रश्न 3. जल विद्युत संयन्त्र तथा जल विद्युत उत्पादन का सिद्धान्त के बारे में बताइए तथा जलीय विद्युत धारा के लाभ भी बताइए।


 उत्तर 


जल विद्युत संयन्त्र ऊर्जा का एक अन्य पारंपरिक स्रोत बहते जल की गतिज ऊर्जा अथवा किसी ऊँचाई पर स्थित जल की स्थितिज ऊर्जा है। जल विद्युत संयन्त्रों में गिरते जल की स्थितिज ऊर्जा को विद्युत में रूपांतरित किया जाता है चूंकि ऐसे जल प्रपातो की संख्या बहुत कम है, जिनका उपयोग स्थितिज ऊर्जा के स्रोत के रूप में किया जा सके, अतः जल विद्युत संयन्त्रों को बाँधों से संबद्ध किया गया है।


जल विद्युत उत्पादन का सिद्धान्त जल विद्युत उत्पन्न करने के लिए नदियों के बहाव को रोककर बड़े जलाशयों (कृत्रिम झीलों) में जल एकत्र करने के लिए ऊँचे-ऊंचे बाँध बनाए जाते हैं। इन जलाशयों में जल संचित होता रहता है जिसके फलस्वरूप इनमें भरे जल का तल ऊँचा हो जाता है। जल विद्युत संयन्त्रों में ऊंचाई, से गिरते जल की स्थितिज ऊर्जा का विद्युत ऊर्जा में रूपांतरण होता है। बाँध के ऊपरी भाग से पाइपों द्वारा जल, बाँध के आधार के पास स्थापित टरबाइन के ब्लेडों पर मुक्त रूप से गिरता है फलस्वरूप टरबाइन के ब्लेड घूर्णन गति करते हैं और जनित्र द्वारा विद्युत उत्पादन होता है।





जलीय विद्युत धारा के लाभ


जलीय विद्युत धारा के लाभ निम्नलिखित हैं इससे वातावरण प्रदूषित नहीं होता।।


1. बहता हुआ जल बिना किसी मूल्य के प्राप्त होता है।


 2.जल एक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है, जो कभी समाप्त नहीं होगा। अतः जब-जब वर्षा होती है, बाँध के संग्राहक स्वतः ही जल से भर जाते हैं। नदियों के किनारे बने बाँध, बाढ़ को रोकने में सहायक होते हैं तथा खेतों की सिंचाई करने में भी सहयोग करते हैं।



प्रश्न 4. विद्युत उत्पादन में तापीय विद्युत संयन्त्र तथा जल विद्युत संयन्त्र में मुख्य अन्तर क्या है? दो बाँध परियोजनाएँ जिनका लोगों द्वारा विस्थापितों को पुनर्वास तथा वातावरण को पहुँचने वाली क्षति के आधार पर विरोध हुआ, उनके नाम लिखिए। 



उत्तर तापीय विद्युत संयन्त्र तथा जल विद्युत संयन्त्र में मुख्य अन्तर निम्न हैं




तापीय विद्युत संयन्त्र

जल विद्युत संयन्त्र

तापीय विद्युत संयन्त्र में जीवाश्म ईंधन को जला कर विद्युत उत्पादित की जाती है।

जल विद्युत संयन्त्र में जल का प्रवाह करके विद्युत उत्पादित की जाती है।

इसमें रासायनिक ऊर्जा का रूपांतरण विद्युत ऊर्जा में होता है।


इसमें पानी में संग्रहित स्थितिज ऊर्जा का रूपांतरण विद्युत ऊर्जा में होता है।

जीवाश्म ईंधन के जलने के कारण वातावरण प्रदूषित होता है।

इसमें जल के प्रवाह को रोकने पर जल के जीव जैसे मछली तथा अन्य जीव प्रभावित होते हैं।


जहाँ जीवाश्म ईंधन की उपलब्धता अधिक है, वहीं संयन्त्र की स्थापना है। सुगम होती है।


इसको बनाने में खर्चा अधिक आता है।




दो बाँध परियोजनाएँ जहाँ विस्थापितों द्वारा विरोध हुआ है, निम्न हैं


 (i) टिहरी बाँध (उत्तराखण्ड)


(ii) सरदार सरोवर बाँध (गुजरात)




प्रश्न 5. जैव मात्रा तथा ऊर्जा स्रोत के रूप में जल वैद्युत की तुलना कीजिए और अंतर लिखिए। 


उत्तर


जैव मात्रा

जल वैद्युत


यह नवीकरणीय स्रोत है।

यह भी नवीकरणीय स्रोत है।

जैव मात्रा में बायोगैस संयन्त्र में जैव गैस बनाई जाती है।

जल वैद्युत का उत्पादन नदियों पर बने बाँधों में किया जाता है।

इसके उत्पादन के समय बची हुई स्लरी, कृषि के लिए एक उपयोगी खाद है


बाँधों के निर्माण से विद्युत उत्पादन  साथ-साथ बाढ़ से भी सुरक्षा होती हैं



बायोगैस संयन्त्र के निर्माण में आय खर्च भी कम है तथा अन्य खर्च भी कम है।

यह भी कम खर्चीला स्रोत है। खर्च का मुख्य भाग बाँध के निर्माण तथा सप्लाई की व्यवस्था में होता है।


बायोगैस उत्पादन में जैव मात्रा के उपयोग हो जाने से प्रदूषण नियंत्रण में सहायता मिलती है। साथ ही इसके दहन से हानिकारक अवशेष (CO₂) अतिरिक्त) उत्पन्न नहीं होते।

जल वैद्युत के उपयोग से कोई हानिकारक अवशेष उत्पन्न नहीं होता। इससे वैद्युत शक्ति आपूर्ति में सहायता मिलती है।







प्रश्न 6. ऊर्जा के पारम्परिक स्रोत पर टिप्पणी लिखिए। 


उत्तर ऊर्जा के परम्परागत स्रोत ये स्रोत प्रकृति द्वारा प्रदत्त है। जैसे- जीवाश्म ईंधन, कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस तथा विखंडनीय पदार्थ।



ऊर्जा के प्रमुख परम्परागत स्रोत निम्न हैं


(i) जीवाश्म ईंधन लाखों वर्ष पूर्व पृथ्वी की सतह के अन्दर पेड़-पौधे तथा पशु-पक्षी जो दफन हो गए। पृथ्वी के केन्द्र पर अधिक ताप तथा दाब के कारण, जीवाश्म ईंधन में परिवर्तित हो गए। उदाहरण कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस आदि।



 (ii) ताप विद्युत संयन्त्र इन संयन्त्रों में जीवाश्म ईंधन द्वारा ऊष्मा उत्पन्न की

जाती है। इस ऊष्मा का रूपांतरण विद्युत ऊर्जा के रूप में प्राप्त किया जाता है।


 (iii) जल विद्युत संयन्त्र वह संयन्त्र जिनमें बहते पानी की स्थितिज ऊर्जा का रूपांतरण विद्युत ऊर्जा में किया जाता है, जल विद्युत संयन्त्र कहलाते हैं। इनसे उत्सर्जित विद्युत जल विद्युत कहलाती है।


यन्त्र विज्ञान में सुधार यन्त्र विज्ञान में निम्न स्रोतों की सहायता से सुधार किए जा सकते हैं।


(a) जैव मात्रा जीवित प्राणियों का अपशिष्ट जैसे- पशुओं का गोबर, पौधों की सूखी पत्तियों शाखाएँ तथा मृत जानवर, इनसे ऊर्जा प्राप्त की जाती है। इनसे प्राप्त ऊर्जा जैव-मात्रा या बायो- मात्रा कहलाती है। उदाहरण-लकड़ी, फसलों के अवशेष, गाय का गोबर इत्यादि।


(b) पवन ऊर्जा बहती वायु की गतिज ऊर्जा पवन ऊर्जा कहलाती है। यह सौर ऊर्जा से सम्बन्धित होती है।


प्रश्न 7. महासागर से ऊर्जा उत्पादन की दो प्रमुख विधियाँ कौन-सी हैं?


उत्तर महासागर से ऊर्जा दो रूपों में प्राप्त की जाती है।


(i) ज्वारीय ऊर्जा घूर्णन गति करते हुए पृथ्वी पर मुख्य रूप से चन्द्रमा के गुरुत्वीय खिंचाव के कारण सागरों में जल का स्तर चढ़ता व गिरता रहता है। इस परिघटना को ज्वार भाटा कहते हैं। ज्वार भाटे में जल के स्तर के चढ़ने तथा गिरने से हमें ज्वारीय ऊर्जा प्राप्त होती है। ज्वारीय ऊर्जा को सागर के किसी संकीर्ण क्षेत्र पर बाँध का निर्माण करके प्राप्त किया जाता है। बांध पर स्थित टरबाइन द्वारा ज्वारीय ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित कर दिया जाता है।


(ii) महासागरीय तापीय ऊर्जा महासागरों के पृष्ठ पर जल, सूर्य द्वारा प्राप्त हो जाता है, जबकि इनकी गहराई वाले भाग का जल अपेक्षाकृत ठंडा होता है। सागर के पृष्ठ पर जल तथा 2 किमी की गहराई पर जल के ताप में कम से कम 20°C का अन्तर होता है, तब तापीय ऊर्जा रूपांतरण विद्युत संयन्त्र द्वारा इस अंतर का उपयोग करके विद्युत ऊर्जा प्राप्त की जाती है। पृष्ठ के तप्त जल का उपयोग अमोनिया जैसी वापशील द्रवों को उबालने में तथा टरबाइन को घुमाने में किया जाता है।




प्रश्न 8. नाभिकीय ऊर्जा क्या है? नाभिकीय ऊर्जा के उपयोग तथा दुरुपयोग को समझाइए और नाभिकीय ऊर्जा हेतु प्रयुक्त होने वाले दो तत्वों के नाम लिखिए।


उत्तर नाभिकीय ऊर्जा एक भारी नाभिक के दो लगभग बराबर हल्के नाभिकों में टूटने अथवा दो हल्के नाभिकों के संयुक्त होने पर भारी नाभिक बनाने की क्रिया में नाभिक के द्रव्यमान के कुछ भाग का क्षय हो जाता है। यह द्रव्यमान क्षय, ऊर्जा के रूप में प्राप्त होता है। जिसे नाभिकीय ऊर्जा कहते हैं। 



नाभिकीय ऊर्जा हेतु प्रयुक्त होने वाले दो तत्व यूरेनियम तथा प्लूटोनियम आदि है।


 प्रश्न 9. दिल्ली सरकार तथा दिल्ली परिवहन निगम (DTC) ने सभी यात्री बसों को CNG में रूपांतरित कर दिया है। इस निर्णय के कारण बताइए। क्या आपके अनुसार CNG एक आदर्श ईंधन है? व्याख्या कीजिए। 


उत्तर डीजल की तुलना में CNG एक साफ ईंधन है। यह जलने पर धुआँ या नाइट्रोजन तथा गंधक ऑक्साइड उत्पन्न नहीं करता है। दूसरा यह डीजल की तुलना में बहुत सस्ता है, लेकिन CNG आदर्श ईंधन नहीं माना जा सकता है।




इसके कारण निम्न हैं


(i) CNG स्वयं अनवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। अतः यह ऊर्जा समस्या का स्थायी समाधान नहीं है।


(ii) CNG जलने पर कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) गैस उत्पन्न करती है, जो एक हरित गृह प्रभाव गैस है। यह गैस विश्व में तापवृद्धि का मुख्य कारण है।


(iii) डीजल की तुलना में CNG की क्षमता कम है।


विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 7 अंक


प्रश्न 1. सौर कुकर के बारे में बताइए। इसके लाभ तथा सीमाएँ भी बताइए। अथवा सौर कुकर का उपयोग करने के क्या लाभ व हानियाँ हैं? क्या ऐसे भी क्षेत्र हैं, जहाँ सौर कुकरों की सीमित उपयोगिता है?



उत्तर इस युक्ति में सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करके खाना पकाया जाता है, इसलिए इसे सौर चूल्हा भी कहते हैं।


इसमें एक पृथक्कृत धातु का बक्सा या लकड़ी का बक्सा होता है, जिसको अन्दर से काला पेंट कर दिया जाता है, जिससे यह अधिकतम सूर्य के विकिरणों का अवशोषण कर सके। इस बॉक्स के ऊपर एक काँच की पतली परत होती है। बॉक्स में एक समतल दर्पण को परावर्तक के रूप में लगा दिया जाता है। कुछ सोलर कुकर में अवतल दर्पण का उपयोग करके सूर्य की किरणों को फोकस किया जाता है। 


सौर कुकर के लाभ निम्न है


1.यह ईंधन बचाता है।


2.इससे प्रदूषण नहीं होता है।


3.इसमें खाना पकाने की क्रिया धीमी होती है, अत: खाने में पोषक तत्व नष्ट नहीं होते हैं।



4.यह एक समय में चार प्रकार के व्यंजन पका सकता है।


 सौर कुकर की सीमाएँ निम्न हैं


1.  इसका उपयोग आकाश में बादल होने पर या रात्रि में नहीं किया जा सकता है। 


2• इसका उपयोग रोटियाँ बनाने या किसी खाने को तलने के लिए नहीं किया जा सकता है।


3.सौर कुकर की दिशा समय-समय पर परिवर्तित करनी पड़ती है, जिससे यह अधिकतम समय तक सूर्य की ओर रहे। 


4• भोजन पकाने में समय अधिक लगता है।



प्रश्न 2. निम्न के बारे में बताइए।


(i) सौर सैल (ii) सौर पैनल (iii) हरित गैस प्रभाव 



उत्तर 



(i) सौर सैल यह सौर ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करने की युक्ति है। यह सेल अर्द्धचालकों जैसे-सिलिकन, जर्मेनियम तथा गेलियम से बने होते हैं। इन सेलों को फोटोवोल्टिक सेल भी कहते है। सौर सेल में फोकस की कोई आवश्यकता नहीं होती है। इनको कही भी इस प्रकार के क्षेत्र में जहाँ विद्युत का पहुँचना सम्भव नहीं हो, लगाया जा सकता है। सौर सेल बनाने के लिए सिलिकन अर्द्धचालक का उपयोग किया जाता है। यह वातावरण के अनुकूल है तथा कोई प्रदूषण उत्पन्न नहीं करता है। इसको बनाने की प्रक्रिया बहुत महँगी होती है।



(ii) सौर पैनल जब बहुत सारे सौर सेलों को एक क्रम में संयोजित कर दिया जाता है, तो यह संयोजन सौर पैनल कहलाता है। इससे प्राप्त अधिक होता है तथा धारा का मान भी अधिक प्राप्त होता है। यह व्यवस्था सौर पैनल कहलाती है। इससे प्राप्त विद्युत शक्ति का उपयोग व्यवहारिक रूप से किया जाता है लेकिन सेलों को -एक-दूसरे से संयोजित करने के लिए चाँदी की आवश्यकता होती है। 






(iii) हेरित गैस प्रभाव वायुमण्डल में CO₂ द्वारा अवरक्त किरणों के अवशोषण के कारण ऊष्मा का उत्पन्न होना, हरित गृह प्रभाव कहलाता है। सूर्य का ताप बहुत अधिक होता है। अत: सूर्य निम्न तरंगदैर्ध्य की अवरक्त किरणों का उत्सर्जन करता है। पृथ्वी इन विकिरणों का अवशोषण कर लेती है तथा इनका पुनः उत्सर्जन करती है। इनका अवशोषण कुछ गैसें; जैसे-कार्बन डाईऑक्साइड, पानी की वाष्प तथा मेथेन इत्यादि द्वारा कर लिया जाता है, जिसके कारण पृथ्वी से ऊष्मा बाह्य वातावरण में नहीं जा पाती व पृथ्वी का ताप बढ़ने लगता है। यही प्रभाव हरित गृह प्रभाव कहलाता है तथा गैसे हरित गृह गैसें कहलाती है। इनके कारण ही वायुमण्डल तप्त होता है।


प्रश्न 3. नाभिकीय ऊर्जा प्राप्त करने में नाभिकीय विखण्डन एवं नाभिकीय संलयन को स्पष्ट कीजिए। 


उत्तर नाभिकीय विखंडन में एक भारी नाभिक का विखंडन दो या दो से अधिक छोटे भागों में हो जाता है। इस विखंडन में असीम ऊर्जा उत्पन्न होती है। यह विखंडन धीमी गति के न्यूट्रॉनों का उस पदार्थ के नाभिक से टकराने पर होता है।


प्रश्न 4. ऊर्जा की बढ़ती माँग के पर्यावरणीय परिणाम क्या हैं? ऊर्जा की खपत को कम करने के उपाय लिखिए। 


उत्तर ऊर्जा की बढ़ती माँग का पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है, जो इस प्रकार है 


(i) प्रकृति से संसाधनों के अधिक मात्रा में दोहन से कई प्राकृतिक चक्रों में व्यवधान आ जाता है।


(ii) अधिक मात्रा में ऊर्जा स्रोतों के उपयोग तथा अवशेषों के द्वारा प्राकृतिक संसाधन; जैसे- वायु, जल, मृदा आदि प्रदूषित होते हैं।


(iii) ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती मात्रा ग्लोबल वार्मिंग उत्पन्न करती है।


 (iv) पवन फार्म, बाँध, नाभिकीय संयन्त्र आदि के लिए भूमि तैयार करने के लिए वनों व खेतों को नष्ट करना पड़ता है, जिससे प्रदूषण नियंत्रण में भी कठिनाई होती है। साथ ही लोगों के रोजगार तथा वन्य जीवों के आवास नष्ट हो जाते हैं, अत: प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है।


ऊर्जा की खपत कम करने के लिए निम्न उपाय करने चाहिए


 (i) व्यक्तिगत वाहनों का कम उपयोग तथा जन वाहनों (बस आदि) का अधिक उपयोग।


(ii) ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों (जैसे-सौर ऊर्जा) का उपयोग।


(iii) भोजन पकाने के लिए प्रेशर कुकर आदि जैसी युक्तियों का उपयोग।


(iv) घरों में सभी व्यक्ति निश्चित समय पर साथ बैठ कर भोजन करें।


 (v) कम दूरी पर जाने के लिए पैदल जाना या साइकिल आदि का उपयोग करें।


ईंधन उपयोग करने वाले वाहनों का उपयोग कम करें। 


(vi) अच्छी दक्षता वाली युक्तियाँ (स्टोव आदि) व अच्छी क्वालिटी का ईंधन उपयोग करें।


(vii) अधिक पेड़-पौधे लगाएँ।


(viii) कचरे का भली-भाँति निस्तारण करें।




प्रश्न 5. पवन चक्की का कार्य-सिद्धान्त क्या है? पवन चक्की का विवरण चित्र सहित समझाइए ।


उत्तर- 


पवन चक्की – पवन चक्की एक ऐसी युक्ति है, जिसमें वायु की गतिज ऊर्जा ब्लेडों को घुमाने में प्रयुक्त की जाती है। यह बच्चों के खिलौने 'फिरकी' जैसी होती है। पवन चक्की के ब्लेडों की बनावट विद्युत पंखे के ब्लेडों के समान होती है। इनमें केवल इतना अन्तर है कि विद्युत पंखे में जब पंखे के ब्लेड घूमते हैं तो पवन अर्थात् वायु चलती है। इसके विपरीत, पवन चक्की में जब पवन चलती है, तो पवन चक्की के ब्लेड घूमते हैं। घूमते हुए ब्लेडों की घूर्णन गति के कारण पवन चक्की से गेहूँ पीसने की चक्की को चलाना, जल-पम्प चलाना, मिट्टी के बर्तन के चाक को घुमाना आदि कार्य किए जा सकते हैं। पवन चक्की ऐसे स्थानों पर लगाई जाती है, जहाँ वायु लगभग पूरे वर्ष तीव्र वेग से चलती रहती है। यह पवन ऊर्जा को उपयोगी यान्त्रिक-ऊर्जा के रूप में बदलने का कार्य करती है।







रचना – पवन चक्की की रचना को चित्र में प्रदर्शित किया गया है। इसमें ऐलुमिनियम के पतले- चपटे आयताकार खण्डों के रूप में, बहुत-सी पंखुड़ियाँ लोहे के पहिये पर लगी रहती हैं। यह पहिया एक ऊर्ध्वाधर स्तम्भ के ऊपरी सिरे पर लगा रहता है तथा अपने केन्द्र से गुजरने वाली लौह शाफ्ट (अक्ष) के परितः घूम सकता है। पहिये का तल स्वतः वायु की गति की दिशा के लम्बवत् समायोजित हो जाता है, जिससे वायु सदैव पंखुड़ियों पर सामने से टकराती है। पहिये की अक्ष एक लोहे की क्रैंक से जुड़ी रहती है। क्रैंक का दूसरा सिरा उस मशीन अथवा डायनमो से जुड़ा रहता है, जिसे पवन-ऊर्जा द्वारा गति प्रदान करनी होती है।


कार्य-विधि चित्र में पवन चक्की द्वारा पानी खींचने की क्रिया का प्रदर्शन किया गया है। पवन चक्की की क्रैंक एक जल-पम्प की पिस्टन छड़ से जुड़ी है। जब वायु, पवन चक्की की पंखुड़ियों से टकराती है तो चक्की का पहिया घूमने लगता है और पहिये से जुड़ी अक्ष घूमने लगती है। अक्ष की घूर्णन गति के कारण क्रैंक ऊपर-नीचे होने लगती है और जल-पम्प की पिस्टन छड़ भी ऊपर-नीचे गति करने लगती है तथा जल-पम्प से जल बाहर निकलने लगता है।



 कार्य-सिद्धान्त तेजी से बहती हुई पवन जब पवन चक्की के ब्लेडों से टकराती है तो वह उन पर एक बल लगाती है जो एक प्रकार का घूर्णी प्रभाव उत्पन्न करता है और इसके कारण पवन चक्की के ब्लेड घूमने लगते हैं। पवन चक्की का घूर्णन उसके ब्लेडों की विशिष्ट बनावट के कारण होता है जो विद्युत के पंखे के ब्लेडों के समान होती है। पवन चक्की को विद्युत के पंखे के समान माना जा सकता है जो कि विपरीत दिशा में कार्य कर रहा हो, क्योंकि जब पंखे के ब्लेड घूमते हैं तो पवन चलती है। इसके विपरीत, जब पवन चलती है तो पवन चक्की के ब्लेड घूमते हैं। पवन चक्की के लगातार घूमते हुए ब्लेडों की घूर्णन गति से जल पम्प तथा गेहूं पीसने की चक्की चलाई जा सकती है। पवन चक्की की भाँति 'फिरकी' भी पवन ऊर्जा से ही घूमती है।



प्रश्न 6. किसी नाभिकीय रिऐक्टर के प्रमुख घटकों के नाम लिखिए तथा उनके प्रकार्यों का वर्णन कीजिए।,


अथवा


नाभिकीय रिऐक्टर के प्रमुख भागों का उल्लेख करते हुए इसकी प्रक्रिया का सचित्र वर्णन कीजिए।

 

अथवा


समझाइए कि नाभिकीय रिऐक्टर में विमन्दकों तथा नियन्त्रकों की सहायता से श्रृंखला अभिक्रिया को किस प्रकार नियन्त्रित किया जाता है?



उत्तर - नाभिकीय रिटेक्टर के प्रमुख घटक नाभिकीय रिऐक्टर एक ऐसा उपकरण है, जिसके भीतर नाभिकीय विखण्डन की नियन्त्रित श्रृंखला अभिक्रिया द्वारा ऊर्जा उत्पन्न की जाती है। इसके निम्नलिखित मुख्य भाग हैं


1. ईंधन (Fuel) विखण्डित किए जाने वाले पदार्थ (U²³⁵ अथवा Pu²³⁹  ) को रिऐक्टर का ईंधन कहते हैं।


2. मन्दक (Moderator) विखण्डन में उत्पन्न न्यूट्रॉनों की गति (ऊर्जा) को कम करने के लिए मन्दक प्रयोग किए जाते हैं। इसके लिए भारी जल, ग्रेफाइट अथवा बेरिलियम ऑक्साइड (BeO) प्रयोग किए जाते हैं। भारी जल सबसे अच्छा मन्दक है।


3. परिरक्षक (Shield) नाभिकीय विखण्डन के समय कई प्रकार की तीव्र किरणें (जैसे—y-किरणें) निकलती हैं, जिनसे रिऐक्टर के पास काम करने वाले व्यक्ति प्रभावित हो सकते हैं। इन किरणों से उनकी रक्षा करने के लिए रिऐक्टर के चारों ओर कंक्रीट की मोटी-मोटी (सात फुट मोटी) दीवारें बना दी जाती हैं।


4. नियन्त्रक (Controller) रिऐक्टर में विखण्डन की गति पर नियन्त्रण करने के लिए कैडमियम की छड़ें प्रयुक्त की जाती हैं। रिऐक्टर की दीवार में इन छड़ों को आवश्यकतानुसार अन्दर-बाहर करके विखण्डन की गति को नियन्त्रित किया जा सकता है।


5. शीतलक (Coolant) विखण्डन के समय उत्पन्न होने वाली ऊष्मा को शीतलक पदार्थ द्वारा हटाया जाता है। इसके लिए वायु, जल अथवा कार्बन डाइऑक्साइड को रिऐक्टर में प्रवाहित करते हैं। ऊष्मा प्राप्त कर जल अतितप्त हो जाता है और जलवाष्प में परिवर्तित हो जाता है, जिससे टरबाइन चलाकर विद्युत उत्पादित की जाती है।


रचना नाभिकीय रिएक्टर का सरल रूप चित्र में दिखाया गया है। इसमें ग्रेफाइट की ईंटों से बना एक ब्लॉक है, जिसमें निश्चित स्थानों पर साधारण यूरेनियम की छड़ें लगी रहती हैं। इन छड़ों पर ऐलुमिनियम के खोल चढ़ा दिए जाते हैं जिससे इनका ऑक्सीकरण न हो। ब्लॉक के बीच-बीच में कैडमियम की छड़ें लगी होती हैं, जिन्हें 'नियन्त्रक-छड़ें' कहते हैं। इन्हें इच्छानुसार अन्दर अथवा बाहर खिसका सकते हैं। ग्रेफाइट मन्दक का कार्य करता है तथा कैडमियम न्यूट्रॉनों का अच्छा अवशोषक होने के कारण नाभिकीय विखण्डन को रोक सकता है। कैडमियम छड़ों के अतिरिक्त इसमें कुछ सुरक्षा छड़ें भी लगी रहती हैं जो दुर्घटना होने पर स्वतः रिऐक्टर में प्रवेश कर जाती हैं और अभिक्रिया को रोक देती हैं। रिऐक्टर के चारों ओर सात फुट मोटी कंक्रीट की दीवार बना दी जाती है, जिससे कर्मचारियों को हानिकारक विकिरणों से बचाया जा सके।




कार्य-विधि – रिऐक्टर को चलाने के लिए किसी बाह्य स्रोत की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि इसमें सदैव कुछ न्यूट्रॉन उपस्थित रहते हैं; अतः जब रिऐक्टर को चलाना होता है तो कैडमियम की छड़ों को बाहर खींच लेते हैं, तब रिऐक्टर में मौजूद न्यूट्रॉन यूरेनियम नाभिकों का विखण्डन प्रारम्भ कर देते हैं। जब रिऐक्टर में उपस्थित न्यूट्रॉनों द्वारा U²³⁵ का विखण्डन होता है तो इससे उत्पन्न तीव्रगामी न्यूट्रॉनों का ग्रेफाइट के साथ बार-बार टकराने से मन्दन हो जाता है, जिससे ये अगले U²³⁵ के नाभिक का विखण्डन करने लगते हैं। इस प्रकार, विखण्डन की श्रृंखला-अभिक्रिया शुरू हो जाती है। जब कभी अभिक्रिया अनियन्त्रित होने लगती है, तब कैडमियम की छड़ों को अन्दर खिसका देते हैं। कैडमियम की छड़ें कुछ न्यूट्रॉनों को अवशोषित कर लेती हैं, जिससे विखण्डन दर कम हो जाती है और इस प्रकार, उत्पन्न ऊर्जा पर नियन्त्रण हो जाता है और विस्फोट नहीं हो पाता। रिऐक्टर में श्रृंखला .अभिक्रिया चलाने के लिए यूरेनियम की छड़ों का आकार, क्रान्तिक आकार से बड़ा रखते हैं।




Class 10 science chapter 14 our environment full solutions notes


कक्षा 10 वी विज्ञान अध्याय 14 हमारा पर्यावरण का सम्पूर्ण हल






हमारा पर्यावरण(Our Environment)


'जीव के चारों ओर उपस्थित वह क्षेत्र, जो उन्हें घेरे रहता है तथा उसकी जैविक क्रियाओं पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालता है, पर्यावरण कहलाता है। इस परिवृत्ति में जीव से सम्बन्धित वे सभी तत्व, वस्तुएँ, स्थितियाँ और दशाएँ सम्मिलित हैं, जो जीवों के जीवन एवं विकास को प्रभावित करती हैं।


अपशिष्ट पदार्थों के प्रकार एवं हमारे पर्यावरण पर उनका प्रभाव


हम अपने दैनिक जीवन में कुछ ऐसे अनुपयोगी या अवाँछित वस्तुओं का निष्कासन करते हैं, जो अपशिष्ट कहलाते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं


(i) ठोस अपशिष्ट (Solid waste) नगरपालिका का कचरा, औद्योगिक अपशिष्ट, कृषि अपशिष्ट, आदि।


(ii) गैसीय अपशिष्ट (Gaseous waste) उद्योगों की चिमनी एवं वाहनों से निकला धुँआ।


(iii) तरल अपशिष्ट (Liquid waste) वाहित मल, औद्योगिक रसायन, रंजक, आदि।


अपघटन के आधार पर अपशिष्ट दो प्रकार के होते हैं, जो निम्नलिखित हैं


1. जैवनिम्नीकृत अपशिष्ट


वे पदार्थ, जो वातावरण में कुछ समय बाद स्वतः ही ऊष्मा या सूक्ष्मजीवों की क्रियाओं द्वारा नष्ट या अपघटित हो जाते हैं, जैवनिम्नीकृत अपशिष्ट कहलाते हैं। कार्बनिक अपशिष्टों या जैवनिम्नीकृत पदार्थों के अपघटन से खाद एवं जैव-गैस (Biogas) का उत्पादन किया जाता है, जो क्रमशः खेतों में उर्वरक के रूप में एवं भोजन पकाने में प्रयुक्त होती है।



2. अजैवनिम्नीकृत अपशिष्ट


वे अपशिष्ट जो अपघटन की क्रियाओं द्वारा विघटित होकर उपयोगी पदार्थ में परिवर्तित नहीं होते हैं; जैसे-काँच, प्लास्टिक, DDT, आदि। अजैवनिम्नीकृत अपशिष्ट कहलाते हैं। ये पर्यावरण हेतु विषाक्त व हानिकारक होते हैं तथा अधिक मात्रा में एकत्रित होने पर पारितन्त्र एवं जीवों हेतु प्राणघातक हो सकते हैं। ये पर्यावरण प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं। ये जल को प्रदूषित कर जलीय पारितन्त्र को नष्ट करते हैं।


मानवीय क्रियाकलापों का प्राकृतिक पर्यावरण पर प्रभाव


वर्तमान में प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन, औद्योगिक विकास, वनोन्मूलन, जनसंख्या वृद्धि, आदि मानवीय क्रियाकलाप पर्यावरण को बहुत अधिक प्रदूषित एवं असन्तुलित कर रहे हैं।


कचरा प्रबन्धन


ठोस अपशिष्टों के कारण जल तथा भूमि प्रदूषण होता है तथा अनेक संक्रामक बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इस कारण इनका उचित निस्तारण आवश्यक है। वर्तमान में ठोस अपशिष्ट के नियन्त्रण के लिए 3R (Reduce, Reuse and Recycling) अर्थात् अपशिष्ट के उत्पादन में कमी लाना, पुरानी वस्तुओं को पुन उपयोग करना तथा पुनः चक्रण तकनीक के उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है।


ठोस अपशिष्ट निस्तारण की विधियाँ


ठोस अपशिष्टों के निस्तारण हेतु प्रयुक्त प्रमुख विधियाँ निम्न हैं।


(i) पुनः चक्रण (Recycling) – इसके अन्तर्गत पुनः उपयोग में आ सकने वाले अपशिष्टो का अन्य पदार्थों के कच्चे माल के लिए उपयोग किया जाता है, उदाहरण लकड़ी, लोहा एवं अन्य धातुएँ, कागज, रबर, आदि।



(ii) कम्पोस्टिंग (Composting) इसके अन्तर्गत असंक्रामक जैवनिम्नीकृत अपशिष्टों; जैसे-घरेलू कचरा, चमड़ा, पादप अपशिष्ट, आदि का उपयोग भूमि में दबाकर खाद निर्माण में किया जाता है।


(ii) सैनेटरी लैण्ड फिलिंग (Sanitary Land Filling) इसके अन्तर्गत शहर से दूर बंजर भूमि में विशाल बहुमंजिला गड्ढे खोदकर इनमें अपशिष्ट भरा जाता है। महानगरों में अपशिष्ट के निस्तारण में यह तकनीक उपयोग में ली जाती है। यहाँ गड्ढे आस्तरित (Coated) होते हैं तथा लीचिंग के निकास की उचित व्यवस्था होती है।


(iv) दहन (Burning) इस तकनीक में अपशिष्ट को उच्च तापमान पर जला दिया जाता है। यह तकनीक संक्रामक तथा विषाक्त अपशिष्टों के लिए उपयुक्त है।


(v) वाहित मल उपचार (Sewage treatment) महानगरों के वाहित मल को नदियों या जल स्रोतों में डालने से पूर्व तथा पुनः उपयोग में लाने से पहले वाहित मल उपचार संयंत्र (STP) में उपचारित किया जाता है। यहाँ विभिन्न भौतिक (जैसे-निस्यंदन, अवसादन, अभिकेंद्रण) तथा जैविक (सूक्ष्मजीवीय अपघटन) विधियों द्वारा वाहित मल का उपचार किया जाता है। इस कार्य हेतु यहाँ अनेक विशाल टैंक या कक्ष बनाए जाते हैं।


रेलगाड़ियों में प्रयोज्य (निवर्तनीय) कागज के कपों का उपयोग


कुछ वर्षों पूर्व भारतीय रेलवे द्वारा रेलों में चाय के लिए काँच के गिलासों का उपयोग किया जाता था, किन्तु सफाई की कमी के कारण इनकी जगह निवर्तनीय प्लास्टिक के कपों ने ले ली। इन लाखों अजैवनिम्नीकृत कपों के निस्तारण में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुई। अतः इनकी जगह पर्यावरण हितैषी मिट्टी के कपों या कुल्हड़ों ने ले ली। ये कुल्हड़ महँगे होने के साथ-साथ उपजाऊ ऊपरी मृदा की परत के दोहन का कारण भी बन गए। इस कारण इनकी जगह कागज के निवर्तनीय कपों ने ली, जो जैवनिम्नीकृत होने के कारण पर्यावरण हितैषी थे।



बहुविकल्पीय प्रश्न 1 अंक


प्रश्न 1. निम्नलिखित में से कौन-से समूहों में केवल जैवनिम्नीकरणीय पदार्थ नहीं हैं?


(a) घास, पुष्प एवं चमड़ा


(b) घास, लकड़ी एवं प्लास्टिक


 (c) फलों के छिलके, केक एवं नींबू का रस


(d) केक, लकड़ी एवं घास


उत्तर (b) प्लास्टिक अजैवनिम्नीकृत पदार्थ है।


प्रश्न 2. निम्नलिखित में से कौन-से पर्यावरण मित्र व्यवहार कहलाते हैं?



(a) बाजार जाते समय सामान के लिए कपड़े का थैला ले जाना


(b) कार्य समाप्त हो जाने पर लाइट (बल्ब) तथा पंखे का स्विच बंद करना


(c) माँ द्वारा स्कूटर से विद्यालय छोड़ने की बजाय तुम्हारे विद्यालय तक पैदल जाना 


(d) उपरोक्त सभी


उत्तर (d) उपरोक्त सभी, कपड़े के थैले का प्रयोग, लाइट व पंखे को उपयोग के बाद बन्द करना, वाहन की जगह पैदल जाना सभी पर्यावरण मित्र व्यवहार कहलाते हैं।


प्रश्न 3. घरों के कचरों में होता है


(a) अजैवनिम्नीकरण


(b) जैवनिम्नीकरणीय प्रदूषक


(c) हाइड्रोकार्बन्स


(d) इनमें से कोई नहीं


उत्तर (b) घरों से उत्पन्न अधिकांश कचारों का अपघटन जीवाणुओं द्वारा होता है। अतः ये जैवनिम्नीकरणीय प्रदूषक (Biodegradable pollutants) कहलाते हैं।



प्रश्न 4. निम्न में से नगरपालिका ठोस अपशिष्ट नहीं है।


(a) टूटे फर्नीचर


(b) खाली प्लास्टिक ड्रम


 (C) सब्जियों के छिलके


(d) टूटे शीशे


उत्तर (b) खाली प्लास्टिक के ड्रम औद्योगिक ठोस अपशिष्ट कहलाते हैं।


अतिलघु उत्तरीय प्रश्न 2 अंक



प्रश्न 1. अजैवनिम्नीकृत अपशिष्टों द्वारा उत्पन्न एक समस्या बताइए।


उत्तर अजैवनिम्नीकृत अपशिष्ट जल को प्रदूषित कर जलीय पारितन्त्र को नष्ट करते हैं व अनेक जल-जनित रोगों का कारण बनते हैं।


 प्रश्न 2. जैवनिम्नीकरणीय तथा अजैवनिम्नीकरणीय अपशिष्टों को दो पृथक् कूड़ेदानों में क्यों फेकना चाहिए? 



उत्तर ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि अजैवनिम्नीकरणीय अपशिष्टों का पुन:चक्रण करके उन्हें पुनः प्राप्त किया जा सकता है तथा जैवनिम्नीकरणीय अपशिष्टों से जैव-गैस तथा खाद का उत्पादन कर सकते हैं।



प्रश्न 3. बाजार में खरीददारी करते समय प्लास्टिक की थैलियों की अपेक्षा कपड़े के थैले क्यों लाभप्रद हैं?


 उत्तर कपड़े के थैले जैव-निम्नीकृत पदार्थों से मिलकर बने होते हैं। अतः यह पर्यावरण में आसानी से अपघटित हो जाते हैं व पर्यावरण मैत्री होते हैं। इसलिए बाजार में खरीदारी करते समय प्लास्टिक की थैलियों की अपेक्षा कपड़े के थैले लाभप्रद है।


प्रश्न 4. किन्हीं दो अजैव निम्नीकरणीय अपशिष्टों के नाम लिखिए। 


उत्तर (i) प्लास्टिक (ii) काँच की वस्तुएँ।


प्रश्न 5. नगरपालिका एवं औद्योगिक अपशिष्टों के उदाहरण दीजिए।


 उत्तर 

(i) नगरपालिका ठोस अपशिष्ट (Municipal Solid Wastes), उदाहरण- घरों, कार्यालयों, दुकानों का कचरा, वाहितमल का कीचड़, सब्जी, फल तथा बाजार, अपशिष्ट, आदि।


(ii) औद्योगिक अपशिष्ट (Industrial Wastes), उदाहरण-रंजक, कागज के टुकड़े, फ्लाई ऐश, लोहा, प्लास्टिक, आदि।


प्रश्न 6. वाहित मल शोधन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।


उत्तर वाहित मल उपचार महानगरों के वाहित मल को नदियों या जल स्रोतों में डालने से पूर्व तथा पुनः उपयोग में लाने से पहले वाहित मल उपचार संयंत्र (STP) में उपचारित किया जाता है। यहाँ विभिन्न भौतिक (जैसे-निस्यंदन, अवसादन, अभिकेंद्रण) तथा जैविक (सूक्ष्मजीवीय अपघटन) विधियों द्वारा वाहित मल का उपचार किया जाता है। इस कार्य हेतु यहाँ अनेक विशाल टैंक या कक्ष बनाए जाते हैं।


       लघु उत्तरीय प्रश्न 4 अंक





प्रश्न 1. जैवनिम्नीकरणीय और गैर-जैवनिम्नीकरणीय पदार्थों में अन्तर कीजिए। उदाहरण दीजिए


उत्तर 

जैवनिम्नीकरणीय और गैर-जैवनिम्नीकरणीय पदार्थों में अन्तर निम्न प्रकार है


जैवनिम्नीकरणीय पदार्थ

गैर- जैवनिम्नीकरणीय पदार्थ

वे पदार्थ जो वातावरण में सूक्ष्मजीवों द्वारा अपघटित हो जाते है व जिनका पुनचक्रण किया जा सकता है।

वे पदार्थ जो वातावरण में सूक्ष्मजीवों द्वारा अपघटित नहीं होते  तथा जिनका है व जिनका पुनचक्रण नहीं किया जा सकता है।

ये पर्यावरण-मैत्री है।

यह पर्यावरण के लिए हानिकारक है।

उदाहरण घरेलू अपशिष्ट, कागज, कपड़ा, आदि।


उदाहरण प्लास्टिक, सीसा, पारा व रेडियोधर्मी प्रदूषक, आदि।



प्रश्न 2. जैवनिम्नीकरण एवं अजैवनिम्नीकरण से आप क्या समझते हैं? इससे पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन कीजिए। 


अथना हमारे द्वारा उत्पादित अजैवनिम्नीकरणीय कचरे से कौन-सी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं?



उत्तर जैवनिम्नीकृत पदार्थ वे पदार्थ, जो वातावरण में कुछ समय बाद स्वतः ही ऊष्मा या सूक्ष्मजीवों की क्रियाओं द्वारा नष्ट या अपघटित हो जाते हैं, जैवनिम्नीकृत अपशिष्ट कहलाते हैं।


जैवनिम्नीकृत पदार्थों के प्रभाव ये केवल मात्रात्मक रूप में अधिक हो जाने पर ही प्रदूषकों की भांति व्यवहार करते हैं। जैवनिम्नीकृत पदार्थों के प्रभाव निम्न है


(i) औद्योगिक अपशिष्टों को मृदा में दबाने से मृदा की उर्वरता कम हो जाती है, जिससे फसल की उत्पादकता भी कम हो जाती है। 


(ii) बड़ी मात्रा में इन अपशिष्टों के एकत्रित होने के कारण इनमे रोगजनक - मक्खियाँ एवं मच्छर उत्पन्न हो जाते हैं, जो लोगों को बीमार कर देते हैं।


(iii) जलस्रोतों में ये अपशिष्ट डालने पर वे प्रदूषित हो जाते हैं तथा अनेक जल-जनित रोगों के कारण बनते हैं।


अजैवनिम्नीकृत पदार्थ ये अपशिष्ट सूक्ष्मजीवों, विकिरण, ऑक्सीकरण या रासायनिक अपघटन की प्राकृतिक क्रियाओं द्वारा विघटित होकर उपयोगी पदार्थ के रूप में परिवर्तित नहीं होते हैं; उदाहरण काँच, प्लास्टिक, BHC, अपमार्जक, DDT, आदि। इन्हें संरक्षित या दृढ़ या अजैवनिम्नीकृत प्रदूषक के नाम से भी जाना जाता है। अजैवनिम्नीकृत पदार्थों के प्रभाव


(i) कीटनाशकों के लम्बे समय तक अपघटित न होने के कारण ये मृदा एवं वायु में से आहार श्रृंखला में प्रवेश कर जीवों को नुकसान पहुँचा सकते हैं। रेडियोधर्मी तत्वों एवं जल में भारी धातुओं के एकत्रित होने के कारण मानव समेत सभी जीवों के लिए ये प्राणघातक हो सकते हैं।


(ii) ये जल को प्रदूषित कर जलीय पारितन्त्र को नष्ट कर सकते हैं।


(iii) अजैवनिम्नीकरणीय कचरा; जैसे-प्लास्टिक थैलियाँ, डिस्पोजेबल कप, आदि से नदियों एवं नालियों में जल का प्रवाह रुक जाता है, जिससे वहाँ का जल प्रदूषित हो जाता है। कचरे के एकत्रीकरण के कारण अनेक मच्छर, मक्खियाँ, आदि उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे बीमारियाँ फैलने का डर होता है।


 (iv) अजैवनिम्नीकरणीय पदार्थ; जैसे-पीड़कनाशी व रसायन, आदि की सान्द्रता खाद्य शृंखला के उत्तरोत्तर पोषक स्तरों पर बढ़ती जाती हैं, जो स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती है। अजैव-निम्नीकरणीय कचरे, जैसे-प्लास्टिक थैलियाँ, आदि जीव जन्तुओं द्वारा खाए जाने पर प्राणघातक हो सकते हैं। अजैवनिम्नीकरणीय पदार्थों, जैसे-रंजको रसायनों, आदि को ग्रहण करने पर ये शरीर में अनेक गंभीर रोग उत्पन्न कर देते हैं। 


प्रश्न 3. यदि हमारे द्वारा उत्पादित सारा कचरा जैवनिम्नीकरणीय हो, तो क्या इसका हमारे पर्यावरण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा?



 उत्तर यदि हमारे द्वारा उत्पादित सारा कचरा जैवनिम्नीकरणीय होगा, तो इसका हमारे पर्यावरण पर कम हानिकारक प्रभाव पड़ेगा, क्योकि जैवनिम्नीकरणीय कचरा, जैसे-कागज, आदि को पुनः चक्रित करके प्रयोग में ला सकते हैं तथा ये जैव अपघटित पदार्थ जल्दी नष्ट हो जाते हैं। ये पर्यावरण मैत्री होते हैं। यह सूक्ष्मजीवों द्वारा आसानी से अपघटित हो जाते हैं। इनका प्रयोग अपघटन के पश्चात् जैव-गैस उत्पादित कर भोजन पकाने के लिए किया जाता है। इनके अपघटन के पश्चात् अपशिष्ट को खाद के रूप में प्रयोग कर उर्वरको का इस्तेमाल कम किया जा सकता है। अत: इस प्रकार जैव-निम्नीकरणीय पदार्थ अनेक रूपों में उपयोग किए जा सकते हैं व इनका पर्यावरण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।


प्रश्न 4. आपके घर में उत्पन्न होने वाले अपशिष्ट पदार्थों के नाम लिखिए। उनके निपटारे के लिए आप क्या कार्यवाही करेंगे? 


अथना आप किस प्रकार ठोस अपशिष्टों के निस्तारण की समस्या को कम करने में सहायता कर सकते हैं? कोई दो विधियाँ बताइए।


उत्तर हमारे घरों में अपशिष्ट पदार्थ, जैसे- कपड़ा, लोहा, लकड़ी, कागज, फलों व सब्जियों के छिलके, आदि उत्पन्न होते हैं, जिनका निम्नलिखित विधियों द्वारा निस्तारण किया जा सकता है।


(i) पुनःचक्रण इसके अन्तर्गत पुनः उपयोग में आ सकने वाले अपशिष्टों का अन्य पदार्थों के कच्चे माल के लिए उपयोग किया जाता है; उदाहरण लकड़ी लोहा एवं अन्य धातुएं कागज, रबर, आदि।


(ii) कम्पोस्टिंग इसके अन्तर्गत असंक्रामक जैवनिम्नीकृत अपशिष्टों; जैसे-घरेलू कचरा, चमड़ा, पादप अपशिष्ट, आदि का उपयोग भूमि में दबाकर खाद निर्माण में किया जाता है। 


(iii) सैनेटरी लैण्डफिलिंग इसके अन्तर्गत शहर से दूर बन्जर भूमि में विशाल बहुमंजिला गड्ढे खोदकर इनमें अपशिष्ट भरा जाता है।


 (iv) दहन इस तकनीक में अपशिष्ट को उच्च तापमान पर जला दिया जाता है। यह तकनीक संक्रामक तथा विषाक्त अपशिष्टों के लिए उपयुक्त है। 


विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 7 अंक


प्रश्न 1. उर्वरक उद्योगों के सह-उत्पाद क्या है? पर्यावरण पर इनका कैसा प्रभाव पड़ेगा?



उत्तर उर्वरक, उद्योगों के सह-उत्पाद पीड़कनाशी और कुछ रासायनिक उर्वरक हैं। यह अजैवनिम्नीकरणीय होते हैं, जो प्रत्येक पोषी स्तर में संचित हो जाते हैं। ये मिट्टी और जल के साथ मिल जाते हैं। इससे, ये पीड़कनाशक पादपों द्वारा पानी और खनिजों के साथ अवशोषित कर लिए जाते हैं। जब शाकाहारी इन पादपों को खाते हैं, तो ये जहरीले रसायन आहार श्रृंखला के माध्यम से उनके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। जब माँसाहारी जीव, शाकाहारी को खाते हैं, तो ये पीड़कनाशक उनके शरीर में प्रवेश करते हैं।


मनुष्य सर्वाहारी होता है, जो पादपों और शाकाहारी दोनों को खाता है। इस प्रकार उत्पादक स्तर से पीड़कनाशक आहार शृंखला में प्रवेश करते हैं और आहार शृंखला द्वारा भोजन के स्थानांतरण की प्रक्रिया में ये हानिकारक रसायन प्रत्येक पोषक स्तर पर इनकी सांद्रता में क्रमिक वृद्धि द्वारा सर्वोच्च उपभोक्ता में उच्चतम सांद्रता में संचित हो जाते हैं, जिसे जैव-आवर्धन कहते हैं। इसके अतिरिक्त ये जल प्रदूषण (सुषोषिता) एवं मृदा प्रदूषण (भूमि के बंजर होने) के कारण भी होते हैं




प्रश्न 2. पर्यावरण पर कृषि प्रक्रमों के कुछ हानिकारक प्रभाव बताइए।


उत्तर पर्यावरण पर कृषि प्रक्रमों के कुछ हानिकारक प्रभाव निम्न हैं 


1. वनोन्मूलन कृषि के लिए बड़े वन क्षेत्रों को काटा जाता है, जिससे पर्यावरणीय असन्तुलन उत्पन्न होता है।


 2. कृषि रसायनों के दुष्प्रभाव


(i) कृषि रसायनों के अधिक उपयोग से निकटवर्ती पेयजल स्रोत तथा भू-जल प्रदूषित होता है।


(ii) अधिक रसायनो तथा उर्वरकों के उपयोग से उपजाऊ मृदा बंजर हो जाती है। 


(iii) कृषि उर्वरक वर्षा जल में बहकर निकटवर्ती जलस्रोत में सुपोषिता उत्पन्न कर देते हैं।


(iv) अजैवनिम्नीकृत कृषि रसायन; जैसे-DDT खाद्य, श्रृंखला में प्रवेश कर उच्च उपभोक्ता में गंभीर रोग उत्पन्न कर देते हैं, जिसे जैव-आवर्धन (Biomagnification) कहते हैं।


 (v) मानव में हानिकारक रसायनों वाली फसल को खाने पर आंत का

कैंसर, नपुंसकता, बाँझपन, रुधिर का कैंसर, जीर्णता, गर्भस्थ शिशु मृत्यु, अल्पायु, आदि लक्षण या रोग उत्पन्न हो जाते हैं। 


(vi) कृषि रसायनों के अधिक प्रयोग से किसान मित्र जन्तु, जैसे- केचुआ, चिड़िया, नाइट्रोजनी जीवाणु मर जाते हैं तथा स्थानीय पारितन्त्र असन्तुलित हो जाता है।


(vii) कृषि रसायनों के जलीय तन्त्रों में मिलने पर जलीय जीवों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।


(viii) जलीय पारितन्त्र का सन्तुलन बिगड़ सकता है, क्योंकि हानिकारक उर्वरकों की मात्रा जलीय जीवों में बढ़ने के कारण कई जलीय जीव विलुप्त के कगार पर हैं।




प्रश्न 3. जीवमण्डल की परिभाषा दीजिए। जीवमण्डल के कौन-से तीन प्रमुख भाग हैं?


उत्तर


जीवमण्डल


स्थलमण्डल, जलमण्डल तथा वायुमण्डल का वह क्षेत्र जिसमें जीवधारी पाए जाते हैं जीवमण्डल कहलाता है। जीवमण्डल में ऊर्जा तथा पदार्थों का निरन्तर आदान-प्रदान जैविक तथा अजैविक घटकों के मध्य होता रहता है। जीवमण्डल का विस्तार लगभग 14-15 किमी होता है। वायुमण्डल में 7-8 किमी ऊपर तक तथा समुद्र में 6-7 किमी गहराई तक जीवधारी पाए जाते हैं। जीवमण्डल के तीन प्रमुख भाग निम्नलिखित हैं


1. स्थलमण्डल (Lithosphere) यह पृथ्वी का ठोस भाग है। इसका निर्माण चट्टानों, मृदा, रेत आदि से होता है। पौधे अपने लिए आवश्यक खनिज लवण मृदा से घुलनशील अवस्था में ग्रहण करते हैं।


2. जलमण्डल (Hydrosphere) स्थलमण्डल पर उपस्थित तालाब, कुएँ, झील, नदी, समुद्र आदि मिलकर 'जलमण्डल' बनाते हैं। जलीय जीवधारी अपने लिए आवश्यक खनिज जल से प्राप्त करते हैं। जल जीवन के लिए अति महत्त्वपूर्ण होता है। यह जीवद्रव्य का अधिकांश भाग बनाता है। पौधे जड़ों के द्वारा या शरीर सतह से जल ग्रहण करते हैं। जन्तु जल को भोजन के साथ ग्रहण करते हैं तथा आवश्यकतानुसार इसकी पूर्ति जल पीकर भी करते हैं।


3. वायुमण्डल (Atmosphere) पृथ्वी के चारों ओर स्थित गैसीय आवरण को वायुमण्डल कहते हैं। वायुमण्डल में विभिन्न गैसें सन्तुलित ह मात्रा में पाई जाती हैं।


प्रश्न 4. निम्नलिखित को उदाहरण सहित समझाइए


 1. अम्ल वर्षा


2. ओजोन की न्यूनता


उत्तर- 1. अम्ल वर्षा अम्ल वर्षा वायु में उपस्थित नाइट्रोजन तथा सल्फर के ऑक्साइड के कारण होती है। ये गैसीय ऑक्साइड वर्षा के जल के साथ मिलकर क्रमश: नाइट्रिक अम्ल तथा सल्फ्यूरिक अम्ल बनाते हैं। वर्षा के साथ ये अम्ल भी पृथ्वी पर नीचे आ जाते हैं। इसे ही अम्ल वर्षा या अम्लीय वर्षा (acid rain) कहते हैं।


 इसके कारण अनेक ऐतिहासिक भवनों, स्मारकों, मूर्तियों का संक्षारण हो जाता है जिससे उन्हें काफी नुकसान पहुँचता है। अम्लीय वर्षा के कारण, मृदा भी अम्लीय हो जाती है जिससे धीरे-धीरे उसकी उर्वरता कम हो जाती है। इस कारण वन तथा कृषि उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।


2. ओजोन की न्यूनता रेफ्रीजरेटर, अग्निशमन यन्त्र तथा ऐरोसॉल स्प्रे में उपयोग किए जाने वाले क्लोरो-फ्लुओरो कार्बन (CFC) से वायुमण्डल में ओजोन परत का ह्रास होता है।


हानियाँ ओजोन परत में ह्रास के कारण सूर्य से पराबैंगनी (UV) किरणें अधिक मात्रा में पृथ्वी पर पहुँचती हैं। पराबैंगनी विकिरण से आँखों तथा प्रतिरक्षी तन्त्र को नुकसान पहुँचता है। इससे त्वचा का कैंसर भी हो जाता है। ए ओजोन परत के ह्रास के कारण वैश्विक वर्षा, पारिस्थितिक असन्तुलन तथा वैश्विक खाद्यान्नों की उपलब्धता पर भी प्रभाव पड़ता है।


प्रश्न 5. ओजोन परत की क्षति हमारे लिए चिंता का विषय क्यों है? इस क्षति को सीमित करने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं?


ओजोन परत हमारे लिए क्यों आवश्यक है?



उत्तर- ओजोन परत की क्षति हमारे लिए अत्यंत चिंता का विषय है क्योंकि यदि इसकी क्षति अधिक होती है तो अधिक-से-अधिक पराबैंगनी विकिरणें भी पृथ्वी पर आएँगी जो हमारे लिए निम्न प्रकार से हानिकारक प्रभाव डालती हैं


(i) इनका प्रभाव त्वचा पर पड़ता है जिससे त्वचा के कैंसर की संभावना बढ़ जाती है।


(ii) पौधों में वृद्धि दर कम हो जाती है।


(iii) ये सूक्ष्म जीवों तथा अपघटकों को मारती हैं इससे पारितंत्र में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है


(iv) उत्पन्न हो जाता है। ये पौधों में पिगमेंटों को नष्ट करती हैं।



ओजोन परत की क्षति कम करने के उपाय 


(i) एरोसोल तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन यौगिक का कम-से-कम उपयोग करना। 


(ii) सुपर सोनिक विमानों का कम-से-कम उपयोग करना। 


(iii) संसार में नाभिकीय विस्फोटों पर नियंत्रण करना।




प्रश्न 6. ग्रीन हाउस प्रभाव पर टिप्पणी लिखिए।


अथवा


पृथ्वी ऊष्मायन पर टिप्पणी लिखिए। 


अथवा


 भूमण्डलीय ऊष्मायन के लिए उत्तरदायी चार कारकों का उल्लेख कीजिए।



उत्तर- CO2 की बढ़ती सान्द्रता ग्रीन हाउस प्रभाव डालती है। आमतौर पर जब CO2 की सान्द्रता सामान्य हो तब पृथ्वी का ताप तथा ऊर्जा का सन्तुलन बनाए रखने के लिए ऊष्मा पृथ्वी से परावर्तित हो जाती है, परन्तु CO2 की अधिक सान्द्रता पृथ्वी से लौटने वाली ऊष्मा को परावर्तित होने से रोकती है जिससे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होने लगती है, इसको ग्रीन हाउस प्रभाव (green house effect) कहते हैं। इसके अलावा कुछ ऊष्मा पर्यावरण में उपस्थित पानी की भाप से भी रुकती है। लगभग 100 वर्ष पहले CO2 की पर्यावरण में सान्द्रता लगभग 110 ppm थी, परन्तु अब बढ़कर लगभग 350 ppm तक पहुँच गई है। आज से करीब 40 वर्ष बाद यह सान्द्रता 450 ppm तक पहुँच जाने की सम्भावना है। इससे पृथ्वी के ऊष्मायन में वृद्धि हो सकती है। 



पृथ्वी के ऊष्मायन का प्रभाव ध्रुवों पर सबसे अधिक होगा, इनकी बर्फ पिघलने लगेगी। एक अनुमान के अनुसार सन् 2050 तक पृथ्वी का ताप 5°C तक बढ़ सकता है जिससे समुद्र के निकटवर्ती क्षेत्र शंघाई, सेन फ्रान्सिस्को आदि शहर प्रभावित होंगे। उत्तरी अमेरिका सूखा तथा गर्म प्रदेश बन सकता है। विश्वभर का मौसम बदल जाएगा। भारत में मानसून के समाप्त होने की सम्भावना है। विश्वभर में अनाज के उत्पादन पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा। फल, सब्जी आदि के उत्पादन भी प्रभावित होंगे। बढ़ते ताप से पादप तथा जीव-जन्तुओं की जीवन क्रियाएँ भी प्रभावित होंगी।


प्रश्न 7. पारितन्त्र से आप क्या समझते हैं? इसके प्रमुख घटकों का वर्णन कीजिए।


अथवा


 पारितन्त्र किसे कहते हैं?



उत्तर- 


पारितन्त्र किसी स्थान विशेष में पाए जाने वाले जैविक तथा अजैविक घटकों के पारस्परिक सम्बन्धों को सामूहिक रूप से पारितन्त्र (ecosystem) कहते हैं। पारितन्त्र के निम्नलिखित दो प्रमुख घटक होते हैं


(I) सजीव या जैविक घटक समस्त जन्तु एवं पौधे जीवमण्डल में जैविक घटक के रूप में पाए जाते हैं। जैविक घटक को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है


1. उत्पादक Producers हरे प्रकाश संश्लेषी पौधे उत्पादक कहलाते हैं। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में पौधे कार्बन डाइऑक्साइड एवं पानी की सहायता से प्रकाश एवं पर्णहरिम की उपस्थिति में ग्लूकोज का निर्माण करते हैं। ग्लूकोज अन्य भोज्य पदार्थों (प्रोटीन, मण्ड व वसा) में परिवर्तित हो जाता है, जिसको जन्तु भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं। प्रकाश


6CO₂ + 12H₂0 → C₆H₁₂0₆ + 60₂+H₂O


 2. उपभोक्ता (Consumers) जन्तु पौधों द्वारा बनाए गए भोजन पर आश्रित रहते हैं, इसलिए जन्तुओं को उपभोक्ता कहते हैं। कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन, वसा, विटामिन तथा खनिज तत्व हमारे भोजन के अवयव हैं जो अनाज, बीज, फल, सब्जी आदि से प्राप्त होते हैं। ये सभी पौधों की ही देन हैं। कुछ जन्तु मांसाहारी होते हैं जो अपना भोजन शाकाहारी जन्तुओं का शिकार करके प्राप्त करते हैं। उपभोक्ता निम्न प्रकार के होते हैं-


(i) प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता (Primary consumers) ये शाकाहारी होते हैं। इसके अन्तर्गत वे जन्तु आते हैं जो अपना भोजन सीधे हरे पौधों से प्राप्त करते हैं; जैसे- खरगोश, बकरी, टिड्ढा, चूहा, हिरन, भैंस, गाय, हाथी आदि।


(ii) द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता या मांसाहारी (Secondary consumers or Carnivores) ये मांसाहारी होते हैं एवं प्राथमिक उपभोक्ताओं या शाकाहारी प्राणियों का शिकार करते हैं, जैसे—सर्प, मेढक, गिरगिट, छिपकली, मैना पक्षी, लोमड़ी, भेड़िया, बिल्ली आदि।


(iii) तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता या तृतीयक उपभोक्ता (Tertiary consumers) इसमें द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं  को खाने वाले जन्तु आते हैं; जैसे-सर्प मेढक का शिकार करते हैं, बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों का शिकार करती हैं, चिड़ियाँ मांसाहारी मछलियों का शिकार करती हैं। कुछ जन्तु एक से अधिक श्रेणी के उपभोक्ता हो सकते हैं (जैसे-बिल्ली, मनुष्य आदि) । ये मांसाहारी एवं शाकाहारी दोनों होते हैं, अतः ये सर्वभक्षी (omnivore) कहलाते हैं।


3. अपघटनकर्ता या अपघटक (Decomposers) ये जीवमण्डल के सूक्ष्म जीव हैं; जैसे—जीवाणु व कवक । ये उत्पादक तथा उपभोक्ताओं के मृत शरीर को सरल यौगिकों में अपघटित कर देते हैं। ऐसे जीवों को अपघटक (decomposers) कहते हैं। ये विभिन्न कार्बनिक पदार्थों को उनके सरल अवयवों में तोड़ देते हैं। सरल पदार्थ पुनः भूमि में मिलकर पारितन्त्र के अजैव घटक का अंश बन जाते हैं।


(II) निर्जीव या अजैविक घटक इसके अन्तर्गत निर्जीव वातावरण आता है, जो विभिन्न जैविक घटकों का नियन्त्रण करता है। अजैव घटक को निम्नलिखित तीन उप-घटकों में विभाजित किया गया है



1. अकार्बनिक (Inorganic) इसके अन्तर्गत पोटैशियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम, फॉस्फोरस, लोहा, सल्फर आदि के लवण, जल तथा वायु की गैसें; जैसे—ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, अमोनिया आदि; आती हैं।


2. कार्बनिक (Organic) इसमें कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा आदि सम्मिलित हैं। ये मृतक जन्तुओं एवं पौधों के शरीर से प्राप्त होते हैं। अकार्बनिक एवं कार्बनिक भाग मिलकर निर्जीव वातावरण का निर्माण करते हैं।


3. भौतिक घटक (Physical components) इसमें विभिन्न प्रकार के जलवायवीय कारक; जैसे—वायु, प्रकाश, ताप, विद्युत आदि; आते हैं।


प्रश्न 8.खाद्य-श्रृंखला एवं खाद्य-जाल में अन्तर



खाद्य-श्रृंखला एवं खाद्य-जाल में अन्तर



खाद्य-श्रंखला

खाद्य-जाल


यह एक सरल प्रकार की संरचना है, जिसमें ऊर्जा का स्थानान्तरण एक जीव से दूसरे जीव में होता है।

खाद्य-जाल एक जटिल संरचना है। विभिन्न पारिस्थितिक तन्त्र से खाद्य-शृंखलाएँ परस्पर मिलकर खाद्य-जाल बनाती हैं।


इसमें ऊर्जा का प्रवाह एक ही दिशा में होता है।

इसमें ऊर्जा का प्रवाह एक दिशा में होते हुए भी कई पथों से होकर गुजरता है।


खाद्य-शृंखला में सामान्यतः जीवों की संख्या कम होती है।


एक सरल खाद्य-जाल में जीवों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक होती है।




Up ncert class 10 science chapter 14 

Management of Natural Resources notes in hindi


 कक्षा 10 वी विज्ञान अध्याय 14 प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन का सम्पूर्ण हल








प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन Management of Natural Resources






महत्वपूर्ण बिंदु


1.हमारे संसाधनों, जैसे वन, वन्य जीवन, कोयला एवं पेट्रोलियम का उपयोग सम्पोषित रूप से करने की आवश्यकता है।


2.कम उपयोग, पुनः उपयोग एवं पुनः चक्रण की नीति अपना कर हम पर्यावरण पर पड़ने वाले दबाव को कम कर सकते हैं। 



3.वन सम्पदा का प्रबन्धन सभी पक्षों के हितों को ध्यान में रखकर करना चाहिए।


4.जल संसाधनों के संग्रहण हेतु बाँध बनाने में सामाजिक-आर्थिक एवं पर्यावरणीय समस्याएँ आती हैं। बड़े बाँधों का विकल्प उपलब्ध है।


5. यह स्थान क्षेत्र विशिष्ट है तथा इनका विकास किया जा सकता है जिससे स्थानीय लोगों को उनके क्षेत्र के संसाधनों का नियन्त्रण सौंपा जा सके


6. जीवाश्म ईंधन, जैसे कि कोयला एवं पेट्रोलियम, अंततः समाप्त हो जाएँगे। इनकी मात्रा सीमित है और इनके दहन से पर्यावरण प्रदूषित होता है. अतः हम संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग की आवश्यकता है।


7.वे पदार्थ, जो मानव के लिए उपयोगी हों अथवा जिन्हें उपयोगी उत्पाद में रूपान्तरित किया जा सके या जिनका उपयोग किसी उपयोगी वस्तु के निर्माण में किया जा सके, संसाधन कहलाते हैं। वे संसाधन, जिन्हें प्रकृति से प्राप्त किया जाता है, प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं। प्राकृतिक संसाधन प्रकृति में वायु, जल, मृदा, खनिज, जन्तु तथा पादपों के रूप में संग्रहित होते हैं।


प्राकृतिक संसाधनों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है। 



(i) अक्षय संसाधन ये प्राकृतिक संसाधन असीमित मात्रा में पृथ्वी पर उपलब्ध हैं।

उदाहरण वायु, मृदा, जल, सौर ऊर्जा, आदि। 



(ii) क्षयशील संसाधन इन प्राकृतिक संसाधनों की मात्रा सीमित है। इनका अधिकतम एवं अनियन्त्रित मात्रा में उपयोग करने से ये अन्ततः पूरी तरह समाप्त हो जाएँगे। उदाहरण खनिज, कोयला, पेट्रोल, आदि।



प्राकृतिक संसाधनों का प्रबन्धन तथा संरक्षण


पृथ्वी की सम्पदाएँ या संसाधन सीमित मात्रा में उपलब्ध हैं। मानव जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण, सम्पदाओं या संसाधनों के लिए माँग दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। अतः इनका उचित प्रबन्धन सुनिश्चित करता है, कि प्राकृतिक सम्पदाओं का विवेकपूर्वक उपयोग किया जाए, ताकि वे वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करें और आने वाली पीढ़ियों के लिए भी बनी रहें।


नोट – गंगा का प्रदूषण तथा गंगा कार्य (सफाई) योजना गंगा हिमालय में स्थित अपने उद्गम गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी में गंगासागर तक लगभग 2500 किमी. की यात्रा तय करती है। इसके किनारे स्थित उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल के 100 से अधिक नगरों का औद्योगिक कचरा वाहित मल, घरेलू अपशिष्ट, रसायन, कीटनाशक, मल-मूत्र, आदि इसमें मिलता जाता है, जिसके फलस्वरूप इसका स्वरूप नाले के समान हो गया है। इसके अतिरिक्त इसमें प्रचुर मात्रा में अपमार्जक (Detergents), मृत व्यक्तियों की राख, रंजक, आदि भी प्रवाहित किए जाते हैं। इसके कारण इसका जल प्रदूषित होने लगा है। इस प्रदूषित जल के कारण इसमें अत्यधिक संख्या में मछलियाँ तथा अन्य जलीय जीव मर रहे हैं। इसे रोकने के लिए गंगा कार्य (सफाई) योजना सर्वप्रथम अप्रैल 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी द्वारा प्रारम्भ की गई। यह कार्यक्रम बड़ी उमंग के साथ प्रारम्भ किया गया था, लेकिन यह नदी के प्रदूषण स्तर को कम करने में असफल रहा। इसकी लागत 901.71 करोड रूपए तथा समयावधि 15 वर्ष रखी गयी थी। कोलीफॉर्म जीवाणु का एक वर्ग है, जो मानव की आँत में पाया जाता है। गंगाजल में


इसकी उपस्थिति से जल प्रदूषण का स्तर अधिक हो गया है, जोकि जल जनित रोगों के कारण है।


वर्तमान में प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग एवं उनके द्वारा उत्पन्न अपशिष्ट के उत्पादन को कम करने हेतु 3R पद्धति का उपयोग किया जाता है। तीन R अर्थात् Reduce (कम उपयोग करना), Recycle (पुनः चक्रण) तथा Reuse (पुनः उपयोग करना) का पालन करके हम प्राकृतिक संसाधनों का सही प्रबन्धन कर पर्यावरण को सुरक्षित रख सकते हैं।


1. कम उपयोग करना


इससे तात्पर्य है, कि क्षयशील संसाधनों एवं अपशिष्ट उत्पन्न करने वाले पदार्थों का कम से कम उपयोग करना, जैसे- जल को व्यर्थ नहीं बहाना, प्लास्टिक का कम उपयोग करना, आदि। 



2. पुन: चक्रण


प्लास्टिक, काँच, कागज, धातु, आदि जैसी वस्तुओं का पुनःचक्रण करके उपयोगी वस्तुएँ बनानी चाहिए।


3. पुन: उपयोग करना


यह पुनः चक्रण से बेहतर साधन है, क्योंकि इसमें ऊर्जा व्यय नहीं होती है एवं वस्तु का बार-बार उपयोग किया जाता है, जैसे- काँच एवं प्लास्टिक के डिब्बों, बोतलों, आदि का बार-बार उपयोग किया जा सकता है।



संपोषित विकास की अवधारणा


विकास की इस प्रक्रिया का उद्देश्य प्राकृतिक तन्त्र तथा उसकी उत्पादकताओं को, लम्बे समय तक पर्यावरण को कोई हानि पहुँचाए बिना बनाए रखना है।


वर्तमान मानव पीढ़ी की आवश्यकताओं का विवेकपूर्ण उपयोग करते हुए आगामी पीढ़ियों की आवश्यकताओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना ही संपोषित विकास की अवधारणा का मूल आधार है। आर्थिक विकास पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित है। अतः संपोषित विकास से जीवन के सभी आयाम में परिवर्तन निहित हैं।


प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन की आवश्यकता


हमें हमारे संसाधनों का सावधानीपूर्वक प्रबन्धन करना आवश्यक है, क्योंकि



1. पृथ्वी पर संसाधन सीमित है एवं मानव जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण, संसाधनों की माँग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।


2.प्राकृतिक संसाधनों का उचित प्रबन्धन दीर्घकालिक महत्त्व पर विचार करता है और अल्पकालिक लाभ के लिए उनके शोषण को पूर्णतया रोकता है, ताकि ये अगली पीढ़ी हेतु भी उपलब्ध हों।


3.संसाधनों का वितरण सभी वर्गों के लिए समान होना चाहिए, जिससे ये संसाधन सभी लोगों के विकास में लाभ दे सकें। 


4.संसाधनों के शोधन तथा उपयोग को नियन्त्रित कर पर्यावरण को क्षति से बचाया जा सकता है। संसाधनों के प्रबन्धन हेतु अपशिष्टों के सुरक्षित निपटान की व्यवस्था अनिवार्य है।


वन एवं वन्य जीवन


भू-भाग पर प्राकृतिक रूप से स्वतः ही उगने एवं वृद्धि करने वाले पादपों, वृक्षों एवं झाड़ियों के सघन आवरण को 'वन' कहते हैं। वनों की आर्थिक व पर्यावरणीय उपयोगिता के कारण ही इन्हें संसाधन माना जाता है तथा ये वन संसाधन कहलाते हैं।


वनों का संरक्षण आवश्यक है, क्योंकि 


1.वनों से ऑक्सीजन की आपूर्ति होती है, जोकि समस्त जीवधारियों के लिए प्राण वायु है।


2. वनों से घरेलू उपयोग के लिए वस्तुएँ, जैसे-पशुओं के लिए चारा, ईंधन हेतु लकड़ी, फल व औषधियाँ प्राप्त होती हैं।


3.वनों से कागज, रबर, कत्था, माचिस, फर्नीचर, खेल उपकरण, तारपीन का तेल, आदि उद्योगों हेतु कच्चा माल उपलब्ध होता है। 


4.वन पर्यावरणीय संतुलन को स्थापित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं  ये पर्यावरण प्रदूषण को कम करते हैं तथा जैव-विविधता बनाए रखते हैं। 



5.वन बाद नियन्त्रण में भी सहायक होते हैं। ये बाढ़ के जल की तीव्रता को कम कर देते हैं।


6.वृक्षों की जड़ें मिट्टी के कणों को बाँधे रखती हैं, जिससे वर्षा के दौरान भू-क्षरण या मृदा अपरदन नहीं होता है।


स्टेकहोल्डर (दावेदार)


किसी परियोजना या इसके परिणाम से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रूचि या सरोकार रखने वाला व्यक्ति, समूह या संगठन दावेदार या अधिकार पत्रधारी (Stakeholders) कहलाता है। ये सभी दावेदार एक समान नहीं होते हैं, वरन् उनकी भूमिकाएँ एवं आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं।




हम सभी विभिन्न वन उत्पादों का उपयोग करते हैं, परन्तु वन संसाधनों पर हमारी निर्भरता में अन्तर होता है। वन संरक्षण से सम्बन्धित दावेदार निम्नलिखित हैं


(i) स्थानीय लोग वन के अन्दर एवं इसके निकट रहने वाले लोग अपने जीवनयापन की अनेक आवश्यकताओं के लिए वन उपज पर निर्भर रहते हैं। वे ईंधन, लकड़ी, खाद्य पदार्थ एवं मवेशियों के लिए चारा भी वन से प्राप्त

करते हैं।


(ii) वन विभाग सरकार का वन विभाग, जिनके पास वनों का स्वामित्व है। वे वनों से प्राप्त संसाधनों का नियन्त्रण एवं वन्य जीवों का संरक्षण करते हैं।


 (iii) उद्योग उद्योगपतियों का वन सम्पदाओं में मुख्य रूप से स्वार्थ निहित होता है। ये अपने उद्योगों या कारखानों के लिए वनों को केवल कच्चे माल (प्राय: लकड़ी) का स्रोत ही समझते हैं। उदाहरण टिंबर उद्योग, कागज निर्माण उद्योग, लाख उद्योग और खेल उपकरण निर्माण उद्योग।


(iv) प्रकृति तथा वन्यजीवों के समर्थक इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकृति प्रेमी एवं पर्यावरणविदों के समूह आते हैं, जो पर्यावरण सन्तुलन में वनों एवं वन्यजीवों के योगदान को समझते हैं तथा उनके संरक्षण में अपना योगदान देते हैं। इस प्रकार के संरक्षण प्रयासों में वन्यजीवों, जैसे-बाघ, शेर, गैंडा, हाथी, हिरण, आदि के संरक्षण को प्राथमिकता दी गई है। कुछ स्थानीय निवासी परम्परानुसार वनों के संरक्षण का प्रयास करते रहते हैं। जैसे- राजस्थान के विश्नोई समुदाय के लिए वन एवं वन्य प्राणी संरक्षण उनके धार्मिक अनुष्ठान के का भाग है। यह पुरस्कार अमृता देवी विश्नोई की स्मृति में दिया जाता है, जिन्होंने सन् 1731 में राजस्थान के जोधपुर के पास खेजरली गाँव में खेजड़ी के वृक्षों को बचाने हेतु 363 लोगों के साथ अपने प्राणों का बलिदान कर दिया था। भारत सरकार ने हाल ही में वन्य जीव संरक्षण हेतु अमृता देवी राष्ट्रीय पुरस्कार देने की व्यवस्था की है।


संपोषित प्रबन्धन


प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को नियन्त्रित एवं नियमित करने वाला वह प्रक्रम या तन्त्र जो पर्यावरण को प्रभावित या असन्तुलित किए बिना संसाधनों की अगली पीढ़ियों हेतु सतत् उपलब्धता सुनिश्चित करता है, प्राकृतिक संसाधनों का संपोषित प्रबन्धन कहलाता है।


जन सहभागिता


चिपको आंदोलन जल्द ही सभी समुदायों तथा मीडिया में फैल गया, जिससे सरकार को वनों की कटाई को रोकना पड़ा तथा उनको सोचने पर मजबूर होना पड़ा, कि वन उत्पादों के उपयोग में किन प्रमुख बिंदुओं को प्राथमिकता दी जाए। स्थानीय लोगों का मानना था कि वनों को नष्ट करने से केवल वन उत्पादों की उपलब्धता ही प्रभावित नहीं होती है, बल्कि मृदा की गुणवत्ता तथा जल के स्रोत भी प्रभावित होते हैं। वनों के प्रबन्धन में स्थानीय लोगों के भागीदारी की अति आवश्यकता होती है। पादपों को उगाकर वनों की पुनः प्राप्ति के लिए वन-वर्धन (Silviculture) नामक कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया, जो पारितन्त्र तथा उसके कार्यों में सन्तुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक है। 



वन प्रबन्धन में लोगों की भागीदारी का उदाहरण


पश्चिम बंगाल वन विभाग (West Bengal Forest Department) ने सन् 1972 में, स्थानीय लोगों को शामिल करके नष्ट हो रहे साल वृक्षों के वनों को पुनर्जीवित करने के लिए एक असाधारण योजना को प्रतिपादित किया। इसका आरम्भ मिदनापुर जिले की अराबरी वन श्रृंखला (Arabari forest range) में किया गया था। इसके लिए वन अधिकारी ए. के. बनर्जी ने अत्यधिक नष्ट हो रहे साल के वन के 1272 हेक्टेयरों की सुरक्षा में वन के आस-पास के क्षेत्रों के ग्रामीणों को शामिल किया।


वन की सुरक्षा में सहायता के बदले में, ग्रामीणों को वन-वर्धन (Silviculture) तथा वन के कटाई कार्यों में रोजगार दिया गया था। इन्हें उपज का 25 प्रतिशत भाग भी दिया गया था तथा नाम मात्र के भुगतान पर वन-क्षेत्र से जलाऊ लकड़ी (ईंधन) और चारा इकट्ठा करने की अनुमति प्रदान की गई। वन के आस-पास रहने वाले स्थानीय लोगों के सक्रिय तथा स्वैच्छिक सहयोग से, अराबरी (Arabari) का नष्ट हो रहा साल-वन दस वर्षों के भीतर ही घना और हरा-भरा हो गया था। इस तरह स्थानीय लोगों के सहयोग से वनों के प्रभावी प्रबन्धन को बढ़ावा मिल सकता है।


वन्य जीव एवं इनका संरक्षण


वन वन्य जीवों को आश्रय प्रदान करते हैं, जिनका व्यापारिक लाभ के लिए अवैध शिकार किया जाता है। वन्य जीवों को उनकी त्वचा (चमड़े), दाँत, फर, पंख, शल्क, आदि के लिए मारा जा रहा है। इनका उपयोग अनेक उत्पादों के व्यापारिक उत्पादन में किया जाता है। इस कारण खाद्य श्रृंखलाएँ प्रभावित होती हैं तथा पारितन्त्र का पर्यावरणीय सन्तुलन बिगड़ जाता है।


वन्य जीवों के संरक्षण के उपाय


#. अवैध शिकार को दंडनीय अपराध बनाया जाना चाहिए।


#.वन-विभाग द्वारा वनों की निगरानी बढ़ा देनी चाहिए। संकटापन्न जातियों के संरक्षण के लिए विशेष उपाय किए जाने चाहिए।


#.राष्ट्रीय उद्यानों तथा अभ्यारण्यों की संख्या बढ़ाकर प्राकृतिक आवासों को संरक्षित करना चाहिए।


सभी के लिए जल


जल, स्थलीय एवं जलीय जीवों की मूल आवश्यकता है, जो कई प्रकार के जल स्रोतों, जैसे- समुद्र, नदियों, झीलों, तालाबों, आदि में पाया जाता है। वर्षा, जल का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत है। समुद्र, पृथ्वी पर सबसे बड़े जल स्रोत हैं, लेकिन इनका जल उपयोगी नहीं होता है, क्योंकि इसका जल लवणीय होता है तथा इसको बिना शुद्धिकरण किए प्रयोग नहीं कर सकते हैं। भारत में वर्षा प्रमुखतया मानसून के दौरान होती है। इसका अर्थ है, कि वर्ष के कुछ महीने ही वर्षा होती है, जोकि जल स्रोतों को पुनः भरती है। 


हम जल स्रोतों का प्रबन्धन निम्न विधियों द्वारा करते हैं 


1.खेती तथा दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बाँध, कुण्ड तथा नहरों का उपयोग करके। 


2.बाँधों में संग्रहित जल का नियन्त्रित उपयोग किया जाता है।


जल संसाधनों का प्रबन्धन


1• खेती तथा दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बाँध, कुंड तथा नहरों का उपयोग करके।


2• बाँधों में संग्रहित जल का नियन्त्रित उपयोग किया जाता है।


3.अधिकतर फसल उत्पादन के तरीके जल की उपलब्धता पर आधारित हैं।


बाँध


नदियों के जल को रोककर रखने के लिए इन विशाल संरचनाओं का निर्माण किया जाता है। ये जल को अधिक मात्रा में संचित रखते हैं। इनमें संग्रहित जल का उपयोग विभिन्न कार्यों के लिए किया जाता है।


बाँधों के उद्देश्य एवं उपयोग


1.सिंचाई के लिए जल उपलब्ध करवाना 


2.विद्युत (जल-विद्युत) के उत्पादन में वर्षा ऋतु के दौरान आने वाले अत्यधिक बाढ़ को रोका जा सकता है।


3.वर्षा जल को बाँधों में जल संग्रहण करके


4.जिस स्थान पर जल की आवश्यकता है, नहर परियोजना द्वारा अधिक दूरी तक भी जल पहुँचाया जा सकता है, जैसे- इंदिरा गाँधी नहर ने राजस्थान के उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्रों को हरा-भरा कर दिया है।


बड़े बाँध की आलोचना 


बड़े बाँध के विरोध में मुख्यतया तीन समस्याएँ होती हैं (i) सामाजिक समस्याएँ (Social problems) इससे बड़ी संख्या में किसान, स्थानीय लोग आदिवासी , विस्तावित होते हैं तथा उन्हें उचित मुवाबजा भी नहीं मिलता है


 (ii) आर्थिक समस्याएँ (Economic problems) इनमें बहुत अधिक राज्य धन लगता है और उस अनुपात में अपेक्षित लाभ प्राप्त नहीं होता है।



(iii) पर्यावरणीय समस्याएँ (Environmental problems) इससे बड़े स्तर पर वनों का विनाश होता है, जिससे स्थानीय जैव-विविधता की क्षति होती है। यह क्षेत्र को भूकम्प संवेदी भी बना देते हैं। उदाहरणस्वरूप नर्मदा नदी पर बनने वाले सरदार सरोवर बाँध की ऊँचाई बढ़ाने का विरोध करने के लिए, नर्मदा बचाओ आन्दोलन प्रारम्भ किया गया।


गंगा नदी पर टिहरी बाँध भी लोगों के विरोध का सामना कर रहा है।


जल-संग्रहण


जल संभर प्रबन्धन में मिट्टी एवं जल संरक्षण पर जोर दिया गया है, ताकि जैव-भार के उत्पादन में वृद्धि हो सके। पृथ्वी पर जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है, परन्तु इसका वितरण असमान है। प्रायः भारत में वर्षा कुछ महीने ही गिरती है तथा उपलब्ध जल की गुणवत्ता भी कम होती है, इसलिए जल संरक्षण आवश्यक है। इसका मुख्य उद्देश्य भूमि एवं जल के प्राथमिक स्रोतों का विकास कर पादपों एवं जन्तुओं के द्वितीयक संसाधनों के उत्पादन में वृद्धि करना है, जिससे पारिस्थितिकी असन्तुलन उत्पन्न न हो।


जल संग्रहण की परम्परागत विधियाँ


भारत में, अधिकाधिक वर्षा जल जो भूमि पर गिरता है, को रोकने के लिए स्थानीय लोग अनेक जल एकत्रीकरण विधियों का उपयोग करते हैं।


ये विधियाँ निम्न प्रकार हैं 


#• छोटे गड्ढों तथा झीलों या तालाबों की खुदाई।


#• छोटे मृद-बाँधों का निर्माण या तटबन्धन करना।


#.बाँधों या नहरों का जल रोकने के लिए मिट्टी की लम्बी दीवारों का निर्माण करना।


#• बालू तथा चूना पत्थर द्वारा जलाशयों का निर्माण करना।


#• घरों की छतों के ऊपर जल संचयन इकाइयों की स्थापना करना।


परम्परागत जल संग्रहण तन्त्र


बड़े समतल भू-भाग में, जल संग्रहण स्थल मुख्यतया अर्धचन्द्राकार मिट्टी के गड्ढे या निचले ढलान वाले स्थानों पर, वर्षा ऋतु में जल प्रवाह के मार्ग में कंक्रीट या छोटे कंकड़ पत्थरों द्वारा एनीकट या चैक डैम (Check dams) बनाए जाते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य जल के भौम-स्तर में सुधार करना है, जो मानसून के दौरान भर जाते हैं तथा मानसून के बाद लगभग अगले छः महीने जल की आपूर्ति करते हैं।


कोयला और पेट्रोलियम


कोयला एवं पेट्रोलियम जीवाश्मीय ईंधन है, जो कार्बन के अतिरिक्त हाइड्रोजन, नाइट्रोजन व सल्फर के बने होते हैं। ये ऊर्जा के प्रमुख स्रोत हैं।


 कोयला एक ठोस कार्बनिक ईंधन है, जो पृथ्वी के भूगर्भ में पाया जाता है।


पेट्रोलियम (पेट्रो = चट्टानें तथा ओलियम तेल) प्रकृति में तरल कार्बनिक रसायनों के रूप में पाया जाता है। यह अधिक मात्रा में पृथ्वी की सतहों के नीचे भूगर्भ में पाया जाता है।


कोयला और पेट्रोलियम का निर्माण


कोयला और पेट्रोलियम लाखों-करोड़ों वर्ष पहले पृथ्वी में गहराई में दबे पेड़-पादप और प्राणियों के जैव-भार के निम्नीकरण से बनते हैं। अतः ये क्षयशील संसाधन हैं।


उपयोग


कोयले का उपयोग ताप वैद्युत संयन्त्रों में बिजली उत्पन्न करने के लिए किया जाता है, जबकि पेट्रोलियम उत्पादों, जैसे-पेट्रोल और डीजल का उपयोग स्कूटरों,

मोटर साइकिलों, कारों, बसों, ट्रकों, रेलगाड़ियों, जहाजों और वायुयानों को चलाने के लिए ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाता है।


कोयला तथा पेट्रोलियम द्वारा उत्पन्न प्रदूषण


कोयले एवं पेट्रोलियम का दहन करने पर कार्बन डाइऑक्साइड, जल, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, आदि उत्पन्न होते हैं अर्थात जीवाश्मीय ईंधन का दहन बढ़ने से वायुमण्डल में अत्यधिक मात्रा में प्रदूषक गैसे मुक्त होती हैं, जो ग्लोबल वार्मिंग तथा अम्ल वर्षा उत्पन्न कर रही हैं। सल्फर एवं नाइट्रोजन ऑक्साइड अम्ल वर्षा का कारण बनते हैं। कार्बन डाइऑक्साइड एक हरितगृह गैस है।



कोयला तथा पेट्रोलियम का संरक्षण


1.आवश्यकता न होने पर वैद्युत उपकरणों को बन्द कर देना चाहिए।


2.बिजली बचाने के लिए ऊर्जा दक्ष वैद्युत उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।


3. सार्वजनिक परिवहन जैसे-बस, ट्रेन, आदि का उपयोग करना चाहिए।


4.लिफ्ट के स्थान पर सीढ़ियों का उपयोग करना चाहिए।


5.हीटर या सिगड़ी का प्रयोग करने के स्थान पर सर्दी में एक अतिरिक्त स्वेटर पहनना चाहिए। 


नोट सौर कुकर भोजन बनाने में प्रयुक्त गैस ईंधन का विकल्प है, जिसमें दालें, सब्जियाँ तथा चावल आसानी से पकाए जा सकते हैं, लेकिन इसके लिए सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति आवश्यक है।


प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन का दृश्यावलोकन प्राकृतिक संसाधनों का संपोषित प्रबन्धन एक कठिन कार्य है। इस मामले में हमें सभी दावेदारों के हितों के बारे में सोचना चाहिए। कानून एवं नियमों से आगे हमें अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक आवश्यकताओं को सीमित करना चाहिए एवं प्राकृतिक •संसाधनों का प्रबन्धन दीर्घकालिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए, ताकि विकास का लाभ वर्तमान एवं भो भावी पीढ़ियों को समान रूप से प्राप्त हो सके।




         बहुविकल्पीय प्रश्न 1 अंक


प्रश्न 1. निम्न में से कौन क्षयशील संसाधन नहीं है?


(a) पेट्रोल 


(b) जीवाश्म ईंधन


(c) वन


(d) सौर ऊर्जा 


उत्तर (d) सौर ऊर्जा क्षयशील नहीं है तथा किसी भी पारितन्त्र के लिए ऊर्जा का स्रोत है।


प्रश्न 2. निम्न में से कौन-सा क्षयशील संसाधन है?


(a) कोयला 


(b) जल


(C) सौर ऊर्जा


(d) पादप


 उत्तर (a) कोयला क्षयशील संसाधन है। यह सीमित मात्रा में उपस्थित है।


प्रश्न 3. गंगा को प्रदूषित करने वाले कारक हैं 


(a) कीटनाशक             (b) रसायन


(c) कचरा वाहित मल     (d) ये सभी


उतर (d) ये सभी विकल्प गंगा को प्रदूषित करने वाले कारक है।


प्रश्न 4. अमृता देवी विश्नोई हैं


(a) वन संरक्षक


(b) जलीय जन्तु संरक्षक 


(c) सामाजिक कार्यकर्ता


(d) उपरोक्त में से कोई नहीं


उत्तर (a) अमृता देवी विश्नोई वन संरक्षक है। उन्होंने 1731 में वनों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी।


प्रश्न 5. वे तीन 'R' कौन-से हैं, जो प्राकृतिक संसाधनों को लम्बी अवधि तक संरक्षित बनाए रखने में सहायक होंगे? 


(a) पुनः चक्रण, पुनरुत्पादन, पुन: उपयोग 


(b) कम उपयोग, पुनरुत्पादन, पुनः उपयोग


(c) कम उपयोग, पुनः उपयोग, पुनः वितरण


(d) कम उपयोग, पुनः चक्रण, पुन: उपयोग


उत्तर (d) प्राकृतिक संसाधनों को लम्बी अवधि तक संरक्षित बनाए रखने के लिए '3R' पद्धति का उपयोग किया जाता है। ये 3R; कम उपयोग पुनः चक्रण, पुन: उपयोग है।


प्रश्न 6. भौम-जल क्या है?


(a) जलाशय का जल


(C) भूमि के नीचे संचित जल


(b) वर्षा का जल 


(d) इनमें से कोई नहीं


उत्तर (b) वर्षा का जल भूमि के नीचे एक जल स्तर बनाता है, जिसे भौम-जल कहते हैं।


अतिलघु उत्तरीय प्रश्न 2 अंक



प्रश्न 1. वन संरक्षण क्यों आवश्यक है? अथना हमें वन एवं वन्य-जीवन का संरक्षण क्यों करना चाहिए?


उत्तर हमें वन एवं वन्य जीवन का संरक्षण इसलिए करना चाहिए, क्योंकि वन देश की बहुमूल्य सम्पदा है तथा ये प्रकृति के नव्यकरणीय स्रोत हैं।


ये निम्न प्रकार से मनुष्य के लिए आवश्यक हैं।


(i) इमारती लकड़ी वनों से मकानों के लिए इमारती लकड़ी प्राप्त होती हैं, जो फर्नीचर, खिड़कियाँ, आदि बनाने के काम आती है।


(ii) ईंधन विकासशील देशों में 150 करोड़ से भी अधिक व्यक्तियों को खाना पकाने के लिए ईंधन की आवश्यकता होती है, जो उन्हें लकड़ी से प्राप्त होता है।


(iii) कागज लकड़ी व बाँस का अखबार व उच्चकोटि के कागज को बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है।


(iv) भोजन आदिवासी लोग वनों से प्राप्त पत्तियों तथा फलों के लिए वनों पर निर्भर रहते हैं।


(v) अन्य वन उत्पाद वनों से तेल, कपूर, गोद, औषधियाँ, विष, फल, शिकाकाई, मोम, आदि व्यवसायिक महत्व के उत्पाद भी प्राप्त होते हैं। 


प्रश्न 2. वन उत्पादों पर आधारित उद्योगों के नाम बताइए।


 उत्तर फर्नीचर, कागज, लाख तथा खेल उपकरण, निर्माण उद्योग, आदि वन उत्पादों पर आधारित है।



प्रश्न 3. अमृता देवी विश्नोई ने अपने जीवन का बलिदान क्यों और कौन-से वर्ष में दिया था ?


उत्तर सन् 1781 में राजस्थान में जोधपुर के पास खेजरली गाँव में 'खेजड़ी वृक्षों" को बचाने हेतु अमृता देवी विश्नोई ने वहाँ के 363 लोगों के साथ अपने प्राणों का बलिदान कर दिया था।



 प्रश्न 4. वन्य प्राणियों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।


उत्तर वन वन्य जीवों को आश्रय प्रदान करते है, जिनका व्यापारिक लाभ के लिए अवैध शिकार किया जाता है।


वन्य जीवों को उनकी त्वचा (चमड़े), दाँत, फर, पंख, शल्क, आदि के लिए मारा जा रहा है। इनका उपयोग अनेक उत्पादों के व्यापारिक उत्पादन में किया जाता है। इस कारण खाद्य श्रृंखलाएँ प्रभावित होती हैं तथा पारितन्त्र का पर्यावरणीय सन्तुलन बिगड़ जाता है।




प्रश्न 5. जैव-विविधता की हानि से हम किसका सामना करेंगे? कारण बताइए।


उत्तर जैव-विविधता की हानि से हम पारिस्थितिकीय संकट का सामना करेंगे। इससे खाद्य श्रृंखला एवं खाद्य जाल अव्यवस्थित हो जाएंगे तथा भावी पीढ़ी के लिए ये संसाधन उपलब्ध नहीं हो सकेंगे।



प्रश्न 6. जल संरक्षण क्या है? विस्तारपूर्वक समझाइए ।


उत्तर जल संरक्षण या संग्रहण का अर्थ वह स्थानीय क्षेत्र, जहाँ वर्षा का जल भूमि पर गिरता है या प्रवाहित होता है, में जल का संग्रहण करना है। राजस्थान की परम्परागत जल संग्रह पद्धति खादिन है। जल को संग्रहित करके सिंचाई तथा भूमि का जल स्तर बढ़ाने हेतु प्रयोग किया जाता है तथा रोजमर्रा की जल आवश्यकताओं को पूर्ण करने में किया जाता है।



प्रश्न 7. प्रदूषण क्या है? इसके विभिन्न प्रकारों के नाम लिखिए। 


उत्तर पर्यावरण में उपस्थित व अवांछित या हानिकारक तत्व, जो सजीवों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दुष्प्रभाव डालते हैं, प्रदूषक कहलाते हैं तथा पर्यावरण में इन प्रदूषकों के कारण उत्पन्न दुष्परिणामों को प्रदूषण कहते हैं। प्रदूषण के विभिन्न प्रकार जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण है।



प्रश्न 8. पृथ्वी पर समुद्र जैसे बड़े जल स्रोत उपस्थित हैं, फिर भी जल की कमी है। समझाइए। 


उत्तर समुद्र, पृथ्वी पर सबसे बड़े जल स्रोत है, लेकिन इनका जल उपयोगी नहीं होता है, क्योंकि इसका जल लवणीय होता है तथा इसका बिना शुद्धिकरण किए प्रयोग नहीं कर सकते हैं।



प्रश्न 9. बाँधों के दो महत्त्वपूर्ण लाभ बताइए।


उत्तर (i) सिचाई हेतु जल उपलब्ध करवाना। 


(ii) बिजली उत्पादन में। 


प्रश्न 10. ऐसे दो बाँधों के नाम बताइए, जो लोगों के विरोध का सामना कर रहे हैं।



उत्तर (i) गंगा नदी पर टिहरी बाँध


(ii) नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बाँधा


 प्रश्न 11. जल की गुणवत्ता के स्तर को मापने के लिए हम कौन से मानक उपयोग में लाते हैं?


उत्तर जल का pH (यूनिवर्सल इंडिकेटर का प्रयोग करके किया जाता है), चालकता, BOD तथा जैविक जाँच, आदि उपयोग में लाते है। 


प्रश्न 12. आपके द्वारा सुझाए गए जल संसाधनों के उचित प्रबन्धन के कोई दो उपाय बताइए।


उत्तर जल संसाधन के उचित प्रबन्धन के दो उपाय निम्न है


 (i) वर्षाजल का संरक्षण


(ii) बाँधों का निर्माण



प्रश्न 13. खनन द्वारा प्रदूषण कैसे उत्पन्न होता है?


उत्तर खनन द्वारा प्रदूषण उत्पन्न होता है, क्योंकि खनन के दौरान प्रति टन धातु निष्कर्षण में अत्यधिक मात्रा में स्लज (धातु ऑक्साइड तथा सिलिकॉन डाइऑक्साइड के द्वारा निकाले सह-उत्पाद) बनती है, जो जल एवं मृदा प्रदूषण का कारण बनती है।


प्रश्न 14. हालाँकि कोयला और पेट्रोलियम जैव-संहति के अपघटन से उत्पन्न होते हैं, फिर भी हमें उनके संरक्षण करने की आवश्यकता है। क्यों?


उत्तर कोयला और पेट्रोलियम जैव-संहति के अपघटन से उत्पन्न होते हैं। हजारों साल पहले ये स्रोत अधिक मात्रा में पाए जाते थे, परन्तु भविष्य में सावधानीपूर्वक प्रयोग न करने के कारण इनका उपलब्ध होना असम्भव है। हम जानते हैं कि पृथ्वी पर उपस्थित इनके भंडारण क्षेत्रों की क्षमता एवं वर्तमान खपत या मांग के अनुसार हम पेट्रोलियम लगभग अगले 40 सालों और कोयला लगभग अगले 200 सालों तक उपयोग में ला सकते हैं।




प्रश्न 15. हमें ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की आवश्यकता क्यों है?


उत्तर हमारे प्रमुख संसाधन सीमित मात्रा में उपलब्ध है, बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए संसाधनों की मांग कई गुना तीव्रता से बढ़ रही है, इसलिए हमे भावी पीढ़ों के लिए संसाधनों को संरक्षित करने के लिए ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों को आवश्यकता है।



         लघु उत्तरीय प्रश्न 4 अंक


प्रश्न 1. अक्षय संसाधनों तथा क्षयशील संसाधनों में विभेद कीजिए। उत्तर अक्षय तथा क्षयशील संसाधन के निम्नलिखित अन्तर हैं




अक्षय संसाधन

क्षयशील संसाधन

ये स्वतः ही एक निश्चित समय में  स्वयं को पुनः निर्मित कर लेते हैं।

ये एक बार उपयोग में आने के बाद पुनः नवीनीकृत नहीं किए जा सकते हैं।


ये पुनः नव्यकरणीय और पुनः भरणीय संसाधन है

ये पुनः नव्यकरणीय और पुनः मरणीय संसाधन नहीं हैं।

इनको संरक्षण की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि यह स्वतः ही पुनः निर्मित हो जाते हैं। उदाहरण सूर्य का

प्रकाश, जल, आदि।


भविष्य में उपयोग करने के लिए इनके संरक्षण के लिए विभिन्न कदम उठाने की आवश्यकता होती है। उदाहरण लोहा, कोयला आदि

ये असीमित मात्रा में उपलब्ध है।

ये सीमित मात्रा में उपलब्ध है।




प्रश्न 2. पदार्थों का पुनः उपयोग, पुनः चक्रण से बेहतर है। इस कथन का औचित्य सिद्ध कीजिए।


उत्तर पुन: उपयोग तीन R पद्धति में से सबसे बेहतर है, जो पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है, क्योंकि


(i) पदार्थों के पुनः उपयोग में ऊर्जा की खपत नहीं होती है। 


(ii) ये पर्यावरण प्रदूषण को कम करता है।


(iii) वस्तुओं का बार-बार प्रयोग करना उसे अधिक उपयोगी बनाता उनकी गुणवत्ता के सुधार को प्रेरित करता है।




प्रश्न 3. निम्नलिखित से सम्बन्धित ऐसे पाँच कार्य लिखिए, जो आपने किए हैं 


(i) अपने प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण।


(ii) अपने प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव को और बढ़ाया है। 


उत्तर (i) अपने प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण


हमने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित कार्य किए हैं 


(a) पर्यावरण को सुरक्षित करने के लिए, कूड़ा-करकट एक सुनिश्चित स्थान पर एकत्रित किया है।


(b) जल संरक्षण के लिए, जल के अनावश्यक उपयोग को रोका है;


जैसे-अपने दैनिक कार्य के पश्चात् जल की टोंटी को बंद करना तथा एकत्रित जल को पौधों में डालना।


(c) विद्युत को बचाने के लिए आवश्यकता न होने पर आस-पास के स्थानों के पंखे, बल्ब, स्विच को बंद करना।


(d) पेट्रोलियम एवं कोयला संसाधन को संरक्षित करने के लिए, पैदल चलना अथवा साइकिल एवं सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करना।


 (e) सर्दियों में अतिरिक्त स्वेटर पहनना, जिससे हीटर या सिगड़ी का प्रयोग न करना पड़े।


(ii) अपने प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव को और बढ़ाया है



प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव को निम्न कार्य से बढ़ाया है 


 (a) लिफ्ट का प्रयोग किया, जिससे विद्युत की अधिक खपत हुई है। 


(b) अधिकतर कार्यों के लिए आधुनिक मशीनों का उपयोग किया, जिससे कोयला एवं पेट्रोलियम संसाधन पर दबाव बढ़ा है। 


(c) प्लास्टिक की थैली के उपयोग से पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है,जिसका हम अपनी जीवन शैली में उपयोग करते हैं। 


(d) कागज, काँच, धातु की वस्तुओं को फेंक देना, जबकि इनको सुनिश्चित से पुनः चक्रण के बाद पुनः उपयोग में लाया जा सकता है।


(e) कम उपयोग में आने वाली लकड़ी को फेंक देना, जोकि ईंधन के रूप में प्रयोग में लाई जा सकती है।



प्रश्न 4. वनों के संरक्षण में सहायक चार दावेदारों के नाम बताइए।


उत्तर वन संरक्षण से सम्बन्धित दावेदार


(i) स्थानीय लोग वन के अन्दर एवं इसके निकट रहने वाले लोग अपने जीवनयापन की अनेक आवश्यकताओं के लिए वन उपज पर निर्भर रहते हैं। वे ईंधन, लकड़ी, खाद्य पदार्थ एवं मवेशियों के लिए चारा भी वन से प्राप्त करते हैं।


(ii) वन विभाग सरकार या वन विभाग स्वामित्व है। वे वनों से प्राप्त संसाधनों का नियन्त्रण एवं वन्य जीवों का संरक्षण करते हैं। 


(iii) उद्योग उद्योगपतियों का वन सम्पदाओं में मुख्य रूप से स्वार्थ निहित होता है। वे अपने उद्योगों या कारखानों के लिए वनों को केवल कच्चे माल (प्राय: लकड़ी) का स्रोत ही समझते हैं। उदाहरण टिंबर उद्योग, कागज निर्माण उद्योग, लाख उद्योग और खेल उपकरण निर्माण उद्योग।


(iv) प्रकृति तथा वन्यजीवों के समर्थक इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकृति प्रेमी एवं पर्यावरणविदों के समूह आते हैं, जो पर्यावरण सन्तुलन में वनों एवं वन्यजीवों के योगदान को समझते हैं तथा उनके संरक्षण में अपना योगदान देते हैं। इस प्रकार के संरक्षण प्रयासों में वन्यजीवों, जैसे-बाघ, शेर, गेंडा, हाथी, हिरण, आदि के सरंक्षण को प्राथमिकता दी गई है। 


कुछ स्थानीय निवासी परम्परानुसार वनों के संरक्षण का प्रयास करते रहते हैं।


प्रश्न 5. 'संपोषित विकास' की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।


उत्तर विकास की इस प्रक्रिया में रतन्त्र तथा उसकी उत्पादकताओं को बिना कोई हानि पहुँचाए प्राकृतिक संसाधना का विवेकपूर्ण उपयोग करना सम्मिलित है। वह विकास जो सामयिक या वर्तमान मानव पीढ़ी की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करता है तथा भावी पीढ़ियों को आवश्यकताओं के लिए संसाधनों को संचित रखता है, संपोषित विकास कहलाता है।


प्रश्न 6. इस अध्याय में हमने देखा कि जब हम वन एवं वन्य जन्तुओं की बात करते हैं, तो चार मुख्य दावेदार सामने आते हैं। इनमें से किसे उत्पाद प्रबन्धन हेतु निर्णय लेने के अधिकार दिए जा सकते हैं? आप ऐसा क्यों सोचते हैं?



उत्तर वन एवं वन्य जन्तुओं के लिए मुख्य दावेदार वहाँ के स्थानीय निवासी उद्योगपति, वन्य जीवन एवं प्रकृति प्रेमी तथा राजकीय संस्था है। राजकीय संस्था को वन उत्पाद प्रबन्धन हेतु निर्णय लेने के अधिकार दिए जा सकते हैं, क्योंकि राजकीय संस्था के द्वारा निष्पक्ष रूप से वहाँ के मूल निवासियों को रोजगार: जैसे—पानी का छिड़काव, वनों की सफाई, आदि एवं कुछ उत्पादों जैसे-ईंधन हेतु लकड़ी लेने की अनुमति दी जा सकती है।




प्रश्न 7. जल संभर प्रबन्धन द्वारा सही प्रबन्धन के चार लाभों की सूची बनाइए।


उत्तर 


(i) जल संभर प्रबन्धन में मिट्टी एवं जल संरक्षण पर जोर दिया गया है, जिससे जैव-भार उत्पादन में वृद्धि हो सके।


(ii) इसका मुख्य उद्देश्य भूमि एवं जल के प्राथमिक स्रोतों का विकास करना है। 


(iii) द्वितीयक संसाधन पादपों एवं जन्तुओं का इस तरह से उत्पादन करना है, कि इससे पारिस्थितिक असन्तुलन उत्पन्न न हो।


(iv) जल संभर प्रबन्धन, जल संभर समुदाय का उत्पादन एवं आय बढ़ाता है और सूखे एवं बाढ़ को भी कम करता है।




प्रश्न 8. संसाधनों के दोहन के लिए कम अवधि के उद्देश्य की परियोजना के क्या लाभ हो सकते हैं? यह लाभ लम्बी अवधि को ध्यान में रखकर बनाई गई, परियोजना के लाभ से किस प्रकार भिन्न हैं?


उत्तर कम अवधि के उद्देश्य की परियोजना से कम खर्च, कम समय व कम प्रयास से अधिक प्रत्यक्ष लाभ दिखाई देंगे। इनमें से एक गंगा सफाई योजना है। इसके अंतर्गत जब गंगा की सफाई कराई गई, तो उसमें कोलीफॉर्म पाया गया, जो जीवाणु का एक वर्ग है। यह जीवाणु मनुष्य की आँत में पाया जाता है, जो जल में उपस्थित रहता है। अतः यह जल के द्वारा मनुष्य की आंत में जाता है एवं जल-जनित रोग उत्पन्न करता है। अतः इस तरह की परियोजना से इस जीवाणु को नष्ट करके मनुष्य को रोगमुक्त किया गया। 



कम उद्देश्य वाली परियोजना के लाभ लम्बी अवधि की परियोजना से निम्न प्रकार से भिन्न हैं




कम अवधि उददेश्य वाली परियोजना

लम्बी अवधि वाली परियोजना

कम अवधि उद्देश्य वाली परियोजना के लिए बजट व व्यय कम होता है।

लम्बी अवधि वाली परियोजना के लिए व्यय तथा बजट ज्यादा होता है।

कम अवधि उद्देश्य वाली परियोजना को हम शीघ्रता से या कम समय में पूरा कर सकते हैं

इस तरह की परियोजना में एक, दो या अधिक वर्ष लग सकते हैं

इस तरह की परियोजना से दीर्घकालीन लाभ नहीं हो सकते

इस तरह की परियोजना से दीर्घकालीन लाभ होते हैं।




प्रश्न 9. वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को नियन्त्रित करने के कुछ उपायों को सुझाइए।



उत्तर वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को नियन्त्रित करने के लिए निम्न उपाए किए जा सकते हैं


(i) पेट्रोलियम पदार्थों का उपयोग कम करना चाहिए। व्यक्तिगत परिवहन साधनों की अपेक्षा सार्वजनिक परिव साधनों का उपयोग करके पेट्रोल खपत कम की जा सकती हैं।


(ii) डीजल तथा पेट्रोल के स्थान पर CNG का उपयोग करें।


(iii) थर्मल पावर स्टेशन व उद्योगों से निकले प्रदूषित धुएँ को वायुमण्डल में छोड़ने से पहले धुएँ में से हानिकारक गैसों एवं कणों को दूर करना चाहिए।


 (iv) अधिक से अधिक पेड़ लगाने चाहिए।


 (v) ठोस अपशिष्टों को जलाने की जगह लैण्डफिल में दबा होना चाहिए।


प्रश्न 10. अकेले व्यक्ति के रूप में आप विभिन्न प्राकृतिक उत्पादों की खपत कम करने के लिए क्या कर सकते हैं?


अथवा


 इस अध्याय में उठाई गई समस्याओं के आधार पर आप अपनी जीवन-शैली में क्या परिवर्तन लाना चाहेंगे, जिससे हमारे संसाधनों के संपोषण को प्रोत्साहन मिल सके?



 उत्तर हमारे संसाधनों के संपोषण को प्रोत्साहन मिल सके, इसलिए हम अपनी जीवन-शैली में निम्नलिखित परिवर्तन लाना चाहेगे


(i) हम विद्युत संसाधन को बचाने के लिए अपने आस-पास की वस्तुओं को अनावश्यक उपयोग में नहीं लाएँगे; जैसे- आवश्यकता न होने पर कमरे में पंखे या बल्ब को बंद कर देना चाहिए। 


(ii) हमें जल संसाधन के संरक्षण द्वारा यह सुनिश्चित करना चाहिए, कि यह आने वाली पीढ़ियों के लिए पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो, जैसे अनावश्यक जल प्रवाह को रोकना, वर्षा जल को एक स्थान पर एकत्रित

करना, आदि।


(iii) हम पर्यावरण को स्वच्छ रखेंगे। उदाहरण कूड़ा-करकट को एक सुनिश्चित स्थान पर फेकेंगे और स्वच्छ वायु के लिए अपने आस-पास के स्थानों पर पादप लगाएँगे।


 (iv) हम स्वयं जनता को वृक्षारोपण के लिए जागरुक करेंगे एवं स्वयं भी वृक्ष लगाएँगे तथा उनका संरक्षण करेंगे।


(v) हम परम्परागत ऊर्जा संसाधनों (जैसे- कोयला, पेट्रोल, प्राकृतिक गैस) के स्थान पर अपरम्परागत संसाधनों (जैसे-सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा) का प्रयोग करेंगे।


प्रश्न 11. अकेले व्यक्ति के रूप में आप निम्न के प्रबन्धन में क्या योगदान दें सकते हैं? 


(i) वन एवं वन्य जन्तु


 (ii) जल संसाधन


 (iii) कोयला एवं पेट्रोलियम



उत्तर (i) अकेले व्यक्ति के रूप में हम वन एवं वन्य जंतु के प्रबंधन में योगदान निम्न प्रकार से दे सकते हैं 



(a) वनों की सफाई करके एवं कटाई को रोककर ।


(b) वन्य जंतुओं के खाने-पीने की व्यवस्था एवं सुरक्षा में योगदान दे कर


(ii) जल संसाधन के लिए हम अकेले निम्न प्रयास कर सकते हैं।


 (a) जल का अनुचित प्रयोग रोकना।


(b) वर्षा जल संग्रहण।


(c) अवशिष्टों को साफ जल में डालने से रोककर ।


 (iii) कोयला एवं पेट्रोलियम के संरक्षण के लिए हम अकेले निम्न उपाय कर सकते हैं


(a) कोयला एवं पेट्रोलियम चलित वाहनों की जगह साइकिल का उपयोग करके। 


(b) ऊर्जा के लिए कोयला एवं पेट्रोलियम की जगह अवशिष्ट कार्बनिक पदार्थों का उपयोग करके। 


प्रश्न 12. अपशिष्ट जल का उपयोग करने की कुछ लाभकारी विधियों का सुझाव दीजिए। 


उत्तर (i) भौम जलस्तर को बढ़ाया जा सकता है क्योंकि मृदा से जल छनकर गहराई में जाता है, जिससे प्राकृतिक रूप से अपशिष्ट जल का उपचार

हो जाता है।


(ii) फसल की सिंचाई में उपयोग हो सकता है।


(iii) उद्यानों, पौधों व वनों की जल आपूर्ति में प्रयोग हो सकता है।


 (iv) वाहनों की धुलाई में उपयोग हो सकता है।


(v) यह अपशिष्ट जल फसलों में कई आवश्यक तत्वों की आपूर्ति कर देता है।


           विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 7 अंक


प्रश्न 1. संसाधनों के प्रबन्धन से आप क्या समझते हैं? इनके द्वारा आप अपने समाज को कैसे लाभान्वित करेंगे? एक संक्षिप्त लेख द्वारा समझाइए।


उत्तर प्राकृतिक संसाधनों का प्रबन्धन पृथ्वी की संपदाएँ या संसाधन सीमित मात्रा मे उपलब्ध हैं। मानव जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण, संपदाओं या संसाधनों के लिए माँग दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। अतः इनका उचित प्रबन्धन सुनिश्चित करता है, कि प्राकृतिक संपदाओं का विवेकपूर्वक उपयोग किया जाए, ताकि वे वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करें और आने वाली पीढ़ियों के लिए भी बनी रहे। यह प्राकृतिक संपदाओं का उचित वितरण सुनिश्चित करता है, कि इन संपदाओं के वितरण से सभी लोगों को लाभ हो। वर्तमान में प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग एवं उनके द्वारा उत्पन्न अपशिष्ट के उत्पादन को कम करने हेतु 3R पद्धति, का उपयोग किया जाता है। तीन R अर्थात् Reduce (कम उपयोग करना ), Recycle (पुन: चक्रण) तथा Reuse (पुन: उपयोग करना) । 


संसाधनों का प्रबन्धन कर हम समाज को कई आयामों में लाभान्वित करेगे



(i) समाज को स्वच्छ वातावरण उपलब्ध होगा। स्वच्छ वातावरण में श्वास लेने पर श्वास सम्बन्धी रोगों की रोकथाम होगी। 


(ii) वनों के संरक्षण से मनुष्यों व जीवों को वन सम्पदा का लाभ निरन्तर मिलता रहेगा।


(iii) वन पारितन्त्र संरक्षित होगा, जिससे वातावरण भी सन्तुलित रहेगा।



(iv) ऊर्जा की खपत कम होगी, जो हमारी भावी पीढ़ियों को उपलब्ध होगी। 


(v) जल आपूर्ति सुनिश्चित होगी।


(vi) रोगों के फैलने की सम्भावना बहुत कम हो जाएगी। 


(vii) मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति पूर्ण रूप से हो पाएगी।


(vii) वन्य जीव संरक्षण खाद्य-श्रृंखला में सन्तुलन बना रहेगा।


अतः इस प्रकार प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन से समाज लाभान्वित होगा। 


प्रश्न 2. मानव के लिए वनों का प्रत्यक्ष मूल्य क्या है?


अथना एक संसाधन के रूप में वन का क्या महत्व है? 


उत्तर वन, लोगों और उद्योगों को कच्चा माल एवं पारिस्थितिकी सेवाएँ उपलब्ध कराकर देश के आर्थिक विकास में योगदान देते हैं। ये हमारी संस्कृति और सभ्यता के साथ भी अच्छी तरह से जुड़े हुए है।


वन निम्नलिखित कारणों से मानव के लिए उपयोगी हैं


(i) वनों से ऑक्सीजन की आपूर्ति होती है, जोकि समस्त जीवधारियों के प्राण वायु है।



(ii) वनों से घरेलू उपयोग के लिए वस्तुएँ: जैसे-पशुओं के लिए चारा, ईंधन हेतु लकड़ी, फल व औषधियाँ प्राप्त होती है। 


(iii) वन पेपर उद्योग, प्लाईवुड उद्योग, आदि के लिए कच्चा माल उपलब्ध करते है


(iv) वनों में बाँस का उत्पादन होता है, जिसे गरीब व्यक्ति की लकड़ी कहा जाता है। औद्योगिक रूप से बॉस को कागज और रेयॉन उद्योग में करचें माल के रूप में उपयोग किया जाता है।


(v) ये विभिन्न पशु उत्पाद, जैसे- कस्तूरी, शहद, मोम, मूंगा व रेशम, आदि भी प्रदान करते हैं।


(vi) वनों से कागज, रबर, कत्था, माचिस, फर्नीचर, खेल उपकरण, तारपीन का तेल, आदि उद्योगों हेतु कच्चा माल उपलब्ध होता है।


(vii) वन पर्यावरणीय संतुलन को स्थापित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये पर्यावरण प्रदूषण को कम करते हैं तथा जैव-विविधता बनाए रखते हैं।


 (viii) वन बाढ़ नियन्त्रण में भी सहायक होते हैं। ये बाढ़ के जल की तीव्रता को

कम कर देते हैं। 


(ix) वृक्षों की जड़े मिट्टी के कणों को बाँधे रखती है, जिससे वर्षा के दौरान भू-क्षरण या मृदा अपरदन नहीं होता है। 


(x) वन वर्षा को आकर्षित करते हैं, जिससे पारितन्त्र में जल चक्र के द्वारा जल की पर्याप्तता सुनिश्चित होती है।


(xi) वनों के निकट की भूमि उपजाऊ होती है। इसका कारण पादपों की पत्तियाँ व घास-फूस का सड़-गलकर प्राकृतिक खाद (धूमस) का निर्माण करना है। मिट्टी में जीवाश्म मिलने से उसकी उर्वरता शक्ति बढ़ जाती है। 


प्रश्न 3. वन सम्पदा हमारे लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसका संरक्षण कैसे किया जा सकता है? एक लेख लिखिए।



उत्तर 



वन सम्पदा का संरक्षण



(i) वृक्षारोपण करना चाहिए।


 (ii) वन्य जीवों के शिकार पर पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध लगना चाहिए।


(iii) वन सम्पदा के अनियमित दोहन पर रोक लगनी चाहिए।


 (iv) वन्य जीवों के अंगों को तस्करी व व्यापार पर पूर्ण लगाकर सम्पदा को संरक्षित किया जा सकता है।


(v) वनों पर ईंधन के लिए लकड़ी की मांग के दबाव को कम करने के लिए। बायोगैस के प्रयोग को प्रोत्साहन देना चाहिए।


(vi) एक स्थान से जितने वृक्ष काटे जाते हैं, उसी स्थान पर उससे अधिक या कम से कम उतने ही पादप लगा दिए जाने चाहिए।


(vii) वृक्षों के लिए पर्याप्त मात्रा में खाद, उर्वरकों, सिंचाई प्रबन्ध व अच्छी किस्म के वृक्षों के लिए ऊतक संवर्धन तकनीक का प्रयोग करना चाहिए।


 (viii) नगरों में सड़कों के किनारे पर, सार्वजनिक पार्क व घरों में सजावटी व फल वाले वृक्ष लगाने चाहिए। 


(ix) विनाशकारी प्रभाव डालने वाले पर्यावरणीय कारकों का निवारण करना चाहिए; जैसे-तूफान, बाढ़, आदि।


प्रश्न 4. प्रदूषण क्या है? गंगा का प्रदूषण आज भी भीषण समस्या है। इसको रोकने के लिए क्या-क्या विधियाँ अपनाई जानी चाहिए? एक लेख लिखिए। 




उत्तर वायु, जल तथा भूमि में अवांछित अत्यधिक पदार्थों का एकत्रित हो जाना अथवा पदार्थों की मात्रा में अवांछनीय परिवर्तन होना, जिससे प्राकृतिक पर्यावरण प्रभावित होता है, प्रदूषण कहलाता है। प्रदूषण के कारण कई जल स्रोत पूर्ण रूप से प्रदूषित हो चुके हैं, जिसका प्रमुख उदाहरण गंगा प्रदूषण है।



गंगा को प्रदूषित होने से रोकने के लिए निम्न विधियाँ अपनाई जानी चाहिए


(i) वाहितमल उपचार संयंत्र गंगा में लगाने चाहिए। 


(ii) फैक्ट्रियों से होने वाले प्रदूषित जल को गंगा में प्रवाहित करने से पहले उसका उपचार किया जाना चाहिए, ताकि प्रदूषण कम-से-कम मात्रा में हो।


(iii) ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए क्योंकि गंगा किनारे खेतों में कीटनाशकों का प्रयोग अत्यधिक होता है, जो बहकर सीधे गंगा में जाता है।


(iv) गंगा को निर्मल रखने के लिए देश की कृषि, उद्योग, शहरी विकास तथा पर्यावरण सम्बन्धी नीतियों में मूलभूत परिवर्तन किए जाने चाहिए। 


(v) नदियों को प्रदूषणमुक्त रखने के लिए इन रासायनिक खादो तथा कीटनाशकों पर दी जाने वाली भारी सब्सिडी को बन्द करके पूरी राशि जैविक खाद तथा कीटनाशकों का प्रयोग करने वाले किसानों को ही जानी चाहिए और रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों पर पूर्ण रोक लगानी चाहिए।


(vi) तटों के किनारे औद्योगिकरण कम हो। उद्योग सम्बन्धित क्षेत्र की जल सप्लाई व्यवस्था से ही पानी लें। खुद का वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट होना चाहिए। 


(vi) नदियों पर बड़े बाँधों की बजाय छोटे-छोटे बाँध बनाए जाएँ। इनकी अधिकतम ऊँचाई 5 मीटर होनी चाहिए। इससे नदी का प्रवाह लगातार बना रहेगा और पानी एक ही जगह इकट्ठा नहीं होगा। भूस्खलन का खतरा भी इससे कम होगा। 


(viii) बैराजों में 30 फीसदी से अधिक पानी नहीं होना चाहिए। यदि बैराज में अधिक पानी हुआ तो नदी में पानी प्रवाह घटेगा और प्रदूषण बढ़ेगा। 


(ix) शवों को रोकने के लिए नमामि गंगे कार्यक्रम में गंगा तट के नगरों में 100% विद्युत शवदाह गृह बनाने की योजना है, उसका क्रियान्वयन शीघ्र होना चाहिए।




प्रश्न 5. जल संग्रहण क्या है? इसको किस प्रकार से उपयोग में लाकर मनुष्य को, जन्तुओं को तथा वनस्पतियों को लाभ पहुँचा सकते हैं? 


उत्तर जल संग्रहण इसका अर्थ है, स्थानीय क्षेत्र जहाँ वर्षा जल भूमि पर गिरता है या प्रवाहित होता है, में जल का संग्रहण करना। भारत में, अधिकाधिक वर्षा जल जो भूमि पर गिरता है, को रोकने के लिए स्थानीय लोगों द्वारा अनेक जल एकत्रिकरण विधियों का उपयोग किया जाता है।


ये विधियाँ निम्न प्रकार हैं


(i) छोटे गड्ढों तथा झीलों या तालाबों की खुदाई।


 (ii) छोटे मृद-बाँधो का निर्माण या तटबंधन करना।


(iii) बाँधों या नहरों का जल रोकने के लिए मिट्टी की लम्बी दीवारों का निर्माण करना।


(iv) बालू तथा चूना पत्थर द्वारा जलाशयों का निर्माण करना। 


(v) घरों की छतों के ऊपर जल संचयन इकाइयों की स्थापना करना।


इस प्रकार जल संग्रहण से भौम-जल स्तर बढ़ता है।



#. यह भूमि में संग्रहित जल, कुओं को भरने के लिए फैल जाता है और विशाल क्षेत्र में फसलों के लिए नमी उपलब्ध कराता है। भूमि में संग्रहित जल, मच्छरों के प्रजनन को नहीं बढ़ाता है।


#.भूमि में संग्रहित जल मानव तथा जन्तु अपशिष्टों द्वारा प्रदूषित होने से सुरक्षित रहता है।


#.जल-संग्रहण के उपायों से पेयजल आपूर्ति सुनिश्चित की जा सकती है। भौम-जल स्तर में बढ़ोत्तरी होने पर कृषि उत्पादन में वृद्धि होती है। अतः जल संग्रहण कर कृषि उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।


#.सिंचाई में बिजली व जल दोनों की खपत होती है। जल संग्रहण कर भौम-जल स्तर को बढ़ाने से सिंचाई की आवश्यकता कम होगी साथ ही भविष्य में उपयोग के लिए ऊर्जा की खपत भी कम होगी।


#.कृषि उत्पादन से भोजन की आपूर्ति भी मनुष्यों व जन्तुओं के लिए पर्याप्त मात्रा में की जा सकेंगी। अतः इस प्रकार जल संग्रहण से मनुष्यों, जन्तुओं व वनस्पतियों को लाभ पहुँचाया जा सकता है।



प्रश्न 6. प्राकृतिक संसाधन से आप क्या समझते हैं? मानव समाज को होने वाले इसके लाभ का संक्षिप्त उदाहरण सहित वर्णन कीजिए। 


उत्तर वे पदार्थ, जो मानव के लिए उपयोगी हों अथवा जिनहें उपयोगी उत्पाद में रूपान्तरित किया जा सके या जिनका उपयोग किसी उपयोगी वस्तु के निर्माण में किया जा सके, संसाधन कहलाते हैं। वे संसाधन जिन्हें प्रकृति से प्राप्त किया जाता है, प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं। प्राकृतिक संसाधन प्रकृति में वायु, जल, मृदा, खनिज, कोयला, पेट्रोलियम, वन्य प्राणी तथा पादपों (वनों) के रूप में संग्रहित होते हैं। 


मानव समाज को प्राकृतिक संसाधनों द्वारा निम्न लाभ होते हैं 



वन्य जीव एवं इनका संरक्षण वन, वन्य जीवों को आश्रय प्रदान करते हैं जिनका व्यापारिक लाभ के लिए अवैध शिकार किया जाता है। वन्य जीवों को उनकी त्वचा (चमड़े), दाँत, फर, पंख, शल्क आदि के लिए मारा जा रहा है। इनका उपयोग अनेक उत्पादों के व्यापारिक उत्पादन में किया जाता है। इस कारण खाद्य शृंखलाएँ प्रभावित होती हैं तथा पारितन्त्र का पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ जाता है।


जल एवं इसका संरक्षण जल, स्थलीय एवं जलीय जीवों की मूल आवश्यकता है, जो कई प्रकार के जल स्त्रोतों; जैसे-समुद्र, नदियों, झीलों, तालाबों, आदि में पाया जाता है। वर्षा, जल का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत है। समुद्र, पृथ्वी पर सबसे बड़े जल स्रोत हैं, लेकिन इनका जल उपयोगी होता है, क्योंकि इसक जल लवणीय होता है। तथा इसको बिना शुद्धिकरण किए प्रयोग नहीं कर सकते हैं। 


हम जल स्रोतों का प्रबन्धन निम्न विधियों द्वारा करते हैं


#.खेती तथा दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बाँध, कुण्ड तथा नहरों का उपयोग करके।


#.बाँधों में संग्रहित जल का नियन्त्रित उपयोग करके।


कोयला और पेट्रोलियम कोयला एवं पेट्रोलियम जीवाश्मीय ईधन है, जो कार्बन के अतिरिक्त हाइड्रोजन, नाइट्रोजन व सल्फर के बने होते हैं। ये ऊर्जा के प्रमुख स्रोत हैं।


कोयला एक ठोस कार्बनिक ईधन है, जो पृथ्वी के भूगर्भ में पाया जाता है। पेट्रोलियम (पेट्रो = चट्टानें तथा ओलियम = तेल) प्रकृति में तरल कार्बनिक रसायनों के रूप में पाया जाता है। यह अधिक मात्रा में पृथ्वी की सतहों के नीचे भूगर्भ में पाया जाता है।


कोयले का उपयोग ताप वैद्युत संयन्त्रों में बिजली उत्पन्न करने के लिए किया जाता है, जबकि पेट्रोलियम उत्पादों; जैसे-पेट्रोल और डीजल का उपयोग स्कूटरों, मोटर-साइकिलों, कारों, बसों, ट्रकों, रेलगाड़ियों, जहाजों और वायुयानों को चलाने के लिए ईधन के रूप में प्रयोग किया जाता है।








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