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सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय// Sumitra Nandan pant ji ka jivan Parichay

 सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय// Sumitra Nandan pant ji ka jivan Parichay




सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय - साहित्यिक परिचय, रचनाएं एवं भाषा शैली।

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नमस्कार दोस्तों हम आपको अपनी इस पोस्ट में लेखक सुमित्रानंदन पंत जी के जीवन परिचय के बारे में जानकारी दी जायेगी तो पोस्ट को पूरा जरूर पढ़ें यह पोस्ट आपके लिए बहुत उपयोगी साबित होगी।





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सुमित्रानंदन पंत


   जीवन परिचय


जीवन परिचय : एक दृष्टि में



नाम

सुमित्रानंदन पंत (मूल नाम गुसाईं दत्त)

जन्म

20 मई, 1900 ईस्वी में।

जन्म स्थान

कौसानी ग्राम

मृत्यु

28 दिसंबर ,1977 ईस्वी में।

पिताजी का नाम

पंडित गंगादत्त

माता जी का नाम

सरस्वती देवी

आरंभिक शिक्षा

कौसानी गांव

उच्च शिक्षा

बनारस और इलाहाबाद (अब प्रयागराज)

भाषा

संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला तथा हिंदी

उपलब्धियां

सन 1950 ईस्वी में ऑल इंडिया रेडियो के परामर्शदाता, साहित्य अकादमी पुरस्कार, सेवियत भूमि पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार पद्मभूषण उपाधि।

काव्य धारा

छायावादी

शैली

गीतात्मक

साहित्य में योगदान

काव्य में प्राकृतिक के कोमल भाव तथा मानवीय भागों का अत्यंत सूक्ष्म में वर्णन करने में यह अद्वितीय हैं।

पुरस्कार

पद्म विभूषण (1961), ज्ञानपीठ (1968), साहित्य अकादमी

रचनाएं

पल्लव, पीतांबरा एवं सत्यकाम



जीवन परिचय- कविवर सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई, 1900 को अल्मोड़ा के निकट कौसानी ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित गंगा दत्त था। जन्म के 6 घंटे पश्चात ही इनकी माता स्वर्ग सिधार गई। अतः इनका लालन-पालन पिता तथा दादी ने किया।


इनकी प्रारंभिक शिक्षा कौसानी गांव में तथा उच्च शिक्षा का पहला चरण अल्मोड़ा में और बाद में बनारस के 'क्वींस' कॉलेज से हुआ। इनका काव्यगत सृजन यहीं से प्रारंभ हुआ। इन्होंने स्वयं ही अपना नाम 'गुसाईं दत्त' से बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। काशी में पंत जी का परिचय सरोजिनी नायडू तथा रविंद्र नाथ टैगोर के काव्य के साथ-साथ अंग्रेजी की रोमांटिक कविता से हुआ और यहीं पर इन्होंने कविता प्रतियोगिता में भाग लेकर प्रशंसा प्राप्त की। 'सरस्वती पत्रिका' में प्रकाशित होने पर इनकी रचनाओं ने काव्य-मर्मज्ञों के हृदय में अपनी धाक जमा ली। वर्ष 1950 में ये 'ऑल इंडिया रेडियो' के परामर्शदाता पद पर नियुक्त हुए और वर्ष 1957 तक ये प्रत्यक्ष रुप से रेडियो से संबद्ध रहे। ये छायावाद के प्रमुख स्तंभों में से एक थे। इन्होंने वर्ष 1916-1977 तक साहित्य सेवा की। 28 दिसंबर, 1977 को प्रकृति का यह सुकुमार कवि पंचतत्व में विलीन हो गया।



सुमित्रानंदन पंत का वास्तविक नाम गुसाई दत्त रखा गया था। लेकिन इनको अपना नाम पसंद नहीं था इसलिए इन्होंने बाद में अपना नाम बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया।



साहित्यिक परिचय- सुमित्रानंदन पंत छायावादी युग के महान कवियों में से एक माने जाते हैं। 7 वर्ष की अल्पायु से ही इन्होंने कविताएं लिखना प्रारंभ कर दिया था।


वर्ष 1916 में इन्होंने 'गिरजे का घंटा' नामक सर्वप्रथम रचना लिखी। इलाहाबाद के 'म्योर कॉलेज' में प्रवेश लेने के उपरांत इनकी साहित्यिक रुचि और भी अधिक विकसित हो गई। वर्ष 1920 में इनकी रचनाएं 'उच्छवास' और 'ग्रंथि' में प्रकाशित हुई। इनके उपरांत वर्ष 1927 में इनके 'वीणा' और 'पल्लव' नामक दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। इन्होंने 'रूपाभ' नामक एक प्रगतिशील विचारों वाले पत्र का संपादन भी किया। वर्ष 1942 में इनका संपर्क महर्षि अरविंद घोष से हुआ।


इन्हें 'कला और बूढ़ा चांद' पर 'साहित्य अकादमी पुरस्कार', 'लोकायतन' पर 'सोवियत भूमि पुरस्कार' और 'चिदंबरा' पर भारतीय 'ज्ञानपीठ' पुरस्कार मिला। भारत सरकार ने पंत जी को 'पदम भूषण' की उपाधि से अलंकृत किया।



 रचनाएं- पंत जी की कृतियां निम्नलिखित हैं-



काव्य- वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, स्वर्ण किरण, युगांत, युगवाणी, लोकायतन, चिदंबरा।



नाटक- रजतरश्मि, शिल्पी, ज्योत्सना।



उपन्यास- हार



पंत जी की अन्य रचनाएं हैं- पल्लविनी, अतिमा, युगपथ, ऋता, स्वर्ण किरण, उत्तरा, कला और बूढ़ा चांद, शिल्पी, स्वर्णधूलि आदि।



भाषा शैली- पंत जी की शैली अत्यंत सरस एवं मधुर है। बांग्ला तथा अंग्रेजी भाषा से प्रभावित होने के कारण इन्होंने गीतात्मक शैली अपनाई। सरलता, मधुरता, चित्रात्मकता, कोमलता और संगीतात्मकता इनकी शैली की प्रमुख विशेषताएं हैं।



हिंदी साहित्य में स्थान - पंत जी सौंदर्य के उपासक थे। प्रकृति, नारी और कलात्मक सौंदर्य इनकी सौंदर्य अनुभूति के तीन मुख्य केंद्र रहे। इनके काव्य जीवन का आरंभ प्रकृति चित्रण से हुआ। इनके प्रकृति एवं मानवीय भावों के चित्र में कल्पना एवं भावों की सुकुमार कोमलता के दर्शन होते हैं।


इसी कारण इन्हें प्रकृति का सुकुमार एवं कोमल भावनाओं से युक्त कवि कहा जाता है। पंत जी का संपूर्ण काव्य साहित्य चेतना का प्रतीक है, जिसमें धर्म-दर्शन, नैतिकता ,सामाजिकता, भौतिकता आध्यात्मिकता सभी का समावेश है।



आरंभिक शिक्षा - इनकी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में हुई थी। 1918 में वे अपने भाई के साथ काशी आ गई और वहां क्वींस कॉलेज में पढ़ने लगी। मैट्रिक उत्तीर्ण करने के बाद यह इलाहाबाद आ गई। वहां वहां पर इन्होंने कक्षा बारहवीं ( इंटरमीडिएट) तक की पढ़ाई की। 1919 में महात्मा गांधी के सत्याग्रह से प्रभावित होकर अपनी शिक्षा अधूरी छोड़ दी और स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय हो गई। हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला का स्वाध्याय किया। इनका प्रकृति से असीम लगाव था। बचपन से ही सुंदर रचनाएं लिखा करती थी।



आर्थिक संकट और मार्क्सवाद से परिचय - 


कुछ वर्षों के बाद सुमित्रानंदन पंत को गौर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। कर्ज से जूते हुए पिताजी का निधन हो गया। कर्ज चुकाने के लिए जमीन और घर भी बेचना पड़ा। इन परिस्थितियों में वह मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए।



उत्तरोत्तर जीवन - सुमित्रानंदन पंत जी 1931 में कुंवर सुरेश सिंह के साथ कालाकांकर प्रतापगढ़ चले गए और अनेक वर्षों तक वही रहे। 1938 में इन्होंने प्रगतिशील मानसिक पत्रिका रूपाभ का संपादन किया। श्री अरविंद आश्रम की यात्रा से इनमें अध्यात्मिक चेतना का विकास हुआ और उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का निश्चय किया।



1950 से 1957 तक आकाशवाणी में परामर्शदाता रहे।


1958 में युगवाणी से वाणी काव्य संग्रह की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन चितांबरा प्रकाशित हुआ, जिस पर 1958 में उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।


1960 में कला और बूढ़ा चांद काव्य संग्रह के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ।


1961 में पद्मभूषण की उपाधि से विभूषित हुए।


1964 में विशाल महाकाव्य लोकायतन का प्रकाशन हुआ। कालांतर में इनके अनेक काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। यह जीवन पर्यंत रचनारत रहे।


अविवाहित पंत जी के अंतर स्थल में नारी और प्रकृति के प्रति आजीवन सौंदर्य परख भावना रही। इनकी मृत्यु 28 दिसंबर 1957 को हुई।



विचारधारा - उनका संपूर्ण साहित्य सत्यम शिवम सुंदरम के आदर्शों से प्रभावित होते हुए भी समय के साथ निरंतर बदलता रहा। जहां प्रारंभिक कविताओं में प्रकृति और सुंदर के रमणीय चित्र मिलते हैं वही दूसरे चरण की कविताओं में छायावाद की सोच में कल्पनाओं कोमल भावनाओं के और अंतिम चरण की कविताओं में प्रगतिवाद और विचारशील । उनकी सबसे बाद की कविताएं अरविंद दर्शन और मानव कल्याण की भावनाओं से प्रेरित है। पंत परंपरावादी आलोचकों और प्रगतिवादी तथा प्रयोगवादी आलोचकों के सामने कभी नहीं झुके। उन्होंने अपनी कविताओं में पूर्ण मान्यताओं को नकारा नहीं। उन्होंने अपने ऊपर लगने वाले आरोपों को नम्र अवज्ञा कविता के माध्यम से खारिज किया।



सुमित्रानंदन पंत की प्रमुख रचनाएं



कविता संग्रह / खंडकाव्य



1.उच्छवास


2.पल्लव


3.वीणा


4.ग्रंथि


5.गुंजन


6.ग्राम्या


7.युगांत


8.युगांतर


9.स्वर्णकिरण


10.स्वर्णधूलि


11.कला और बूढ़ा चांद


12.लोकायतन


13.सत्यकाम


14.मुक्ति यज्ञ


15.तारा पथ


16.मानसी


17.युगवाणी


18.उत्तरा


19.रजतशिखर


20.शिल्पी


21.सौंदण


22.अंतिमा


23.पतझड़


24.अवगुंठित


25.मेघनाथ वध


26.ज्योत्सना



चुनी गईं रचनाओं के संग्रह



1.युगपथ


2.चिदंबरा


3.पल्लविनी


4.स्वच्छंद



पुरस्कार और सम्मान :- 



चिदंबरा के लिए ज्ञानपीठ लोकायतन के लिए सेवियत नेहरू शांति पुरस्कार और हिंदी साहित्य की इस अनवरत सेवा के लिए उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया गया। सुमित्रानंदन पंत के नाम पर कौसानी में उनके पुराने घर को जिसमें वह बचपन में रहा करते थे सुमित्रानंदन पंत विधिका के नाम से एक संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। इसमें उनके व्यक्तिगत प्रयोग की वस्तुओं जैसे कपड़ों कविताओं की मूल पांडुलिपियों छायाचित्र और पुरस्कारों को प्रदर्शित किया गया है। इसमें एक पुस्तकालय भी है जिसमें उनकी व्यक्तिगत तथा उनसे संबंधित पुस्तकों का संग्रह है।



स्मृति विशेष - उत्तराखंड में कुमायूं की पहाड़ियों पर बने कौसानी गांव में जहां उनका बचपन बीता था वहां का उनका घर आज सुमित्रानंदन पंत साहित्यिक विधिका नामक संग्रहालय बन चुका है। इस संग्रहालय में उनके कपड़े चश्मा कलम आधी व्यक्तिगत वस्तुएं सुरक्षित रखी गई है जहां पर वही उनका प्रयोग करते थे। संग्रहालय में उनको मिले ज्ञानपीठ पुरस्कार का प्रशस्ति पत्र हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा मिला साहित्य वाचस्पति का प्रशस्ति पत्र भी मौजूद है। साथ ही उनकी रचनाएं लोकायतन आस्था आदि कविता संग्रह की पांडुलिपियों भी स्वच्छ रखी है। काला काम करके कुंवर सुरेश सिंह हरिवंश राय बच्चन से किए गए उनके पत्र व्यवहार की प्रतिलिपि भी यहां मौजूद हैं।




सुमित्रानंदन पंत के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न और उनके उत्तर



सुमित्रानंदन पंत का साहित्य में स्थान बताइए।


पंत जी सौंदर्य के उपासक थे। प्रकृति, नारी और कलात्मक सौंदर्य इनकी सौंदर्य अनुभूति के तीन मुख्य केंद्र रहे। इनके काव्य जीवन का आरंभ प्रकृति चित्रण से हुआ। इनके प्रकृति एवं मानवीय भावों के चित्र में कल्पना एवं भावों की सुकुमार कोमलता के दर्शन होते हैं।


इसी कारण इन्हें प्रकृति का सुकुमार एवं कोमल भावनाओं से युक्त कवि कहा जाता है। पंत जी का संपूर्ण काव्य साहित्य चेतना का प्रतीक है, जिसमें धर्म-दर्शन, नैतिकता ,सामाजिकता, भौतिकता आध्यात्मिकता सभी का समावेश है।



सुमित्रानंदन पंत की भाषा शैली का वर्णन कीजिए।


पंत जी की शैली अत्यंत सरस एवं मधुर है। बांग्ला तथा अंग्रेजी भाषा से प्रभावित होने के कारण इन्होंने गीतात्मक शैली अपनाई। सरलता, मधुरता, चित्रात्मकता, कोमलता और संगीतात्मकता इनकी शैली की प्रमुख विशेषताएं हैं।



सुमित्रानंदन पंत के माता-पिता का क्या नाम था?


सुमित्रानंदन पंत के पिता का नाम गंगादत्त पंत एवं माता का नाम सरस्वती देवी था।



सुमित्रानंदन पंत के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए।


इनका जन्म कौसानी बागेश्वर में हुआ था। झरना बर्फ पुष्प लता भ्रमण - गुंजन उषा किरण शीतल पवन तारों की चुनरीउड़े गगन से उतरती संध्या यह सब तो सहज रूप से कब का उपादान बने।निसर्ग के उपादानों का प्रतीक वबिम्ब के रूप प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का मुख्य बिंदु रहा या केंद्र बिंदु रहा।



 सुमित्रानंदन पंत की मृत्यु कब हुई ?


28 दिसंबर, 1977 को प्रकृति का यह सुकुमार कवि पंचतत्व में विलीन हो गया।



सुमित्रानंदन पंत का जन्म कब हुआ था?


कविवर सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई, 1900 को अल्मोड़ा के निकट कौसानी ग्राम में हुआ था।



सुमित्रानंदन पंत किस युग के कवि थे?


सुमित्रानंदन पंत छायावादी युग के कवि थे।



सुमित्रानंदन पंत का अंतिम काव्य क्या था?


पल्लव 1926, गुंजन 1932, युगांतर 1936 में प्रकाशित हुए। युगांतर के साथ ही पंत के काव्य विकास का एक कालखंड समाप्त हो जाता है। पर इस कालखंड में भी पल्लव के समापन के साथ एक परिवर्तन आता है। 



सुमित्रानंदन पंत को ज्ञानपीठ पुरस्कार कब मिला?


अन्य पुरस्कारों के अलावा सुमित्रानंदन पंत को ओपन भूषण 1961 और ज्ञानपीठ पुरस्कार 1968 से सम्मानित किया गया। अपनी रचना बूढ़ा चांद के लिए सुमित्रा नंदन को साहित्य अकादमी पुरस्कार, लोकायतन सेवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और चितांबरा पर इन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला।



वीणा किसकी रचना है?


वीणा सुमित्रानंदन पंत जी की रचना है।


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 सुमित्रानंदन पन्त की पधाश रचना , चींटी और चन्द्रलोक में प्रथम बार रचनाओं की संदर्भ प्रसंग व्याख्या

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              चींटी


चींटी को देखा ?

वह सरल, विरल, काली रेखा देखो ना, 

तम के तागे सी जो हिल-डुल,

चलती लघुपद पल-पल मिल-जुल



वह है पिपीलिका पाँति देखो ना किस भाँति 

काम करती वह सतत कन-कन कनके चुनती अविरत !





सन्दर्भ – प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रकृति के सुकुमार कवि 'सुमित्रानन्दन पन्त' द्वारा रचित 'युगवाणी' काव्य संग्रह में शामिल तथा हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में शामिल शीर्षक 'चींटी' से उद्धृत हैं।


प्रसंग – इन पंक्तियों में कवि ने चींटी जैसे तुच्छ प्राणी की निरन्तर गतिशीलता का निर्भय होकर विचरण करने, कभी हार न मानने जैसी प्रवृत्ति का वर्णन किया है।


व्याख्या – कवि कहता है कि क्या तुमने कभी चींटी को देखा है? वह अत्यन्त सरल और सीधी है। वह पतली और काली रेखा की भाँति, काले धागे की भाँति हिलती-डुलती हुई, अपने छोटे-छोटे पैरों से प्रत्येक क्षण चलती है। वे सब एक पंक्ति में आगे-पीछे अर्थात् मिलकर होती हुई चलती हैं तथा देखने में काले धागे की रेखा-सी दिखती हैं।


कवि चींटी की गतिशीलता और निरन्तर परिश्रम करते रहने की विशेषता का वर्णन करते हुए कहता है कि वह पंक्तिबद्ध होकर निरन्तर अपने मार्ग पर बढ़ती चली जाती है। देखो! वह किस प्रकार बिना रुके काम करती रहती है, एक-एक कण एकत्रित करती है और अपने घर तक ले जाती है अर्थात् वह कभी हार नहीं मानती तथा लगातार अपने श्रम से, अपने परिवार के लिए भोजन को एकत्र करने के काम में लगी रहती है। चींटी श्रम की साकार व सजीव मूर्ति है, यद्यपि वह अत्यन्त लघु प्राणी है।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने चींटी के माध्यम से निरन्तर गतिशील रहने की प्रेरणा दी है।


भाषा गुण             साहित्यिक खड़ी बोली 


शैली                    वर्णनात्मक


रस                      वीर


गुण         ओज




अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'हिल-डुल', 'पिपीलिका पाँति' और 'कन-कन कनके' में क्रमश: 'ल', 'प', 'क' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


उपमा अलंकार 'तम के तागे सी' और 'काली रेखा' यहाँ उपमेय में उपमान की समानता को व्यक्त किया गया है, इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।


पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'पल-पल' और 'कन-कन' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।




            चन्द्रलोक में प्रथम बार




 2.चन्द्रलोक में प्रथम बार, मानव ने किया पदार्पण,

छिन्न हुए लो, देश काल के,

दिग्-विजयी मनु-सुत,

निश्चय, यह महत् ऐतिहासिक क्षण,

भू-विरोध हो शांत। निकट आएँ सब देशों के जन। 



सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के 'काव्यखण्ड' से 'चन्द्रलोक में प्रथम बार' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित 'ऋता' काव्य संग्रह से ली गई है।


प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मानव के चन्द्रमा पर पहुँचने की ऐतिहासिक घटना के महत्त्व को व्यक्त किया है। यहाँ कवि ने उन सम्भावनाओं का वर्णन किया है, जो मानव के चन्द्रमा पर पैर रखने से साकार होती प्रतीत होती हैं।


व्याख्या – कवि कहता है कि जब चन्द्रमा पर प्रथम बार मानव ने अपने कदम रखे तो ऐसा करके उसने देश-काल के उन सारे बन्धनों, जिन पर विजय पाना कठिन माना जाता था, उन्हें छिन्न-भिन्न कर दिया। मनुष्य को यह विश्वास हो गया कि इस ब्रह्माण्ड में कोई भी देश और ग्रह-नक्षत्र अब दूर नहीं है। आज निश्चय ही मानव ने दिग्विजय प्राप्त कर ली है अर्थात् उसने समस्त दिशाओं को जीत लिया है। यह एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक क्षण है कि अब सभी देशों के निवासी मानवों को परस्पर विरोध समाप्त कर एक-दूसरे के निकट आना चाहिए और प्रेम से रहना चाहिए। सम्पूर्ण विश्व ही एक देश में परिवर्तित हो जाए तथा सभी देशों के मनुष्य एक-दूसरे के निकट आएँ, यही कवि की मंगलकामना है।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने स्पष्ट किया है कि आधुनिक व ज्ञानिक समय ने सम्पूर्ण विश्व को एकता के सूत्र में बाँध दिया है।


भाषा           साहित्यिक खड़ी-बोली


गुण              ओज


शैली             प्रतीकात्मक


छन्द          तुकान्त मुक्त 


रस             वीर



अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'बाधा बंधन' में 'ब' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।





(3) अणु-युग बने धरा जीवन हित 

स्वर्ग-सृजन का साधन,मानवता ही विश्व सत्य

भू-राष्ट्र करें आत्मार्पण।


धरा चन्द्र की प्रीति परस्पर जगत प्रसिद्ध, पुरातन, हृदय-सिन्धु में उठता स्वर्गिक ज्वार देख चन्द्रानन!


सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के 'काव्यखण्ड' से 'चन्द्रलोक में प्रथम बार' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित 'ऋता' काव्य संग्रह से ली गई है।



प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कविवर 'सुमित्रानन्दन पन्त' ने अणु-युग के प्रति लोककल्याण की भावना को प्रकट किया है। कवि चाहता है कि विज्ञान का विकास मानव के कल्याण के लिए हो।


व्याख्या – कवि कामना करता है कि अणु-युग का विकास मानव जाति के कल्याण के लिए हो अर्थात् विज्ञान का प्रयोग मानव के विकास के लिए हो, जिससे यह पृथ्वी स्वर्ग के समान सुखी और सम्पन्न हो जाए। आपसी बैर-विरोध समाप्त हो जाए, भाईचारे की भावना उत्पन्न हो जाए और सब मिल-जुलकर रहें। इस संसार में केवल मानवता ही सत्य है। अतः सभी राष्ट्रों को अपनी स्वार्थ भावना का त्याग कर देना चाहिए।


कवि कहता है कि पृथ्वी और चन्द्रमा का प्रेम संसार में प्रसिद्ध हैं और यह अत्यन्त प्राचीन प्रेम सम्बन्ध है। ऐसी मान्यता है कि चन्द्रमा पहले पृथ्वी का ही एक भाग था, जो बाद में उससे अलग हो गया। आज भी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा को देखकर समुद्र के हृदय में ज्वार आता है, मानो यह पृथ्वी और चन्द्रमा के प्रेम का परिचायक हो। .


काव्य सौन्दर्य


कवि का मानना है कि विश्व की उन्नति तभी सम्भव होगी, जब हम आपसी भेदभाव भुलाकर परस्पर प्रेम से रहेंगे।


भाषा              साहित्यिक खड़ी-बोली


गुण                प्रसाद


शैली            प्रतीकात्मक एवं भावात्मक


रस।             शान्त


छन्द           तुकान्त-मुक्त



अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'स्वर्ण सृजन' और 'प्रीति परस्पर' में क्रमशः 'स' तथा 'प' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

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