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रसखान जी का जीवन परिचय/ raskhan ka jivan Parichay

 रसखान का जीवन परिचय/ raskhan ka jivan Parichay



Raskhan ki jivani

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रसखान का जीवन परिचय - साहित्यिक परिचय, रचनाएं एवं भाषा शैली




दोस्तों यह तो सभी जानते हैं कि जब जब भगवान श्री कृष्ण की भक्ति की रचनाओं की बात होगी उस समय सबसे पहले जो नाम सबसे अगर पंक्ति में होगा वह नाम होगा महाकवि , महान रचनाकार एवं सुजान रसखान, प्रेम वाटिका के रचयिता  महान कवि रसखान जी। रसखान जी एक ऐसा नाम जिसने अपनी रचनाओं एवं कविताओं से भगवान श्री कृष्ण का मन की भक्ति का ऐसा रस आम जनमानस में घोला कि आज भगवान श्रीकृष्ण की रसमयी काव्य धारा केवल हिंदुस्तान में ही नहीं अपितु समस्त विश्व में बह रही है। प्यारे दोस्तों यदि भगवान श्री कृष्ण के जीवन चरित्र एवं उनके महान कार्यों का वर्णन किसी कवि ने बहुत ही अच्छे ढंग से किया है तो उस कवि का नाम है- रसखान। यदि आज संपूर्ण विश्व में भगवान श्री कृष्ण की रसमयी काव्यधारा बह रही है तो उसका पहला श्रेय महाकवि रसखान जी को ही जाता है।  दोस्तों भगवान श्रीकृष्ण , कन्हैया  के ऐसे महान भक्त रसखान जी के बारे में हम लोग आज विस्तार से जानेंगे। दोस्तों यदि यह पोस्ट आप लोगों को पसंद आए तो इसे अपने दोस्तों में अधिक से अधिक शेयर करिएगा।



जीवन परिचय  (Jivan Parichay)


रसखान


संक्षिप्त परिचय



नाम

रसखान [मूल नाम-    सैयद इब्राहिम]

जन्म

सन 1533 ई. में।

जन्म स्थान

दिल्ली 

मृत्यु

सन 1618 ई. में।

मृत्यु स्थल

ब्रज

भक्ति

  कृष्ण भक्ति

गुरु का नाम

गोस्वामी विट्ठलदास

उपलब्धि

'रसखान' संज्ञा की उपाधि

रचनाएं

'सुजान रसखान', 'प्रेम वाटिका'

भाषा

ब्रज भाषा



साहित्य में योगदान

कृष्ण भक्ति का काव्य में अत्यंत मार्मिक चित्रण।

रस

भक्ति, श्रृंगार रस



रसखान कौन थे?


रसखान कृष्ण भक्त कवि तिरस्कार रीतिकाल के कवियों में सबसे प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवि थे उन्हें रस का खान कहा जाता था। रसखान का पूरा नाम सैयद इब्राहिम रसखान था। उनकी अधिकतम रचनाएं कृष्ण के श्रृंगार और भक्ति में होती थी। उनकी रचनाओं में भक्ति और श्रृंगार रस दोनों कूट-कूट कर भरे होते थे। 



जीवन परिचय- हिंदी साहित्य और बृज-भाषा प्रेमी कृष्णभक्त मुसलमान कवियों में रसखान अग्रगण्य हैं। विद्वानों द्वारा इनका मूल नाम सैयद इब्राहिम माना जाता है। इनका जन्म 1533 ईस्वी में दिल्ली में हुआ माना जाता है। इनका जीवन वृत्त अभी भी अंधकार में है अर्थात् विद्वानों के बीच इनके जन्म के संबंध में अभी भी मतभेद हैं। इनके द्वारा रचित ग्रंथ प्रेम वाटिका से प्राप्त संकेत के आधार पर इनका संबंध दिल्ली राजवंश से माना जाता है। रसखान रात दिन श्री कृष्ण भक्ति में तल्लीन रहते थे।


इन्होंने गोवर्धन धाम अर्थात् गोकुल में जाकर अपना जीवन श्री कृष्ण के भजन कीर्तन में लगा दिया। ऐसा कहा जाता है कि इनकी कृष्ण भक्ति से प्रभावित होकर गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया। इन्होंने गोस्वामी विट्ठलनाथ जी से बल्लभ संप्रदाय के अंतर्गत पुष्टिमार्ग की दीक्षा ली थी।



वैष्णव धर्म में दीक्षा लेने पर इनका लौकिक प्रेम अलौकिक प्रेम में बदल गया और रसखान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त बन गए। ऐसी मान्यता है कि 'प्रेम वाटिका' (1614 ई०) इनकी अंतिम काव्य कृति है। संभवत: इस रचना के कुछ वर्ष बाद 1618 ई० में इनकी मृत्यु हो गई।



साहित्यिक परिचय- रसखान ने श्रीकृष्ण की भक्ति में पूर्ण रुप से अनुरक्त होकर अपने काव्य का सृजन किया। अरबी और फारसी भाषा पर इनकी बहुत अच्छी पकड़ थी। काव्य और पिंगलशास्त्र का भी इन्होंने गहन अध्ययन किया। वे अत्यंत भावुक प्रवृत्ति के थे। संयोग और वियोग दोनों पक्षों की अभिव्यक्ति इनके काव्य में देखने को मिलती है। कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम ने ही इन्हें कवि के रूप में पहचान दिलाई। इन्होंने पूर्णरूपेण समर्पित होकर कृष्ण के बाल रूप एवं यौवन के मोहक रूपों पर अनेक कविताएं लिखी हैं। काव्य में जितने भी सौन्दर्य, गुण होते हैं, उनका प्रयोग इन्होंने अपनी कविताओं में किया है। सरसता, सरलता एवं माधुर्य इनके काव्य की विशेषताएं हैं।



रचनाएं- रसखान द्वारा रचित दो ही रचनाएं उपलब्ध है-



1. सुजान रसखान- इसमें कवित्व, दोहा, सोरठा और सवैये हैं, यह 139 शब्दों का संग्रह है। यह भक्ति और प्रेम विषय पर मुक्त काव्य है।


2. प्रेमवाटिका- इसमें केवल 25 दोहे हैं। इस रचना में प्रेम रस का पूर्ण परिपाक हुआ है। रसखान की समग्र रचनाएं कृष्ण भक्ति एवं बृज प्रेम में लिप्त हैं।



भाषा शैली- इनकी कविता में जनसाधारण योग्य ब्रज भाषा का ही प्रयोग हुआ है। इनके काव्य में भाषा का स्वरूप अत्यंत सरल व सहज है। अनेक स्थानों पर प्रचलित मुहावरों का प्रयोग इनकी रचनाओं में मिलता है। दोहा, कवित्व और सवैया तीनों छंदों पर इनका पूर्ण अधिकार था। रसखान के सवैये आज भी कृष्ण भक्तों के लिए कंठहार बने हुए हैं। अलंकारों के प्रयोग से भाषा का सौंदर्य और भी बढ़ गया है। रसखान ने अपने काव्य में सरल और परिमार्जित शैली का प्रयोग किया है।



हिंदी साहित्य में स्थान- कृष्णभक्ति कवियों में रसखान का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वे अपने प्रेम की तन्मयता, भाव- विहृलता और आसक्ति के उल्लास के लिए जितने प्रसिद्ध हैं, उतने ही अपनी भाषा की मार्मिकता, शब्दों के चयन और व्यंजक शैली के लिए। उनका स्थान कृष्ण भक्त कवियों में अत्यंत महत्वपूर्ण है। इनकी भक्ति ह्रदय की मुक्त साधना है और इनका श्रृंगार वर्णन भावुक हृदय की उन्मुक्त अभिव्यक्ति है। इनके काव्य इनके स्वच्छंद मन के सहज उद्गार हैं।



रसखान नाम कैसे पड़ा?



रसखान के नाम को लेकर भी अलग-अलग मत प्रचलित हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपनी रचनाओं में रसखान के दो नाम सैयद इब्राहिम और सुजान रसखान लिखे हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि उन्होंने अपनी रचनाओं में उपयोग करने के लिए अपना नाम रसखान रख लिया था। राजा महाराजाओं के समय अपने क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के कारण खां की उपाधि दी जाती है।



रसखान की मृत्यु



वर्ष 1628 में ब्रजभूमि में इनकी मृत्यु हुई। मथुरा जिले में महाबन में इनकी समाधि बनाई गई है।



रसखान की रचनाएं 



रसखान की रचनाएं मुख्य रूप से कृष्ण और प्रेम छवि में विभाजित हैं - 


1.खेलत फाग सुहाग बड़ी


2.संकर से सुर जाहि जपै


3.मोरपखा सिर ऊपर राखिहौ


4.आवत है वन ते मनमोहन


5.जा दिनते निरख्यौ नंद नंदन 


6.कान्ह भये बस बांसुरी के


7.सोहत है चँदवा सिर मोर को



रसखान की शिक्षा 



रसखान के कृष्ण भक्त कवि थे उन्होंने गोकुल में ही अपना जीवन कृष्ण के भक्ति में बिताया था पूर्णविराम वह कृष्ण का भजन करते हुए मथुरा में अपना सारा जीवन व्यतीत कर लिया करते थे। विद्वानों का कहना है कि रसखान के पिता जागीरदार ऐसा कहा जाता है कि वह एक अच्छे परिवार में जन्म लिए थे इसलिए उनकी शिक्षा भी अच्छे से हुई थी। रसखान अरबी हिंदी संस्कृत और फारसी भाषा के अच्छे विद्वान थे ऐसा कहा जाता है कि वह बहुत ही अच्छे कृष्ण भक्त थे एक बार गोस्वामी विट्ठलदास जी उनके इस कृष्ण भक्ति को देखकर बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अपना शिष्य बनने के लिए उनसे कहा और उन्हें अपना शिष्य बना लिया गोस्वामी विट्ठलदास जी रसखान को बल्लभ संप्रदाय से शिक्षा प्रदान की। रसखान ने जब वैष्णव धर्म से शिक्षा प्राप्त कर लिया तो वह कृष्ण के अनन्य भक्त बन गए इसके बाद उसका ने अपना जीवन कृष्ण के भक्ति में ही बता दिया।



रसखान के जीवन परिचय से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न और उनके उत्तर



रसखान का मूल नाम क्या था?


रसखान का मूल नाम सैयद इब्राहिम था।


रसखान किस धारा के कवि हैं?


रसखान सगुण काव्य धारा के कवि है।



रसखान ने कृष्ण की कैसी छवि का वर्णन किया है?


रसखान ने कृष्ण की बाल छवि का वर्णन किया है।




रसखान का जन्म कब हुआ था?


रसखान के जन्म के संबंध में बहुत से विद्वानों का कई मतभेद है कुछ विद्वान इनका जन्म 1533 ईस्वी को मानते हैं तथा कुछ विद्वान 1548 ईसवी को इनका जन्म मानते हैं।



रसखान की मृत्यु कब हुई?


रसखान की मृत्यु 1618 ईसवी के लगभग हुई थी।



रसखान का जन्म कहां हुआ था ?


कुछ विद्वानों का मानना है कि रसखान का जन्म दिल्ली के आसपास हुआ था।



रसखान के गुरु का क्या नाम था?


रसखान के गुरु का नाम गोस्वामी विट्ठलदास जी था।


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रसखान पद्यांश रचना सवैया, कवित के पद्यांशों की संदर्भ व प्रसंग सहित व्याख्या एवं काव्य

हिन्दी कक्षा-10 पद्यांशों की सन्दर्भ व प्रसंग सहित व्याख्या एवं उनका काव्य सौन्दर्य


नमस्कार मित्रों स्वागत है आपका हमारी वेब साइट www.Subhanshclasses.com में यदि आप गूगल पर सर्च कर रहे है रसखान पद्यांश रचना सवैया, कवित के पद्यांशों की संदर्भ व प्रसंग सहित व्याख्या एवं काव्य पाठ के सभी गद्यांशों के रेखांकित अंशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या तो आप बिल्कुल सही जगह पर आ गए हैं हम आपको आपके सभी टॉपिक पर पत्र लिखना शिखायेगे। यदि आप YouTube पर देखना चाहते हैं तो आप अपने यूट्यूब पर सर्च करे Subhansh classes वहा पर आपको हमारा चैनल मिल जायेगा, आप उसे जल्दी से subscribe कर लीजिए। हमारे यूट्यूब चैनल पर आपको पढाई से सम्बंधित सभी जानकारी दी जायेगी



  1. मानुष हौं तो वही रसखानि, बसौं बज गोकुल गाँव के ग्वारन जौ पसु हाँ तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन ।। पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन । जो खग हौं तो बसेरो करौ, मिलि कालिंदी-कूल कदंब की डारन ।

 


सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश रसखान कवि द्वारा रचित 'सुजान रसखान' से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'सवैये' शीर्षक से उधृत है।


प्रसंग प्रस्तुत सवैये में रसखान कवि का श्रीकृष्ण और उनसे जुड़ी वस्तुओं के प्रति लगाव प्रकट हुआ है। वह अगले जन्म में भी श्रीकृष्ण का सान्निध्य पाना चाहते

है। वह कृष्ण की निकटता प्राप्त करने की तीव्र कामना व्यक्त करते हैं।


व्याख्या कृष्ण की लीलाभूमि ब्रज के प्रति अपना लगाव प्रकट करते रसखान कहते हैं कि हे भगवान! मृत्यु के पश्चात् यदि मैं अगला जन्म मनुष्य के रूप में लूँ, तो मेरी इच्छा है कि मैं ब्रजभूमि में ग्वालों के बीच में निवास करूं। यदि मैं पशु हुए कवि बनूँ तो इसमें मेरा कोई वश नहीं है, फिर भी मैं नन्द बाबा की गायों के बीच चरना चाहता हूँ, यदि मैं पत्थर बनूँ, तो उसी गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनना चाहता हूँ, जिसे आपने (श्री कृष्ण) अपनी अँगुली पर उठाकर इन्द्र का घमण्ड चूर किया था और गोकुलवासियों की रक्षा की थी, उन्हें जलमग्न होने से बचाया था। यदि मैं पक्षी बनूँ, तो उसी कदम्ब के वृक्ष पर मेरा बसेरा हो, जो यमुना के किनारे है, जिसके नीचे श्रीकृष्ण रास रचाया करते थे अर्थात् वह हर रूप में अपने आराध्य श्रीकृष्ण के ही समीप रहना चाहते हैं।


काव्य सौन्दर्य


इन पंक्तियों में कवि रसखान का कृष्ण और उनसे जुड़ी वस्तुओं के प्रति असीम प्रेम प्रकट हुआ है।


भाषा            ब्रज



गुण             प्रसाद


शैली           मुक्तक


रस           भक्ति एवं शान्त


छन्द          सवैया



अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'बसौं ब्रज', 'गोकुल गाँव', 'नित नंद' और 'कालिंदी-कूल कदंब' में क्रमश: 'ब', 'ग', 'न' और 'क' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।




  1. धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी। खेलत खात फिर अँगना, पग पैजनी बाजति पीरी कछोटी।। वा छवि को रसखानि बिलोकत, वारत काम कला निज कोटी। काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सो लै गयौ माखन-रोटी ।।



सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश रसखान कवि द्वारा रचित 'सुजान रसखान' से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'सवैये' शीर्षक से उधृत है।


प्रसंग प्रस्तुत सवैये में कवि रसखान ने श्रीकृष्ण के बालरूप का अत्यन्त सुन्दर एवं सजीव चित्रण किया है। श्रीकृष्ण के रूप सौन्दर्य पर मोहित होकर एक गोपी दूसरी गोपी से उनकी सुन्दरता का बखान करती है।


व्याख्या कवि रसखान कहते हैं कि एक एक सखी  दूसरों सखी से कहती है कि हे सखी! श्याम वर्ण के कृष्ण धूल से भरे हुए है। अत्यन्त सुशोभित व आकर्षक लग रहे है ऐसे ही उनके सिर पर सुन्दर चोटी सुशोभित हो रही है। वे अपने आँगन में खात और खेलते हुए घूम रहे हैं। उनके पैरा में पायल बज रही है और वे पीले रंग छोटी-सी धोती पहने हुए है। कवि रसखान कहते हैं कि उनके उस सौन्दर्य देखक कामदेव भी उन पर अपनी कोटि-कोटि कलाओं को न्योछावर करता है। उस कौए का भाग्य कितना अच्छा है जिसे कृष्ण जी के हाथो से मक्खन और रोटी छीनकर खाने का अवसर प्राप्त हुआ है।


काव्य सौन्दर्य


श्रीकृष्ण के मान सौन्दर्य का मनोहारी सी वर्णन है।


भाषा         ब्रज


शैली          चित्रात्मक और मुक्तक


गुण।         माधुर्य



छन्द          सवैया


रस।        वात्सल्य और भगति



अलंकार


अनुप्रास अलंकार सोभित स्यामजू', 'खेलत खात', 'पग फैजनी' और 'काम कला' में क्रमश: स, ख, प '' और क वर्ण की पुनरावृति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


  1. कान्ह भये बस बांसुरी के, अब कौन सखी, हमकौ चहिहैं निसधौस रहे संग-साथ लगी, यह सौतिन तापन क्यौं सहिहै।। जिन मोहि लियौ मनमोहन को, रसखान सदा हमकी दहिहै। मिलि आओ सबै सखि, भागि चलें अब बन में बेसुरी रहिहै।



सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश रसखान कवि द्वारा रचित 'सुजान रसखान' से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'सवैये' शीर्षक से उधृत है।



प्रसंग प्रस्तुत सवैया में कवि रसखान ने गोवियों के श्रीकृष्ण की बांसुरी के प्रति सौतनरूपी भाव का वर्णन किया है।


व्याख्या एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी श्रीकृष्ण को तो उनकी बासुरी ने पूर्ण रूप से अपने वश में कर लिया है। अब हमें कौन चाहेगा और हम से कौन प्रेम करेगा? उनकी बांसुरो हो रात-दिन उनके साथ ही रहती है, यह तो हमें सौतन की भाँति दुःख दे रही है, इसे हम कैसे सहन करेंगे? इस बांसुरी ने मन मोहन श्रीकृष्ण को अपने मोह में फैसा लिया है और हमे इर्ष्या से हमेशा जलाती रहता है।


हे सखी! आओ हम सब मिलकर इस ब्रज से भाग चले, क्योंकि अब तो ब्रज में श्रीकृष्ण के साथ केवल  यह बासुरी ही रहेगी अर्थात इसके मोहने कृष्ण को पूरी तरह से अपने वश में कर लिया है। अत: हमारा यहाँ अब कोई नहीं अर्थात् श्रीकृष्ण के प्रेम से बंचित होकर हमारा ब्रज में निर्वाह नहीं हो सकता।


काव्य सौन्दर्य


कवि नेकी के प्रति ईथों को किया है।


भाषा।       ब्रज


रस          शृंगार


शैली     मुक्तक


गुण        माधुर्व


छंद।        सवैया



अलंकार 


अनुप्रास अलंकार बस बासुरी ,'संग साथ और सबै सखि में क्रमश ब , स,और स वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


रूपक अलंकार यहाँ गोपियों की सौतन रूपी बाँसुरी का वर्णन किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।



  1. मोर-पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी। ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारन संग फिरौंगी।। भावतो वोहि मेरी रसखानि, सो तेरे कहैं सब स्वाँग करौंगी । या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरौंगी।।


सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश रसखान कवि द्वारा रचित 'सुजान रसखान' से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'सवैये' शीर्षक से उधृत है।


प्रसंग प्रस्तुत सवैया में श्रीकृष्ण के प्रति वियोग प्रेम से व्याकुल गोपियों का वर्णन किया गया है।


व्याख्या – एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि मैं तुम्हारे कहने पर मोर के पंखों से बने मुकुट को अपने सिर पर धारण कर लूँगी, गुंजाओं की माला अपने गले में पहन लूँगी, पीला वस्त्र ओढ़कर, लकड़ी अपने हाथ में लेकर जंगल में गायों और ग्वालों के साथ भी घूमूँगी। तुम जो लीलाएँ करने को कहोगी, वही सब करूंगी अर्थात् जो लीलाएँ श्रीकृष्ण को पसन्द हैं, वही लीलाएँ मैं करने के लिए तत्पर हूँ,


परन्तु मैं उस बाँसुरी को अपने होंठों पर नहीं रखूँगी, जो श्रीकृष्ण के अधरों पर अत्यन्त सुशोभित लगती है, क्योंकि बाँसुरी गोपियों को अपनी सौतन जैसी प्रतीत होती है। उन्हें बाँसुरी से ईर्ष्या है, क्योंकि वह श्रीकृष्ण के ज्यादा ही मुँह लगी हुई है।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने श्रीकृष्ण के प्रेम में लीन गोपियों द्वारा स्वयं को पूर्णतः समर्पित करने का भाव प्रस्तुत किया है।


भाषा      ब्रज


शैली।     मुक्तक


गुण       माधुर्य


रस         श्रृंगार


छन्द         सवैया




अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'गोधन ग्वारन', 'सब स्वाँग' और 'मेरी रसखानि' में क्रमशः 'ग', 'स' और 'र' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


यमक अलंकार मुरली मुरलीधर में मुरली (बाँसुरी) और मुरलीधर (श्रीकृष्ण) के लिए तथा अधरान धरी अधरा न धरौंगी में अधरान (होंठों पर), अधरा (बाँसुरी) अर्थात् एक ही पंक्ति में समान शब्दों का दो बार प्रयोग किया गया है, परन्तु उनके अर्थ अलग-अलग हैं, इसलिए यहाँ यमक अलंकार है।


 

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