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हिन्दी कक्षा-10 पद्यांशों की सन्दर्भ व प्रसंग सहित व्याख्या एवं उनका काव्य सौन्दर्य/class 10 hindi soordas pad ki sandarbh va prasang vyakhya

हिन्दी कक्षा-10 पद्यांशों की सन्दर्भ व प्रसंग सहित व्याख्या एवं उनका काव्य सौन्दर्य

class 10 hindi soordas pad ki sandarbh va prasang vyakhya



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  1. चरन-कमल बंदौं हरि राइ जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे कौं सब कुछ दरसाइ।। बहिरौ सुनै, गूंग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराइ सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौ तिहिं पाइ।।



सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 


प्रसंग – प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण के चरणों की वन्दना करते हुए उनकी महिमा का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है।


व्याख्या – भक्त शिरोमणि सूरदास जी श्रीकृष्ण के चरण कमलों की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु! मैं आपके चरणों की, जो कमल के समान कोमल हैं, वन्दना करता हूँ, इनकी महिमा अपरम्पार है, जिनकी कृपा से लंगड़ा व्यक्ति पर्वतों को लाँघ जाता है, अन्धे व्यक्ति को सब कुछ दिखाई देने लगता है, बहरे को सुनाई देने लगता है, गूँगा बोलने लगता है और गरीब व्यक्ति राजा बनकर अपने सिर पर छत्र धारण कर लेता है। सूरदास जी कहते हैं कि हे कृपालु और दयालु प्रभु! मैं आपके मैं चरणों की बार-बार वन्दना करता हूँ। आपकी कृपा से असम्भव से असम्भव कार्य भी। सम्भव हो जाते हैं। अतः ऐसे दयालु श्रीकृष्ण के चरणों की मैं बार-बार वन्दना करता हूँ।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने ईश्वर के चरणों की महिमा व्यक्त करते हुए उनके प्रति भक्ति भाव को व्यक्त किया है।


भाषा               साहित्यिक ब्रज


शैली                    मुक्तक             


गुण                     प्रसाद


रस                 भक्ति


शब्द-शक्ति।         लक्षणा


छन्द               गेयात्मक




अलंकार


पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'बार-बार' में एक शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।


 अनुप्रास अलंकार 'सूरदास स्वामी' में 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


रूपक अलंकार 'चरण कमल' में कमलरूपी कोमल चरणों के बारे में बताया गया है। इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।






  1. अबिगत-गति कछु कहत न आवै। ज्या गूँगे मीठे फल को रस अंतरगत ही भावै।। परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै। मन-बानी की अगम-अगोचर, सो जानै जो पावै।। रूप-रेख-गुन-जाति-जुगति-बिनु निरालंब कित धावै। सब विधि अगम विचारहिं तातै सूर सगुन-पद गावै।।



सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 



प्रसंग – प्रस्तुत पधांश में सूरदास ने कृष्ण के कमल-रूपी सगुण रूप के प्रति अपनी भक्ति का निरूपण किया है। इन्होंने निर्गुण भगवान की आराधना को अत्यन्त कठिन तथा सगुण ब्रह्म की उपासना को अत्यन्त सुगम और सरल बताया है।


व्याख्या सूरदास जी कहते हैं कि निर्गुण अथवा निराकार ब्रह्म की स्थिति का वर्णन नहीं किया जा सकता । वह अवर्णनीय है । निर्गुण ब्रह्म की उपासना के आनन्द का कोई नहीं कर सकता । जिस प्रकार गूंगा व्यक्ति मीठे फल का स्वाद अपने हृदय में ही अनुभव करता है, वह उसका शाब्दिक वर्णन नहीं कर सकता । उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म की भक्ति के आनन्द का  केवल अनुभव किया जा सकता है,उसे मौखिक रूप से (बोलकर ) प्रकट नहीं किया जा सकता। यद्यपि निर्गुण की प्राप्ति से निरन्तर अत्यधिक आनन्द होता है और उपाय को उससे असीम सन्तोग भी प्राप्त होता है। मा द्वारा उस ईश्वर तक पहुंचा नहीं जा सकता, जो इन्द्रियों से है, इसलिए उसे अगम एवं अगोचर कहा गया है। उसे जो प्राप्त कर लेता है, वही उसे जानना निर्गुण ईश्वरान कोई रूप हैन आकृति, न ही हमें उसके गुणों का ज्ञान जिससे हम उसे प्राप्त कर सके। बिना किसी आधार के न जाने उसे कैसे पाया है? ऐसी स्थिति में भक्त का मन बना किसी आधार के न जाने कहाँ कहाँ भटकता रहेगा, क्योंकि निर्गुण ब्रह्म तक पहुंचना असम्भव है। इसी कारण सर्भ प्रकार से विचार करके ही सूरदास जी ने सगुण श्रीकृष्ण की लीला के पद का अधिक उचित समझा है।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना की अपेक्षा सगुण ब्रह्म की उपासना को सरल बताया है।



भाषा      साहित्यिक ब्रज



छन्द।          गीतात्मक 


शब्द-शक्ति।     लक्षणा


गुण                 प्रसाद


रस।              भक्ति और शान्त


शैली।                 मुक्तक



अलंकार



 अनुप्रास अलंकार 


'अगम-अगोदर' और 'मन-बानी में क्रमश'अ' 'ग' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।



दृष्टांत अलंकार ज्यों गूंगे नीठे फल में उदाहरण अर्थात फल के माध्यम से मानव हृदय के भाव को प्रकट किया गया है।इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है। 


  1. किलकत कान्हा धुतुरुवन आवत।मनिमय कनक नंद के आँगन, बिम्ब पकरिव धावत।। कमर्हु निरखि हरि आपु छाँह कौ, कर सौंपकरन चाहत ।किलकि हंसत राजत द्वि दतियाँ, पुनि-पुनि तिहि अवगाह कनक- भूमि पर कर-पग छाया, यह उपमा इक राजति करि करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति।। बाल-दसा-मुख निरधि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलायति । अँचरा तर लै ढंकी , सूर के प्रभु को दूध पियावति ।।




सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 



प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने मणियुक्त आँगन में घुटनों के बल चलते हुए बालक श्रीकृष्ण की शोभा का वर्णन किया है।


व्याख्या – कवि सूरदास जी श्रीकृष्ण की बाल-मनोवृत्तियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि बालक कृष्ण किलकारी मारते हुए घुटनों के बल चल रहे हैं। नन्द द्वारा बनाए मणियों से युक्त आँगन में श्रीकृष्ण अपनी परछाई देख उसे पकड़ने के लिए दौड़ने लगते हैं। कभी तो अपनी परछाई देखकर हँसने लगते हैं और कभी उसे पकड़ना चाहते हैं, जब श्रीकृष्ण किलकारी मारते हुए हँसते हैं, तो उनके आगे के दो दाँत बार-बार दिखाई देने लगते हैं, जो अत्यन्त सुशोभित लग रहे हैं।


श्रीकृष्ण के हाथ-पैरों की छाया उस पृथ्वी रूपी सोने के फर्श पर ऐसी प्रतीत हो रही है, मानो प्रत्येक मणि में उनके बैठने के लिए पृथ्वी ने कमल का आसन सजा दिया हो अथवा प्रत्येक मणि पर उनके कमल जैसे हाथ-पैरों का प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसा लगता है कि पृथ्वी पर कमल के फूलों का आसन बिछ रहा हो।


श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर माता यशोदा जी बहुत आनन्दित होती है और बाबा नन्द को बार-बार वहाँ बुलाती है। उसके पश्चात् माता यशोदा सूरदास के प्रभु बालक श्रीकृष्ण को अपने आँचल से ढककर दूध पिलाने लगती है।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने श्रीकृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं का अत्यन्त मनोहारी चित्रण किया है।


 

भाषा         ब्रज


शैली         मुक्तक


गुण      प्रसाद और माधुर्य


छंद          गीतात्मक


रस         वात्सल्य 


शब्द-शक्ति    लक्षणा




अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'किलकत कान्ह' और 'प्रतिपद प्रतिमनि' में क्रमशः 'क', 'प' तथा 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुपास अलंकार है। 


पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'पुनि-पुनि' और 'करि-करि में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।


 उपमा अलंकार 'कनक-भूमि' और 'कमल बैठकी' अर्थात् स्वर्ण रूपी फर्श और कमल जैसा आसन में उपमेय-उपमान की समानता प्रकट की गई है, इसलिए उपमा अलंकार है।




  1. मैं अपनी सब गाइ चरैहौ।प्रात होत बल कै संग जैहाँ, तेरे कहै न रैहौ।। ग्वाल बाल गाइनि के भीतर, नैकहुँ डर नहिं लागत। आजु न सोवौ नंद-दुहाई, रैनि रहौंगौ जागत।। और ग्वाल सब गाइ चरैहैं, मैं घर बैठो रैहौ।सूर स्याम तुम सोइ रहौ अब, प्रात जान मैं देहौं।।


सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 



प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण के स्वाभाविक बालहठ का चित्रण किया है, जिसमें वे अपने ग्वाल सखाओं के साथ अपनी गायों को चराने के लिए वन में जाने की हठ कर रहे हैं।


व्याख्या – बालक कृष्ण अपनी माता यशोदा से हठ करते हुए कहते हैं कि है माता! मैं भी अपनी गायों को चराने वन जाऊँगा। प्रातःकाल होते ही मैं भैया बलराम के साथ बन में जाऊँगा और तुम्हारे कहने पर भी घर में न रुकूँगा, क्योंकि बन में ग्वाल सखाओं के साथ रहते हुए मुझे तनिक भी डर नहीं लगता। आज में नन्द बाबा की कसम खाकर कहता हूँ कि में रातभर नहीं सोऊंगा, जागता रहूँगा। हे माता! अब ऐसा नहीं होगा कि सब ग्वाल बाल गाय चराने जाएं और में घर में बैठा रहूँ। ये सुनकर माता यशोदा ने कृष्ण को विश्वास दिलाया हे पुत्र अब तुम सो जाओ, सुबह होने पर तुम्हें गायें चराने के लिए अवश्य भेज दूंगी।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने श्रीकृष्ण के बाल मनोविज्ञान का स्वाभाविक चित्रण किया है।


भाषा          ब्रज


शैली         मुक्तक  


 रस        वात्सल्य


गुण        माधुर्य


छन्द       गेह पद




अलंकार


अनुप्रास अलंकार रैनि रहेंगौ', 'ग्वाल बाल' और 'सूर स्याम' में क्रमश: 'र', 'ल' और 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।



  1. मैया हौं न चरैहौं गाइ।सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाई पिराइ जौं न पत्याहि पूछि बलदाउहिं, अपनी सौहं दिवाइ।यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ मैं पठवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ।।



सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 


प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में माता यशोदा ने श्रीकृष्ण द्वारा हठ किए जाने पर उन्हें वन भेज दिया, किन्तु वन में ग्वाल सखाओं ने उन्हें परेशान किया तथा प्रस्तुत पद में श्रीकृष्ण घर लौटकर माता यशोदा से उनकी शिकायत करते हैं।



 व्याख्या – श्रीकृष्ण माता यशोदा से कहते हैं कि हे माता! अब मैं गाय चराने नहीं जाऊँगा। सभी ग्वाले मुझसे ही अपनी गायों को घेरने के लिए कहते हैं, इधर से उधर दौड़ते-दौड़ते मेरे पैरों में दर्द होने लगता है। हे माता! यदि आपको मेरी बात पर विश्वास न हो तो अपनी सौगन्ध दिलाकर बलराम भैया से पूछ लो। यह सुनकर माता यशोदा क्रोधित होकर ग्वालों को गाली देने लगती हैं। सूरदास जी कहते हैं कि माता यशोदा कहती हैं कि मैं अपने पुत्र को वन में इसलिए भेजती हूँ कि उसका मन बहल जाए। मेरा कृष्ण अभी बहुत छोटा है, ये ग्वाले उसे इधर-उधर दौड़ाकर मार डालेंगे।


काव्य सौन्दर्य


कवि सूरदास ने श्रीकृष्ण व माता यशोदा का स्थितिवश व्यवहार का यथार्थपरक चित्रण किया है।


भाषा          ब्रज


गुण           माधुर्य 


शैली           मुक्तक


छन्द           गेय पद


रस।           वात्सल्य


शब्द-शक्ति       अभिधा



छन्द अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'मोसौं मेरे', 'पाइँ पिराई', 'ग्वालनि गारी' और 'सूर स्याम' में क्रमश: 'म', 'प' तथा 'इ', 'ग' और 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।



  1. सखी री, मुरली लीजै चोरि। 'जिनि गुपाल कीन्हे अपनै बस, प्रीति सबनि की तोरि।। छिन इक घर-भीतर, निसि-बासर, धरत न कबहूँ छोरि । कबहूँ कर, कबहूँ अधरनि, कटि कबहूँ खोसत जोरि ।। ना जानौं कछु मेलि मोहिनी, राखे अँग-अँग भोरि। सूरदास प्रभु कौ मन सजनी, बँध्यौ राग की डोरि।।



सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 



प्रसंग – प्रस्तुत पोश में श्रीकृष्ण का मुरलों के प्रति प्रेम तथा उससे ईर्ष्या करती गोपियों को मनोदशा का चित्रण किया गया है।


 व्याख्या – गोपियों एक-दूसरे से कहती है कि है सखी! कृष्ण की मुरली को हमे बुरा लेना चाहिए। इस पुरती ने श्रीकृष्ण को अपनी ओर आकर्षित कर अपने वश में कर लिया है। श्रीकृष्ण ने भी मुरली के वशीभूत होकर हम सभी गोपियों को भुला दिया है। वे घर के भीतर हो बाहर कभी एक पल के लिए भी मुरली को नहीं छोड़ते। कभी हाथ में रखते हैं तो कभी होठो पर और कभी कमर में खास लेते है। इस तरह से श्रीकृष्ण भी उसे कभी भी अपने से दूर नहीं होने देते। यह हमारी समझ में नहीं आ रहा कि मुरली ने कौन-सा मोहिनी मन्त्र श्रीकृष्ण पर चला दिया है, जिससे श्रीकृष्ण पूर्णरूपेण उसके वश में हो गए हैं। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों कह रही है कि हे सजनी इस वंशी ने श्रीकृष्ण का मन प्रेम की डोरी से बांधा हुआ है।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने श्रीकृष्ण की मुरली के प्रति ईर्ष्या भाव का स्वाभाविक चित्रण किया है।


भाषा            ब्रज 


गुण              माधुर्य


रस                 श्रृंगार


शैली              मुक्तक और गीतात्मक 


छंद                 गेव पद


शब्द-शक्ति          लक्षणा



अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'कबहूँ कर कबहूँ' और 'मेलि मोहनी' में क्रमश: 'क' तथा 'ह' और 'म' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'अँग-अंग' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। 


रूपक अलंकार 'राग की डोरी' अर्थात् प्रेम रूपी डोर का वर्णन किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।



  1. ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं। बृन्दाबन गोकुल बन उपबन, सघन कुंज की छाँही। प्रात समय मात जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत। माखन रोटी दह्यौ सजायौ, अति हित साथ खवावत।। गोपी ग्वाल बाल संग खेलत, सब दिन हँसत सिरात।सूरदास धनि धनि बजबासी, जिनसौं हित जदु-जात ।



सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 



प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की मनोदशा का चित्रण किया है। उद्धव ने मथुरा पहुँचकर श्रीकृष्ण को वहाँ की सारी स्थिति बताई, जिसे सुनकर श्रीकृष्ण भाव-विभोर हो गए।



व्याख्या श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे उद्धव! मैं ब्रज को भूल नहीं पाता हूँ। मैं सबको भुलाने का बहुत प्रयत्न करता हूँ, पर ऐसा करना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पाता। वृन्दावन और गोकुल, वन, उपवन सभी मुझे बहुत याद आते हैं। वहाँ के कुंजों की घनी छाँव भी मुझसे भुलाए नहीं भूलती। प्रातः काल माता यशोदा और नन्द बाबा मुझे देखकर हर्षित होते तथा अत्यन्त सुख का अनुभव करते थे। माता यशोदा मक्खन, रोटी और दही मुझे बड़े प्रेम से खिलाती थी। गोपियाँ और ग्वाल-बालों के साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते थे और सारा दिन हँसते-खेलते हुए व्यतीत होता था। ये सभी बाते मुझे बहुत याद आती हैं। 


सूरदास जी ब्रजवासियों की सराहना करते हुए कहते हैं कि वे ब्रजवासी धन्य हैं, क्योंकि श्रीकृष्ण स्वयं उनके हित की चिन्ता करते हैं और इनका प्रतिक्षण ध्यान करते हैं। उन्हें श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ऐसा हितैषी और कौन मिल सकता है।


काव्य सौन्दर्य


श्रीकृष्ण साधारण मनुष्य की भाँति अपने प्रियजनों को याद कर द्रवित हो रहे हैं। यद्यपि उनका व्यक्तित्व अलौकिक है फिर भी ब्रज की स्मृतियाँ उन्हें व्याकुल कर देती हैं।



भाषा       ब्रज


गुण          माधुर्य


रस           श्रृंगार


छन्द          गेयात्मक


शब्द-शक्ति   अभिधा और व्यंजना




अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'ब्रज बिसरत', 'गोपी ग्वाल' और 'अति हित' में क्रमश: 'ब', 'ग' और 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'धनि-धनि' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।




  1. ऊधौ मन न भए दस बीस'एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को अवराधे ईस।। इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस। आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस।। तुम तौ सखा स्याम सुन्दर के, सकल जोग के ईस सूर हमारैं नँद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस।।


सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 


प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश 'भ्रमरगीत' का एक अंश है। श्रीकृष्ण मथुरा चले जाते हैं और गोपियाँ उनको याद कर-कर के अत्यन्त व्याकुल हैं। श्रीकृष्ण उद्धव को गोपियों के पास भेजते हैं। वह ज्ञान और योग का सन्देश लेकर ब्रज में पहुंचते हैं, लेकिन वे उनके इस सन्देश को स्वीकार करने में स्वयं को असमर्थ बताती हैं, क्योंकि वे श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी अन्य की आराधना नहीं कर सकती है।


व्याख्या – गोपियाँ, उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव! हमारे दस-बीस मन नहीं हैं। हमारे पास तो एक ही मन था, वह भी श्रीकृष्ण के साथ चला गया। अब हम किस मन से तुम्हारे द्वारा बताए गए निर्गुण ब्रह्म की आराधना करें? अर्थात् जब मन ही नहीं है तो किस प्रकार हम तुम्हारे द्वारा बताए गए धर्म का पालन करें। श्रीकृष्ण के बिना हमारी सारी इन्द्रियाँ शिथिल (कमजोर) हो गई है अर्थात् शक्तिहीन और निर्बल हो गई हैं। इस समय इनकी स्थिति ठीक वैसी ही हो गई है, जैसी बिना सिर के प्राणी की हो जाती है। श्रीकृष्ण के बिना हम निष्प्राण हो गई हैं। हमें हमेशा उनके आने की आशा बनी रहती है। इसी कारण हमारे शरीर में श्वास चल रही है। इसी आशा में हम करोड़ों वर्षों तक जीवित रह सकती हैं।


गोपियाँ कहती है कि हे उद्धव! आप तो श्रीकृष्ण के मित्र है और सभी प्रकार के योग विद्या के स्वामी हैं, सम्पूर्ण योग विद्या तथा मिलन के उपायों को जानने वाले हैं। आप ही श्रीकृष्ण से हमारा मिलन करा सकते हैं। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों ने स्पष्ट रूप से उद्धव को बता दिया कि नन्द जी के पुत्र श्रीकृष्ण के बिना उनका कोई और आराध्य नहीं है। उनके अतिरिक्त वे और किसी की आराधना नहीं कर सकती।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने श्रीकृष्ण के विरह में विचलित गोपियों की शारीरिक व मानसिक स्थिति का चित्रण किया है।


भाषा             ब्रज


रस             शृंगार (वियोग


शैली             मुक्तक


गुण।              माधुर्य


छन्द।              गेय पद



शब्द-शक्ति।       व्यंजना




अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'दस बीस', 'स्याम सँग' और 'नंद-नंदन' में क्रमश 'स', 'स' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


उपमा अलंकार 'ज्यौं देही बिनु सीस' अर्थात् बिना सिर के प्राणी के रूप में मानवीय वेदना का वर्णन किया गया है। इसलिए उपमा अलंकार है।


श्लेष अलंकार 'ज्यौं देही बिनु सीस' में 'ज्यौं' वाचक शब्द का प्रयोग किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।


भाव साम्य


इसी प्रकार का भाव व्यक्त करते हुए तुलसीदास ने भी कहा है.


 "एक भरोसो, एक बल, एक आस बिस्वास

एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास "



  1. ऊधौ जाहु तुमहिं हम जाने। स्याम तुमहिं ह्या को नहिं पठयौ, तुम हौ बीच भुलाने।। ब्रज नारिनि सौं जोग कहत हौ, बात कहत न लजाने। बड़े लोग न बिवेक तुम्हारे, ऐसे भए अयाने।। हमसौं कही लई हम सहि कै, जिय गुनि लेह सयाने। कहँ अबला कहँ दसा दिगंबर, मष्ट करौ पहिचाने।। साँच कहौं तुमको अपनी सौं, बूझतिं बात निदाने। सूर स्याम जब तुमहिं पठायौ, तब नैकहुँ मुसकाने।।



सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 



प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं- हे उद्धव! हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म को नहीं मानेंगी। उद्धव तथा गोपियों के बीच हुए तर्क-वितर्क का वर्णन किया गया है।


व्याख्या – गोपियाँ, उद्धव से कहती हैं कि तुम यहाँ से वापस चले जाओ। हम तुम्हें भली प्रकार से जानती हैं। हमें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तुम्हें यहाँ श्रीकृष्ण ने नहीं भेजा है। तुम स्वयं रास्ता भटककर यहाँ आ गए हो। तुम ब्रज की नारियों (गोपियाँ) से योग की बात कह रहे हो, तुम्हें लज्जा नहीं आती। तुम भले ही बुद्धिमान और ज्ञानी होंगे, परन्तु हमें ऐसा लगता है कि तुममें विवेक नहीं है, नहीं तो तुम ऐसी अज्ञानतापूर्ण बातें हमसे क्यों करते? तुम ये मन में विचार कर लो, जो हमसे कह दिया ब्रज में किसी अन्य से ऐसी बात न कहना। हमने तो सहन कर लिया, कोई दूसरी गोपी सहन नहीं करेगी। कहाँ योग की दिगम्बर (वस्त्रहीन) अवस्था और कहाँ हम अबला नारियाँ। अतः अब तुम चुप हो जाओ और जो भी कहना सोच-समझकर कहना। अब तुम सच-सच बताओ कि जब श्रीकृष्ण ने तुम्हें यहाँ भेजा था, वह क्या थोड़ा-सा मुस्कुराए थे। वे अवश्य मुस्कुराए होंगे। तभी तो उन्होंने तुम्हारे साथ उपहास करने लिए तुम्हें यहाँ भेजा है।



काव्य सौन्दर्य


कवि ने निर्गुण ब्रह्म की श्रेष्ठता तथा गोपियों द्वारा उद्धव की उलाहना का हास्यस्पद चित्रण किया गया है।



भाषा          ब्रज


गुण            माधुर्य


छन्द        गेय पद


शैली       मुक्तक


रस       शृंगार का वियोग रूप


शब्द-शक्ति    व्यंजना



अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'स्याम तुमहिं', 'बात कहत', 'बूझति बात' और 'नैकहुँ मुसकाने' में क्रमशः 'स', 'त', 'ब' और 'क' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।





  1. निरगुन कौन देस कौ बासी? मधुकर कहि समुझाइ सौह दै, बूझतिं साँच न हाँसी।। को है जनक, कौन है जननी, कौन नारि, को दासी? कैसो बरन, भेष है कैसो, किहिं रस मैं अभिलाषी? पावैगौ पुनि कियौ आपनौ, जो रे करैगौ गाँसी। सुनत मौन हवै रह्यौ बाबरौ, सूर सबै मति नासी।।




सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 


 प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास ने गोपियों के माध्यम से निर्गुण ब्रह्म की उपासना का खण्डन तथा सगुण कृष्ण की भक्ति का मण्डन किया है।


व्याख्या – गोपियाँ भ्रमर की अन्योक्ति के माध्यम से उद्धव को सम्बोधित करते हुए कहती है कि हे उद्धव! ये निर्गुण ब्रह्म किस देश के निवासी है? हम तुम्हें सौगन्ध देकर पूछती है, कि तुम हमें सच-सच बताओ, हम कोई हंसी-मजाक नहीं कर रही हैं। तुम यह बताओ कौन उसका पिता है, कौन माता है, कौन स्त्री है और कौन उसकी दासी है? उसका रंग-रूप कैसा है, उसकी वेशभूषा कैसी है? तथा वह किस रस की इच्छा रखने वाला है?


गोपियाँ, उद्धव को चेतावनी देते हुए कहती है कि हमें सभी बातों का ठीक-ठीक उत्तर देना। गोपियाँ कहती है कि यदि तुम हमसे कपट करोगे तो उसका परिणाम तुम्हे अवश्य भुगतना पड़ेगा। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों के इस प्रकार व्यंग्यात्मक तर्कपूर्ण प्रश्नों को सुनकर उद्धव स्तब्ध हो गए। वह उनके प्रश्नों का कुछ उत्तर न दे सके। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो उनका सारा ज्ञान समाप्त हो गया हो। गोपियों ने अपने वाक्चातुर्य से ज्ञानी उद्धव को परास्त कर दिया अर्थात् उद्धव का सारा ज्ञान अनपढ़ गोपियों के सामने नष्ट हो गया।



काव्य सौन्दर्य


कवि ने गोपियों द्वारा निर्गुण ब्रह्म का उपहास अत्यन्त व्यंग्यात्मक तथा तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया है।


भाषा         ब्रज


शैली        मुक्तक


 गुण       माधुर्य


छन्द       गेह पद


रस    वियोग शृंगार एवं हास्य


 शब्द-शक्ति        व्यंजना




अलंकार


 अनुप्रास अलंकार 'समुझाई सौह', 'कैसो किहिं', 'पावैगो पुनि' और 'सुनत मौन' में क्रमश: 'स', 'क', 'प' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


अन्योक्ति अलंकार मधुकर अर्थात् भ्रमर के रूप में उद्धव की तुलना की गई है, जिस कारण अन्योक्ति अलंकार है।





  1. सँदेसौ देवकी सौं कहियौ ।हौं तो धाइ तिहारे सुत की, मया करत ही रहियौ ।। जदपि टेव तुम जानति उनकी, तऊ मोहिं कहि आवै।प्रात होत मेरे लाल लड़ैते, माखन रोटी भावै।। तेल उबटनौ अरु तातो जल, ताहि देखि भजि जाते। जोइ-जोइ माँगत सोइ सोइ देती, क्रम-क्रम करि कै न्हाते।। सूर पथिक सुन मोहिं रैनि-दिन बढ्यौ रहत उर सोच। मेरौ अलक लड़ैतो मोहन हैहै करत संकोच।।



सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 


प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की माता देवकी के पास मथुरा चले जाने के बाद माता यशोदा के स्नेह तथा उनकी पीड़ा का वर्णन किया है।


व्याख्या – यशोदा जी देवकी को एक पथिक के हाथ सन्देश भिजवाते हुए कहती हैं कि मैं तो तुम्हारे पुत्र की धाय माँ (माँ समान पालन-पोषण करने वाली सेविका) हूँ पर वह मुझे मैया कहता रहा है। इसलिए मेरा उसके प्रति वात्सल्य भाव स्वाभाविक है। यद्यपि आप तो उसकी सारी आदतें जानती होंगी, फिर भी मेरा मन आपसे कुछ कहने को उत्कंठित हो रहा है।


मेरे लाड़ले कृष्ण को सुबह होते ही माखन-रोटी खाने की आदत है। उबटन, तेल और गर्म पानी को देखते ही मेरे लाड़ले कृष्ण भाग जाते हैं। उन्हें यह सब पसन्द नहीं है। स्नान के समय वे जो माँगा करते थे, मैं उन्हें दिया करती थी। उन्हें धीरे-धीरे स्नान करने की आदत है। सूरदास जी कहते हैं कि माता यशोदा के हृदय में रात-दिन यही चिन्ता रहती है कि उनका लाड़ला कृष्ण मथुरा में कुछ माँगने में संकोच तो नहीं करता।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने पुत्र वियोगी माता यशोदा का श्री कृष्ण के प्रति अथाह प्रेम का स्वाभाविक रूप व्यक्त किया है।


भाषा          ब्रज


रस            वात्सल्य


शैली          मुक्तक


 गुण           माधुर्य


छन्द          गेय-पद


शब्द-शक्ति।   – व्यंजना


अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'सँदेसौ देवकी', 'मोहिं कहि', 'लाल लड़ैतैं' और 'रैनि-दिन' में क्रमश: 'द', 'ह', 'ल' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'जोइ-जोइ', 'सोइ-सोइ' और 'क्रम-क्रम में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।


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