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Bihari lal ji ka jeevan parichay//कवि बिहारी लाल का जीवन परिचय

Bihari lal ji ka jeevan parichay//कवि बिहारी लाल का जीवन परिचय


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कवि बिहारीलाल का जीवन परिचय - 



कवि बिहारी लाल हिंदी साहित्य के रीति काल के प्रसिद्ध कवि रहे हैं। यह मूलतः श्रृंगार रस के कवि रहे हैं। इन्होंने सौंदर्य ,प्रेम ,श्रृंगार एवं भक्ति से परिपूर्ण काव्य रचना की है। मुगल कालीन युग के कवि होने के कारण इनकी काव्य भाषा ब्रजभाषा रही है। कवि बिहारी लाल ने जयपुर नरेश सवाई राजा जयसिंह के दरबार के कवि के रूप में अनेक कब रचनाएं की। ऐसा कहा जाता है कि राजा जयसिंह अपनी रानी के प्रेम के कारण महल से बाहर नहीं निकलते थे और राज्य कार्य पर कोई ध्यान नहीं देते थे। तब कवि बिहारी ने एक दुआ लिखकर उसके माध्यम से उन्हें पुनः राज कार्य के लिए प्रेरित किया वह दोहा इस प्रकार है - 


" नहिं पराग मधुर मधु , नहिं विकास यहि काल .

अली कली ही सौ बंध्यो, आगे कौन हवाल ॥ "



 जीवन परिचय


बिहारी लाल



जीवन परिचय :एक दृष्टि में



नाम

बिहारी लाल

जन्म

सन् 1603 ई. में।

जन्म स्थान

मध्य प्रदेश के बसुआ (गोविंदपुर गांव, ग्वालियर)

मृत्यु

सन् 1663 ई. में।

पिताजी का नाम

पंडित केशवराय चौबे

शैक्षणिक योग्यता

मध्य प्रदेश के ग्वालियर में (काव्यशास्त्र की शिक्षा)

आश्रय

राजा जय सिंह का दरबार

रचना

बिहारी सतसई

रचना के विषय

श्रंगार, भक्ति, नीतिपरक दोहे

भाषा

ब्रज

शैली

मुक्तक (समास शैली)

उपलब्धि

गागर में सागर भरने की प्रतिभा।



जीवन परिचय- कवि बिहारी जी का जन्म 1603 ई० में ग्वालियर के पास बसुआ (गोविंदपुर गांव) में माना जाता है। उनके पिता का नाम पंडित केशव राय चौबे था। बचपन में ही ये अपने पिता के साथ ग्वालियर से ओरछा नगर आ गए थे। यहीं पर आचार्य केशवदास से इन्होंने काव्यशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की और काव्यशास्त्र में पारंगत हो गए।


ये माथुर चौबे कहे जाते हैं। इनका बचपन बुंदेलखंड में व्यतीत हुआ। युवावस्था में ये अपनी ससुराल मथुरा में जाकर रहने लगे-



"जन्म ग्वालियर जानिए, खंड बुंदेले बाल।


तरुनाई आई सुधर, मथुरा बसि ससुराल।।"



बिहारी जी को अपने जीवन में अन्य कवियों की अपेक्षा बहुत ही कटु अनुभवों से गुजरना पड़ा, फिर भी हिंदी साहित्य को इन्होंने काव्य-रूपी अमूल्य रत्न प्रदान किया है। बिहारी, जयपुर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह के आश्रित कवि माने जाते हैं। कहा जाता है कि जयसिंह नई रानी के प्रेमवश में होकर राज-काज के प्रति अपने दायित्व भूल गए थे, तब बिहारी ने उन्हें एक दोहा लिखकर भेजा,



नहि परागु नहिं मधुर मधु, नहिं बिकासु इहिं काल।


अली कली ही सौं विंध्यौ, आगे कौन हवाल।।


जिससे प्रभावित होकर उन्होंने राज-काज में फिर से रुचि लेना शुरू कर दिया और राज दरबार में आने के पश्चात उन्होंने बिहारी को सम्मानित भी किया। आगरा आने पर बिहारी जी की भेंट रहीम से हुई। 1662 ईस्वी में बिहारी जी ने 'बिहारी सतसई' की रचना की। इसके पश्चात बिहारी जी का मन काव्य रचना से भर गया और ये भगवान की भक्ति में लग गए। 1663 ई० में ये रससिद्ध कवि पंचतत्व में विलीन हो गए।



साहित्यिक परिचय- बिहारी जी ने 700 से अधिक दोहों की रचना की, जोकि विभिन्न विषयों एवं भावों पर आधारित हैं। इन्होंने अपने एक-एक दोहे में गहन भावों को भरकर उत्कृष्ट कोटि की अभिव्यक्ति की है। बिहारी जी ने श्रंगार, भक्ति, नीति, ज्योतिष, गणित, इतिहास तथा आयुर्वेद आदि विषयों पर दोहों की रचना की है। इनके श्रंगार संबंधी दोहे अपनी सफल एवं सशक्त भावाभिव्यक्ति के लिए विशिष्ट समझे जाते हैं। इन दोहों में संयोग एवं वियोग के मर्मस्पर्शी चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। बिहारी जी के दोहों में नायिका, भेद, भाव, विभाव, अनुभाव, रस, अलंकार आदि सभी दृष्टियों से विश्वमयजनक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। कविताओं में श्रंगार रस का अधिकाधिक प्रयोग देखने को मिलता है।



रचनाएं- 'बिहारी सतसई' मुक्तक शैली में रचित बिहारी जी की एकमात्र कृति है, जिसमें 723 दोहे हैं। बिहारी सतसई को 'गागर में सागर' की संज्ञा दी जाती है। वैसे तो बिहारी जी ने रचनाएं बहुत कम लिखी हैं, फिर भी विलक्षण प्रतिभा के कारण इन्हें महाकवि के पद पर प्रतिष्ठित किया गया है।



भाषा-शैली- बिहारी जी ने साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। इनकी भाषा साहित्यिक होने के साथ-साथ मुहावरेदार भी है। इन्होंने अपनी रचनाओं में मुक्तक शैली का प्रयोग किया है। इस शैली के अंतर्गत ही इन्होंने 'समास शैली'  का विलक्षण प्रयोग भी किया है। इस शैली के माध्यम से ही इन्होंने दोहे जैसे छंद को भी सशक्त भावों से भर दिया है।



हिंदी साहित्य में स्थान- बिहारी जी रीतिकाल के अद्वितीय कवि हैं। परिस्थितियों से प्रेरित होकर इन्होंने जिस साहित्य का सृजन किया, वह साहित्य की अमूल्य निधि है। बिहारी के दोहे रस के सागर हैं, कल्पना के इंद्रधनुष है व भाषा के मेघ हैं। ये हिंदी साहित्य की महान विभूति हैं, जिन्होंने अपनी एकमात्र रचना के आधार पर हिंदी साहित्य जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ी है।


कई कवियों ने इनके दोहों पर आधारित अन्य छंदों की रचना की है। इनके दोहे सीधे हृदय पर प्रहार करते हैं। इनके दोहों के विषय में निम्नलिखित उक्ति प्रसिद्ध है-



"सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।


देखन में छोटे लगै, घाव करैं गंभीर।।"



पुस्तकें बिहारी द्वारा रचित-



1.बिहारी सतसई


2.बिहारी के दोहे


3.बिहारीलाल के पच्चीस दोहे



काव्य बिहारीलाल द्वारा रचित



1.माहि सरोवर सौरभ लै


2.है यह आजु बसंत समौ


3.बौरसरी मधुपान छक्यो 


4.नील पर कटि तट


5.जानत नहिं लागि मैं


6.गहि सरोवर सौरभ लै


7.केसरि से बरन सुबर


8.उडि गुलाल घूँघर भई


9.पावस रितु वृन्दावन की


10.रतनारी हो भारी ऑखड़ियाँ


11.हो झालो दे छे रसिया नागर पना


12.मैं अपनौ मनभावन लीनों


13.सौह किये ढरकौहे से नैन


14.बिरहानल दाह दहै पन ताप



बिहारीलाल के काव्य की भाषा शैली



बिहारी की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। इसमें सूरदास की चलती ब्रज भाषा का विकसित रूप मिला है। इसके साथ ही पूर्वी हिंदी, बुंदेलखंडी, उर्दू ,फारसी आदि के शब्द भी उस में आए हैं। कवि बिहारी का शब्द चयन बड़ा सुंदर और सार्थक है। शब्दों का प्रयोग भावो के अनुकूल ही हुआ है। उन्होंने अपनी भाषा में कहीं-कहीं मुहावरों का भी सुंदर प्रयोग किया है।



कवि बिहारी लाल की मृत्यु  



महाकवि बिहारी लाल ने अपनी काव्य रचनाओं से हिंदी साहित्य में अमूल्य योगदान दिया है। उनके द्वारा रचित सतसई काव्य ग्रंथ ने उन्हें साहित्य में अमर कर दिया। महाकवि बिहारी लाल की मृत्यु 1663 ईसवी के लगभग मानी जाती है।



माता पिता - 



कविवर बिहारी जी के पिता का नाम केशवदास था। इनके पिता निम्बार्क -संप्रदाय के संत नरहरी दास के शिष्य थे |तथा इनकी माता के नाम के संबंध में कोई साक्ष्य - प्रमाण प्राप्त नहीं है |



शिक्षा -



कहा जाता है कि केशवराय इनके जन्म के सात - आठ वर्ष बाद ग्वालियर छोड़कर ओरछा चले गए | वही बिहारी ने हिंदी के सुप्रसिद्ध कविआचार्य केशवदास एक आप ग्रंथों के साथ ही संस्कृत और प्राकृत आदि का अध्ययन किया ।आगरा जा कर इन्होंने उर्दू फारसी अध्ययन किया और अब्दुल रहीम खानखाना के संपर्क में आए ।बिहारी जी को अनेक विषयों का ज्ञान था |



गुरु -



बिहारी जी के गुरु स्वामी वल्लभाचार्य जी थे।



काव्य - गुरु 



रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि बिहारी जी के काव्य गुरु आचार्य केशवदास जी थे।



विवाह -



कविवर बिहारी का विवाह मथुरा के किसी ब्राह्मण की कन्या से हुआ था ।इनके कोई संतान न होने कारण इन्होंने अपने भतीजे निरंजन को गोद ले लिया था |




महान कवि बिहारी लाल के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न और उनके उत्तर



कबीर बिहारी का जीवन परिचय लिखिए।


कवि बिहारी जी का जन्म 1603 ई० में ग्वालियर के पास बसुआ (गोविंदपुर गांव) में माना जाता है। उनके पिता का नाम पंडित केशव राय चौबे था। बचपन में ही ये अपने पिता के साथ ग्वालियर से ओरछा नगर आ गए थे। यहीं पर आचार्य केशवदास से इन्होंने काव्यशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की और काव्यशास्त्र में पारंगत हो गए।


ये माथुर चौबे कहे जाते हैं। इनका बचपन बुंदेलखंड में व्यतीत हुआ। युवावस्था में ये अपनी ससुराल मथुरा में जाकर रहने लगे



बिहारी लाल की मृत्यु कब हुई थी ?


बिहारी लाल की मृत्यु 1663 ईस्वी में हुई थी।



बिहारी लाल की भाषा क्या है?


बिहारी लाल की भाषा हिंदी ,भाषा और फारसी है।




बिहारी के काव्य की भाषा लिखिए?


बिहारी की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। इसमें सूरदास की चलती ब्रज भाषा का विकसित रूप मिला है। इसके साथ ही पूर्वी हिंदी, बुंदेलखंडी, उर्दू ,फारसी आदि के शब्द भी उस में आए हैं। कवि बिहारी का शब्द चयन बड़ा सुंदर और सार्थक है। शब्दों का प्रयोग भावो के अनुकूल ही हुआ है। उन्होंने अपनी भाषा में कहीं-कहीं मुहावरों का भी सुंदर प्रयोग किया है।



बिहारी लाल का कवि परिचय लिखें?


कवि बिहारी जी का जन्म 1603 ई० में ग्वालियर के पास बसुआ (गोविंदपुर गांव) में माना जाता है। उनके पिता का नाम पंडित केशव राय चौबे था। बचपन में ही ये अपने पिता के साथ ग्वालियर से ओरछा नगर आ गए थे। यहीं पर आचार्य केशवदास से इन्होंने काव्यशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की और काव्यशास्त्र में पारंगत हो गए।


ये माथुर चौबे कहे जाते हैं। इनका बचपन बुंदेलखंड में व्यतीत हुआ। युवावस्था में ये अपनी ससुराल मथुरा में जाकर रहने लगे।



बिहारी के आश्रय दाता कहां के राजा थे?


कविवर बिहारी जयपुर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह के दरबारी कवि थे। बिहारी हिंदी रीति काल के प्रसिद्ध कवि थे। जयपुर नरेश सवाई जय सिंह अपनी नई रानी के प्रेम में इतने डूबे रहते थे कि वह महल से बाहर भी नहीं निकलते थे और राजकाज की ओर कोई भी ध्यान नहीं देते थे।




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बिहारी लाल पद्यांश रचना भक्ति, नीति के पद्यांशों की संदर्भ व प्रसंग सहित व्याख्या एवं काव्य

हिन्दी कक्षा-10 पद्यांशों की सन्दर्भ व प्रसंग सहित व्याख्या एवं उनका काव्य सौन्दर्य



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  1. मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ । जा तन की झाँई परै, स्यामु हरित-दुति होइ ।।




सन्दर्भ – प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक 'काव्यखण्ड' के 'भक्ति' शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' से लिया गया है। 


प्रसंग – प्रस्तुत दोहे में बिहारी ने राधिकाजी की स्तुति की है। वह उनकी कृपा पाना चाहते हैं और सांसारिक बाधाओं को दूर करना चाहते हैं।


व्याख्या – कवि बिहारी राधिका जी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे चतुर राधिके! तुम मेरी इन संसाररूपी बाधाओं को दूर करो अर्थात् तुम भक्तों के कष्टों का निवारण करने में परम चतुर हो, इसलिए मुझे भी इस संसार के कष्टों से मुक्ति दिलाओ। जिसके तन की परछाई पड़ने से श्रीकृष्ण के शरीर की नीलिमा हरे रंग में परिवर्तित हो जाती है अर्थात् श्रीकृष्ण भी प्रसन्न हो जाते हैं, जिनके शरीर की परछाई पड़ने से हृदय प्रकाशवान हो उठता है। उसके सारे अज्ञान का अन्धकार दूर हो जाता है। ऐसी चतुर राधा मुझे सांसारिक बाधाओं से दूर करें ।


काव्य सौन्दर्य


'बिहारी सतसई' शृंगार रस प्रधान रचना है। अतः शृंगार की अधिष्ठात्री देवी राधिका जी की स्तुति की गई है। 



भाषा          ब्रज



रस          शृंगार एवं भक्ति 


शैली        मुक्तक


छन्द.        दोहा


गुण         माधुर्य, प्रसाद




अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'हरौ, राधा नागरि' में 'र' वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।



श्लेष अलंकार 'हरित दुति' में कई अर्थों की पुष्टि हो रही है। इसलिए यहाँ श्लेष अलंकार है।


  1. सोहत ओढ़े पीतु पटु, स्याम सलौनैं गात। मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु पर्यो प्रभात ।।


सन्दर्भ – प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक 'काव्यखण्ड' के 'भक्ति' शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' से लिया गया है। 



प्रसंग – प्रस्तुत दोहे में पीले वस्त्र पहने हुए श्रीकृष्ण के सौन्दर्य का चित्रण किया गया है।


व्याख्या – बिहारी जी कहते हैं कि श्रीकृष्ण के साँवले-सलोने शरीर पर पीले रंग के वस्त्र ऐसे लग रहे हैं मानो नीलमणि के पर्वत पर सुबह-सुबह सूर्य की पीली किरणें पड़ रही हो अर्थात् श्रीकृष्ण ने जो पीले रंग के वस्त्र अपने शरीर पर धारण किए हैं, वे नीलमणि के पर्वत पर पड़ रही सूर्य की पीली किरणों के समान लग रहे हैं। उनका यह सौन्दर्य अवर्णनीय है।




काव्य सौन्दर्य


श्रीकृष्ण के शारीरिक रूप सौन्दर्य का सादृश्य चित्रण है।



भाषा            ब्रज



गुण            माधुर्य


शैली         मुक्तक


रस           शृंगार और भक्ति


छन्द।           दोहा



अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'पीत पटु', 'स्याम सलौने' और 'परयौ प्रभात' में क्रमश: 'प', 'स' और 'प' वर्ण की पुनरावृत्ति से यहाँ अनुप्रास अलंकार है


उत्प्रेक्षा अलंकार 'मनौ नीलमणि सैल पर' यहाँ नीलमणि पत्थर की तुलना सूर्य की पीली धूप से की गई है, जिस कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है।



  1. अधर धरत हरि कैं परत, ओठ-डीठि-पट-जोति। हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष-रंग होति। 



सन्दर्भ – प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक 'काव्यखण्ड' के 'भक्ति' शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' से लिया गया है। 



प्रसंग – प्रस्तुत दोहे में श्रीकृष्ण द्वारा बाँसुरी के होंठ पर रखने से वह हरे बाँस की बाँसुरी इन्द्रधनुष के रंगों की हो जाती है। इसी का चित्रण यहाँ किया गया है। 



व्याख्या एक सखी राधिका जी से कहती है कि श्रीकृष्ण जी ने अपने अधरों पर बाँसुरी धारण कर रखी है। मुरली को धारण करते ही उनके होंठों की लालिमा, नेत्रों की श्यामता तथा पीताम्बर के पीले रंग की झलक पड़ते ही श्रीकृष्ण के हरे बाँस की बाँसुरी इन्द्रधनुष के रंगों में परिवर्तित हो जाती है अर्थात् लाल, पीला और श्याम रंग मिलने से बाँसुरी सतरंगी शोभा को धारण कर लेती है।


काव्य सौन्दर्य


श्रीकृष्ण के प्रभाव में आने पर एक सामान्य बाँसुरी अनेक रंग धारण कर लेती है।


भाषा          ब्रज


शैली          मुक्तक


गुण            प्रसाद 


छन्द          दोहा


रस         भक्ति



अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'अधर धरत हरि के परत' में 'ध', 'र', 'त', 'ओठ-डीठि-पट जोति' में 'ठ' और 'त', बाँस की बाँसुरी में 'ब' और 'स' वर्ण की आवृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलंकार है। 


उपमा अलंकार पद्यांश की दूसरी पंक्ति में बाँसुरी के रंगों की तुलना इन्द्रधनुष के रंगों से की गई है, जिस कारण उपमा अलंकार है।


यमक अलंकार 'अधर धरत' में 'अधर' शब्द के अनेक अर्थ हैं, इसलिए यहाँ यमक अलंकार है।




  1. या अनुरागी चित्त की, गति समुझे नहिं कोई। 'ज्यों-ज्यों बूड़े स्याम रँग, त्यौं-त्यौं उज्जलु होई ।।




सन्दर्भ – प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक 'काव्यखण्ड' के 'भक्ति' शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' से लिया गया है।


प्रसंग – प्रस्तुत दोहे में श्रीकृष्ण के प्रेम में डूबने से मन व चित्त प्रकाशित हो जाता है। इसी पवित्र प्रेम का चित्रण कवि ने यहाँ किया है।


व्याख्या कवि का कहना है कि श्रीकृष्ण से प्रेम करने वाले मेरे मन की दशा अत्यन्त विचित्र है। इसकी दशा को कोई और समझ नहीं सकता। ऐसे तो श्रीकृष्ण का वर्ण भी श्याम है, परन्तु कृष्ण के प्रेम में मग्न मेरा मन जैसे-जैसे श्याम रंग में मग्न होता है, वैसे-वैसे श्वेत अर्थात् पवित्र हो जाता है।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने स्पष्ट किया है कि श्रीकृष्ण से प्रेम करने वाले श्याम वर्ण की अपेक्षा श्वेत वर्ण में परिवर्तित हो जाते है जो पवित्रता का प्रतीक है।


शैली          मुक्तक


गुण            माधुर्य


भाषा            ब्रज


रस              शान्त


छन्द            दोहा



अलंकार 


पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'ज्यों-ज्यौं' और 'त्यौं-त्यौं' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।





  1. तौ लगु या मन-सदन मैं, हरि आवै किहि बाट। विकट जटे जौ लगु निपट, खुटै न कपट-कपाट ।।



सन्दर्भ – प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक 'काव्यखण्ड' के 'भक्ति' शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' से लिया गया है।


प्रंसग – प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी ने कहा है कि जब तक मन का कपट नहीं समाप्त होगा, तब तक ईश्वर की प्राप्ति सम्भव नहीं है।



व्याख्या – कवि बिहारी जी कहते हैं कि जब तक दृढ़ निश्चय से मन के कपटरूपी दरवाजे हमेशा के लिए खुलेंगे नहीं, तब तक इस मनरूपी घट में भगवान श्रीकृष्ण किस मार्ग से आएँ अर्थात् कहने का अभिप्राय यह है कि जब तक मनुष्य के मन का कपट समाप्त नहीं होगा, तब तक श्रीकृष्ण मन में वास नहीं करेंगे।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने ईश्वर की प्राप्ति हेतु कपटरहित मन को महत्त्वपूर्ण माना है।


भाषा          ब्रज


शैली          मुक्तक


गुण           प्रसाद


रस            भक्ति


छन्द          दोहा




अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'मन-सदन', 'जटे जौ' और 'कपट कपाट' में क्रमश: 'न', 'ज', 'क' और 'प' वर्ण की पुनरावृत्ति से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


रूपक अलंकार 'कपट-कपाट' अर्थात् कपटरूपी किवाड़ का वर्णन किया गया है, जिस कारण रूपक अलंकार है।




  1. जगतु जनायौ जिहि सकलु, सो हरि जान्यौ नाँहि । ज्यौ आँखिनु सबु देखियै, आँखि न देखी जाँहि।। शब्दार्थ जगतु-संसार जनायौ- ज्ञान कराया, जिहिं जिसने सकलु-सम्पूर्ण जान्यौ नाँहिं जाना नहीं।



सन्दर्भ – प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक 'काव्यखण्ड' के 'भक्ति' शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' से लिया गया है।


प्रसंग – प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी भक्त को समझा रहे हैं कि उस परम् सत्य ईश्वर को जान ले, तभी तेरा कल्याण है। इसी सार्वभौमिक सत्ता का यहाँ वर्णन किया गया है।


व्याख्या – कवि बिहारी जी कहते हैं कि तू उस ईश्वर को जान ले, जिसने तुझे इस सम्पूर्ण संसार से अवगत कराया है। अभी तक तूने उस हरि (राम) को नहीं जाना है; यह बात ऐसी प्रतीत हो रही है, जैसे आँखों से हम सब कुछ देख लेते हैं, परन्तु आँखें स्वयं अपने आप को नहीं देख पातीं।



काव्य सौन्दर्य


कवि ने इस सत्य का उद्घाटन किया है कि सम्पूर्ण संसार का ज्ञान कराने वाले ईश्वर को हम नहीं जान पाते हैं। 



भाषा          ब्रज


शैली           मुक्तक


गुण              प्रसाद


छन्द              दोहा


रस।             शान्त




 अलंकार 


 अनुप्रास अलंकार जगतु जनायौ जिहि और सकलु सो' में 'ज'और 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।



  1. जप, माला, छापा, तिलक, सरै न एकौ कामु। मन-काँचे नाचै वृथा, साँचे राँचै रामु।।





सन्दर्भ – प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक 'काव्यखण्ड' के 'भक्ति' शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' से लिया गया है।


प्रसंग – प्रस्तुत दोहे में कविवर बिहारी ने ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में बाह्याडम्बरों को निरर्थक बताया है। इन झूठे दिखावों से ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। उसके लिए तो सच्चे मन की आवश्यकता है।



व्याख्या कवि का कथन है कि बाहरी दिखावा करने से अर्थात् जप करने से, दिखावे के लिए माला गले में धारण करने से, तरह तरह के तिलक लगाने से राम-नाम के छापे वाले वस्त्र पहनने से एक भी काम सिद्ध नहीं हो पाता, इन सबसे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। जब तक तुम्हारा मन ईश्वर की सच्ची भक्ति नहीं करेगा तब तक उस ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। ईश्वर तो तभी प्रसन्न होंगे, जय सच्चे मन से उनकी उपासना की जाएगी। ईश्वर को पाने के लिए दिखावे की आवश्यकता नहीं होती। ईश्वर तो केवल सच्चे मन की भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं।




काव्य सौन्दर्य


कवि ने ईश्वर को पाने के लिए झूठे दिखावों व बाह्याडम्बरों को व्यर्थ बताया है।




भाषा।       साहित्यिक बज 



शैली          मुक्तक


गुण          प्रसाद


छन्द          दोहा


रस          शान्त



अलंकार


अनुप्रास अलंकार रॉच रामु' में 'र' वर्ण की पुनरावृत्ति से यहाँअनुप्रास अलंकार है।



  1.  दुसह दुराज प्रजानु कौं, क्यौं न बढ़े दुःख-दंदु।अधिक अँधेरौ जग करत, मिलि मावस रबि-चंदु।। 




सन्दर्भ – प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक 'काव्यखण्ड' के 'भक्ति' शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' से लिया गया है।


प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में बिहारी जी ने नीतिपरक मत दिया है कि जिस राज्य में दो राजाओं का स्वामित्व होता है, वहाँ प्रजा का दुःख भी दोगुना होता है। 



व्याख्या – जिस राज्य में दो राजाओं का शासन होता है, उस राज्य की प्रजा का दुःख दोगुना क्यों न बढ़ेगा, क्योंकि दो राजाओं के भिन्न-भिन्न मन्तव्य, उनके आदेश, नियमों व नीतियों के बीच प्रजा ऐसे पिसती है जैसे दो पाटों के बीच आटा। जिस प्रकार अमावस्या की तिथि को सूर्य और चन्द्रमा एक ही राशि पर मिलकर संसार में और अधिक अँधेरा कर देते हैं, उसी प्रकार दो राजाओं का एक ही राज्य पर शासन करना, प्रजा के लिए दोहरे दुःख का कारण बन जाता है।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने स्पष्ट किया है कि एक ही राजा के स्वामित्व में प्रजा का सुख निहित है।


भाषा        ब्रज


रस          शान्त


शैली     मुक्तक


छन्द      दोहा


गुण      प्रसाद 





अलंकार



अनुप्रास अलंकार दुसह दुराज', 'अधिक अँधेरौ' और 'मिलि मावस' में क्रमश: 'द', 'अ', 'ध' और 'म' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


श्लेष अलंकार 'दुसह' और 'दंदु' में अनेक अर्थ व्याप्त हैं, इसलिए यहाँ श्लेष अलंकार है।


दृष्टान्त अलंकार रबि चंदु' में उपमेय और उपमान का बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव प्रकट हुआ है। इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है।




  1. बसै बुराई जासु तन, ताही कौ सनमानु। भलौ-भलौ कहि छोड़िये, खोटै ग्रह जपु दानु ।।



सन्दर्भ – प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक 'काव्यखण्ड' के 'भक्ति' शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' से लिया गया है।



प्रसंग – प्रस्तुत दोहे में इस सत्य को उद्घाटित किया गया है कि संसार में दुष्ट व्यक्ति की बहुत आव भगत (आदर) होती है, जिससे उसके अनिष्ट कार्यों से बचा जा सके।


व्याख्या – कवि बिहारी कहते हैं कि जिस मनुष्य के शरीर में बुराई का वास होता है, उसी का सम्मान किया जाता है। संसार की यही नीति है कि जो व्यक्ति दुष्ट एवं बुरा है, जगत में उसी का सम्मान किया जाता है, जब अच्छा समय होता है तोभला-भला कहकर छोड़ दिया जाता है और जब बुरा समय आता है, तो मनुष्य उसके लिए दान व जाप करने लगता है अर्थात् अच्छे समय में मनुष्य ईश्वर को भूल जाता है और बुरा समय आने पर वह ईश्वर की स्तुति करने लगता है।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने मनुष्य की स्वार्थपरक प्रवृत्ति पर व्यंग्य किया है।


भाषा         ब्रज


रस           शान्त


शैली       मुक्तक 


छन्द         दोहा


 गुण         प्रसाद




अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'बसै बुराई' में 'ब' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'भलौ-भलो' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। 


श्लेष अलंकार 'ग्रह' में अनेक अर्थों का भाव प्रकट होने से यहाँ श्लेष अलंकार है।


विरोधाभास अलंकार इस पद्यांश में दुष्ट व्यक्ति के प्रति विरोध न होने पर भी विरोध का आभास है, इसलिए यहाँ विरोधाभास अलंकार है।




  1. नर की अरु नल-नीर की, गति एकै करि जोई।जेतौ नीचे हवै चलै, तेतौ ऊँचौ होई ।।




सन्दर्भ – प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक 'काव्यखण्ड' के 'भक्ति' शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' से लिया गया है।


प्रसंग – प्रस्तुत दोहे में मनुष्य की विनम्रमा की महत्ता का वर्णन किया गया है।



 व्याख्या– कवि बिहारी कहते हैं कि मनुष्य की स्थिति बिलकुल नल के पानी के समान है। जिस प्रकार नल का जल जितना नीचे की ओर चलता है, उसमें उतना ही ऊँचा पानी चढ़ता है अर्थात् पानी के स्तर में उतनी ही बढ़ोतरी होती है। उसी प्रकार व्यक्ति जितना नम्रतापूर्वक आचरण करता है, उतनी ही उसकी श्रेष्ठता बढ़ती है अर्थात् उसका सम्मान संसार में दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने व्यक्ति को नम्र व धैर्यवान बनने की प्रेरणा दी है।


भाषा       ब्रज

शैली     मुक्तक


गुण        प्रसाद


रस        शान्त


छन्द        दोहा




अलंकार


अनुप्रास अलंकार नल-नीर' में 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


उपमा अलंकार 'नल-नीर' की उपमा मनुष्य से की गई है, इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।


श्लेष अलंकार यहाँ 'नीर' शब्द के अनेक अर्थ हैं, इसलिए यहाँ श्लेष अलंकार है।


  1.  बढ़त-बढ़त संपत्ति सलिलु, मन-सरोजु बढ़ि जाइ। घटत-घटत सु न फिरि घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ ।



सन्दर्भ – प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक 'काव्यखण्ड' के 'भक्ति' शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' से लिया गया है।


प्रसंग – प्रस्तुत दोहे में कविवर बिहारी ने बताया है कि सम्पत्ति बढ़ने पर मनुष्य के मन की अभिलाषाएँ भी बढ़ती जाती हैं। सम्पत्ति का मन पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसी बात को कवि ने अत्यन्त सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है।


व्याख्या – कवि बिहारी कहते हैं कि जब मनुष्य का सम्पत्तिरूपी जल बढ़ता है, तो उसका मनरूपी कमल भी बढ़ जाता है अर्थात् जैसे-जैसे मनुष्य के पास धन बढ़ने लगता है, वैसे-वैसे ही उसकी इच्छाएँ भी बढ़ने लगती है, परन्तु जब सम्पत्तिरूपीजल घटने लगता है, तब मनुष्य का मनरूपी कमल नीचे नहीं आता, भले ही वह जड़ सहित नष्ट क्यों न हो जाए अर्थात् धन चले जाने पर भी उसकी इच्छाएँ कम नहीं होती; जैसे जल के बढ़ने पर कमल नाल बढ़ जाती है, लेकिन जल घटने पर वह नहीं घटती, चाहे जड़ सहित मुरझा ही क्यों न जाए।


काव्य सौन्दर्य


कवि ने मानव मन की इच्छाओं की अति होने का स्वाभाविक वर्णन किया है।


भाषा        ब्रज


रस           शान्त


शैली         मुक्तक 


छन्द          दोहा


गुण          प्रसाद




अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'संपत्ति-सलिलु' और 'समूल कुम्हिलाइ' में 'स' और 'ल' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'बदत-बढ़त' और 'घटत-घटत' में एक शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।


रूपक अलंकार संपत्ति-सलिलु' और 'मन-सरोजु में उपमेय तथा उपमान में भेद नहीं है। इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।




  1. जौ चाहत चटक न घटे, मैलौ होइ न मित्त ।रज राजसु न छुवाइ तौ, नेह-चीकने चित्त



सन्दर्भ – प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक 'काव्यखण्ड' के 'भक्ति' शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' से लिया गया है।




प्रसंग – प्रस्तुत दोहे में कविवर बिहारी ने व्यक्ति को अपने मन को शुद्ध करने की शिक्षा दी है। उसे गर्व, क्रोध आदि रजोगुणी वृत्तियों से स्वयं को दूर रखना होगा। 



व्याख्या – कवि का कथन है कि हे मित्र! यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारे मन की उज्ज्वलता और कान्ति कभी समाप्त न हो, तो प्रेमरूपी तेल से चिकने मन को क्रोध, गर्व, ईर्ष्या, द्वेष आदि रजोगुणी धूल से स्पर्श मत होने दो। जिस प्रकार तेल लगी हुई वस्तु पर यदि धूल के कण चिपक जाएँ तो वह कान्तिहीन हो जाती है अर्थात् गन्दी हो जाती है। उसी प्रकार यदि मनुष्य के मन में क्रोध आदि रजोगुणी वृत्तियाँ जाएँ, तो मन मलिन हो जाता है। यदि मनुष्य अपने चित्त को शुद्ध रखना चाहता है, तो उसे इन तामसिक और रजोगुणी वृत्तियों से दूर रहना होगा तथा उन्हें मन में आने से रोकना होगा।


काव्य सौन्दर्य


यहाँ कवि ने चित्त को निर्मल बनाए रखने के लिए रजोगुणी वृत्तियों से दूर रहने का परामर्श दिया है।


भाषा        ब्रज


रस         शान्त


शैली         मुक्तक


गुण          प्रसाद


छन्द     दोहा




अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'चाहत चटक' और 'रज राजसु' में 'च', 'र' और 'ज' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है। 


रूपक अलंकार 'नेह-चीकने में प्रेम रूपी तेल का वर्णन किया गया है। इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।


श्लेष अलंकार इस पद्यांश में 'चटक' शब्द के अनेक अर्थ हैं। इसलिए यहाँ श्लेष अलंकार है।



  1. बुरौ बुराई जौ तजै, तो चितु खरौ डरातु। ज्यो निकलंकु मयंकु लखि, गनै लोग उतपातु।। स्वारथ सुकृतु न श्रम-वृथा, देखि बिहंग बिचारि बाजि पराएँ पानि परि, तूं पच्छीनु न मारि।।



सन्दर्भ – प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक 'काव्यखण्ड' के 'भक्ति' शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' से लिया गया है।




प्रसंग – प्रथम दोहे में बिहारी जी ने बताया है कि भले ही दुष्ट व्यक्ति अपनी दुष्टता त्याग दे, परन्तु फिर भी लोगों में उसके प्रति सन्देह बना रहता है। द्वितीय दोहे में कवि बिहारी ने अपने आश्रयदाता राजा जयसिंह को औरंगजेब की बातों में आकर अन्य हिन्दू राजाओं पर आक्रमण न करने के लिए सचेत किया है।



व्याख्या – अगर दुष्ट व्यक्ति अपनी बुराइयों को त्याग देता है, तब भी लोगों के मन में उसके प्रति सन्देह व्याप्त रहता है अर्थात् उनके मन में शंका बनी रहती है। जैसे निष्कलंक चन्द्रमा को देखकर किसी अपशकुन होने की सम्भावना का आभास होता है।


लोगों का मानना है कि निष्कलंक चन्द्रमा हमेशा धरती पर भूचाल ही लाता है, इसलिए दुष्ट व्यक्ति के प्रति भी यही धारणा बनी रहती है। जिस प्रकार चन्द्रमा का निष्कलंक होना असम्भव है, उसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति की दुष्टता छोड़ना असम्भव है।


कवि बिहारीलाल जी ने राजा जयसिंह को बाज की भाँति दुर्व्यवहार न करने की प्रेरणा देते हुए कहा है कि हे (राजा जयसिंह रूपी) बाज! इन छोटे पक्षियों (अपने

साथी) अर्थात् छोटे राजाओं को मारने से तेरा क्या स्वार्थ सिद्ध होता है अर्थात् क्या लाभ होगा? न तो ये सत्कर्म है और न ही तेरे द्वारा किया श्रम (काम) सार्थक है। अत: हे बाज! तू भली-भाँति पहले विचार-विमर्श कर, उसके बाद कोई काम कर। इस तरह दूसरों के बहकावे में आकर अपने सह-साथियों (पक्षियों) का संहार न कर।


तू औरंगजेब के कहने पर अपने पक्ष के हिन्दू राजाओं पर आक्रमण करके उनका संहार मत कर, क्योंकि तेरे परिश्रम का फल तुझे न मिलकर औरंगजेब को प्राप्त होता है।


काव्य सौन्दर्य


भाषा       ब्रज


रस           शान्त


शैली        मुक्तक


 छन्द     दोहा


गुण      प्रसाद एवं ओज



अलंकार


'बुरौ बुराई', 'निकलंकु मयंकु', बिहंग बिचारि' और 'पराएँ पानि परि' में अनुप्रास अलंकार, प्रथम पद्यांश में दृष्टांत अलंकार तथा 'बिहंग' शब्द अप्रस्तुत विधान होने के कारण यहाँ अन्योक्ति अलंकार है।



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