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कक्षा 10वी हिन्दी गद्य अध्याय 5 ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से लेखक रामधारी सिंह दिनकर//गद्यांशों के रेखांकित अंशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या एवं प्रश्नोत्तर

 पाठ का नाम ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से लेखक रामधारी सिंह दिनकर

गद्यांशों के रेखांकित अंशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या एवं प्रश्नोत्तर

कक्षा 10वी हिन्दी गद्य अध्याय 5 ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से लेखक रामधारी सिंह दिनकर



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  1. ईर्ष्या का यही अनोखा वरदान है, जिस मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या घर बना लेती है, वह उन चीजों से आनन्द नहीं उठाता, जो उसके पास मौजूद हैं, बल्कि उन वस्तुओं से दुःख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं। वह अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है और इस तुलना में अपने पक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते रहते हैं। दंश के इस दाह को भोगना कोई अच्छी बात नहीं है। मगर ईर्ष्यालु मनुष्य करे भी तो क्या? आदत से लाचार होकर उसे यह वेदना भोगनी पड़ती है।


प्रश्न


(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।


(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।


(ग) (i) ईर्ष्या का अनोखा वरदान क्या है?


अथवा लेखक ने ईर्ष्या को अनोखा वरदान क्यों कहा है? 


अथवा ईर्ष्यालु व्यक्ति को ईर्ष्या से क्या कष्ट मिलता है?


(ii) ईर्ष्या की किन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है?


उत्तर


(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।


(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या


लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' कहते हैं कि जो व्यक्ति ईर्ष्यालु प्रवृत्ति के होते हैं, उन्हें ईर्ष्या एक अद्भुत एवं अनोखा वरदान देती है। यह वरदान है बिना दुःख के दुःख भोगने का। जब व्यक्ति की के साथी ईर्ष्या बन जाती है या उसके हृदय में बस जाती है, तब वह व्यक्ति सदैव दुःख का अनुभव करता है। उसके दुःखी अनुभव करने के पीछे कोई कारण नहीं होता है। वह अकारण ही कष्ट भोगता है अर्थात् जिस व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में अन्य व्यक्ति की प्रगति और उन्नति को देख ईर्ष्या भाव जाग्रत हो उठता है, वह जीवनभर सुख प्राप्त करने में असमर्थ हो जाता है। वह स्वयं के समीप विद्यमान असंख्य सुख-साधनों के भोग के पश्चात् भी आनन्दित महसूस नहीं कर पाता है, जिसके पीछे का कारण यह है कि वह दूसरों की वस्तुओं को देखकर ज्वलनशील प्रवृत्ति का बन जाता है।


लेखक ईर्ष्या और उसके स्वभाव के विषय में कहता है कि इस डंक से उत्पन्न कष्ट और पीड़ा को सहना उचित नहीं हैं। ईर्ष्या की आग में जलना बुरा होता है। ईर्ष्या करने वाला अपनी इस आदत को आसानी से छोड़ नहीं पाता है। दूसरे की वस्तुएँ देखकर ईर्ष्या करना उसकी आदत बन जाती है। ईर्ष्या से व्यक्ति को सुख तो मिलता नहीं, अपितु उसे पीड़ा ही सहनी पड़ती है, व्यक्ति अपनी ईर्ष्या करने की आदत से यह पीड़ा झेलने को विवश होता है तथा व्यक्ति अपने पास सब कुछ होते हुए भी कष्ट को सहने तथा वेदना (दुःख) को भोगने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता।


(ग) (i) ईर्ष्या का अनोखा वरदान है-दुःख न होते हुए भी दुःख की पीड़ा भोगना। इसे अनोखा वरदान इसलिए कहा गया है, क्योंकि व्यक्ति के पास जो भी वस्तुएँ हैं, उनका आनन्द उठाने के बजाय वह उन वस्तुओं से दुःखी होता है, जो उसके पास नहीं हैं। वह दूसरों की वस्तुएँ देखकर ईर्ष्या करता है और दुःखी होता है।


 (ii) ईर्ष्या की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख प्रस्तुत गद्यांश में किया गया है


() ईर्ष्या के कारण मनुष्य अपने पास मौजूद चीजों का आनन्द नहीं उठा पाता और दुःख उठाता है।


(ब) ईर्ष्यालु मनुष्य अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है


  1. एक उपवन को पाकर भगवान को धन्यवाद देते हुए उसका आनन्द नहीं लेता और बराबर इस चिन्ता में निमग्न रहना कि इससे भी बड़ा उपवन क्यों नहीं मिला, यह एक ऐसा दोष है, जिससे ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र भी भयंकर हो उठता है। अपने अभाव पर दिन-रात सोचते सोचते वह सृष्टि की प्रक्रिया को भूलकर विनाश में लग जाता है और अपनी उन्नति के लिए उद्यम करना छोड़कर वह दूसरों को हानि पहुँचाने को ही अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य समझने लगता है।


प्रश्न


(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।


(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए। 


(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र कब भयंकर हो उठता है?


अथवा

 लेखक ने ईर्ष्यालु व्यक्ति के चरित्र के भयंकर हो उठने का क्या कारण बताया है?


(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति किस बात को अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य समझता है?


उत्तर


(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।



(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या


. लेखक ईर्ष्या से मुक्ति का साधन बताते हुए कहता है कि ईश्वर ने जो वस्तुएं छोटी या बड़ी, कम या ज्यादा, सुन्दर या कुरूप, चाहे जिस रूप में भी प्रदान की हैं, उनके लिए हमें ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए और उपलब्ध वस्तुओं से जीवन को आनन्दमय बनाना चाहिए, परन्तु इसके विपरीत यदि हम सारा समय इसी चिन्ता में व्यर्थ करेंगे कि अन्य व्यक्तियों के पास जो सुख-सुविधा के साधन मुझसे अधिक हैं, वे मेरे पास क्यों नहीं है ऐसा सोचते रहने पर ईर्ष्या बढ़ती जाती है और अन्दर-ही-अन्दर ज्वलनशीलता पैदा होती जाती है। इस कारण ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र भयंकर हो उठता है। लेखक आगे कहता है कि जय-पराजय, उत्थान-पतन, जीवन-मृत्यु ये सभी ईश्वर के अधीन हैं। हमें इसको प्राप्त करने के लिए दिन-रात चिन्तामग्न रहकर अपने जीवन को कष्टों से युक्त नहीं बनाना चाहिए।


• मनुष्य दूसरे सम्पन्न व्यक्तियों से अपनी तुलना करते रहने पर तथा अपने अभावों पर दिन-रात चिन्तित रहने के कारण सृष्टि की रचना-प्रक्रिया को भूलकर अपना सम्पूर्ण समय ईर्ष्या में व्यर्थ कर देता है। वह कार्य करना छोड़ देता है। वह इस सोच में लगा रहता है कि मैं अन्य सम्पन्न व्यक्ति को किस प्रकार हानि पहुँचा सकता हूँ। इसी कार्य को वह अपने जीवन का उच्चतम व उत्तम कर्त्तव्य समझने लगता है। लेखक कहता है कि ऐसी विचारधारा का जन्म उन व्यक्तियों में होता है, जो असन्तोषी स्वभाव के होते हैं, उनमें ईर्ष्या की भावना अधिक पाई जाती है।


(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र तब भयंकर हो उठता है, जब अपने सुख के साधनों को यह कमतर मान बैठता है और दूसरों के साधनों को बेहतर मान कर उन्हें भी अपना न होने की सोच में जलने लगता है। वह सोचने लगता है कि भगवान ने हमें और अधिक क्यों नहीं दिया।


(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति ईर्ष्या में जलते हुए अपनी सृजनात्मकता खो बैठता है। वह अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी उन्नति के लिए दूसरों को नीचा दिखाने के लिए अधिक करता है। वह विनाश के कृत्य करता है और उसे ही अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य समझने लगता है।



  1. ईर्ष्या की बड़ी बेटी का नाम निन्दा है, जो व्यक्ति ईर्ष्यालु होता है, वही बुरे " किस्म का निन्दक भी होता है। दूसरों की निन्दा वह इसलिए करता है कि इस प्रकार दूसरे लोग जनता अथवा मित्रों की आँखों से गिर जाएँगे और जो स्थान रिक्त होगा, उस पर मैं अनायास ही बैठा दिया जाऊँगा।


प्रश्न


(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए। 


(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।


 (ग) ईर्ष्यालु और निन्दक का क्या सम्बन्ध है?


(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की निन्दा क्यों करता है?


उत्तर


(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।



(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक कहता है कि ईर्ष्या की बड़ी बेटी का नाम निन्दा है अर्थात् जिस व्यक्ति में ईर्ष्या करने का भाव उत्पन्न हो जाता है, उस व्यक्ति में निन्दा करने की आदत अपने आप पड़ जाती है। ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की बहुत निन्दा करता है। इस निन्दा में भी उसे एक आनन्दानुभूति होती है। वह जिस व्यक्ति की निन्दा करता है, उसके बारे में चाहता है कि सभी उसकी निन्दा करें। वह दूसरों की निन्दा करके समाज की दृष्टि में उस व्यक्ति को गिराना चाहता है, जिसकी वह निन्दा कर रहा है। वह सोचता है कि ऐसा करने से मित्रों और परिचितों की आँखों से वह गिर जाएगा और इस प्रकार उसके रिक्त हुए स्थान स्वयं को स्थापित कर लेगा अर्थात् दूसरों की दृष्टि में प्रशंसा का पात्र बन जाएगा। इस प्रकार वह अपनी उन्नति के चक्कर में दूसरों को गिराने का सतत प्रयास करता रहता है।


(ग) ईर्ष्यालु और निन्दक का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है, जो व्यक्ति किसी से जितनी अधिक ईर्ष्या करता है, वह उतनी ही अधिक उसकी निन्दा भी करता है अर्थात् वही निन्दक होता है, जो स्वभाव से ईर्ष्यालु होता है।


(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की निन्दा इसलिए करता है, क्योंकि वह (ईर्ष्यालु) यह मानने की भूल कर बैठता है कि निन्दा करने से वह व्यक्ति अपने मित्रों और परिचितों की दृष्टि में गिर जाएगा, जिसकी वह निन्दा कर रहा है। इस प्रकार उस व्यक्ति के स्थान को वह स्वयं ले लेगा और वह सम्मानित बन जाएगा।




  1. मगर ऐसा न आज तक हुआ है और न होगा। दूसरों को गिराने की कोशिश तो अपने को बढ़ाने की कोशिश नहीं कहीं जा सकती। एक बात और है कि संसार में कोई भी मनुष्य निन्दा से नहीं गिरता। उसके पतन का कारण सद्गुणों का ह्रास होता है। इसी प्रकार कोई भी मनुष्य दूसरों की निन्दा करने से अपनी उन्नति नहीं कर सकता। उन्नति तो उसकी तभी होगी, जब वह अपने चरित्र को निर्मल बनाए तथा अपने गुणों का विकास करे।




प्रश्न


(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।


(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए। 


(ग) ऐसी कौन-सी बात है, जो न आज तक हुई है और न होगी?


(घ) मनुष्य के पतन का क्या कारण होता है? 


(ङ) मनुष्य की उन्नति कैसे हो सकती है?


उत्तर


(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।




(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक कहता है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति हमेशा दूसरे व्यक्तियों की निन्दा करके उन्हें नीचा दिखाने का प्रयास करता है और स्वयं को उसके स्थान पर स्थापित करना चाहता है, परन्तु आज तक ऐसा न हुआ है और न भविष्य में ऐसा होगा। ऐसा न होने के पीछे के कारण को बताते हुए लेखक कहता है कि जो व्यक्ति संसार में ऊंचा उठना चाहता है, वह अपने सुकमों से ही ऊँचा उठ सकता है। दूसरों की निन्दा करके या दूसरों के प्रति ईर्ष्या भाव रखकर कभी कोई श्रेष्ठ व्यक्ति नहीं बन सकता। यदि किसी व्यक्ति का पतन भी होता है तो उसके पीछे निन्दा को दोष दिया जाना भी उचित नहीं है, जबकि उसके पतन के पीछे का कारण उस व्यक्ति के अच्छे गुणों का नष्ट हो जाना होता है, इसलिए लेखक कहता है किकिसी भी व्यक्ति की उन्नति के लिए आवश्यक बात यह है कि मनुष्य निन्दा करना छोड़कर अपने चरित्र को स्वच्छ एवं साफ बनाए तथा अपने अतिरिक्त गुणों का विकास करे। ऐसा करने में सफल होने वाले व्यक्ति की उन्नति सुनिश्चित होती है तथा उसकी उन्नति में न तो निन्दा, न ईर्ष्या और न ही किसी अन्य प्रकार के विकार बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।


(ग) दूसरों को नीचा दिखाकर अपने को ऊँचा बनाने और समाज में सम्मानित स्थान पाने की बात न आज तक हुई है और न ही भविष्य में होगी। अपनी उन्नति के लिए सद्गुणों का विकास आवश्यक है।


(घ) मनुष्य के पतन का कारण उसके सद्गुणों का ह्रास होता है, क्योंकि दूसरों की निन्दा करके स्वयं की कभी भी उन्नति नहीं की जा सकती। 


(ङ) मनुष्य की उन्नति तभी हो सकती है जब मनुष्य निन्दा करना छोड़कर अपने चरित्र को स्वच्छ एवं साफ बनाए तथा अपने अतिरिक्त गुणों का विकास करे।






  1. ईर्ष्या का काम जलाना है, मगर सबसे पहले वह उसी को जलाती है, जिसके हृदय में उसका जन्म होता है। आप भी ऐसे बहुत से लोगों को जानते होंगे, जो ईर्ष्या और द्वेष की साकार मूर्ति हैं और जो बराबर इस फिक्र में लगे रहते हैं कि कहाँ सुनने वाला मिले और अपने दिल का गुबार निकालने का मौका मिले। श्रोता मिलतेही उनका ग्रामोफोन बजने लगता है और वे बड़ी ही होशियारी के साथ एक-एक काण्ड इस ढंग से सुनाते हैं, मानो विश्व कल्याण को छोड़कर उनका और कोई ध्येयनहीं हो। अगर ज़रा उनके अपने इतिहास को देखिए और समझने की कोशिश कीजिए कि जब से उन्होंने इस सुकर्म का आरम्भ किया है, तब वे अपने क्षेत्र मेंआगे बढ़े हैं या पीछे हटे हैं। यह भी कि वे निन्दा करने में समय व शक्ति का अपव्यय नहीं करते तो आज इनका स्थान कहाँ होता।




प्रश्न


(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।


(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए। (ग) उपरोक्त गद्यांश में ईर्ष्यालु व्यक्ति की मनोदशा कैसी बताई गई है?


(घ) ईर्ष्या का क्या कार्य है? वह सबसे पहले किसे जलाती है?


उत्तर


(क)सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।



(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या ईर्ष्यालु व्यक्ति के स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए लेखक कहता है कि जिस व्यक्ति के मन में ईर्ष्या का भाव उत्पन्न होता है, सबसे पहले ईर्ष्या उसी को जलाती है। ईर्ष्या से उत्पन्न दुःख सबसे पहले उसी को भुगतना पड़ता है। यह ईर्ष्या का काम है। ऐसे लोग अपने दुःख को सुनाने के लिए दूसरों को खोजते रहते हैं। ईर्ष्यालु व्यक्ति हर जगह सरलता से मिल जाते हैं। वे ईर्ष्या की जीती-जागती मूर्ति होते हैं।


(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति इस मनोदशा में रहता है कि कब उसके दुःखो को सुनने वाला कोई मिले और वह अपना दुःख-पुराण बाँचना शुरू कर दे। सुनने वाला मिलते ही ईर्ष्यालु बड़ी होशियारी से दूसरों की निन्दा की एक-एक बात बढ़ा-चढ़ाकर इस प्रकार बताता है मानो संसार के कल्याण का सर्वश्रेष्ठ कार्य वही है। 


(घ) ईर्ष्या का कार्य है-जलाना। वह सबसे पहले उसी व्यक्ति को दुःख पहुँचाती और जलाती है, जिसके हृदय में उसका जन्म होता है।




  1. चिन्ता को लोग चिता कहते हैं, जिसे किसी प्रचण्ड चिन्ता ने पकड़ लिया है, उस बेचारे की ज़िन्दगी ही खराब हो जाती है, किन्तु ईर्ष्या शायद चिन्ता से भी बदतर चीज़ है, क्योंकि वह मनुष्य के मौलिक गुणों को ही कुण्ठित बना डालती है। मृत्यु शायद फिर भी श्रेष्ठ है, बनिस्वत इसके कि हमें अपने गुणों को कुण्ठित बनाकर जीना पड़े। चिन्ता-दग्ध व्यक्ति समाज की दया का पात्र है, किन्तु ईर्ष्या से जला-भुना आदमी जहर की एक चलती-फिरती गठरी के समान है, जो हर जगह वायु को दूषित करती फिरती है।


प्रश्न


(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।


(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।


(ग) चिन्ता को लोग चिता क्यों कहते हैं?


(घ) ईर्ष्या चिन्ता से भी हानिकारक चीज़ क्यों है?


 (ङ) ईर्ष्यालु और चिन्ताग्रस्त व्यक्ति में क्या अन्तर है?




उत्तर


(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।


(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या


लेखक चिन्ता की तुलना चिता से करते हुए कहता है कि चिन्ता व्यक्ति को उसी प्रकार जलाती है, जैसे चिता। चिता मृत शरीर को जलाती है, परन्तु चिन्ता जीवित व्यक्ति को धीरे-धीरे जलाती है, जिस व्यक्ति को चिन्ता ने जकड़ लिया, उसका जीवन कष्टदायक हो जाता है। व्यक्ति का जीवन दुःखमय बन जाता है, क्योंकि वह हर समय चिन्ता में घुलता रहता है।

लेखक कहता है कि मृत्यु को फिर भी श्रेष्ठ कहा जा सकता है। ईर्ष्या व्यक्ति के सद्गुणों का नाश कर देती है, जिस व्यक्ति के सद्गुण नष्ट हो गए हों उसके जीने से अच्छा है मर जाना। सद्गुणों के बिना मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। व्यक्ति के पास सारे सुख-साधन हों और वह ईर्ष्या के कारण उनसे लाभान्वित न हो सके ऐसे व्यक्ति पर समाज दया नहीं करता है। हाँ चिन्ता से ग्रस्त व्यक्ति पर समाज ज़रूर दया करता है, क्योंकि वह समाज का अहित नहीं करता है। उसके विचार और कार्य से दूसरों का अहित नहीं होता है। इसके विपरीत ईर्ष्यालु व्यक्ति ज़हर की पोटली के समान होता है, जिसके विचारों और कार्यों से समाज का वातावरण दूषित होता जाता है।


(ग) चिन्ता को लोग चिता इसलिए कहते हैं, क्योंकि चिता व्यक्ति के मृत शरीर को जलाती है और चिन्ता भी व्यक्ति को जलाने का ही कार्य करती है। वह व्यक्ति के जीवित शरीर अर्थात् जीवन को तिल-तिल कर जलाती है। अतः चिन्ता, चिता से भयंकर है। चिन्ता किसी व्यक्ति को चिता से भी अधिक हानि पहुँचाती है।


(घ) ईर्ष्या चिन्ता से भी हानिकारक चीज़ है, क्योंकि ईर्ष्या व्यक्ति के सद्गुणों का नाश कर देती है। जिस व्यक्ति के सद्गुण नष्ट हो जाएँ उसे जीने का कोई लाभ नहीं है। सद्गुणों के बिना मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। 


(ङ) चिन्ताग्रस्त व्यक्ति समाज में दया का पात्र होता है, क्योंकि वह समाज का अहित नहीं करता, परन्तु ईर्ष्यालु आदमी जहाँ भी जाता है, वहाँ के वातावरण को दूषित कर देता है।


  1. ईर्ष्या मनुष्य का चारित्रिक दोष ही नहीं है, प्रत्युत इससे मनुष्य के आनन्द में भी बाधा पड़ती है, जब भी मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या का उदय होता है, सामने का सुख उसे मद्धिम-सा दिखने लगता है। पक्षियों के गीत में जादू नहीं रह जाता और फूल तो ऐसे हो जाते हैं, मानो वह देखने के योग्य ही न हों। आप कहेंगे कि निन्दा के बाण से अपने प्रतिद्वन्द्रियों को बेधकर हँसने में एक आनन्द है और यह आनन्द ईर्ष्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार है। मगर यह हँसी मनुष्य की नहीं राक्षस की होती है और यह आनन्द भी दैत्यों का होता है।


प्रश्न


(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।


(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।


 (ग) ईर्ष्यालु की मनोदशा कैसी होती है?


(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार क्या है?




उत्तर


(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।


(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – ईर्ष्या के स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए लेखक रामधारी सिंह कहते हैं कि ईर्ष्या मनुष्य के चरित्र का दोष नहीं है। यह भाव व्यक्ति के आनन्दमय क्षणों में भी बाधा उत्पन्न करता है। जिस व्यक्ति के हृदय में ईर्ष्या का भाव जाग्रत हो जाता है, उसे अपना सुख भी दुःख-सा प्रतीत होने लगता है। वह सुखद स्थिति में होते हुए भी सुख से वंचित रहता है। सुख के साधनों से सम्पन्न होने के बाद भी उसे सुख की अनुभूति नहीं होती। पक्षियों के कलरव अथवा उनके मधुर स्वर में उसे कोई आकर्षण नहीं दिखता। उसे सुन्दर और खिले हुए फूलों से भी ईर्ष्या होने लगती है और उसमें कोई सुन्दरता का अनुभव नहीं होता अर्थात् प्राकृतिक सौन्दर्य भी उसे सुख व आनन्द प्रदान नहीं करता। लेखक आगे कहता है कि निन्दा करने वाला प्रायः अपने वचनों के बाणों से अपने प्रतिद्वन्द्वी को घायल करके आनन्द और सुख का अनुभव करता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति समझता है कि उसने निन्दा करके अपने प्रतिद्वन्द्वी को हीन दिखा दिया है और अपना स्थान दूसरों की दृष्टि में ऊँचा बना लिया है, इसीलिए वह खुश होता है और इसी खुशी को प्राप्त करना उसका सबसे बड़ा पुरस्कार होता है। वास्तव में, ईर्ष्यालु व्यक्ति की यह हँसी और यह क्रूर आनन्द उसमें छिपे हुए राक्षस की हँसी और आनन्द है अर्थात् यह उसके राक्षसी स्वभाव को प्रकट करता है।


(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों के सुख के साधनों का रोना रोता रहता है कि उसके ये साधन अपने क्यों न हुए। वह ईर्ष्या की आग में जलता रहता है और उसे अपने सामने के सुख में कोई आनन्द नहीं मिल पाता है। वह ऐसी मनोदशा में जीता है कि उसे पक्षियों के गीत और फूल भी आकर्षित नहीं कर पाते हैं।


 (घ) ईर्ष्यालु व्यक्तियों का सबसे बड़ा पुरस्कार है-अपनी ईर्ष्या और निन्दा के कुछ वाक्यों से किसी को दुःख पहुँचाकर हँसना और आनन्द उठानाअर्थात् दूसरों को दुःखी करके आनन्दित होना ईर्ष्यालु का सबसे बड़ा पुरस्कार है। 





  1. ईर्ष्या का सम्बन्ध प्रतिद्वन्द्विता से होता है, क्योंकि भिखमंगा करोड़पति से ईर्ष्या नहीं करता। यह एक ऐसी बात है, जो ईर्ष्या के पक्ष में भी पड़ सकती है, क्योंकि प्रतिद्वन्द्विता से मनुष्य का विकास होता है, किन्तु अगर आप संसारव्यापी सुयश चाहते हैं, तो आप रसेल के मतानुसार शायद नेपोलियन से स्पर्द्धा करेंगे, मगर याद रखिए कि नेपोलियन भी सीजर से स्पर्द्धा करता था और सीजर सिकन्दर से तथा सिकन्दर हरक्युलिस से। 


प्रश्न


(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए। 


(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।


(ग) विश्वव्यापी प्रसिद्धि के इच्छुक लोगों को किस से स्पर्द्धा करनी चाहिए और उन्हें क्या याद रखना चाहिए?


(घ) प्रतिद्वन्द्विता से क्या लाभ है? 


(ङ) ईर्ष्या से प्रतिद्वन्द्विता का क्या सम्बन्ध है?


उत्तर


(क)सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।


(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक ने ईर्ष्या का सम्बन्ध प्रतिद्वन्द्विता से बताते हुए उसे मनोवैज्ञानिक सत्य के रूप में प्रस्तुत किया है। लेखक कहता है कि कोई धनी व्यक्ति किसी भिखारी या कंगाल व्यक्ति से ईष्यां नहीं करता है। ईर्ष्या का कारण है-प्रतिद्वन्द्विता और यह प्रतिद्वन्द्विता सदैव अपने बराबर वालों में ही उत्पन्न होती है अर्थात् किसी धनी व्यक्ति का प्रतिद्वन्द्वी कोई गरीब न होकर धनी व्यक्ति ही होगा। लेखक कहता है कि ईर्ष्या मनुष्य का चारित्रिक दोष है, क्योंकि वह व्यक्ति के आनन्दमय जीवन में बाधा उत्पन्न करती है, परन्तु यह एक दृष्टि से लाभप्रद भी हो सकती हैं, क्योंकि ईर्ष्या के अन्दर ही प्रतिद्वन्द्विता का भाव समाहित होता है। ईर्ष्या के कारण ही मनुष्य किसी अन्य व्यक्ति से स्पर्द्धा (प्रतियोगिता) करता है और अपने जीवन स्तर को विकासशील बनाता है।




रसेल के अनुसार, जो व्यक्ति संसार में अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ना चाहता है, वह शायद नेपोलियन से स्पर्द्धा करेगा, किन्तु नेपोलियन भी सीजर से स्पर्द्धा करता था और सीजर हरक्युलिस से। आशय यह है कि जो व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को प्रभावी, शक्तिशाली आदि समझता है, वह उनसे स्पर्द्धा करके अपना विकास करता है। इस प्रकार यह कहना अनुचित न होगा कि स्पर्द्धा या प्रतिद्वन्द्विता ईर्ष्या के ही रूप हैं तथा ये रूप निश्चित रूप से उपयोगी हैं। स्पर्द्धा या प्रतिद्वन्द्विताओं से जुड़ी हुई यही एक बात ईर्ष्या को उचित सिद्ध कर सकती है, क्योंकि स्पर्द्धा से ही कोई भी मनुष्य जाति उन्नति के पथ पर अग्रसर होकर अपने जीवन को विकासशील बना सकता है।


(ग) विश्वव्यापी प्रसिद्धि पाने के इच्छुक लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि इसके लिए नेपोलियन जैसे विश्वविख्यात और महत्त्वाकांक्षी शासक से प्रतिस्पर्द्धा करनी होगी। उसे यह बात भी याद रखनी होगी कि नेपोलियन जूलियस सीजर से, सीजर सिकन्दर से और सिकन्दर हरक्युलिस से प्रतिस्पर्द्धा करता था। प्रतिस्पर्द्धा की भावना के कारण ये शासक इतने महान् तथा विश्वप्रसिद्ध बन सके।


(घ) प्रतिद्वन्द्विता से यह लाभ है कि मनुष्य के मन में विकास करने की इच्छा जाग उठती है और वह विकास की दिशा में सकारात्मक प्रयास करती है। 



(ङ) ईर्ष्या से प्रतिद्वन्द्विता का सम्बन्ध बताते हुए लेखक ने उसे मनोवैज्ञानिक सत्य के रूप में प्रस्तुत किया है। लेखक कहता है कि कोई धनी व्यक्ति किसी भिखारी या कंगाल व्यक्ति से ईर्ष्या नहीं करता है। ईर्ष्या का कारण है-प्रतिद्वन्द्रिता और यह प्रतिद्वन्द्रिता सदैव अपने बराबर वालों में ही उत्पन्न होती है।




  1. ईर्ष्या का एक पक्ष सचमुच ही लाभदायक हो सकता है, जिसके अधीन हर आदमी, हर जाति और हर दल अपने को अपने प्रतिद्वन्द्वी का समकक्ष बनाना चाहता है, किन्तु यह तभी सम्भव है, जब कि ईर्ष्या से जो प्रेरणा आती हो, वह रचनात्मक हो। अक्सर तो ऐसा ही होता है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति यह महसूस करता है कि कोई चीज़ है जो उसके भीतर नहीं है, कोई वस्तु है, जो दूसरों के पास है,किन्तु वह यह नहीं समझ पाता कि इस वस्तु को प्राप्त कैसे करना चाहिए और गुस्से में आकर वह अपने किसी पड़ोसी मित्र या समकालीन व्यक्ति को अपने से श्रेष्ठ मानकर उससे जलने लगता है, जबकि वे लोग भी अपने आप से शायद वैसे ही असन्तुष्ट हों।


प्रश्न


(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए। 


(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।


(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति लोगों से ईर्ष्या क्यों करता है? 


अथवा ईर्ष्यालु व्यक्ति क्या महसूस करता है



 (घ) ईर्ष्या का लाभदायक पक्ष क्या है?


उत्तर


(क)सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।



(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का कहना है कि ईर्ष्या व्यक्ति को हर प्रकार से हानि पहुँचाती है। ईर्ष्या करने वाला मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता है, परन्तु इसका एक सकारात्मक पक्ष भी है। ईर्ष्या का यह सकारात्मक पक्ष व्यक्ति के लिए लाभदायक होता है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समाज व प्रत्येक जाति में स्वाभाविक इच्छा उत्पन्न होती है कि वह अपने प्रतिद्वन्द्वी के समान ही उन्नति करे और इसके लिए सकारात्मक प्रयास करे। ऐसा करना तभी सम्भव है, जब ईर्ष्या से उत्पन्न यह प्रेरणा विनाशात्मक न होकर रचनात्मक हो अर्थात् प्रतिद्वन्द्विता करते हुए। प्रगति करने के लिए रचनात्मक प्रयास करने की आवश्यकता होती है।


(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति लोगों से इसलिए ईर्ष्या करने लगता है, क्योंकि दूसरे के पास उन वस्तुओं को देखकर उसे दुःख होता है, जो उसके पास नहीं हैं। वह उन वस्तुओं को कैसे प्राप्त करें, वह यह समझ नहीं पाता और क्रोध में भरकर उस व्यक्ति से जलने लगता है, जिसके पास वे वस्तुएँ होती हैं। वह उन्हें अपने से श्रेष्ठ भी मानने लगता है। यही सोच धीरे-धीरे उसकी ईर्ष्या का कारण बन जाती है।



(घ) जो प्रत्येक व्यक्ति व समूह को अपने प्रतिद्वन्द्वी के समान बनने की प्रेरणा देता है। वही ईर्ष्या का लाभदायक पक्ष है।


  1. तो ईर्ष्यालु लोगों से बचने का क्या उपाय है? नीत्से कहता है कि "बाज़ार की मक्खियों को छोड़कर एकान्त की ओर भागो, जो कुछ भी अमर तथा महान् है, उसकी रचना और निर्माण बाज़ार तथा सुयश से दूर रहकर किया जाता है, जो लोग नए मूल्यों का निर्माण करने वाले हैं, वे बाज़ारों में नहीं बसते, वे शोहरत के पास नहीं रहते।" जहाँ बाज़ार की मक्खियाँ नहीं भिनकतीं, वहाँ एकान्त है।


प्रश्न



(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।


(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए। (ग) ईर्ष्यालु लोगों से बचने का क्या उपाय है?


(घ) नीत्से ने बाज़ार की मक्खियाँ किन्हें कहा है?


उत्तर


(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।



(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या –  ईर्ष्यालु लोग सामाजिक वातावरण को दूषित करते हैं। ऐसे लोगों से बचने का उपाय बताता हुआ लेखक कहता है कि जो लोग समाज की प्रगति के नए-नए मूल्यों और सिद्धान्तों की रचना करते हैं, जो व्यक्ति अपना स्वयं का विकास चाहते हैं, उन्हें ऐसी बाजारू मक्खियों के समान भिनभिनाने वाले लोगों से दूर रहना चाहिए, क्योंकि इन बाजारू मक्खियों के साथ रहकर कोई भी सुकार्य पूर्ण नहीं किया जा सकता। कोई भी रचनात्मक एवं महान् कार्य बाज़ार या भीड़ से दूर रहकर ही किया जाता है। श्रेष्ठ कार्य करने के लिए प्रसिद्धि के लोभ को त्यागना पड़ता है। जो व्यक्ति समाज में नए मूल्यों का निर्माण करते हैं, वे बाज़ार जैसे स्पर्द्धा के स्थानों से सदैव दूर व भिन्न रहते हैं और महान् व निर्माणात्मक कार्य में अपना सहयोग देते हैं।


(ग) ईर्ष्यालु लोगों से बचने का उपाय यही है कि यश, वैभव, मान, प्रतिष्ठा आदि देखकर जलने वालों से दूर रहा जाए। यश प्राप्ति का लोभ त्यागकर मन में लोगों के कल्याण की कामना रखते हुए एकान्त में रहना चाहिए।


(घ) नीत्से ने बाज़ार की मक्खियाँ उन लोगों को कहा है, जो दूसरों की सुख-सुविधाओं, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा, पद आदि से जलते हैं और ईर्ष्या करने लगते हैं।



  1. ईर्ष्या से बचने का उपाय मानसिक अनुशासन है, जो व्यक्ति ईर्ष्यालु स्वभाव का है, उसे फालतू बातों के बारे में सोचने की आदत छोड़ देनी चाहिए। उसे यह भी पता लगाना चाहिए कि जिस अभाव के कारण वह ईर्ष्यालु बन गया है, उसकी पूर्ति का रचनात्मक तरीका क्या है? जिस दिन उसके भीतर यह जिज्ञासा आएगी, उसी दिन से वह ईर्ष्या करना कम कर देगा।


प्रश्न


(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।


 (ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।


(ग) ईर्ष्या से बचने के लिए क्या उपाय करना चाहिए?


अथवा ईर्ष्या से बचने के क्या उपाय हैं? 


(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति कब से ईर्ष्या करना कम कर सकता है?


उत्तर


(क)सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।



(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या लेखक ईर्ष्या से बचने के उपाय को उजागर करते हुए कहता है कि हमें अपने मन पर नियन्त्रण करना चाहिए। मन पर नियन्त्रण करना ही मानसिक अनुशासन कहलाता है। ऐसा माना जाता है कि मन का स्वभाव चंचल होता है और इसको नियन्त्रित करके ही ईर्ष्या भाव से बचा जा सकता है। कहने का आशय यह है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति यदि अपने मन व मस्तिष्क को नियन्त्रित करेगा, तो वह फालतू और निरर्थक बातों पर विचार करने की बुरी आदत से छुटकारा पा सकेगा। जो वस्तु हमारे पास नहीं है, उसके विषय में सोचना व्यर्थ है, जिसके मन में ईर्ष्या-भाव जाग्रत हो गया है उसे यह जानना आवश्यक है कि किस साधन के अभाव के कारण उसके मन में ईर्ष्या भाव उत्पन्न हुआ है। इसके पश्चात् उसे उन अभावों को दूर करने का सकारात्मक प्रयत्न करना चाहिए। उस व्यक्ति को ऐसे उपायों की खोज करनी चाहिए, जिससे उन अभावों की पूर्ति रचनात्मक तरीके से हो सके। जिस दिन ईर्ष्यालु व्यक्ति को यह जानने की इच्छा जागेगी कि किस अभाव के कारण वह ईर्ष्यालु बन गया है और उस अभाव की पूर्ति का सकारात्मक व रचनात्मक उपाय क्या है? उसी दिन से वह ईर्ष्या करना कम कर देगा।


(ग) ईर्ष्या से बचने के लिए व्यक्ति को चाहिए कि वह स्वयं को मानसिक अनुशासन में बाँध ले। जिन वस्तुओं का उसे अभाव है, उनके बारे में व्यर्थ का सोच-विचार नहीं करना चाहिए तथा अभावों की पूर्ति के लिए सकारात्मक प्रयास करना चाहिए।


(घ) जिस दिन व्यक्ति की समझ में यह आ जाएगा कि किस वस्तु की कमी के कारण उसके मन में ईर्ष्या भाव उत्पन्न हुआ है तथा उस वस्तु को पाने का सकारात्मक उपाय क्या है, इसका ज्ञान होते ही ईर्ष्या करना बन्द कर देगा।



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