गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय तथा रचनाएं
गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन परिचय एवं रचनाएं
tulsedas ji ka jivan parichay aur rachnaye
संक्षिप्त परिचय
जीवन-परिचय
लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास भारत के ही नहीं, सम्पूर्ण मानवता तथा संसार के कवि हैं। उनके जन्म से सम्बन्धित प्रामाणिक सामग्री अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है। इनका जन्म 1532 ई. (भाद्रपद शुक्ल पक्ष एकादशी, विक्रम संवत् 1589) स्वीकार किया गया है। तुलसीदास जी के जन्म और जन्म स्थान के सम्बन्ध को लेकर सभी विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। इनके जन्म के सम्बन्ध में एक दोहा प्रचलित है
"पंद्रह सौ चौवन बिसै, कालिंदी के तीर। श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी धर्यो सरीर ।। "
'तुलसीदास' का जन्म बाँदा जिले के 'राजापुर' गाँव में माना जाता है। कुछ विद्वान् इनका जन्म स्थल एटा जिले के 'सोरो' नामक स्थान को मानते हैं। तुलसीदास जी सरयूपारीण ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे एवं माता का नाम हुलसी था। कहा जाता है कि अभुक्त मूल-नक्षत्र में जन्म होने के कारण इनके माता-पिता ने इन्हें बाल्यकाल में ही त्याग दिया था। इनका बचपन अनेक कष्टों के बीच व्यतीत हुआ।
इनका पालन-पोषण प्रसिद्ध सन्त नरहरिदास ने किया और इन्हें ज्ञान एवं भक्ति की शिक्षा प्रदान की। इनका विवाह पण्डित दीनबन्धु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। इन्हें अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम था और उनके सौन्दर्य रूप के प्रति वे अत्यन्त आसक्त थे। एक बार इनकी पत्नी बिना बताए मायके चली गईं तब ये भी अर्द्धरात्रि में आँधी-तूफान का सामना करते हुए उनके पीछे-पीछे ससुराल जा पहुँचे। इस पर इनकी पत्नी ने उनकी भर्त्सना करते हुए कहा
"लाज न आयी आपको दौरे आयेहु साथ।"
पत्नी की इस फटकार ने तुलसीदास जी को सांसारिक मोह-माया से विरक्त कर दिया और उनके हृदय में श्रीराम के प्रति भक्ति भाव जाग्रत हो उठा। तुलसीदास जी ने अनेक तीर्थों का भ्रमण किया और ये राम के अनन्य भक्त बन गए। इनकी भक्ति दास्य-भाव की थी। 1574 ई. में इन्होंने अपने सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य 'रामचरितमानस' की रचना की तथा मानव जीवन के सभी उच्चादर्शों का समावेश करके इन्होंने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया। 1623 ई. में काशी में इनका निधन हो गया।
साहित्यिक परिचय
तुलसीदास जी महान् लोकनायक और श्रीराम के महान् भक्त थे। इनके द्वारा रचित 'रामचरितमानस' सम्पूर्ण विश्व साहित्य के अद्भुत ग्रन्थों में से एक है। यह एक अद्वितीय ग्रन्थ है, जिसमें भाषा, उद्देश्य, कथावस्तु, संवाद एवं चरित्र-चित्रण का बड़ा ही मोहक चित्रण किया गया है। इस ग्रन्थ के माध्यम से इन्होंने जिन आदर्शों का भावपूर्ण चित्र अंकित किया है, वे युग-युग तक मानव समाज का पथ-प्रशस्त करते रहेंगे। इनके इस ग्रन्थ में श्रीराम के चरित्र का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। मानव जीवन के सभी उच्च आदर्शों का समावेश करके इन्होंने श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया है। तुलसीदास जी ने सगुण-निर्गुण, ज्ञान-भक्ति, शैव-वैष्णव और विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों में समन्वय के उद्देश्य से अत्यन्त प्रभावपूर्ण भावों की अभिव्यक्ति की।
कृतियाँ (रचनाएँ)
महाकवि तुलसीदास जी ने बारह ग्रन्थों की रचना की। इनके द्वारा रचित महाकाव्य रामचरितमानस सम्पूर्ण विश्व के अद्भुत ग्रन्थों में से एक है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित है
1. रामलला नहछू गोस्वामी तुलसीदास ने लोकगीत की सोहर' शैली में इस ग्रन्थ की रचना की थी। यह इनकी प्रारम्भिक रचना है।
2. वैराग्य-सन्दीपनी इसके तीन भाग हैं, पहले भाग में छः छन्दों में मंगलाचरण है तथा दूसरे भाग में 'सन्त-महिमा वर्णन' एवं तीसरे भाग में 'शान्ति-भाव वर्णन है।
3. रामाज्ञा प्रश्न यह ग्रन्थ सात सर्गों में विभाजित है, जिसमें शुभ-अशुभ शकुनी का वर्णन है। इसमें रामकथा का वर्णन किया गया है।
4. जानकी-मंगल इसमें कवि ने श्रीराम और जानकी के मंगलमय विवाह उत्सव का मधुर वर्णन किया है। 5. रामचरितमानस इस विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के सम्पूर्ण जीवन के चरित्र का वर्णन किया गया है।
6. पार्वती-मंगल यह मंगल काव्य है, इसमें पूर्वी अवधि में 'शिव-पार्वती के विवाह' का वर्णन किया गया है। गेय पद होने के कारण इसमें संगीतात्मकता का गुण भी विद्यमान है।
7. गीतावली इसमें 230 पद संकलित हैं, जिसमें श्रीराम के चरित्र का वर्णन किया गया है। कथानक के आधार पर ये पद सात काण्डों में विभाजित हैं।
8. विनयपत्रिका इसका विषय भगवान श्रीराम को कलियुग के विरुद्ध प्रार्थना-पत्र देना है। इसमें तुलसी भक्त और दार्शनिक कवि के रूप में प्रतीत होते हैं। इसमें तुलसीदास की भक्ति-भावना की पराकाष्ठा देखने को मिलती है।
9. गीतावली इसमें 61 पदों में कवि ने ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण के मनोहारी रूप का वर्णन किया है।
10. बरवै-रामायण यह तुलसीदास की स्फुट रचना है, जिसमें श्रीराम कथा संक्षेप में वर्णित है। बरवै छन्दों में वर्णित इस लघु काव्य में अवधि भाषा का प्रयोग किया गया है।
11. दोहावली इस संग्रह ग्रन्थ में कवि की सूक्ति शैली के दर्शन होते हैं। इसमें दोहा शैली में नीति, भक्ति और राम महिमा का वर्णन है।
12. कवितावली इस कृति में कवित्त और सवैया शैली में रामकथा का वर्णन किया गया है। यह ब्रजभाषा में रचित श्रेष्ठ मुक्तक काव्य है।
भाषा-शैली
तुलसीदास जी ने अवधी तथा ब्रज दोनों भाषाओं में अपनी काव्यगत रचनाएँ लिखीं। रामचरितमानस अवधी भाषा में है, जबकि कवितावली, गीतावली, विनयपत्रिका आदि रचनाओं में ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है। रामचरितमानस में प्रबन्ध शैली, विनयपत्रिका में मुक्तक शैली और दोहावली में साखी शैली का प्रयोग किया गया है। भाव-पक्ष तथा कला-पक्ष दोनों ही दृष्टियों से तुलसीदास का काव्य अद्वितीय है। तुलसीदास जी ने अपने काव्य में तत्कालीन सभी काव्य-शैलियों का प्रयोग किया है। दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, पद आदि काव्य शैलियों में कवि ने काव्य रचना की है। सभी अलंकारों का प्रयोग करके तुलसीदास जी ने अपनी रचनाओं को अत्यन्त प्रभावोत्पादक बना दिया है।
हिन्दी साहित्य में स्थान
गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं, इन्हें समाज का पथ-प्रदर्शक कवि कहा जाता है। इसके द्वारा हिन्दी कविता की सर्वतोमुखी उन्नति हुई। मानव प्रकृति के जितने रूपों का सजीव वर्णन तुलसीदास जी ने किया है, उतना अन्य किसी कवि ने नहीं किया। तुलसीदास जी को मानव-जीवन का सफल पारखी कहा जा सकता है। वास्तव में तुलसीदास जी हिन्दी के अमर कवि हैं, जो युगों-युगों तक हमारे बीच जीवित रहेंगे।
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उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग। बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंगा। नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी।। मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने ।। भए बिसोक कोक मुनि देवा। बारसहिं सुमन जनावहिं सेवा।। गुरु पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा। सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में तुलसीदास जी ने श्रीराम द्वारा धनुष-भंग से पहले गुरुओं और मुनियों से आज्ञा माँगने, सभा में उपस्थित राजाओं की मनःस्थिति, राम की विनयशीलता तथा उदारता का वर्णन किया है।
व्याख्या – तुलसीदास कहते हैं कि जब श्रीराम जी स्वयंवर सभा में की आज्ञा प्राप्त करके धनुष-भंग के लिए मंच से उठे, तो उनकी शोभा ऐसी प्रतीत हो गुरु विश्वामित्र रही थी, जैसे मंच-रूपी उदयाचल पर्वत पर श्रीराम रूपी बाल सूर्य का उदय हो गया हो, जिसे देखकर सन्तरूपी कमल पुष्प खिल उठे हों और उनके नेत्ररूपी भौंरे प्रसन्न हो गए हों अर्थात् जब श्रीराम मंच से खड़े हुए उस समय स्वयंवर सभा में उपस्थित सभी जन हर्षित हो उठे।कवि कहते हैं कि जब श्रीराम धनुष-भंग के लिए मंच से उठे तो स्वयंवर सभा में उपस्थित राजाओं की सीता को प्राप्त करने की मनोकामना नष्ट हो गई तथा उनके वचनरूपी तारों का समूह चमकना बन्द हो गया अर्थात् वे सभी मौन हो गए। वहाँ जो अभिमानी कुमुदरूपी राजा थे, वे सकुचाने लगे तथा श्रीराम रूपी सूर्य को देखकर मुरझा गए और कपटरूपी उल्लू की तरह छिप गए। जिस प्रकार रात होने पर चकवा-चकवी अपने बिछोह के कारण शोक में डूब जाते हैं, उसी प्रकार सभा में उपस्थित मुनि व देवता भी चकवारूपी शोक में डूबे हुए थे, परन्तु श्रीराम की तत्परता देख उनका दुःख समाप्त हो गया।
अब राम और सीता के संयोग की बाधा समाप्त हो गई। श्रीराम को देखकर सभा में उपस्थित समस्त जन फूलों की वर्षा कर रहे हैं। इसी बीच श्रीराम अपने गुरु विश्वामित्र के चरणों की प्रेमपूर्वक वन्दना कर अन्य सभी मुनियों से धनुष-भंग करने की अनुमति माँगते हैं। सम्पूर्ण जगत् के स्वामी श्रीराम अपने गुरु विश्वामित्र जी के चरणों की वन्दना कर तथा अन्य मुनियों की आज्ञा प्राप्त करके सुन्दर मतवाले हाथी की भाँति मस्त चाल से धनुष की ओर स्वाभाविक रूप से बढ़ रहे हैं।
काव्य सौन्दर्य
कवि ने उस समय का मनोहरी चित्रण किया है, जब गुरु विश्वामित्र की आज्ञा से श्रीराम धनुष-भंग के लिए मंच से उठ खड़े होते हैं।
भाषा अवधी
शैली प्रबन्ध और विवेचनात्मक/चित्रात्मक
गुण माधुर्य
रस भक्ति / शृंगार
छन्द दोहा
शब्द-शक्ति। अभिधा और व्यंजना
अनुप्रास अलंकार 'उदित उदयगिरि', और 'संत सरोज सब', 'निसिनासी' मानी महिप, बरसहि सुमन, पद बँदि में क्रमश: 'उ', 'द' और 'स' 'न', 'म', 'स', 'द' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
रूपक अलंकार 'रघुबर बालपतंग' में मंच रूपी उदयांचल का वर्णन किया गया है, 'कपटी भूप उलूक लुकाने' कपटरूपी उल्लू के समान राजा का वर्णन किया गया है। जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।
सखि सब कौतुकु देखनिहारे। जेउ कहावत हितू हमारे।। कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं।। रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा।। सो धनु राजकुअर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी की माता का राम के प्रति चिन्ता का वर्णन है। श्रीराम की कोमलता को देखकर उनका मन चिन्तित है। जब शक्तिशाली राजा इस धनुष को हिला तक नहीं सके, तब यह बालक इस धनुष को कैसे तोड़ पाएगा?
व्याख्या – सीता जी की माता अपनी सखियों से कहती हैं कि हे सखि! जो लोग हमारे हितैषी कहलाते हैं, वे सभी तमाशा देखने वाले हैं। क्या इनमें से कोई भी राम के गुरु विश्वामित्र को समझाने के लिए जाएगा कि ये (राम) अभी बालक हैं। इस धनुष को तोड़ने के लिए हठ (जिद) करना अच्छा नहीं अर्थात् इस धनुष को बड़े-बड़े योद्धा हिला तक नहीं पाए।
धनुष को तोड़ने के लिए विश्वामित्र का आज्ञा देना और राम का आज्ञा मानकर चल देना तमाशे जैसा नहीं है। यह मेरी पुत्री का स्वयंवर है खेल नहीं, फिर इन्हें कोई क्यों नहीं समझाता ? इस धनुष की कठोरता के कारण रावण और बाणासुर जैसे वीर योद्धाओं ने इसे छुआ तक नहीं। सभी राजाओं का धनुष तोड़ने का घमण्ड टूट चुका है अर्थात् सभी अपनी हार मान चुके हैं, तो धनुष को तोड़ने के लिए इस राजकुमार के हाथों में क्यों दे दिया है? कोई इन्हें समझाता क्यों नहीं कि क्या हंस का बच्चा कभी मन्दराचल पहाड़ उठा सकता है अर्थात् शिवजी के जिस धनुष को रावण और बाणासुर जैसे महान् शक्तिशाली योद्धा छू तक नहीं सकें, उसे तोड़ने के लिए विश्वामित्र का श्रीराम को आज्ञा देना अनुचित है। श्रीराम का भी उसे तोड़ने के लिए आगे बढ़ना बालहठ ही है।
काव्य सौन्दर्य
कवि ने धनुष भंग से पहले सभा में उपस्थित सीता जी की माता के श्रीराम के प्रति व्याकुलता भाव को स्पष्ट किया है।
भाषा – अवधी
शैली – प्रबन्ध और विवेचनात्मक
गुण – प्रसाद
रस – वात्सल्य छन्द चौपाई
अलंकार
अनुप्रास अलंकार –'सखि सब', 'हितू हमारे', 'बुझाइ कहइ' और 'बाल मराल' में क्रमशः 'स', 'ह', 'इ' और 'ल' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
दृष्टान्त अलंकार – 'रावन बान हुआ नहिं चापा' में रावण का उदाहरण दिया गया है, इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है।
रूपक अलंकार – 'बाल मराल कि मंदर लेहीं यहाँ धनुष की #तुलना पहाड़ से की गई है, जिस कारण रूपक अलंकार है।
बोली चतुर सखी मृदु बानी तेजवंत लघु गनिअ न रानी ।। कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा।। रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा ।। दोहा- मंत्र परम लघु जासु बस, विधि हरि हर सुर सर्व महामत्त गजराज कहुँ, बस कर अंकुस खर्ब ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी की माता श्रीराम की कोमलता को देखकर विचलित हो उठती है, तब उनकी सखियाँ उनको शंका को दूर करती हैं कि तेजस्वी व्यक्ति चाहे छोटा ही क्यों न हो, उसे छोटा नहीं मानना चाहिए।
व्याख्या एक सखी सीता जी की माता की शंका का निवारण करते हुए मधुर वाणी में कहती है कि हे रानी। तेजवान व्यक्ति चाहे उम्र में छोटा ही क्यों न हो, उसे छोटा नहीं मानना पतिकहाँ घड़े से उत्पन्न होने वाले मुनि अगस्त्य और कहाँ विस्तृत और दोनों में यद्यपि कोई समानता नहीं है, पर मुनि ने अपने पराक्रम से उस अपार समुद्र को सोख लिया था। इस कारण उनका यश सारे संसार में विद्यमान है। इसी प्रकार सूर्य का घेरा छोटा-सा दिखाई देता है, किन्तु सूर्य के उदित होते ही तीनों लोकों का अन्धकार दूर हो जाता है, उसी प्रकार तुम श्रीराम को छोटा मत समझो।
दोहे का अर्थ 'ओ३म्' का मन्त्र अत्यन्त छोटा है, पर ब्रह्मा, विष्णु, शिव और समस्त देवगण उसके वश में हैं। इसी प्रकार महान् मदमस्त हाथी को वश में करने वाला अंकुश भी बहुत छोटा-सा होता है। अतः तुम भी श्रीराम को छोटा मत समझो। वह उम्र में छोटे क्यों न हो, तुम उनकी कोमलता पर मत जाओ, वे अवश्य ही धनुष
को तोड़ेंगे।
काव्य सौन्दर्य
सीता जी की माता की सखी द्वारा दिए गए तर्क श्रीराम के महत्व को दर्शाते हैं।
भाषा. अवधी
गुण प्रसाद
रस वीर छन्द चौपाई
शैली. प्रबन्ध और विवेचनात्मक
अलंकार
अनुप्रास अलंकार हरि हर, 'कहँ कुंभज कहँ' और 'तासु तिभुवन' हरि हर में क्रमश: 'प', 'स', 'क' और 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
मंत्र परम लघु जासु बस, बिधि हरि हर सुर सर्ब महामत्त गजराज कहूँ, काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन बस अपने कीन्हे ।। देबि तजिय संसउ अस जानी। मिटा बिषाद् बढ़ी अति प्रीती ।।बस कर अंकुस खर्ब ।।भंजब धनुषु राम सुनु रानी ।। सखी बचन सुनि भै परतीती।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।
प्रसंग – प्रस्तुत दोहा-चौपाई में सीता जी की माता की सखी श्रीराम की तेजस्विता का वर्णन करते हुए अनेक तथ्यों द्वारा उनका संशय दूर करती है, तभी सीता जी, श्रीराम से विवाह करने के लिए सभी देवताओं से विनती करती है। इसी मोहकता का यहाँ वर्णन किया गया है।
व्याख्या तुलसीदास जी कहते हैं कि सीता जी की माता जब श्रीराम को छोटा समझकर उनके प्रति अपनी शंका प्रकट करती हैं, तब एक सखी सीता जी की माता से कहती है कि हे रानी! जिस प्रकार ओ३म का मन्त्र अत्यन्त छोटा होता है पर ब्रह्मा, विष्णु, शिव और समस्त देवगण उसके वश में हैं, उसी प्रकार महान् मदमस्त हाथी को वश में करने वाला अंकुश भी बहुत छोटा-सा होता है। अतः तुम श्रीराम को छोटा मत समझो वह उम्र में छोटे क्यों न हो, आप उनकी कोमलता पर मत जाओ, वे अवश्य ही धनुष तोड़ देंगे।
सीता जी की माता को उनकी सखी श्रीराम की वीरता का वर्णन करते हुए कहती हैं कि कामदेव ने फूलों का ही धनुष-बाण लेकर सारे संसार को अपने वश में कर रखा है। अतः हे देवी! आप अपने मन की शंका का परित्याग कर दीजिए। श्रीराम इस शिव-धनुष को अवश्य ही तोड़ देंगे। आप मेरी बात का विश्वास कीजिए। अपनी सखी के ऐसे वचन सुनकर रानी को श्रीराम की क्षमता पर विश्वास हो गया और उनका दुःख (उदासी) समाप्त हो गया तथा उनका विषाद श्रीराम के प्रति स्नेह के रूप में परिवर्तित हो गया।
काव्य सौन्दर्य
कवि ने श्रीराम के पराक्रम तथा उनकी वीरता का बखान सीता जी की माता की सखी द्वारा व्यक्त किया गया है।
भाषा अवधी
शैली प्रबन्ध, उद्धरण और वर्णनात्मक
रस. श्रृंगार
गुण माधुर्य
छन्द दोहा
शब्द-शक्ति अभिधा और लक्षणा
अलंकार
अनुप्रास अलंकार मंत्र परम', 'बस विधि', 'हरि हर', 'सुर सर्व में क्रमश: 'म', 'ब', 'ह' और 'स' तथा 'काम कुसुम', 'संसउ अस 'सुनु रानी' और 'विषादु बढ़ी में क्रमशः 'क', 'स', तथा 'न' और 'ब' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
लखन लखेड रघुवंसमनि, ताकेउ हर कोदड्डु। पुलकि गात बोले बचन, चरन चापि ब्रह्मांडु || दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला धरहु धरनि धरि धीर न डोला। राम चहहिं संकर धनु तोरा, होहु सजग सुनि आयसु मोरा ।। चाप समीप रामु जब आए, नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए सब कर संसउ अरु अग्यानू, मंद महीपन्ह कर अभिमानू ।। भृगुपति केरि गरब गरुआई, सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ।। सिय कर सोचु जनक पछितावा, रानिन्ह कर दारुन दुख दावा ।। संभुचाप बड़ बोहितु पाई, चढ़े जाइ सब संगु बनाई।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में लक्ष्मण द्वारा श्रीराम को देखकर प्रसन्न होना, लक्ष्मण द्वारा कच्छप, शेषनाग आदि को चेताना करना तथा राजाओं द्वारा शंका करना कि क्या श्रीराम धनुष तोड़ पाएंगे आदि का वर्णन किया गया है।
व्याख्या तुलसीदास जी कहते हैं कि जब लक्ष्मण जी ने देखा कि रघुकुलमणि श्रीराम, शिवजी के धनुष को खण्डित करने की दृष्टि से देख रहे हैं, तो उनका शरीर आनन्दित हो उठा। शिव-धनुष के खण्डन से ब्रह्माण्ड में उथल-पुथल न हो जाए, इसलिए लक्ष्मण जी ने अपने चरणों से ब्रह्माण्ड को दबा लिया।
लक्ष्मण जी कहते हैं कि हे दिग्गजों! हे कच्छप! हे शेषनाग! हे वाराह! आप सभी धैर्य धारण करें तथा पृथ्वी को संभालकर रखें, क्योंकि श्रीराम इस शिव धनुष को तोड़ने जा रहे हैं, इसलिए आप सब मेरी इस आज्ञा को सुनकर सतर्क हो जाइए। जब श्रीराम धनुष के पास गए, तब वहाँ उपस्थित नर-नारी अपने पुण्यों को मनाने लगे, क्योंकि सभी को श्रीराम के धनुष तोड़ने पर शंका तथा अज्ञान है कि श्रीराम इस धनुष को तोड़ पाएँगे या नहीं। सभा में उपस्थित नीच अहंकारी राजाओं को भी यही लग रहा
काव्य सौन्दर्य
सीता जी की माता की सखी द्वारा दिए गए तर्क श्रीराम के महत्व को दर्शाते हैं।
भाषा। अवधी
गुण प्रसाद
शैली – प्रबन्ध और विवेचनात्मक
रस वीर
छन्द चौपाई
अलंकार
अनुप्रास अलंकार हरि हर, 'कहँ कुंभज कहँ' और 'तासु तिभुवन' हरि हर में क्रमश: 'प', 'स', 'क' और 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
है कि श्रीराम धनुष नहीं तोड़ पाएंगे, क्योंकि जब हम से यह धनुष नहीं टूटा तो राम से कैसे टूटेगा ? कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि परशुराम के गर्व की गुरुता, सभी देवता तथा श्रेष्ठ मुनियों का भय, सीता जी की चिन्ता, राजा जनक का पछतावा और उनकी
रानियों के दारुण दुःख का दावानल, ये सभी शिवजी के धनुषरूपी बड़े जहाज को पाकर उसमें सब एक साथ चढ़ गए है।
गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी प्रगट न लाज निसा अवलोकी ।। लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना। सकुची व्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी।। तन मन बचन मोर पनु साचा रघुपति पद सरोज चितु राचा।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी का श्रीराम के प्रति सात्विक प्रेम का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
व्याख्या – यहाँ कवि सीता जी की वाणी की असमर्थता को प्रकट करते हुए कहते हैं कि सीता जी के प्रेमभाव की वाणीरूपी भ्रमरी को उनके मुखरूपी कमल ने रोक रखा है अर्थात् वह कुछ बोल नहीं पा रही हैं। जब वह भ्रमरी लज्जारूपी रात देखती है, तो वह अत्यन्त मौन होकर कमल में बैठी रहती है और स्वयं को प्रकट नहीं करती, क्योंकि वह तो रात्रि के बीत जाने पर ही प्रातःकाल में प्रकट होकर गुनगुनाती है अर्थात् सीता जी लज्जा के कारण कुछ नहीं कह पाती और उनके मन की बात मन में ही रह जाती है।
उनका मन अत्यन्त भावुक है, जिसके कारण उनकी आँखों में आँसू छलछला आते हैं, परन्तु वह उन आँसुओं को बाहर नहीं निकलने देती।
सीता जी के आँसू आँखों के कोनों में ऐसे समाए हुए हैं जैसे महाकंजूस का सोना घर के कोनों में ही गड़ा रहता है। सीता जी अत्यन्त विचलित हो रही थीं, जब उन्हें अपनी इस व्याकुलता का बोध हुआ तो वह सकुचा गईं और अपने हृदय में धैर्य रखकर अपने मन में यह विश्वास लाई कि यदि मेरे तन, मन, वचन से श्रीराम का वरण सच्चा है, रघुनाथ जी के चरणकमलों में मेरा चित्त वास्तव में अनुरक्त है तो ईश्वर मुझे उनकी दासी अवश्य बनाएँगे।
काव्य सौन्दर्य
कवि ने सीता जी के प्रेम तथा श्रीराम से विवाह करने की विचलित स्थिति को व्यक्त किया है।
भाषा अवधी
गुण माधुर्य
छन्द दोहा
शैली प्रबन्ध और चित्रात्मक
रस। शृंगार
शब्द-शक्ति। अभिधा एवं लक्षणा
अलंकार
अनुप्रास अलंकार 'लोचन कोना', 'परम कृपन' और 'धीरे धीरजु' में क्रमश: 'न', 'प' और 'घ' तथा 'र' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
उपमा अलंकार 'जैसे परम कृपन कर सोना' यहाँ समता बताने वाले शब्द 'जैसे का प्रयोग किया गया है। इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।
देखी बिपुल बिकल वैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।। तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा ।। का बरषा सब कृषी सुखानें समय चुके पुनि का पछितानें ।। अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी।। गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा ।। दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ।। लेत चढ़ावत खैचत गाढ़े। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें ।। तेहि छन राम मध्य धनु तोरा भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।। छन्द – भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले। चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले ।। सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं। कोदंड खंडेठ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में राजा जनक की राज्यसभा में सीता जी के स्वयंवर का दृश्य है। श्रीराम जी ने देखा कि धनुष-भंग का सही समय आ गया है, उन्होंने देखा कि सारा समाज व्याकुल हो रहा है। यदि समय रहते काम सम्पन्न न हो तो बाद में व्यर्थ ही पछताना पड़ता है। इसी का मनमोहक चित्रण कवि ने किया है।
व्याख्या – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीराम चन्द्र जी ने सीता जी को अत्यन्त व्याकुल देखा, उन्होंने अनुभव किया कि उनका एक-एक क्षण एक-एक कल्प के समान बीत रहा था तभी श्रीराम जी को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब बिना एक पल का भी विलम्ब किए मुझे धनुष-भंग कर देना चाहिए, क्योंकि यदि कोई प्यासा व्यक्ति पानी न मिलने पर शरीर त्याग दे, तो उसकी मृत्यु के पश्चात् अमृत के तालाब का भी कोई औचित्य नहीं। खेती के सूख जाने पर अगर वर्षा होती है, तो उसका क्या लाभ? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ?
अतः किसी भी कार्य को सही अवसर पर ही करना चाहिए अन्यथा बाद में हाथ मलने से कोई लाभ नहीं होता। ऐसा हृदय में विचारकर श्रीराम जी ने सीता जी की ओर देखा और अपने प्रति उनका विशेष प्रेम देखकर प्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए। तब मन-ही-मन उन्होंने अपने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से उस धनुष को अपने हाथ में उठा लिया।
ज्यों ही श्रीराम ने धनुष को अपने हाथ में उठाया, त्यों ही वह बिजली की भाँति चमका और आकाश में मण्डलाकार हो गया। श्रीराम ने यह सब कार्य इतनी फुर्ती और कुशलता से किया कि सभा में उपस्थित लोगों में से किसी ने भी उन्हें हाथ में धनुष लेते हुए, प्रत्यंचा चढ़ाते और जोर से खींचते हुए नहीं देखा अर्थात् किसी को पता ही नहीं चला कि कब उन्होंने धनुष हाथ में लिया, कब प्रत्यंचा चढ़ाई और कब खींच दिया। सारे कार्य एक क्षण में ही हो गए। किसी को कुछ पता ही नहीं चला। सभी ने श्रीराम को धनुष खींचते ही खड़े देखा। उसी क्षण उन्होंने धनुष को बीच में से तोड़ डाला। धनुष के टूटने की इतनी भयंकर ध्वनि हुई कि वह तीनों लोकों में व्याप्त हो गई।
छन्द का अर्थ – तीनों लोकों में उस भयंकर कर्कश ध्वनि की गूंज व्याप्त हो गई, जिससे घबराकर सूर्य के रथ के घोड़े मार्ग को छोड़कर चलने लगे। समस्त दिशाओं के हाथी चिंघाड़ने लगे, पृथ्वी काँपने लगी, शेषनाग, वाराह और कच्छप व्याकुल हो उठे। देवता, राक्षस और मुनि कानों पर हाथ रखकर व्याकुल होकर विचारने लगे। तुलसीदास जी कहते हैं कि जब सभी को यह विश्वास हो गया कि श्रीराम जी ने यह धनुष तोड़ डाला, तब सब श्रीराम चन्द्र जी की जय बोलने लगे।
काव्य सौन्दर्य कवि ने श्रीराम द्वारा धनुष भंग करने का सादृश्य चित्रण प्रस्तुत किया है।
भाषा अवधी
गुण माधुर्य
छन्द दोहा
शैली। प्रबन्ध और सूक्तिपरक
रस शृंगार और अद्भुत
शब्द-शक्ति अभिधा और लक्षणा
अलंकार
अनुप्रास अलंकार 'बिपुल विकल वैदेही', 'करइ का', 'जिस जानि' 'भरे भवन' 'रव रबि कोल कूरूम' बिकल बिचारहीं' और 'प्रभु पुलके' में क्रमशः 'ब', 'क', 'ज' 'भ', 'र', क, 'ब' प वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
दृष्टान्त अलंकार – तृषित बारि दिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा' और ' का बरषा सब कृषी सुखानें', यहाँ एक ही आशय को दो भिन्नार्थो में व्यक्त किया गया है। इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है।
अतिशयोक्ति अलंकार – इस पद्यांश में धनुष तोड़ने का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है, इसलिए यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।
पुर तें निकसी रघुबीर-बधू, धरि धीर दए मग में डग है। झलकी भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गए मधुराधर वै।। फिरि बूझति है—“चलनो अब केतिक, पर्णकुटी करिहौ कित है?" तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम, सीता तथा लक्ष्मण वन में जा रहे हैं। सुकोमल शरीर वाली सीता जी चलते-चलते थक गई हैं, उनकी व्याकुलता का अत्यन्त
मार्मिक वर्णन यहाँ किया गया है।
व्याख्या कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीराम, लक्ष्मण तथा अपनी सुकोमल प्रिया (पत्नी) के साथ महल से निकले तो उन्होंने बहुत धैर्य से मार्ग में दो कदम रखे। सीता जी थोड़ी ही दूर चली थीं कि उनके माथे पर पसीने की बूँदें आ गई तथा सुकोमल होंठ बुरी तरह से सूख गए। तभी वे श्रीराम से पूछती हैं कि अभी हमें कितनी दूर और चलना है और हम अपनी पर्णकुटी (झोपड़ी) कहाँ बनाएँगे? पत्नी (सीता जी) की इस दशा व व्याकुलता को देखकर श्रीराम जी की आँखों से आँसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी। राजमहल का सुख भोगने वाली अपनी पत्नी की ऐसी दशा देखकर वे द्रवीभूत हो गए।
काव्य सौन्दर्य
कवि तुलसीदास जी ने वन मार्ग पर जाते समय सीता जी की थकान भरी स्थिति को देख श्रीराम की व्याकुलता प्रस्तुत की है।
भाषा ब्रज
गुण प्रसाद और माधुर्य
शैली चित्रात्मक और मुक्तक
शब्द-शक्ति। लक्षणा एवं व्यंजना
छन्द। सवैया
रस शृंगार
अलंकार
अनुप्रास अलंकार 'रघुबीर बधू', 'भरि भाल', 'पर्णकुटी करिहौ' और 'अँखियाँ अति' में क्रमश: 'ब', 'भ', 'क' और 'अ' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
स्वाभावोक्ति अलंकार 'झलकी भरी भाल कनी जल की पुट सूखि गए मधुराधर वै' में यथावत स्वाभाविक स्थिति का वर्णन किया गया है, इसलिए यहाँ स्वाभावोक्ति अलंकार है।
जल को गए लक्खन हैं लरिका, परिखौ, पिय! छाँह घरीक है ठाढ़े। पोछि पसेउ बयारि करौं, अरु पायँ पखरिहौं भूभुरि डाढ़े।।” तुलसी रघुबीर प्रिया सम कै बैठि बिलंब लौ कंटक काढ़े। जानकी नाह को नेह लख्यौ, पुलको तनु बारि बिलोचन बाढ़े।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में तुलसीदास जी ने सीता जी की व्याकुलता तथा सीता जी के प्रति राम के प्रेम का सजीव वर्णन किया है।
व्याख्या – कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि सीता जी चलते-चलते थक गई हैं और उन्हें प्यास लगने लगती है, तो लक्षमण उनके लिए जल लेने के लिए गए हुए है। तभी सीता जी, श्रीराम से कहती है कि जब तक लक्ष्मण नहीं आते, तब तक हम घड़ी भर (कुछ देर के लिए) कहीं छाँव में खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा कर लेते हैं। सीता जी, श्रीराम से कहती हैं, मैं तब तक आपका पसीना पोछकर हवा कर देती हूँ तथा बालू से तपे हुए पैर धो देती हूँ। श्रीराम समझ गए कि सीता जी थक चुकी हैं और वह कुछ समय विश्राम करना चाहती हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि जब श्रीराम ने सीता जी को थका हुआ देखा तो उन्होंने बहुत देर तक बैठकर उनके पैरों में से काँटे निकाले। सीता जी ने अपने स्वामी के प्रेम को देखा तो उनका शरीर पुलकित हो उठा और आँखों में प्रेमरूपी आँसू छलक आए।
काव्य सौन्दर्य
कवि ने वन मार्ग की कठिनाइयाँ तथा वनवासी जीवन की परिस्थितियाँ प्रकट
की हैं।
भाषा ब्रज
रस शृंगार
शैली मुक्तक
छन्द सवैया
गुण। माधुर्य
शब्द-शक्ति लक्षणा एवं व्यंजना
अलंकार
अनुप्रास अलंकार – "परिखो पिय', 'बैठि बिलंब', 'कंटक काढ़े और 'जानकी नाह' में क्रमश: 'प'. 'ब' 'क' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
रानी मैं जानी अजानी महा, पबि पाहन हूँ ते कठोर हियो है। राजहु काज अकाज न जान्यो, कह्यो तिय को जिन कान कियो है।। ऐसी मनोहर मूरति ये, बिछुरे कैसे प्रीतम लोग जियो है? । आँखिन में, सखि! राखिबे जोग, इन्हें किमि कै बनवास दियो है? ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में गोस्वामी तुलसीदास जी ने ग्रामीण स्त्रियों के माध्यम से कैकेयी और राजा दशरथ की निष्ठुरता पर प्रतिक्रिया का वर्णन किया है।
व्याख्या – श्रीराम, सीता और लक्ष्मण वन में जा रहे हैं, उन्हें देखकर गाँव की स्त्रियाँ आपस में वार्तालाप कर रही है। एक स्त्री दूसरी से कहती है कि मुझे यह ज्ञात हो गया है कि रानी कैकेयी बड़ी अज्ञानी है। वह पत्थर से भी अधिक कठोर हृदय वाली नारी है, क्योंकि उन्हें इन तीनों को वनवास देते समय तनिक भी दया नहीं आई।
दूसरी ओर वे राजा दशरथ को भी बुद्धिहीन समझकर कहती हैं कि राजा दशरथ ने उचित-अनुचित का भी विचार नहीं किया, उन्होंने भी पत्नी का कहा माना और उन्हें वन भेज दिया। ये तीनों तो इतने सुन्दर और मनोहर हैं कि इनसे बिछुड़कर इनके प्रियजन कैसे जीवित रहेंगे? हे सखी! ये तीनो तो आँखों में योग्य हैं। इनको अपने से दूर नहीं किया जा सकता। इन्हें किस कारण वनवास दे दिया गया है? ये तो सदैव अपने सामने रखने योग्य हैं।
काव्य सौन्दर्य
कवि ने ग्रामीण स्त्रियों के माध्यम से रानी कैकेयी की कठोरता तथा राजा दशरथ को राज-काज न जानने वाला बताया है।
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
रस शृंगार और करुण
गुण माधुर्य
छन्द सवैया
शब्द-शक्ति अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना
अलंकार
अनुप्रास अलंकार पवि पाहन', 'कान कियो', 'मनोहर मूरति' और 'सखि राखिने' में क्रमशः 'प', 'क', 'म' और 'ख' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
सीस जटा, उर बाहु बिसाल बिलोचन लाल, तिरीछी सी भी हैं। तून सरासन बान धरे, तुलसी बन-मारग में सुठि सोहैं। सादर बारहि बार सुभाय चितै तुम त्यों हमरो मन मोहैं। पूछति ग्राम बधू सिय सो 'कहाँ साँवरे से, सखि रावरे को हैं?' ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम, सीता और लक्ष्मण वन को जा रहे हैं। मार्ग में ग्रामीण स्त्रियाँ उत्सुकतावश सीता जी से प्रश्न पूछती है। वे श्रीराम जी के बारे में जानना चाहती हैं। वे उनसे परिहास भी करती हैं।
व्याख्या – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि ग्रामीण स्त्रियाँ सीता जी से पूछती हैं कि जिनके सिर पर जटाएँ हैं, जिनकी भुजाएँ और हृदय विशाल हैं, लाल नेत्र हैं, तिरछी भौहे हैं, जिन्होंने तरकश, बाण और धनुष सँभाल रखे हैं, जो वन मार्ग में अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं, जो बार-बार आदर और रुचि या प्रेमपूर्ण चित्त के साथ तुम्हारी ओर देखते हैं, उनका यह सौन्दर्य हमारे मन को मोहित कर रहा है। ग्रामीण स्त्रियाँ सीता जी से प्रश्न पूछती हैं कि हे सखी! बताओ तो सही, ये साँवले से मनमोहक तुम्हारे कौन हैं?
काव्य सौन्दर्य
यहाँ ग्रामीण स्त्रियों की उत्सुकता का सहज चित्रण हुआ है।
भाषा ब्रज
शैली। मुक्तक
गुण। माधुर्य
शब्द-शक्ति व्यंजना
रस शृंगार
छन्द सवैया
अलंकार
अनुप्रास अलंकार 'बाहु बिसाल', 'बिलोचन लाल', 'सरासन बान','सादर बारहि' और 'सावरे से सखि में क्रमश: 'ब', 'ल', 'न', 'र' और 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
सुनि सुन्दर बैन सुधारस-साने, सयानी हैं जानकी जानी भली। तिरछे करि नैन दे सैन तिन्है, समुझाइ कछू मुसकाइ चली ।। तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै, अवलोकति लोचन-लाहु अली। अनुराग-तड़ाग में भानु उदै, बिगसी मनो मंजुल कंज-कली ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।
प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वन में जा रहे हैं। ग्रामीण स्त्रियों ने सीता जी से उनके पति के विषय में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया। इस पर सीता जी ने संकेतों के माध्यम से श्रीराम जी के विषय में सब बता दिया।
व्याख्या गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि ग्राम वधुओं ने सीता जी से राम के विषय में पूछा कि ये साँवले और सुन्दर रूप वाले तुम्हारे क्या लगते हैं? उनकी यह अमृत के समान मधुर वाणी सुनकर सीता जी समझ गईं कि ये स्त्रियाँ बहुत चतुर हैं, वे उनके
मनोभावों को समझ गईं। ये प्रभु (श्रीराम) के साथ मेरा सम्बन्ध जानना चाहती हैं। तब सीता जी ने उनके प्रश्न का उत्तर अपनी मुस्कुराहट तथा संकेत भरी दृष्टि से ही दे दिया। उन्होंने अपनी मर्यादा का पूर्ण रूप से पालन किया। उन्होंने संकेत के द्वारा ही यह समझा दिया कि ये मेरे पति हैं। अपने नेत्र तिरछे करके, इशारा करके, समझा कर मुस्कुराती हुई आगे बढ़ गईं अर्थात् उन्हें कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
तुलसीदास जी कहते हैं कि उस समय वे स्त्रियाँ श्रीराम की सुन्दरता को एकटक देखती हुई, अपने नेत्रों को आनन्द प्रदान करने लगीं अर्थात् उनके सौन्दर्य को देखकर जीवन को धन्य मानने लगीं। उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो प्रेम के सरोवर में रामरूपी सूर्य उदित हो गया हो और ग्राम वधुओं के नेत्ररूपी कमल की सुन्दर कलियाँ खिल गई हों अर्थात् उनके नेत्रों ने अपने जीवन को सफल बना लिया हो।
काव्य सौन्दर्य
कवि ने सीता जी द्वारा ग्रामीण वधुओं को संकेतपूर्ण उत्तर देने से भारतीय नारी की मर्यादा को चित्रित किया है।
भाषा ब्रज
शैली। चित्रात्मक व मुक्तक
गुण। माधुर्य
छन्द सवैया
रस शृंगार
शब्द-शक्ति व्यंजना
अलंकार
अनुप्रास अलंकार 'सुनि सुन्दर', 'जानकी जानी', 'तिरछे करि', 'तुलसी तेहि' और 'लोचन लाहु' में क्रमश: 'स', 'ज', 'न', 'र', 'त' और 'ल' वर्ण की पुनरावृत्ति से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
रूपक अलंकार 'सुधारस साने' में उपमेय और उपमान में कोई भेद नहीं है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।
उत्प्रेक्षा अलंकार 'मनो मंजुल कंज कली' में उपमेय में उपमान की सम्भावना को व्यक्त किया गया है। इसलिए यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।
मेरा प्रिय कवि अथवा गोस्वामी तुलसीदास
मेरे प्रिय कवि-गोस्वामी तुलसीदास
नमस्कार दोस्तों स्वागत है आपका हमारी वेब साइट Subhansh classes .com में, यदि आप गूगल पर सर्च कर रहे हैं, मेरे प्रिय कवि पर निबंध, गोस्वामी तुलसीदास जी पर निबंध, मेरे प्रिय कवि – गोस्वामी तुलसीदास पर निबंध, सर्च कर रहे हैं तो आप बिल्कुल सही जगह पर आ गए हैं। यदि आप इस पोस्ट का video। यूट्यूब चैनल पर देखना चाहते हैं तो आप हमारे यूट्यूब चैनल Subhansh classes को अपने यूट्यूब पर सर्च कर लीजिए। और हमारे यूट्यूब चैनल को जल्दी से subscribe कर लीजिए हमारे यूट्यूब चैनल पर आपको पढाई से सम्बंधित सब कुछ देखने को मिल जायेगा।
main Topic – प्रस्तावना, आरम्भिक जीवन-परिचय, काव्यगत विशेषताएँ, उपसंहार
प्रस्तावना – संसार में अनेक प्रसिद्ध साहित्यकार हुए हैं, जिनकी अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। यदि मुझसे पूछा जाए कि मेरा प्रिय साहित्यकार कौन है? तो मेरा उत्तर होगा-महाकवि तुलसीदास। यद्यपि तुलसी के काव्य में भक्ति-भावना प्रधान है, परन्तु उनका काव्य कई सौ वर्षों के बाद भी भारतीय जनमानस में रचा-बसा हुआ है और उनका मार्ग दर्शन कर रहा है, इसलिए तुलसीदास मेरे प्रिय साहित्यकार हैं।
आरम्भिक जीवन-परिचय – प्रायः प्राचीन कवियों और लेखकों के जन्म के बारे में सही-सही जानकारी नहीं मिलती। तुलसीदास के विषय में भी ऐसा ही है, किन्तु माना जाता है कि 1511 ई. (संवत् 1568 वि.) में बाँदा जिले में इनका जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। इनके ब्राह्मण माता-पिता ने इन्हें अशुभ मानकर जन्म लेने के बाद ही इनका त्याग कर दिया था। अत: इनका बचपन बहुत ही कठिनाइयों में बीता। गुरु नरहरिदास ने इनको शिक्षा दी।
इनका विवाह रत्नावली नाम की कन्या से हुआ था। विवाह उपरान्त उसकी एक कटु उक्ति सुनकर इन्होंने राम-भक्ति को ही अपने जीवन का ध्येय बना लिया, इन्होंने अपने जीवनकाल में लगभग सैंतीस ग्रन्थों की रचना की, परन्तु इनके बारह ग्रन्थ ही प्रामाणिक माने जाते हैं। इस महान् भक्त कवि का देहावसान 1623 ई. (संवत् 1680 वि.) में हुआ।
काव्यगत विशेषताएँ – तुलसीदास का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जब हिन्दू समाज मुसलमान शासकों के अत्याचारों से आतंकित था। लोगों का नैतिक चरित्र गिर रहा था और लोग संस्कारहीन हो रहे थे। ऐसे में समाज के सामने एक आदर्श स्थापित करने की आवश्यकता थी, ताकि लोग उचित-अनुचित का भेद समझकर सही आचरण कर सकें। यह भार तुलसीदास ने सँभाला और 'रामचरितमानस' नामक महान् काव्य की रचना की। इसके माध्यम से इन्होंने अपने प्रभु श्रीराम का चरित्र-चित्रण किया, हालाँकि यह एक भक्ति-भावना प्रधान काव्य है। 'रामचरितमानस' के अतिरिक्त इन्होंने कवितावली, गीतावली, दोहावली, विनयपत्रिका, जानकीमंगल, रामलला नहछू, रामायण, वैराग्य सन्दीपनी, पार्वतीमंगल आदि ग्रन्थों की रचना भी की है, परन्त इनकी प्रसिद्धि का मुख्य आधार 'रामचरितमानस' ही है।
तुलसीदास जी वास्तव में, एक सच्चे लोकनायक थे, क्योंकि इन्होंने कभी किसी सम्प्रदाय या मत का खण्डन नहीं किया, वरन् सभी को सम्मान दिया, इन्होंने निर्गुण एवं सगुण दोनों धाराओं की स्तुति की। अपने काव्य के माध्यम से इन्होंने कर्म, ज्ञान एवं भक्ति की प्रेरणा दी। 'रामचरितमानस' के आधार पर इन्होंने एक आदर्श भारतवर्ष की कल्पना की थी, जिसका सकारात्मक प्रभाव हुआ भी, इन्होंने लोकमंगल को सर्वाधिक महत्त्व दिया। साहित्य की दृष्टि से भी तुलसी का काव्य अद्वितीय है। इनके काव्य में सभी रसों को स्थान मिला है। इन्हें संस्कृत के साथ-साथ राजस्थानी, भोजपुरी, बुन्देलखण्डी, प्राकृत, अवधी, ब्रज, अरबी आदि भाषाओं का ज्ञान भी था, जिनका प्रभाव इनके काव्य में दिखाई देता है। इन्होंने विभिन्न छन्दों में रचना करके अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन किया है। तुलसी ने प्रबन्ध तथा मुक्त दोनों प्रकार के काव्यों में रचनाएँ कीं। इनकी प्रशंसा में कवि जयशंकर प्रसाद ने लिखा
"प्रभु का निर्भय सेवक था, स्वामी था अपना, जाग चुका था, जग था जिसके आगे सपना। प्रबल प्रचारक था जो उस प्रभु की प्रभुता का, अनुभव था सम्पूर्ण जिसे उसकी विभुता का। राम छोड़कर और की, जिसने कभी न आस की, रामचरितमानस-कमल, जय हो तुलसीदास की।
उपसंहार– तुलसीदास जी अपनी इन्हीं सब विशेषताओं के कारण हिन्दी साहित्य के अमर कवि हैं। निःसन्देह इनका काव्य महान् है। तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व, व्यक्ति और समाज सभी के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री दी है। अतः ये मेरे प्रिय कवि हैं। अन्त में इनके बारे में यही कहा जा सकता है
“कविता करके तुलसी न लसे,
कविता लसी पा तुलसी की कला।”
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