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कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड के सभी गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद तथा प्रश्न उत्तर

 कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड के सभी गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद तथा प्रश्न उत्तर

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड‘वाराणसी’गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद



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गद्यांश 1


वाराणसी सुविख्याता प्राचीना नगरी। इयं विमलसलिलतरङ्गायाः गङ्गायाः कूले स्थिता। अस्याः घट्टानां वलयाकृतिः पङ्क्तिः धवलायां चन्द्रिकायां बहुराजते। अगणिताः पर्यटकाः सुदूरेभ्यः नित्यम् अत्र आयन्ति, अस्याः घट्टानाञ्च शोभां विलोक्य इमां बहुप्रशंसन्ति ।



सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के संस्कृत खण्ड' में संकलित वाराणसी' नामक पाठ से लिया गया है। इस गद्यांश में वाराणसी नामक प्राचीन नगर के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। 



अनुवाद – वाराणसी बहुत प्रसिद्ध पुरानी नगरी है। यह स्वच्छ व पावन जल की लहरों वाली गंगा के किनारे पर स्थित है। इसके घाटों की घुमावदार आकार वाली कतारें उज्ज्वल चन्द्रमा की सफेद चाँदनी में बहुत सुन्दर लगती हैं। यहाँ प्रतिदिन दूर-दूर से अनेक पर्यटक आते हैं और इसके घाटों का सौन्दर्य देखकर इसकी अत्यधिक प्रशंसा करते हैं।


गद्यांश 2


वाराणस्यां प्राचीनकालादेव गेहे गेहे विद्यायाः दिव्यं ज्योतिः द्योतते। अधुनाऽपि अत्र संस्कृतवाग्धारा सततं प्रवहति, जनानां ज्ञानञ्च वर्द्धयति । अत्र अनेके आचार्याः मूर्धन्याः विद्वांसः वैदिकवाङ्मयस्य अध्ययने अध्यापने च इदानीं निरताः। न केवलं भारतीयाः, अपितु वैदेशिकाः गीर्वाणवाण्याः अध्ययनाय अत्र आगच्छन्ति निःशुल्कं च विद्यां गृहणन्ति । अत्र हिन्दूविश्वविद्यालयः, संस्कृतविश्वविद्यालयः, काशीविद्यापीठम् इत्येते त्रयः विश्वविद्यालयाः सन्ति, येषु नवीनानां प्राचीनानाञ्च ज्ञानविज्ञानविषयाणाम् अध्ययनं प्रचलति ।


अथवा


अत्र अनेके आचार्याः मूर्धन्याः विद्वांसः वैदिकवाङ्मयस्य अध्ययने अध्यापने च इदानीं निरताः। न केवलं भारतीयाः, अपितु वैदेशिकाः गीर्वाणवाण्याः अध्ययनाय अत्र आगच्छन्ति निःशुल्कं च विद्यां गृहणन्ति । अत्र हिन्दूविश्वविद्यालयः, संस्कृतविश्वविद्यालयः, काशीविद्यापीठम् इत्येते त्रयः विश्वविद्यालयाः सन्ति येषु नवीनानां प्राचीनानञ्च ज्ञानविज्ञानविषयाणाम् अध्ययनं प्रचलति ।


अथवा


वाराणस्यां प्राचीनकालादेव गेहे-गेहे विद्यायाः दिव्यं ज्योतिः द्योतते । अधुनाऽपि अत्र संस्कृतवाग्धारा सततं प्रवहति, जनानां ज्ञानञ्च वर्द्धयति। अत्र अनेके आचार्याः मूर्धन्याः विद्वांसः वैदिकवाङ्मयस्य अध्ययने अध्यापने च इदानीं निरताः। न केवलं भारतीयाः, अपितु वैदेशिकाः गीर्वाणवाण्याः अध्ययनाय अत्र आगच्छन्ति निःशुल्कं च विद्यां गृहणन्ति ।


अथवा



अधुनाऽपि अत्र संस्कृतवाग्धारा सततं प्रवहति, जनानां ज्ञानञ्च वर्द्धयति। अत्र अनेके आचार्याः मूर्धन्याः विद्वांसः वैदिकवाङ्मयस्य अध्ययने अध्यापने च इदानीं निरताः। न केवलं भारतीयाः अपितु वैदेशिकाः गीर्वाणवाण्याः अध्ययनाय अत्र आगच्छन्ति निःशुल्कं च विद्यां गृहणन्ति। 



सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के संस्कृत खण्ड' में संकलित वाराणसी' नामक पाठ से लिया गया है। इस गद्यांश में वाराणसी नामक प्राचीन नगर के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। 


इस अंश में वाराणसी में स्थित ज्ञान के केन्द्र रूपी विभिन्न विश्वविद्यालयों का वर्णन किया गया है।


अनुवाद वाराणसी में प्राचीनकाल से ही घर-घर में विद्या की अलौकिक ज्योति प्रकाशित है। आज भी यहाँ संस्कृत वाणी की धारा लगातार (निरन्तर) प्रवाहित हो रही है और लोगों का ज्ञान बढ़ा रही है। इस समय भी यहाँ अनेक आचार्य, उच्चकोटि के विद्वान्, वैदिक साहित्य के अध्ययन अध्यापन में लगे हुए हैं।


केवल भारतीय ही नहीं, बल्कि विदेशी भी देववाणी संस्कृत के अध्ययन के लिए यहाँ आते हैं और निःशुल्क विद्या प्राप्त करते हैं। यहाँ हिन्दू विश्वविद्यालय, संस्कृत विश्वविद्यालय और काशी विद्यापीठ-ये तीन विश्वविद्यालय हैं, जिनमें ज्ञान-विज्ञान के नए-पुराने विषयों का अध्ययन चलता रहता है।


गद्यांश 3


एषा नगरी भारतीयसंस्कृतेः संस्कृतभाषायाश्च केन्द्रस्थलम् अस्ति। इत एव संस्कृतवाङ्मयस्य संस्कृतेश्च आलोकः सर्वत्र प्रसृतः। मुगलयुवराजः दाराशिकोहः अत्रागत्य भारतीय-दर्शन-शास्त्राणाम् अध्ययनम् अकरोत्। स तेषां ज्ञानेन तथा प्रभावितः अभवत्, यत् तेन उपनिषदाम् अनुवादः फारसीभाषायां कारितः। 


सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के संस्कृत खण्ड' में संकलित वाराणसी' नामक पाठ से लिया गया है। इस गद्यांश में वाराणसी नामक प्राचीन नगर के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।

इस अंश में वाराणसी के प्राचीन गौरव एवं महत्ता पर प्रकाश डाला गया है।


अनुवाद यह नगरी भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा का केन्द्रस्थल है। यहीं से संस्कृत साहित्य और संस्कृति का प्रकाश चारों ओर फैला है। मुगल युवराज दाराशिकोह ने यहीं आकर भारतीय दर्शनशास्त्रों का अध्ययन किया था। वह उनके ज्ञान से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उपनिषदों का अनुवाद फारसी भाषा में करवाया।


गद्यांश 4


इयं नगरी विविधधर्माणां सङ्गमस्थली। महात्मा बुद्धः, तीर्थङ्करः पार्श्वनाथः, शङ्कराचार्यः, कबीरः, गोस्वामी तुलसीदासः अन्ये च बहवः महात्मानः अत्रागत्य स्वीयान् विचारान् प्रासारयन्। न केवलं दर्शने, साहित्ये, धर्मे, अपितु कलाक्षेत्रेऽपि इयं नगरी विविधानां कलानां, शिल्पानाञ्च कृते लोके विश्रुता। अत्रत्याः कौशेयशाटिकाः देशे-देशे सर्वत्र स्पृह्यन्ते। अत्रत्याः प्रस्तरमूर्तयः प्रथिताः । इयं निजां प्राचीनपरम्पराम् इदानीमपि परिपालयति-तथैव गीयते कविभिः


मरणं मङ्गलं यत्र विभूतिश्च विभूषणम्। कौपीनं यत्र कौशेयं सा काशी केन मीयते ॥


                     अथवा



 मरणं मङ्गलं यत्र विभूतिश्च विभूषणम्। कौपीनं यत्र कौशेयं सा काशी केन मीयते।।




अथवा


इयं नगरी विविधधर्माणां सङ्गमस्थली। महात्मा बुद्धः, तीर्थङ्करः पार्श्वनाथः, शङ्कराचार्यः, कबीरः, गोस्वामी तुलसीदासः अन्ये च बहवः महात्मानः अत्रागत्य स्वीयान् विचारान् प्रासारयन्। न केवलं दर्शन, साहित्ये, धर्मे, अपितु कलाक्षेत्रेऽपि इयं नगरी विविधानां कलानां, शिल्पानाञ्च कृते लोके विश्रुता । अत्रत्याः कौशेयशाटिकाः देशे-देशे सर्वत्र स्पृह्यन्ते।



अथवा


महात्मा बुद्धः, तीर्थङ्करः पार्श्वनाथः शङ्कराचार्यः, कबीरः, गोस्वामी तुलसीदासः अन्ये च बहवः महात्मानः अत्रागत्य स्वीयान् विचारान् प्रासारयन्। न केवलं दर्शन, साहित्ये, धर्मे, अपितु कलाक्षेत्रेऽपि इयं नगरी विविधानां कलानां, शिल्पानाञ्च कृते लोके विश्रुता। 



सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के संस्कृत खण्ड' में संकलित वाराणसी' नामक पाठ से लिया गया है। इस गद्यांश में वाराणसी नामक प्राचीन नगर के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।




इस अंश में वाराणसी की विशासिद्धि के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। 



अनुवाद यह नगरी (अर्थात काशी) अनेक धर्मों की संगमस्थली (मिलन स्थल) है। महात्मा बुद्ध, तीर्थकर पार्श्वनाथ, शंकराचार्य, कबीर, गोस्वामी तुलसीदास तथा अन्य बहुत-से महात्माओं ने यहाँ आकर अपने विचारों का प्रसार किया, केवल दर्शन, साहित्य और धर्म में ही नहीं, अपितु कला के क्षेत्र में भी यह नगरी तरह तरह की कलाओं और शिल्पों के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है।


यहाँ की रेशमी साड़ियाँ देश-देश में हर जगह पसन्द की जाती हैं। यहाँ की पत्थर की मूर्तियाँ प्रसिद्ध हैं। यह अपनी प्राचीन परम्परा का इस समय भी पालन कर रही है। इसलिए कवियों के द्वारा गाया गया है


श्लोक "जहाँ मरना कल्याणकारी हैं, जहाँ भस्म ही आभूषण (गहना) है और जहाँ लंगोट ही रेशमी वस्त्र है, वह काशी किसके द्वारा मापी जा सकती है?" अर्थात् काशी अतुलनीय है। इसकी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती है।


प्रश्न  उत्तर


प्रश्न 1. वाराणसी नगरी कस्याः नद्याः कूले स्थिता?

  अथवा 

वाराणसी नगरी कुत्र स्थिता अस्ति?


उत्तर वाराणसी गङ्गायाः नद्याः कूले स्थिता अस्ति।


प्रश्न 2. कस्याः शोभाम् अवलोक्य वैदेशिका पर्यटका: वाराणसी बहुप्रशंसन्ति ?


अथवा 


वैदेशिका पर्यटकाः कस्याः शोभाम् अवलोक्य वाराणसीं प्रशंसन्ति ?



उत्तर गङ्गायाः घट्टानां शोभाम् अवलोक्य वैदेशिका: पर्यटका: वाराणसी बहुप्रशंसन्ति।


प्रश्न 3. वाराणस्यां गेहे-गेहे किं द्योतते?


उत्तर वाराणस्यां गेहे-गेहे विद्याया: दिव्यां ज्योतिः द्योतते।


प्रश्न 4. सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालयः कस्यां नगर्यां विद्यते?


उत्तर सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय: वाराणस्यां नगर्यां विद्यते।


प्रश्न 5. वाराणस्यां कियंतः विश्वविद्यालयाः सन्ति ?


अथवा


 वाराणस्यां कति विश्वविद्यालयः सन्ति ?


 उत्तर वाराणस्यां त्रयः विश्वविद्यालयाः सन्ति।


प्रश्न 6. वाराणसी कस्याः भाषायाः केन्द्रम् अस्ति?



उत्तर  वाराणसी संस्कृत भाषायाः केन्द्रस्थलम् अस्ति। 


प्रश्न 7. दाराशिकोहेन उपनिषदाम् अनुवाद: कस्यां भाषायां कारितः ?


उत्तर दाराशिकोहेन उपनिषदाम् अनुवाद: फारसी भाषायां कारितः।


प्रश्न 8. वाराणसी नगरी केषां सङ्गमस्थली अस्ति?


 अथवा


 का नगरी विविधधर्माणां सङ्गमस्थली अस्ति


उत्तर वाराणसी नगरी विविधधर्माणां सङ्गमस्थली अस्ति।


प्रश्न 9. वाराणसी किमर्थं प्रसिद्धा?


उत्तर वाराणसी विद्या दर्शन- साहित्य धर्म-कला-शिल्पार्थं प्रसिद्धा अस्ति।



प्रश्न 10. वाराणसी नगरी केषां कृते लोके विश्रुता अस्ति?


उत्तर वाराणसी नगरी विद्याकलानां संस्कृतभाषायाः संस्कृतेश्च कृते लोके विश्रुता अस्ति।


प्रश्न 11. वाराणस्यां कानि वस्तूनि प्रसिद्धानि सन्ति ?


उत्तर वाराणस्यां कला-शिल्प, कौशेयशाटिका: प्रस्तरमूर्तय च प्रसिद्धानि सन्ति।


प्रश्न 12. कुत्र मरणं मंगलम् भवति?


उत्तर वाराणस्यां मरणं मंङ्गलम् भवति ।



कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड अध्याय 2 अन्योक्तिविलास : (अन्योक्तियों का सौन्दर्य) के सभी गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद






श्लोक 1


नितरां नीचोऽस्मीति त्वं खेदं कूप! कदापि मा कृथाः।

अत्यन्तसरसहृदयो यतः परेषां गुणग्रहीतासि ।।




सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।


प्रस्तुत श्लोक में अपने अवगुणों पर दुःखी न होने तथा दूसरे के गुणों को ग्रहण करने को श्रेष्ठ बताया गया है।


अनुवाद हे कुएँ! 'मैं अत्यधिक नीचा (गहरा) हूँ', तुम इस प्रकार कभी दुःखी मत होओ, क्योंकि तुम अत्यन्त सरस हृदय (जल से भरे हुए) हो और दूसरों के गुणों (रस्सियों) को ग्रहण करने वाले हो।


श्लोक 2


नीर-क्षीर- विवेके हंसालस्य त्वमेव तनुषे चेत् । विश्वस्मिन्नधुनान्यः कुलव्रतं पालयिष्यति कः।।



सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।



प्रस्तुत श्लोक में अपने कुलधर्म व कर्त्तव्यपालन की शिक्षा दी गई है। 


अनुवाद हे हंस! यदि तुम ही नीर और क्षीर अर्थात् दूध और पानी का विवेक करने में आलस्य करोगे, तो इस संसार में कौन ऐसा (व्यक्ति) है, जो अपने कुलधर्म (दूध और पानी को अलग करना) व कर्तव्य का पालन करेगा ?


श्लोक 3


कोकिल! यापय दिवसान तावद् विरसान करीलविटपेषु। यावन्मिलदलिमालः कोऽपि रसालः समुल्लुसति ।।



सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।


प्रस्तुत श्लोक में बुरे दिनों में भी धैर्य रखने को प्रेरणा दी गई है। 


अनुवाद हे कोयल! जब तक भौरों से युक्त को अम का पेड़ लहराने नहीं लगता, तब तक तुम अपने नीरस (शुष्क) दिन को भी प्रकार से करील के पेड़ पर ही बिताओ। भाव यह है कि जब तक अच्छे दिन नहीं आते तब तक व्यक्ति को अपने बुरे दिनों को किसी न किसी प्रकार से व्यतीत कर चाहिए।


श्लोक 4


रे रे चातक! सावधानमनसा मित्र! क्षणं श्रूयताम्। अम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नेतादृशाः ।


केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा। यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः ।


सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।



प्रस्तुत श्लोक में चातक के माध्यम से यह बताया गया है कि हमें किसी के सामने दीन वचन बोलकर याचना नहीं करनी चाहिए।


अनुवाद हे हे चातक! सावधान मन से क्षण भर सुनो। आसमान में बादल रहते हैं, पर सभी एक जैसे (दानी, उदार) नहीं होते हैं। कुछ तो बहुत से पृथ्वी को गीला कर देते हैं, पर कुछ तो व्यर्थ में गर्जना करते हैं। अतः तुम जिस-जिस को देखते हो अर्थात् किसी को भी देखकर उसके सामने दीन वचन मत कहो।


भाव यह है कि हर किसी के सामने याचना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हर कोई दानी नहीं होता, जो हमें कुछ दे।


श्लोक 5


न वै ताडनात तापनाद वह्निमध्ये

न वै विक्रयात् क्लिश्यमानोऽहमस्मि ।

सुवर्णस्य मे मुख्यदुःखं तदेकं

यतो मां जना गुञ्जया तोलयन्ति ।।



सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।




प्रस्तुत श्लोक में स्वर्ण के माध्यम से गुणवान और स्वाभिमानी व्यक्ति के मन की व्यथा को व्यक्त किया गया है।



अनुवाद में (स्वर्ण) न तो पीटे जाने से, न अग्नि में तपाए जाने से और न ही बेचे जाने से दुःखी होता हूँ। मेरे दुःख का सबसे बड़ा रण तो है कि लोग है कि मेरी तुलना किसी तुच्छ वस्तु से की जाती है अर्थात् गुणवान व स्वाभिमानी मुझे रत्ती (घुँघची) से तोलते हैं। सोने का अर्थात् मेरे दुःख का कारण तो एक ही है कि मेरी तुलना किसी तुच्छ वस्तु से की जाती है अर्थात गुणवान व स्वाभिमानी व्यक्ति को कष्टों को सहने में इतनी पीड़ा नहीं होती, जितनी मानसिक पीड़ा उसके स्वाभिमान को ठेस लगने से होती है।




श्लोक 6


रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभात।

भास्वानुदेष्यति हसिस्यति पङ्कजालिः ।। इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे। हा हन्त हन्त! नलिनी गज उज्जहारः।।


सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।



प्रस्तुत श्लोक में कमलिनी में बन्द भौरे के माध्यम से जीवन की क्षणभंगुरता को बताया गया है।


अनुवाद खिले कमल के पराग का रसपान करता कोई भौंरा सूर्यास्त होने पर कमल में बन्द हो गया। वह रात भर यही सोचता रहा कि 'रात्रि बीत जाएगी, सुन्दर सवेरा होगा, सूर्य उदय होगा, कमल के झुण्ड खिल जाएँगे। दुःख का विषय है कि कमल की पंखुड़ियों में बन्द भौरे के इस प्रकार की बातें सोचते-सोचते किसी हाथी ने कमलिनी को उखाड़ लिया (और भौरा कमल के "पुष्प में बन्द रह गया)। भाव यह है कि व्यक्ति सोचता कुछ है, पर ईश्वर की इच्छा से कुछ और ही हो

जाता है।


            प्रश्न उत्तर


प्रश्न 1. कूप: किमर्थ दुःखम् अनुभवति? 


उत्तर अहम् नितरी नीच: अस्मि इति विचार्य कृपः दुःखम् अनुभवति।


प्रश्न 2. अत्यन्त सरस हृदयो यतः किं ग्रहीतासि?


 उत्तर अत्यन्त सरस हृदयो यतः परेषा गुणा ग्रहोतासि ।


प्रश्न 3. नीर-क्षीर-विषये हंसस्य का विशेषताः अस्ति


उत्तर यत् हंस: नीरें और पृथक पृथक करोति। इदमेव तस्य विशेषताः अस्ति। 



प्रश्न 4. कवि हंसं किं बोधयति? 


उत्तर कवि हंस बोधयति यत् त्या नीर क्षीर विवेके आलस्यं न कुर्यात्


प्रश्न 5. कवि कोकिल कि कथयति?


अथवा 


कतिः कोकिलं किं बोधयति ?


उत्तर कविः कोकिलं कथयति यत् यावत् रसालः न समुल्लसति तावत् त्वं करीलवृक्षेषु दिवसान् यापया


प्रश्न 6. कवि चातकं किम उपदिशति (शिक्षयति)?


उत्तर कवि चातकम् उपदिशति यत् यथा सर्वे अम्भोदा: जलं न यच्छन्ति तथैव सर्वे अनाः घनं न यच्छन्ति, अतः सर्वेषां गुरतः दीनं वचन मा ब्रूहि


प्रश्न 7. सुवर्णस्य मुख्यं दुःखं किम् अस्ति? 


अथवा 


स्वर्णस्य किं मुख्य दुःखम् अस्ति?


उत्तर सुवर्णस्य मुख्यं दुःखं अस्ति यत् जनाः नाम् गुज्जया सह तोलयन्ति। 



प्रश्न 8. कोशगतः भ्रमर किम अचिन्तयत् ?


 उत्तर कोशगत भ्रमरः अचिन्तयत् यत् रात्रिर्गमिष्यति, सुप्रभातं भविष्यति,भास्वानुदेस्यति पङ्कजालि: हसिष्यति। 


प्रश्न 9. यदा भ्रमरः चिन्तयति तदा गजः किम अकरोत?


अथवा


 गजः काम् उज्जहार?


उत्तर यदा भ्रमरः चिन्तयति तदा गज: नलिनीम् उज्जहार।



कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड 03 वीर : वीरेण पूज्यते (वीर के द्वारा वीर की पूजा की जाती है)

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद




गद्यांश 1


(स्थानम् – अलक्षेन्द्रस्य सैन्यशिविरम्। अलक्षेन्द्रः आम्भीक: च आसीनौ वर्तते। वन्दिनं पुरुराजम् अग्रेकृत्वा एकतःप्रविशति यवन-सेनापतिः।) 


सेनापतिः – विजयतां सम्राट्।


पुरुराजः– एष भारतवीरोऽपि यवनराजम् अभिवादयते।


अलक्षेन्द्रः –(साक्षेपम्) अहो! बन्धनगतः अपि आत्मानं वीर इति मन्यसे पुरुराज: ?


पुरुराज: – यवनराज! सिंहस्तु सिंह एव, वने वा भवतु पञ्जरे वा


अलक्षेन्द्रः  – किन्तु पञ्जरस्थ: सिंहः न किमपि पराक्रमते।


पुरुराज: –  पराक्रमते, यदि अवसरं लभते। अपि च यवनराज!



बन्धनं मरणं वापि जयो वापि पराजयः उभयत्र समो वीरः वीरभावो हि वीरता।।


अथवा



सेनापतिः – विजयतां सम्राट्।


पुरुराजः – एष भारतवीरोऽपि यवनराजम् अभिवादयते।


अलक्षेन्द्रः – (साक्षेपम्) अहो! बन्धनगतः अपि आत्मानं वीर इति मन्यसे पुरुराज: ?


पुरुराज: – यवनराज! सिंहस्तु सिंह एव, वने वा भवतु पञ्जरे वा 


अलक्षेन्द्रः – किन्तु पञ्जरस्थ: सिंह: न किमपि पराक्रमते ।


पुरुराज: – पराक्रमते, यदि अवसरं लभते।


अथवा



बन्धनं मरणं वापि जयो वापि पराजयः। 

उभयत्र समो वीरः वीरभावो हि वीरता।।



सन्दर्भ प्रस्तुत नाट्य खण्ड हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'वीर: वीरेण पूज्यते' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में सिकन्दर और पुरु की वार्ता प्रस्तुत की गई है।


अनुवाद (स्थान-सिकन्दर का सैनिक शिविर, सिकन्दर और आम्भीक दोनों बैठे हैं। बन्दी पुरु को आगे करके एक यवन सैनिक प्रवेश करता है।)




सेनापति   –  सम्राट की जय हो।


पुरुराज – यह भारतवीर भी यवनराज का अभिवादन करता है। 


सिकन्दर – (आक्षेप सहित) अरे! पुरुराज! बन्धन में पड़े हुए भी अपने को वीर मानते हो?


पुरुराज – हे यवनराज! सिंह तो सिंह ही है, चाहे वह वन में हो या पिंजरे में।


सिकन्दर  –  किन्तु पिंजरे में पड़ा हुआ सिंह कुछ भी पराक्रम नहीं करता है।


पुरुराज –  पराक्रम करता है, यदि उसे अवसर मिलता है। और यवनराज!


श्लोक 

 "बन्धन हो अथवा मृत्यु, जय हो अथवा पराजय, वीर पुरुष दोनों ही स्थितियों में समान रहता है। वीरों के भाव को ही वीरता कहते हैं।




गद्यांश 2


आम्भिराजः – सम्राट्! वाचाल एष हन्तव्यः । 


सेनापतिः    आदिशतु सम्राट्। 


अलक्षेन्द्रः – अथ मम मैत्रीसन्धेः अस्वीकरणे तव किम् अभिमतम् आसीत् पुरुराजः !


पुरुराज: – स्वराजस्य रक्षा, राष्ट्रद्रोहाच्च मुक्तिः।


अलक्षेन्द्रः  – मैत्रीकरणेऽपि राष्ट्रद्रोहः ?


पुरुराज: –आम्। राष्ट्रद्रोहः। यवनराज! एकम् इदं भारतं राष्ट्र, बहूनि चात्र राज्यानि, बहवश्च शासकाः। त्वं मैत्रीसन्धिना तान् विभज्य भारतं जेतुम् इच्छसि। आम्भीकः चास्य प्रत्यक्षं प्रमाणम्।


अलक्षेन्द्रः –  भारतम् एकं राष्ट्रम् इति तव वचनं विरुद्धम्। इह तावत् राजानः जनाः च परस्परं द्रुह्यन्ति। 



पुरुराज: –   तत् सर्वम् अस्माकम् आन्तरिकः विषयः। बाह्यशक्तेः तत्र हस्तक्षेपः असह्यः यवनराज! पृथग्धर्माः, पृथग्भाषाभूषा अपि वयं सर्वे भारतीयाः। विशालम् अस्माकं राष्ट्रम्। तथाहि -उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥




अथवा


पुरुराज: – आम्। राष्ट्रद्रोहः। यवनराज! एकम् इदं भारतं राष्ट्र, बहूनि चात्र राज्यानि, बहवश्च शासकाः। त्वं मैत्रीसन्धिना तान् विभज्य भारतं जेतुम् इच्छसि। आम्भीकः चास्य प्रत्यक्षं प्रमाणम्।


अलक्षेन्द्रः- भारतम् एकं राष्ट्रम् इति तव वचनं विरुद्धम्। इह तावत् राजानः जनाः च परस्परं दुह्यन्ति।


अथवा


उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ॥


सन्दर्भ प्रस्तुत नाट्य खण्ड हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'वीर: वीरेण पूज्यते' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में सिकन्दर और पुरु की वार्ता प्रस्तुत की गई है।



अनुवाद 



आम्भिराज –सम्राट! यह वाचाल है, (इसकी) हत्या कर देनी चाहिए। सम्राट आज्ञा दें।


सेनापति –सम्राट आज्ञा दें।


सिकन्दर – हे पुरुराज! मेरी मैत्री सन्धि को अस्वीकार करने के पीछे तुम्हारी क्या इच्छा थी?


पुरुराज –अपने राज्य की इच्छा और राष्ट्रद्रोह से मुक्ति। 


सिकन्दर –  मित्रता करने में भी राजद्रोह ?



पुरुराज  –  हाँ राजद्रोह! यवनराज! यह भारत राष्ट्र एक है, जहाँ अनेक राज्य हैं और बहुत से शासक हैं। तुम मैत्री सन्धि के द्वारा उनमें बँटवारा करके भारत को जीतना चाहते हो और आम्भीक इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।


सिकन्दर  – भारत राष्ट्र एक है, तुम्हारा यह कथन गलत है। यहाँ राजा और प्रजा आपस में द्वेष करते हैं।


पुरुराज – यह सब हमारा (भारतीयों का) अन्दरूनी मामला है। हे यवनराज! उसमें बाहरी शक्ति का हस्तक्षेप सहन करने योग्य नहीं है। अलग धर्म, अलग भाषा, अलग पहनावा होने पर भी हम सब भारतीय हैं। हमारा राष्ट्र विशाल है, क्योंकि


श्लोक


 "जो समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में स्थित है, वह भारत नाम का देश है, जहाँ की सन्तान भारतीय हैं।"





गद्यांश 3


अलक्षेन्द्रः – अथ मे भारतविजयः दुष्करः 



पुरुराजः – न केवलं दुष्करः असम्भवोऽपि ।



अलक्षेन्द्रः  – (सरोषम्) दुर्विनीत, किं न जानासि, इदानी विश्वविजयिनः अलक्षेन्द्रस्य अग्रे वर्तसे?


पुरुराजः – जानामि, किन्तु सत्यं तु सत्यम् एव यवनराज !भारतीयाः वयं गीतायाः सन्देशं न विस्मरामः


अलक्षेन्द्रः  –कस्तावत् गीतायाः सन्देश: ?


पुरुराज: –श्रूयताम्


हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । निराशीनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ।।



अलक्षेन्द्रः –(किमपि विचिन्त्य) अलं तव गीतया पुरुराज! त्वम् अस्माकं बन्दी वर्तसे। ब्रूहि कथं त्वयि वर्तितव्यम्। 


पुरुराजः अलक्षेन्द्रः यथैकेन वीरेण वीरं प्रति।


अलक्षेन्द्रः –  (पुरो: वीरभावेन हर्षितः) साधु वीर! साधु! नूनं वीरः असि। धन्यः त्वं, धन्या ते मातृभूमिः । (सेनापतिम् उद्दिश्य) सेनापते!


सेनापति: – सम्राट्


अलक्षेन्द्रः वीरस्य पुरुराजस्य बन्धनानि मोचय। 



सेनापतिः  –  यत् सम्राट् आज्ञापयति।



अलक्षेन्द्रः –(एकेन हस्तेन पुरोः द्वितीयेन च आम्भीकस्य हस्तं गृहीत्वा) वीर पुरुराज! सखे आम्भीक! इतः परं वयं सर्वे समानमित्राणि, इदानी मैत्रीमहोत्सवं सम्पादयामः ।

(सर्वे निर्गच्छन्ति)


अथवा


हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। निराशीनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ||


सन्दर्भ प्रस्तुत नाट्य खण्ड हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'वीर: वीरेण पूज्यते' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में सिकन्दर और पुरु की वार्ता प्रस्तुत की गई है।


अनुवाद


सिकन्दर – तो फिर मेरी भारत-विजय कठिन है। 


पुरुराज – न केवल कठिन, बल्कि असम्भव भी है।


सिकन्दर  –(गुस्से से) हे दुष्ट! क्या तुम नहीं जानते कि इस समय (तुम) विश्वविजेता सिकन्दर के सामने हो?


पुरुराज –जानता हूँ, किन्तु यवनराज! सत्य तो सत्य ही है। हम भारतीय गीता के सन्देश को नहीं भूले हैं। 



सिकन्दर – तो गीता का सन्देश क्या है?



पुरुराज –


सुनिए श्लोक (यदि तुम) मारे गए तो स्वर्ग को प्राप्त करोगे और यदि जीत गए तो पृथ्वी के सुख का भोग करोगे। (इसलिए) इच्छा, मोह और सन्ताप (दु:ख) से दूर रहकर युद्ध करो।


सिकन्दर –(कुछ सोचकर) पुरुराज! अपनी गीता को रहने दो। तुम हमारे कैदी हो। बताओ, तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाए?


पुरुराज – जैसा एक वीर (दूसरे) वीर के साथ करता है। 


सिकन्दर –(पुरु के वीर-भाव से प्रसन्न होकर) ठीक है वीर! ठीक है। तुम निश्चय ही वीर हो। तुम धन्य हो, तुम्हारी मातृभूमि धन्य है। (सेनापति को लक्ष्य करके) सेनापति !


सेनापति – सम्राट!


सिकन्दर – वीर पुरुराज के बन्धन खोल दो।


सेनापति  – सम्राट की जो आज्ञा ।


सिकन्दर – (एक हाथ से पुरु का और दूसरे हाथ से आम्भीक का हाथ पकड़कर) वीर पुरुराज! मित्र आम्भीक! अब से हम सब समान मित्र हैं। अब हम मित्रता का उत्सव मनाते हैं।

(सब निकल जाते हैं।)



अथवा


श्लोक


 (यदि तुम) मारे गए तो स्वर्ग को प्राप्त करोगे और यदि जीत गए तो पृथ्वी के सुख का भोग करोगे। (इसलिए) इच्छा, मोह और संताप (दुःख) से दूर रहकर युद्ध करो।




           प्रश्न  – उत्तर


प्रश्न 1. वीरः केन पूज्यते?

उत्तर वीर: वीरेण पूज्यते । 


प्रश्न 2. पुरुराजः केन सह युद्धम् अकरोत् ?

उत्तर पुरुराज: अलक्षेन्द्रेण सह युद्धम् अकरोत्।


प्रश्न 3. अलक्षेन्द्रः कः आसीत् ?

उत्तर अलक्षेन्द्रः यवन देशस्य राजा आसीत्।


प्रश्न 4. पुरुराजः कः आसीत् ?

उत्तर पुरुराज: भारतस्य एकः वीरः नृपः आसीत् ।


प्रश्न 5. वीरभावोः किं कथ्यते?

उत्तर वीरभावो हि वीरता कथ्यते।


प्रश्न 6. भारतम् एकं राष्ट्रम् इति विरुद्धम् कस्य उक्तिः? 

उत्तर भारतम् एकं राष्ट्रम् इति विरुद्धम् इयम् अलक्षेन्द्रस्य उक्तिः


प्रश्न 7. भारतविजयः न केवलं दुष्करः असम्भवोऽपि, कस्य उक्तिः ?

 उत्तर भारतविजयः न केवलं दुष्कर: असम्भवोऽपि, इति पुरुराजस्य उक्तिः


प्रश्न 8. गीतायाः कः सन्देशा: ?

अथवा 

पुरुराजः गीतायाः कं सन्देशम् अकथयत् ?


उत्तर गीतायाः सन्देशः अस्ति यदि त्वं हतो तदा स्वर्गम् प्राप्यसि, जित्वा पृथ्वीम् भोक्ष्यसे । अतएव आशा-मोह-सन्तापरहित: भूत्वा युद्धं कुरु।


प्रश्न 9. किं जित्वा भोक्ष्यसे महीम् ? 

उत्तर युद्धं जित्वा भोक्ष्यसे महीम्


प्रश्न 10. अलक्षेन्द्रः पुरोः केन भावेन हर्षितः अभवत् ? 

उत्तर अलक्षेन्द्रः पुरोः वीरभावेन हर्षितः अभवत् ।




कक्षा 10 हिन्दी ‘संस्कृत खण्ड’04 प्रबुद्धो ग्रामीण : (बुद्धिमान ग्रामीण) के गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद




गद्यांश 1


एकदा बहवः जना धूमयानम् (रेलगाड़ी) आरुह्य नगरं प्रति गच्छन्ति स्म। तेषु केचित् ग्रामीणाः केचिच्च नागरिकाः आसन्। मौनं स्थितेषु तेषु एकः नागरिकः ग्रामीणान् अकथयत्, "ग्रामीणाः अद्यापि पूर्ववत् अशिक्षिताः अज्ञाश्च सन्ति। न तेषां विकासः अभवत् न च भवितुं शक्नोति।” तस्य तादृशं जल्पनं श्रुत्वा कोऽपि चतुरः ग्रामीणः अब्रवीत्-“भद्र नागरिक! भवान् एव किञ्चित् ब्रवीतु, यतो हि भवान् शिक्षितः बहुज्ञः च अस्ति।"



अथवा


तस्य तां वार्ता श्रुत्वा स चतुरः ग्रामीणः अकथयत्-“भोः वयम् अशिक्षिताः भवान् च शिक्षितः, वयम् अल्पज्ञाः भवान् च बहुज्ञः इत्येवं विज्ञाय अस्माभिः समयः कर्त्तव्यः वयं परस्परं प्रहेलिकां प्रक्ष्यामः। यदि भवान् उत्तरं दातुं समर्थः न भविष्यति तदा भवान् दशरूप्यकाणि दास्यति। यदि वयम् उत्तरं दातुं समर्थाः न भविष्यामः तदा दशरूप्यकाणाम् अर्धं पञ्चरूप्यकाणि दास्यामः।"


अथवा


इदम् आकर्ण्य स नागरिकः सदर्पो ग्रीवाम् उन्नमय्य अकथयत्, "कथयिष्यामि, परं पूर्व समयः विधातव्यः।" तस्य तां वार्ता श्रुत्वा स चतुरः ग्रामीणः अकथयत्- “भोः वयम् अशिक्षिताः भवान् च शिक्षितः, वयम् अल्पज्ञाः भवान् च बहुज्ञः, इत्येवं विज्ञाय अस्माभिः समयः कर्त्तव्यः वयं परस्परं प्रहेलिकां प्रक्ष्यामः। यदि भवान् उत्तरं दातुं समर्थः न भविष्यति तदा भवान् दशरूप्यकाणि दास्यति। यदि वयम् उत्तरं दातुं समर्थाः न भविष्यामः तदा दशरूप्यकाणाम् अर्ध पञ्चरूप्यकाणि दास्यामः।”


अथवा


भवान् एवं किञ्चित् ब्रवीतु, यतो हि भवान् शिक्षितः बहुज्ञः च अस्ति। इदम् आकर्ण्य स नागरिकः सदर्पो ग्रीवाम् उन्नमय्य अकथयत्-"कथयिष्यामि, परं पूर्व समयः विधातव्यः।” तस्य तां वार्ता श्रुत्वा स चतुरः ग्रामीणः अकथयत्- "भोः वयम् अशिक्षिताः भवान् च शिक्षितः, वयम् अल्पज्ञाः भवान् च बहुज्ञः इत्येवं विज्ञाय अस्माभिः समयः कर्त्तव्यः वयं परस्परं प्रहेलिकां प्रक्ष्यामः।



सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'प्रबुद्धो ग्रामीणः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में ग्रामीणों की चतुराई को हास्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ग्रामीण और शहरी के बीच पहेली पूछने का वर्णन है।


अनुवाद – एक बार बहुत से मनुष्य रेलगाड़ी पर सवार होकर नगर की ओर जा रहे थे। उनमें कुछ ग्रामीण और कुछ शहरी व्यक्ति थे, उनके (ग्रामीणों) मौन रहने पर एक शहरी ने ग्रामीणों का उपहास करते हुए कहा, "ग्रामीण आज भी पहले की तरह अशिक्षित और मूर्ख हैं। न तो उनका (अब तक) विकास हुआ है और न हो सकता है।" उसकी इस तरह की बातें सुनकर कोई चतुर ग्रामीण बोला, "हे सभ्य शहरी! आप ही कुछ कहें, क्योंकि आप ही पढ़े-लिखे और जानकार हैं। यह सुनते ही शहरी ने घमण्ड के साथ गर्दन ऊँची उठाकर कहा-" कहूँगा, पर हमें पहले एक शर्त लगा लेनी चाहिए।" उसकी इस बात को सुनकर उस चतुर ग्रामीण ने कहा, "अरे हम अशिक्षित हैं और आप शिक्षित हैं, हम कम जानते हैं और आप बहुत जानते हैं, ऐसा जानकर शर्त लगानी चाहिए! हम



गद्यांश 2


“आम् स्वीकृतः समयः" इति कथिते तस्मिन् नागरिके स ग्रामीणः नागरिकम् अवदत्-"प्रथमं भवान् एव पृच्छतु।" नागरिकश्च तं ग्रामीणम् अकथयत्- "त्वमेव प्रथमं पृच्छ” इति। इदं श्रुत्वा स ग्रामीणः अवदत् "युक्तम्, अहमेव प्रथमं पृच्छामि अस्या उत्तरं ब्रवीतु भवान्।"



अपदो दूरगामी च साक्षरो न च पण्डितः।

अमुखः स्फुटवक्ता च यो जानाति स पण्डितः॥


अथवा


नागरिकः बहुकालं यावत् अचिन्तयत्, परं प्रहेलिकायाः उत्तरं दातुं समर्थः न अभवत् । अतः ग्रामीणम् अवदत्" अहम् अस्याः प्रहेलिकायाः उत्तरं न जानामि।" इदं श्रुत्वा ग्रामीणः अकथयत् यदि भवान् उत्तरं न जानाति, तर्हि ददातु दशरूप्यकाणि ।” अतः म्लानमुखेन नागरिकेण समयानुसारं दशरूप्यकाणि दत्तानि।


अथवा


अपदो दूरगामी च साक्षरो न च पण्डितः।

अमुखः स्फुटवक्ता च यो जानाति स पण्डितः ॥




सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'प्रबुद्धो ग्रामीणः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में ग्रामीणों की चतुराई को हास्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ग्रामीण और शहरी के बीच पहेली पूछने का वर्णन है।




इस अंश में ग्रामीण द्वारा नागरिक से पहेली पूछने का वर्णन किया गया है। 


अनुवाद "हाँ! शर्त स्वीकार है", उस शहरी द्वारा ऐसा कहे जाने पर उस ग्रामीण ने शहरी (व्यक्ति) से कहा, "पहले आप पूछें।" और शहरी ने उस ग्रामीण से कहा, "पहले तुम ही पूछो, "यह सुनकर वह ग्रामीण बोला, "ठीक है, मैं ही पहले पूछता हूँ


श्लोक "बिना पैर वाला है, किन्तु दूर तक जाता है, साक्षर (अक्षर सहित) है, किन्तु पण्डित नहीं है। मुख नहीं है, किन्तु स्पष्ट बोलने वाला है, जो इसे जानता है, वह पण्डित ज्ञानी है। आप इसका उत्तर दें।"


शहरी (व्यक्ति) बहुत देर तक सोचता रहा, लेकिन पहेली का उत्तर देने में असमर्थ रहा। अतः उसने ग्रामीण से कहा, मैं इस पहेली का उत्तर नहीं जानता हूँ। यह सुनकर ग्रामीण ने कहा, यदि आप उत्तर नहीं जानते हैं, तो दस रुपये दें। अतः उदास मुख वाले शहरी (व्यक्ति) ने दस रुपये शर्त के अनुसार दे दिए।


गद्यांश 3


पुनः ग्रामीणोऽब्रवीत् - "इदानीं भवान् पृच्छतु प्रहेलिकाम्।" दण्डदानेन खिन्नः नागरिकः बहुकालं विचार्य न काञ्चित् प्रहेलिकाम् अस्मरत्, अतः अधिकं लज्जमानः अब्रवीत्-"स्वकीयायाः प्रहेलिकायाः त्वमेव उत्तरं ब्रूहि " तदा सः ग्रामीणः विहस्य स्वप्रहेलिकायाः सम्यक् उत्तरम् अवदत् "पत्रम्" इति। यतो हि इदं पदेन विनापि दूरं याति, अक्षरैः युक्तमपि न पण्डितः भवति। एतस्मिन्नेव काले तस्य ग्रामीणस्य ग्रामः आगतः। स विहसन् रेलयानात् अवतीर्य स्वग्रामं प्रति अचलता नागरिकः लज्जितः भूत्वा पूर्ववत् तूष्णीम् अतिष्ठत्। सर्वे यात्रिणः वाचालं तं नागरिकं दृष्ट्वा अहसन् । तदा स नागरिकः अन्वभवत् यत् ज्ञानं सर्वत्र सम्भवति। ग्रामीणाः अपि कदाचित् नागरिकेभ्यः प्रबुद्धतराः भवन्ति ।


अथवा


एतस्मिन्नेव काले तस्य ग्रामीणस्य ग्रामः आगतः। स विहसन् रेलयानात् अवतीर्य स्वग्रामं प्रति अचलत्। नागरिकः लज्जितः भूत्वा पूर्ववत् तूष्णीम् अतिष्ठत्। सर्वे यात्रिणः वाचालं तं नागरिकं दृष्ट्वा अहसन्। तदा स नागरिकः अन्वभवत् यत् ज्ञानं सर्वत्र सम्भवति। ग्रामीणाः अपि कदाचित् नागरिकेभ्यः प्रबुद्धतराः भवन्ति।



सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'प्रबुद्धो ग्रामीणः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में ग्रामीणों की चतुराई को हास्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ग्रामीण और शहरी के बीच पहेली पूछने का वर्णन है।


इस अंश में नागरिक द्वारा अपनी भूल की अनुभूति होने एवं सीख मिलने का वर्णन है।


अनुवाद – फिर ग्रामीण बोला "अब आप पहेली पूछें। दण्ड चुकाने (देने) से दुःखी शहरी बहुत समय तक सोचने-विचारने के बाद भी कोई पहेली न याद कर सका। अत: बहुत अधिक लज्जा का अनुभव करता हुआ बोला, "अपनी पहेली का उत्तर तुम ही दो" तब उस ग्रामीण ने हँसकर अपनी पहेली का सही-सही उत्तर दिया 'पत्र | क्योंकि वह (पत्र) पैरों के बिना भी दूर-दूर तक जाता है और अक्षरों से युक्त होने पर भी पण्डित नहीं होता है। इसी समय उस ग्रामीण का गाँव आ गया। वह हँसकर रेलगाड़ी से उतरकर अपने गाँव की ओर चल पड़ा। शहरी (व्यक्ति) लज्जित होकर पहले की तरह बैठा रहा। सारे यात्री उस बहुत बोलने वाले शहरी (व्यक्ति) को देख कर हँस रहे थे। तब उस शहरी (व्यक्ति) ने अनुभव किया कि ज्ञान हर स्थान पर सम्भव है। कभी ग्रामीण भी शहरियों से अधिक बुद्धिमान होते (निकल आते हैं।




प्रश्न 2. ग्रामीणान् उपहसन् नागरिकः किम् अकथयत्?


उत्तर  – ग्रामीणान् उपहसन् नागरिक: अकथयत्- "ग्रामीणा: अद्यापि पूर्ववत् अशिक्षिताः अज्ञाश्च सन्ति। न तेषां विकासः अभवत् न च भवितुम् शक्नोति।"


प्रश्न 3. नागरिकः कथं किमर्थं लज्जितः अभवत् ?


उत्तर नागरिक: ग्रामीणस्य प्रहेलिकायाः उत्तरम् दातुं न अशक्नोत् अतः सःलज्जितः अभवत् ।


प्रश्न 4. ग्रामीणस्य प्रहेलिकायाः किम् उत्तरम् आसीत् ?

अथवा 

प्रहेलिकायाः किम् उत्तरम् आसीत् ? 

उत्तर ग्रामीणस्य प्रहेलिकाया: उत्तरं आसीत् 'पत्रम्' ।


प्रश्न 5. पदेन बिना किम् दूरं याति।

उत्तर पदेन बिना पत्रं दूरं याति।


प्रश्न 6. अमुखोऽपि कः स्फुटवक्ता भवति?

उत्तर अमुखोऽपि पत्रं स्फुटवक्ता भवति। 


प्रश्न 7. धूमयाने समयः केन जितः ?

उत्तर धूमयाने समय: ग्रामीणेन जितः।


प्रश्न 8. अन्ते नागरिकः किम् अनुभवम् अकरोत् ?

अथवा

 क: अन्वभवत् यत् ज्ञानं सर्वत्र सम्भवति?

उत्तर अन्ते नागरिक: अनुभवं अकरोत् यत् ज्ञानम् सर्वत्र सम्भवति


प्रश्न 9. ज्ञानं कुत्र सम्भवति? 

उत्तर ज्ञानं सर्वत्र सम्भवति।


प्रश्न 10. ग्रामीणं नागरिकम् अपृच्छत् ?

उत्तर ग्रामीणं नागरिकम् एकं प्रहेलिकाम् अपृच्छत् ।




कक्षा 10वी हिन्दी‘ संस्कृत खण्ड’अध्याय 05 देशभगक्त : चंद्रशेखर के गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

     




 गद्यांश 1


( स्थानम् – वाराणसीन्यायालयः, न्यायाधीशस्य पीठे एकः दुर्धर्षः पारसीक: तिष्ठति, आरक्षकाः चन्द्रशेखरं तस्य सम्मुखम् आनयन्ति। अभियोगः प्रारभते।


चन्द्रशेखरः पुष्टाङ्गः गौरवर्णः षोडशवर्षीयः किशोर: ।)


आरक्षकःश्रीमन्! अयम् अस्ति चन्द्रशेखरः। अयं राजद्रोही। गतदिने अनेनैव असहयोगिनां सभायां एकस्य आरक्षकस्य दुर्जयसिंहस्य मस्तके प्रस्तरखण्डेन प्रहारः कृतः तेन दुर्जयसिंहः आहतः।


न्यायाधीशः - (तं बालकं विस्मयेन विलोकयन्) रे बालक! तव किं नाम?




चन्द्रशेखर: - आजाद: (स्थिरीभूय) ।


न्यायाधीशः - तव पितुः किं नाम?


चन्द्रशेखर: – स्वतन्त्रः ।


न्यायाधीशः – त्वं कुत्र निवससि? तव गृहं कुत्रास्ति?



चन्द्रशेखरः  – कारागार एव मम गृहम् ।


न्यायाधीशः - (स्वगतम्) कीदृशः प्रमत्तः स्वतन्त्रतायै अयम् ? (प्रकाशम्) अतीव धृष्ट: उद्दण्डश्चायं नवयुवकः ।


अहम् इमं पञ्चदश कशाघातान् दण्डयामि।


चन्द्रशेखरः – नास्ति चिन्ता।



अथवा


न्यायाधीशः - (तं बालकं विस्मयेन विलोकयन) रे बालक! तव किं नाम ?


चन्द्रशेखरः  –आजाद: (स्थिरीभूय) ।


न्यायाधीशः – तव पितुः किं नाम?


चन्द्रशेखरः - स्वतन्त्रः।


न्यायाधीशः – त्वं कुत्र निवससि? तव गृहं कुत्रास्ति?



चन्द्रशेखरः कारागार एवं मम गृहम्।



न्यायाधीशः –(स्वगतम्) कीदृशः प्रमत्तः स्वतन्त्रतायै अयम् ?

(प्रकाशम्) अतीव धृष्टः उद्दण्डश्चार्य नवयुवकः 


अथवा


आरक्षकः – श्रीमन्! अयम् अस्ति चन्द्रशेखरः। अयं राजद्रोही। गतदिने अनेनैव असहयोगिनां सभायां एकस्य आरक्षकस्य दुर्जयसिंहस्य मस्तके प्रस्तरखण्डेन प्रहारः कृतः तेन दुर्जयसिंह आहतः ।


न्यायाधीशः – (तं बालकं विस्मयेन विलोकयन्) रे बालक! तव कि नाम?


चन्द्रशेखरः– आजाद: (स्थिरीभूय) ।


न्यायाधीशः – तव पितुः किं नाम ?


चन्द्रशेखरः – स्वतन्त्रः 


न्यायाधीशः – त्वं कुत्र निवससि ? तव गृहं कुत्रास्ति?


चन्द्रशेखरः – कारागार एव मम गृहम् ।


सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'देशभक्तः चन्द्रशेखरः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में देशभक्त बालक चन्द्रशेखर की निर्भीकता का वर्णन है।


अनुवाद – (स्थान- वाराणसी न्यायालय न्यायाधीश के आसन पर एक उच्छृंखल पारसी बैठा है। सिपाही चन्द्रशेखर को उसके सामने लाते हैं। मुकदमा शुरू होता है। चन्द्रशेखर पुष्ट अंगोंवाला गोरे रंग का सोलह वर्षीय किशोर है।)


सिपाही – श्रीमान! यह चन्द्रशेखर है। यह राजद्रोही है। पिछले दिनों इसने ही असहयोगियों की सभा में एक सिपाही दुर्जनसिंह के माथे पर पत्थर के टुकड़े से प्रहार किया, जिससे दुर्जनसिंह घायल हो गया।


न्यायाधीश – (उस बालक को आश्चर्य से देखते हुए) रे बालक! तेरा क्या नाम है?


चन्द्रशेखर – आजाद (दृढ़ होकर)।


न्यायाधीश – तेरे पिता का क्या नाम है?


चंद्रशेखर – स्वतन्त्र


न्यायाधीश – तुम कहाँ रहते हो? तुम्हारा घर कहाँ है? 


चन्द्रशेखर –जेलखाना (कारागार) ही मेरा घर है। 


न्यायाधीश – (अपने आप से) यह स्वतन्त्रता के लिए कितना मतवाला है? (प्रकट रूप में) यह अत्यन्त ढीठ और उद्दण्ड नवयुवक है। मैं इसे पन्द्रह कोड़ों की सजा देता हूँ।


चन्द्रशेखर – चिन्ता नहीं है।


               



             गद्यांश 2


(ततः दृष्टिगोचरौ भवतः- कौपीनमात्रावशेषः, फलकेन दृढं बद्धः चन्द्रशेखरः, कशाहस्तेन चाण्डालेन, अनुगम्यमानः कारावासाधिकारी गण्डासिंहश्च)


गण्डासिंहः – (चाण्डालं प्रति) दुर्मुख! मम आदेशसमकालमेव कशाघातः कर्त्तव्यः । (चन्द्रशेखर प्रति) रे दुर्विनीत युवक ! लभस्व इदानीं स्वाविनयस्य फलम्। कुरु राजद्रोहम्। दुर्मुख! कशाघातः एकः (दुर्मुखः चन्द्रशेखरं कशया ताड़यति।) 



चन्द्रशेखर  –    जयतु भारतम्




गण्डासिंह: – दुर्मुख! द्वितीयः कशाघात:। (दुर्मुख: पुन: ताडयति।)ताडित: चन्द्रशेखर: पुन: पुन: "भारतं जयतु" इति वदति। (एवं स पञ्चदशकशाघातैः ताडितः ।)

यदा चन्द्रशेखर: कारागारात् मुक्त: बहिः आगच्छति, तदैव सर्वे जनाः तं परितः वेष्टयन्ति, बहवः बालकाः तस्य पादयोः पतन्ति, तं मालाभि अभिनन्दयन्ति च


चन्द्रशेखरः – किमिदं क्रियते भवद्भिः ? वयं सर्वे भारतमातुः अनन्यभक्ताः । तस्याः शत्रूणां कृते मदीया: रक्तबिन्दवः अग्निस्फुलिङ्गाः भविष्यन्ति


("जयतु भारतम्" इति उच्चैः कथयन्तः सर्वे गच्छन्ति।)



सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'देशभक्तः चन्द्रशेखरः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में देशभक्त बालक चन्द्रशेखर की निर्भीकता का वर्णन है।




अनुवाद (तब लँगोट मात्र धारण किए हुए, हथकड़ी से दृढ़तापूर्वक बँधे हुए चन्द्रशेखर तथा हाथ में कोड़ा थामे हुए चाण्डाल का अनुगमन करता हुआ जेल अधिकारी गण्डासिंह दिखाई पड़ता है।)


गण्डासिंह


(चाण्डाल से) हे दुर्मुख! मेरे आदेश देते ही कोड़े लगाना। (चन्द्रशेखर से) अरे उद्धण्ड युवक! अब तू अपनी उद्घण्डता का फल प्राप्त कर (और) राजद्रोह कर! हे दुर्मुख! एक कोड़े का प्रहार करो। (दुर्मुख चन्द्रशेखर को कोड़े लगाता है।)


चन्द्रशेखर – जय भारत।



गण्डासिंह –  हे दुर्मुख! दूसरा कोड़ा (लगा)। (दुर्मुख फिर कोड़ा लगाता है।) प्रताड़ित होने पर चन्द्रशेखर बार-बार कहता है। 'जय भारत'। (इस प्रकार वह पन्द्रह कोड़ों से पीटा जाता है।) जब चन्द्रशेखर बन्दीगृह (जेल) से छूटकर बाहर आता है, तब सारे लोग उसे चारों ओर से घेर लेते हैं। बहुत से बालक उसके पैरों पर गिरते हैं तथा मालाओं से उसका स्वागत करते हैं।


चन्द्रशेखर


आप लोग यह क्या कर रहे हैं? हम सब भारत माता के परम भक्त हैं। उसके दुश्मनों हेतु हमारी रक्त की ये बूंदे आग की चिंगारियाँ होगी। ('जय भारत' ऐसा ऊँची ध्वनि में कहते हुए सब चल पड़ते हैं।)


               प्रश्न उत्तर


प्रश्न 1. चन्द्रशेखरः कः आसीत् ?


उत्तर चन्द्रशेखर: एकः प्रसिद्धः क्रान्तिकारी देशभक्तः आसीत्।


प्रश्न 2. केन कारणेन चन्द्रशेखरः न्यायालये आनीत: ?


उत्तर चन्द्रशेखर: राजद्रोहस्य आरोपे न्यायालये आनीतः। 


प्रश्न 3. चन्द्रशेखर: स्वनाम किम् अकथयत् ?


उत्तर चन्द्रशेखर: स्वनाम आजादः इति अकथयत् ।



प्रश्न 4. चन्द्रशेखर: स्वपितुः नामः किम् अकथयत् ?


उत्तर चन्द्रशेखरः स्वपितुः नामः स्वतन्त्र इति अकथयत्।


प्रश्न 5. 'कारागार एवं मम गृहम्' इति कः अवदत् ? अथवा 

'कारागर एव मम गृहम् कस्य वचनम् अस्ति?


उत्तर 'कारागार एव मम गृहम्' इति चन्द्रशेखरः अवदत् । 


प्रश्न 6. चन्द्रशेखर: स्वगृहम् कुत्र किम् अवदत् ?


उत्तर चन्द्रशेखर: स्वगृहम् कारागारम् अवदत् । 



प्रश्न 7. न्यायाधीश: चन्द्रशेखरं किम् अदण्डयत् ?


अथवा


 न्यायाधीश: चन्द्रशेखरं कथम् अदण्डयत् ?


 उत्तर न्यायाधीश: चन्द्रशेखरं पञ्चदश कशाघातान् अदण्डयत्।


प्रश्न 8. दुर्मुखः कः आसीत् ? 


उत्तर दुर्मुख: चाण्डाल: आसीत्।



प्रश्न 9. कशयाताहितः चन्द्रशेखरः पुनःपुनः किम् अवदत् ?

 उत्तर कशयाताड़ितः चन्द्रशेखरः पुनः पुनः 'जयतु भारतम्' इति अवदत् । 


प्रश्न 10. चन्द्रशेखरस्य रक्तबिन्दवः अग्निस्फुलिङ्गाः केषां कृते भविष्यन्ति ?


उत्तर चन्द्रशेखरस्य रक्तबिन्दवः शत्रूणां कृते अग्निस्फुलिङ्गाः भविष्यन्ति



कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड 06 केन किं वर्धते? (किससे क्या बढ़ता है)गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद




गद्यांश


सुवचनेन मैत्री,                  इन्दुदर्शनेन समुद्रः,



शृङ्गारेण रागः,                 विनयेन गुणः,


दानेन कीर्तिः,                 उद्यमेन श्रीः,


सत्येन धर्मः,।                 पालनेन उद्यानम्


सदाचारेण विश्वासः,          अभ्यासेन विद्या


न्यायेन राज्यम्,।              औचित्येन महत्त्वम्,



औदार्येण प्रभुत्वम्,             क्षमया तपः


पूर्ववायुना जलदः,               लाभेन लोभः,


पुत्रदर्शनेन हर्षः,                  मित्रदर्शनेन आह्लादः


दुर्वचनेन कलहः,।                तृणैः वैश्वानरः


नीचसङ्गेन दुश्शीलता,            उपेक्षया रिपुः


कुटुम्बकलहेन दुःखम्,।         दुष्टहृदयेन दुर्गतिः,


अशौचेन दारिद्र्यम्,              अपथ्येन रोगः


असन्तोषेण तृष्णा,                व्यसनेन विषयः।


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'केन किं वर्धते?' पाठ से लिया गया है। इसमें जीवनोपयोगी बातें बतायी गई हैं कि किन-किन गुणों से क्या-क्या बढ़ता है।


अनुवाद – सुन्दर वचनों से मित्रता, चन्द्रमा के दर्शन से समुद्र, शृंगार करने से प्रेम, विनम्रता से गुण, दान से यश, परिश्रम करने से लक्ष्मी (धन), सत्य का पालन करने से धर्म, पालन-पोषण (देख-भाल) करने से उद्यान, सदाचार से विश्वास, अभ्यास से विद्या, न्याय करने से राज्य, उचित व्यवहार से महत्त्व, उदारता से प्रभुत्व, क्षमा से तप, पूर्व से चलने वाली हवा (पुरवाई) से बादल, लाभ से लोभ, पुत्र को देखने से खुशी, मित्र को देखने से आनन्द, बुरे वचनों से कलह, तिनकों (घास-फूँस) से आग, नीच लोगों की संगति से दुष्टता, उपेक्षा से शत्रु, परिवार के झगड़े से दुःख, दुष्ट हृदय से दुर्गति, अपवित्रता से दरिद्रता, अपथ्य (परहेज न करने से) से रोग, असन्तोष से लालच और बुरी आदतों से विषय वासना बढ़ती है।


प्रश्न 1. मैत्री केन वर्धते?


अथवा


 सुवचनेन किं वर्धते?


 उत्तर मैत्री सुवचनेन वर्धते


प्रश्न 2. समुद्र केन वर्धते ।


अथवा 


इन्दुदर्शनेन कः वर्धते?


उत्तर इन्दुदर्शनेन समुद्रः वर्धते ।


प्रश्न 3. दानेन का वर्धते?


अथवा 


कीर्तिः केन वर्धते?


उत्तर दानेन कीर्तिः वर्धते।


प्रश्न 4. श्री केन वर्धते?


उत्तर श्री उद्यमेन वर्धते।



प्रश्न 5. सत्येन कः वर्धते? 


अथवा 


धर्म: केन वर्धते?


उत्तर सत्येन धर्म: वर्धते ।


प्रश्न 6. उद्यानम् केन वर्धते?


उत्तर उद्यानम् पालनेन वर्धते।


प्रश्न 7. विद्या केन वर्धते? अथवा अभ्यासेन किं वर्धते? 


उत्तर विद्या अभ्यासेन वर्धते।


प्रश्न 8. औदार्येण किं वर्धते?


उत्तर औदार्येण प्रभुत्वं वर्धते


प्रश्न 9. तपः केन वर्धते?


उत्तर तपः क्षमया वर्धते


प्रश्न 10. लोभः केन वर्धते?


उत्तर लोभ लाभेन वर्धते।


प्रश्न 11. पुत्रदर्शनेन कः वर्धते? उत्तर पुत्रदर्शनेन हर्षः वर्धते ।


प्रश्न 12. कलहः केन वर्धते?


उत्तर कलह: दुर्वचनेन वर्धते


प्रश्न 13. वैश्वानरः केन वर्धते? उत्तर वैश्वानरः तृणैः वर्धते ।


प्रश्न 14. नीचसङ्गेन का वर्धते?


उत्तर नीच सङ्गेन दुश्शीलता वर्धते


प्रश्न 15. रिपुः कया वर्धते?


उत्तर रिपुः उपेक्षया वर्धते


प्रश्न 16. रोग: केन वर्धते?


उत्तर रोग: अपथ्येन वर्धते।


प्रश्न 17. तृष्णा केन वर्धते?


उत्तर तृष्णा असन्तोषेण वर्धते।



कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड 07 आरुणि श्वेतकेतु संवाद (आरुणि श्वेतकेतु संवाद)गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद





गद्यांश 1


सह द्वादश वर्ष उपेत्य चतुर्विंशति वर्षः सर्वान् वेदानधीत्य महामना अनूचानमानी स्तब्ध एयाय। तं हपितोवाच श्वेतकेतो यन्नु सोम्येदं महामना अनूचानमानी स्तब्धोऽस्युत तमादेशमप्रायः




सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित "छांदोग्य उपनिषद् पष्ठोध्याय से "आरुणि श्वेतकेतु संवाद" नामक पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद कुमार श्वेतकेतु बारह वर्ष तक गुरु के समीप रहते हुए 24 वर्ष की आयु तक सभी वेदों का अध्ययन करके बड़े ही गर्वित भाव से अपने घर वापस आया। तब उसके पिता आरुणि ने कहा हे पुत्र श्वेतकेतु! तुम्हारे द्वारा जो कुछ भी अपने गुरु से सीखा गया है वह मुझे बतलाओ तब महान् मन वाले पुत्र श्वेतकेतु पिता के द्वारा यह पूछने पर स्तब्ध रह गया।


आरुणि ने श्वेतकेतु से पूछा बेटे क्या तुम्हारे गुरु जी ने वह रहस्य भी बताया है, जिससे सारा अज्ञात ज्ञात हो जाता है। श्वेतकेतु वह नहीं जानता था। इसलिए वह स्तब्ध रह गया। उसने नम्रता पूर्वक पिता से पूछा ऐसा वह कौन सा रहस्य है, जो मेरे आचार्य ने मुझे नहीं बताया तब आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को उस रहस्य के बारे में प्रवचन किया।


गद्यांश 2


श्वेतकेतुर्हारुणेय आस त् हँ पितोवाच श्वेतकेतो वस ब्रह्मचर्यम । न वै सौम्यास्मत्कुलीनोऽननूच्य बृहमबन्धुरिव भवतीति । येनाश्रुतं श्रुतम् भवत्यमत। मतमविज्ञानं विज्ञातंमिति। कथं नु भगवः से आदेशो भवतीति। न वै नूनं भगवन्तस्त एतदवेदिषुर्यद्धयेतद वेदिष्यन् कथं मे नावक्ष्यन्निति भगवान् स्त्वेव मे तद्ब्रवीत्विति तथा सोम्येति होवाच । 



सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित "छांदोग्य उपनिषद् पष्ठोध्याय से "आरुणि श्वेतकेतु संवाद" नामक पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद एक दिन आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहा कि बेटा, किसी गुरु के आश्रम में जाकर तुम ब्रह्मचर्य की साधना करो। वहाँ नम्रता पूर्वक सभी वेदों का गहन अध्ययन करो। यही हमारे कुल की परम्परा रही है कि हमारे वंश में कोई भी केवल 'ब्रह्म बन्धु' (अर्थात् केवल ब्राह्मणों का सम्बन्धी अथवा स्वयं वेदों को न जानने वाला) नहीं रहा, अर्थात् तुम्हारे सभी पूर्वज ब्रह्म ज्ञानी हुए हैं। आरुणि ने पुत्र श्वेतकेतु से पूछा हे वत्स! क्या तुम्हारे गुरु जी ने से वह रहस्य तुम्हें समझाया है, जिससे सारा अज्ञात ज्ञात हो जाता है।


बिना सुना भी सुनाई देने लगता है। अमत भी मत बन जाता है। बिना विशेष ज्ञात हुआ भी विशिष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है तथा कैसे वह भगवान् का आदेश होता है यह सब कुछ ज्ञान-विज्ञान, सत्- असत् आदि का रहस्य क्या तुम्हें मालूम है। श्वेतकेतु स्तब्ध रह गया, उसने पिता से निवेदन किया कि है पिता जी अज्ञात को ज्ञात करने वाले उस रहस्य को आप मेरे लिए आदेश अथवा उपदेश कीजिए। ऐसा श्वेतकेतु ने अपने पिता आरुणि से कहा।


गद्यांश 3 


यथा सोम्यैकेन नखनिकृन्तनेन सर्व कार्ष्णायसं विज्ञातं स्याद्वाचा रम्भण विकारो नामधेयं कृष्णायसमित्येव सत्यमेव सोम्य स आदेशो भवतीति।। यथा सोम्यैकेन लोहमणिना सर्व लोहमयं विज्ञातं, स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं लोहमित्येव सत्यम् ॥ 


सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित "छांदोग्य उपनिषद् पष्ठोध्याय से "आरुणि श्वेतकेतु संवाद" नामक पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद – जब आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को वेदाध्ययन के बाद गर्वित / घमण्डी जाना तो उन्होंने पुत्र श्वेतकेतु का घमण्ड दूर करने के लिए उससे पूछा कि पुत्र क्या तुम्हें मालूम है कि वह कौन-सी शक्ति है जिसे प्राप्त करने से हम वह सब जान लेते हैं जिसे हमने न तो देखा है, न उसके बारे में कभी सुना है और न ही कभी सोचा है। यह सुन कर श्वेतकेतु स्तब्ध रह गया। वह बोला कि पिता जी यह सब तो मेरे गुरु जी ने मुझे नहीं सिखाया। मेरे गुरु जी से मुझे जो विद्या / ज्ञान मिला है। वह मुझे मालूम है। कृपया करके आप मुझे उस रहस्य के बारे में बताइए। पिता ने पूछा हे सौम्य!


जिस प्रकार जो लोहा नाखून काटने वाले औजार (नेल कटर) में है वहीं लोहा लोहे से बनी अन्य वस्तुओं में भी है विद्यमान है। यह कैसे मालूम पड़ता है। श्वेतकेतु ने निवदेन किंया कि हे पिता श्री आप मुझे वह सब बतलाएँ। पिता ने कहा कि लोहे से बनी सभी चीजों में एक तत्त्व सर्वमान्य होता है वह है लौह तत्त्व / यही ज्ञान हमें मिट्टी से बनी चीजों में मिट्टी तत्त्व तथा सोने से बनी चीजों में सर्वमान्य 'सोना' तत्त्व समझना चाहिए। यही आदेश है तथा यही उपदेश भी है।





प्रश्न उत्तर




प्रश्न 1. श्वेतकेतु: कस्य पुत्रः आसीत् ?

 उत्तर श्वेतकेतुः आरुणेः पुत्रः असीत् ।


प्रश्न 2. श्वेतकेतुः कति वर्षाणि उपेत्य विद्याध्ययनम् अकरोत् ?

उत्तर श्वेतकेतुः द्वादश वर्षाणि उपेत्य विद्याध्ययनम अकरोत् ।


 प्रश्न 3. कः वेदान् अधीत्य स्तब्ध एयाय?

उत्तर श्वेतकेतुः सर्वान् वेदान् अधीत्य स्तब्ध एयाय


प्रश्न 4. ब्रह्मबन्धुरिव कस्य कुले न अभवत् ?

 उत्तर ब्रह्मबन्धुरिव श्वेतकेतोः कुले न अभवत्।


प्रश्न 5. "आरुणिः श्वेतकेतुः संवादः" कस्मात्, ग्रन्थात् उद्धृतः अस्ति? 

उत्तर "आरुणि: श्वेतकेतु : संवादः" छान्दोग्योपनिषदस्य षष्ठोध्यायात् उद्धृतःअस्ति।



कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड (08) भारतीया संस्कृति : (भारतीय संस्कृति)गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद




गद्यांश 1


मानवजीवनस्य संस्करणम् संस्कृतिः। अस्माकं पूर्वजाः मानवजीवनं संस्कर्तुं महान्तं प्रयत्नम् अकुर्वन्। ते अस्माकं जीवनस्य संस्करणाय यान् आचारान् विचारान् च अदर्शयन् तत् सर्वम् अस्माकं संस्कृतिः। "विश्वस्य स्रष्टा ईश्वरः एक एव" इति भारतीयसंस्कृतेः मूलम् । विभिन्नमतावलम्बिनः विविधैः नामभि एकम् एव ईश्वर भजन्ते ।


अथवा


मानवजीवनस्य संस्करणम् संस्कृतिः। अस्माकं पूर्वजाः मानव जीवन संस्कर्तुं महान्तं प्रयत्नम् अकुर्वन्। ते अस्माकं जीवनस्य संस्करणाय यान् आचारान् विचारान् च अदर्शयन् तत् सर्वम् अस्माकं संस्कृतिः ।



सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।


अनुवाद मानव जीवन को सजाना-सँवारना ही संस्कृति है। हमारे पूर्वजों ने मानव जीवन को सँवारने के लिए महान् प्रयत्न किए थे। उन्होंने हमारे जीवन को सजाने-सँवारने के लिए जिन आचरण और विचारों को प्रदर्शित किया था, वह सब (ही) हमारी संस्कृति है।

'संसार की रचना करने वाला ईश्वर एक ही है, यह भारतीय संस्कृतिका मूल है। विभिन्न मतों के अनुयायी अलग-अलग नामों से ईश्वर का भजन करते हैं।


गद्यांश 2


“विश्वस्य स्रष्टा ईश्वर एक एव" इति भारतीयसंस्कृतेः मूलम् । विभिन्नमतावलम्बिनः विविधैः नामभि एकम् एव ईश्वर: भजन्ते । अग्निः, इन्द्रः, कृष्णः, करीमः, रामः, रहीमः, जिनः, बुद्धः, ख्रिस्तः, अल्लाहः इत्यादीनि नामानि एकस्य एव परमात्मनः सन्ति। तम् एव ईश्वरं जनाः गुरुः इत्यपि मन्यन्ते। अतः सर्वेषां मतानां समभावः सम्मानश्च अस्माकं संस्कृतेः सन्देशः



सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।



इस अंश में सभी मतों के प्रति आदर-भाव रखने को भारतीय संस्कृति का अंग बताया गया है।


अनुवाद 'संसार की रचना करने वाला ईश्वर एक ही है, यह भारतीय संस्कृति का मूल है। विभिन्न मतों के अनुयायी अलग-अलग नामों से ईश्वर का भजन करते हैं। अग्नि, इन्द्र, कृष्ण, करीम, राम, रहीम, जिन, बुद्ध, ईसा, अल्लाह आदि एक ही ईश्वर के विभिन्न नाम हैं। उसी ईश्वर को लोग गुरु के रूप में भी मानते हैं। अतः सभी मतों के प्रति एक समान भाव (रखना) और सम्मान (करना) ही हमारी संस्कृति का सन्देश है।


गद्यांश 3


भारतीया संस्कृतिः तु सर्वेषां मतावलम्बिनां सङ्गमस्थली। काले काले विविधाः विचाराः भारतीयसंस्कृतौ समाहिताः। एषा संस्कृतिः सामासिकी संस्कृतिः यस्याः विकासे विविधानां जातीनां सम्प्रदायानां, विश्वासानाञ्च योगदानं दृश्यते। अतएव अस्माकं भारतीयानाम् एका संस्कृति एका च राष्ट्रीयता। सर्वेऽपि वयं एकस्याः संस्कृतेः समुपासकाः एकस्य राष्ट्रस्य च राष्ट्रीयाः। यथा भ्रातरः परस्परं मिलित्वा सहयोगेन सौहार्देन च परिवारस्य उन्नतिं कुर्वन्ति, तथैव अस्माभिः अपि सहयोगेन सौहार्देन च राष्ट्रस्य उन्नतिः कर्त्तव्या।


अथवा


भारतीया संस्कृतिः तु सर्वेषां मतावलम्बिनां सङ्गमस्थली। काले काले विविधाः विचाराः भारतीयसंस्कृती समाहिताः । एषा संस्कृतिः सामासिकी संस्कृतिः यस्याः विकासे विविधानां जातीनां, सम्प्रदायानां, विश्वासानाञ्च योगदानं दृश्यते। अतएव अस्माकं भारतीयानाम् एका संस्कृति एका च राष्ट्रीयताः। 




सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।



इस अंश में भारतीय संस्कृति को विभिन्न धर्मों की संगमस्थली कहा गया है।


अनुवाद भारतीय संस्कृति तो सभी मतों को मानने वालों की संगमप्रस्थली है। समय-समय पर भारतीय संस्कृति में अनेक विचार आ मिले। यह संस्कृति समन्वयात्मक संस्कृति है, जिसके विकास में विविध जातियों, सम्प्रदायों और विश्वासों का योगदान दिखाई देता है। अतः हम भारतीयों की एक संस्कृति और एक राष्ट्रीयता है। हम सभी एक संस्कृति की उपासना करने वाले हैं और एक राष्ट्र के नागरिक हैं।


जिस प्रकार भाई-भाई परस्पर मिलकर सहयोग और प्रेम से परिवार की उन्नति करते हैं, उसी प्रकार हमें भी सहयोग और प्रेम से राष्ट्र की उन्नति करनी चाहिए।


गद्यांश 4


अस्माकं संस्कृतिः सदा गतिशीला वर्तते । मानवजीवनं संस्कर्तुम् एषा यथासमयं नवां नवां विचारधरां स्वीकरोति, नवा शक्ति च प्राप्नोति। अत्र दुराग्रहः नास्ति, यत् युक्तियुक्तं कल्याणकारि च तदत्र सहर्ष गृहीतं भवति। एतस्याः गतिशीलतायाः रहस्य मानवजीवनस्य शाश्वतमूल्येषु निहितम् तद् यथा सत्यस्य प्रतिष्ठा, सर्वभूतेषु समभावः विचारेषु औदार्यम्, आचारे दृढ़ता चेति।



सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।



इस अंश में भारतीय संस्कृति की उदारता पर प्रकाश डाला गया है।


अनुवाद हमारी संस्कृति निरन्तर गतिशील है। मानव जीवन को संस्कारित करने के लिए यह समय-समय पर नई-नई विचारधाराएँ अपनाती रहती है और नई शक्ति प्राप्त करती है। यहाँ हठधर्मिता नहीं है, जो (कुछ) उचित और कल्याणकारी है, वह यहाँ खुशी-खुशी स्वीकार होता है।


इसकी गतिशीलता का रहस्य मानव जीवन के लिए सदा रहने वाले आदर्शों जैसे-सत्य की प्रतिष्ठा, सभी प्राणियों के लिए एक समान भाव, विचारों में उदारता और आचरण की दृढ़ता, में समाया हुआ है।



गद्यांश 5


एषां कर्मवीराणां संस्कृतिः। "कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः" इति अस्याः उद्घोषः। पूर्व कर्म, तदनन्तरं फलम्' इति अस्माकं संस्कृतेः नियमः। इदानी यदा वयं राष्ट्रस्य नवनिर्माण संलग्नाः स्मः निरन्तरं कर्मकरणम् अस्माकं मुख्यं कर्त्तव्यम् । निजस्य श्रमस्य फलं भोग्यं, अन्यस्य श्रमस्य शोषणं सर्वथा वर्जनीयम्। यदि वयं विपरीतमु आचरामः तदा न वय सत्य भारतीय संस्कृतेः उपासकाः । वयं तदैव यथार्थ भारतीयाः यदास्माकम् आचारे विचारेच अस्माकं संस्कृति लक्षिता भवेत्। अभिलाषामः वयं यत् विश्वस्य अभ्युदयाय भारतीयसंस्कृते एषः दिव्यः सन्देश लोके सर्वत्र प्रसरेत् -


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।

 सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत्।।


अथवा


इदानीं यदा वयं राष्ट्रस्य नवनिर्माण संलग्नाः स्मः निरन्तरं कर्मकरणम् अस्माकं मुख्य कर्त्तव्यम्। निजस्य श्रमस्य फलं भोग्यं, अन्यस्य श्रमस्य शोषणं सर्वधा वर्जनीयम्। यदि वयं विपरीतम् आचरामः तदा न वयं सत्यं भारतीय संस्कृतेः उपासकाः। वयं तदैव यथार्थ भारतीयाः यदास्माकम् आचारे विचारे च अस्माकं संस्कृतिः लक्षिता भवेत्।


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत् 



सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।


इस अंश में भारतीय संस्कृति के लिए सन्देश का उल्लेख किया गया है।


अनुवाद यह कर्मवीरों की संस्कृति है। इस लोक में कर्मरत रहते हुए (मनुष्य) सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करें यह इसका (भारतीय संस्कृति का) उद्घोष है। पहले कर्म, उसके बाद फल-यह हमारी संस्कृति का नियम है। इस समय जबकि हम सब राष्ट्र के नव-निर्माण में जुटे हैं, (तब) निरन्तर परिश्रम करना हमारा कर्तव्य है। अपने परिश्रम का फल भोगने योग्य है, दूसरे के परिश्रम का शोषण सब तरह से त्यागने योग्य है। यदि हम इसके विपरीत व्यवहार करते हैं, तो हम भारतीय संस्कृति के सच्चे उपासक नहीं हैं। हम सब तभी सच्चे भारतीय हैं, जब हमारे आचार और विचार में हमारी संस्कृति दिखाई दे। हम चाहते हैं कि विश्व के उत्थान के लिए भारतीय संस्कृति का यह दिव्य सन्देश संसार में सर्वत्र फैले



श्लोक सभी (मनुष्य) सुखी हों, सभी (मनुष्य) नीरोग हों या रोगों से दूर हों, सभी कल्याण देखें (पाएँ) और कोई भी दुःख का भागी न हो।




प्रश्न उत्तर


प्रश्न 1. भारतीय संस्कृतेः किं तात्पर्यम् अस्ति?

अथवा

 संस्कृति शब्दस्य किम् तात्पर्यम् अस्ति?


 उत्तर अस्माकं पूर्वजाः जीवनं संस्कर्तुं यान् आचारान विचारान् च अदर्शयन् तत् सर्वं भारतीय संस्कृतेः तात्पर्यम अस्ति।


प्रश्न 2. विश्वस्य स्रष्टा कः ?

उत्तर विश्वस्य स्रष्टा ईश्वरः।


प्रश्न 3. भारतीय संस्कृतेः मूलं किम् अस्ति?

अथवा 

किं भारतीय संस्कृतेः मूलम् ?

उत्तर विश्वस्य स्रष्टा ईश्वर: एक एव अस्ति इति भारतीय संस्कृते: मूलम् अस्ति। 


प्रश्न 4. भारतीय संस्कृते कः दिव्य: (प्रमुख) सन्देशः अस्ति?

अथवा

 अस्माकं भारतीय संस्कृतेः कः सन्देशः ?

अथवा

 भारतीय संस्कृतेः कः दिव्यः सन्देशः ?

उत्तर सर्वेषां मतानां समभावः सम्मानश्च भारतीय संस्कृतेः दिव्यः सन्देशः अस्ति।


प्रश्न 5. भारतीय संस्कृति कीदृशी वर्तते? 

अथवा 

अस्माकं संस्कृतिः कीदृशी वर्तते ?.

अथवा 

अस्माकं संस्कृतिः कीदृशी?

उत्तर भारतीय संस्कृतिः सदा गतिशीला वर्तते


प्रश्न 6. अस्माकं संस्कृतेः कः नियमः ?

उत्तर पूर्व कर्म, तदनन्तरं फलम् इति अस्माकं भारतीय संस्कृते 


प्रश्न 7. भारतीय संस्कृतिः कस्य अभ्युदयाय इति?

 नियमः अस्ति।


उत्तर विश्वस्य अभ्युदयाय भारतीय संस्कृतिः इति ।


प्रश्न 8. “मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्" कस्या अस्ति एष दिव्यः सन्देशः ?

 उत्तर "मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत" एषः भारतीय संस्कृतेः दिव्य सन्देशः ।



कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड 09 जीवन-सूत्राणि के पद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद



पद्यांश 1 


किंस्विद् गुरुतरं भूमेः किंस्विदुच्चतरं च खात्? किंस्वित् शीघ्रतरं वातात् किंस्विद् बहुतरं तृणात्? माता गुरुतरा भूमेः खात् पितोच्चतरस्तथा। मनः शीघ्रतरं वातात् चिन्ता बहुतरी तृणात्।।


सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।


अनुवाद (यक्ष पूछता है) भूमि से अधिक श्रेष्ठ क्या है? आकाश से ऊँचा क्या है? वायु से ज्यादा तेज चलने वाला क्या है? (और) तिनकों से भी अधिक (दुर्बल बनाने वाला) क्या है?


(युधिष्ठिर जवाब देते हैं)-माता भूमि से अधिक भारी है (और)। पिता आकाश से भी ऊँचा है। मन वायु से भी तेज चलने वाला है। चिन्ता तिनकों से अधिक (दुर्बल बनाने वाली) है।


पद्यांश 2


किंस्विद प्रवसतो मित्रं किंस्विन् मित्रं गृहे सतः । आतुरस्य च किं मित्रं किंस्विन् मित्रं मरिष्यतः


अथवा


सार्थः प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः । 

आतुरस्य भिषङ् मित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः।



सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।


इस श्लोक में यक्ष-युधिष्ठिर के माध्यम से विदेश व घर पर रहने वाले तथा रोगी व मरने वाले के मित्र के बारे में पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए


अनुवाद (यक्ष पूछता है)-विदेश में रहने वाले व्यक्ति का मित्र कौन है ? गृहस्थ (घर में रहने वाले व्यक्ति का मित्र कौन है ? का मित्र कौन है और मरने वाले का मित्र कौन है ?

(युधिष्ठिर जवाब देते हैं)-साथ जा रहे लोगों का दल (कारवाँ) विदेश में रहने वालों का मित्र है (और) घर पर रहने वालों का मित्र उसकी पत्नी होती है। रोगी का मित्र वैद्य है और मरने वाले का मित्र दान है।


पद्यांश 3


किस्विदेकपदं धर्म्य किंस्विदेकपदं यशः ।

किस्विदेकपदं स्वर्ग्यं किंस्विदेकपदं सुखम्


अथवा


दाक्ष्यमेकपदं धर्म्य दानमेकपदं यशः । 

सत्यमेकपदं स्वर्ग्यं शीलमेकपदं सुखम् ।।



सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।


इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से धर्म, यश, स्वर्ग व सुख के मुख्य स्थान के बारे में पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।


अनुवाद (यक्ष पूछता है) धर्म का मुख्य स्थान क्या है? यश का मुख्य स्थान क्या है ? स्वर्ग का मुख्य स्थान क्या है? और सुख का मुख्य स्थान क्या है? (युधिष्ठिर जवाब देते हैं) - धर्म का मुख्य स्थान उदारता है, यश का मुख्य स्थान दान है, स्वर्ग का मुख्य स्थान सत्य है और सुख का मुख्य स्थान शील है।


पद्यांश 4


- धान्यानामुत्तमं किंस्विद् धनानां स्यात् किमुत्तमम् । लाभानामुत्तमं किं स्यात् सुखानां स्यात् किमुत्तमम् ।


अथवा


धान्यानामुत्तमं दायधनानामुत्तमं श्रुतम् ।

 लाभानां श्रेया आरोग्य सुखानां तुष्टिरुत्तमा



सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।


इस श्लोक में अन्न, धन लाभ और सुख में उत्तम क्या है? ऐसा प्रश्न यक्ष युधिष्ठिर से पूछता है और युधिष्ठिर यश के प्रश्नों का उत्तर देते हैं।


अनुवाद (यक्ष पूछता है) अन्नों में उत्तम (अन्न) क्या है? धन में उत्तम (धन) क्या है? लाभों में उत्तम (लाभ) क्या है? सुखों में उत्तम (सुख) क्या है ?


(युधिष्ठिर जवाब देते हैं) अन्नों में उत्तम (अन्न) चतुरता है। धनों में


उत्तम (धन) शास्त्र है। लाभों में उत्तम (लाभ) आरोग्य है। सुखों में उत्तम (सुख) सन्तोष है।


पद्यांश 5


किं नु हित्वा प्रियो भवति किन्नु हित्वा न शोचति ।

किं नु हित्वार्थवान् भवति किन्नु हित्वा सुखी भवेत्


अथवा


मानं हित्वा प्रियो भवति क्रोधं हित्वा न शोचति ।

कामं हित्वार्थवान् भवति लोभं हित्वा सुखी भवेत्।।




सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।


इस श्लोक में यक्ष ने युधिष्ठिर से त्याग के महत्त्व से सम्बन्धित प्रश्न पूछे हैं और युधिष्ठिर उसका जवाब देते हैं।


अनुवाद (यक्ष पूछता है)-क्या त्यागकर (मनुष्य) प्रिय हो जाता है? क्या त्यागकर (मनुष्य) शोक नहीं करता? क्या त्यागकर (मनुष्य) धनवान होता है? क्या त्यागकर (मनुष्य) सुखी बनता है? (युधिष्ठिर जवाब देते हैं) अभिमान त्यागकर (मनुष्य) (सब का) प्रिय हो जाता है। क्रोध त्यागकर (मनुष्य) शोक नहीं करता है। कामना (इच्छा) त्यागकर (मनुष्य) धनवान बनता है और लोभ छोड़कर (मनुष्य) सुखी बनता है।


                  प्रश्न उत्तर


प्रश्न 1. किंस्विद् गुरुतरा भूमेः ? 

अथवा 

भूमेः गुरुतरं किम् अस्ति?


उत्तर माता गुरुतरं भूमेः


प्रश्न 2. पिता कस्मात् उच्चतरः भवति?

अथवा

 खात् (आकाशात्) उच्चतरं किम् अस्ति?


उत्तर पिता खात् उच्चतरः भवति


प्रश्न 3. वातात् शीघ्रतरं किम् भवति?


उत्तर वातात् शीघ्रतरं मनः भवति।


प्रश्न 4. धनानां उत्तमं धनं किम् अस्ति? 

उत्तर सर्वेषु उत्तमं धनं श्रुतम् अस्ति।


प्रश्न 5. अनृतं केन जयेत् ?

उत्तर सत्येन अनृतं जयेत् ।


प्रश्न 6. मनुष्य किं हित्वा सुखी भवेत? 

अथना 

मनुष्यः किं हित्वा सुखी भवति?


उत्तर मनुष्य लोभं हित्वा सुखी भवेत।


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