कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड 03 वीर : वीरेण पूज्यते (वीर के द्वारा वीर की पूजा की जाती है)गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद
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गद्यांश 1
(स्थानम् – अलक्षेन्द्रस्य सैन्यशिविरम्। अलक्षेन्द्रः आम्भीक: च आसीनौ वर्तते। वन्दिनं पुरुराजम् अग्रेकृत्वा एकतःप्रविशति यवन-सेनापतिः।)
सेनापतिः – विजयतां सम्राट्।
पुरुराजः– एष भारतवीरोऽपि यवनराजम् अभिवादयते।
अलक्षेन्द्रः –(साक्षेपम्) अहो! बन्धनगतः अपि आत्मानं वीर इति मन्यसे पुरुराज: ?
पुरुराज: – यवनराज! सिंहस्तु सिंह एव, वने वा भवतु पञ्जरे वा
अलक्षेन्द्रः – किन्तु पञ्जरस्थ: सिंहः न किमपि पराक्रमते।
पुरुराज: – पराक्रमते, यदि अवसरं लभते। अपि च यवनराज!
बन्धनं मरणं वापि जयो वापि पराजयः उभयत्र समो वीरः वीरभावो हि वीरता।।
अथवा
सेनापतिः – विजयतां सम्राट्।
पुरुराजः – एष भारतवीरोऽपि यवनराजम् अभिवादयते।
अलक्षेन्द्रः – (साक्षेपम्) अहो! बन्धनगतः अपि आत्मानं वीर इति मन्यसे पुरुराज: ?
पुरुराज: – यवनराज! सिंहस्तु सिंह एव, वने वा भवतु पञ्जरे वा
अलक्षेन्द्रः – किन्तु पञ्जरस्थ: सिंह: न किमपि पराक्रमते ।
पुरुराज: – पराक्रमते, यदि अवसरं लभते।
अथवा
बन्धनं मरणं वापि जयो वापि पराजयः।
उभयत्र समो वीरः वीरभावो हि वीरता।।
सन्दर्भ प्रस्तुत नाट्य खण्ड हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'वीर: वीरेण पूज्यते' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में सिकन्दर और पुरु की वार्ता प्रस्तुत की गई है।
अनुवाद (स्थान-सिकन्दर का सैनिक शिविर, सिकन्दर और आम्भीक दोनों बैठे हैं। बन्दी पुरु को आगे करके एक यवन सैनिक प्रवेश करता है।)
सेनापति – सम्राट की जय हो।
पुरुराज – यह भारतवीर भी यवनराज का अभिवादन करता है।
सिकन्दर – (आक्षेप सहित) अरे! पुरुराज! बन्धन में पड़े हुए भी अपने को वीर मानते हो?
पुरुराज – हे यवनराज! सिंह तो सिंह ही है, चाहे वह वन में हो या पिंजरे में।
सिकन्दर – किन्तु पिंजरे में पड़ा हुआ सिंह कुछ भी पराक्रम नहीं करता है।
पुरुराज – पराक्रम करता है, यदि उसे अवसर मिलता है। और यवनराज!
श्लोक
"बन्धन हो अथवा मृत्यु, जय हो अथवा पराजय, वीर पुरुष दोनों ही स्थितियों में समान रहता है। वीरों के भाव को ही वीरता कहते हैं।
गद्यांश 2
आम्भिराजः – सम्राट्! वाचाल एष हन्तव्यः ।
सेनापतिः आदिशतु सम्राट्।
अलक्षेन्द्रः – अथ मम मैत्रीसन्धेः अस्वीकरणे तव किम् अभिमतम् आसीत् पुरुराजः !
पुरुराज: – स्वराजस्य रक्षा, राष्ट्रद्रोहाच्च मुक्तिः।
अलक्षेन्द्रः – मैत्रीकरणेऽपि राष्ट्रद्रोहः ?
पुरुराज: –आम्। राष्ट्रद्रोहः। यवनराज! एकम् इदं भारतं राष्ट्र, बहूनि चात्र राज्यानि, बहवश्च शासकाः। त्वं मैत्रीसन्धिना तान् विभज्य भारतं जेतुम् इच्छसि। आम्भीकः चास्य प्रत्यक्षं प्रमाणम्।
अलक्षेन्द्रः – भारतम् एकं राष्ट्रम् इति तव वचनं विरुद्धम्। इह तावत् राजानः जनाः च परस्परं द्रुह्यन्ति।
पुरुराज: – तत् सर्वम् अस्माकम् आन्तरिकः विषयः। बाह्यशक्तेः तत्र हस्तक्षेपः असह्यः यवनराज! पृथग्धर्माः, पृथग्भाषाभूषा अपि वयं सर्वे भारतीयाः। विशालम् अस्माकं राष्ट्रम्। तथाहि -उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥
अथवा
पुरुराज: – आम्। राष्ट्रद्रोहः। यवनराज! एकम् इदं भारतं राष्ट्र, बहूनि चात्र राज्यानि, बहवश्च शासकाः। त्वं मैत्रीसन्धिना तान् विभज्य भारतं जेतुम् इच्छसि। आम्भीकः चास्य प्रत्यक्षं प्रमाणम्।
अलक्षेन्द्रः- भारतम् एकं राष्ट्रम् इति तव वचनं विरुद्धम्। इह तावत् राजानः जनाः च परस्परं दुह्यन्ति।
अथवा
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ॥
सन्दर्भ प्रस्तुत नाट्य खण्ड हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'वीर: वीरेण पूज्यते' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में सिकन्दर और पुरु की वार्ता प्रस्तुत की गई है।
अनुवाद
आम्भिराज –सम्राट! यह वाचाल है, (इसकी) हत्या कर देनी चाहिए। सम्राट आज्ञा दें।
सेनापति –सम्राट आज्ञा दें।
सिकन्दर – हे पुरुराज! मेरी मैत्री सन्धि को अस्वीकार करने के पीछे तुम्हारी क्या इच्छा थी?
पुरुराज –अपने राज्य की इच्छा और राष्ट्रद्रोह से मुक्ति।
सिकन्दर – मित्रता करने में भी राजद्रोह ?
पुरुराज – हाँ राजद्रोह! यवनराज! यह भारत राष्ट्र एक है, जहाँ अनेक राज्य हैं और बहुत से शासक हैं। तुम मैत्री सन्धि के द्वारा उनमें बँटवारा करके भारत को जीतना चाहते हो और आम्भीक इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
सिकन्दर – भारत राष्ट्र एक है, तुम्हारा यह कथन गलत है। यहाँ राजा और प्रजा आपस में द्वेष करते हैं।
पुरुराज – यह सब हमारा (भारतीयों का) अन्दरूनी मामला है। हे यवनराज! उसमें बाहरी शक्ति का हस्तक्षेप सहन करने योग्य नहीं है। अलग धर्म, अलग भाषा, अलग पहनावा होने पर भी हम सब भारतीय हैं। हमारा राष्ट्र विशाल है, क्योंकि
श्लोक
"जो समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में स्थित है, वह भारत नाम का देश है, जहाँ की सन्तान भारतीय हैं।"
गद्यांश 3
अलक्षेन्द्रः – अथ मे भारतविजयः दुष्करः
पुरुराजः – न केवलं दुष्करः असम्भवोऽपि ।
अलक्षेन्द्रः – (सरोषम्) दुर्विनीत, किं न जानासि, इदानी विश्वविजयिनः अलक्षेन्द्रस्य अग्रे वर्तसे?
पुरुराजः – जानामि, किन्तु सत्यं तु सत्यम् एव यवनराज !भारतीयाः वयं गीतायाः सन्देशं न विस्मरामः
अलक्षेन्द्रः –कस्तावत् गीतायाः सन्देश: ?
पुरुराज: –श्रूयताम्
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । निराशीनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ।।
अलक्षेन्द्रः –(किमपि विचिन्त्य) अलं तव गीतया पुरुराज! त्वम् अस्माकं बन्दी वर्तसे। ब्रूहि कथं त्वयि वर्तितव्यम्।
पुरुराजः अलक्षेन्द्रः यथैकेन वीरेण वीरं प्रति।
अलक्षेन्द्रः – (पुरो: वीरभावेन हर्षितः) साधु वीर! साधु! नूनं वीरः असि। धन्यः त्वं, धन्या ते मातृभूमिः । (सेनापतिम् उद्दिश्य) सेनापते!
सेनापति: – सम्राट्
अलक्षेन्द्रः वीरस्य पुरुराजस्य बन्धनानि मोचय।
सेनापतिः – यत् सम्राट् आज्ञापयति।
अलक्षेन्द्रः –(एकेन हस्तेन पुरोः द्वितीयेन च आम्भीकस्य हस्तं गृहीत्वा) वीर पुरुराज! सखे आम्भीक! इतः परं वयं सर्वे समानमित्राणि, इदानी मैत्रीमहोत्सवं सम्पादयामः ।
(सर्वे निर्गच्छन्ति)
अथवा
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। निराशीनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ||
सन्दर्भ प्रस्तुत नाट्य खण्ड हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'वीर: वीरेण पूज्यते' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में सिकन्दर और पुरु की वार्ता प्रस्तुत की गई है।
अनुवाद
सिकन्दर – तो फिर मेरी भारत-विजय कठिन है।
पुरुराज – न केवल कठिन, बल्कि असम्भव भी है।
सिकन्दर –(गुस्से से) हे दुष्ट! क्या तुम नहीं जानते कि इस समय (तुम) विश्वविजेता सिकन्दर के सामने हो?
पुरुराज –जानता हूँ, किन्तु यवनराज! सत्य तो सत्य ही है। हम भारतीय गीता के सन्देश को नहीं भूले हैं।
सिकन्दर – तो गीता का सन्देश क्या है?
पुरुराज –
सुनिए श्लोक (यदि तुम) मारे गए तो स्वर्ग को प्राप्त करोगे और यदि जीत गए तो पृथ्वी के सुख का भोग करोगे। (इसलिए) इच्छा, मोह और सन्ताप (दु:ख) से दूर रहकर युद्ध करो।
सिकन्दर –(कुछ सोचकर) पुरुराज! अपनी गीता को रहने दो। तुम हमारे कैदी हो। बताओ, तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाए?
पुरुराज – जैसा एक वीर (दूसरे) वीर के साथ करता है।
सिकन्दर –(पुरु के वीर-भाव से प्रसन्न होकर) ठीक है वीर! ठीक है। तुम निश्चय ही वीर हो। तुम धन्य हो, तुम्हारी मातृभूमि धन्य है। (सेनापति को लक्ष्य करके) सेनापति !
सेनापति – सम्राट!
सिकन्दर – वीर पुरुराज के बन्धन खोल दो।
सेनापति – सम्राट की जो आज्ञा ।
सिकन्दर – (एक हाथ से पुरु का और दूसरे हाथ से आम्भीक का हाथ पकड़कर) वीर पुरुराज! मित्र आम्भीक! अब से हम सब समान मित्र हैं। अब हम मित्रता का उत्सव मनाते हैं।
(सब निकल जाते हैं।)
अथवा
श्लोक
(यदि तुम) मारे गए तो स्वर्ग को प्राप्त करोगे और यदि जीत गए तो पृथ्वी के सुख का भोग करोगे। (इसलिए) इच्छा, मोह और संताप (दुःख) से दूर रहकर युद्ध करो।
प्रश्न – उत्तर
प्रश्न 1. वीरः केन पूज्यते?
उत्तर वीर: वीरेण पूज्यते ।
प्रश्न 2. पुरुराजः केन सह युद्धम् अकरोत् ?
उत्तर पुरुराज: अलक्षेन्द्रेण सह युद्धम् अकरोत्।
प्रश्न 3. अलक्षेन्द्रः कः आसीत् ?
उत्तर अलक्षेन्द्रः यवन देशस्य राजा आसीत्।
प्रश्न 4. पुरुराजः कः आसीत् ?
उत्तर पुरुराज: भारतस्य एकः वीरः नृपः आसीत् ।
प्रश्न 5. वीरभावोः किं कथ्यते?
उत्तर वीरभावो हि वीरता कथ्यते।
प्रश्न 6. भारतम् एकं राष्ट्रम् इति विरुद्धम् कस्य उक्तिः?
उत्तर भारतम् एकं राष्ट्रम् इति विरुद्धम् इयम् अलक्षेन्द्रस्य उक्तिः
प्रश्न 7. भारतविजयः न केवलं दुष्करः असम्भवोऽपि, कस्य उक्तिः ?
उत्तर भारतविजयः न केवलं दुष्कर: असम्भवोऽपि, इति पुरुराजस्य उक्तिः
प्रश्न 8. गीतायाः कः सन्देशा: ?
अथवा
पुरुराजः गीतायाः कं सन्देशम् अकथयत् ?
उत्तर गीतायाः सन्देशः अस्ति यदि त्वं हतो तदा स्वर्गम् प्राप्यसि, जित्वा पृथ्वीम् भोक्ष्यसे । अतएव आशा-मोह-सन्तापरहित: भूत्वा युद्धं कुरु।
प्रश्न 9. किं जित्वा भोक्ष्यसे महीम् ?
उत्तर युद्धं जित्वा भोक्ष्यसे महीम्
प्रश्न 10. अलक्षेन्द्रः पुरोः केन भावेन हर्षितः अभवत् ?
उत्तर अलक्षेन्द्रः पुरोः वीरभावेन हर्षितः अभवत् ।
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