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विद्यालय में अनुशासन का महत्त्व/यातायात नियमों की दैनिक जीवन में उपयोगिता /सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा/मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है/गाँव में सफाई का महत्त्व

 विद्यालय में अनुशासन का महत्त्व


यातायात नियमों की दैनिक जीवन में उपयोगिता 


 सड़क मार्ग के नियम


परिवहन के दौरान सावधानियाँ, सड़क यातायात व परिवहन


सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा


मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है


ग्राम्य स्वच्छता 


गाँव में सफाई का महत्त्व





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सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा



संकेत बिन्दु प्रस्तावना, भारत का प्राकृतिक सौन्दर्य, महापुरुषों की धरती, उपसंहार


प्रस्तावना – भारत देश हम सब भारतवासियों के लिए स्वर्ग के समान सुन्दर है। हमने इसी की पावन धरा पर जन्म लिया है। इसकी गोद में पलकर हम बड़े हुए हैं। इसके अन्न-जल से हमारा पालन-पोषण हुआ है, इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम इससे प्यार करें तथा इसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों को बलिदान कर दें।


महाराजा दुष्यन्त और शकुन्तला के न्यायप्रिय पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। हिन्दू बाहुल्य होने के कारण इसे हिन्दुस्तान भी कहा जाता है।


आधुनिक भारत की सीमाएँ उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और पूर्व में अरुणाचल से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैली हुई। भारत संसार का सबसे बड़ा प्रजातान्त्रिक देश है। यहाँ सभी लोग मिल-जुलकर निवास करते हैं।


हमारे देश में सभी धर्मों के लोगों को अपने ईश्वर की पूजा करने की पूरी स्वतन्त्रता है। इस प्रकार भारत देश एक कुटुम्ब के समान है जिस कारण इसे विभिन्न धर्मों का संगम-स्थल भी कहा जा सकता है। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने लिखा है- "वसुधैव कुटुम्बकम्।"


भारत का प्राकृतिक सौन्दर्य – भारत का प्राकृतिक सौन्दर्य केवल भारतवासियों को ही मोहित नहीं करता, बल्कि विदेशी भी हर साल काफी संख्या में भारत आते हैं। यह वह देश है जहाँ पर छह ऋतुएँ समय-समय पर आती हैं और इस देश की धरती को अनेक प्रकार के अनाज, फूलों एवं फलों से भर देती हैं।


भारत के पर्वत, झरने, नदियाँ, रेगिस्तान, वन-उपवन, हरे-भरे मैदान एवं समुद्रतट इस देश की शोभा बढ़ाते हैं। जहाँ एक ओर कश्मीर में स्वर्ग दिखाई पड़ता है, तो वहीं दूसरी ओर केरल की हरियाली स्वर्गिक आनन्द से परिपूर्ण है। भारत में अनेक नदियाँ हैं जो वर्ष भर इस देश की धरती को सींचती हैं, उसे हरा-भरा बनाती हैं और अन्न-उत्पादन में सहयोग करती हैं।


महापुरुषों की धरती – भारत को महापुरुषों की धरती भी कहा जाता है। यहाँ पर अनेक महान् ऋषि-मुनियों ने जन्म लिया, जिन्होंने वेदों का गान किया तथा उपनिषद् और पुराणों की रचना की। यहाँ श्रीकृष्ण का जन्म हुआ जिन्होंने गीता का ज्ञान देकर विश्व को कर्म का पाठ पढ़ाया। यहीं पर भगवान राम का जन्म हुआ था, जिन्होंने न्यायपूर्ण शासन का आदर्श स्थापित किया। यहीं पर महावीर स्वामी और बुद्ध ने अवतार लिया जिन्होंने मानव को अहिंसा की शिक्षा दी तथा क्रमशः जैन धर्म और बौद्ध धर्म का प्रतिपादन किया। यहाँ पर बड़े-बड़े वीर, प्रतापी सम्राट अशोक, अकबर, चन्द्रगुप्त मौर्य, विक्रमादित्य आदि हुए जो पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं। आधुनिक काल में गरीबों के मसीहा महात्मा गाँधी, शान्तिदूत पं. जवाहरलाल नेहरू, विश्व मानवता के प्रचारक रवीन्द्र नाथ टैगोर आदि का जन्म भी इसी महान् देश में हुआ।


उपसंहार – हमारे देश की शान्ति व अहिंसा आदि से प्रभावित धर्म, संस्कृति, दर्शन का संगम होने पर महान शायर इकबाल ने कहा था- "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा। हम बुलबुले हैं इसकी यह गुलिस्ताँ हमारा।" अतः हमारे देश की यह धरती धन्य है और इसमें रहने वाले लोग भी बड़े सौभाग्यशाली हैं। हम अपने भारत देश पर गर्व करते हैं, जो हमेशा इसी तरह बना रहेगा।




       विद्यालय में अनुशासन का महत्त्व



संकेत बिन्दु प्रस्तावना, अनुशासन का महत्व, उपसंहार 




प्रस्तावना – समाज की सहायता के बिना मानव जीवन का अस्तित्व असम्भव है। सामाजिक जीवन को सुख-सम्पन्न बनाने के लिए कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। इन नियमों को हम सामाजिक जीवन के नियम कहते हैं। इनके अन्तर्गत मनुष्य व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से नियमित रहता है, तो उसके जीवन को अनुशासित जीवन कहते हैं। हमारे जीवन में 'अनुशासन' एक ऐसा ही गुण है, जिसकी आवश्यकता मानव जीवन में पग-पग पर पड़ती है। अनुशासन ही मनुष्य को एक अच्छा व्यक्ति व एक आदर्श नागरिक बनाता है। विद्यार्थी जीवन में अनुशासन ही विद्यार्थी को नैतिक उत्थान की ओर अग्रसर करता है।


किसी ने सही ही कहा है कि "अनुशासन सफलता की कुंजी है।" अनुशासन मनुष्य के विकास के लिए बहुत आवश्यक है। यदि मनुष्य अनुशासन में जीवन यापन करता है, तो वह स्वयं के लिए सुखद और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण करता है। अनुशासन विद्यार्थी जीवन का आवश्यक अंग है। विद्यार्थी को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह खेल का मैदान हो अथवा विद्यालय, घर हो अथवा घर से बाहर कोई सभा-सोसायटी, सभी जगह अनुशासन के नियमों का पालन करना चाहिए। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन का महत्त्व है। अनुशासन से धैर्य और समझदारी का विकास होता है, समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है।


अनुशासन का महत्त्व – परिवार अनुशासन की आरम्भिक पाठशाला है। अनुशासन का पाठ बचपन से परिवार में रहकर सीखा जाता है। बचपन के समय में अनुशासन सिखाने की जिम्मेदारी माता-पिता तथा गुरुओं की होती है। एक सुशिक्षित और शुद्ध आचरण वाले परिवार का बालक स्वयं ही बढ़िया चाल-चलन और अच्छे आचरण वाला बन जाता है। माता-पिता की आज्ञा का पालन उसे अनुशासन का प्रथम पाठ पढ़ाता है। परिवार के उपरान्त अनुशासित जीवन की शिक्षा देने वाला दूसरा स्थान विद्यालय है। शुद्ध आचरण वाले सुयोग्य गुरुओं के शिष्य अनुशासित आचरण वाले होते हैं। ऐसे विद्यालय में बालक के शरीर, आत्मा और मस्तिष्क का सन्तुलित रूप से विकास होता है।


विद्यार्थी समाज की एक नव-मुखरित कली है। इन कलियों के अन्दर यदि किसी कारणवश कमी आ जाती है, तो कलियाँ मुरझा जाती हैं, साथ-साथ उपवन की छटा भी समाप्त हो जाती है। यदि किसी देश का विद्यार्थी अनुशासनहीनता का शिकार बनकर अशुद्ध आचरण करने वाला बन जाता है, तो यह समाज किसी-न-किसी दिन आभाहीन हो जाता है। विद्यार्थी हमारे देश का मुख्य आधार स्तम्भ है। यदि इनमें अनुशासन की कमी होगी, तो हम सोच सकते हैं कि देश का भविष्य कैसा होगा। विद्यार्थी के लिए अनुशासन में रहना और अपने सभी कार्यों को व्यवस्थित रूप से करना बहुत आवश्यक है।


विद्यार्थी को चाहिए कि विद्यालय में रहकर विद्यालय के बनाए सभी नियमों का पालन करे। अध्यापकों द्वारा पढ़ाए जा रहे सभी पाठों का अध्ययन पूरे मन से करना चाहिए, क्योंकि विद्यालय का जीवन व्यतीत करने के उपरान्त जब छात्र सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है, तो उसे कदम-कदम पर अनुशासित व्यवहार की आवश्यकता होती है। यदि विद्याथियों में अनुशासन नहीं होगा तो समाज की दशा


बिगड़ेगी और यदि समाज की दशा बिगड़ेगी तो देश कैसे उससे अछूता रहेगा। अनुशाससित व्यक्ति केवल अपने लिए ही नहीं, समस्त देश व समाज के लिए घातक सिद्ध होता है। अनुशासित विद्यार्थी अनुशासित नागरिक बनते हैं एवं अनुशासित नागरिक एक अनुशासित समाज का निर्माण करते हैं।


उपसंहार – अनुशासन का वास्तविक अर्थ अपनी दूषित और दूसरों को हानि पहुँचाने वाली प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण करना है। अनुशासन के लिए बाहरी नियन्त्रण की अपेक्षा आत्मनियन्त्रण करना अधिक आवश्यक है। वास्तविक अनुशासन वही है जो कि मानव की आत्मा से सम्बद्ध हो, क्योंकि शुद्ध आत्मा कभी भी मानव को अनुचित कार्य करने को प्रोत्साहित नहीं करती।





    मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है 



संकेत बिन्दु प्रस्तावना, भाग्यवाद की धारणा गलत है, कर्म पर विश्वास करना ही उचित है, स्वावलम्बन व परावलम्बन, उपसंहार


प्रस्तावना – सुख-दु:ख, सफलता-असफलता, यश-अपयश आदि का कारण 'भाग्य' को मान लेना नितान्त अज्ञानता है। परमात्मा किसी के भाग्य में सुख और किसी के भाग्य में दुःख नहीं लिखता। यह सब अपने ही कर्मों का परिणाम होता है, जो हम भोगते हैं- चाहे वह आनन्ददायक हो या पीड़ादायक। कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य को भाग्यवादी न होकर उद्यमी होना चाहिए। मनुष्य अपने भाग्य से नहीं वरन् कर्म से महान बनता है।


भाग्यवाद की धारणा गलत है – भाग्य पर सब कुछ छोड़ना, उसी पर ही निर्भर होना, भाग्यवाद कहलाता है। भाग्यवाद का उपदेश आलसी व कर्म से जी चुराने वाले व्यक्ति ही देते हैं। जो मनुष्य भाग्य के भरोसे ही बैठे रहते हैं, वे जीवन में कुछ भी नहीं कर पाते। भाग्यवाद का सहारा लेने वाले मनुष्य जहाँ होते हैं, वहीं रह जाते हैं। अतः हमें चाहिए कि हम अपने भाग्य के भरोसे न बैठकर कर्म को प्रधानता दें कर्म करके ही मनुष्य भाग्य को संवार सकता है भाग्यवादी थोथे चने के समान होता है, जो बोलता तो ज्यादा है, परन्तु वास्तव में अन्दर से वह खोखला होता है। ऐसा मनुष्य स्वयं के लिए कुछ नहीं कर सकता, तो अन्य के क्या काम आ सकता है? भाग्यवाद का निर्धारण करने वाला अपने साथ कुछ भी गलत होने पर परमात्मा को दोष देता है, जो कि गलत है। अपनी कर्महीनता का विश्लेषण न करके अपनी आँखों पर भाग्य की पट्टी बाँध लेता है और दोष ईश्वर पर मढ़ देता है। अतः स्पष्ट है कि भाग्यवादी और उनके भाग्यवाद की धारणा दोनों ही गलत होते हैं।


कर्म पर विश्वास करना ही उचित है – किसी ने सत्य ही कहा है कि "मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है।" भाग्य के भरोसे बैठकर या तो वह स्वयं को अकर्मण्य बना सकता है या शेरपा तेनजिंग व एडमण्ड हिलेरी की तरह अपने अथक प्रयासों से अर्थात् कर्मठता से एवरेस्ट को भी फतह कर लेता है, जो व्यक्ति उद्यम अर्थात् अपने कर्म पर विश्वास करता है वह जीवन में असफलताओं के डर से अपने लक्ष्य से नहीं भटकता। वह बार-बार प्रयास करता है और अन्ततः सफलता हासिल कर ही लेता है। एक राजा युद्ध से हारा हुआ, भागकर एक गुफा में आश्रय ले लेता है। वहाँ वह एक चींटी के गुफा की दीवार पर बार-बार चढ़ने और गिरने के अथक उद्यम को देखता है। वह देखता है कि बार-बार प्रयास करने के बाद चींटी दीवार पर चढ़ जाती है। यह सब देखकर उसके अन्दर एक नव-शक्ति का संचार होता है। वह पुनः अपनी सेना का संगठन करता है और अपने शत्रु को हराकर अपना खोया हुआ राज्य पा लेता है। यही कर्म की शक्ति है। हमारे कर्म ही हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं। हम संसार में निरन्तर कर्म करते हुए अपने किसी भी लक्ष्य को पा सकते है।


भाग्य का निर्माण न तो कोई अचानक होने वाला संयोग होता है और न ही उसका बनना-बिगड़ना किसी व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं होता है। यदि मनुष्य चाहे तो उसके भाग्य में समृद्धि, वैभव, यश, ऐश्वर्य सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ हो सकती हैं। परन्तु यह भी ध्यान रखना आवश्यक है। कि अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हम दुष्कर्मों में न प्रवृत्त हो जाएँ, अन्यथा हमें उनके दुष्परिणाम भोगने पड़ सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि- "जो मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल-परिणाम अवश्य मिलता है।" अतः हमें अपने भाग्य को बनाने के लिए सत्कर्मों की ओर ही प्रवृत्त होना चाहिए।


स्वावलम्बन व परावलम्बन – जो मनुष्य अपने कर्तव्य पथ का निर्माण स्वयं करता है, उसे स्वावलम्बी कहते हैं तथा जो मनुष्य अपने किसी भी कार्य के लिए दूसरो को तलाशता है, उसे परावलम्बी कहते हैं। अपनी उन्नति और सफलता के लिए हमें दूसरों का मुँह नहीं ताकना चाहिए।


इससे हमारी शक्तियाँ व क्षमताएँ कुण्ठित हो सकती है। परावलम्बन से आत्महीनता, आत्मविश्वास में कमी, साहस का अभाव आदि अवगुण विकसित हो जाते हैं।


परावलम्बी अपनी सफलता के लिए दूसरों पर निर्भर होने के साथ-साथ अपनो असफलताओं का कारण भी अन्य को ही मानता है। इससे उसमे ईर्ष्या, द्वेष-भाव का जन्म होता है और वह अपना आत्मबल खो देता है तथा अपनी इस संकीर्ण सोच के कारण अपने साथ-साथ दूसरे का भी अहित करता है, परन्तु पुरुषार्थी व्यक्ति अपने बलबूते ही आगे बढ़ता है और प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल कर लेता हैं। स्वावलम्बी व्यक्ति यदि असफल भी होता है, तो वह स्वयं की कमियों को हो उत्तरदायी मानकर पहले उनका निवारण करता है और अपने अन्दर निरन्तर सुधार और विकास करता है। अतः इस तरह वह निश्चय ही एक-न-एक दिन सफलता का स्वाद चख ही लेता है।


उपसंहार मनुष्य को चाहिए कि वह अपने भाग्य का निर्माता स्वयं को ही माने । सत्कर्म करे और कर्म-पथ पर आने वाली बाधाओं को अपने स्वावलम्बी स्वभाव से दूर करता हुआ निरन्तर प्रगति करे। इस प्रकार के मनुष्य को ही उन्नति तथा श्रेय का सौभाग्य मिलता है। ईश्वर ने सभी मनुष्यों को समान बनाया है। उसने उन्हें समान योग्यताएँ व क्षमताएँ दी हैं। जरूरत है केवल उन्हें पहचानने की और यह सब केवल कर्म को आधार मानने वाला ही कर सकता है, भाग्यवाद को नहीं।




         ग्राम्य स्वच्छता 


गाँव में सफाई का महत्त्व




संकेत बिन्दु – प्रस्तावना, अस्वच्छता होने के कारण, अस्वच्छता का प्रभाव, ग्राम्य स्वच्छता के लिए किए गए उपाय, उपसंहार


प्रस्तावना – हमारे देश का आर्थिक विकास पूर्णतः नागरिकों के विकास पर निर्भर हैं। परन्तु यदि नागरिकों का ही विकास धीमी गति से हो रहा हो, तो आर्थिक विकास में तीव्रता कहाँ से आएगी।


यह बात किसी देश के लिए और भी ज्यादा गम्भीर हो जाती है, तब उस देश की अधिकतम जनसंख्या गाँवों में निवास करती हो। गाँव में आज भी विकास की राह में जो रोड़ा है, वो स्वच्छता को लेकर है। आज भी कुछ गाँव स्वच्छता के बारे में अधिक जानकारी नहीं रखते हैं। अतः यह एक चिन्ता का विषय है।


अस्वच्छता होने के कारण – गाँवों में अस्वच्छता का मूल कारण जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ स्पष्टतः स्वच्छता के ज्ञान का अभाव है। 2011 की जनगणना के अनुसार, हमारे देश में 5.97 लाख से अधिक गाँवों की संख्या है, जिनमें 83.37 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या निवास करती है। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (NSS) के नतीजे बताते हैं कि 59.4% गाँवों के परिवार खुले में शौच करने के लिए विवश हैं, जो अस्वच्छता और बीमारियों का मूल कारण है। ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी भी इन परिणामों को बढ़ावा देती है।


अस्वच्छता का प्रभाव – ग्रामीण इलाकों में साफ-सफाई की जानकारी की कमी होने के कारण उनके खान-पान, रहन-सहन, जल सभी पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ग्रामीण इलाकों में शौचालय की पूर्ण व्यवस्था न होने के कारण ग्रामीण महिलाओं को खुले में शौच जाना पड़ता है। जिससे उनकी मान-मर्यादा के भी आहत होने का खतरा बना रहता है। दूषित जल व भोजन की वजह से अनेक बीमारियाँ घर कर लेती हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार डायरिया, पीलिया आदि की सबसे अधिक शिकायत ग्रामीण क्षेत्रों से ही मिलती हैं।


स्वच्छता के लिए आवश्यक साधनों की कमी से आर्थिक स्थिति पर भी प्रभाव पड़ता है। कई महिलाएँ, बालिकाएँ विद्यालय तक नहीं जा पातीं, जिससे वे आर्थिक गतिविधियों में अपना पूर्णरूपेण सहयोग भी नहीं कर पाती।


ग्राम्य स्वच्छता के लिए किए गए उपाय – ग्राम्य अस्वच्छता से निपटने के लिए बहुत-सी पहल की गई है। अब शहरों के साथ-साथ ग्रामीण इलाकों तथा वहाँ के विद्यालयों में शौचालय बनाने के लिए कॉर्पोरेट सेक्टर को प्रोत्साहित किया जा रहा है। वहीं केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल के हाल ही के फैसले के तहत 'निर्मल भारत अभियान' को स्वच्छ भारत (ग्रामीण) में पुनर्गठित कर दिया गया है। नई योजनाओं के तहत अधिक से अधिक घर निर्माण के तहत ग्रामीण शौचालय बनवाएँ, इसके लिए ग्रामीण इलाके में प्रत्येक घर में वित्तीय मदद ₹10,000 से बढ़ाकर ₹15,000 कर दी गई है। विद्यालयों में कन्याओं के लिए शौचालय बनाने की जिम्मेदारी मानव संसाधन मन्त्रालय के तहत आने वाले स्कूलों, शिक्षा और साक्षरता विभाग को सौंपी गई है।


स्वच्छता अभियान में शौच व्यवस्था के अतिरिक्त ठोस व तरल कचरे के प्रबन्धन की भी व्यवस्था पर जोर दिया गया है। जगह-जगह कचरा होने से, गन्दा पानी फैलने से इंसानों को ही नहीं पशुधन को भी नुकसान होता है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए नई योजना में कचरा प्रबन्धन की पुरानी व्यवस्था और वित्तीय सहायता के प्रावधानों को बरकरार रखा गया है, जिसके तहत केन्द्र, राज्य व ग्रामीण समुदाय मिलकर व्यय करेंगे।


उपसंहार – आज शहरों में ग्रामीण इलाके से पलायन बढ़ रहा है। भले ही शहरों में ग्रामीणों को कोई बेहतर स्वस्थ वातावरण न मिल पाता हो, फिर भी गाँवों में रोजगार की कमी उन्हें शहर जाने के लिए मजबूर करती है। अतः यदि स्वच्छ और स्वस्थ गाँव की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी, तो ग्रामीण, शहरों की ओर पयालन ही नहीं करेंगे। कहा जाता है कि गाँवों की हवा में जो ताजगी है, वो शहरों में नहीं होती। शहरों की तुलना में गाँवों में वायु व ध्वनि प्रदूषण कम मिलता है। फिर भी अगर गाँवों के लोग अस्वस्थ हैं, तो उसके लिए स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी एक कारण हो सकती हैं। अत: अधिक जरूरत इस बात की है कि गाँवों में बीमारी ही नहीं पनपे। स्वच्छ भारत अभियान इसी दिशा में एक सकारात्मक प्रयास है।




यातायात नियमों की दैनिक जीवन में उपयोगिता 


 सड़क मार्ग के नियम


परिवहन के दौरान सावधानियाँ, सड़क यातायात व परिवहन



 संकेत बिन्दु – प्रस्तावना, नियमों व उपनियमों का विधान, नियमों की उपयोगिता, यातायात पुलिस की व्यवस्था, महानगरों की गम्भीर समस्या,सार्वभौमिक नियम, उपसंहार


प्रस्तावना – सभ्य समाज के सामाजिक जीवन का आधार है- नियमबद्धता। आवागमन के तीव्र व आधुनिक साधनों के सुव्यवस्थित संचालन के परिप्रेक्ष्य में यह नियमबद्धता एक अनिवार्यता का रूप धारण कर लेती है। छोटे-बड़े मार्गों पर अनेक रूपों में यातायात व परिवहन के विभिन्न साधनों को दौड़ते हुए देखा जा सकता है।


नियमों व उपनियमों का विधान – प्रत्येक राष्ट्र की सरकार इस आवागमन को सुचारु रखने के लिए, अनेक नियम व उपनियमों को अधिनियमों के द्वारा लागू करती हैं। यदि इन नियमों की अवहेलना की जाती है या इन पर ध्यान नहीं दिया जाता है तो दुर्घटना होने की आशंका बलवती हो जाती है। कहावत भी है कि 'सावधानी हटी और दुर्घटना घटी।'


नियमों की उपयोगिता – वास्तव में, यातायात के आवागमन के नियमों का प्रणयन हमारी सुविधा के लिए ही किया गया है। अतः सड़क के नियमों को उचित ढंग से लागू करना और तद्नुरूप उनका अनुसरण करना हमारे व समाज के हित में ही है। सड़कों पर ट्रक, बस, टैम्पो, स्कूटर, रिक्शे व पैदलयात्री चलते हैं। नियमों का पालन करने के कारण ही ये सब एक साथ मार्गों पर आ-जा सकते हैं। जब भी नियमों का उल्लंघन किया जाती है, तब ही कोई बड़ा हादसा हमारी आँखों के सामने सड़क दुर्घटना के रूप में हो जाता है।


यातायात पुलिस की व्यवस्था – यातायात के नियमों को लागू करवाने तथा वाहनों की गति को नियन्त्रण में रखने के लिए यातायात पुलिस की व्यवस्था होती है। प्रत्येक बड़े और व्यस्त चौराहे पर गोल चक्कर के रूप में बना 'ट्रैफिक आइलैण्ड' होता है, जिस पर खड़े होकर यातायात पुलिस का सिपाही आने-जाने वाले राहगीरों व वाहनों को विभिन्न प्रकार के संकेत देता है। इन संकेतों का अनुगमन करना प्रत्येक नागरिक का दायित्व होता है। साधनों में वैज्ञानिक क्रान्ति के कारण अब इन चौराहों पर बिजली की रंगीन लाइटों को भी प्रयोग किया जाने लगा है। लाल लाइट का संकेत रुकने के लिए, पीली लाइट का तैयार होने के लिए तथा हरी लाइट का संकेत जाने के लिए होता है।


महानगरों की गम्भीर समस्या – महानगरों में यातायात का सुगम संचालन एक गम्भीर समस्या का रूप धारण करता जा रहा है। सुरसा (राक्षस) के मुँह के समान इसकी विकरालता बढ़ती ही जा रही है। ऐसी स्थिति में सड़क पर चलने के नियमों का अनुपालन करना और भी अधिक अपरिहार्य हो गया है।


सार्वभौमिक नियम – पदयात्रियों को सदैव सड़क के किनारे पर चलना चाहिए तथा जहाँ तक सम्भव हो एकसमान गति से चलना चाहिए। वाहनों के हॉर्न को आवश्यकता पड़ने पर ही प्रयोग करना चाहिए। बार-बार इसके उपयोग से प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होने लगती है। आगे के वाहन को 'ओवरटेक' करते समय सदैव दाहिनी ओर से आगे निकलना चाहिए। सामान्य रूप से वाहन को सड़क के बाईं ओर या मध्य में चलाना चाहिए। दाहिनी दिशा सामने से आने वाले वाहन के लिए खाली छोड़ देनी चाहिए। घुमावदार मोड़ पर वाहन की गति को अपेक्षाकृत रूप से कर लेना चाहिए। कुछ कम


उपसंहार – वाहन हमारे जीवन का एक आवश्यक उपागम बन चुका है और सड़क पर चलना वो भी तीव्र गति से दौड़ना अब हमारी नियति बन चुकी है। अतः इस तेज दौड़ती धमा-चौकड़ी में गन्तव्य तक सही सलामत पहुँचने के लिए यातायात के नियमों का समवेत रूप से पालन करना परम आवश्यक है।



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