भारत रत्न डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
मेरा प्रिय नेता (डॉ. अब्दुल कलाम)
किसी मेले का आँखों देखा वर्णन
किसी देखे हुए मेले का वर्णन
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
राष्ट्रभाषा हिन्दी
राष्ट्रभाषा का महत्त्व
सम्पर्क भाषा: हिन्दी
वर्तमान में हिन्दी की स्थिति
वर्तमान समय में समाचार पत्र की उपादेयता
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पर उपदेश कुशल बहुतेरे
संकेत बिन्दु प्रस्तावना, पर-उपदेश से सम्बन्धित कुछ उदाहरण, उपसंहार।
प्रस्तावना अपने जीवन में आपने ऐसे बहुत से लोगों को देखा होगा जो कि दूसरों को सरलता से उपदेश दे देते हैं, परन्तु अपने जीवन में उन उपदेशों का बिलकुल भी पालन नहीं करते। किसी भी उपदेश का प्रभाव अधिक पड़ता है, जब उपदेशक स्वयं भी उन उपदेशों का अनुपालन करता है। अन्यथा उसका उपदेश देना निरर्थक है। जीवन में कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं कि हमें सामने वाले की कुछ बातें अनुचित लगती हैं और हम उसे उपदेश देने बैठ जाते हैं, परन्तु यहाँ महत्त्वपूर्ण यह है कि क्या उन उपदेशों को हमने भी अपने जीवन में उतारा है या नहीं।
पर उपदेश से सम्बन्धित कुछ उदाहरण यहाँ हम कुछ उदाहरणों के माध्यम से इस विषय पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे। एक बार एक महिला अपने लड़के को लेकर महात्मा गाँधी के पास पहुँची। उसने उनसे कहा-महात्मा जी मेरा बेटा मीठा बहुत ज्यादा खाता है। आप इसे समझाइए। गांधी जी ने कहा-आप अगले सप्ताह आना, मैं इसे समझा दूंगा। एक सप्ताह गुजर जाने के बाद वह महिला अपने बच्चे को लेकर गांधीजी के पास आई। उस समय गांधी जी ने उसके बच्चे को समझाया कि बेटा, मीठा कम खाया करो। ज्यादा मीठा खाना सेहत के लिए हानिकारक होता है। लड़का बोला-ठीक है, अब से मैं कम मीठा खाया करूंगा। महिला चकित रह गई। गांधी जी से बोली- महात्मा जी यह बात तो आप तब भी बोल सकते थे। गांधी जी ने उत्तर दिया-उस समय मैं स्वयं ज्यादा मीठा खाता था। गांधी जी की इस बात का उस महिला पर बहुत प्रभाव पड़ा। अतः हमें यदि किसी अनुचित बात के लिए किसी भी व्यक्ति या बालक को टोकना है, तो पहले यह जाँच कर लेना आवश्यक है कि वह अनुचित कार्य कहीं हम स्वयं तो नहीं करते।
दूसरा अन्य प्रसंग भी गांधी जी से ही सम्बन्धित है। एक बार महात्मा गांधी जी की कस्तूरबा देवी बीमार पड़ गईं। डॉक्टर ने गांधी जी से कहा कि कस्तूरबा को कहिए पत्नी कि वे अपने आहार में नमक लेना बन्द कर दें। गांधी जी ने पहले स्वयं नमक खाना छोड़ा बाद में अपनी पत्नी को नमक खाने से मना किया। दूसरे को समझाने से पहले हमें सर्वप्रथम स्वयं में झाँक लेना चाहिए।
उपसंहार अतः स्पष्ट है कि उपदेशक द्वारा कही गई बातों का अनुसरण सभी लोग तब ही करेंगे, जब वह स्वयं भी उसे आचरण में लाता हो। जब तक स्वयं उपदेश देने वाला जीवनानुभवों से न जुड़ा तब तक उसके उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मेघनाथ वध के समय रावण द्वारा दिए गए नीति के उपदेशों के सम्बन्ध में तुलसीदास जो ने इस पंक्ति की रचना की थी कि- 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे रावण के यह वचन निरर्थक थे, क्योंकि वह स्वयं उनका पालन नहीं करता था। अतः योग की शिक्षा देने से पहले स्वयं योगी बनना पड़ता है, जब जाकर लोगों पर उस शिक्षा का प्रभाव पड़ता है।
भारत रत्न डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
अथवा
मेरा प्रिय नेता (डॉ. अब्दुल कलाम)
संकेत बिन्दु – प्रस्तावना, वैज्ञानिक उपलब्धियाँ, युवाओं के प्रेरणा स्रोत, पुरस्कारों से सम्मान, उपसंहार।
प्रस्तावना – 'मिसाइल मैन' के नाम से विख्यात भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का 27 जुलाई, 2015 को भारतीय प्रबन्धन संस्थान (आई आई एम) शिलांग में एक व्याख्यान के दौरान हृदयाघात होने से निधन हो गया। वैज्ञानिक क्षेत्रों में अद्वितीय उपलब्धियों के कारण डॉ. कलाम की गणना विश्व के महानतम वैज्ञानिक में की जाती है। सेण्ट जोसेफ, तिरुचिरापल्ली से बी.एस.सी. एवं मद्रास इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से अन्तरिक्ष विज्ञान में स्नातक करने के पश्चात् डॉ. कलाम ने एच.ए.एल., बंगलुरु में नौकरी करना प्रारम्भ कर दिया।
वैज्ञानिक उपलब्धियाँ – एक वैज्ञानिक के रूप में डॉ. कलाम के जीवन की यात्रा वर्ष 1960 से शुरू हुई, जब वह विक्रम साराभाई अन्तरिक्ष अनुसन्धान केन्द्र थुम्बा से जुड़े। वर्ष 1962 में इसरो से जुड़ने के पश्चात् कलाम ने होवरक्राफ्ट परियोजना पर कार्य आरम्भ किया। डॉ. कलाम कई उपग्रह प्रक्षेपण परियोजनाओं से भी जुड़े। उन्होंने परियोजना निदेशक के रूप में भारत के पहले स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यान एसएलवी-3 के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
वर्ष 1980 में कलाम ने रोहिणी उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा के निकट स्थापित किया। वर्ष 1982 में डॉ. कलाम को भारतीय रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संस्थान (डीआरडीओ) का निदेशक नियुक्त किया गया। इसरो लॉन्च व्हीकल प्रोग्राम की सफलता का श्रेय भी डॉ. कलाम को जाता है। उन्होंने स्वदेशी लक्ष्य भेदी नियन्त्रित प्रक्षेपास्त्र (गाइडेड मिसाइल) को डिज़ाइन किया तथा अग्नि और पृथ्वी जैसी मिसाइलों को स्वदेशी तकनीक से बनाया। वर्ष 1998 में डॉ. कलाम की देखरेख में भारत ने पोखरण में अपना दूसरा सफल परमाणु परीक्षण किया।
युवाओं के प्रेरणा स्रोत – राष्ट्रपति पद से 25 जुलाई, 2007 को सेवामुक्त होने के पश्चात् कलाम शिक्षण, लेखन, मार्गदर्शन और शोधन जैसे कार्यों में व्यस्त रहे। राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल में उन्होंने कई देशों का दौरा किया एवं भारत का शान्ति का सन्देश दुनियाभर को दिया। इस दौरान उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया एवं अपने व्याख्यानों द्वारा देश के नौजवानों का मार्गदर्शन करने एवं उन्हें प्रेरित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। वह भारतीय अन्तरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान, तिरुवनन्तपुरम के कुलाधिपति, अन्ना विश्वविद्यालय, चेन्नई में एयरोस्पेस इन्जीनियरिंग के प्रोफेसर बन गए। उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और अन्तर्राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, हैदराबाद में सूचना प्रौद्योगिकी विषय भी पढ़ाया। इस प्रकार डॉ. कलाम देशभर के बच्चों और युवाओं के प्रेरणा स्रोत बन गए।
पुरस्कारों से सम्मान – डॉ. कलाम की महान् उपलब्धियों को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1981 में 'पद्म भूषण', वर्ष 1990 में 'पद्म विभूषण' और वर्ष 1997 में 'भारतरत्न' से सम्मानित किया। नेशलन स्पेस सोसायटी ने वर्ष • 2013 में उन्हें अन्तरिक्ष विज्ञान से सम्बन्धित परियोजनाओं के कुशल संचालन और प्रबन्धन के लिए 'वॉन ब्राउन अवॉर्ड' से पुरस्कृत किया। वर्ष 2014 में उन्हें एडिनबर्ग विश्वविद्यालय, यूनाइटेड किंगडम द्वारा 'डॉक्टर ऑफ साइंस' की मानद उपाधि प्रदान की गई।
उपसंहार – डॉ. कलाम ने सपना देखा था कि वर्ष 2020 तक भारत विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा होगा। ऐसे संकल्पवान व अपनी प्रतिभा के बल पर पूरी दुनिया में अपनी सफल पहचान बनाने वाले देश के इस महान् वैज्ञानिक को सच्ची श्रद्धांजलि तभी दी जा सकती है, जब देश का प्रत्येक नागरिक उनके बताए मार्ग पर चलने का संकल्प ले। उन्होंने कहा भी है
"अपने मिशन में कामयाब होने के लिए आपको अपने लक्ष्य के प्रति एकचित्त और निष्ठावान होना पड़ेगा।"
किसी मेले का आँखों देखा वर्णन
अथवा
किसी देखे हुए मेले का वर्णन
संकेत बिन्दु – भूमिका/ प्रस्तावना, मार्ग के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन, मेले के दृश्य का चित्रण, उपसंहार
प्रस्तावना भारत मेलों का देश है। यहाँ आए दिन किसी-न-किसी जाति और किसी-न-किसी धर्म का मेला लगता ही रहता है। मानव ने सभ्यता के संघर्ष में जब-जब सफलता प्राप्त की, तब-तब उसने उसकी प्रसन्नता में कोई विशेष मेला प्रारम्भ कर दिया। प्राचीन काल में मेलों के ही बहाने से यातायात की सुविधा के अभाव में एक-दूसरे से मिल लेते थे, विचारों का आदान-प्रदान करते थे, एक-दूसरे से धार्मिक प्रेरणा प्राप्त करते थे तथा अपने विश्राम के समय को मनोरंजन में व्यतीत करते थे। मेलों के बहाने से वे जीवन की आवश्यक वस्तुएँ भी आसानी से खरीद लेते थे। दूर नगरों में जाकर कौन अपने चार छः दिन नष्ट करे, इसी भावना से प्रत्येक ग्राम के आस-पास चार छः महीनों में कोई-न-कोई मेला लगा करता था। आज भी ग्रामीणों के जीवन में इन मेलों का विशेष महत्त्व है। पिछले माह मैं अपने परिवार के साथ गंगा स्नान करने के लिए हरिद्वार गया। हमने बस द्वारा वहाँ जाने का निर्णय किया।
मार्ग के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन – मार्ग के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखने के लिए मैंने खिड़की से अपना सिर बाहर निकाल रखा था। सड़क का दृश्य बड़ा ही मनोहर था। सड़क के दोनों ओर बहुत से यात्री पैदल चल रहे थे। जाने वालों में स्त्रियों की संख्या अधिक थी। वे दस-दस और आठ-आठ की टोलियों में भजन गाती हुई जा रहीं थीं। किसी का बच्चा कन्धे पर बैठा था, तो किसी का बगल में, ज्यादा संख्या बिना बच्चों वाली महिलाओं की थी। वे बेचारी जल्दी पहुँचने के विचार से अपने-अपने घरों से बहुत जल्द चल दी थीं। बहुत से लोग साइकिलों पर थे; जिन्होंने कैरियरों पर अपने-अपने बिस्तर और कपड़े बाँध रखे थे। जब तक सड़क अच्छी थी। बस आराम से चलती रही, परन्तु जैसे ही कुछ गड्ढेदार सड़क आई हम लोग उछलने लगे, हमारे सिर बार-बार बस की छत से जाकर टकराते। बस में बैठे हुए बच्चों और औरतों को इस कूदने में बड़ी हँसी आ रही थी, सारी गाड़ी का वातावरण मनोविनोदपूर्ण था।
मेले के दृश्य का वर्णन – आज गंगा दशहरा था। प्रात:काल चार बजे से ही गंगा के दूर तक के तट भीड़ से भरे हुए दिखाई पड़ रहे थे। किनारों पर पेड़ों के तख्त बिछे हुए थे, जिन पर यात्री अपना सामान रखते, स्नान करते और फिर पण्डे से तिलक लगवाकर उसे दक्षिणा दे रहे थे। नहा-धोकर लोग मेले की ओर जा रहे थे। चारों ओर बाजार भरा हुआ दिखाई पड़ रहा था। मनचले नौजवान धक्केबाजी में ही आनन्द ले रहे थे और कुछ लोग भीड़ से बचकर निकलने की कोशिश कर रहे थे। खोमचे वालों की तरह-तरह की आवाज खेल-तमाशे वालों के गाने, रिकार्डों तथा चरखे वालों की चूँ चूँ ने सारा वातावरण कोलाहलपूर्ण बना रखा था, एक तरफ पूड़ी कचौड़ी वालों की दुकाने थीं। कहीं, पूड़ियाँ सिक रहीं थीं, तो कहीं गरम-गरम जलेबियाँ बहार दे रहीं थीं। कोई बर्फी खा रहा था, कोई लड्डू, कोई कलाकन्द का भोग लगा रहा था, तो कोई कचौरी पर आलू की सब्जी डलवा रहा था। हलवाइयों की दुकानों के भीतर चटाइयो पर बैठने का स्थान भी न मिल रहा था। एक ओर बिसातियों की दुकानें थी जिन पर गाँव की स्त्रियों की बेहद भीड़ थी। कोई कंघा ले रही थी तो कोई चुटिया। नई फैशन की लड़कियाँ रिबन खरीद रहीं थी। कोई शीशे में अपना मुँह देखकर उसका मोल कर रही थी। किसी को माथे की बिन्दी पसन्द आई थी, तो किसी को नाखूनों की पालिश। बच्चे अपनी माताओं से सीटी, गेंद और पैसे रखने का बटुआ लेने के लिए मचल रहे थे।
बच्चों और स्त्रियों की सबसे ज्यादा भीड़ मैंने चाट और खोमचे वालों के यहाँ देखी। कोई दही बड़े खा रहा था, तो कोई सोठ की पकौड़िया कोई आलू की टिकिया खा रहा था, तो कोई पानी के बताशे। कुछ किताबों की दुकानें थीं, जिन पर ग्रामीण साहित्य अर्थात् रसिया और ढोले की छोटी-छोटी किताबे गाँव वाले खूब खरीद रहे थे। किताबें खरीदकर वहीं, उनमें से गाना शुरू कर देते थे। कुछ घूमने वाले बाँसुरी बेच रहे थे। कहीं काठ की मालाएँ बिक रहीं थीं। कुछ दुकाने ऐसी थीं, जिन पर केवल गंगा जी का प्रसाद बिक रहा था, जो भी स्नान करके आता वह सफेद चिनौरियों का प्रसाद जरूर खरीदता। बच्चे अपनी माताओं से चरखे में झूलने के लिए मचल रहे थे और वे मना कर रही थीं। कहीं भजनोपदेश हो रहे थे तो कहीं धार्मिक सभाएँ।
उपसंहार – इस प्रकार चार-पाँच दिन मेले का आनन्द लिया। छठे दिन हम लोग घर आ चुके थे। भारतीय मेलों में भारत की प्राचीन आत्मा आज भी दिखाई पड़ती है। ये मेले हमारी सभ्यता, संस्कृति और धार्मिक भावनाओं के प्रेरणा स्रोत हैं और अतीत के इतिहास को आज भी हमारे नेत्रों के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। परस्पर मिलाने और एक-दूसरे को समीप लाने में ये मेले बहुत सहायक सिद्ध होते हैं।
राष्ट्रभाषा हिन्दी
राष्ट्रभाषा का महत्त्व
सम्पर्क भाषा: हिन्दी
वर्तमान में हिन्दी की स्थिति
संकेत बिन्दु भूमिका, हिन्दी की संवैधानिक स्थिति, राजभाषा के रूप में चयन का कारण, हिन्दी की वास्तविक स्थिति, निष्कर्ष या उपसंहार
भूमिका – किसी भी राष्ट्र की सर्वाधिक प्रचलित एवं स्वेच्छा से आत्मर की गई भाषा को 'राष्ट्रभाषा' कहा जाता है। हिन्दी, बांग्ला, उर्दू, पंजाबी, तेलुगू, तमिल, कन्नड़, मलयालम, उड़िया आदि भारत के संविधान द्वारा मान्य राष्ट्रभाषाएँ हैं। इन सभी भाषाओं में हिन्दी का स्थान सर्वोपरि है, क्योंकि यह भारत की राजभाषा भी है। राजभाषा वह भाषा होती है, जिसका प्रयोग देश में राज-काज को चलाने के लिए किया जाता है। हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की राजभाषा है।
हिन्दी की संवैधानिक स्थिति – संविधान के अनुच्छेद-343 के खण्ड-1 में कहा गया है कि भारत संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने वाले भारतीय अंकों का रूप, अन्तर्राष्ट्रीय रूप होगा। खण्ड-2 में यह प्रावधान किया गया कि 26 जनवरी, 1965 तक संघ के सभी सरकारी कार्यों के लिए अंग्रेज़ी का प्रयोग होता रहेगा और इन पन्द्रह वर्षों में हिन्दी का विकास कर इसे राजकीय प्रयोजनों के लिए उपयुक्त बना दिया जाएगा।
राजभाषा के रूप में चयन का कारण – देश की अन्य भाषाओं के बदले हिन्दी को राजभाषा बनाए जाने का मुख्य कारण यह है कि यह भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा के साथ-साथ देश की एकमात्र सम्पर्क भाषा भी है। हिन्दी राष्ट्र के बहुसंख्यक लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है। इसकी लिपि देवनागरी है, जो अत्यन्त सरल है। इसमें आवश्यकतानुसार देशी-विदेशी भाषाओं शब्दों को आत्मसात् करने की शक्ति है। यह एकमात्र ऐसी भाषा है, जिसमें पूरे राष्ट्र में भावात्मक एकता स्थापित करने की पूर्ण क्षमता है। हिन्दी की इसी सार्वभौमिकता के कारण राजनेताओं ने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा देने का निर्णय लिया था।
हिन्दी की वास्तविक स्थिति – आज हिन्दी को राजभाषा का सम्मान प्राप्त करने के लिए अंग्रेज़ी के साथ संघर्ष करना पड़ रहा है। भाषाओं की बहुलता के कारण भी दक्षिण में हिन्दी को नुकसान उठाना पड़ रहा है। कुछ राजनीतिज्ञ तथा राजनीतिक दल इसे इसका वास्तविक सम्मान दिए जाने का विरोध करते रहे हैं।
निष्कर्ष या उपसंहार – प्रत्येक देश की पहचान का एक मज़बूत आधार उसकी भाषा होती है। राष्ट्रभाषा के द्वारा आपस में सम्पर्क बनाए रखकर देश की एकता एवं अखण्डता बनाए रखने के लिए, हिन्दी को इसका सम्मान देना आवश्यक है, जिससे यह पूरे देश को एकता के सूत्र में बाँधने वाली भाषा की भूमिका सफलतापूर्वक निभा सके। जनता को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा दिया गया यह मन्त्र समझना होगा
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को सूल।
वर्तमान समय में समाचार पत्र की उपादेयता
संकेत बिन्दु प्रस्तावना, समाचार पत्र का इतिहास, समाचार पत्रों का महत्त्व, समाचार पत्रों का दुरुप्रयोग, उपसंहार
प्रस्तावना – समाचार पत्र जनसंचार का एक सशक्त माध्यम है। समाचार पत्रों की निष्पक्षता, निर्भीकता एवं प्रामाणिकता के कारण इनकी विश्वसनीयता में तेज़ी से वृद्धि हुई है। यही कारण है कि सन्तुलित तरीके से समाचारों का प्रस्तुतीकरण कर रहे समाचार पत्रों की बिक्री दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है।
समाचार पत्र का इतिहास – सोलहवीं शताब्दी में प्रिण्टिंग प्रेस के आविष्कार के साथ ही समाचार पत्र की शुरुआत हुई थी, किन्तु इसका वास्तविक विकास अट्ठारहवीं शताब्दी में हो सका। उन्नीसवीं शताब्दी आते-आते इनके महत्त्व में तेज़ी से वृद्धि होने लगी, जिससे आगे के वर्षों में यह एक लोकप्रिय एवं शक्तिशाली माध्यम बनकर उभरा। समाचार पत्र कई प्रकार के होते हैं— त्रैमासिक, मासिक, पाक्षिक, साप्ताहिक एवं दैनिक। कुछ नगरों में समाचार पत्रों के प्रातःकालीन व सायंकालीन संस्करण भी प्रस्तुत किए जाते हैं। इस समय विश्व के अन्य देशों के साथ-साथ भारत में भी दैनिक समाचार पत्रों की संख्या अन्य प्रकार के पत्रों से अधिक है। भारत में भी समाचार पत्रो की शुरुआत अट्ठारहवीं शताब्दी में ही हुई थी।
भारत का पहला ज्ञात समाचार पत्र अंग्रेज़ी भाषा में प्रकाशित 'बंगाल गजट' था। इसका प्रकाशन 1780 ई. में जेम्स ऑगस्टस हिकी ने शुरू किया था। कुछ वर्षों बाद अंग्रेज़ों ने इसके प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। हिन्दी का पहला समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' था। आरएनआई की वर्ष 2015-16 की प्रकाशित वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान समय में देशभर में पंजीकृत समाचार पत्रों की संख्या लगभग एक लाख है। भारत में अंग्रेज़ी भाषा के प्रमुख दैनिक समाचार पत्र 'द टाइम्स ऑफ इण्डिया', 'द हिन्दू', 'हिन्दुस्तान टाइम्स' इत्यादि हैं। हिन्दी के दैनिक समाचार पत्रों में 'दैनिक जागरण', 'दैनिक भास्कर', 'हिन्दुस्तान', 'नव-भारत टाइम्स', 'नई दुनिया' 'जनसत्ता' इत्यादि प्रमुख हैं।
समाचार-पत्रों के कार्य जहाँ तक समाचार पत्रों के कार्यों की बात है, तो यह लोकमत का निर्माण, सूचनाओं का प्रसार, भ्रष्टाचार एवं घोटालों का पर्दाफ़ाश तथा समाज की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करने के लिए जाना जाता है। समाचार पत्रों में प्रत्येक वर्ग के लोगों को ध्यान में रखते हुए समाचार फीचर एवं अन्य जानकारियाँ प्रकाशित की जाती है। लोग अपनी रुचि एवं आवश्यकता के अनुरूप समाचार, फीचर या अन्य विविध जानकारियों को पढ़ सकते हैं। टेलीविज़न के न्यूज़ चैनलों के विज्ञापन से जहाँ झल्लाहट होती है, वहीं समाचार पत्र के विज्ञापन पाठक के लिए सहायक सिद्ध होते हैं।
समाचार पत्रों का महत्त्व – रोज़गार की तलाश करने वाले लोगो एवं पेशेवर लोगों की तलाश कर रही कम्पनियों, दोनों के लिए समाचार पत्रों का विशेष महत्त्व है। तकनीकी प्रगति के साथ ही सूचना प्रसार में आई तेज़ी के बावजूद इण्टरनेट एवं टेलीविज़न इसका विकल्प नहीं हो सकते। समाचार पत्रों से देश की हर गतिविधि की जानकारी तो मिलती ही है, साथ ही मनोरंजन के लिए इनमें फैशन, खेल, सिनेमा इत्यादि समाचारों को भी पर्याप्त स्थान दिया जाता है। समाचार पत्र सरकार एवं जनता के बीच एक सेतु का कार्य भी करते हैं। आम जनता समाचार पत्रों के माध्यम से अपनी समस्याओं से सबको अवगत सकती है। इस तरह, आधुनिक समाज में समाचार पत्र लोकतन्त्र के प्रहरी का रूप ले चुके हैं। समाचार पत्रों की शक्ति का वर्णन करते हुए अकबर इलाहाबादी ने कहा है
"खींचो न कमानों को न तलवार निकालो।
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।”
समाचार-पत्रों की शक्ति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कई बार लोकमत का निर्माण करने में ये महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लोकमत के निर्माण के बाद जनक्रान्ति ही नहीं, बल्कि अन्य अनेक प्रकार का परिवर्तन सम्भव है। यहाँ तक कि कभी-कभी सरकार को गिराने में भी ये सफल रहते हैं। बिहार में लालूप्रसाद यादव द्वारा किया गया चारा घोटाला, आन्ध्र प्रदेश में तेलगी द्वारा किया गया डाक टिकट घोटाला, ए. राजा का 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कलमाड़ी का राष्ट्रमण्डल खेल घोटाला इत्यादि अनेक प्रकार के घोटालों, मैच फिक्सिंग के पर्दाफ़ाश में समाचार पत्रों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है।
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में भी समाचार पत्रों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। बीसवीं शताब्दी में भारतीय समाज में स्वतन्त्रता की अलख जगाने एवं इसके लिए प्रेरित करने में तत्कालीन समाचार-पत्रों की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। महात्मा गाँधी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष, मदन मोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे अमर स्वतन्त्रता सेनानी भी पत्रकारिता से प्रत्यक्षतः जुड़े हुए थे। इन सबके अतिरिक्त मुंशी प्रेमचन्द, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रतापनारायण मिश्र जैसे साहित्यकारों ने पत्रकारिता के माध्यम से समाचार-पत्रों को स्वतन्त्रता संघर्ष का प्रमुख एवं शक्तिशाली हथियार बनाया। नेपोलियन ने कहा था— “मैं लाखों बन्दूकों की अपेक्षा तीन विरोधी समाचार पत्रों से अधिक डरता हूँ।”
समाचार पत्रों का दुरुपयोग – इधर कुछ वर्षों से धन देकर समाचार प्रकाशित करवाने एवं व्यावसायिक लाभ के अनुसार 'पेड न्यूज़' समाचारों का चलन बढ़ा है। इसके कारण समाचार-पत्रों की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठने शुरू हो गए हैं। इसका कारण यह है कि भारत के अधिकतर समाचार पत्रों का स्वामित्व किसी-न-किसी उद्योगपति घराने के पास है। जनहित एवं देशहित से अधिक इन्हें अपने उद्यमों के हित की चिन्ता रहती है, इसलिए ये अपने हितों को प्राथमिकता देते हैं। सरकार एवं विज्ञापनदाताओं का प्रभाव भी समाचार पत्रों पर स्पष्ट देखा जा सकता है।
प्राय: समाचार पत्र अपने मुख्य विज्ञापनदाताओं के विरुद्ध कुछ भी छापने से बचते हैं। इस प्रकार की पत्रकारिता किसी भी देश के लिए घातक है। पत्रकारिता, व्यवसाय से अधिक सेवा है। व्यावसायिक प्रतिबद्धता पत्रकारिता के मूल्यों को नष्ट करती है।
उपसंहार – किसी भी देश में जनता का मार्गदर्शन करने के लिए निष्पक्ष एवं निर्भीक समाचार पत्रों का होना आवश्यक है। समाचार पत्र देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की सही तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। चुनाव एवं अन्य परिस्थितियों में सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों से जन-साधारण को अवगत कराने की ज़िम्मेदारी भी समाचार पत्रों को वहन करनी पड़ती है। इसलिए समाचार पत्रों के अभाव में स्वस्थ लोकतन्त्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
महात्मा गांधी ने समाचार-पत्रों के बारे में बड़ी ही महत्त्वपूर्ण एवं स्पष्ट बात कही। हैं—“समाचार-पत्रों के तीन उद्देश्य होने चाहिए-
(i) जनमानस की लोकप्रिय भावनाओं को समझना और उन्हें अभिव्यक्ति देना,
(ii) लोगों में वांछनीय संवेदना जागृत करना एवं
(iii) लोकप्रिय दोषों को बेधड़क बेनकाब करना।” यदि समाचार-पत्रों के मालिक और इनके सम्पादन से सम्बद्ध लोग महात्मा गांधी की कही इन बातों से प्रेरणा लेकर समाचार-पत्रों को प्रकाशित करें, तो निश्चय ही इनसे जनमानस और देश का कल्याण होगा।
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