यूपी बोर्ड कक्षा 10वी हिन्दी के सभी खण्डकाव्य का सम्पूर्ण हल
कक्षा 10 हिन्दी खंडकाव्य मुक्ति दूत, ज्योति जवाहर, अग्रपूजा, मेवाड़ मुकुट, जय सुभाष, मातृ भूमि के लिए, कर्ण, कर्मवीर भरत, तुमुल खण्ड काव्य
01 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य
कथासार / कथानक / कथावस्तु / विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 1. 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का सारांश लिखिए।
अथवा 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा डॉ. राजेन्द्र मिश्र द्वारा रचित 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य का सारांश (कथासार/कथानक/कथावस्तु/विषयवस्तु) लिखिए।
उत्तर डॉ. राजेन्द्र मिश्र द्वारा रचित खण्डकाव्य 'मुक्ति दूत' महात्मा गांधी से प्रेरित होकर लिखा गया है। पाँच सर्गों में विभाजित इस खण्डकाव्य का कथासार निम्नलिखित है
प्रथम सर्ग
इस सर्ग में कवि ने महात्मा गांधी को दिव्य अवतारी पुरुष मानकर उनके चरित्र की महानता का वर्णन किया है। कवि का मानना है कि जब-जब धरती पर पाप और अत्याचार बढ़ता है, तब-तब ईश्वर किसी महापुरुष के रूप में धरती पर अवतार लेता है। राम, कृष्ण, महावीर, गौतम बुद्ध, ईसा मसीह, मुहम्मद साहब, गुरु गोविन्द सिंह आदि रूपों में ईश्वर ने अवतार लेकर न केवल भारतवर्ष, बल्कि पूरी दुनिया के लोगों के कष्ट दूर किए। अतः यह निश्चित है कि जब-जब जहाँ-जहाँ आवश्यकता हुई, वहाँ किसी महापुरुष का जन्म हुआ। जिस प्रकार लिंकन द्वारा अमेरिका और नेपोलियन द्वारा फ्रांस का उद्धार हुआ था। उसी प्रकार, जब हमारा देश परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था तथा आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक सभी क्षेत्रों में भारत का शोषण हो रहा था, तब भारत के उद्धार हेतु गुजरात के काठियावाड़ में पोरबन्दर नामक स्थान पर मोहनदास करमचन्द गांधी का जन्म हुआ था। महात्मा गांधी बचपन से ही संस्कारी थे। वह श्रवण कुमार और सत्य हरिश्चन्द्र के जीवन चरित्र से बहुत प्रभावित थे। यही उनके आदर्श थे। वह कुछ समय तक अफ्रीका में रहे, फिर भारत लौट आए। भारत आकर उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया, उन्हें हरिजनों और हिन्दुस्तान दोनों से बहुत प्रेम था। वह तीस वर्षों तक देश की विभिन्न समस्याओं से जूझते रहे। उन्हीं के नेतृत्व में भारतवासियों ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध आज़ादी की लड़ाई लड़ी और उसमें सफलता पाई।
द्वितीय सर्ग
इस खण्डकाव्य के मूल कथानक का आरम्भ इसी सर्ग से हुआ है। इस सर्ग की मुख्य कथावस्तु 'हरिजन' समस्या पर केन्द्रित है, जो आगे चलकर महात्मा गांधी को स्वतन्त्रता संग्राम का नेतृत्व करने के लिए प्रेरित करती है।
प्रातः काल हो चुका था। पशु-पक्षी मनुष्य सभी अपने-अपने दैनिक क्रियाकलाप प्रारम्भ कर चुके थे तथा गांधीजी भी उठ जाते हैं। जागने पर उन्हें उस रात देखा हुआ सपना स्मरण आया। उस रात सपने में उन्हें अपनी माताजी दिखाई दी। माताजी ने उनको समझाया कि 'प्यासे को पानी दो, भूखे को खाना दो, बेसहारा को सहारा दो, समदृष्टा बनकर तन-मन-धन से दूसरों की सेवा करो।' वह मन-ही-मन अपनी माता को याद कर अत्यन्त भावुक हो उठते हैं। वह माँ की करुणा और
ममता को संसार में अनमोल समझते हैं। उन्होंने संकल्प किया कि वह मातृभूमि की बेड़ियाँ काटकर इसकी करोड़ों सन्तानों की सेवा करेंगे, जब तक कोई भी भूखा-नंगा है, वह चैन से नहीं बैठेगे। वह सोचते हैं कि ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि में कितनी विषमता है। एक ओर भूखे, दरिद्र, दुःखी हैं तो दूसरी ओर धनी हैं, जो हर प्रकार से सम्पन्न तथा सुखी हैं। हरिजनों और दरिद्रों को ठुकराने के कारण ही भारत गुलाम बना हुआ है।
वह सोचते हैं कि गोरे-काले, लम्बे-ठिगने, सुन्दर-कुरूप आदि का भेद तो प्रकृति प्रदत्त है, जिसे दूर नहीं किया जा सकता, परन्तु जो भेदभाव हमारे द्वारा (मनुष्यों द्वारा किए जाते हैं, उन्हें तो अवश्य ही दूर किया जा सकता है। हरिजनों और वाल्मीकियों पर होने वाले अत्याचारों की कथा सुनकर उनका दिल पसीज जाता था। महात्मा गांधी के मन में यह भाव उठते हैं कि धर्म-ग्रन्थों में कहीं भी छुआछूत करने की सीख नहीं दी गई है। वशिष्ठ मुनि ने निषादराज को गले से लगाया था, राम ने शबरी के जूठे बेर खाए थे, गौतम का शिष्य सत्यकाम भी हरिजन ही था, जो बाद में एक महान् ऋषि बना था, इसलिए छुआछूत और कुछ नहीं, बस एक छलावा है। वह कहते हैं
"यदि हरिजन के छू लेने से मन्दिर का है कल्याण नहीं।
तो यही कहूँगा मन्दिर में बस पत्थर है, भगवान नहीं ।।”
वह सोचते हैं कि आर्य-द्रविड़ कितने उदार हृदय थे, जिन्होंने खश, शक, क्षत्रप, कुषाण, हूण, पारसी, मुसलमानों आदि को अपना लिया था, परन्तु आज उसी भारत में उनकी सन्तानें हरिजनों के साथ पशुओं से भी अधिक बुरा व्यवहार करती हैं। वास्तव में, ये दरिद्र नारायण हैं। हमें इनकी सेवा करनी चाहिए। यही सोचकर उन्होंने आश्रम में रहने के लिए हरिजनों को भी निमन्त्रित किया था, लेकिन लोगों में इसकी विपरीत प्रतिक्रिया हुई। आश्रम के प्रबन्धक मगनलाल ने गांधीजी को बताया कि इस कारण लोगों ने आश्रम के लिए चन्दा देना बन्द कर दिया है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो आश्रम का कोष खाली हो जाएगा। उनकी बात सुनकर गांधीजी क्रोधित होकर कहते हैं कि यदि आश्रम के लिए चन्दा नहीं मिल रहा है, तो मैं हरिजनों की बस्ती में रह लूँगा, उनके साथ मज़दूरी कर लूँगा, परन्तु मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव करने का पाप नहीं कर सकता।
यदि हरिजन साफ-सफाई आदि काम करना बन्द कर दें, तो सभी जगहों पर गन्दगी का साम्राज्य फैल जाएगा। मुझे अफ्रीका में 'काला-अछूत' कहकर गाड़ी से उतार दिया गया वह अपमान आज भी मुझे व्यथित कर देता है। इस अत्याचार को सहकर भी यदि मैं वैसा ही अत्याचार और घृणित अपराध करूं, तो यह सबसे बड़ा पाप होगा। वह कहते हैं कि
"मैं घृणा-द्वेष की यह आँधी चलने दूँगा न चलाऊँगा।
या तो खुद ही मर जाऊँगा या इसको मार भगाऊँगा।"
उन्हें विश्वास था कि देश को स्वतन्त्र कराने के बाद वह छुआछूत जैसी सामाजिक बुराई से भी लड़ लेंगे। सत्य और अहिंसा उनके अस्त्र-शस्त्र थे। वह जहाँ भी जाते थे, उनका लोग अभिनन्दन करते थे। वह देश को स्वतन्त्र कराने के लिए प्रतिबद्ध थे। रात्रि होने पर गांधीजी सो गए। पिछली रात उन्हें अपनी माता जी स्वप्न में दिखाई दी थीं, तो आज स्वप्न में बड़े भाई तुल्य गोपालकृष्ण गोखले दिखाई दिए। उन्होंने आशा प्रकट की कि जिस प्रकार तुमने दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेज़ों से टक्कर ली, उसी प्रकार भारत में भी उनका सामना करोगे। तुम भारत के मुक्ति दूत बनोगे, ऐसा मेरा विश्वास है। महात्मा गांधी मन-ही-मन भारतमाता को स्वतन्त्र कराने का संकल्प दोहराते हैं।
तृतीय सर्ग
तृतीय सर्ग में अंग्रेज़ों की दमन नीति के विरोध में गांधी जी का क्रोध प्रकट हुआ है। स्वप्न में अपने बड़े भाई तुल्य गोपालकृष्ण गोखले का उपदेश सुनकर गांधीजी ने देश को स्वतन्त्र कराने का प्रण किया। उस समय देश अंग्रेज़ो के अत्याचार से कराह रहा था। देश के सब उद्योग-धन्धे बन्द हो गए तथा लोग बेरोज़गार हो गए थे। बाज़ार में विदेशी वस्तुओं की बहुतायत थी। भारतीय अपमान भरा जीवन जीने को मज़बूर थे। छोटे-छोटे अपराधों को राजद्रोह कहकर जनता को तरह-तरह की यातनाएँ दी जाती थीं। केवल वही मुट्ठीभर लोग सुखी थे, जो अंग्रेज़ों की चाटुकारिता करते थे। भारत की दीन-हीन दशा देखकर और अंग्रेज़ों के अत्याचार सुनकर गांधीजी को बहुत दुःख होता था, किन्तु फिर भी वह नम्रता की नीति अपनाते थे, लेकिन अंग्रेज़ों पर नम्रता का कोई प्रभाव न हुआ। अत: गांधीजी ने 'सविनय सत्याग्रह' को अपना हथियार बनाया।
उसी समय प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। इंग्लैण्ड को तब भारत की सहायता की आवश्यकता थी। गांधीजी के कहने पर भारतीयों ने इस युद्ध में ब्रिटेन का साथ दिया। गांधीजी को आशा थी कि इस विश्वयुद्ध में अंग्रेज़ों की सहायता करने पर वे हमें आज़ाद कर देंगे, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। अंग्रेज़ों ने युद्ध में विजय प्राप्त करके भारतीयों पर और अधिक अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। अंग्रेज़ी सरकार ने (काला कानून) रौलेट एक्ट बनाकर अपना दमन-चक्र चलाना आरम्भ कर दिया। यह देखकर गांधीजी के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ जनव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया, जिसमें तेजबहादुर सप्रू, मोहम्मद अली जिन्ना, सरदार पटेल, महामना मदनमोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू, बाल गंगाधर तिलक आदि बड़े-बड़े नेताओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। अब पूरा भारतवर्ष अंग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष में एकजुट हो चुका था।
उसी दौरान जलियाँवाला बाग की क्रूर घटना घटी। उस समय अधिकांश पंजाबी नेता जेलों में बन्द थे। पहले ही काले कानून से क्षुब्ध जनता इसे सहन न कर सकी। इसलिए बैशाखी के त्योहार पर जलियाँवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा आयोजित की गई, जिसका उद्देश्य अंग्रेजों के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करना था। बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब इस सभा में शामिल होने पहुंचे थे। सभा शुरू होने के थोड़ी ही देर बाद क्रूर जनरल डायर ने वहाँ पहुंचकर अन्धाधुन्ध फायरिंग का आदेश दे दिया। दस मिनट तक लगभग साढ़े सोलह सौ गोलियाँ चली। जलियाँवाला बाग भारतीयों की लाशों से भर गया। इस घृणित मानव हत्याकाण्ड से सारे भारत में शोक फैल गया। इस दर्दनाक घटना से गांधी भी दहल गए और उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि अब अंग्रेज़ों को भारत में अधिक समय तक नहीं रहने देंगे।
चतुर्थ सर्ग
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड से आहत गांधीजी ने अब अंग्रेजों के विरुद्ध कड़ा संघर्ष करने की ठान ली थी, उन्होंने एक के बाद एक, कई आन्दोलन चलाए। सभी आन्दोलनों में उन्हें जनता का भरपूर सहयोग मिला। अगस्त, 1920 में उन्होंने 'असहयोग आन्दोलन' प्रारम्भ किया। जनता ने उनके पीछे चलते हुए स्तर पर सरकार के साथ असहयोग किया। लोगों ने गोरी सरकार से मिली पदवी, उपाधि, सम्मान आदि को लौटाते हुए सरकारी नौकरियों से त्याग-पत्र दे दिया।
तब साइमन कमीशन भारत आया। साइमन कमीशन भारत पर अपने मनमाने कानून थोपने आया था। अत: गांधीजी के नेतृत्व में सारे देश में 'साइमन कमीशन वापस जाओ' का नारा गूंज उठा। लाला लाजपत राय, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, राजेन्द्र प्रसाद, नेहरू, पटेल, गफ्फार खान आदि नेताओं ने भी साइमन कमीशन का विरोध किया। सरकार ने फिर विद्रोह की आग को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लिया, जगह-जगह लाठीचार्ज किया गया। लाला लाजपत राय पर भी लाहौर में विरोध करते हुए लाठियों पड़ी, जिसके कारण वे घायल हो गए और उनकी कुछ हफ्तों बाद ही मृत्यु हो गई। जनता फिर भड़क उठी। सत्य और अहिंसा को हथियार बना कर गांधीजी ने फिर अंग्रेज़ों के खिलाफ मोर्चा खोला और डाण्डी में नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा। खीझकर सरकार ने गांधीजी को जेल में डाल दिया। धीरे-धीरे जेले सत्याग्रहियों से भर गईं। तभी दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया। अंग्रेज़ों को एक बार फिर भारत से सैन्य शक्ति की सहायता की आवश्यकता थी। गांधीजी ने अंग्रेज़ों के सामने शर्त रखी
“आज़ादी हमको शीघ्र मिले यह पहली माँग हमारी है। दिल्ली में हो शासन अपना यह माँग दूसरी प्यारी है।"
अंग्रेज़ों ने इस प्रस्ताव को सुनते ही अस्वीकार कर दिया। इस पर गांधीजी ने करो या मरो' का नारा देकर 'भारत छोड़ो आन्दोलन' शुरू कर दिया। पूरे भारत में शीघ्र ही यह आन्दोलन फैल गया। बच्चे, बूढ़े, जवान सभी इस आन्दोलन में कूद पड़े। आन्दोलनकारियों ने सारी शासन व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। बौखलाकर सरकार ने लोगों का दमन करना आरम्भ कर दिया। गांधीजी ने जेल में इक्कीस दिनों का अनशन शुरू किया। भारत में अंग्रेज़ों के अत्याचार देखकर सारी दुनिया में गोरी सरकार की निन्दा होने लगी।
इसी बीच बापू की पत्नी कस्तूरबा की मृत्यु हो गई। पत्नी की मृत्यु से बापू का हृदय टूट गया।
“धू-धू करके जब चिता जली बूढ़े बापू का युवा प्रणय
तिल भर भी संयत रह न सका रो उठा अकिंचन, विदा-सदय।।"
पत्नी की मृत्यु से आहत होकर बापू ने पुनः अंग्रेज़ों के विरुद्ध अपने मानसिक बल और प्रण को दृढ़ किया।
पंचम सर्ग
खण्डकाव्य के इस अन्तिम सर्ग में उन परिस्थितियों का वर्णन है, जिनके कारण
भारत को आज़ादी मिली। भारत में प्रतिकूल माहौल को बनते देख गौरी सरकार ने गांधीजी को जेल से रिहा कर दिया। गांधीजी को लगातार अस्वस्थ देखकर सरकार ने विवश होकर यह कदम उठाया। इसी बीच मई, 1945 में जर्मनी की द्वितीय विश्वयुद्ध में हार हुई और वैश्विक राजनीति में परिवर्तन हुआ। ब्रिटेन में चुनाव हुए और वहाँ मज़दूर दल की सरकार बनी। अब अंग्रेज़ भी समझ चुके थे कि वे अब अधिक समय तक भारत को गुलाम बनाकर नहीं रख सकते। इसलिए एटली के नेतृत्व में बनी नई सरकार ने यह घोषणा की कि जून, 1947 के पूर्व ही ब्रिटेन भारत
को स्वतन्त्र कर देगा। यह घोषणा सुनकर भारतवासी अत्यन्त प्रसन्न हुए, किन्तु
साथ ही अंग्रेज़ों की चाल और मुस्लिम लीग की पाकिस्तान बनाने की माँग भी
सामने आई।
गांधीजी ने जिन्ना को मनाने का काफ़ी प्रयास किया, परन्तु जिन्ना पाकिस्तान बनाने की माँग पर अड़े रहे। इसी बीच नोआखाली में साम्प्रदायिक दंगे भड़क गए। बापू ने स्वयं वहाँ की यात्रा कर दंगे शान्त किए, परन्तु वह जान गए थे कि स्वतन्त्रता के साथ-साथ हमें विभाजन भी स्वीकार करना पड़ेगा। अन्ततः 15 अगस्त, 1947 को भारत अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद हुआ और
जनतन्त्र की स्थापना हुई। इस प्रकार, महात्मा गांधी को जहाँ एक ओर भारत के आज़ाद होने की खुशी हुई, तो दूसरी ओर देश के विभाजन का दुःख भी हुआ। नेहरू जी के हाथों में देश की बागडोर सौंपकर महात्मा गांधी ने सन्तोष की साँस ली।
खण्डकाव्य के अन्त में बापू को साबरमती के आश्रम में इतिहास को याद करते हुए दिखाया गया है। वह भारत के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं
"रहो खुश मेरे हिन्दुस्तान।तुम्हारा पथ हो मंगलमूल
सदा महके बन चन्दन चारु तुम्हारी अँगनाई की धूल
प्रश्न 2. 'मुक्ति-दूत' खण्डकाव्य के प्रतिपाद्य विषय (उद्देश्य) को समझाइए।
उत्तर कवि राजेन्द्र मिश्र द्वारा लिखे गए 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य में महात्मा गांधी नायक की भूमिका में हैं। कवि ने स्वतन्त्रता संग्राम के परिप्रेक्ष्य में उनके व्यक्तित्व एवं भारत को गुलामी से मुक्त कराने में उनके योगदान का वर्णन किया है। महात्मा गांधी के असाधारण व्यक्तित्व एवं योगदान को कवि ने इस खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य विषय बनाया है तथा उनके चरित्र का वर्णन कर युवाओं को प्रेरित करना इस काव्य का उद्देश्य है। यह खण्डकाव्य गांधीजी के जीवन का एक शब्द चित्र है। इसमें उन घटनाओं का समावेश किया गया है, जो उनके 'मन' को एवं उसके अनुसार किए गए 'कर्म' को उजागर करती हैं। इसके लिए कवि ने हरिजन समस्या, भारत की दासता, तत्कालीन घटनाक्रम तथा दार्शनिक तथ्यों की व्याख्या का सहारा लिया है। गांधीजी न केवल भारतवर्ष के वरन दलित वर्ग के लिए भी मुक्ति दूत बनकर उभरते हैं। इस खण्डकाव्य से हमें गांधीजी के चरित्र का अनुसरण करने की प्रेरणा मिलती है। करुणा, दया, त्याग, समदृष्टा, दृढ निश्चयी, देशभक्ति आदि गुणों को अपनाकर हम गांधीजी के समान ही अपने चरित्र को उज्ज्वल बना सकते हैं।
प्रश्न 3. 'मुक्तिदूत' खण्डकाव्य के आधार पर गांधी जी के जीवन में घटित प्रमुख घटना को संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'मुक्तिदूत' खण्डकाव्य के आधार पर किसी प्रमुख घटना का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
अथवा 'मुक्तिदूत' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग की कथा (कथानक / कथावस्तु) संक्षेप में लिखिए।
उत्तर
तृतीय सर्ग
तृतीय सर्ग में अंग्रेजों की दमन नीति के विरोध में गांधीजी का क्रोध प्रकट हुआ है। गोपालकृष्ण गोखले का उपदेश सुनकर गांधीजी ने देश को स्वतन्त्र कराने का प्रण किया। उस समय देश अंग्रेजों के अत्याचार से कराह रहा था। देश के सभी उद्योग-धन्धे चौपट हो गए थे। लोग बेरोजगार हो गए थे। बाजार में विदेशी वस्तुओं की बहुतायत थी। भारतीय अपमान भरा जीवन जीने को मजबूर थे। अंग्रेजो द्वारा छोटे-छोटे अपराधों को राजद्रोह कहकर जनता को तरह-तरह की यातनाएं दी जाती थीं। केवल वही मुट्ठीभर लोग सुखी थे, जो अंग्रेजों की चाटुकारिता करते थे। भारत की दीन-हीन दशा देखकर और अंग्रेजों के अत्याचार सुनकर गांधीजी को बहुत दुःख होता था, किन्तु फिर भी वह नम्रता की नीति अपनाते थे, लेकिन अंग्रेजों पर नम्रता का कोई प्रभाव न हुआ। अत: गांधीजी ने 'सविनय सत्याग्रह' को अपना हथियार बनाया।
उसी समय प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। इंग्लैण्ड को तब भारत की सहायता की आवश्यकता थी। गांधीजी के कहने पर भारतीयों ने इस युद्ध में ब्रिटेन का साथ दिया। गांधीजी को आशा थी कि इस विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की सहायता करने पर वे हमें आजाद कर देंगे, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। अंग्रेजों ने युद्ध में विजय प्राप्त करके भारतीयों पर और अधिक अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। अंग्रेजी सरकार ने (काला कानून) रौलेट एक्ट बनाकर अपना दमन चक्र चलाना आरम्भ कर दिया।
यह देखकर गांधीजी के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जनव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया, जिसमें तेजबहादुर सप्रू, मोहम्मद अली जिन्ना, सरदार पटेल, महामना मदन मोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू, बाल गंगाधर तिलक आदि बड़े-बड़े नेताओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। अब पूरा भारतवर्ष अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में एकजुट हो चुका था।
उसी दौरान जलियाँवाला बाग की क्रूर घटना घटी। उस समय अधिकांश पंजाबी नेता जेलों में बन्द थे। पहले ही काले कानून से क्षुब्ध जनता इसे सहन न कर सकी। इसलिए बैसाखी के त्योहार पर जलियाँवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा आयोजित की गई, जिसका उद्देश्य अंग्रेज़ों के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करना था। बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब इस सभा में शामिल होने पहुंचे थे। सभा शुरू होने के थोड़ी ही देर बाद क्रूर जनरल डायर वहाँ आ धमका और अन्धाधुन्ध फायरिंग का आदेश दे दिया।
लगभग दस मिनट तक साढ़े सोलह सौ गोलियाँ चली। जलियाँवाला बाग भारतीयों की लाशों से भर गया। इस घृणित मानव हत्याकाण्ड से सारे भारत में शोक फैल गया। इस दर्दनाक घटना से गांधीजी भी दहल गए और उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि अब अंग्रेजों को भारत में अधिक समय तक नहीं रहने देंगे।
चरित्र चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 4. 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य के नायक का चरित्रांकन कीजिए।
अथवा 'मुक्ति दूत खण्डकाव्य के आधार पर गांधीजी का चरित्र चित्रण कीजिए।
अथना 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य के मुख्य पात्र के चरित्र की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा मुक्ति दूत' खण्डकाव्य के उस पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए, जिसने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया हो।
अथवा 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य के आधार पर नायक महात्मा गांधी का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर डॉ. राजेन्द्र मिश्र द्वारा रचित 'मुक्ति दूत' खण्डकाव्य के नायक भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हैं। इस खण्डकाव्य के आधार पर उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. अवतारी पुरुष खण्डकाव्य के आरम्भ में ही कवि ने स्पष्ट किया है कि महात्मा गांधी राम, कृष्ण, ईसा, मोहम्मद पैगम्बर, बुद्ध, महावीर आदि की तरह अवतारी पुरुष हैं, जिनका जन्म भारत एवं शेष विश्व के उत्थान हेतु हुआ है। कवि का मानना है कि महात्मा गांधी जैसे अलौकिक एवं असाधारण पुरुषों का कोई धर्म अथवा जाति नहीं होती। जहाँ उनकी आवश्यकता होती है, उनका जन्म वहीं होता है।
2. मानवीय गुणों के भण्डार महात्मा गांधी का चरित्र मानवीय गुणों का भण्डार था। वह सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। वह सदा सत्य के पथ पर चलते थे। अहिंसा उनके लिए सर्वोपरि थी। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में अहिंसा को ही अपना सबसे बड़ा शस्त्र बनाया। वे दुश्मन पर भी दया करते थे। करुणा, परोपकार, दया, विनम्रता आदि गुण स्वाभाविक रूप से उनके चरित्र के हिस्से थे।
3. हरिजनों के उद्धारक गांधीजी सभी मनुष्यों को समान भाव से देखते थे। वे जाति-पाँति अथवा धर्म के आधार पर भेदभाव करने में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने आजीवन दलित वर्ग के लिए काम किया, उन्होंने उनको दरिद्रनारायण कहकर गले लगाया। उनके आश्रम में हरिजनों के आने या रहने पर किसी प्रकार की पाबन्दी नहीं थी। वह छुआछूत को बहुत घृणित मानसिक वृत्ति मानते थे। समय-समय पर वह हरिजनों की बस्ती में भी रहते थे।
4. मातृ भक्त गांधीजी के जीवन एवं चरित्र पर उनकी माता की गहरी छाप थी। वह स्वप्न में अपनी माता को देखकर भाव-विभोर हो उठे थे तथा स्वप्न में दिए गए मां
के आदेश को वास्तविक मानकर उसका पालन करते हैं तथा परोपकार को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं।
5. राष्ट्रभक्त एवं भारत के मुक्ति दूत गांधीजी में देशभक्ति की भावना अत्यन्त प्रबल थी तथा उनका पूरा जीवन देश की सेवा करने में ही व्यतीत हुआ। उन्होंने देश को स्वतन्त्र कराने में अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी। राष्ट्रभक्ति की भावना से भरकर उन्होंने देश को आज़ादी दिलाने के लिए एक के बाद एक अनेक आन्दोलन चलाए। उनके प्रयासों से अन्ततः देश को 15 अगस्त, 1947 को आज़ादी मिली।
6. अपने निश्चय पर अटल गांधीजी अपने वादों और इरादों के पक्के थे। उन्होंने जो भी प्रण किया, उसे पूरा करके ही दम लिया। स्वतन्त्रता संग्राम में उन्हें अनेक कष्ट झेलने पड़े, कई बार जेल जाना पड़ा, पत्नी का वियोग सहना पड़ा, परन्तु उनका मनोबल कभी क्षीण नहीं हुआ। उनके अटल और निर्भीक स्वभाव की एक झलक देखिए
“मैं घृणा द्वेष की यह आँधी, चलने दूँगा न चलाऊँगा। या तो खुद ही मर जाऊँगा, या इनको मार भगाऊँगा।"
7. जन-जन में लोकप्रिय गांधीजी कद-काठी में अत्यन्त साधारण थे, परन्तु फिर भी वह सभी वर्गों और राज्यों में लोकप्रिय थे। उनके एक आह्वान पर देश के सभी नागरिक एकजुट हो जाते थे। बापू की कही बात सब पर जादू-सा असर करती थी। उस समय के राजनेता भी गांधीजी का ही अनुसरण करते थे। इस प्रकार गांधीजी न केवल गुलामी से आज़ाद कराने वाले मुक्ति दूत थे, बल्कि दबे-पिछड़े, शोषित एवं पीड़ितों के लिए भी मुक्ति दूत थे। वे न केवल इस खण्डकाव्य के, अपितु पूरे भारत के नायक है।
02'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य
कथासार/कथानक / कथावस्तु / विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 1. 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य का सारांश लिखिए।
अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य का सारांश संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य का कथानक संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य की कथा संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य का कथा सार लिखिए।
उत्तर 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य की रचना श्री देवीप्रसाद शुक्ल 'राही' द्वारा की गई है। इस खण्डकाव्य में आधुनिक भारत के निर्माता और युगावतार पण्डित जवाहरलाल नेहरू के विराट व्यक्तित्व का चित्रण किया गया है। यह खण्डकाव्य घटनाप्रधान न होकर भावनाप्रधान है।
कवि कहता है कि पण्डित नेहरू का व्यक्तित्व इतना विराट है कि सम्पूर्ण भारतवर्ष की विशेषताएँ उनके व्यक्तित्व में समा गई हैं। वे सूर्य के समान तेजस्वी हैं, चन्द्रमा के समान सुन्दर हैं, उनका स्वाभिमान हिमालय के समान ऊँचा है तथा मन सागर के समान अथाह गहराई लिए हुए है।
भारतवर्ष में जन्मे इस महापुरुष के महान् व्यक्तित्व में भारतीय संस्कृति की छवि मिलती है। उन्होंने देश के अनेक महापुरुषों के गुणों को अपनाते हुए उनके अनेक
सांस्कृतिक एवं सामाजिक गुणों को अपने व्यक्तित्व में धारण किया। कवि के अनुसार नेहरू के व्यक्तित्व में भिन्न-भिन्न प्रान्तों और राज्यों के गुणों का समावेश
इस प्रकार हुआ है—
गुजरात राज्य में जन्मे महात्मा गांधी से नेहरूजी ने सत्य, अहिंसा, सद्भावना, प्रेम, मानवता तथा सहनशीलता का पाठ पढ़ा, जिस प्रकार श्रीराम ने गुरु वशिष्ठ से शिक्षा ग्रहण की थी, ठीक उसी प्रकार नेहरूजी ने महात्मा गांधी से प्रेरणा तथा •सीख ली थी। इसके अतिरिक्त उनके व्यक्तित्व पर गुजरात के ही भक्त कवि नरसी मेहता, वीर रस के कवि पद्मनाभ तथा महर्षि दयानन्द के गुणों का प्रभाव भी पड़ा।
महाराष्ट्र नेहरूजी को वीर शिवाजी की तलवार सौंपते हुए उन्हें अंग्रेज़ों से लोहा लेने की भी शक्ति प्रदान करता है। वह उन्हें प्रसिद्ध नारों-करो या मरो', 'स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है आदि का संकलन सौंपते हुए उनमें देशभक्ति का भाव भरता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र नेहरू को गुरु रामदास की राष्ट्रीय चेतना, ज्ञानेश्वर का गीता आधारित कर्मवाद, केशव गुप्त के नव-चेतना प्रदान करने वाले ओजस्वी गीत तथा तुकाराम एवं लोकानाथ के गीतों की धरोहर प्रदान करता है। इस प्रकार महाराष्ट्र नेहरू जी के व्यक्तित्व को विभिन्न रूपों में समृद्ध प्रदान करता है।
राजस्थान नेहरू जी में वीरता और त्याग की भावना भरता है। राजस्थान की भूमि बंजर और रेगिस्तान भरी है, किन्तु इसने अनेक अभाव सहन करते हुए देश की सेवा की है। यह वीरता की भूमि कहलाती है। इसने राणा साँगा, जयमल, चन्दबरदाई, राणा कुम्भा और महाराणा प्रताप के शौर्य तथा स्वतन्त्रता की भावना का स्मरण कराते हुए नेहरू जी के व्यक्तित्व को प्रभावित किया। कर्त्तव्यनिष्ठ तथा स्वामिभक्त पन्ना धाय तथा हज़ारों क्षत्राणियों द्वारा किया गया जौहर नेहरूजी में देश की आन-बान तथा शान की रक्षा करने का भाव भरता है। इसके अतिरिक्त मीरा अपनी भक्ति-भावना से नेहरूजी के व्यक्तित्व को उज्ज्वल बनाती है। राजस्थान की इस वीर-भावना को देखकर सतपुड़ा राज्य भी कह उठा
"बूढ़ा सतपुड़ा लगा कहने, हूँ दूर मगर अलगाव नहीं।
कम हुआ आज तक उत्तर से दक्षिण का कभी लगाव नहीं।।"
से निकली नर्मदा, ताप्ती, महानदी, कृष्णा, कावेरी आदि नदियाँ नेहरू के सतपुड़ा दर्शन हेतु पूरव-पश्चिम में दूर-दूर तक फैली हुई थीं। दक्षिण भारत की प्रकृति भी नेहरूजी से मिलने के लिए विकल थी। सतपुड़ा अपने भीतर महावीर और गौतम के धर्मोपदेशों से मिले हुए ज्ञान को सँजोए हुए था। वह मानव धर्म के सार को नेहरूजी को सौंपता है। सतपुड़ा से नेहरूजी को कम्बन रामायण का ज्ञान मिला, रामानुजाचार्य और शंकराचार्य का आध्यात्मिक एवं दार्शनिक ज्ञान मिला तथा सन्त अप्पा के अहिंसावादी विचारों की विरासत मिली।
सतपुड़ा ने कला, साहित्य और संगीत के रूप में संजोकर रखी गई भारतीय संस्कृति की विशेषताओं को भी नेहरूजी के व्यक्तित्व हेतु समर्पित कर दिया। सतपुड़ा से नेहरूजी को कालिदास की भावुकता मिली, कुमारिल की अद्भुत प्रतिभा का परिचय मिला, मोढ़ा की व्याकुलता मिली, फकीर मोहन की अंगारों वाली भाषा मिली तथा अकबर से टक्कर लेने वाली चाँदबीबी का साहस मिला। सतपुड़ा तंजौर और भुवनेश्वर में निर्मित प्रतिभाओं में प्राचीन युगों का गौरव सहेज कर रखे हुए है। वहाँ तानसेन की वीणा के स्वरों की गूंज आज भी सुनाई देती है। ये सब नेहरूजी के व्यक्तित्व को गहराई से प्रभावित किए बिना नहीं रहते। बंगाल राज्य अमूल्य रत्नों का भण्डार है। वह भी नेहरूजी पर अपना खज़ाना लुटाने के लिए आतुर है। वह कहता है
"बंगाल लगा हल्ला करने, कंगाल नहीं मैं रत्नों का तेरे हित अभी सँजोए हूँ, अरमान न जाने कितनों का।।”
बंगाल अपने हृदय में चण्डीदास एवं गोविन्ददास के गीतों की मधुरता, जयदेव के गीतों की ममता तथा कृतिवास द्वारा अनुवादित रामायण और महाभारत का ज्ञान सँजोए हुए है। चैतन्य महाप्रभु की भक्ति भी उसके गौरवशाली अतीत का हिस्सा है। बंगाल में ही रहकर दौलत काजी और शाह जफर ने गजलों की रचना की थी। बंगाल कर्मठी और देशभक्तों की भूमि भी रही है। वह विवेकानन्द, दीनबन्धु और सुभाषचन्द्र बोस की देशभक्ति की भावना नेहरू में भरना चाहता है। वह बंकिमचन्द्र का राष्ट्र-प्रेम, टैगोर तथा शरतचन्द्र के साहित्य की अमूल्य निधि आदि सहित अपना सब कुछ नेहरूजी पर न्योछावर कर देता है। नेहरूजी के व्यक्तित्व में अपनी छाप छोड़ने के लिए आसाम भी व्याकुल हो रहा है। वह कहता है
"मेरी हर धड़कन प्यासी है, तेरे चरणों के चुम्बन को। होती तैयार खड़ी है रे, जन-मन के स्नेह समर्पण को ।। "
आसाम अपनी हरियाली और मन-मोहिनी प्रकृति के साथ नेहरूजी का अभिनन्दन करने को तत्पर है। उसके पास उन्हें देने लिए बहुत कुछ है। वह कला और साहित्य का खजाना है। आसाम के माधव कन्दली ने रामायण का अनुवाद तथा भक्तकवि मनसा ने भक्तिगीतों की रचना करके जन-जन को मानसिक शान्ति तथा शुद्धता प्रदान की है। साहित्य तथा कला के रूप में संस्कृति को आगे बढ़ाने वाले गुरु शंकर आसाम के ही थे। आसाम के चरितपुथी ने विश्व को मानवता का पाठ पढ़ाया था। इस प्रकार आसाम कई प्रकार से नेहरू के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है।
बिहार की महिमा भी कुछ कम नहीं है। वह भी अपने भीतर व्याप्त करुणा, तप, सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, वीरता आदि गुणों को संचित किए हुए है। जैन तीर्थंकर महावीर से सम्बन्ध रखने वाला वैशाली नगर बिहार में ही है। महावीर ने जैन धर्म के रूप में मानवता को नई परिभाषा दी। बिहार में आज भी समुद्रगुप्त का यशोगान किया जाता है। उसके पुत्र चन्द्रगुप्त ने भी अपनी वीरता से भारत को गौरवान्वित किया है। कलिंग विजय के पश्चात् अहिंसा को अपने जीवन का दर्शन बनाने वाले अशोक भी बिहार के पुत्ररत्न थे। ये सभी नेहरूजी के व्यक्तित्व को अत्यन्त प्रभावित करते हैं। बिहार, पतंजलि के दर्शन और पुष्यमित्र शुंग के गुणों को नेहरूजी को समर्पित कर उन्हें अपने बौद्धिक ज्ञान, संस्कृति एवं साहित्य से समृद्ध कर देना चाहता है
उत्तर प्रदेश अपने आप को धन्य महसूस करता है, क्योंकि उसी की भूमि पर जवाहरलाल नेहरू ने जन्म लिया है। वह राम और कृष्ण के समय से महान् गुणों का वाहक रहा है। वह तुलसीदासकृत रामचरितमानस, सूरदास की वात्सल्यभरी वाणी, सारनाथ में दिए गए बुद्ध के उपदेश, कबीर का चिन्तन आदि को समेटे हुए नेहरूजी के सम्मुख प्रस्तुत है। वह इस महामानव से जुड़कर अति प्रसन्न है। पंजाब अपनी गौरवशाली परम्परा लिए हुए नेहरूजी का अभिनन्दन करता है। जलियाँवाला बाग के द्वारा पंजाब नेहरू में करुण रस का संचार कर उनमें नव-चेतना और राष्ट्र प्रेम जाग्रत करता है। वह विश्व की सबसे प्राचीन, परन्तु समृद्ध सभ्यता सिन्धु घाटी का घर है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा इसके मुख्य केन्द्र थे। पंजाब की मिट्टी में गुरुनानक की पावन करने वाली वाणी की अनुगूंज है। वह नेहरूजी के समक्ष श्रद्धानत होकर उनका स्वागत करता है।
कश्मीर जिसे धरती का स्वर्ग कहा जाता है, अपना विलक्षण और अपूर्व प्राकृतिक सौन्दर्य लेकर नेहरूजी को आकर्षित करता है। वह उनमें सौन्दर्य की अनुभूति करने एवं उसकी प्रशंसा करने का गुण भरना चाहता है।
कुरुक्षेत्र नेहरूजी को गीता ज्ञान देता हुआ, उन्हें अर्जुन के नाम से सम्बोधित करता है। वह उन्हें आदेश देता है कि जिस प्रकार अर्जुन ने अपने गाण्डीव से दुराचारी कौरवों का नाश किया था, उसी प्रकार तुम भी अत्याचारियों को समाप्त करो।
दिल्ली का अपना इतिहास बहुत करुणाजनक है। उसने बाबर और शेरशाह के अत्याचारों को निकट से देखा है। वह बार-बार उजड़ी और बसी भी वह खाली हाथ नहीं है। वह अकबर की साम्प्रदायिक सद्भावना से प्रभावित होकर उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता का पाठ पढ़ाना चाहती है। परन्तु फिर
वह उन्हें जहाँगीर की न्याय-नीति देना चाहती है। लालकिले के रूप में शाहजहाँ की कलात्मकता अर्पित करना चाहती है। वह अन्तिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के बलिदान को याद दिलाकर 'संगम के राजा' नेहरूजी को भाव-विभोर कर देती है।
इस प्रकार जवाहरलाल नेहरू के विराट व्यक्तित्व को राम, कृष्ण, मीरा, महात्मा गांधी, शिवाजी, राणा साँगा, जयमल, चन्दबरदाई, राणा कुम्भा, महाराणा प्रताप, महावीर, गौतम, विवेकानन्द, दीनबन्धु, सुभाषचन्द्र बोस, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त, अशोक, अकबर, जहाँगीर तथा बहादुरशाह जफर आदि अनेक व्यक्तियों ने प्रभावित किया। वस्तुत: जवाहरलाल नेहरू के चरित्र का निर्माण करने के लिए भारतवर्ष के प्रत्येक
प्रान्त और राज्य ने कुछ-न-कुछ दिया है। ज्योति जवाहर' के इस नायक के चरित्र-निर्माण में सम्पूर्ण भारत ने अपना योगदान दिया है। अन्त में कवि कह उठता है
"जब लगा देखने मानचित्र, भारत न मिला तुमको पाया।
जब तुमको देखा नयनों में, भारत का चित्र उभर आया।।”
प्रश्न 2. 'ज्योति जवाहर' खण्ड-काव्य के आधार पर कलिंग युद्ध का वर्णन कीजिए।
अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य के आधार पर प्रमुख घटना का वर्णन कीजिए।
उत्तर 'ज्योति जवाहर' खण्ड-काव्य में कवि श्री देवीप्रसाद शुक्ल 'राही' ने आधुनिक भारत के निर्माता जवाहरलाल नेहरू को भारतीय संस्कृति और इतिहास के प्रतीक रूप में चित्रित किया है। इसके लिए कवि ने भारतीय इतिहास की अनेक घटनाओं का वर्णन किया है। इस काव्य में वर्णित घटनाओं में कलिंग युद्ध और उसके परिणाम का मेरे हृदय पर विशेष प्रभाव पड़ा है, क्योंकि इसका अत्यन्त मार्मिक वर्णन यहाँ किया गया है। संक्षेप में इसका प्रसंग निम्नवत् है
कलिंग युद्ध की प्रमुख घटना
कलिंग युद्ध की घटना सम्राट अशोक के शासन काल में हुई। इस विध्वंसकारी युद्ध में रक्त की नदियाँ बह गई थी, जिसमें सैनिक मछलियों के समान तैरते दिखाई दे रहे थे। इस युद्ध में अस्त्र-शस्त्रों की भयंकर ध्वनि सुनाई पड़ती थी। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी।
नरमुण्ड कट-कट कर धरती पर गिर रहे थे। न जाने कितनी माताओं की गोद सूनी हो गई और अनगिनत नारियों की माँग का सिन्दूर मिट गया था और अनेक बहनें अपने भाइयों की मृत्यु पर रो रही थीं। इस प्रकार के भयानक दृश्य को देखकर सभी का हृदय करुण क्रन्दन करने लगा था।
सम्राट अशोक ने जब इतना भयंकर नरसंहार देखा तो उनका हृदय द्रवित हो उठा। उसने यह प्रण किया कि वह अब कभी भी हिंसा नहीं करेगा और न ही कोई युद्ध लड़ेगा। वह अपने मन में विचार करने लगा कि मेरे संकेत मात्र से न जाने कितने निरपराध व्यक्ति काल के गाल में समा गए हैं। अशोक का मन विचलित हो उठा। उसके हृदय में वैराग्य भाव जाग्रत हो गया। साम्राज्य विशाल होते हुए भी वह उसे छोटा और सारहीन प्रतीत होने लगा। कवि ने अशोक की मनोदशा का वर्णन करते हुए कहा है
"सोने चाँदी का आकर्षण अब उसे घिनौना लगता था। साम्राज्यवाद का शीशमहल कुटिया से बौना लगता था।"
कलिंग युद्ध के बाद अशोक पूर्णतया अहिंसक और वैरागी बन गया था। इस युद्ध ने उसके हृदय पर गहरा आघात किया था
"जाने कैसी थी कचोट, दिन रहते जिसने जगा दिया। हिंसा की जगह अहिंसा का, अंकुर अन्तर में उगा दिया।।”
कलिंग युद्ध से अशोक का हृदय इतना दुःखी हुआ कि उसने सदैव के लिए तलवार फेंककर कभी युद्ध न करने की प्रतिज्ञा ली। वह महात्मा गौतम बुद्ध का अनुयायी हो बौद्ध भिक्षु बन गया। कवि ने अशोक की इस स्थिति का चित्रण इस प्रकार किया है
"जो कभी न हारा औरों से, वह आज स्वयं से हार गया।
भिक्षुक अशोक, राजा अशोक, से पहले बाजी मार गया।।"
"ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य में अशोक के द्वारा कलिंग युद्ध करना, फिर वैराग्य पैदा हो जाना, इन सबका वर्णन खण्डकाव्य के नायक जवाहरलाल नेहरू के विचारों पर वैराग्य के प्रभाव को चित्रित करने के लिए किया गया है। सचमुच कलिंग युद्ध और उससे प्रभावित अशोक का यह प्रसंग बड़ा ही रोमांचकारी, भावपूर्ण तथा भारतीय इतिहास की अन्यान्य घटनाओं में प्रभावकारी, प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत खण्डकाव्य की कथा में कलिंग युद्ध के प्रसंग का बड़ा ही महत्त्व है। इसमें एक ओर तो अशोक को युद्ध में रत दिखाया है और दूसरी ओर युद्ध की भयंकरता तथा भीषण नरसंहार से उसके हृदय को परिवर्तित होते और हिंसा को छोड़कर अहिंसक बनते दिखाया गया है।
इस खण्डकाव्य में अशोक के द्वारा शान्ति और अहिंसा का सन्देश दूर-दूर तक फैलाने का वर्णन किया गया है। जवाहरलाल नेहरू भी शान्ति के अग्रदूत तथा हिंसा के विरोधी थे। कवि द्वारा अशोक से सम्बन्धित इस प्रसंग का वर्णन करके जवाहरलाल नेहरू के विचारों को अहिंसक बनाने का प्रयास किया गया है। प्रस्तुत काव्य का प्रमुख उद्देश्य इस प्रसंग के माध्यम से जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तित्व को उजागर करना है। अतः यह प्रसंग मेरी दृष्टि में अति महत्त्वपूर्ण है।
प्रश्न 3. 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य में व्यक्त राष्ट्रीय भावना पर प्रकाश डालिए।
अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य का कथानक देश की विभिन्नताओं के बीच अभिन्नता की एक शाश्वत कड़ी के रूप में उभरकर सामने आता है।" इस कथन की पुष्टि कीजिए।
अथवा सिद्ध कीजिए कि 'ज्योति जवाहर' राष्ट्रीय एकता की भावनाओं से ओत-प्रोत है।
अथवा 'ज्योति जवाहर' राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने वाला काव्य है। सोदाहरण सिद्ध कीजिए।
अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य के आधार पर जवाहरलाल नेहरू के भावनात्मक एकतामूलक विचारों की पुष्टि कीजिए।
अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
"अथवा "ज्योति जवाहर की रचना राष्ट्रीय एकता की भावना की पुष्टि हेतु की गई है।" इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
अथवा ज्योति जवाहर में राष्ट्रीय एकता को महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है।" इस कथन को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
"बूढ़ा सतपुड़ा लगा कहने, हूँ दूर मगर अलगाव नहीं। कम हुआ आज तक उत्तर से दक्षिण का कभी लगाव नहीं।"
'ज्योति जवाहर' से उद्धृत उक्त पंक्तियों के आधार पर खण्डकाव्य में वर्णित राष्ट्रीय एकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य के रचयिता कवि देवीप्रसाद शुक्ल 'राही’ ने नेहरूजी के चरित्र के विविध आयामों पर प्रकाश डालते हुए उन्हें इस खण्डकाव्य का नायक बनाया है। उनके चरित्र को भारतवर्ष की भावनात्मक एकता के रूप में प्रस्तुत करना ही इस खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य विषय है, साथ ही जवाहरलाल नेहरू की प्रशंसा करना तथा उनके विराट चरित्र की प्रेरणादायी बातों को अपनाने के लिए प्रेरित करना ही इस खण्डकाव्य का मुख्य उद्देश्य है।
वस्तुतः प्रस्तुत खण्डकाव्य में नेहरूजी के माध्यम से देश की भावनात्मक एकता के माध्यम से नेहरूजी के चरित्र का वर्णन किया गया है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि कवि ने नेहरू के व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए भारत के गौरवशाली अतीत की झाँकी प्रस्तुत की है तथा उसमें रची-बसी भावनात्मक एकता को स्पष्ट किया है। इस प्रकार कवि ने नेहरू के व्यक्तित्व में सम्पूर्ण भारत की छवि दर्शाते हुए, उनके व्यक्तित्व तथा भारतीय संस्कृति का सुन्दर समायोजन किया है। इन दोनों का समायोजन कर कवि अपने उद्देश्य की पूर्ति में भी सफल हुआ है।
इस खण्डकाव्य की भूमिका में कवि ने लिखा है, "जो लोग पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण का प्रश्न उठाकर जाति, भाषा, सम्प्रदाय और रीति-रिवाज की संकुचित मनोवृत्ति के आधार पर अलगाव और विघटन की बातें करते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि भारतवर्ष की सांस्कृतिक एकता सदियों से अपनी अखण्डता का उद्घोष करती हुई, समानताओं एवं विषमताओं की चट्टानों को तोड़ती हुई निरन्तर आगे बढ़ती जा रही है।" अपने इस कथन के अनुरूप कवि ने नेहरूजी के चरित्र को इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि भारतवर्ष की ये सारी विशेषताएँ उनके चरित्र में तिरोहित हो गई हैं। इस प्रकार 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य में नेहरू के व्यक्तित्व के माध्यम से भारतीय संस्कृति अपनी भावात्मक एकता के साथ मुखर हो उठी है।
चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 4. "ज्योति जवाहर" खण्डकाव्य के जिस पात्र ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया हो, उसका चरित्रांकन कीजिए।
अथवा 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य के आधार पर जवाहर लाल नेहरू की चरित्रिक विशेषताएँ लिखिए।
अथवा ज्योति जवाहर खण्डकाव्य के आधार पर उसके प्रमुख पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर कवि देवीप्रसाद शुक्ल 'राही' द्वारा रचित 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य के नायक आधुनिक भारत के निर्माता पण्डित जवाहरलाल नेहरू हैं। इस खण्डकाव्य में कवि ने सम्पूर्ण भारत की विशेषताओं को पण्डित नेहरू के व्यक्तित्व में ढालते हुए उन्हें युगावतार तथा लोकनायक के रूप में प्रस्तुत किया है। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—
1. विराट व्यक्तित्व पण्डित जवाहरलाल नेहरू का व्यक्तित्व भारतवर्ष के समान ही विराट था। उनके व्यक्तित्व के विविध रूप थे और वे अपने हर रूप में उत्कृष्ट थे। सूर्य का तेज़, चाँद की सुघड़ता, सागर की गहराई, धरती का धैर्य और पवन की गति उनके व्यक्तित्व में समाहित थी।
2. आधुनिक भारत के निर्माता एवं देशभक्त जवाहरलाल नेहरू परम देशभक्त थे। उन्होंने गांधीजी का अनुसरण करते हुए देश को स्वतन्त्रता दिलाने में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया। स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात् उन्होंने आधुनिक भारत की नींव रखी। उन्होंने भारत को धर्मनिरपेक्ष, पन्थनिरपेक्ष तथा गणतान्त्रिक देश घोषित करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने स्वतन्त्र भारत के विकास हेतु पंचवर्षीय योजनाओं को आरम्भ किया। उनके दिखाए हुए मार्ग पर चलकर ही आज भारत विकास कर रहा है।
3. भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि जवाहरलाल नेहरू भारतीय संस्कृति के सच्चे प्रतिनिधि एवं पोषक है। वह अपने देश के अतीत पर गौरव अनुभव करते हैं तथा इससे प्रेरणा लेते हैं। वह भारत के हर क्षेत्र के महान व्यक्तियों के गुणों को ग्रहण करके अपने व्यक्तित्व को उदात्त बनाते हैं। उन्होंने राम, कृष्ण, गौतम, महावीर, महात्मा गांधी, अशोक, अकबर, सुभाषचन्द्र बोस, टीपू सुल्तान, शंकराचार्य, कालिदास, रामानुजाचार्य, मीरा, राणा, प्रताप, चाँदबीवी, भवभूति, तुकाराम आदि से विविध शिक्षाएँ ग्रहण की। इन सभी का उनके चरित्र पर गहरा प्रभाव पड़ा। 4. लोकप्रिय राजनेता जवाहरलाल नेहरू भारत की जनता में अत्यन्त लोकप्रिय
थे। कवि ने उनको युगावतार तथा लोकनायक के रूप में वर्णित किया है।
कवि कहता है "मथुरा वृन्दावन अवधपुरी की, गली-गली में बात चली। फिर नया रूप धर कर उतरा, द्वापर त्रेता का महाबली ।।"
एक सच्चे लोकनायक की भाँति नेहरूजी सभी देशवासियों के सुख-दुःख का
ॐ अनुभव करते हैं, इसलिए देश के सभी प्रान्त एवं राज्य उन पर अपनी सहेज
कर रखी गई अमूल्य निधि लुटाने में गौरव अनुभव करते हैं। 5. अहिंसा के समर्थक जवाहरलाल नेहरू के चरित्र पर सम्राट अशोक और महात्मा गांधी का प्रभाव था। इनसे उन्होंने अहिंसा की सीख ली थी, परन्तु उन्होंने अहिंसा को नए सिरे से परिभाषित किया था। उनके अनुसार “अत्याचारी के चरणों पर, झुक जाना भारी हिंसा है। पापी का शीश कुचल देना, जी, हिंसा नहीं अहिंसा है।"
6. विश्व शान्ति के अग्रदूत एवं युद्ध विरोधी भारतीय संस्कृति में विश्वास रखने वाले नेहरूजी विश्व शान्ति के अग्रदूत थे। वह युद्धों का सदा विरोध करते थे, उन्होंने निशस्त्रीकरण, पंचशील, गुट-निरपेक्ष आदि को बढ़ावा देकर विश्व में शान्ति की स्थापना करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। अतः कहा जा सकता है कि जवाहरलाल नेहरू के चरित्र में उन सभी गुणों का समावेश था, जिनके कारण उन्हें 'लोकनायक', 'युगावतार' तथा 'संगम का राजा' कहा जाता है। वह भारतीय संस्कृति के सच्चे अनुयायी थे, इसलिए उनके चरित्र में सम्पूर्ण भारत की छवि स्वतः ही मिल जाती है।
प्रश्न 5. "ज्योति जवाहर" खण्डकाव्य के आधार पर अशोक का
चरित्र चित्रण कीजिए।
(2018)
उत्तर 'ज्योति जवाहर' खण्डकाव्य में श्रीदेवीप्रसाद शुक्ल 'राही' ने जवाहरलाल नेहरू के चरित्र के उजागर करने के साथ-साथ उनके चरित्र का सम्राट अशोक के चरित्र के साथ तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। उन्होंने भारतीय इतिहास की अनेक घटनाओं का वर्णन करते हुए कलिंग युद्ध का भी वर्णन किया है, जिसमें अशोक के चरित्र की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया गया है
1. साम्राज्यवादी सम्राट अशोक महान् शासक होने के साथ-साथ साम्राज्यवादी भी थे। उन्होंने राजा बनने से पहले ही बहुत से राज्यों को जीत लिया था।
2. अजेय कहा जाता है कि सम्राट अशोक अपने जीवन में एक भी युद्ध न हारे थे। अतः वे अजेय शासक थे। कवि ने भी अपनी एक पंक्ति में इस बारे में उल्लेख किया है
‘जो कभी न हारा औरों से, वह आज स्वयं से हार गया।"
3. पश्चातापी कहा जाता है कि सम्राट अशोक अपने जीवन में एक भी युद्ध न हारे थे। अत: वे अजेय शासक थे। कवि ने भी अपनी एक पंक्ति में इस बारे में उल्लेख किया है
“जो कभी न हारा औरों से, वह आज स्वयं से हार गया।"
4. बैरागी और अहिंसक कलिंग युद्ध के बाद अशोक पूर्ण रूप से अहिंसक और वैरागी बन चुके थे। इस युद्ध ने उनके हृदय पर गहरा आघात किया था। "जाने कैसी भी कचोट, दिन रहते जिसने जगा दिया।
हिंसा की जगह अहिंसा का, अंकुर अन्तर में उगा दिया।।"
5. महान् बौद्ध भिक्षु कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक ने सदैव के लिए तलवार फेंक दी और कभी न युद्ध करने का प्रण दिया। एक बौद्ध भिक्षुक से दीक्षा ग्रहण कर सम्राट अशोक बौद्ध भिक्षु बन गए और जीवन पर्यन्त बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रचार करते रहे।
"भिक्षुक अशोक, राजा अशोक से पहले बाजी मार गया।"
03'अग्रपूजा' खण्डकाव्य
कथासार / कथानक / कथावस्तु / विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 1. 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य का कथा का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य का कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य का कथासार अपने शब्दों में प्रस्तुत कीजिए।
अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य की कथा संक्षेप में लिखिए।
उत्तर 'अग्रपूजा' की कथावस्तु महाभारत तथा भागवतपुराण से ली गई है। इसके लेखक पण्डित रामबहोरी शुक्ल जी हैं। पाण्डवों के विरुद्ध दुर्योधन के द्वारा रचे गए अनेक षड्यन्त्रों में से एक लाक्षागृह का निर्माण भी किया गया था। पाण्डव इन षड्यन्त्रों से बचते हुए ब्राह्मण रूप में द्रौपदी के स्वयंवर सभा में उपस्थित हुए। जहाँ अर्जुन ने सत्य भेदन करके शर्तानुसार द्रौपदी को प्राप्त किया तथा वहाँ उपस्थित अन्य आक्रमणकारियों एवं राजाओं को परास्त किया। व्यास और कुन्ती के कहने पर द्रौपदी पाँचों पाण्डवों की पत्नी बनी। पाण्डवों की इस सफलता पर दुर्योधन ने उनके विनाश की बात सोची, किन्तु भीष्म, द्रोण और विदुर की सम्मति से पाण्डवों को धृतराष्ट्र ने आधा राज्य देने का निर्णय किया। दुर्योधन आदि के विरोध करने पर भी उन्होंने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया, युधिष्ठिर अपने भाइयों, माता और पत्नी के साथ 'खाण्डव' वन गए, जिसे विश्वकर्मा ने कृष्ण के आदेश से स्वर्गलोक के समान बना दिया तथा उसका नाम 'इन्द्रप्रस्थ' रखा गया। धर्मराज कुशलतापूर्वक राज्य कार्य करने लगे। नारद के कहने पर स्त्री विवाद न हो, इसलिए पाण्डव बारी-बारी से एक वर्ष तक द्रौपदी के साथ रहने लगे। इस नियम को भंग करने के फलस्वरूप 12 वर्ष का वनवास अर्जुन को मिला। वनवास की अवधि में भ्रमण करते हुए द्वारका में अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह किया तथा कृष्ण और सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ लौटे। अग्निदेव के भोजन हेतु 'खाण्डव' वन का दाह करने पर अग्निदेव ने अर्जुन को कपिध्वज रथ तथा वरुण ने गाण्डीव धनुष दिया। अग्निदेव ने श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र तथा कौमुदी गदा दिए। खाण्डव-वन दाह के समय 'मय' की रक्षा करने पर मय ने अर्जुन को देवदत्त नामक शंख और भीम को भारी गदा प्रदान किया तथा श्रीकृष्ण के कहने पर युधिष्ठिर के लिए सुन्दर-सा सभा भवन का निर्माण किया।
युधिष्ठिर की प्रसिद्धि एक अच्छे राजा के रूप में तीनों लोकों में फैल गई। तब पाण्डु ने नारद से उन्हें सन्देश दिया कि वे राजसूय यज्ञ करें, जिससे वे पितृलोक ने में रह सकें तथा बाद में स्वर्ग में प्रवेश पा सकें। श्रीकृष्ण ने राजसूय यज्ञ करने के पूर्व सम्राट पद पाने के लिए जरासन्ध वध करने की सलाह दी। ब्राह्मण के वेश में कृष्ण, अर्जुन और भीम जरासन्ध के पास पहुँचे तथा मल्लयुद्ध में चतुराई से दोनों टाँगों को चीरते हुए उसे मार डाला तथा जरासन्ध के द्वारा बन्दी किए गए हजारों राजाओं को मुक्त किया। युधिष्ठिर ने चारों भाइयों को चारों दिशाओं में सैन्य बल बढ़ाने के लिए भेजा। उनके प्रयास से सभी राजाओं ने उनकी अधीनता स्वीकार की तथा युधिष्ठिर के ध्वज के नीचे आ गए। इसके बाद राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ होने लगीं। इसके लिए चारों दिशाओं में राजाओं को निमन्त्रण भेजा गया। अर्जुन द्वारका गए और भीम द्रुपद को लाने तथा नकुल कौरवों को आमन्त्रित करने गए। निमन्त्रण पाकर सभी लोग आए तथा सबको उचित जगह पर ठहराया गया। इस यज्ञ में देवता एवं असुर भी आए थे। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से यज्ञ को सफलतापूर्वक सम्पन्न करवाने की प्रार्थना की। इसलिए श्रीकृष्ण सम्पूर्ण सेना के साथ इन्द्रप्रस्थ आए। सभी नर-नारियों ने श्रीकृष्ण के दर्शन किए और अपने को धन्य माना। युधिष्ठिर, कृष्ण के रथ के सारथी बने तथा इन्द्रप्रस्थ में कृष्ण और उनके साथ आए हुए सभी लोगों का यथोचित स्वागत हुआ, जिससे कृष्ण से द्वेष रखने वाले रुक्मी और शिशुपाल बेचैन हो गए।
राजसूय यज्ञ में कार्य को अच्छी तरह से सम्पादित करने के लिए युधिष्ठिर ने अपने सभी सम्बन्धियों की उम्र एवं योग्यता को ध्यान में रखकर काम बाँट दिए थे। श्रीकृष्ण ने भोजन परोसने एवं लोगों के पैर धोने के काम को स्वेच्छा से चुना। सभी ने अपना काम निष्ठापूर्वक किया। सभा वर्णों के प्रतिष्ठित व्यक्ति सभा में पधारे। जब श्रीकृष्ण, बलराम और सात्यकि सभी में पधारे तो शिशुपाल को छोड़कर सभी उनके स्वागत में खड़े हो गए। भीष्म के द्वारा उठाए गए अग्रपूजा के प्रश्न पर सबने कृष्ण के नाम पर सहमति दी। चेदिराज शिशुपाल ने इस पर आपत्ति की तथा उनकी निन्दा की और अपमान भी किया। भीष्म आदि ने शिशुपाल को रोका। सहदेव ने शिशुपाल को धमकाया तथा श्रीकृष्ण को अर्घ्य दिया। श्रीकृष्ण को मारने के लिए दौड़ते हुए शिशुपाल को चारों ओर कृष्ण ही दिखाई देने लगते हैं।
शिशुपाल को कृष्ण ने समझाया कि उन्होंने श्रुतश्रवा फूफी को उसके सौ अपराध को क्षमा करने का वचन दिया है। इसलिए वे मौन हैं, मौन को दुर्बलता न मानकर वह अनुचित व्यवहार न करे, किन्तु शिशुपाल ने माना। सौ वचन पूरा होते ही कृष्ण ने शिशुपाल को बचने की चेतावनी देते हुए उस पर सुदर्शन चक्र चला दिया, जिससे उसका सिर, धड़ से अलग हो गया। विधिपूर्वक चलते हुए राजसूय यज्ञ को व्यास धौम्य आदि सोलह ऋषियों ने विधि-विधानपूर्वक सम्पन्न किया। धर्मराज ने विद्वानों, ब्राह्मणों, राजाओं तथा अन्य अतिथियों का उचित सत्कार किया तथा सम्मानपूर्वक उन्हें विदा किया तथा श्रीकृष्ण और बलराम के प्रति हृदय से आभार प्रकट किया, क्योंकि उनके बिना यज्ञ सुचारु रूप से सम्पन्न नहीं हो पाता।
प्रश्न 2. 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर राजसूय यज्ञ का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के पूर्वाभास सर्ग का कथानक लिखिए।
अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर जरासन्ध वध का वर्णन कीजिए।
अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का कथानक लिखिए।
अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आयोजन सर्ग का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य साहित्य महौपाध्याय पण्डित रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित है। छः सर्गों में विभाजित इस खण्डकाव्य की कथावस्तु महाभारत तथा श्रीमद्भागवत पुराण से ली गई है। कवि ने खण्डकाव्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण अंश में श्रीकृष्ण की स्तुति करने के बाद खण्डकाव्य की मुख्य सामग्री प्रस्तुत की है, जिसका कथासार निम्नलिखित है
प्रथम सर्ग (पूर्वाभास)
इस सर्ग का आरम्भ महाभारत के लाक्षागृह प्रसंग से होता है। दुर्योधन ने पाण्डवों को मारने के लिए अनेक षड्यन्त्र रचे थे, जिनमें एक लाक्षागृह भी था, परन्तु कुन्ती सहित सभी पाण्डव लाक्षागृह से सुरक्षित बच निकले। दुर्योधन इस सत्य से अनजान था। उधर, पाण्डव छद्मवेश में विचरण करते हुए ब्राह्मण रूप में द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित हुए। वहाँ अर्जुन ने शर्तानुसार मत्स्य भेदन कर स्वयंवर जीत लिया। इस पर वहाँ उपस्थित अन्य राजाओं ने अर्जुन पर आक्रमण किया, किन्तु भीम और अर्जुन ने उन्हें परास्त कर दिया।
महर्षि व्यास और कुन्ती के कहने पर द्रुपद ने पाँचों पाण्डवों से द्रौपदी का विवाह ने कर दिया और प्रचुर मात्रा में दहेज दिया। इस सारे घटनाक्रम को जानकर दुर्योधन मन-ही-मन जल उठा। हस्तिनापुर आकर उसने शकुनि, कर्ण और भूरिश्रवा से मन्त्रणा की और पाण्डवों का विनाश करने की बात सोची। भूरिश्रवा ने उसे पाण्डवों से मैत्री करने का तथा कर्ण ने उन्हें युद्ध में परास्त करने का सुझाव दिया।
धृतराष्ट्र ने भी दुर्योधन को पाण्डवों से दुर्व्यवहार न करने की सलाह दी। दुर्योधन की ओर से चिन्तित होकर धृतराष्ट्र ने भीष्म, द्रोण और विदुर की सम्मति से पाण्डवों को आधा राज्य देना स्वीकार किया और अगले ही दिन विदुर को भेजकर पाण्डवों को हस्तिनापुर बुलवा लिया। दुर्योधन और कर्ण ने इसका विरोध भी किया, परन्तु धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक कर दिया। युधिष्ठिर ने गुरुजनों से विदा लेकर कुन्ती, पत्नी द्रौपदी एवं सभी भाइयों समेत खाण्डव वन की ओर प्रस्थान किया।
द्वितीय सर्ग ( समारम्भ)
उन दिनों खाण्डव वन एक भयानक जंगल था। पाण्डवों के परम हितैषी होने के कारण कृष्ण ने विश्वकर्मा को स्वर्ग लोक के समान सुन्दर नगर का निर्माण करने का आदेश दिया। विश्वकर्मा ने ऐसा ही किया। सुन्दर नगर का निर्माण हुआ और सभी वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण ने कुन्ती की आज्ञा ले पाण्डवों से विदा ली और द्वारका लौट गए। जाते-जाते उन्होंने युधिष्ठिर को प्रजा- हित में शासन करने की सलाह दी। धर्मराज, श्रीकृष्ण के आदेशानुसार कर्तव्य परायणता, समरसता, दृढ़ता, उदारता और धर्म के अनुसार राज करने लगे। उनके राज में सभी सुखी थे और सभी अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन करते थे। राम राज्य सदृश उनके राज्य की कीर्ति धरती से लेकर देवलोक और पितृलोक तक फैल गई।
तृतीय सर्ग (आयोजन)
पाण्डवों ने विचार किया कि धन, धरती और नारी के कारण संसार में सदा से संघर्ष होता आया है। कौरव धन और धरती के पीछे पहले से ही पड़े हुए है, कहीं द्रौपदी आपस के झगड़े का कारण न बन जाए, इसलिए उन्होंने नारद के कहने पर यह नियम बनाया कि द्रौपदी बारी-बारी से एक-एक वर्ष तक प्रत्येक पाण्डु-पुत्र के साथ रहे और यदि इस दौरान दूसरा पति उन्हें साथ देख ले तो दण्ड स्वरूप उसे बारह वर्ष के लिए वन में रहना पड़ेगा। एक बार एक ब्राह्मण की गायों की रक्षा के लिए अर्जुन को यह नियम भंग करना पड़ा।
इसके कारण उन्हें बारह वर्षों के लिए वन में निवास करने के लिए जाना पड़ा। कई वर्षों तक अनेक स्थलों का भ्रमण करते हुए अर्जुन अन्त में द्वारका पहुँचे। वहाँ कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ। तत्पश्चात् सुभद्रा को साथ लेकर अर्जुन कृष्णसहित इन्द्रप्रस्थ लौट आए। वहाँ उन्होंने अग्निदेव के भोजन हेतु खाण्डव वन का दाह किया। अग्निदेव ने प्रसन्न होकर अर्जुन को अबाध गति से चलने वाला कपिध्वज रथ तथा वरुण ने दो अक्षय तूणीर एवं गाण्डीव धनुष उपहार में दिए ।
श्रीकृष्ण को अग्निदेव से सुदर्शन चक्र तथा कौमुदी गदा प्राप्त हुए। उसी समय आग की लपटों से घिरे हुए मय दानव ने सहायता के लिए पुकारा। अर्जुन ने उसे अभय दान देकर बचा लिया। मय दानव ने कृतज्ञता से भरकर सेवा का प्रस्ताव रखा। तब श्रीकृष्ण के कहने पर उसने धर्मराज के लिए एक दिव्य आलौकिक सभा भवन का निर्माण किया। मय दानव ने अर्जुन को देवदत्त नामक शंख और भीम को एक भारी गदा भी भेंट की। फिर श्रीकृष्ण सभी से आज्ञा लेकर द्वारका लौट गए।
मय दानव ने सुन्दर भवन का निर्माण किया। इससे इन्द्रप्रस्थ की सुन्दरता में चार चाँद लग गए। धर्मराज ने धर्म के अनुसार आचरण करते हुए राज्य में सुख और शान्ति की स्थापना की। धर्मराज के सुशासन की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। स्वर्गलोक में पितृगण भी उनसे प्रसन्न हुए। तब पाण्डु ने नारद मुनि के द्वारा युधिष्ठिर को यह सन्देश भिजवाया कि वह राजसूय यज्ञ करे, जिससे कि मैं (पाण्डु) इन्द्रलोक में निवास करूँ, फिर अपनी आयु पूरी करने के बाद स्वर्ग में प्रवेश पा सकूँ।
युधिष्ठिर ने इस पर विचार करते हुए श्रीकृष्ण से विचार-विमर्श किया। श्रीकृष्ण ने कहा कि आपका राजसूय यज्ञ तभी सफल हो सकता है, जब आप जरासन्ध पर विजय प्राप्त कर लें, क्योंकि सम्राट बने बिना राजसूय यज्ञ नहीं किया जा सकता। अतः इसके लिए उसका (जरासन्ध) वध करना आवश्यक है। युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर श्रीकृष्ण अर्जुन और भीम को साथ लेकर ब्राह्मण वेश में जरासन्ध के पास पहुँचे और उसे मल्लयुद्ध के लिए ललकारा। जरासन्ध इसके लिए तैयार हो गया। उसने श्रीकृष्ण और अर्जुन को छोड़कर भीम के साथ मल्लयुद्ध करना स्वीकार किया। दोनों के मध्य तेरह दिन तक भयंकर मल्लयुद्ध चला। तेरहवें दिन जरासन्ध को थका हुआ देखकर और कृष्ण का संकेत पाकर भीम ने जरासन्ध का एक पैर दबाकर दूसरा पैर उठाया और उसे बीच में से चीरते हुए उसका वध कर दिया। इसके बाद उन्होंने जरासन्ध के पुत्र सहदेव का राज्याभिषेक किया और जरासन्ध द्वारा बन्दी बनाए गए हज़ारों राजाओं को मुक्त किया। इसके बाद श्रीकृष्ण उन सभी को साथ लेकर इन्द्रप्रस्थ पहुँचे और युधिष्ठिर को आश्वस्त किया कि अब आप विधि-विधानपूर्वक यज्ञ कर सकते हैं।
तत्पश्चात् धर्मराज ने अपने चारों भाइयों भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को सैन्य प्रसार के लिए क्रमश: पूर्व, उत्तर पश्चिम और दक्षिण दिशा में भेजा। चारों भाइयों ने सारे राजाओं को अपने अधीन करते हुए सारे भारतवर्ष को युधिष्ठिर के ध्वज के नीचे ला दिया। यह काम सम्पन्न होने के बाद राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ प्रारम्भ होने लगीं। चारों दिशाओं में सभी राजाओं को निमन्त्रण भेजा गया। द्वारका में स्वयं अर्जुन गए। भीम द्रुपद को लेने गए तथा नकुल कौरवों को आमन्त्रित करने पहुंचे। निमन्त्रण पाकर सभी राजा, शूद्र, व्यापारी आदि अपने दल-बल सहित इन्द्रप्रस्थ पधारने लगे। सभी को उचित जगह पर ठहराया गया। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भाग लेने के लिए देवता एवं असुर भी आए हुए थे।
चतुर्थ सर्ग (प्रस्थान)
अर्जुन के द्वारा राजसूय यज्ञ में भाग लेने का निमन्त्रण पाकर यदुकुल अत्यन्त प्रसन्न हुआ। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से एकान्त में प्रार्थना की कि पाण्डव कुल की लाज आपके हाथ में है। आप ही इस यज्ञ को सफलतापूर्वक पूरा करवा सकते हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन की चिन्ता को समझा और विचार किया कि उनका पूर्ण सुसज्जित सेना के साथ इन्द्रप्रस्थ जाना उचित रहेगा, क्योंकि कुछ असन्तुष्ट राजा मिलकर उपद्रव कर सकते हैं। द्वारकापुरी में इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारियाँ पूरे मनोयोग से होने लगीं। उचित समय पर श्रीकृष्ण, इन्द्रप्रस्थ पहुँच गए। श्रीकृष्ण जहाँ से भी गुजर रहे थे वहाँ नर-नारियों की भीड़ उनके दर्शन हेतु एकत्रित हो जाती। उनकी शोभा देखकर सभी धन्य हो जाते हैं, जब श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थ पहुँचे तो युधिष्ठिर ने स्वयं आगे बढ़कर उनका स्वागत किया और उनके रथ के सारथी बने। इन्द्रप्रस्थ में श्रीकृष्ण और उनके साथ आए सभी व्यक्तियों का यथोचित सत्कार हुआ। पाण्डवों की श्रीकृष्ण के प्रति अगाध श्रद्धा देखकर रुक्मी और शिशुपाल बेचैन हो गए। वे दोनों श्रीकृष्ण से द्वेष रखते थे।
पंचम सर्ग / राजसूय यज्ञ (अग्रपूजा)
धर्मराज युधिष्ठिर ने पहले ही अपने सम्बन्धियों में काम बाँट दिए थे। भीम, दुःशासन, दुर्योधन, विदुर, अर्जुन, संजय, अश्वत्थामा, नकुल, सहदेव, कर्ण, भीष्म, द्रोण आदि को उनकी उम्र एवं योग्यता को ध्यान में रखकर काम दिए गए थे। श्रीकृष्ण ने भोजन परोसने एवं ब्राह्मणों के पैर धोने का कार्य स्वेच्छा से चुना। सभी ने अपना-अपना काम पूरी निष्ठा से किया। फिर सभी वर्गों के प्रतिष्ठित व्यक्ति सभा में पधारे।
जब श्रीकृष्ण बलराम और सात्यकि सहित सभा में आए तो सभी उनके सत्कार में स्वतः ही खड़े हो गए, केवल शिशुपाल ही बैठा रहा। जब भीष्म ने अग्र-पूजा का प्रश्न उठाया तो सबने सहर्ष श्रीकृष्ण के नाम पर सहमति दी। इस पर चेदिराज शिशुपाल ने आपत्ति प्रकट की। शिशुपाल ने श्रीकृष्ण की निन्दा की और भरी सभा में उनका अपमान किया। सहदेव, भीष्म और भीम ने शिशुपाल को रोकने का प्रयास किया। भीष्म ने शास्त्रों का हवाला देकर श्रीकृष्ण को ही अग्रपूजा के लिए उपयुक्त व्यक्ति बताया। इस पर शिशुपाल फिर बड़बड़ाया, किन्तु सहदेव ने उसे धमकाते हुए कहा कि
'अति हो गई, सहा अब तक अकथनीय तेरा बकवाद, किया एक भी अब अपवाद।
लूँगा खींच जीभ यदि आगे,पूजनीय श्रीकृष्ण प्रथम हैं देखें करता कौन अमान्य।"
और श्रीकृष्ण को अर्घ्य दिया। इस पर शिशुपाल उनको मारने दौड़ा, परन्तु श्रीकृष्ण शान्त भाव से बैठे रहे। शिशुपाल को चारों ओर श्रीकृष्ण ही दिखाई दे रहे थे। वह चारों ओर घूम-घूमकर उन्हें मारने का प्रयास करने लगा। सभी पागलों के समान उसकी क्रिया देखकर कुछ न पाए। श्रीकृष्ण ने उसे समझाते हुए कहा कि तू मेरा छोटा भाई है और मैंने श्रुतश्रवा फूफी को तेरे सौ अपराध क्षमा करने का वचन भी दिया है। यह सोचकर ही मैं अब तक मौन हूँ, परन्तु मेरे मौन को मेरी दुर्बलता समझना तेरी भूल है। अतः तुम यह अनुचित व्यवहार मत करो, लेकिन शिशुपाल ने फिर उनकी निन्दा की। उसके सौ अपराध पूरे हो चुके थे। श्रीकृष्ण ने उसे बचने की चेतावनी देते हुए अपना सुदर्शन चक्र छोड़ दिया और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। धर्मराज ने आदरपूर्वक उसका अन्तिम संस्कार करवाकर शिशुपाल के पुत्र को चेदिराज बनाया।
षष्ठ सर्ग (उपसंहार)
जो भाग्य में लिखा होता है, वह होकर रहता है। चेदिराज की मृत्यु के बाद राजसूय यज्ञ विधिपूर्वक चलता रहा। व्यास, धौम्य आदि सोलह ऋषियों ने इस यज्ञ को विधि-विधानपूर्वक सम्पन्न किया। धर्मराज ने विद्वानों, ब्राह्मणों, राजाओं तथा अन्य अतिथियों का उचित सत्कार किया और सम्मानपूर्वक उन्हें विदा किया। ब्राह्मणों ने उन्हें सुख-समृद्धि का आशीर्वाद दिया। अन्त में युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण और बलराम के प्रति हृदय से आभार प्रकट किया, क्योंकि उनके बिना इस यज्ञ का सुचारु रूप से सम्पन्न होना असम्भव था।
चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 3. 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के नायक की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के नायक का चरित्र चित्रण कीजिए।
अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए।
अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के प्रधान पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए।
अथना 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर उसके किसी एक पात्र की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के नायक का चरित्रांकन कीजिए।
अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर श्रीकृष्ण की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा खण्डकाव्य के नायक का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर पण्डित रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र नायक श्रीकृष्ण है। यद्यपि महाभारत से सम्बन्धित होने के कारण इस खण्डकाव्य में पाण्डवों और कौरवों की उपस्थिति अवश्य है, परन्तु सम्पूर्ण काव्य का केन्द्रबिन्दु श्रीकृष्ण हैं। उनके चरित्र को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली विशेषताएँ निम्नलिखित है-
1. अद्वितीय सौन्दर्यशाली एवं आकर्षक श्रीकृष्ण का सौन्दर्य अद्भुत था। उनके सौन्दर्य का आकर्षण ऐसा था कि नगर के सब नर-नारी उनकी एक झलक पाने के लिए उमड़ पड़ते थे। उनके चन्द्र समान सलोने मुखमण्डल की आभा एवं सुन्दरता सभी को परम आनन्दित करती थी। जैसे ही कृष्ण लोगों की नज़रों से ओझल हो जाते थे, वैसे ही सभी उदास हो जाते। उनके रूप सौन्दर्य के बारे में एक साधारण स्त्री ने कहा है
"देखा सुना न पढ़ा कहीं भी, ऐसा अनुपम रूप अनिन्द
ऐसी मृदु मुसकान न देखी, सचमुच गोविन्द सम गोविन्द।।”
2. वीर एवं शक्तिसम्पन्न श्रीकृष्ण परमवीर है और असाधारण रूप से शक्तिवान हैं। उन्होंने बचपन में ही पूतना, बकासुर, वृषभासुर, व्योमासुर, मुष्टिक, चाणूर, कंस आदि का संहार कर लोगों को इनके अत्याचारों से मुक्ति दिलाई थी। उन्होंने कालिया नाग को भी दण्ड दिया था। जरासन्ध के वघ की योजना भी श्रीकृष्ण की ही थी। अन्त में वे दुष्ट शिशुपाल का वध भी करते हैं। शिशुपाल का वध करने से पूर्व कृष्ण उसे बचने की चेतावनी भी देते हैं, परन्तु उनका प्रहार इतना तीव्र गति से हुआ कि शिशुपाल स्वयं को बचा नहीं पाया।
3. पाण्डवों के शुभचिन्तक श्रीकृष्ण पाण्डवों के सबसे बड़े हितैषी एवं शुभचिन्तक थे। पाण्डवों के सभी शुभ कार्यों में वह उनका पूरा साथ देते हैं तथा उनके मार्ग में आने वाली बाधाओं का निवारण भी वही करते हैं। इन्द्रप्रस्थ को बसाने में श्रीकृष्ण ने ही पाण्डवों की मदद की थी। जरासन्ध-वध करवाने के कारण राजसूय यज्ञ की सफलता का श्रेय भी उन्हें जाता है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कोई बाधा न आए, इसलिए वह सुसज्जित सेना सहित इन्द्रप्रस्थ पहुंचते हैं। अतः वह पाण्डवों के सबसे बड़े सहयोगी एवं शुभचिन्तक थे।
4. विनम्र एवं शिष्टाचारी श्रीकृष्ण जितने महान् एवं शक्तिशाली हैं, उतने ही विनम्र हैं। उनमें अभिमान लेश-मात्र भी नहीं है। वह जब भी अपने बड़ों से मिलते हैं, तो उनके चरण स्पर्श करते हैं तथा छोटों को प्रेम से गले लगाते हैं। वह स्वभाव से अत्यन्त विनम्र हैं। उनकी विनम्रता तब स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है, जब वह राजसूय यज्ञ के प्रथम दिन स्वेच्छा से ब्राह्मणों के चरण धोने जैसा तुच्छ कार्य स्वयं के लिए चुनते हैं। अग्रपूजा का पात्र होते हुए भी वह दूसरों के मान-सम्मान एवं सत्कार का पूरा ध्यान रखते हैं।
5. सहनशील एवं धैर्यवान सहनशीलता और धैर्य श्रीकृष्ण के चरित्र के अभिन्न गुण हैं। वह विपरीत परिस्थितियों में भी अपना नियन्त्रण नहीं खोते। अपनी बुआ को दिए गए वचन के कारण वह शिशुपाल की अशिष्टता को सहन करते हैं। जब शिशुपाल शिष्टाचार की सभी सीमाएँ तोड़ देता है और उसका अपराध अक्षम्य हो जाता है, तभी वह उसे दण्ड देते हैं।
6. सर्वगुण सम्पन्न दिव्य योगी पुरुष श्रीकृष्ण सभी लौकिक एवं अलौकिक गुणों से सम्पन्न हैं। सज्जनों के लिए वह पुष्प के समान कोमल हैं, तो दुष्टों के संहारक हैं। उनका हृदय दया, करुणा, ममता, प्रेम आदि का अगाध सागर है। वह धर्म और मर्यादा का पालन करने वाले हैं।
"शील सुजनता विनय प्रेम के, केशव हैं प्रत्यक्ष शरीर, मिटा अनीति धर्म-मर्यादा, स्थापन करते हैं यदुवीर।”
आध्यात्मिक ज्ञान के सन्दर्भ में वह भगवान विष्णु के सदृश ही ज्ञानी है अर्थात् वह जीवन के हर क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ हैं। उनकी समता करने का साहस किसी में नहीं है और न ही उनको जानना-समझना सरल है। ऊपर से वह सांसारिक कार्यों में व्यस्त दिखाई देते हैं, परन्तु उनके जैसा अनासक्त कर्मयोगी अन्य और कोई नहीं है।
इस प्रकार, श्रीकृष्ण के चरित्र में सभी मानवीय एवं दिव्य गुणों का समावेश है। उनके गुणों और विशेषताओं का वर्णन जितना भी करो, कम ही है। अतः इस खण्डकाव्य में वह मानव नहीं, अपितु महामानव के रूप में हमारे सामने आए हैं।
प्रश्न 4. 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर युधिष्ठिर की चारित्रिक विशेषताएँ बताइए।
अथवा 'अग्रपूजा' के आधार पर युधिष्ठिर के चरित्र की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर पण्डित रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित खण्डकाव्य 'अग्रपूजा' में युधिष्ठिर श्रीकृष्ण के बाद दूसरे प्रमुख पात्र हैं। वह पाण्डवों में ज्येष्ठ है। उनके चरित्र की उल्लेखनीय विशेषताएं निम्नलिखित है
1. धर्मपालक एवं न्यायप्रिय राजा युधिष्ठिर धर्म और न्याय की साकार मूर्ति हैं। वह सदा धर्म युक्त कार्य करते हैं तथा न्यायपूर्वक शासन करते हैं। इसी कारण वह न केवल अपनी प्रजा में लोकप्रिय हैं, अपितु उनकी कीर्ति देवलोक और पितृलोक में भी फैल गई है। उनकी प्रशंसा में नारद कहते हैं
"बोल उठे गद्गद् वाणी से, 'धर्मराज, जीवन तव धन्य,
धरणी में सत्कर्म-निरत जन, नहीं दीखता तुम सा अन्य।"
2. अत्यन्त विनम्र और आज्ञाकारी युधिष्ठिर स्वभाव से अत्यन्त विनम्र हैं। वह बड़ों की आज्ञा का पालन करते हैं। वह खाण्डव-वन के रूप में मिले हुए उजड़े राज्य को पाने पर भी तनिक भी क्रोध नहीं करते हैं। इसी प्रकार जब वह श्रीकृष्ण को पहली बार इन्द्रप्रस्थ से विदा करते हैं, तो स्वयं उनके रथ के सारथी बनते हैं। जब श्रीकृष्ण राजसूय यज्ञ में भाग लेने के लिए इन्द्रप्रस्थ पधारते हैं, तो भी वह आगे बढ़कर उनका स्वागत करते हैं और फिर उनके रथ के सारथी बनते हैं। वह श्रीकृष्ण से बड़े हैं, परन्तु फिर भी उन्हें इस प्रकार उनका सम्मान करना बुरा नहीं लगता है। वस्तुतः युधिष्ठिर विनम्र और आज्ञाकारी होने के साथ-साथ भी हैं।
3. उदारवादी युधिष्ठिर जैसा उदारवादी चरित्र महाभारत में अन्य कोई नहीं है। वह उसी रूप में इस खण्डकाव्य में प्रस्तुत किए गए हैं। उनके मन में घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, प्रतिशोध आदि जैसे दुर्विचारों के लिए कोई स्थान नहीं है। बार-बार उनका एवं उनके भाइयों का अहित करने वाले कौरवों को वह अपना शत्रु नहीं मानते। जरासन्ध एवं शिशुपाल के वध के पश्चात् वह उनके पुत्रों को ही राजा बनाते हैं। पूरे भारतवर्ष को वह एकता के सूत्र में बाँधना चाहते हैं, परन्तु किसी के राज्य पर अन्यायपूर्वक अधिकार करना उनके चरित्र की विशेषता नहीं है। वस्तुतः धर्मराज युधिष्ठिर परम विनीत एवं सहिष्णु हैं। उनमें वह सारे गुण हैं, जो एक राजा में होने चाहिए। उनका चरित्र आज भी प्रेरणादायी है।
प्रश्न 5. 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर शिशुपाल का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा 'अग्रपूजा' खण्डकाव्य के आधार पर शिशुपाल के चारित्रिक गुणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर चेदिराज शिशुपाल श्रीकृष्ण की बुआ श्रुतश्रवा का पुत्र था। वह इस खण्डकाव्य का प्रमुख प्रतिनायक है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं
1. अशिष्टाचारी शिशुपाल चेदि राज्य का राजा है, परन्तु राजा होने के बावजूद भी उसे सामान्य शिष्टाचार का ज्ञान नहीं है। वह छोटों और बड़ों सभी से अपमान करने वाली भाषा में बात करता है। वह न केवल अपने बड़े भाई कृष्ण का भरी सभा में अपमान करता है, वरन् भीष्म जैसे आदरणीय पुरुष को भी ‘लगता सठिया गए भीष्म हैं', कहकर उनका उपहास उड़ाता है। वह सहदेव से भी कहता है
“कैसी बात लड़कपन की यह कही यहाँ तुमने सहदेव? छोटे मुँह से बड़ी बात है, कहना उचित नहीं नरदेव।"
2. श्रीकृष्ण का निन्दक एवं शत्रु यद्यपि शिशुपाल और श्रीकृष्ण के मध्य भाई-भाई का सम्बन्ध था, परन्तु फिर भी शिशुपाल, श्रीकृष्ण का सबसे बड़ा निन्दक एवं शत्रु था। शिशुपाल रुक्मिणी से विवाह करना चाहता था, लेकिन रुक्मिणी पहले ही श्रीकृष्ण को अपना पति मान चुकी थी। अतः श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी से विधि-विधानपूर्वक विवाह किया। इसी प्रसंग के कारण शिशुपाल कृष्ण का शत्रु बन गया था। वह भरी सभा में श्रीकृष्ण को अहीर, गोपाल, कृतघ्न, मामा का हत्यारा, रणछोड़, मायावी, कपटी आदि कहकर उनकी निन्दा एवं अपमान करता है।
3. अभिमानी एवं क्रोधी शिशुपाल स्वभाव से क्रोधी एवं अभिमानी भी है। वह स्वयं पर अभिमान करता है तथा दूसरों को अकारण ही अपमानित करता है। भरी सभा में जब वह श्रीकृष्ण को दुर्वचन कहता है तो सहदेव, भीम, भीष्म और स्वयं श्रीकृष्ण भी उसे समझाने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु वह समझने के स्थान पर और भी क्रोधित हो जाता है और फिर श्रीकृष्ण को भला-बुरा कहने लगता है। यही उसकी मृत्यु का कारण बनता है।
4. ईर्ष्या एवं द्वेष-भाव रखने वाला वह श्रीकृष्ण को अपना शत्रु मानता है, इसलिए उनसे ईर्ष्या करता है। इन्द्रप्रस्थ में श्रीकृष्ण के आदर-सत्कार को देखकर वह जल-भुनकर राख हो जाता है। श्रीकृष्ण का मान-सम्मान होते देखकर वह मन-ही-मन उनसे द्वेष करने लगता है। वस्तुत: इस खण्डकाव्य में शिशुपाल के चरित्र के दोषों को ही उजागर किया गया है। उसमें कोई भी ऐसा गुण नहीं है, जिसकी प्रशंसा की जाए। खलनायक की भूमिका में वह उपयुक्त है, परन्तु खलनायकों की भाँति उसकी परिणिति भी दुःखद होती है।
04 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य
कथासार/कथानक / कथावस्तु / विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 1. 'मेवाड़ मुकुट' के अरावली सर्ग की कथा प्रस्तुत कीजिए।
अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के आधार पर किसी प्रमुख घटना का उल्लेख कीजिए, जिसने आपको प्रभावित किया हो।
अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग की कथावस्तु लिखिए।
अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के प्रथम एवं द्वितीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य की कथा संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के भामाशाह सर्ग की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के दौलत सर्ग की कथावस्तु लिखिए।
अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक संक्षेप में लिखिए
अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा "मेवाड़ मुकुट" खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक लिखिए।
उत्तर 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य की रचना श्री गंगारन पाण्डेय द्वारा की गई है। सात सर्गों में विभाजित इस खण्डकाव्य की मूल कथा के केन्द्रीय पात्र इतिहास प्रसिद्ध महापुरुष महाराणा प्रताप हैं। इस खण्डकाव्य का सारांश निम्न है
प्रथम सर्ग (अरावली)
इस खण्डकाव्य का आरम्भ 'अरावली' सर्ग से होता है, जिसमें अरावली पर्वत श्रृंखला के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। यहाँ आरम्भ में ही स्पष्ट हो चुका है कि मुगल सम्राट अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य हल्दीघाटी का युद्ध हो चुका है। महाराणा प्रताप इस युद्ध में पराजित हो गए थे और इस समय उन्होंने अरावली में शरण ली हुई है।
अरावली पर्वत श्रृंखला भारतवर्ष के पश्चिमी भाग में फैली हुई है। शत्रुओं के आक्रमण को झेलकर भी अरावली मेवाड़ की रक्षा का भार सँभालते हुए गर्व से खड़ा हुआ है। इस अरावली पर्वत की भूमि कभी ऋषि-मुनियों और साधु-सन्तों की वेद-वाणी और वैदिक मन्त्रों से गुंजित रहती थी, किन्तु आज यह वीरों की शरण-स्थली है। युद्ध में पराजित राणा अपनी पत्नी लक्ष्मी, पुत्र अमर और धर्मपुत्री (अकबर की पुत्री) दौलत के साथ यहीं रहते हैं। वह विचार कर रहे हैं कि चित्तौड़ का दुर्ग हाथ से निकल गया तो क्या हुआ, अभी मेवाड़ का अधिकांश भाग उनका ही है। उनका प्रण है कि जब तक मातृभूमि मेवाड़ को पूरी तरह स्वतन्त्र नहीं करा लेंगे, तब तक चैन से नहीं बैठेंगे।
भगवान एकलिंग के प्रति गहरी आस्था होने के कारण उनमें देश, जाति और कुल की मर्यादा की रक्षा करने की इच्छाशक्ति और स्वाभिमान बना हुआ है। स्वतन्त्रता के इस असाधारण प्रेमी का मन इतना विशाल है कि वह शरण में आए हुए शत्रु को भी शरण देता है। राणा ने अकबर की पुत्री दौलत को अपनी धर्मपुत्री मानते हुए उसे शरण दी है। राणा प्रताप तुल्य पिता और लक्ष्मी जैसी माँ पाकर दौलत को यहाँ स्नेहपूर्ण वातावरण में अपने सगे-सम्बन्धियों की याद जरा भी नहीं सताती है। यहीं वन में सिसोदिया कुल की लक्ष्मी अपने शिशु को गोद में लिए हुए चिन्तन में डूबी हुई है।
द्वितीय सर्ग (लक्ष्मी)
दूसरे सर्ग में रात्रि के प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण होने के साथ रानी लक्ष्मी के विविध मनोभावो और उसकी अभावग्रस्त करुण दशा का भी चित्रण हुआ है। पराजय के बाद अरावली पर्वत के गहन वन में महाराणा प्रताप अपनी पत्नी लक्ष्मी, शिशु अमर और दौलत के साथ रहने लगे थे। वहाँ उन्होंने एक कुटी बना ली थी। रानी लक्ष्मी कुटिया के बाहर बैठी हुई थी। रानी लक्ष्मी के भीतर विचारों का तूफान चल रहा था। अपने शिशु का मुख देखकर वह सोच रही थी कि इसका भी कैसा भाग्य है?
जिस कोमल सुकुमार को राजमहल में होना चाहिए था, वह जंगल में मुझ भिखारिन की गोद में पड़ा हुआ है। राणा की सन्तान होकर भी इसे अपनी माँ का दूध भी नसीब नहीं हो रहा है। वह शिशु को भूख से व्याकुल देखकर सोचती है कि- "कर्म-योग तो कोरा आदर्श है। कर्म-योग ही सच्चा दर्शन है। यह संसार भी कैसा है कि अत्याचारी सदा विजयी होते हैं और वीर एवं सदाचारी सदा कष्ट उठाते हैं।" राणा का अपराध बस इतना ही तो है कि उन्होंने अपने स्वाभिमान और देश की रक्षा हेतु परतन्त्रता स्वीकार नहीं की। वह संयमपूर्वक वन के कष्ट और अभाव सहन कर रहे हैं। वह मन-ही-मन कहती है कि मैं भूखी रह सकती हूँ, किन्तु अमर, दौलत और राणा की भूख मुझसे सहन नहीं होती।
फिर वह कुछ सँभलती है और कहती है कि यदि यह सब इसलिए हो रहा है कि हमने पराधीन रहना स्वीकार नहीं किया, तो यही सही। ये कष्ट हमें निर्बल नहीं बना पाएँगे। तभी पर्णकुटी से बाहर निकलकर राणा आए। उन्होंने लक्ष्मी से पूछा कि 'क्या हुआ'? लक्ष्मी अपने आँचल से आँसू पोछते हुए कहती है कि कुछ नहीं और यह कहकर कुटिया के भीतर चली जाती है। उसकी यह करुण दशा देखकर राणा भी दुःखी हो जाते हैं।
तृतीय सर्ग (प्रताप)
तृतीय सर्ग में महाराणा प्रताप के मन में उठने-गिरने वाले भिन्न-भिन्न मनोभावों को प्रस्तुत किया गया है। लक्ष्मी के भीतर जाने के बाद राणा कुछ देर खोए-खोए से खड़े रहे। फिर उस पेड़ के नीचे चले गए, जहाँ वे दोपहरी बिताया करते थे। वह आँखें बन्द करके अपनी पत्नी लक्ष्मी के बारे में विचार कर रहे थे। उन्हें इस पर बहुत दुःख होता था कि राज भवनों में रहने वाली सिसोदिया कुल की राज-लक्ष्मी मेरे साथ निर्जन वन में रहने और धरती पर सोने के लिए विवश है। फिर वह स्वयं को दृढ़ करते हुए कहते हैं कि लेकिन मुझे तो दृढतापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करना और मेवाड़ को स्वतन्त्र कराना है।
फिर अगले ही पल वह सोचते हैं कि लेकिन यह कैसे सम्भव होगा अकबर ने साम, दाम, दण्ड, भेद की ऐसी नीति चली है कि मुझे छोड़कर अन्य राजपूत उसके माया जाल में फँस गए हैं। क्या राजपूत जाति का गौरव मिट जाएगा?
मानसिंह जैसा वीर भी अकबर का अनुयायी है। शक्तिसिंह जो मेरा ही भाई था, वह भी मेरा द्रोही निकला और अकबर से जा मिला। उससे मुझे द्वेष नहीं है, अपितु दया आती है। फिर उनकी आँखों के सामने हल्दीघाटी के युद्ध का दृश्य छा जाता है। वह याद करते हैं कि उस दिन शक्तिसिंह ने ही मेरे प्राण बचाए थे। वह अपने प्रसिद्ध घोड़े चेतक को भी याद करते हुए कहते हैं “जब हल्दीघाटी खोकर हम अस्त-व्यस्त भागे थे,
तब चेतक ने मुझे बचाकर स्वयं प्राण त्यागे थे।
चेतक! मेरे बन्धु! प्रिय सखा! जन्म-जन्म के साथी
अमर वीर हल्दीघाटी के! ऐसी जल्दी क्या थी?”
उस समय मानो अश्रु बहाकर राणा ने चेतक को श्रद्धांजलि दी। फिर वह सोचते हैं कि यदि उस दिन जरा-सी चूक न हुई होती, तो सलीम बच नहीं पाता और आज मेरी लक्ष्मी को दुःख न उठाना पड़ता। फिर उन्हें दौलत का ख्याल आता है कि जाने क्यों वह आगरा के महलों का सुख
त्यागकर यहाँ वन में पड़ी हुई है। ऐसा लगता है जैसे वह मेरी ही पुत्री हो। अन्ततः वह निश्चय करते हैं कि चाहे कुछ भी हो, वह मेवाड़ को स्वतन्त्र करा कर ही रहेंगे। वह अकबर के सामने न झुकने का पुनः प्रण करते हैं, लेकिन उन्हें यह भी पता है कि अकबर साधन-सम्पन्न है, जबकि उनके पास अपने प्रण को छोड़कर अन्य कोई सम्पत्ति नहीं है। इसलिए वह सिन्धु की ओर प्रस्थान करने का मन बनाते हैं ताकि वह निर्भय होकर साधन एवं शक्ति संचय कर सकें और अकबर को टक्कर दे सकें। उन्हें दौलत का ख्याल आता है कि उसका क्या होगा? पता नहीं वह आजकल किन विचारों में खोई रहती है?
चतुर्थ सर्ग (दौलत)
इस सर्ग में महाराणा की धर्मपुत्री बन चुकी अकबर की पुत्री दौलत का चित्रांकन है। यद्यपि इतिहास में मुगल सम्राट अकबर की पुत्री के रूप में दौलत का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। 'महाराणा प्रताप सिंह' नामक नाटक में द्विजेन्द्रलाल राय ने दौलत के पात्र की कल्पना की है। शायद उसी से प्रेरित होकर कवि ने यहाँ दौलत का चित्रांकन किया है। पर्णकुटी के पीछे एक कुंज में बैठी दौलत अपने ही विचारों में खोई हुई थी। अपने मन में वह सोच रही थी कि वे दिन भी क्या दिन थे, जब वह आगरा के महल में भोग-विलास भरा जीवन व्यतीत करती थी। फिर वह यहाँ वन में क्यों आ गई है? फिर वह स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर देती हुई कहती है कि मुझे वह जीवन कभी पसन्द नहीं था। वहाँ छल-कपट, द्वेष-स्वार्थ बहुत अधिक था। प्यार और सहृदयता नहीं थी। राणा की यह कुटिया महलों से कहीं
अधिक सुखदायक है, क्योंकि यहाँ शान्ति और सन्तोष भरा जीवन है। राणा के रूप में पिता पाकर मैंने अमूल्य निधि पा ली है। मुझे शत्रु की बेटी नहीं, वरन् अपनी ही बेटी मानते हैं। वह सोचती है कि राणा का स्वतन्त्रता प्रेम अतुलनीय है। शत्रु भी इनका यश-गान करते हैं, इसलिए तो मेवाड़ मुकुट कहलाते हैं। शक्तिसिंह भी इन्हीं का भाई है, परन्तु भाई-भाई में बहुत अन्तर है।
“शक्तिसिंह इनका भाई है, सिसोदिया कुल का है, पर भाई-भाई में भी तो अन्तर बहुत बड़ा है।
ये सूरज है, वह दीपक है, ये अमृत, वह पानी,
ये नर-नाहर, वह शृंगाल है, वह मूरख, ये ज्ञानी।" वह अपने मन में शक्तिसिंह के प्रति प्रेम-भाव को स्वीकार करती है, लेकिन उसने यह बात किसी को नहीं बताई, यहाँ तक की राणा को भी नहीं। वह सोचती है कि राणा पहले ही आजकल बहुत परेशान रहते हैं। मुझे उनकी मुश्किल बढ़ानी नहीं चाहिए, वरन् उनकी अनुगमी (आश्रित) बनकर उनकी सहायता करनी चाहिए। राणा जैसा पिता बड़े भाग्य से मिलता है। उनका स्नेह पाकर मैं बहुत सुखी हूँ, लेकिन मैं उनको चिन्तित देखकर व्याकुल हो जाती हूँ।
वह विचार करती है कि अवश्य ही कोई जटिल समस्या आ गई है, जिसके कारण वह आजकल बहुत परेशान और विचलित रहते हैं। वह इन्हीं विचारों में खोई हुई यह सोचती रहती है कि वह उनके लिए क्या कर सकती है। यहाँ इस सर्ग का समापन होता है।
पंचम सर्ग (चिन्ता)
इस सर्ग में दौलत एकान्त में विचारमग्न बैठी थी। वह अचानक राणा की पदचाप सुनकर सँभलकर खड़ी हो जाती है। राणा उसे उदास देखकर उससे उदासी का कारण पूछते हैं। दौलत ने कहा कि आपको पिता के रूप में पाकर मैं अत्यन्त सुखी हूँ, परन्तु मैं बहुत अभागी हूँ, जब से आपके पास आई हूँ, विपदा ही लाई हूँ। आपकी चिन्ता मुझे ग्लानि से भर देती है।
मुझे डर लगता है कि कहीं मेरे कारण मेवाड़ मुकुट का शीश न झुक जाए। इस पर राणा उसे स्नेहपूर्वक समझाते हैं कि बेटी कभी भी पिता की विपदा का कारण नहीं होती। तुझे पाकर मैं बहुत सुखी हूँ, परन्तु तेरी माता के आँसू मुझे बहुत व्यथित करते हैं। यदि तुम उन्हें सँभाल लो तो मेरा शीश महाकाल के सम्मुख भी नहीं झुक सकता। दौलत कहती है कि माँ जितनी कोमल हैं, उतनी ही दृढ़ भी हैं। वह सारे दुःखों को चुपचाप सहन कर लेती हैं। उनके धीर-गम्भीर स्वभाव के कारण मैं उनके पास जाने का साहस नहीं जुटा पाती, परन्तु आज आप साथ है तो मैं अवश्य संकोच त्यागकर उनके सन्ताप को दूर करने का प्रयत्न करूंगी।
उधर रानी लक्ष्मी शिशु को गोद में लिए कुटिया में अकेली बैठी थीं। चिन्तातुर लक्ष्मी सोच रही थी कि महाराज मेरे कारण ही कष्ट में हैं। फिर एक-एक करके वह अतीत की घटनाओं का स्मरण करती है। वह पति के रूप में वीर राणा को पाकर स्वयं को धन्य समझती है, जिन्होंने पराधीनता स्वीकार नहीं की और अब दिन-रात अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने के प्रयत्न में लगे हुए हैं। भूखे-प्यासे रहकर और वन के कष्ट झेलकर भी उनके स्वाभिमान पर आंच भी नहीं आई। वह गर्वित होकर सोचती है कि राणा का प्रयास अवश्य सफल होगा और यदि हम सफल नहीं हुए तो मृत्यु का वरण करेंगे। जननी और जन्मभूमि तो स्वर्ग से भी बढ़कर होती हैं। इनके लिए सब कुछ न्योछावर करने वाले सदा-सदा के लिए अमर हो जाते हैं। इसी समय राणा के साथ दौलत वहाँ आ पहुंचती है। लक्ष्मी को चिन्तित और व्यथित देखकर वह कहती है
"माँ! किस चिन्ता में एकाकी बैठी हो तुम चुपचाप इधर ? खोए-खोए से पिता अकेले सहते क्यों सन्ताप उधर?
क्यों आज तुम्हारी आँखों में फिर छलके अश्रु? बताओ माँ,
दुःख अपना दे दो मुझे, स्वयं को और न अधिक सताओ माँ।" तब रानी कहती है कि दौलत तू भी पगली है। बेटी माँ के दुःख क्यों झेलेगी? अभागिन तो मैं ही हूँ, मेरे कारण ही आज हम सभी पर मुसीबतें आई हैं। रानी की यह बात सुनकर राणा रोष में आ जाते हैं। वह कहते हैं कि स्वयं को अभागिन क्यों कहती हो। इन कष्टों को हमने स्वयं चुना है। हमें निराश होकर हार नहीं माननी है, वरन् उद्यमशील रहकर मेवाड़ को स्वतन्त्र कराना है। मैंने निश्चय कर लिया है कि अब हम अरावली छोड़कर सिन्धु देश से सैन्य-साधन जुटाएँगे और अकबर से अपना मेवाड़ छीन लेंगे। अब हम निष्क्रिय नहीं बैठेंगे, या तो हम अपने लक्ष्य को प्राप्त करेंगे या स्वयं मिट जाएँगे।
राणा की यह बात सुनकर लक्ष्मी उत्साहित हो जाती है। वह पूछती है कि हमें कब प्रस्थान करना है? महाराणा कहते हैं कि हम कल ही प्रस्थान करेंगे और स्वतन्त्रता की खातिर नए अभियान का शुभारम्भ करेंगे। इस सर्ग में राणा और उनकी पत्नी रानी लक्ष्मी के उच्च मानसिक बल का परिचय मिलता है। वे दोनों स्वतन्त्रता के लिए किसी भी प्रकार का कष्ट सहने के लिए सहर्ष तैयार हैं।
षष्ठ सर्ग (पृथ्वीराज)
घष्ठ सर्ग में पृथ्वीराज की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है। रात बीत गई और सवेरा हुआ। प्रातःकाल के सूर्य की लालिमा चारों ओर फैल गई। पशु-पक्षी नवीन उत्साह के साथ अपने दैनिक क्रिया-कलापों में जुट गए। राणा ने भी नवीन उत्साह के साथ संकल्प किया कि मेवाड़ की मुक्ति के लिए मैं जीवनभर संघर्षरत् रहूंगा। उन्होंने अपने सेवकों के सामने घोषणा की कि हमें शीघ्र ही मरु-भूमि पार कर सिन्धु देश के लिए प्रस्थान करना है और वहाँ रहकर युद्ध के लिए साधन जुटाने है।
सभी यात्रा के प्रबन्ध की तैयारी करने में व्यस्त हो गए। यह सब देखकर रानी लक्ष्मी अति प्रसन्न थी। तभी राणा का अनुचर एक पत्र लेकर उपस्थित हुआ। पत्र पढ़कर राणा कुछ असमंजस में पड़ गए। फिर उन्होंने उसे पृथ्वीराज को बुला लाने के लिए कहा। उन्होंने रानी लक्ष्मी से कहा कि लगता है अकबर ने पृथ्वों से भी छल किया है। जाकर देखता हूँ कि अकबर का यह कवि-सख्खा क्या प्रस्ताव लेकर आया है।
राणा प्रताप को देखते ही पृथ्वीराज उनका अभिवादन करता है और उनकी प्रशंसा करते हुए कहता है कि आपके दर्शन करके मेरा जीवन धन्य हो गया है। हे सिसोदिया कुल भूषण! राजपूतों की लाज केवल आप ही रख सकते हैं। हल्दीघाटी में आपके शौर्य को देखकर मातृभूमि का कण-कण आपका यशोगान कर रहा है। इस पर राणा कुछ रोष में कहते हैं कि जब राजपूतों का ध्वज झुका चा, बप्पा रावल के कुल की मर्यादा पर आघात हुआ था, तब आपको इसका ध्यान नहीं रहा था?
क्या अकबर की मनसबदारी करके, उसकी यशगाथा गाकर राजपूतों के गौरव में वृद्धि हो रही थी? इस तरह इतने दिनों तक मातृभूमि की सेवा करके अब आपने मानसिंह का साथ क्यों छोड़ दिया? वह आगे कहते हैं
"कैसे आज आपको सहसा याद हमारी आई? अहोभाग्य! इस अरावली ने नूतन गरिमा पाई।
पर प्रताप है आज अकिचन, निस्संबल, निस्साधन,
कैसे स्वागत करें? करें कैसे कृतज्ञता ज्ञापन?' पृथ्वीराज, राणा की बात सुनकर उत्तर देता है कि आपने जो भी कहा वह सत्य है। मैं भ्रमवश दिल्लीश्वर को जगदीश्वर समझ बैठा था और उसकी दासता में गर्व अनुभव कर रहा था। स्वार्थ के वशीभूत होकर मैं अपना गौरव भुलाकर स्वयं को उसका दास कहलाने में गर्व करने लगा था, परन्तु सत्य तो यही है कि हमने राजपूतों की आन-बान और शान को कलंकित किया है। अकबर केवल आपको ही अपने जाल में न फंसा सका। आप राम के वंशज हैं, आप उन्हीं के समान
मर्यादा का पालन करने वाले हैं। आप मातृभूमि के सच्चे सपूत हैं। अकबर का यह चारण अपने पाप धोने के लिए आपकी शरण में आया है। पृथ्वीराज का पश्चाताप देखकर राणा द्रवित होकर बोले, तुम्हारा पश्चाताप करना राजपूतों के लिए शुभ संकेत है, लेकिन ऐसी कौन-सी घटना घटी जिसके कारण तुमने अकबर का साथ छोड़ दिया। निर्भय होकर अपने मन की बात बताओ। पृथ्वीराज ने उनको बताया कि अकबर सत्ता के मद में चूर हो रहा है। उसने मेरे
ही कुल की लाज को लूटना चाहा, जो मुझसे सहा नहीं गया। सच तो यही है कि हमने ही उसे इतना शक्तिशाली बना दिया है। इस पर महाराणा प्रताप ने कहा कि जो होना था, सो हो चुका। अब आगे के लिए क्या विचार है? प्रतिशोध लेना है या यूँ श्चाताप करना है? यह सुनकर
पृथ्वीराज को मानो चेतना आई। उसने कहा
"बोले, हाँ प्रतिशोध, मात्र प्रतिशोध लक्ष्य अब मेरा, उसके हित ही लगा रहा हूँ अरावली का फेरा।"
वह कहता है कि मेवाड़ मुक्त हो और अकबर का मनोरथ विफल हो, अब यही मेरा लक्ष्य है। राणा कहते हैं कि केवल मनोरथ करने से ही सफलता नहीं मिलती। कविवर! इस समय परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल नहीं हैं। हम साधनहीन और असहाय हैं। इस प्रकार हम अकबर से टक्कर नहीं ले सकते। तब पृथ्वीराज उत्साह से भरकर कहता है कि यदि संकल्प और उद्देश्य महान् हो, तो साधन स्वयं ही जुट जाते हैं। भामाशाह आपकी सेवा में प्रस्तुत होना चाहते हैं। आप आज्ञा दें तो मैं उन्हें बुलाकर ले आऊँ।
सप्तम सर्ग (भामाशाह)
प्रस्तुत खण्ड में भामाशाह के योगदान का वर्णन किया गया है। पृथ्वीराज के जाने पर महाराणा प्रताप विचारों के सागर में डूब गए। वह सोचने लगे कि क्या इतिहास नया मोड़ लेने वाला है? तभी एकाएक मृगों का एक समूह उनके सामने से चौकड़ी भरते हुए निकल गया। वह सोचने लगे कि प्रकृति ने सभी को स्वतन्त्र बनाया है, फिर दूसरों को परतन्त्र बनाने का अधिकार किसी को नहीं है। दूसरों का शोषण करना और उनको अपना दास बनाना दानवता है। वह आशा से भरकर कहते हैं कि मेवाड़ का भाग्य अवश्य जागेगा और वह स्वाधीन होगा। शायद इसलिए पृथ्वीराज यहाँ तक आए और भामाशाह का सन्देश मुझ तक लाए। तभी भामाशाह प्रस्तुत होते हैं
"जय हो जननी जन्मभूमि की एकलिंग की जय हो।
जय हो सूर्यध्वज की! राणा का प्रताप अक्षय हो।" यह सुनकर राणा चौंक उठे और दुःखी होकर बोले- यहाँ राणा कौन है? यहाँ तो प्रताप अकेला निस्सहाय वन में घूम रहा है और चित्तौड़ पर तो सूर्यध्वज के स्थान पर अकबर का परचम फहरा रहा है, लेकिन मेरा संकल्प है कि मैं मातृभूमि को स्वतन्त्र कराकर रहूँगा और हम फिर वहीं निर्भय होकर निवास करेंगे। भामाशाह कहते हैं कि मेरा भी यही संकल्प है। आपके रहते हमारी मातृभूमि का शीश कदापि नहीं झुक सकता।
मैं आपकी सेवा में साधन लेकर प्रस्तुत हुआ हूँ। आप सैन्य-संग्रह करके शत्रु को रण में परास्त करें। महाराणा प्रताप को भामाशाह से सहायता लेने में संकोच हुआ। वह बोले कि मैं उपहार स्वरूप कुछ नहीं ले सकता। हमारे पूर्वजों ने सदा दिया ही दिया है, लिया नहीं। अत: मैं स्वयं अपने बाहुबल से युद्ध के लिए साधन जुटाऊँगा। मैं अपने कुल की मर्यादा को कलंकित नहीं कर सकता।
इस पर भामाशाह विनीत होकर कहता है कि मेरे पिता-दादा यह जो सम्पत्ति संचित की है, यह आपके कुल के पूर्वजों की ही देन है। यह मेरा सौभाग्य होगा कि मैं आज आपके चरणों में यह सम्पत्ति अर्पित करके आपका ऋण चुका सकूँ। मेरे लिए यह देश सेवा का महान् अवसर है। राणा फिर कहते हैं कि तुम बप्पा के कुल की मर्यादा भली-भाँति जानते हो। राजवंश का दिया हुआ मैं वापस नहीं लूँगा। जब तक प्राण है, मैं देश की सेवा करूंगा।
इस पर भामाशाह ने कहा, देव! क्षमा करें, परन्तु देश-सेवा का अधिकार और कर्तव्य सभी का है। मातृभूमि का ऋण उतार सके, जो, वह धन कहीं नहीं है। यदि देश-हित में थोड़ी भी सहायता कर सका, तो मैं स्वयं को धन्य समझँगा "यदि स्वदेश के मुक्ति-यज्ञ में यह आहुति दे पाऊँ,
पितरों सहित, देव, निश्चय ही मैं कृतार्थ हो जाऊँ यह कहते-कहते उनका स्वर हो आया अति कातर,
साश्रु-नयन गिर पड़े दण्डवत् राणा के चरणों पर।" राणा भामाशाह के निवेदन का उत्तर देने में सकुचा रहे थे। तभी कवि पृथ्वीराज बोल उठते हैं कि शौर्य और गरिमा का ऐसा संगम मिलना कठिन है। धन्य है। मेवाड़ की धरती, जहाँ जीवन के उच्च आदर्श निभाए जाते हैं। भामाशाह से प्रभावित होकर राणा उसे उठाकर गले लगा लेते हैं और कहते हैं कि स्वदेश के लिए अपना सर्वस्व दान देने के लिए तुम्हे युग-युग तक याद किया जाएगा। अब मैं मेवाड़ को छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा और यहाँ रहकर सैन्य बल एकत्र करूंगा। मेवाड़ अवश्य ही स्वतन्त्र होगा। जहाँ भामाशाह जैसे सपूत हों, वह देश अधिक समय तक गुलाम नहीं रह सकता। यहाँ इस खण्डकाव्य का अन्त होता है। इसमें एक ओर महाराणा प्रताप के उच्च मनोबल पर प्रकाश डाला गया है, तो दूसरी ओर भामाशाह के योगदान को रेखांकित किया गया है।
प्रश्न 2. 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य विषय क्या है? इसके रचना उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट कीजिए कि कवि अपने प्रयत्न में कहाँ तक सफल हुआ है?
अथवा 'मेवाड़ मुकुट' में व्यंजित देशभक्ति-भावना का निरूपण कीजिए।
उत्तर कवि गंगारन पाण्डेय द्वारा रचित 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य में देशभक्ति की महान् भावना का निरूपण हुआ है। कवि ने यहाँ मेवाड़ के महाराणा प्रताप के चरित्र पर प्रकाश डालकर उसे अपने काव्य का प्रतिपाद्य विषय बनाया है। महाराणा प्रताप उन ऐतिहासिक महापुरुषों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी स्वतन्त्रता और स्वाभिमान की रक्षा हेतु अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था। उन्होंने आजीवन अकबर की पराधीनता स्वीकार नहीं की। इसके लिए उन्हें अनेक कष्ट भी सहने पड़े।
यहाँ तक कि उन्हें अपनी पत्नी और बालक अमर सिंह के साथ वन में एकाकी जीवन बिताना पड़ा, जहाँ वे पर्याप्त भोजन भी नहीं जुटा पाते थे, परन्तु उन्होंने विषम परिस्थितियों का सामना करने पर भी हार नहीं मानी। इस खण्डकाव्य में कवि ने राणा प्रताप के सम्पूर्ण जीवन चरित्र का वर्णन न करके उनके जीवन के एक छोटे से हिस्से को ही प्रस्तुत किया है। इस खण्डकाव्य का आरम्भ हल्दीघाटी में मिली पराजय के साथ होता है और अन्त भामाशाह के द्वारा दिए गए दान के साथ होता है। कवि ने महाराणा प्रताप के जीवन के केवल उस अंश को काव्यवद्ध किया है, जो उनके जीवन का सबसे कठिन समय था। उसका मार्मिक चित्रण करके कवि ने पाठकों को झकझोर दिया है।
इस खण्डकाव्य के माध्यम से कवि अपने पाठकों को स्वतन्त्रता का महत्त्व समझाना चाहता है। उसके लिए देशहित से बढ़कर कुछ नहीं है। उसका उद्देश्य आज के आधुनिक समाज में देशहित को सर्वोपरि समझते हुए उसके लिए सर्वस्व त्याग एवं बलिदान की भावना जगाना है। इस खण्डकाव्य में विभिन्न स्थानों पर स्वदेश प्रेम की उत्कट भावना एवं उसके लिए संघर्ष का प्रण व्यक्त हुआ है, जिससे पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है।
अतः खण्डकाव्य की उद्देश्य पूर्ति में कवि को पूरी सफलता मिली है। ध्यान रहे कि महाराणा प्रताप और मुगल सम्राट अकबर के मध्य लड़ाई कोई साम्प्रदायिक संघर्ष नहीं था, वरन् अपने-अपने आदर्शों की रक्षा हेतु किया गया संघर्ष था। कवि ने इस खण्डकाव्य के नायक महाराणा प्रताप को 'मेवाड़ मुकुट' कहकर सम्बोधित किया है। मुकुट, व्यक्ति अथवा राष्ट्र के मान-सम्मान का प्रतीक होता है, उसकी आन-बान-शान का द्योतक होता है।
महाराणा प्रताप को ‘मेवाड़ मुकुट' कहना उचित ही है, क्योंकि वह अपनी मातृभूमि मेवाड़ के लिए अन्त तक संघर्षशील रहे। सभी राजपूत राजा एक-एक करके अकबर की पराधीनता स्वीकार कर रहे थे, परन्तु केवल महाराणा प्रताप ने ही यह स्वीकार नहीं किया। वे वास्तव में मेवाड़ की गौरवशाली परम्परा के रक्षक थे। उन्होंने अपनी मातृभूमि का शीश झुकने नहीं दिया।
अतः इस खण्डकाव्य के लिए निर्धारित किया गया शीर्षक 'मेवाड़ मुकुट' पूरी तरह उपयुक्त एवं सार्थक है। इस खण्डकाव्य के लिए इससे उपयुक्त अन्य शीर्षक हो ही नहीं सकता था। इस खण्डकाव्य का दूसरा प्रमुख पात्र ‘भामाशाह' भी प्रेरणादायी है, जिन्होंने संकट के समय अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए अपनी तमाम सम्पत्ति उपहारस्वरूप महाराणा को समर्पित कर दी। आज धन के लिए जहाँ भाई-भाई आपस में संघर्ष कर रहे हैं, लड़-मर रहे हैं, वहाँ भामाशाह का चरित्र सभी के लिए प्रेरणादायी है।
चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 3. 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के किसी एक पात्र की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के नायक का चरित्र चित्रण कीजिए।
अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के प्रधान पात्र की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के उस पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए जिसने आपको प्रभावित किया हो।
अथवा 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के आधार पर महाराणा प्रताप का चरित्रांकन कीजिए।
उत्तर कवि गंगारत्न पाण्डेय द्वारा रचित 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य महाराणा प्रतापको केन्द्र में रखकर लिखा गया है। वही इस खण्डकाव्य के नायक है। उनके चरित्र की उल्लेखनीय विशेषताएँ निम्नलिखित है।
1. मातृभूमि के रक्षक महाराणा प्रताप को अपनी मातृभूमि मेवाड़ से बहुत प्यार है। वह उसकी रक्षा के लिए हल्दीघाटी का युद्ध करते हैं। इस युद्ध में वह परास्त होते हैं, परन्तु वह पुनः अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु तत्पर हो जाते हैं और सैन्य बल जुटाने के लिए प्रयासरत होते हैं। वह अपनी अन्तिम साँस तक मातृभूमि के लिए लड़ते रहते हैं। अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्र कराना ही उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य है।
2. शरणागतवत्सल राणा प्रताप शरणागतवत्सल हैं। यह उनके कुल की गरिमा के अनुकूल है। वह अपने शत्रु अकबर की पुत्री दौलत को शरण देते हैं तथा उसे अपनी पुत्री के समान स्नेह करते हैं। इस सम्बन्ध में कवि ने कहा है
“अरि की कन्या को भी उसने रख पुत्रीवत वन में एक नया आदर्श प्रतिष्ठित किया वीर जीवन में।"
3. स्नेहमयी पिता राणा प्रताप स्नेहमयी पिता है। अपने बच्चों को भूख से व्याकुल देखकर उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो जाती है। स्वयं दौलत उनकी प्रशंसा में कहती है
"सचमुच ये कितने महान् हैं, कितने गौरवशाली। इनको पिता बनाकर मैंने बहुत बड़ी निधि पा ली।।”
4. दृढ़ संकल्पी एवं स्वप्नदृष्टा महाराणा प्रताप महान् स्वप्नदृष्टा थे और अपने सपनों को साकार करने हेतु दृढ़ संकल्पी भी थे। उनका एक ही स्वप्न था- मेवाड़ की स्वतन्त्रता। अपने इस स्वप्न को पूरा करने के लिए उन्होंने आजीवन संघर्ष किया।
उनके बारे में कवि गंगारल पाण्डेय ने इस खण्डकाव्य की भूमिका में हैलिखा
"राणा प्रताप कोरे स्वप्नदर्शी नहीं हैं। ऊँची-ऊँची कामनाएँ और महत्त्वाकांक्षाएँ पालना एक बात है, उन महत्त्वाकांक्षाओं को सफल करने के लिए सुविचारित कदम उठाना बिलकुल अलग बात है। स्वप्नदर्शी कोई भी हो सकता है। अपने सपनों को साकार रूप दे सकने वाले विरले ही होते हैं, क्योंकि इसके लिए जिस त्याग, साहस, शौर्य और धैर्य की आवश्यकता होती है, वह सर्वसुलभ नहीं है।"
5. महापराक्रमी एवं स्वाभिमानी महाराणा प्रताप परम वीर और महापराक्रमी है। चेतक पर चढ़कर जब राणा युद्ध के लिए सज्ज (तैयार) होते थे, तो उनके वीरतापूर्ण स्वरूप पर आँखे ठहर जाती थीं। शत्रु भी उनके पराक्रम और शौर्य की प्रशंसा किए बिना नहीं रहते। उनमें स्वाभिमान की भावना भी बहुत प्रबल थी, इसलिए वह राज्य छिन जाने पर भी अकबर की दासता स्वीकार नहीं करते। स्वाभिमान की रक्षा हेतु वह भामाशाह के प्रस्ताव को भी प्रथम बार अस्वीकार कर देते हैं। विषम परिस्थितियाँ भी उनके स्वाभिमान को हिला नहीं पातीं।
6. स्वाधीनता पूजक महाराणा प्रताप स्वाधीनता के रक्षक एवं पूजक है। जब सारे राजपूत राजा एक-एक करके अकबर की दासता स्वीकार कर रहे थे, तब उन्होंने राजपूतों को उनकी गौरवशाली मर्यादा एवं परम्परा का अहसास कराया। उन्होंने अन्त तक अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और जीवन भर उससे लोहा लिया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि महाराणा एक असाधारण युग पुरुष थे, जिनसे युगों-युगों तक स्वाभिमान, स्वाधीनता एवं आत्मगौरव के लिए सर्वस्व बलिदान करने की प्रेरणा मिलती रहेगी।
प्रश्न 4. 'मेवाइ मुकुट' खण्डकाव्य के आधार पर भामाशाह का चरित्र चित्रण कीजिए।
अथवा 'मेवाड़ मुकुट' के आधार पर 'भामाशाह' का चरित्र चित्रण कीजिए तथा यह भी बताइए कि उनसे आपको क्या प्रेरणा मिलती है।
उत्तर कवि गंगारल पाण्डेय द्वारा रचित खण्डकाव्य 'मेवाड़ मुकुट' में नायक महाराणा प्रताप के बाद सबसे प्रमुख पात्र भामाशाह ही हैं। भामाशाह मेवाड़ के एक बहुत धनी सेठ थे, जिन्होंने महाराणा की उस समय सहायता की थी, जब वह
साधनहीन होकर विवशता में मेवाड़ को छोड़कर सिन्धु- देश जाने का मन बना चुके थे। उन्होंने मेवाड़ की रक्षा हेतु अपनी सारी सम्पत्ति राणा प्रताप को दे दी थी। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं 1. परम दानवीर भामाशाह अपनी मातृभूमि की मुक्ति के लिए महाराणा प्रताप को सहर्ष अपनी सारी सम्पत्ति उपहार स्वरूप दे देते हैं। वह अपने पूर्वजों द्वारा
संगृहीत सम्पत्ति को दान में देने से जरा-सा भी संकोच नहीं करते। कवि पृथ्वीराज ने उनकी प्रशंसा में कहा है
“धन्य स्वदेश-प्रेम भामा का! धन्य त्याग यह अक्षर ! शिव-दधीचि की गरिमा पा ली, तुमने सब-कुछ देकर।"
2. स्वदेश-प्रेमी केवल देश के लिए लड़ने वाले सैनिक ही देशभक्त नहीं होते, वरन् किसी भी रूप में देश की सेवा करने वाला भी देशभक्त होता है। भामाशाह ने यह सिद्ध कर दिखाया है। मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम होने के कारण ही उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति दान में दे दी। उनका मानना है कि देश के प्रति सभी को अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए। वह कहते हैं
"उसके ऋण से उॠण करे जो वह धन, देव कहाँ है? तन-मन-धन- जीवन सब उसका अपना कुछ न यहाँ है।
अतः विनय है देव, कृपा की कोर करें सेवक पर, धन्य बनूँ मैं भी स्वदेश की थोड़ी-सी सेवा कर।"
3. कर्त्तव्यनिष्ठ भामाशाह का चरित्र एक कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्ति का है। वह देश के प्रति अपने कर्तव्य का भली-भाँति पालन करते हैं
"यदि स्वदेश के मुक्ति-यज्ञ में यह आहुति दे पाऊँ, पितरों सहित देव, निश्चय ही मैं कृतार्थ हो जाऊँ ।”
4. विनम्र भामाशाह का स्वभाव अत्यन्त विनम्र है, साथ ही वह शिष्टाचारी भी हैं। महाराणा प्रताप एक बार तो उनकी सहायता लेने से इनकार कर देते हैं, परन्तु वह अति विनम्र होकर महाराणा को अपना प्रस्ताव स्वीकार करने पर विवश कर देते हैं
"यह कहते-कहते उनको स्वर हो आया अति कातर, साश्रु-नयन गिर पड़े दण्डवत् राणा के चरणों।"
5. अपने राजा के प्रति निष्ठावान भामाशाह अपने राजा महाराणा प्रताप के प्रति सच्ची निष्ठा रखते हैं। उन्होंने संकट के समय अपने राजा की यथासम्भव मदद करके इसका परिचय दिया। वह न केवल आर्थिक रूप से राणा की सहायता करते हैं, बल्कि उन्हें मानसिक बल भी देते हैं। वे राणा को प्रेरणा
देते हुए कहते हैं
"अविजित हैं, विजयी भी होंगे, देव, शीघ्र निःसंशय। मातृभूमि होगी स्वतन्त्र फिर, हम होंगे फिर निर्भय।।" अपने उपरोक्त गुणों के कारण भामाशाह का चरित्र अनुकरणीय है। उनका चरित्र आज भी उतना ही प्रासंगिक एवं प्रेरणादायी है। आज चारों ओर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सरकारी अफसर देशसेवा की आड़ में अपने हितों की पूर्ति कर रहे हैं। आज भामाशाह जैसे दानवीरों का अकाल पड़ गया है। निश्चय ही वह एक आदर्श ऐतिहासिक पात्र हैं।
प्रश्न 5. 'मेवाड़ मुकुट' खण्डकाव्य के आधार पर किसी नारी-पात्र की चारित्रिक विशेषताओं को लिखिए।
अथना 'मेवाड मुकुट' खण्डकाव्य के आधार पर 'लक्ष्मी' का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर लक्ष्मी महाराणा प्रताप की अद्धांगिनी है, जो उनके साथ कष्ट सहते हुए वन-वन भटक रही है। रानी लक्ष्मी की चारित्रिक विशेषताएँ
महाराणा प्रताप की सहधर्मिणी रानी लक्ष्मी की प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. विचारशील रानी होकर भी सपरिवार वन-वन भटकना पड़ रहा है, इस तथ्य पर विचार करती हुई वह सोचती हैं कि शायद यही विधाता की लीला है। पर, क्या इसे विधाता की क्रूरता नहीं मानना चाहिए। वह सोचती हैं
“कैसा यह अन्याय है, विधाता! कैसा तेरा कुटिल विधान रोना भी दुर्लभ है जिसमें, हे परमेश्वर हे भगवान।।"
2. भाग्यवादिनी रानी लक्ष्मी भाग्य में विश्वास करती हैं। वह अपने शिशु को गोद में लिए सोचती हैं कि जिसे राजभवन में होना चाहिए था, वह माता के भूखी होने के कारण माँ का दूध पीने को भी तरस रहा है। वह कहती हैं
"बड़ी साध से राजभवन में, यह पाला जाता सुकुमार किन्तु भाग्य में विजन लिख दिया, यह कैसी लीला कर्तार।।"
3. कर्मवाद में आस्था हिन्दू दर्शन कर्मवाद में आस्था रखता है। रानी लक्ष्मी को भी लगता है कि वह जो कुछ भी भोग रही हैं, वह कर्म का परिणाम है। वह कहती है—
“कर्म-योग आदर्श मात्र है, कर्म-योग सच्चा दर्शन।"
4. स्वाभिमानिनी भीषण कष्ट सहकर भी रानी लक्ष्मी सन्तुष्ट हैं। उन्हें इस बात का अभिमान है कि भले ही सब-कुछ गवाँ दिया, पर राष्ट्र का गौरव बचा रहा। वह कहती है
"स्वाभिमान सद्धर्म देश को बेच दासता का जीवन नहीं किया स्वीकार, इसी से मिला उन्हें है निर्जन बन।।"
5. वात्सल्यमयी रानी लक्ष्मी को अपने शिशु अमरसिंह से ही नहीं, दौलत (धर्मपुत्री) से भी स्नेह है। वह बच्चों को भूखा देखकर व्यथित होकर कहती हैं
"होती यदि मैं निपट अकेली, निराहार रह जाती। किन्तु अमर, दौलत की, उनकी भूख नहीं सह पाती ।।"
6. आत्मविश्वासी एक सद्गृहिणी के रूप में लक्ष्मी की चिन्ता स्वाभाविक ही है कि उसके रहते पति और पुत्रादि भूखे रहें। पर, उसे विश्वास है कि यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रहेगी। मेवाड़ स्वतन्त्र होगा और यह दुःखों का सागर भी समाप्त हो जाएगा। वह बड़े विश्वास से कहती हैं कि जो भी होना हो, हो जाए, पर मैं झुकूँगी नहीं। कवि के शब्दों में देखिए
"मुखरित हुए विचार, कहा- रानी ने स्वर ऊँचा कर हमको नहीं डुबा पाएगा यह कष्टों का सागर।।"
निष्कर्ष 'मेवाड़ मुकुट' की लक्ष्मी एक स्नेहमयी माँ और सद्गृहिणी हैं। भीषण कष्टों में रहकर भी उसे अपने पति महाराणा प्रताप और उनके स्वातन्त्र्य-संघर्ष में अपार आस्था है। उनका मानना है कि मेवाड़ अवश्य ही स्वतन्त्र होगा।
05 'जय सुभाष' खण्डकाव्य
कथासार / कथानक / कथावस्तु / विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 1. 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का सारांश लिखिए।
अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग और तृतीय सर्ग की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथा-सार अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का कथानक लिखिए।
अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य की कथावस्तु अपनी भाषा में लिखिए।
अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य की कथा/कथानक / कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के सप्तम सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक लिखिए।
अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के पंचम सर्ग की कथावस्तु लिखिए।
उत्तर 'जय सुभाष' खण्डकाव्य में अमर स्वतन्त्रता सेनानी सुभाषचन्द्र बोस का संक्षिप्त जीवन-परिचय है। विनोदचन्द्र पाण्डेय 'विनोद' द्वारा रचित इस खण्डकाव्य की कथावस्तु सात सर्गों में विभाजित की गई है। इसका सारांश निम्नलिखित है
प्रथम सर्ग
इस खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग के अन्तर्गत सुभाषचन्द्र बोस के जन्म से लेकर उनके द्वारा शिक्षा ग्रहण करने तक की घटनाओं का वर्णन किया गया है। 23 जनवरी, 1897 की तिथि इतिहास में अत्यन्त विशिष्ट है, क्योंकि इसी दिन महान् सेनानायक सुभाषचन्द्र बोस का कटक में जन्म हुआ था। उनके पिता श्री जानकीनाथ बोस तथा माता श्रीमती प्रभावती देवी दोनों इस पुत्र रत्न को पाकर धन्य हुए। सुभाष के रूप में तेजस्वी, सुन्दर और सलोना बालक पाकर घर और बाहर चारों ओर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। सुभाष की बाल-क्रीड़ाएँ देख-देखकर उनके माता-पिता हर्षित होते रहते थे।
सुभाष के पिता एक प्रबुद्ध तथा महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति थे। उनकी माता एक धर्मपरायण, उदार तथा साध्वी महिला थी। सुभाष के जीवन पर इन दोनों का प्रभाव समान रूप से पड़ा। बचपन में उनकी माता ने उन्हें राम, कृष्ण, अर्जुन, भीम, शिवाजी, प्रताप, महावीर, भगवान बुद्ध, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब आदि महान् व्यक्तियों की कहानियाँ सुनाकर उनमें वीरता तथा साहस के संस्कार भर दिए। इस प्रकार महापुरुषों के जीवन से उन्हें महान् बनने की प्रेरणा मिली। सुभाष के पिता चाहते थे कि वह पढ़-लिखकर उच्च शिक्षा ग्रहण करे। इसलिए पढ़ाई में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा दिखाई और मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की। उनमें सेवा भाव भी कूट-कूटकर भरा हुआ था। एक बार जाजपुर में भयानक रोग फैला तो उन्होंने दिन-रात रोगियों की सेवा की। मातृभूमि की सेवा के लिए ही उन्होंने सुरेश बनर्जी के सम्पर्क में आने के बाद आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा ली। स्वामी विवेकानन्द का आख्यान सुनकर वह सत्य की खोज में भी गए, लेकिन उन्हें सन्तुष्टि नहीं हुई और पुनः आकर पढ़ाई करने लगे। उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। वहाँ 'ओटन' उन्हें पढ़ाता था। वह भारतीयों का अपमान करता था, जिससे आहत होकर सुभाष ने उसे तमाचा जड़ दिया। इस पर उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया, परन्तु उन्होंने पढ़ाई जारी रखी और बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहाँ से उन्होंने आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की, परन्तु इस पद को त्याग कर वे भारत लौट आए और मातृभूमि के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो गए।
द्वितीय सर्ग
सुभाष के पिता चाहते थे कि सुभाष आई.सी.एस. बनकर कुल का नाम रोशन करें, परन्तु जिस समय सुभाष स्वदेश लौटे, उस समय अंग्रेज़ों का अत्याचार चरम पर था। जनता में भारी रोष था। यह देखकर मातृभूमि की सेवा का व्रत ले चुके सुभाष ने आई.सी.एस. के पद से त्यागपत्र देकर देशबन्धु चितरंजनदास के नेतृत्व में स्वतन्त्रता से सम्बन्धित गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया। देशबन्धुजी ने उन्हें नेशनल कॉलेज का प्राचार्य नियुक्त किया, तो उन्होंने छात्र-छात्राओं में भी स्वतन्त्रता का भाव जगा दिया।
सुभाष के ओजस्वी भाषणों ने नई पीढ़ी को स्वतन्त्रता आन्दोलनों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उनकी इन गतिविधियों से भयभीत होकर ब्रिटिश सरकार ने देशबन्धुजी के साथ-साथ उन्हें भी बन्दी बना लिया।
कारागार से बाहर आने पर अंग्रेज़ों से लोहा लेने की उनकी भावना और भी बलवती हो गई। उसी समय बंगाल में भयानक बाढ़ आई, तब सुभाष एक बार फिर आम जनता की सेवा में लग गए। कांग्रेस के कार्यक्रमों में भी वे निरन्तर भाग लेते रहे। उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु चितरंजनजी के साथ मोतीलाल नेहरू की स्वराज पार्टी में प्रवेश किया। कलकत्ता की महापालिका के चुनावों में सुभाष ने कई प्रतिनिधियों को जितवाया। चुनाव जीतने पर देशबन्धुजी को नगर प्रमुख बनाया गया तथा सुभाष को अधिशासी अधिकारी नियुक्त किया गया। उन्होंने सिर्फ आधे वेतन पर काम करके दीन-दुःखियों और श्रमिक जनों के कष्टों को दूर करना आरम्भ किया। धीरे-धीरे सुभाष की ख्याति बढ़ने लगी।
ब्रिटिश सरकार यह सहन न कर सकी। उन्हें अकारण ही अलीपुर जेल भेज दिया गया। वहाँ से बरहपुर और फिर माण्डले जेल भेजा गया। माण्डले जेल में उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा तो चारों ओर से उनकी रिहाई की माँग तेज़ हो गई। अन्ततः सरकार को झुकना पड़ा और सुभाष आज़ाद हुए, लेकिन मातृभूमि के लिए सभी कष्टों को सहने वाले सुभाष पहले के समान अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ते रहे।
तृतीय सर्ग
इस सर्ग में वर्ष 1928 में कलकत्ता में आयोजित किए गए कांग्रेस के अधिवेशन में सुभाषचन्द्र बोस की भूमिका का वर्णन किया गया है। इस अधिवेशन के आयोजन का सारा भार सुभाष पर था, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। इस आयोजन पर देश के कोने-कोने से लाखो नर-नारी कलकत्ता पहुॅचे थे। लोगों में अपार उत्साह उमड़ रहा था। बोस के नेतृत्व में स्वयं सेवकों का दल सारी व्यवस्था सँभाल रहा था।
इस अधिवेशन में पण्डित मोतीलाल नेहरू को अध्यक्ष चुना गया। वे भी सुभाष से प्रभावित हुए बिना न रह सके।
उन्होंने सुभाष को पुत्र समान कहकर उनकी प्रशंसा की तथा स्वयं को देश सेवा के लिए समर्पित कर दिया। अधिवेशन की सफलता ने सुभाष की प्रसिद्धि में और भी वृद्धि की। उन्हें कलकत्ता का मेयर नियुक्त किया गया। यहाँ भी वे निष्ठापूर्वक कार्य करके लोगों की सेवा करते रहे। इसी बीच एक जुलूस निकाला गया। इसमें उन्होंने पुलिस की लाठियाँ भी हँसते-हँसते झेली।
सरकार ने एक बार फिर उनको जेल भेज दिया। नौ महीने के पश्चात् अलीपुर जेल से उनको रिहा किया गया, लेकिन वह कभी अपने कर्त्तव्य से विचलित नहीं हुए। उन्होंने देश के नवयुवकों में स्वतन्त्रता की चिंगारी सुलगा दी। सुभाष के ओज से डरी-सहमी विदेशी सरकार ने उनको पुनः सिवनी जेल में भेज दिया, जहाँ उनका स्वास्थ्य गिर गया। वहाँ से उनको भुगली भेजा गया, परन्तु स्वास्थ्य में कोई सुधार न हुआ। व्याकुल जनता ने अपने नायक को जेल से आज़ाद करने की माँग की, तो फिर उन्हें रिहा किया गया। इस बार सुभाष स्वास्थ्य सुधारने के लिए यूरोप चले गए। पश्चिम के वैभव को देखकर उनके मन में पराधीनता का रोष और भी बढ़ गया। इसी दौरान उनके पिताजी चल बसे।
सुभाष निरन्तर अपने कर्त्तव्य पथ पर चलते रहे। वे वियना गए, जहाँ उन्होंने 'इण्डियन स्ट्रगल' नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक को भारत में प्रतिबन्धित कर दिया गया। विदेश में रहकर भी सुभाष ने देश के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन किया। वर्ष 1936 में सुभाष भारत लौटे, लेकिन आते ही उन्हें जेल में डाल दिया गया। जब वह फिर से बीमार पड़े, तो क्रूर सरकार को झुकना पड़ा। वह फिर यूरोप चले गए। इसके पश्चात् वह पूर्ण स्वस्थ होकर पुनः भारत लौटे।
चतुर्थ सर्ग
इस सर्ग में ताप्ती नदी के किनारे हुए कांग्रेस के इक्यावनवें अधिवेशन के आयोजन का वर्णन किया गया है। विट्ठल नगर में आयोजित किए गए इस अधिवेशन में भाग लेने के लिए सुभाष इक्यावन बैलों के रथ में सवार होकर पधारे थे। वे इस अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने विनम्र होकर सबका धन्यवाद किया और नवयुवको को देशभक्ति के लिए प्रेरित किया। उनके ओजस्वी भाषण को सुनकर सभी जोश और उत्साह से भर गए। उन्होंने सभी धर्मों के लोगों को मिलकर रहने एवं गांधीजी का साथ देने का अनुरोध किया।
उन्होंने नवयुवकों से स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने का आह्वान किया। इस अधिवेशन में नेताजी ने पट्टाभि सीतारमैया को हराया था और वे अध्यक्ष पद के लिए चुने गए थे, परन्तु सीतारमैया की हार को गांधीजी ने अपनी हार बताया। सुभाष नहीं चाहते थे कि कांग्रेस आपस के मतभेदों के कारण दो धड़ों में बंट जाए।
अतः उन्होंने गांधीजी के रोष प्रकट करने पर स्वयं ही कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया औ'फॉरवर्ड ब्लॉक' नाम के अलग दल की स्थापना की। उनकी सभाओं में बच्चे, नर-नारी व वृद्ध सभी शामिल होने लगे। वे सभी के प्रिय नेता बन चुके थे। इसके पश्चात् सुभाष ने कलकत्ता में बने हुए एक अंग्रेज़ी स्मारक को हटवाने के लिए आन्दोलन किया, जिसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा। स्मारक तोड़ दिया गया और नेताजी जेल से छूट भी गए, लेकिन जेल से बाहर आने पर अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें उनके घर में ही नज़रबन्द कर दिया। सरकार उन्हें अपने लिए एक बड़ी चुनौती समझती थी।
पंचम सर्ग
ब्रिटिश सरकार ने सुभाष को नज़रबन्द कर दिया था, जिससे वे बाहरी जगत् से लगभग पूरी तरह कट गए थे। उन तक बाहर का कोई भी समाचार नहीं पहुंच पाता था। यहाँ तक कि उन्हें अपने सम्बन्धियों से भी मिलने की अनुमति नहीं थी। पुलिस दिन-रात उन पर कड़ा पहरा रखती थी। मातृभूमि का सपूत इस प्रकार हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ सकता था। अतः उन्होंने वहाँ से बाहर निकलने की योजना बनाई। अवसर पाकर उन्होंने दाढ़ी बढ़ा ली और 15 जनवरी, 1941 की आधी रात को मौलवी का वेश धारण कर नज़रबन्दी का पहरा तोड़ कर भाग निकले।
कलकत्ता से वे पेशावर होते हुए काबुल गए और अपने मित्र उत्तमचन्द्र के यहाँ ठहरे। उत्तमचन्द्र ने सच्चे मित्र की भाँति सुभाषचन्द्र का साथ दिया और उन्हें देश से बाहर भेजने में सहायता की। छिपते-छिपाते वे जर्मनी पहुँचे। वहाँ नेताजी ने 'आज़ाद हिन्द फौज' का गठन किया। विदेशों में बसे हुए भारतीयों ने नेताजी का हर प्रकार से साथ दिया। फिर वे जापान होते हुए सिंगापुर भी गए, जहाँ रासबिहारी बोस ने उनका स्वागत किया। दोनों ने मिलकर आज़ाद हिन्द सेना को संगठित किया। इस सेना में सभी वर्गों और धर्मों के नर नारी शामिल थे। इस सेना में नेहरू, गांधी, बोस और आज़ाद नामक चार ब्रिगेड थे। नेताजी के मज़बूत नेतृत्व में इस सेना का हर सिपाही देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने के लिए तैयार था। भिन्न-भिन्न धर्मों के सैनिक होते हुए भी इस सेना में सभी परस्पर प्यार और भाईचारे से मिलजुल कर रहते थे।
षष्ठ सर्ग
सुभाष की सेना अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर शत्रु पर आक्रमण करने के लिए कमर कस चुकी थी। सिंगापुर में नेताजी ने अपने सैनिकों को सम्बोधित करते हुए कहा, “दो तुम रक्त मुक्ति दूँ तुमको"। दिल्ली के लालकिले पर तिरंगा झण्डा फहराना ही इस सेना का लक्ष्य था, उन्होंने अपनी सेना में अतीत का गौरव और भविष्य के प्रति आशा भरते हुए कहा
"विजय-श्री है तुम्हें बुलाती,वीरों! बढ़ते जाओ।"
नेताजी के इन वचनों का सेना पर गहरा प्रभाव पड़ा और हर सैनिक उत्साह से भर गया। 'जय भारत', 'जय सुभाष', 'जय गांधी' का नारा लगाते हुए सुभाष के नेतृत्व में आज़ाद हिन्द सेना आगे बढ़ने लगी और अंग्रेज़ों से लोहा लेने लगी। 18 मार्च, 1944 को आज़ाद हिन्द सेना ने कोहिमा पर अधिकार कर लिया और 'मोराई टिड्डिम' आदि स्थानों पर से भी अंग्रेज़ों को खदेड़ते हुए अराकान पर अपनी विजय पताका फहरा दी। अपने विजित क्षेत्रों की रक्षा करते हुए आजाद हिन्द फौज के सैनिकों ने उत्साहपूर्वक नए वर्ष 1945 का स्वागत किया।
सप्तम सर्ग
सप्तम सर्ग 'जय सुभाष' खण्डकाव्य का अन्तिम सर्ग है। कवि कहता है कि जय-पराजय, उन्नति-अवनति, सुख-दुःख, उठने-गिरने का क्रम संसार में सदा चलता रहता है। दुर्भाग्य से आज़ाद हिन्द फौज भी शत्रुओं से पराजित होने लगी। रंगून पर अंग्रेज़ों ने पुनः अधिकार कर लिया। से
इसी बीच अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों पर परमाणु बम गिरा दिए। इस नरसंहार को देखकर जापान ने जनहित को देखते हुए अमेरिका के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इससे आज़ाद हिन्द सेना के सैनिक व्याकुल हो उठे। सुभाष भी समझ गए कि इस समय युद्ध करना उनके पक्ष में नहीं है। उन्होंने आज़ाद हिन्द सेना के सैनिकों को अनुकूल समय की प्रतीक्षा करने के लिए कहकर उनसे विदा ली। सैनिकों ने गीले नयनों से अपने सेनानायक को विदा किया।
वे जहाज पर सवार होकर जापान के प्रधानमन्त्री हिरोहितो से मिलने जा रहे थे कि 18 अगस्त, 1945 को उनका जहाज ताइहोक में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। जापानी रेडियो ने सबसे पहले यह समाचार दिया कि नेताजी अब इस दुनिया में नहीं रहे, लेकिन भारत में इस समाचार को सत्य नहीं माना गया। आज भी जन-जन में यह चर्चा होती रहती है कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में मारे नहीं गए थे।
यह सच है कि नेताजी कभी मर नहीं सकते। वे हमेशा हमारे दिलों में प्रेरणा का दीपक बनकर जलते रहेंगे। उनके यश की गाथा भारत का इतिहास सदा सुनाता रहेगा। रंगून, सिंगापुर और भारत की माटी सदा उन्हें स्मरण करेगी। यद्यपि सुभाष अंग्रेज़ों पर पूरी तरह विजय प्राप्त नहीं कर पाए, लेकिन भारत की आज़ादी में उनके योगदान को सदा याद किया जाएगा।
नेताजी जैसे युग-पुरुष बहुत कम होते हैं। देश के हर नागरिक को उन पर गर्व है। वीरता और असाधारण प्रतिभा के धनी सुभाषचन्द्र बोस हमें देश के लिए जीने और देश के लिए मरने का सन्देश देते हैं।
प्रश्न 2. 'जय सुभाष' खण्डकाव्य का उद्देश्य सप्रमाण स्पष्ट कीजिए।
अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य से क्या सन्देश (शिक्षा) मिलता है?
उत्तर कवि विनोदचन्द्र पाण्डेय 'विनोद' द्वारा लिखित 'जय सुभाष' खण्डकाव्य का मुख्य प्रतिपाद्य विषय महान् स्वतन्त्रता सेनानायक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस
का जीवन चरित्र है। इस खण्डकाव्य में कवि ने उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं का संक्षिप्त रूप में वर्णन करते हुए उनके व्यक्तित्व की छवि प्रस्तुत की है।
नेताजी के चरित्र में स्वाभिमान, सेवा-भाव, मातृभूमि के प्रति प्रेम, राष्ट्रीयता, स्वतन्त्रता, दया, सहनशीलता, बौद्धिक प्रतिभा, युद्ध निपुणता, त्याग भावना आदि का अद्भुत समन्वय था। इस खण्डकाव्य में राय बहादुर जानकीनाथ, प्रभावती देवी, बेनीमाधव, महात्मा गांधी, चितरंजनदास, मोतीलाल नेहरू, रासबिहारी बोस आदि महापुरुषों का नाम भी आया है, परन्तु यहाँ उनकी चर्चा सुभाषचन्द्र बोस के व्यक्तित्व को उभारने के सन्दर्भ में ही हुई है। सुभाषचन्द्र ही इस खण्डकाव्य के नायक हैं। अतः इसका केन्द्रबिन्दु वही हैं।
'जय सुभाष' खण्डकाव्य के माध्यम से स्वतन्त्रता के अग्रणी नायक रहे सुभाषचन्द्र बोस को याद करना, उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना तथा उनकी गौरवगाथा कहकर भारत के प्रत्येक नागरिक को देश-प्रेम की सीख देना ही कवि का उद्देश्य है। कवि ने कहा भी है
“वीर सुभाष अनन्त काल तक, शुभ आदर्श रहेंगे।
युग-युग तक भारत के वासी, उनकी कथा कहेंगे।" नेताजी सुभाष के चरित्र चित्रण द्वारा कवि भारत की युवा पीढ़ी को देश-प्रेम, मानवता, स्वाभिमान, परोपकार आदि उदात्त गुणों को अपनाने के लिए प्रेरित करना चाहता है। उनका चरित्र प्रत्येक दृष्टि से अनुकरणीय है। अतः कवि हर भारतीय में उनकी चारित्रिक विशिष्टताओं को देखना चाहता है। सरल भाषा, किन्तु ओजपूर्ण शैली में लिखा यह खण्डकाव्य अपने उद्देश्यों की पूर्ति में काफी हद तक सफल रहा।
प्रश्न 3. 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के उन प्रमुख पात्रों का संक्षिप्त परिचय दीजिए, जिन्होंने सुभाष को विशेष रूप से प्रभावित किया।
उत्तर 'जय सुभाष' खण्डकाव्य महान् स्वतन्त्रता सेनानी और नेता, सुभाषचन्द्र बोस के संक्षिप्त जीवन-परिचय पर आधारित है। सुभाष जी जीवन पर्यन्त अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े रहे। उनके जीवन में कुछ ऐसे अवसर भी आए, जिनमें उस समय के कुछ प्रमुख व्यक्तित्वों ने उन्हें प्रभावित किया। उन्हें प्रभावित करने वाले व्यक्तियों में सर्वप्रथम उनके माता-पिता ही थे। इनकी माता श्रीमती प्रभावती देवी एक धर्म-परायण, उदार तथा साध्वी महिला थीं तथा सुभाष जी के पिता श्री जानकीनाथ बोस एक प्रबुद्ध तथा महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति थे। सुभाष जी के जीवन पर इन दोनों का प्रभाव समान रूप से पड़ा। बचपन में उनकी माता उन्हें राम, कृष्ण, अर्जुन, भीम, शिवाजी, प्रताप, महावीर, भगवान बुद्ध, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब आदि महान् व्यक्तियों की कहानियाँ सुनाती थी, जिससे उनमें वीरता तथा साहस के संस्कार आ गए।
इसी प्रकार सुभाषजी अपने जीवन में अनेक महापुरुषों से प्रभावित हुए और उनका अनुकरण करते रहे। सुरेश बनर्जी के सम्पर्क में आने के पश्चात् उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा ली। स्वामी विवेकानन्द के आख्यानों को सुनकर वे मथुरा, हरिद्वार, वृन्दावन, काशी व हिमालय की कन्दराओं में गए। अपने राजनैतिक गुरु देशबन्धु चितरंजनदास के सम्पर्क में आने के पश्चात् उन्होंने उनके नेतृत्व में स्वतन्त्रता से सम्बन्धित गतिविधियों में भाग लेना आरम्भ कर दिया। जर्मनी पहुँचने पर वे रासबिहारी बोस से मिले। वहाँ उन दोनों ने मिलकर आजाद हिन्द सेना का संगठन किया। इस सेना में सभी वर्गों के तथा सभी धर्मों के नर-नारी शामिल थे। इसी प्रकार सुभाषचन्द्र बोस जीवन भर अनेक महान् स्वतन्त्रता सेनानियों के सान्निध्य में रहे और भारत माता की सेवा में रत रहकर उसे गुलामी की जंजीरों से आजादी दिलाने का भरपूर प्रयत्न करते रहे।
चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 4. 'जय सुभाष' के प्रधान पात्र का चरित्रांकन कीजिए।
अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के आधार पर सुभाषचन्द्र बोस का चरित्र चित्रण कीजिए।
'अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के आधार पर सुभाषचन्द्र बोस की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के नायक की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के आधार पर सुभाषचन्द्र बोस का चरित्रांकन कीजिए।
अथवा 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र (सुभाष) की चारित्रिक विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर 'जय सुभाष' खण्डकाव्य के रचयिता विनोदचन्द्र पाण्डेय 'विनोद' हैं। इसके नायक महान् स्वतन्त्रता सेनानी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस हैं, उनके चरित्र की उल्लेखनीय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. असाधारण प्रतिभा के धनी सुभाषचन्द्र बोस प्रखर प्रतिभाशाली और बुद्धिमान थे। उनकी कुशाग्र बुद्धि का परिचय बाल्यकाल से ही मिलना आरम्भ हो गया था। उनकी योग्यता एवं उपलब्धियों से उनके माता-पिता और शिक्षकगण सभी प्रभावित थे। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करके सभी को विस्मित कर दिया। इसके पश्चात् बी.ए. की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की। उन्होंने अपने पिता की इच्छा का मान रखते हुए आई.सी.एस. की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। उस समय आई.सी.एस. की परीक्षा में सफल होना भारतीयों के लिए अत्यन्त कठिन था।
2. समाज सेवक सुभाषचन्द्र बोस ने बचपन में ही अपने गुरु बेनीमाधव के प्रभाव में आकर समाज सेवा का सदगुण अपना लिया था। वह दीन, दुखियों और असहायों की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहते थे। बचपन में जब जाजपुर ग्राम में महामारी फैली तो सुभाष रोगियों की सेवा में दिन-रात जुटे रहे और जाजपुर के रोग-मुक्त होने पर ही घर लौटे। इस प्रकार जब बंगाल प्रान्त में भयंकर बाढ़ आई, तो उन्होंने अपने प्राणों की परवाह किए बिना पीड़ितों को हर सम्भव सहायता पहुँचाई। उनके लिए कवि ने कहा है
"सेवा करने में सुभाष को मिलता था सुख भारी।
बने रहे वह आजीवन ही, पर सेवा व्रत धारी ।।"
3. परम देशभक्त और स्वाभिमानी सुभाषचन्द्र बोस में देशभक्ति और स्वाभिमान की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। एक बार कॉलेज में उन्होंने अपने शिक्षक को इसलिए तमाचा जड़ दिया था कि वह भारत और भारतवासियों का अपमान करता रहता था। इसके लिए उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया, किन्तु उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। देशभक्ति की भावना के कारण ही उन्होंने आई.सी.एस. के पद से त्याग-पत्र दे दिया। था।
वह जीवनभर अंग्रेज़ों से लोहा लेते रहे। उन्होंने देश-विदेश में रहकर भारत को स्वतन्त्र कराने के सराहनीय प्रयास किए। इसके लिए उन्होंने आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना भी की।
4. ओजस्वी वक्ता एवं लोकप्रिय नेता सुभाषचन्द्र बोस एक ओजस्वी वक्ता थे। उनके भाषण सुनकर बच्चे, बूढ़े, युवक, युवतियाँ सभी जोश और उत्साह से भरकर देश सेवा के लिए समर्पित हो जाते थे। अपने ओजस्वी भाषणों से उन्होंने छात्रों से लेकर आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों को प्रेरित किया। उनके द्वारा दिए गए नारे 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा' को सुनकर आज भी लोग देशभक्ति की भावना से भर जाते हैं।
वे साधारण जनता में अत्यन्त लोकप्रिय थे। वह जहाँ भी जाते थे, वहीं भीड़ जुट जाती थी। उनकी एक आवाज़ पर हो हज़ारों युवक आज़ाद हिन्द फौज में शामिल हो गए थे। जन साधारण का उनके प्रति प्रेम देखकर सरकार को कई बार झुकना पड़ा और उन्हें कैद से रिहा करना पड़ा।
5. नीति-कुशल एवं महान् स्वतन्त्रता सेनानी सुभाषचन्द्र बोस बुद्धिमान होने के साथ-साथ नीति-कुशल भी थे। उनकी नीति-कुशलता केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं थी, वरन् युद्ध में भी दिखाई पड़ती है, उन्होंने विदेश में रहकर भी भारत को स्वतन्त्रता दिलवाने के लिए अनेक प्रयत्न किए। आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना इसी का परिणाम था। उनके कुशल नेतृत्व में इस सेना ने मेघालय को स्वतन्त्र भी करा लिया था। देश को स्वतन्त्र कराने के लिए वह अनेक बार जेल भी गए। अतः वे एक महान् स्वतन्त्रता सेनानी थे, यह स्वयं सिद्ध है।
6. आदर्श नायक सुभाषचन्द्र बोस एक आदर्श नायक थे, उनके चरित्र से हमें सहनशीलता, त्याग- भावना, राष्ट्रीयता, सेवा-भाव आदि की प्रेरणा मिलती है। वह दीन-दुखियों के लिए जितने कोमल हैं, शत्रुओं के लिए उतने ही कठोर हैं। वह भाषण देने में माहिर हैं, तो लड़ने में भी निपुण हैं। उन्होंने 'दि स्ट्रगल' पुस्तक लिखकर सिद्ध किया कि वे कलम और बन्दूक दोनों के सिपाही हैं। अतः उनका चरित्र हर दृष्टि से आदर्श चरित्र है।
“यों तो हुए देश में अगणित स्वतन्त्रता सेनानी। पर उनमें नेता सुभाष - सी कम की दिव्य कहानी ।।"
7. वीर नायक सुभाषचन्द्र बोस की वीरता, साहस, त्याग, उत्साह से सब लोग विस्मित थे। अंग्रेज प्राय: उनसे भयभीत रहते थे। अनेक बार उन्हें जेल में बन्द किया गया। जेल से मुक्त होने के पश्चात् उन्हें अपने घर पर ही नज़रबन्द रखा गया। उनके घर पर शासन का हमेशा पहरा लगा रहता था, पर वे कब चुप बैठने वाले थे। वे अपनी दाढ़ी बढ़ाकर तथा मौलवी का वेश धारण करके वहाँ से भाग निकले। जापान जाकर उन्होंने 'आज़ाद हिन्द फौज' का गठन किया, उन्होंने अपने भाषणों से वहाँ की जनता में नवचेतना जगाई। इस प्रकार सुभाषचन्द्र बोस एक वीर नायक थे।
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस त्याग, अदम्य साहस, संघर्ष और नेतृत्व क्षमता के मूर्तिमान प्रतीक थे। उनकी ये सभी विशेषताएँ युगों-युगों तक देशवासियों को प्रेरित करती रहेंगी। उनमें एक नायक के सारे गुण विद्यमान थे।
अतः इस खण्डकाव्य का शीर्षक 'जय सुभाष' सर्वथा उचित है।
06'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य
कथासार/कथानक / कथावस्तु/ विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 1. 'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग (संकल्प) का सारांश लिखिए।
अथवा 'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य के आधार पर द्वितीय सर्ग की कथावस्तु का उल्लेख कीजिए।
अथवा 'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य के संकल्प सर्ग का कथा-सार लिखिए।
अथवा 'मातृभूमि लिए' खण्डकाव्य की कथावस्तु/कथानक संक्षेप (कथासार) में लिखिए।
अथवा 'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर 'मातृभूमि के लिए' नामक खण्डकाव्य 'डॉ. जयशंकर त्रिपाठी' द्वारा रचित है। महान् स्वतन्त्रता सेनानी चन्द्रशेखर 'आज़ाद' के जीवनचरित पर आधारित यह खण्डकाव्य तीन सर्गों में विभाजित है। इसका कथासार निम्नलिखित है
प्रथम सर्ग (संकल्प)
15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्रता मिलने से पूर्व हमारा देश अंग्रेज़ों का गुलाम था। अंग्रेज़ अपने देश ब्रिटेन को समृद्ध करने के लिए हमारे देश की सम्पदा लूट रहे थे। देश के सभी उद्योग-धन्धे, व्यापार आदि नष्ट कर दिए गए थे। राजा-महाराजा अंग्रेज़ों के अनुयायी बनकर भोग-विलास में लिप्त थे। अंग्रेज़ों के अत्याचारों और अन्याय से त्रस्त जनता ने तब स्वयं ही उनका प्रतिकार करने की ठानी। अपनी स्वतन्त्रता एवं अधिकारों को प्राप्त करने के लिए देश के अनेक वीरों ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी।
लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी आदि जैसे महान् नेताओं के नेतृत्व में जनता अंग्रेजी सरकार का डटकर सामना कर रही थी। जब गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन का आह्वान किया तो जनता ने उसमें बढ़-चढ़कर अपना योगदान दिया, लेकिन अंग्रेज़ी सरकार का दमन-चक्र चलता रहा। उसी समय महान् स्वतन्त्रता सेनानी और क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद का नाम प्रकाश में आया। चन्द्रशेखर आज़ाद का जन्म झाबरा ग्राम के एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उस छोटे से गाँव में मुसलमानों और भीलों का आधिक्य था। बड़ा होने पर चन्द्रशेखर को विद्याध्ययन के लिए काशी भेजा गया। बालक चन्द्रशेखर स्वभाव से अत्यन्त सुशील था, परन्तु अंग्रेज़ों के अत्याचार सुन-सुनकर उसका रोष बढ़ता जाता था। तब भारत में रौलेट एक्ट लाया गया। रौलेट द्वारा बनाए गए इस एक्ट में राष्ट्रभक्तों पर राजद्रोह का अभियोग चलाकर दण्ड देने का प्रावधान था तथा उनके लिए जमानत का कोई विकल्प नहीं था।
इसमें सन्देह के आधार पर ही सारी कानूनी कार्यवाही करने का नियम था। कहने के लिए यह जनता के हितों की रक्षा करने के लिए था, परन्तु इसमें ब्रिटेन में बैठी विदेशी सरकार का ही हित निहित था। इस रौलेट एक्ट का देशभर में विरोध किया गया। जगह-जगह सभाएँ आयोजित की गईं। पंजाब में व्यापक स्तर पर जनता का रोष उभरकर सामने आया। वर्ष 1919 के अप्रैल माह में वैशाखी का उत्सव था। इस दिन जलियाँवाला बाग में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया। इसका उद्देश्य रौलेट एक्ट का विरोध करना था। इसमें महिलाओं, पुरुषों, बच्चों, वृद्धों आदि ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। नेताओं ने भाषण दिए और विदेशी सरकार की निन्दा की। इन सारी गतिविधियों पर अंग्रेज़ी सरकार नज़र रखे सभा अभी चल रही थी कि अचानक गोलियों की बरसात होने लगी। हुए थी।
जनरल डायर के कहने पर लगभग 50 सैनिकों ने जलियाँवाला बाग में एकत्रित लोगों पर अन्धाधुन्ध गोलियाँ चलाईं। इस नर-संहार में हज़ारों लोग मारे गए। इस घटना को इतिहास की क्रूरतम घटनाओं में से एक माना जाता है, लेकिन अंग्रेज़ी सरकार के प्रतिनिधि जनरल डायर को इससे सन्तोष न हुआ। उसने अमृतसर में मार्शल लॉ लगाकर क्रूरता की सारी सीमाएँ तोड़ दीं। वहाँ 150 गज लम्बी एक गली थी। उस गली में दमन के विरोध में एक महिला पर हमला हुआ था। डायर के आदेशानुसार उस गली से गुजरने के लिए भारतवासियों को पेट के बल रेंगते हुए उसे पार करना पड़ता था। छोटा हो या बड़ा, नर हो या नारी, बूढ़ा हो या जवान सभी के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया था।
ये अमानुषिक खबरें अखबारों में छपी। चन्द्रशेखर को अखबार पढ़ने की आदत थी। जब उन्होंने रोज की तरह अखबार पढ़ा, तो अंग्रेज़ों द्वारा दी जाने वाली इन यातनाओं को पढ़कर उनका खून खौल उठा। उन्होंने तभी निश्चय कर लिया कि वे अपने देश को स्वतन्त्र कराकर रहेंगे। वे अपना अध्ययन छोड़कर गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। इस आन्दोलन का दमन करने के लिए अंग्रेज़ों ने फिर क्रूर रास्ता अपनाया, पर जनता को उनकी लाठियों की चिन्ता नहीं थी। अनेक नेताओं के साथ बालक चन्द्रशेखर को भी गिरफ्तार कर लिया गया। सजा देने के लिए चन्द्रशेखर को मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया गया। मजिस्ट्रेट ने जब चन्द्रशेखर से उनका नाम पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया- 'आज़ाद'। उन्होंने अपने पिता का नाम स्वाधीन बताया। मजिस्ट्रेट ने कुपित होकर उनको सोलह बेतों की सजा दी। उस समय उनकी आयु केवल पन्द्रह वर्ष थी। उनकी आयु को देखते हुए सोलह बेतों की सजा बहुत अधिक थी। सजा पाकर चन्द्रशेखर बाहर आए तो जनता ने उनको सिर आँखों पर बैठाया। फूल-मालाओं से उनका स्वागत किया गया। इसी घटना के पश्चात् उनका नाम 'आज़ाद' पड़ गया।
द्वितीय सर्ग (संघर्ष)
इस घटना के पश्चात् आज़ाद ने ठान लिया था कि अब तन-मन-धन से मातृभूमि की सेवा करनी है
"आजाद हुआ आजाद पुनः सब बन्धन से बँध गया एक ही बन्धन में, निज जीवन में वह राष्ट्र भक्ति का बन्धन था, सौभाग्य वड़ा जीवन का होता जो त्रिकाल में, त्रिभुवन में।"
आज़ाद ने देश के युवाओं में क्रान्ति की ज्वाला भड़का दी। उनके नाम को सुनकर ही युवक स्वतन्त्रता की खातिर लड़ने को तैयार हो जाते थे। उनके शौर्य और साहस पर मानो प्रकृति भी मोहित हो गई थी। असहयोग आन्दोलन जब मन्द पड़ गया तो आज़ाद-शस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गए। आज़ाद घर-बार सब कुछ छोड़कर ब्रिटिश शासन से टक्कर लेने लगे, उन्होंने अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए पिस्तौल और बमों का निर्माण भी करवाया।
इनके लिए जब धन की आवश्यकता हुई तो आज़ाद ने सरकारी खजानों को लुटवाना आरम्भ कर दिया। आज़ादी की खातिर उन्होंने ड्राइवरी सीखी और पैसे की खातिर एक मठाधीश के शिष्य बने। उन्होंने काकोरी में सरकारी खजाने को लूटा था, जो एक बड़ा कदम था। इस प्रकरण में रोशन, अशफाक और रामप्रसाद बिस्मिल को फाँसी की सजा मिली। बख्शी को आजीवन कारावास मिला तथा अन्य पन्द्रह को तीन वर्ष की कठोर जेल की सजा मिली। आज़ाद और भगतसिंह बच निकले थे। उनके हृदय में क्रान्ति की ज्वाला भड़क रही थी। वे अन्य क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर आगे की योजनाओं पर कार्य कर रहे थे। वर्ष 1928 में साइमन कमीशन भारत आया, जो भारत के झगड़ों व समस्याओं पर विचार करने आया था। उस दल के सारे सदस्य अंग्रेज़ थे। अतः साइमन कमीशन का भारी विरोध हुआ। देश भर में जहाँ-जहाँ साइमन कमीशन गया, उसका भारी विरोध हुआ।
"फिर जहाँ कमीशन गया वहाँ ही तीव्र रोष था बहिष्कार अपमान और जन-रोष मिला, लाठियाँ पुलिस बरसाती, होती जयकारे, शासन की सारी शान और सब जोश हिला।"
स्वयंसेवकों ने भी साइमन कमीशन का विरोध किया, इसका विरोध करने पर लखनऊ में जवाहरलाल नेहरू लाठियों के प्रहार से घायल हुए। उधर लाहौर में लाला लाजपत राय पर भी लाठियाँ पड़ीं। इंगित
"था पुलिस ऑफिसर वहाँ स्काट करके निर्मम प्रहार करवाता रहा खड़े होकर, पंजाब केसरी वयोवृद्ध ने सहन किया मन से, तन से योगी सम परम परे होकर।"
किन्तु बाद में उनका घायल अवस्था में देहान्त हो गया, उनकी मृत्यु से देशभर में शोक छा गया। उस समय पूर्वी भारत में चन्द्रशेखर आज़ाद क्रान्ति की लौ जला रहे थे और पंजाब तथा दिल्ली में सरदार भगतसिंह चन्द्रशेखर आज़ाद और भगतसिंह ने संयुक्त रूप से दिल्ली के फिरोजशाह मेले में क्रान्तिकारियों का सम्मेलन आयोजित किया। इस क्रान्तिकारी सम्मेलन में आज़ाद, बटुकेश्वर, यतीन्द्र, सरदार भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि सभी देशभक्त क्रान्तिकारी आए। उन सबका एक ही लक्ष्य था— अंग्रेज़ी शासन को जड़ सहित उखाड़ फेंकना, इन्होंने मिलकर 'सोशलिस्ट गणतन्त्र सैन्य' की स्थापना की। आज़ाद इस संगठन के नेता चुने गए। इस संगठन के सभी सदस्य स्वतन्त्रता सेनानी थे, किन्तु यह सारी कार्यवाही अत्यन्त गुप्त रूप से हुई थी। एक दिन लाहौर के पुलिस कार्यालय से एक गोरा अफसर निकला। सरदार भगतसिंह और राजगुरु ने उसे लक्ष्य बनाकर गोलियाँ दागीं। अफसर लहूलुहान होकर नीचे गिर पड़ा और मर गया। भगतसिंह और राजगुरु तत्काल वहाँ से भागे, परन्तु पुलिस का एक सिपाही भगतसिंह के पीछे लग गया। आज़ाद उस समय वहीं थे।
उन्होंने उसे देख लिया था। आज़ाद ने उसी क्षण उसे अपनी गोली का निशाना बनाकर ढेर कर दिया। मारा गया गोरा अफसर साण्डर्स था। इस घटना भयभीत होकर विदेशी सरकार ने असेम्बली में 'जनता-रक्षा बिल' लाने की तैयारी की। सरकार की ओर से दो बार यह बिल पेश किया गया, लेकिन विट्ठलभाई की अध्यक्षता में दोनों बार यह बिल पारित न हो सका। उधर अंग्रेज़ी शासन दिनोदिन बढ़ती देशभक्ति की ज्वाला से भयभीत हो रही थी।
इसी बीच 8 अप्रैल को असेम्बली में बम धमाका हुआ। सारा भवन धुएँ से भर गया। बम धमाके की गूँज के साथ-साथ भारतमाता की जय-जयकार के स्वर भी सुनाई दे रहे थे। जयकारे लगाने वाले दो वीर, सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त थे। दोनों को तुरन्त गिरफ्तार कर लिया गया। पहले उन्हें आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया, परन्तु बाद में लाहौर काण्ड का अभियुक्त भी बनाकर उन्हें राजद्रोह के अपराध में फांसी की सजा दी गई। अब संगठन का सारा कार्यभार आज़ाद पर आ गया था।
"भारत माता का मस्तक अब गर्वोन्न्त था।
पर आँखें थीं आँसू के जल में भीग गई, ये लाल चढ़ गए बलिवेदी पर और इधर था स्वतन्त्रता-रण शेष अभी होना विजयी।"
तृतीय सर्ग (बलिदान)
इस सर्ग का आरम्भ चन्द्रशेखर आज़ाद और उनके मित्र रुद्र के मध्य हो रहे वार्तालाप से आरम्भ होता है। वे दोनों इस समय सातार नदी के किनारे बैठे हुए हैं। आज़ाद चिन्तामग्न होकर रुद्र से कहते हैं कि आखिर हमारी पावन भूमि कब तक गुलाम रहेगी। तब रूद्र उन्हें समझाते हैं कि हमारे काफी मित्र पकड़े गए हैं, कही तुम भी अत्याचारी अंग्रेज़ों की गिरफ्त में न आ जाओ। अतः इस समय तुम्हें स्वयं को बचाए रखना चाहिए और संगठन की सक्रियता से दूरी बनाकर रखो। शक्ति-संचय करके अकस्मात् ही विस्फोट करना उचित होगा। इससे अंग्रेज़ दहल उठेंगे। आज़ाद गम्भीर होकर उसकी बातें सुन रहे थे।
आज़ाद उसकी बातें सुनकर अधीर हो गए। सूर्य की लालिमा में गुस्से से उनका मुख और भी लाल हो गया। वे कहने लगे, "अंग्रेजों ने अब तक हमें पीड़ा ही दी है। मैं अंग्रेज़ो का शासन समाप्त करके ही रहूँगा। बिस्मिल, अशफाक, रुधिर, खुदीराम बोस, रोशन, यतीन्द्र, बादशाह जफर के बेटे आदि को उन्होंने मार दिया। भगतसिंह और राजगुरु को भी प्राणदण्ड मिला है और अभी कैद में है। इनका बदला लेने के लिए और भारतमाता को स्वतन्त्र कराने के लिए मैं निश्चय ही मज़बूत होकर लडूंगा। मुझे सेना के युवकों को संगठित करना होगा। मैं हाल ही में चटगांव के सूर्यसेन से मिलकर लौटा हूँ। हमारा देश स्वतन्त्र होकर रहेगा।"
तभी उन्हें गणेश शंकर विद्यार्थी के साथ दो वर्ष पूर्व हुई मुलाकात ध्यान में आती है। रुद्र को बताते हुए वे कहते हैं कि कानपुर राष्ट्रसेवकों की संगम-स्थली है। वहाँ 'प्रताप' समाचार पत्र का कार्यालय, जिसके सम्पादक विद्यार्थी जी हैं, क्रान्तिकारियों का आश्रय स्थल है। एक बार फूलबाग में एक सभा हो रही थी। नेता का भाषण हो रहा था। मैं भी श्रोता बनकर सब कुछ सुन रहा था। विद्यार्थी जी को सन्देह हुआ कि नेता की अहिंसा और असहयोग की बातें सुनकर मुझे रोष न आ जाए तथा मैं सभा भंग न कर दूँ। इसलिए वे मुझे नेता की बातों पर ध्यान न देने की सलाह देते हैं, लेकिन उनका यह विचार भ्रम था। मुझे अपनी रक्षा का ध्यान था। जैसे ही लोगों को पता चला कि मैं उस सभा में उपस्थित हूँ, मैं तत्काल सभा से प्रस्थान कर गया। सबको मुझ पर अटल विश्वास और श्रद्धा है। इसलिए मुझे बीती बातों से शिक्षा लेकर संगठन को फिर से खड़ा करना है। वह आगे कहते हैं कि मैं प्रयाग जाकर जवाहरलाल से मिलना चाहता हूँ। फिर कानपुर जाकर पार्टी की सुध लूँगा। प्रयाग में जाकर इस संकट को दूर करने का उपाय सोचूँगा।
अगले दृश्य में चन्द्रशेखर आज़ाद प्रयाग में स्थित अल्फ्रेड पार्क में अपने मित्रों के साथ गम्भीर वार्तालाप कर रहे थे। वह पार्क दिन-रात सूना पड़ा रहता था। शायद वे अपने मित्रों के साथ वहाँ किसी का इन्तजार कर रहे थे, परन्तु अवधि बीत जाने पर उसके न आने पर वहाँ से निकलने वाले थे। उन्हें लगा कि उनके साथ गद्दारी हुई है, तभी पुलिस की गाड़ी वहाँ आकर रुकी। उनका शक सही निकला। उन्होंने उसी क्षण मित्रों को विदा किया और बन्दूक में गोलियाँ भरकर मोर्चा सँभारत पहली ही गोली में उन्होंने एक देशी अफसर का जबड़ा उड़ा दिया, जिसे लिया। देखकर एस.पी. नाटबावर सकते में आ गया। एक घण्टे तक पुलिस और आज़ाद के बीच भयंकर युद्ध हुआ।
"यह एक दण्ड का युद्ध महा विस्मयकारी भयकारी था। इतिहास लगा कहने, ऐसा न लड़ा राघव वनचारी था।" आज़ाद का साहस देखकर पुलिस बल सहम गया था। लड़ते-लड़ते नाटबावर की कलाई भी आज़ाद की गोली से उड़ गई थी।
"भारत की कोटि-कोटि जनता का मुक्ति सिपाही एकाकी,
लड़ता था, साहस था असीम, सीमा थी शासन सत्ता की।" आस-पास का सारा वातावरण गोलियों की आवाज़ से गूंज उठा, लेकिन उधर आज़ाद के पास गोलियाँ खत्म हो गईं। जब एक गोली शेष रह गई तो वह असमंजस में पड़ गए कि क्या पुलिस के हाथों जीवित पकड़ा जाऊँ? परन्तु कुछ क्षण बाद आज़ाद ने पिस्तौल अपनी कनपटी पर तान कर स्वयं को ही गोली मार ली। उनकी इस विस्मयकारी और साहसिक मुत्यु पर अंग्रेज़ अधिकारी नाटबावर को सन्देह था। इसलिए उसने आज़ाद के मृत शरीर के पास पहुँचकर उनके पैर पर गोली मारकर यह परखा कि कहीं वह जिन्दा तो नहीं है। उनकी मृत्यु ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया। अपने इस महान् नायक को खोकर जनता की आँखें गीली थीं। आज भी साधारण जन आज़ाद के नाम को बड़ी श्रद्धा से याद करता है और उनके शौर्य की गाथा गाता है।
“मरने पर भी डर रहा, जनरल बन कर क्षुद्र वन्दनीय तुम राष्ट्र के, साहस शौर्य समुद्र गाकर तेरा चरित यह, मिटता हर्ष-विषाद राष्ट्र प्रेम जगता प्रबल, शौर्य-मूर्ति 'आज़ाद'।''
प्रश्न 2. 'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर 'मातृभूमि के लिए' नामक खण्डकाव्य के नायक प्रसिद्ध क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद हैं। डॉ. जयशंकर त्रिपाठी कृत इस खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य विषय उनका ही जीवन-चरित्र है। चन्द्रशेखर आज़ाद का जन्म एक छोटे से गाँव में हुआ था, लेकिन वे केवल अपने गाँव तक ही सीमित नहीं रहे। उनके ओजस्वी एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व ने पूरे भारतवर्ष को उनका दीवाना बना दिया था। इस खण्डकाव्य में कवि ने उनके जीवन की सभी घटनाओं को शामिल न करते हुए संक्षिप्त में ही उनका जीवन परिचय दिया है। कवि ने उनके जीवन के प्रेरणादायी प्रसंगों को अवश्य ही पर्याप्त स्थान दिया है। उनके चरित्र का वर्णन कर आज की
युवा पीढ़ी के मन में राष्ट्र एवं राष्ट्रभक्तों के प्रति सम्मान, श्रद्धा तथा प्रेम का भाव
जगाना ही इस खण्डकाव्य के रचयिता का उद्देश्य है। आज़ाद, भारत के अमर शहीद क्रान्तिकारियों में अग्रणी स्थान रखते हैं। बाल्यकाल से ही क्रान्तिकारी गतिविधियों में संलग्न हो जाने वाले आज़ाद ने निःस्वार्थ भाव से देश-सेवा की। उनका केवल एक ही लक्ष्य था- अपने देश को गुलामी की जंजीरों से आज़ाद कराना। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उन्होंने अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा सांसारिक रिश्ते-नातों का भी पूरी तरह से त्याग कर दिया था। उनका पूरा जीवन मातृभूमि के लिए ही था। इस प्रकार 'मातृभूमि के लिए' जीने-मरने वाले इस वीर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा गया यह खण्डकाव्य अनुपम है। अतः इस खण्डकाव्य के केन्द्रीय भाव को स्पष्ट करने वाला इसका शीर्षक 'मातृभूमि के लिए' पूरी तरह से सार्थक एवं उपयुक्त है।
चन्द्रशेखर आज़ाद का पूरा जीवन ही प्रेरणादायी है। जिन परिस्थितियों में उन्होंने अंग्रेज़ी सरकार से लोहा लिया और अन्त में लड़ते हुए वीरोचित गति पाई, वह अत्यन्त मार्मिक है। उनका असीम साहस, त्याग, बलिदान और देश-प्रेम हमारे लिए किसी धरोहर से कम नहीं है। आने वाली पीढ़ियों को हमेशा उनसे प्रेरणा मिलती रहेगी। चन्द्रशेखर आज़ाद के योगदान को रेखांकित करते हुए लिखा गया यह खण्डकाव्य युवाओं को प्रेरित करने के उद्देश्य से ही लिखा गया है और अपनी इस उद्देश्य पूर्ति में इसे एक सफल कृति माना जा सकता है।
प्रश्न 2. 'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर 'मातृभूमि के लिए' नामक खण्डकाव्य के नायक प्रसिद्ध क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद हैं। डॉ. जयशंकर त्रिपाठी कृत इस खण्डकाव्य का प्रतिपाद्य विषय उनका ही जीवन चरित्र है। चन्द्रशेखर आज़ाद का जन्म एक छोटे से गाँव में हुआ था, लेकिन वे केवल अपने गाँव तक ही सीमित नहीं रहे। उनके ओजस्वी एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व ने पूरे भारतवर्ष को उनका दीवाना बना दिया था।
इस खण्डकाव्य में कवि ने उनके जीवन की सभी घटनाओं को शामिल न करते हुए संक्षिप्त में ही उनका जीवन परिचय दिया है। कवि ने उनके जीवन के प्रेरणादायी प्रसंगों को अवश्य ही पर्याप्त स्थान दिया है। उनके चरित्र का वर्णन कर आज की युवा पीढ़ी के मन में राष्ट्र एवं राष्ट्रभक्तों के प्रति सम्मान, श्रद्धा तथा प्रेम का भाव जगाना ही इस खण्डकाव्य के रचयिता का उद्देश्य है।
आज़ाद, भारत के अमर शहीद क्रान्तिकारियों में अग्रणी स्थान रखते हैं। बाल्यकाल से ही क्रान्तिकारी गतिविधियों में संलग्न हो जाने वाले आज़ाद ने नि:स्वार्थ भाव से देश-सेवा की। उनका केवल एक ही लक्ष्य था-अपने देश को गुलामी की जंजीरों से आज़ाद कराना। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उन्होंने अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा सांसारिक रिश्ते-नातों का भी पूरी तरह से त्याग कर दिया था। उनका पूरा जीवन मातृभूमि के लिए ही था। इस प्रकार 'मातृभूमि के लिए' जीने-मरने वाले इस वीर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा गया यह खण्डकाव्य अनुपम है। अतः इस खण्डकाव्य के केन्द्रीय भाव को स्पष्ट करने वाला इसका शीर्षक 'मातृभूमि के लिए' पूरी तरह से सार्थक एवं उपयुक्त है।
चन्द्रशेखर आज़ाद का पूरा जीवन ही प्रेरणादायी है। जिन परिस्थितियों में उन्होंने अंग्रेजी सरकार से लोहा लिया और अन्त में लड़ते हुए वीरोचित गति पाई, वह अत्यन्त मार्मिक है। उनका असीम साहस, त्याग, बलिदान और देश-प्रेम हमारे लिए किसी धरोहर से कम नहीं है। आने वाली पीढ़ियों को हमेशा उनसे प्रेरणा मिलती रहेगी। चन्द्रशेखर आज़ाद के योगदान को रेखांकित करते हुए लिखा गया यह खण्डकाव्य युवाओं को प्रेरित करने के उद्देश्य से ही लिखा गया है और अपनी इस उद्देश्य पूर्ति में इसे एक सफल कृति माना जा सकता है।
चरित्र चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 3. 'मातृभूमि के लिए' खण्डकाव्य के आधार पर 'चन्द्रशेखर आज़ाद का चरित्र चित्रण कीजिए।
अथवा 'चन्द्रशेखर आजाद उत्कृष्ट देश प्रेमी थे।' खण्डकाव्य के आधार पर पुष्टि कीजिए।
अथना 'मातृभूमि के लिए खण्डकाव्य के किसी एक पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए।
अथवा 'मातृभूमि के लिए खण्डकाव्य के आधार पर नायक का चरित्रांकन कीजिए।
अथना 'मातृभूमि के लिए खण्डकाव्य के नायक की चारित्रिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर डॉ. जयशंकर त्रिपाठी द्वारा रचित 'मातृभूमि के लिए खण्डकाव्य अमर स्वतन्त्रता सेनानी चन्द्रशेखर आज़ाद को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। वे इस खण्डकाव्य के नायक हैं। उनके चरित्र की प्रमुख अनुकरणीय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. प्रभावशाली व्यक्तित्व ब्राह्मण परिवार में जन्मे चन्द्रशेखर आजाद का व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावशाली था। वह राष्ट्रभक्त अति बाँका था।' कहकर कवि ने उनके शारीरिक सौन्दर्य की छवि प्रस्तुत की है। इसके अतिरिक्त, व्यावहारिक रूप से भी उनका व्यक्तित्व चुम्बक के समान आकर्षक था। उनके एक आह्वान पर हज़ारों युवक स्वतन्त्रता के खातिर अपने प्राणों की बाजी लगाने के लिए तैयार हो जाते थे।
2. महान् क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद बचपन से ही क्रान्तिकारी स्वभाव के थे। जलियाँवाला बाग और 150 गज लम्बी गली को पेट के बल रेंग कर पार करने की घटनाओं ने उनके भीतर सोए हुए क्रान्तिकारी को जगा दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे काशी में अध्ययन को छोड़कर असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। बाद में उन्होंने क्रान्तिकारी दल 'सोशलिस्ट गणतन्त्र सैन्य' नामक दल की स्थापना की। उन्होंने बम फैक्ट्री की स्थापना भी की थी। उनके नेतृत्व में सरकारी खजाने लूटे गए। लाला लाजपतराय की हत्या का बदला भी उन्हीं की प्रेरणा से लिया गया था।
3. साहसी एवं निर्भीक चन्द्रशेखर आज़ाद के साहस की तुलना किसी अन्य वीर से करना बेईमानी होगी। मात्र पन्द्रह वर्ष की उम्र में मिली सोलह बेतों की सजा को भी उन्होंने हँसते-हँसते झेला था। मजिस्ट्रेट द्वारा नाम पूछने पर उन्होंने अपना नाम 'आज़ाद' और पिता का नाम 'स्वाधीन' बताया था। उनकी इस निर्भयता से कुपित होकर ही मजिस्ट्रेट ने उनको सोलह बेतों का कड़ा दण्ड दिया था। उनके साहस से अंग्रेज़ी सरकार भी सदा आतंकित रहती थी "जननी का एक लाल इसमें सागर-सी वाणी जिसकी थी, सुन करके जिसका उग्र रोष, सरकार बितानी काँपती थी।" अल्फ्रेड पार्क में शहीद होने से पूर्व उन्होंने अकेले ही अंग्रेज़ सैनिकों से टक्कर ली। अंग्रेज़ों में उनका खौफ था कि वे आज़ाद के मृत शरीर के पास आने की हिम्मत भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाए थे।
4. महान् देशभक्त एवं स्वतन्त्रता सेनानी आज़ाद में देशभक्ति की भावना बहुत प्रबल थी। वह अपनी मातृभूमि के प्रति अगाध स्नेह रखते थे और इसे स्वतन्त्र कराने के प्रति दृढ़ निश्चयी थे। देश को स्वतन्त्र कराने के लिए उन्होंने अपनी पढ़ाई भी बीच में ही छोड़ दी थी। स्वतन्त्रता संग्राम में पड़ने वाली ज़रूरत को देखते हुए ही उन्होंने ड्राइवरी भी सीखी। मात्र 25 वर्ष की आयु में ही शहीद हो जाने वाले आज़ाद अन्त तक मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्य को निभाते रहे। उनका कथन था
"उनके हित कमर कहूँगा मैं, अंग्रेज़ों पर बरखूँगा मैं, करके स्वतन्त्र भारत माँ को, जननी की गोद बसूँगा मैं।"
5. त्यागी एवं बलिदानी आज़ाद ने मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने का प्रण लिया था, इसके लिए उन्होंने सब कुछ त्याग दिया था और अन्त में मातृभूमि के लिए लड़ते हुए ही वीरगति को प्राप्त हुए।
"माता थी पड़ी गाँव में, भाई-पिता कहीं,
'आज़ाद' राष्ट्र की बलिवेदी पर खड़े हुए
भारत की ब्रिटिश हुकूमत की आँखों में थे जीवन जीये थे भल्ल-नोक से अड़े हुए।"
6. संगठन की अद्भुत शक्ति चन्द्रशेखर आज़ाद में एक नेता के सभी गुण विद्यमान थे। 'सोशलिस्ट गणतन्त्र सैन्य' दल की स्थापना का श्रेय उन्हीं को जाता है। इस संगठन का मुखिया भी उन्हें ही चुना गया। इस दल के सभी कार्य उन्हीं की देख-रेख में होते थे। भगतसिंह ने भी आज़ाद से ही प्रेरणा पाई थी।
“संगठन शक्ति का, पैसे का, वे करते थे व्यक्तित्व खींचता था चुम्बक-सा अमृत-सा 'तुम' पण्डित जी से मिलो, राह आज़ादी की बतलाएँगे हर युवक बोलता निश्चित-सा।"
7. वीर एवं स्वाभिमानी वीरता का गुण चन्द्रशेखर आज़ाद में जन्म से ही था। सोलह बेतों की सजा मिलने पर भी उनके मुख से 'भारत माता की जय' के नारे निकलते रहे। सरकार उन्हें जीवित पकड़ना चाहती थी, लेकिन परम स्वाभिमानी आज़ाद को यह कभी भी स्वीकार्य नहीं था। अपने और अपनी मातृभूमि के स्वाभिमान की रक्षा हेतु उन्होंने अन्तिम गोली स्वयं को ही मारकर वीरगति पाई। उनकी वीरता के किस्से सुनकर सरकार भी उनसे सहमी-सहमी रहती थी।
"जिसके साहस का लोहा अब इतिहास बन गया धरती पर 'आज़ाद' वीर ने शेष एक गोली ली तान कनपटी पर।”
चन्द्रशेखर आज़ाद के इन गुणों से स्पष्ट होता है कि वे एक उत्कट (महान्) देश-प्रेमी थे। त्याग, बलिदान, साहस, शौर्य, राष्ट्र-प्रेम, संघर्षशीलता आदि उनके चरित्र के अनुकरणीय गुण हैं। इस दृढ़-संकल्पी महान् क्रान्तिकारी से हमें मातृभूमि से प्रेम करने एवं उसके लिए अपना सब कुछ समर्पित करने की प्रेरणा मिलती है। वे आज भी हर हिन्दुस्तानी के हृदय पर राज करते हैं।
07 'कर्ण' खण्डकाव्य
कथासार/कथानक /कथावस्तु/ विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 1. 'कर्ण' खण्डकाव्य के तृतीय तथा चतुर्थ सर्ग की कथा लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में अपनी भाषा में लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य की कथावस्तु/कथानक संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' द्वारा रचित 'कर्ण' एक खण्डकाव्य है, जिसका प्रमुख पात्र महाभारत का सबसे उपेक्षित और तिरस्कृत चरित्र कर्ण है। इस खण्डकाव्य की मूलकथा महाभारत से ही ली गई है। इस खण्डकाव्य को सात सर्गों में विभाजित किया गया है, इनके नाम क्रमश: रंगशाला में कर्ण, द्यूत-सभा में द्रौपदी, कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान, श्रीकृष्ण और कर्ण, माँ-बेटा, कर्ण-वध और जलांजलि हैं।
प्रथम सर्ग
इस सर्ग में कर्ण के जन्म एवं आरम्भिक जीवन का वर्णन है। कुन्ती को सूर्यदेव की आराधना करने के कारण कौमार्यावस्था में ही पुत्र के रूप में कर्ण की प्राप्ति हुई, परन्तु कुल की मर्यादा ने उसकी ममता का गला घोंट दिया। वह अपने पुत्र का लालन-पालन न कर सकी। विवशतापूर्वक उसने कर्ण को त्याग दिया। अधिरथ नाम के सूत और उसकी पत्नी राधा ने बड़े स्नेह से कर्ण को अपनाया और उसका पालन-पोषण किया। राधा द्वारा पालन किए जाने के कारण कर्ण 'राधेय' कहलाया, परन्तु सूत-पुत्र होने के कारण उसे अत्यधिक अपमान सहना पड़ा। उसे रंगशाला में कृपाचार्य और पाण्डवों के व्यंग्य वचन सुनने पड़े। द्रौपदी ने भी उसे सूत-पुत्र कहते हुए उससे विवाह करने से इनकार कर दिया। पाण्डवों से अपमानित होने के पश्चात् दुर्योधन ने उसे अपना मित्र बनाया और उसे अंगदेश का राजा घोषित किया, परन्तु इसमें दुर्योधन का स्वार्थ निहित था।
द्वितीय सर्ग
इस सर्ग में द्रौपदी के अपमान का वर्णन है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होने आए दुर्योधन को मायावी महल के कारण स्थल और जल में भ्रम हो गया और वह जल में गिर गया। इस पर द्रौपदी को हँसी आ गई और उसने दुर्योधन पर व्यंग्य किया। द्रौपदी द्वारा अपमानित होने पर दुर्योधन से रहा न गया और उसने प्रतिशोध लेने के लिए पाण्डवों को द्यूत खेलने के लिए निमन्त्रित किया। छल से दुर्योधन ने द्यूत में युधिष्ठिर को हरा दिया। युधिष्ठिर अपना सब कुछ हार गए। उन्होंने द्रौपदी को अन्तिम दाँव पर लगाया, परन्तु दुर्भाग्यवश वह उसे भी हार गए।
दुर्योधन ने दुःशासन से द्रौपदी को राज-सभा में लेकर आने का आदेश दिया। द्रौपदी ने स्वयं की रक्षा करने का प्रयत्न किया, परन्तु दुस्साहसी दुःशासन उसके बाल पकड़कर घसीटते हुए उसे राज-सभा में लाया। विकर्ण ने इस प्रकार कुल-वधू का अपमान करने की निन्दा की, परन्तु कर्ण ने उसे रोक दिया। द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का आदेश दिया गया। कर्ण ने इस नीच कार्य में दुर्योधन और दुःशासन का साथ दिया, जो उसके जीवन का सबसे बड़ा अधर्म एवं घृणित कार्य था।
तृतीय सर्ग
इस सर्ग में कर्ण द्वारा कवच और कुण्डल दान करने के प्रसंग का उल्लेख हुआ है। कर्ण अर्जुन को मारने का प्रण कर चुका था, जिसे जानकर धर्मराज युधिष्ठिर और देवराज इन्द्र दोनों ही चिन्तित थे। इन्द्र ने ब्राह्मण का वेश धारण कर कर्ण से उसका कवच-कुण्डल दान में माँगने का षड्यन्त्र रचा, क्योंकि कवच और कुण्डल के रहते हुए कर्ण को परास्त करना असम्भव था। सूर्यदेव ने पूर्व में ही स्वप्न में आकर कर्ण को बता दिया था कि इन्द्र तुम्हारा कवच-कुण्डल माँगने आएँगे, जिन्हें तुम देने से इनकार कर देना, परन्तु कर्ण दानवीर था। वह किसी भी भिक्षुक को निराश नहीं करने का प्रण कर चुका था। अतः जब इन्द्र ब्राह्मण बनकर उसका कवच-कुण्डल माँगने आए, तो उसने सहर्ष इसे इन्द्र को दान में दे दिया। इससे इन्द्र भी उसकी दानवीरता से प्रभावित हुए बिना न रह सके।
चतुर्थ सर्ग
इस सर्ग में श्रीकृष्ण और कर्ण का संवाद है। युधिष्ठिर के कहने पर श्रीकृष्ण शान्ति दूत बनकर दुर्योधन को समझाने के लिए हस्तिनापुर पधारे, परन्तु दुर्योधन को युद्ध के अतिरिक्त और कुछ स्वीकार नहीं था। अन्ततः श्रीकृष्ण ने टालने की इच्छा से कर्ण को समझाया कि वह दुर्योधन का साथ छोड़ दे और उसे युद्ध यह भी बताया कि वह कुन्ती- पुत्र है। अतः पाण्डवों से जाकर मिल जाए, को कर्ण दुर्योधन का साथ छोड़ने के लिए तैयार न हुआ। उसने श्रीकृष्ण से यह भी लेकिन कहा कि युधिष्ठिर के सम्मुख यह भेद प्रकट न करना, क्योंकि वह उसे राज्य सौंप देगा जो अनुचित होगा। कर्ण ने यह भी माना कि जब तक श्रीकृष्ण पार्थ के साथ हैं, तब तक पार्थ का कुछ भी अनिष्ट नहीं हो सकता, लेकिन फिर भी वह अर्जुन-वध के प्रण से पीछे नहीं हटा।
पंचम सर्ग
इस सर्ग में कुन्तीं और कर्ण का संवाद प्रमुख है। भीषण युद्ध को रोकने हेतु कुन्ती स्वयं कर्ण के पास गई। उसने युद्ध रोकने की आशा से कर्ण को यह भेद बता दिया कि वह उसी का पुत्र है और पाण्डव उसके भाई हैं, परन्तु कर्ण ने कुन्ती को भी है वही उत्तर दिया जो श्रीकृष्ण को दिया था। कुन्ती की निराशा देखकर उसने कुन्ती को यह वचन दिया कि वह अर्जुन को छोड़कर किसी अन्य पाण्डव का वध नहीं करेगा। अर्जुन अथवा कर्ण दोनों में से किसी एक की मृत्यु के पश्चात् भी उसके पाँच पुत्र ही बने रहेंगे।
षष्ठ सर्ग
यह सर्ग इस खण्डकाव्य का सबसे मार्मिक अंश है। युद्ध में भाग लेने से पूर्व घायल पितामह भीष्म ने भी कर्ण को यही परामर्श दिया कि वह दुर्योधन का साथ छोड़कर अपने भाइयों के पक्ष में चला जाए, परन्तु कर्ण ने दुर्योधन की मित्रता का उपकार मानते हुए और अपने प्रण को स्मरण करते हुए इसे अस्वीकार कर दिया। अन्त में वही हुआ, जिसका कर्ण को पूर्वाभास था। जब कर्ण भूमि में धँसा हुआ अपने रथ का पहिया निकाल रहा था, तब अर्जुन ने श्रीकृष्ण का संकेत पाकर उसका वध कर दिया और इस प्रकार महाभारत के इस परमवीर पात्र का दुःखद अन्त हो गया।
सप्तम सर्ग
इस खण्डकाव्य का अन्तिम भाग है, जिसमें युद्ध के पश्चात् युधिष्ठिर द्वारा अपने सभी भाइयों और सम्बन्धियों का जलदान करने का वर्णन है। कुन्ती उसे कर्ण का भी जलदान करने को कहती है। इस पर युधिष्ठिर को आश्चर्य होता है, तब कुन्ती सबके सामने इस सत्य को उजागर करती है कि कर्ण उसी का ज्येष्ठ पुत्र था। यह जानकर युधिष्ठिर, कर्ण का भी जलदान करते हैं, परन्तु अपने ही बड़े भाई का वध करने की उन्हें घोर ग्लानि होती है, जो उन्हें जीवनभर व्यथित करती रही।
इस खण्डकाव्य का मुख्य उद्देश्य मूल रूप से महाभारत के सबसे उपेक्षित एवं तिरस्कृत पात्र कर्ण की महिमा को स्थापित करना है, परन्तु कवि यह भी मानता है कि वह महावीर और दानवीर होने के साथ अहंकारी भी था। इसीलिए तो उसने द्यूत सभा में दुर्योधन को उत्साहित किया और द्रौपदी के अपमान में सहभागी बना।
खण्डकाव्य की भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है। कवि ने क्लिष्ट शब्दों से बचने का प्रयास किया है तथापि कहीं-कहीं थोड़े बहुत कठिन शब्द आ गए हैं, परन्तु इससे विशेष कठिनाई नहीं होती। कुल मिलाकर कथानक एवं भाषा-शैली के दृष्टिकोण से यह खण्डकाव्य सुन्दर बन पड़ा है।
प्रश्न 2. 'कर्ण' खण्डकाव्य के किसी एक सर्ग की कथावस्तु लिखिए।
अथवा केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' द्वारा रचित 'कर्ण' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का कथानक अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग का सारांश लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के रचनाकार का नाम बताते हुए क्रमशः सभी सर्गों का नामोल्लेख कीजिए।
'अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य की सबसे प्रभावशाली घटना का वर्णन कीजिए।
प्रथम सर्ग
उत्तर 'कर्ण' खण्डकाव्य के रचनाकार केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' हैं। यह खण्डकाव्य सात सर्गों क्रमश: रंगशाला में कर्ण, द्यूत-सभा में द्रौपदी, कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान, श्रीकृष्ण और कर्ण, माँ-बेटा, कर्ण-वध और जलांजलि में विभाजित है। इस खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग (रंगशाला में कर्ण) का सारांश निम्न है
सूर्यदेव की आराधना के फलस्वरूप विवाह से पूर्व ही कुन्ती को एक पुत्र रत्न प्राप्त हुआ। उस क्षण कुन्ती उस पुत्र का तेज और भोलापन देखकर निहाल हो उठी, परन्तु अगले ही क्षण उसे कुल की मर्यादा और सामाजिक नियमों का ध्यान हो आया। कौमार्यावस्था में ही सन्तान को जन्म देने के कारण कुन्ती और उसके कुल परिवार को सामाजिक रूप से अपमानित होना पड़ता। इसी भय से उसने अपनी ममता का गला घोटते हुए अपने ही हाथों से उस पुत्र को नदी की धारा में बहा दिया। ऐसा करते हुए उसका मन ग्लानि से भर उठा, परन्तु वह विवश थी। बहते-बहते वह शिशु अधिरथ नाम के एक सूत को मिला।
अधिरथ और उसकी पत्नी राधा ने उस पुत्र को अपनाकर प्रेमपूर्वक उसका लालन-पालन किया। राधा का पुत्र होने के नाते वह 'राधेय' कहलाया। अधिरथ और राधा को कहाँ पता था कि कर्ण के रूप में उन्हें एक अनमोल रत्न मिला है, जो इतिहास में दानवीर कर्ण के नाम से जाना जाएगा और महाभारत का एक प्रमुख पात्र होगा। यह एक विडम्बना ही थी जो एक क्षत्रिय और राजपुत्र था, वह सूत-पुत्र कहलाया तथा जीवन में पग-पग पर उसे घृणा, अनादर, अवहेलना, तिरस्कार और अपमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिला। एक बार बचपन में
कर्ण रंगशाला पहुँच गया, परन्तु राजपुत्र न होने के कारण कृपाचार्य ने उसे उत्सव में भाग न लेने दिया। पाण्डवों ने भी उसका उपहास किया। "हिंसा ने अर्जुन की वाणी में अपना मुँह खोला
कर्ण नीच राधेय, भीम का गर्व तड़प कर बोला" भरी सभा में केवल सूत- पुत्र होने के कारण अपमानित होने पर कर्ण क्रोध और क्षोभ से भर उठा। कर्ण की वीरता से प्रभावित होकर दुर्योधन ने अवसर का लाभ उठाया और उसे अंग देश का राजा घोषित कर दिया। वह कर्ण की वीरता को भाँप गया था। उसने कर्ण को यह कहकर सांत्वना एवं सहारा दिया
"सूत-पुत्र अब तुम्हें कहे जो उससे युद्ध करूंगा उसके अभिमानी मस्तक पर अपना चरण धरूंगा।"
उस समय कर्ण ने स्वयं को तेजहीन अनुभव किया, परन्तु कृतज्ञतापूर्वक उसने दुर्योधन की मित्रता स्वीकार की। कर्ण के जीवन में ऐसे और भी अवसर आए, जब उसे सूत-पुत्र होने के कारण अपमानित होना पड़ा। द्रौपदी के स्वयंवर में जब कर्ण लक्ष्य-वेध करने के लिए आगे बढ़ा, तब द्रौपदी ने भी उसका तिरस्कार करते हुए कहा
"सावधान, मत आगे बढ़ना होनी थी जो हो ली
सूत-पुत्र के साथ न मेरा गठबन्धन हो सकता
क्षत्राणी का प्रेम न अपने गौरव को खो सकता।"
उस समय कर्ण अपने क्रोध को पी गया, परन्तु महाभारत को जन्म देने वाली घटनाओं का तो प्रारम्भ हो चुका था।
प्रश्न 3. 'कर्ण' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का सारांश लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर दुर्योधन का द्रौपदी से रुष्ट होने का कारण स्पष्ट कीजिए। '
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर 'द्यूत सभा' में द्रौपदी की दशा वर्णन कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर द्यूत सभा प्रसंग का वर्णन कीजिए।
द्वितीय सर्ग
उत्तर 'कर्ण' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का नाम 'द्यूत सभा में द्रौपदी' है। इस सर्ग में 'द्यूत सभा' का प्रसंग आया है। इसका सारांश निम्नलिखित है द्रौपदी के स्वयंवर में पाँचों पाण्डव भी ब्राह्मण वेश में उपस्थित थे। अवसर मिलने पर ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने लक्ष्य-वेध दिया और द्रौपदी ने उनके गले में वरमाला पहना दी। शीघ्र ही यह भेद खुल गया कि लक्ष्य-वेध करने वाला ब्राह्मण कोई अन्य नहीं, वरन् पाण्डु पुत्र अर्जुन है। द्रौपदी पाँचो पाण्डवों की पत्नी बनकर हस्तिनापुर पधारी। विदुर आदि के समझाने से युधिष्ठिर को आधा राज्य भी मिल गया। पाण्डवों ने आधा राज्य स्वीकार किया और इसके पश्चात् उन्होंने सफलतापूर्वक राजसूय यज्ञ किया।
इससे दुर्योधन का मन पाण्डवों के प्रति द्वेष से भर उठा। इस पर एक और अप्रिय घटना घटित हो गई, जिससे वह क्रोध से जलने लगा। पाण्डवों के महल में उसे यह भ्रम हुआ कि जल के स्थान पर स्थल है और वह जल में गिर गया। यह देखकर द्रौपदी ने उस पर व्यंग्य किया। दुर्योधन ने इसे अपना अपमान समझा और इसका प्रतिशोध लेने का प्रण किया। इसके लिए उसने हठपूर्वक पाण्डवों को द्यूत खेलने के लिए निमन्त्रित किया। धर्मराज अपने चारों भाइयों और पत्नी द्रौपदी सहित हस्तिनापुर पधारे और द्यूत खेला। इसमें वे अपना राज्य, धन-सम्पत्ति, सभी भाइयों और पत्नी द्रौपदी को भी हार गए। दुर्योधन ऐसे ही किसी अवसर की प्रतीक्षा में था। उसने द्रौपदी से अपने अपमान का बदला लेने के लिए दुःशासन को द्रौपदी को द्यूत सभा में लेकर आने का आदेश दिया। द्रौपदी ने दुःशासन को रोकने का प्रयास किया, परन्तु वह उसके बाल पकड़कर घसीटते हुए उसे वहाँ ले आया। दास बन चुके पाण्डव दुःशासन और दुर्योधन को रोक न सके। इस पर असहाय पांचाली ने सभी सभाजनों और धर्मराज से प्रश्न किया "तनिक विचारे धर्मराज ने लाई नीति कहाँ की
अपने को ही हार गए अधिकार कौन फिर बाकी
शेष न जब अधिकार मुझे कैसे हारे वे, बोलो।"
परन्तु पांचाली को किसी से कोई उत्तर न मिला। दुर्योधन के भाई विकर्ण ने अवश्य सभी के सामने कुल-वधू को अपमानित करने की निन्दा की और इस घृणित कार्य को रोकने का प्रयास किया, परन्तु स्वयंवर में द्रौपदी के व्यंग्य वचनों से आहत कर्ण ने विकर्ण को शिशु कहकर उसकी बात को अनसुना कर दिया। दुर्योधन और
दुःशासन को उत्साहित करते हुए उसने कहा कि जिसके पाँच-पाँच पति हो, वह कुल की लाज नहीं, अपितु वेश्या और छलना है। केवल यही नहीं, उसने आगे कहा
"दुःशासन! मत ठहर वस्त्र हर ले कृष्णा के सारे वह पुकार ले रो-रोकर चाहे वह जिसे पुकारे। "
यह सत्य है कि कर्ण वीर, धीर, दानी और तेजस्वी था, परन्तु उसका यह कृत्य उसके
जीवन का सबसे बड़ा अधर्म था, जिस पर वह पश्चात् में पछताता रहा। इस पर कवि
ने भी कहा है कि
"सत्य कि तुम थे कर्मवीर बल वीर धर्मधारी भी
दानी और महादानी, पर महा अहंकारी भी।" अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
प्रश्न 4. 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की दानशीलता का उल्लेख कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की दानशीलता का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग की कथावस्तु का वर्णन कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक/कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान के प्रसंग का वर्णन कीजिए।
अथना 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण' 'कवच-कुण्डल दान' का वर्णन कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान की कथा का वर्णन कीजिए।
अथना 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर उन परिस्थितियों का वर्णन कीजिए, जिनमें कर्ण ने अपने कवच-कुण्डल का दान किया। इससे कर्ण के चरित्र की कौन-सी विशेषता उजागर होती है ?
तृतीय सर्ग
उत्तर कर्ण ने 'महाभारत' में समय-समय पर अपनी दानशीलता का परिचय दिया है, परन्तु प्रस्तुत खण्डकाव्य 'कर्ण' के तृतीय सर्ग में हमें कर्ण की परम दानशीलता का परिचय मिलता है।
'कर्ण' खण्डकाव्य का तृतीय सर्ग दानवीर कर्ण के कवच-कुण्डल दान करने प्रसंग से सम्बन्धित है। इसका सारांश इस प्रकार है
जुए में अपना सब कुछ हारने के पश्चात् युधिष्ठिर अपने भाइयों और पत्नी द्रौपदी सहित वनों में भटकने लगे। इधर दुर्योधन ने वैष्णव यज्ञ सम्पन्न करके सम्राट की उपाधि प्राप्त की। दुर्योधन सम्राट बनकर प्रसन्न था, साथ ही उसकी प्रसन्नता का एक कारण और भी था। कर्ण ने अर्जुन को मारने का प्रण किया था "जब तक न करूँ, जब तक अर्जुन के हरून प्रान तब तक जो भी जो कुछ माँगे दे दूँगा वह दान
तब तक मांस और मदिरा दोनों गो-रक्त समान
तब तक चरण न धुलवाऊँगा जो भी हो परिणाम। " कर्ण की इस भीषण प्रतिज्ञा को सुनकर दुर्योधन को बहुत खुशी हुई, क्योंकि पाण्डव पक्ष में अर्जुन ही उसका सबसे प्रबल शत्रु था। दूसरी ओर युधिष्ठिर कर्ण की प्रतिज्ञा सुनकर चिन्तित थे, क्योंकि वे जानते थे कि कर्ण एक महान् योद्धा है और वह अपने इस प्रण को पूरा कर सकता है। कौरव पक्ष में भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा आदि एक से बढ़कर एक वीर थे, परन्तु कर्ण उन सभी में अद्वितीय था। युधिष्ठिर यह भी जानते थे कि जब तक कर्ण के पास दिव्य कवच और कुण्डल है, तब तक उसे परास्त करना असम्भव है। कर्ण के प्रण को सुनकर देवराज इन्द्र भी चिन्ता में पड़ गए, क्योंकि वे अर्जुन के पिता थे। उन्होंने अर्जुन को बचाने के लिए कर्ण से कवच और कुण्डल दान में माँगने का निश्चय किया। वे जानते थे कि कर्ण दान पाने की इच्छा से आए हुए किसी भी व्यक्ति को निराश नहीं करता था। इन्द्र के इस षड्यन्त्र को सूर्य ने जान लिया। उन्हें भी अपने पुत्र कर्ण की चिन्ता थी। अतः उन्होंने कर्ण को स्वप्न में आकर सारी बात बता दी और कवच-कुण्डल देने से मना कर दिया, परन्तु कर्ण ने यह कहकर सूर्यदेव की बात मानने से इनकार कर दिया कि
"ब्राह्मण माँगे दान, कर्ण निज हाथों को मोड़ उन्हें वज्र से इसके पहले ही वह देगा तोड़।'
सूर्यदेव ने उसे समझाने का प्रयत्न किया, परन्तु सब विफल रहा और जब इन्द्र ब्राह्मण के वेश में कर्ण के सम्मुख कवच-कुण्डल दान में पाने की आशा में उपस्थित हुए, तो कर्ण ने सहर्ष देवराज इन्द्र की इच्छा पूर्ण कर दी। कर्ण जानता था कि कवच और कुण्डल के बिना अर्जुन उस पर हावी हो सकता है, परन्तु कर्ण ने अपने सामर्थ्य पर विश्वास रखते हुए दान देने का अपना प्रण पूरा किया। वह जान गया था कि इन्द्र ही ब्राह्मण वेश में आए हैं तथापि उसने इन्द्र को निराश नहीं किया। इन्द्र की इच्छा तो पूरी हो गई, परन्तु तब इन्द्र को लगा कि मानो वही ठगे गए हैं। उन्होंने कर्ण की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। इस पूरे प्रसंग से कर्ण की दानवीरता का पता चलता है। उसने जीवनभर अपने इस प्रण का पूरी निष्ठा से पालन किया।
प्रश्न 5. 'कर्ण' खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग की कथा लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग 'श्रीकृष्ण और कर्ण का लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग का कथासार अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग का कथानक लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग का सारांश लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर श्रीकृष्ण और कर्ण के बीच हुए वार्तालाप को अपने शब्दों/संक्षेप में लिखिए।
अथवा "जिसके सहायक कृष्ण हो, सर्वदा उसी की जय है।"-'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर उक्त कथन की पुष्टि कीजिए। "यों न उपेक्षित होता मैं, यो भाग्य न मेरा सोता।
अथवा स्नेहमयी जननी ने यदि रचक भी चाहा होता।" उक्त कथन की सार्थकता सिद्ध कीजिए।
चतुर्थ सर्ग
उत्तर 'कर्ण' खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग का नाम 'श्रीकृष्ण और कर्ण' है। इस सर्ग का कथानक निम्न है पाण्डव अधिकारस्वरूप अपना छिना हुआ राज्य माँगते हैं, परन्तु कौरवों को यह स्वीकार नहीं है। दोनों पक्षों की ओर से युद्ध की तैयारियाँ होने लगी। भीषण युद्ध की सम्भावना देखकर युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से युद्ध टालने का अनुरोध किया और उनसे विनती की कि वह शान्ति दूत बनकर हस्तिनापुर जाएँ और दुर्योधन को समझाने का प्रयत्न करें।
श्रीकृष्ण ने शान्ति दूत बनने का प्रस्ताव स्वीकार किया और हस्तिनापुर पहुंचे। उन्होंने अनेक प्रकार से दुर्योधन को सुमार्ग पर लाने की कोशिश की, परन्तु सब व्यर्थ सिद्ध हुआ। दुर्योधन युद्ध करने की ठान चुका था। लौटते समय श्रीकृष्ण ने संकेत करके कर्ण को अपने पास बुलाया और अपने रथ पर बिठाया। उन्होंने बड़े ही प्यार से कर्ण को समझाया कि दुर्योधन स्वार्थी, दुराचारी और अधर्मी है। उसका साथ छोड़कर तुम पाण्डवों के पास आ जाओ, क्योकि पाण्डव तुम्हारे भाई हैं।
उन्होंने रहस्य से पर्दा हटाते हुए कर्ण को बताया कि तुम राधेय नहीं, कौन्तेय हो और पाण्डवों के ज्येष्ठ भ्राता हो। युधिष्ठिर सहर्ष तुम्हें सम्राट पद दे देगा। तुम इस प्रकार इस भयंकर युद्ध को रोक सकते हो। श्रीकृष्ण की बात सुनकर कर्ण की आँखो से आँसू बहने लगे। उसने कृष्ण से प्रश्न किया कि यदि ऐसा ही था तो क्यों मुझे जीवनभर सूत-पुत्र होने का अपमान सहना पड़ा? यदि रंगशाला में ही यह भेद खुल गया होता, तो मुझे भरी सभा में अपमानित न होना पड़ता। उसने आगे कहा
"यो न उपेक्षित होता मैं, यो भाग्य न मेरा सोता।
स्नेहमयी जननी ने यदि रंचक भी चाहा होता।।
घृणा, अनादर, तिरस्क्रिया। यह मेरी करुण कहानी।
देखो, सुनो, कृष्ण! क्या कहता इन आँखों का पानी।" कर्ण ने दुर्योधन का साथ छोड़ने से मना कर दिया, क्योंकि दुर्योधन का उस पर उपकार था। इस पर श्रीकृष्ण ने उसे समझाया कि युद्ध में निश्चित रूप से पाण्डवों की विजय होगी। तुम अर्जुन को मारने का अपना प्रण पूरा नहीं कर पाओगे। यह सुनकर कर्ण ने कहा कि मैं जानता हूँ कि जिधर आप होंगे, विजयश्री उसी ओर होगी, परन्तु मैं अपने मित्र दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ सकता हे कृष्ण! यह भी हे मत कहो कि अर्जुन दुर्दम है, वीरों में उत्तम है। यदि तुम अर्जुन का साथ न दो, तो वह वीरों की दुनिया का एक भिखारी मात्र है। मेरे पास अब कवच-कुण्डल नहीं हैं, परन्तु अब भी मैं अर्जुन को परास्त कर सकता हूँ, तथापि मैं यह भी जानता हूँ कि आप पाण्डवों के साथ हैं, इसलिए अर्जुन अवश्य ही मेरा काल बनेगा। अन्त में कर्ण ने श्रीकृष्ण से निवेदन किया कि आप युधिष्ठिर समेत सभी पाण्डवों को यह न बताना कि मैं उनका ज्येष्ठ भ्राता हूँ। यह जानकर युधिष्ठिर मुझे ही राज-पाट सौंप देगा और मैं वह दुर्योधन को दे दूंगा। अन्त में, वह पांचाली के प्रति किए गए अधर्म और अत्याचार पर घोर दुःख व्यक्त करता है। श्रीकृष्ण ने कर्ण को दुराग्रही कहा, परन्तु कर्ण दुर्योधन का साथ छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ।
प्रश्न 6. 'कर्ण' खण्डकाव्य के पंचम सर्ग की कथा संक्षेप में लिखिए।
'कर्ण' खण्डकाव्य के पंचम सर्ग के कथानक / कथा का सारांश लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के पंचम सर्ग की घटनाओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कुन्ती और कर्ण के बीच हुए वार्तालाप का विवरण दीजिए।
पंचम सर्ग
उत्तर 'कर्ण' खण्डकाव्य के पंचम सर्ग का नाम 'माँ-बेटा' है, जिसमें युद्ध पूर्व कुन्ती और कर्ण के बीच का संवाद है। इसका कथानक इस प्रकार है महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने में केवल पाँच दिन शेष रह गए थे। इस युद्ध में कुरु-वंश का सर्वनाश निश्चित था। इसलिए कुन्ती की चिन्ता दिन-रात बढ़ती जा रही थी। वह कर्ण की ओर से भी चिन्तित थी कि कहीं भाई के हाथों भाई की हत्या न हो जाए। उसने इस विनाश को रोकने का निश्चय किया और कर्ण के पास पहुँची। उसने कर्ण को सत्य बताने का निश्चय किया। कुन्ती को सहसा अपने पास आए देख कर्ण चौक गया, परन्तु अपने आप को सँभालते हुए उसने कहा "सूत-पुत्र राधेय आपको करता देवि! प्रणाम
कैसे इधर महारानी आ गई, कहें क्या काम?" यह सुनकर कुन्ती ने कहा कि तुम राधेय नहीं, कौन्तेय हो और युधिष्ठिर के बड़े भाई हो। मुझे 'माँ' कहकर तृप्त करो और अपने भाइयों के साथ आकर मिल जाओ। कुन्ती के मुख से यह सत्य सुनकर कर्ण के नेत्र क्रोध से लाल हो गए और क्रोध एवं ग्लानि से उसका शरीर काँपने लगा। उसने कहा कि आज अपने पुत्रों पर काल मँडराता देखकर तुम मेरे प्रति मिथ्या स्नेह प्रकट करने आई हो! तब तुम्हारा पुत्र प्रेम कहाँ था, जब भरी सभा में मेरा अपमान और तिरस्कार हो रहा था। उस दिन तुमने क्यों नहीं कहा कि मैं तुम्हारा पुत्र हूँ? आज तुम मुझे कर्म-सुकर्म की शिक्षा दे रही हो, लेकिन जननी होकर ही तुमने मेरे साथ छल किया और मेरे जीवन को नरक बना दिया। तुमने मुझे छला और अब यह चाहती हो कि तुम्हारे
समान मैं भी अपने मित्र को छलूँ? लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता। कर्ण के इन क्रोधपूर्ण वचनों को सुनकर कुन्ती व्यथित हो उठी और उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। यह देखकर कर्ण बहुत दुःखी हुआ। वह सोचने लगा कि यद्यपि मैंने सूत-पुत्र होने के कारण पग-पग पर तिरस्कार, उपहास और विषाद ही पाया है, परन्तु यह भी विडम्बना ही होगी कि एक माँ अपने पुत्र के पास से निराश लौट जाए।
यह विचार करते हुए उसने कुन्ती से कहा कि मैं जानता हूँ कि आप क्या आशा लेकर मेरे पास आई हो? इसलिए तुम्हे वचन देता हूँ कि मैं अर्जुन को छोड़कर
किसी अन्य पाण्डव पुत्र का वध नहीं करूंगा, परन्तु अर्जुन को नहीं छोड़ेंगा। यदि मैं अर्जुन के हाथों मारा गया तो तुम्हारे पाँच पुत्र बने रहेंगे और यदि मेरे हाथों अर्जुन मारा गया तो तुम मुझे अपना लेना, तब भी तुम्हारे पुत्रों की संख्या पाँच ही रहेगी। तुम्हारे पुत्रों की गिनती नहीं बिगड़ेगी। कुन्ती कर्ण की बात सुनकर चुपचाप लौट गई, परन्तु कर्ण विचारों के सागर में खो गया।
प्रश्न 7. 'कर्ण' खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग की कथावस्तु अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग का सारांश/कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण-वध का वर्णन कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर भीष्म पितामह तथा कर्ण के बीच हुए संवाद का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
अथवा "वीर कर्ण पर ही कुछ सेना की विजय निर्भर थी।" 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
अथना 'कर्ण' खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग का सारांश लिखते हुए श्रीकृष्ण के कथन "युद्ध क्षेत्र में नहीं धर्म से नाता जोड़ा जाता।" के औचित्य पर प्रकाश डालिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण-वध' की मार्मिकता का चित्रांकन कीजिए।
षष्ठ सर्ग
उत्तर 'कर्ण' खण्डकाव्य का षष्ठ सर्ग 'कर्ण वध' इस पूरे काव्य का सबसे मार्मिक अंश है। इसका सारांश इस प्रकार है
अन्ततः युद्ध होना निश्चित हो ही गया। कौरवों की ओर से पितामह भीष्म सेनापति बनाए गए और पाण्डवों की ओर से द्रुपद-पुत्र धृष्टद्युम्न ने यह भार संभाला। भीष्म पितामह ने यह घोषणा कर दी कि सेनापति रहते हुए वह कर्ण को भाग लेने की अनुमति नहीं देंगे, क्योंकि उसने द्रौपदी के साथ हुए अत्याचार में दुर्योधन का साथ दिया है। युद्ध में
"कुरु सेना में हैं अनेक बल वीर और बलिदानी किन्तु कर्ण ही अर्धरथी है एक नीच अभिमानी।"
कर्ण ने भी निश्चय किया कि गंगापुत्र भीष्म के युद्ध क्षेत्र में रहते हुए मैं शस्त्र नहीं उठाऊँगा। अगले दिन भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया। निरन्तर युद्ध चलता रहा। दसवें दिन गंगापुत्र अर्जुन के बाणों से घायल हो गए और शरशय्या ग्रहण की। भीष्म के घायल होने का समाचार पाकर कर्ण से रहा नहीं गया और वह उनसे मिलने पहुंचा। पितामह ने प्रेमपूर्वक उसका स्वागत किया तथा दानवीर और धर्मवीर कहकर उसकी प्रशंसा की। उन्होंने इस बात पर भी खेद प्रकट किया कि तुम कौन्तेय हो, यह जानते हुए भी मैंने सूत-पुत्र कहकर तुम्हारा तिरस्कार और अपमान ही किया है। इसका मुझे बहुत दुःख है। आज बेटा कहकर तुम्हे जी भरकर निहारना चाहता हूँ। मेरा उद्देश्य बस केवल यही था कि तुम दुर्योधन का साथ छोड़ दो और भाई-भाई एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े न हो। आज मैं देख रहा हूँ कि महाविनाश होने वाला है। तुम दुर्योधन का साथ छोड़कर अपने भाइयों से जा मिलो। इसी में सभी का कल्याण है। यह सुनकर कर्ण से रहा न गया। उसने कहा कि पितामह मैं जानता हूँ कि पाण्डव मेरे भाई हैं, परन्तु मैं अपने प्रण से बंधा हुआ हूँ।
अतः दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ सकता। मैं यह भी जानता हूँ कि अर्जुन के साथ गोविन्द है। अतः अर्जुन को हरा पाना असम्भव ही है, परन्तु मैं फिर भी अपने साहस का त्याग नहीं करूंगा और अर्जुन को मारने का अपना प्रण पूरा करने का प्रयास करूंगा। पितामह ने कर्ण के साहस की प्रशंसा करते हुए उसे उसके मार्ग पर आगे बढ़ने का आशीर्वाद दिया। भीष्म के पश्चात् द्रोणाचार्य सेनापति बने।
पन्द्रहवें दिन द्रोणाचार्य वीरगति को प्राप्त हुए। तब सोलहवें दिन कर्ण को सेनापति बनाया गया। यह जानकर धर्मराज युधिष्ठिर को अर्जुन की चिन्ता हुई। कर्ण के नेतृत्व में कौरव सेना ने उत्साहपूर्वक युद्ध करना प्रारम्भ किया। कुन्ती को अब भी पाण्डवों की चिन्ता थी, परन्तु वचन का धनी कर्ण अपना प्रण नहीं भूला था। उसने अवसर पाकर भी युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव का वध नहीं किया। उधर भीम के पुत्र घटोत्कच ने कौरव की सेना में हाहाकार मचा रखा था।
उसे रोकने के लिए कर्ण को विवशतापूर्वक इन्द्र द्वारा दी गई अमोघ शक्ति का प्रयोग करना पड़ा। अब यह निश्चित हो चुका था कि अर्जुन की विजय तय है। दिन अभी थोड़ा शेष था, सन्ध्या होने वाली थी। कर्ण भूमि में फँसा हुआ अपना पहिया निकाल रहा था। तभी अर्जुन ने कर्ण पर प्रहार करना चाहा, परन्तु उसे शस्त्रहीन और रथविहीन देखकर स्वयं को रोक लिया, परन्तु तब श्रीकृष्ण ने कहा
"रथारूढ़ हो, या कि विरथ हा रिपु कब छोड़ा जाता युद्ध-क्षेत्र में नहीं धर्म से नाता जोड़ा जाता।"
अर्थात् अधर्मी शत्रु का वध करना ही सबसे बड़ा धर्म है, फिर चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हो? तब अर्जुन ने तीर छोड़ दिया और कर्ण वीरगति को प्राप्त हुआ। कर्ण जैसे परमवीर और दानवीर की मृत्यु पर श्रीकृष्ण भी स्वयं को रोक नहीं सके।
“रथ से उतर जनार्दन दौड़े आँखों में जल धारा
'कर्ण हाय वसुसेन वीर' कह बारम्बार पुकारा।" इस प्रकार महाभारत के इस प्रमुख, परन्तु उपेक्षित पात्र का अन्त हुआ।
प्रश्न 8. 'कर्ण खण्डकाव्य के आधार पर सप्तम सर्ग का कथा-सार लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के सप्तम सर्ग की कथा/कथानक संक्षेप में लिखिए।
अथना 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर सप्तम सर्ग का सारांश एवं उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
अथना 'कर्ण' खण्डकाव्य के अन्तिम सप्तम सर्ग का मार्मिक चित्रांकन (सारांश) लिखिए।
अथना युधिष्ठिर द्वारा युद्ध में मृत सगे-सम्बन्धियों के अन्तकर्म के समय जलदान देते समय कुन्ती और युधिष्ठिर के बीच। वर्णन कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कीजिए। ह
अथना किन्तु आज इस पृथ्वी पर हतभाग्य न मुझ सा अन्य।।” उक्त पंक्तियों में व्यक्त वेदना का भाव पठित खण्डकाव्य के आधार स्पष्ट कीजिए।
सप्तम सर्ग
उत्तर 'कर्ण' खण्डकाव्य का सप्तम सर्ग जलांजलि' इस काव्य का अन्तिम भाग है। इसका कथानक निम्न है कर्ण के वीरगति प्राप्त करने के पश्चात् दुर्योधन का साहस टूट गया। उसे जिस पर सबसे अधिक भरोसा था, वह भी पाण्डवों के हाथों परास्त हो गया। कर्ण के पश्चात् शल्य सेनापति बनाए गए, परन्तु दुर्योधन के सपने तो कर्ण की मृत्यु के साथ ही समाप्त हो चुके थे। कर्ण के पश्चात् युद्ध अधिक समय तक नहीं चल पाया और अट्ठारहवें दिन कौरवों की पराजय के साथ युद्ध का अन्त हो गया। गदा- युद्ध में भीम ने दुर्योधन को हरा कर इस युद्ध की समाप्ति की। कुन्ती ने कहा कि पुत्र! तुम वीर कर्ण का नाम लेकर उसका भी जलदान करो। यह सुनकर युधिष्ठिर आश्चर्यचकित हो गए, परन्तु कुन्ती ने सत्य बताते हुए कहा वह मेरा ही पुत्र था और तुम्हारा बड़ा भाई था।
“धर्मराज कुछ चौंके बोले 'सूत-पुत्र था कर्ण।'
कुन्ती बोली, "वत्स! कर्ण था मेरा रक्त सवर्ण।" यह जानकर युधिष्ठिर से रहा न गया और यह पूछ ही लिया कि आखिर यह क्या रहस्य है। तब कुन्ती ने विस्तारपूर्वक सारी बात बताई और यह भी बताया कि युद्ध पूर्व कर्ण को भी मैंने यह सत्य बताया था, परन्तु वह दुर्योधन से विलग होने के लिए तैयार न हुआ, लेकिन उसने वचन दिया था कि वह अर्जुन को छोड़कर मेरे किसी अन्य पुत्र का वध नहीं करेगा और उसने अपना वचन निभाया भी। सारी बात सुनकर युधिष्ठिर ग्लानि से भर उठे और भ्रातृ हत्या से उनका मन भर आया।
"ऐसा कीर्तिवान भाई पा, होता कौन न धन्य ।
किन्तु आज इस पृथ्वी पर, हतभाग्य न मुझ-सा अन्य।।"
कुन्ती ने युधिष्ठिर को समझाना चाहा कि दुःखी मत हो, कर्ण की यही नियति थी। इस पर युधिष्ठिर ने कुन्ती से कड़े स्वर में कहा कि अब व्यर्थ तर्क मत करो। तुमने माता होकर ही अपने पुत्र का अनिष्ट किया और भ्रातृ हत्या का कलंक हमारे मस्तक पर लगा दिया। अन्त में उन्होंने कर्ण को याद कर, उसके नाम से भी जलदान किया। युधिष्ठिर कर्ण-वध को कभी न भुला सके।
प्रश्न 9. 'कर्ण' खण्डकाव्य के प्रतिपाद्य, विषय एवं उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य का कथानक तथा उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य पढ़ने से जो प्रेरणाएँ आपको मिली हों, उनका वर्णन कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य का प्रभाव स्पष्ट कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य ने आपको किस रूप में प्रभावित किया है? उसका वर्णन कीजिए।
उत्तर कवि केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' ने 'कर्ण' खण्डकाव्य में महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक कर्ण का चरित्र चित्रण किया है। उन्होंने महाभारत की मूलकथा से कोई छेड़छाड़ नहीं की है, परन्तु इसमें कर्ण के जीवन के सभी पक्षों का समावेश न करते हुए उन्होंने केवल उन्हीं घटनाओं, प्रसंगों आदि को वर्णित किया है, जिन्होंने कर्ण के जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव डाला था उसके जीवन को गति या दिशा दी।
कर्ण कुन्ती का पुत्र था, परन्तु कुन्ती द्वारा पैदा होते ही उसका त्याग किए जाने के कारण उसे अपने सम्पूर्ण जीवन में उपेक्षा, घृणा, तिरस्कार, अपमान तथा विषाद ही मिला था। कर्ण महाभारत का ऐसा पात्र है जो वीर भी था और विवेकवान एवं धर्म-अधर्म का ज्ञानी भी था, परन्तु इसके बावजूद भी उसे कभी उचित सम्मान नहीं मिला। अपने अस्तित्व के प्रश्न से जूझते हुए उसका पूरा जीवन विसंगतियों से भरा रहा। यह सत्य है कि कर्ण एक श्रेष्ठ योद्धा, दानवीर, अपने प्रण पर अटल रहने वाला, सच्चा मित्र, तेजस्वी तथा अद्भुत आत्मबल वाला था। उसके ये गुण निश्चय ही हमें प्रेरणा देते हैं।
लेकिन साथ ही, उसका चरित्र पूरी तरह से अनुकरणीय नहीं है। कवि ने उसके चरित्र के गुणों एवं दोषों को स्थान देते हुए निष्पक्ष रूप से उसका चरित्र चित्रण किया है। कवि जहाँ उसके सद्गुणों की प्रशंसा करते हुए उन्हें अपनाने की प्रेरणा देता है, वहीं उसके अवगुणों को उजागर करते हुए उनसे बचने के लिए भी सावधान करता है। कवि ने अप्रत्यक्ष रूप से यह दिया है कि व्यक्ति में सद्गुणों का होना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उनका उचित उपयोग करना भी आवश्यक है। जो व्यक्ति सद्गुणी होते हुए भी अन्याय, अधर्म, दुराचार आदि का साथ देता है, उसका अन्त भी वही होता है जो अन्यायी का होता है। उसका अन्त सदा ही करुणाजनक एवं दुःखद होता है। यही इस खण्डकाव्य का मुख्य उद्देश्य है। इस खण्डकाव्य का शीर्षक 'कर्ण' सर्वथा उचित एवं सार्थक है, क्योंकि 'कर्ण' ही इस खण्डकाव्य का केन्द्रीय पात्र है और इसमें वर्णित सभी घटनाएँ उसी से सम्बन्धित हैं। अत: 'कर्ण' के अतिरिक्त इस खण्डकाव्य का कोई अन्य शीर्षक हो ही नहीं सकता।
चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 10. 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर प्रमुख पात्र की चारित्रिक विशेषताओं को लिखिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण का चरित्र चित्रण कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के नायक की चरित्रगत विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण का चरित्रांकन कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के नायक का चरित्र चित्रण कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर नायक 'कर्ण' का चरित्र चित्रण कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के नायक का चरित्रांकन कीजिए। अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के किसी एक प्रमुख पात्र का चरित्रांकन कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के अनुसार कर्ण की वीरता तथा व्यक्तित्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर नायक कर्ण की दानशीलता/ दानवीरता पर प्रकाश डालते हुए, उसके अन्य गुणों का वर्णन कीजिए।
अथवा "भीष्म, द्रोण, कृपा, अश्वत्थामा सबमें कर्ण अनन्य वीरों में वह महावीर प्रत्येक दृष्टि से धन्य।।” 'कर्ण' खण्डकाव्य की उक्त पंक्तियों के आधार पर कर्ण के चरित्र पर प्रकाश डालिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण की दानशीलता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर कवि केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' द्वारा रचित 'कर्ण' एक खण्डकाव्य है, जिसका नायक महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक कर्ण है। इस पूरे खण्डकाव्य में उभरकर आई कर्ण की प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्न हैं
1. सुन्दर, आकर्षक एवं तेजस्वी जन्म से ही आकर्षक, सुन्दर, तेजस्वी, परन्तु तिरस्कृत कर्ण सूर्यदेव से उत्पन्न कुन्ती का पुत्र था। उसके मुख पर जन्म से ही सूर्य के समान तेज व्याप्त था। कुन्ती ने जब उसे पहली बार देखा था तो वह खुशी से फूली नहीं समाई थी।
“अकस्मात् ही मिला दान में एक अनोखा लाल माँ ने देखा बेटे को आँखें हो गईं निहाल।"
युद्ध से पूर्व जब वह कर्ण को समझाने गई थी तब भी उसके मुख पर वही तेज था।
"एक सूर्य था उगा गगन में ज्योतिर्मय छविमान और दूसरा खड़ा सामने पहले का उपमान एक सूर्य था उगा गगन में पौरुष-पुंज अनूप और दूसरा खड़ा सामने, पहले का प्रतिरूप।” सूर्य-पुत्र होने के कारण उसका रूप-सौन्दर्य सूर्य के समान ही आकर्षक एवं तेजस्वी था। कवि ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा है "अधिरथ को क्या ज्ञात कि उसने कौन रत्न पाया है।
वह क्या जाने तेज सूर्य का उसके घर आया है।।" तेज का स्वामी होने के बावजूद कर्ण को जन्म से उपेक्षा सहनी पड़ती है। सर्वप्रथम जन्म देने वाली माता कुन्ती ही उसका त्याग कर देती है। फिर रंगशाला में सूत-पुत्र कहकर कृपाचार्य और पाण्डव उसका अपमान करते हैं। स्वयंवर में द्रौपदी भी उसका तिरस्कार कर देती है। महाभारत के अन्य पात्र भीष्मादि भी बार-बार उसका अपमान एवं तिरस्कार करते हैं।
2. धैर्यवान कर्ण के जीवन में ऐसे पल बार-बार आए, जब उसे अपमानित होना पड़ा और वह अपमान उसके लिए असहनीय हो गया। वह श्रीकृष्ण से कहता है
“घृणा, अनादर, तिरस्क्रिया, यह मेरी करुण कहानी।
देखो, सुनो, कृष्ण! क्या कहता इन आँखों का पानी।" लेकिन उसने कभी धीरज का त्याग नहीं किया। द्रौपदी के स्वयंवर में तिरस्कृत होने पर भी वह अपने क्रोध को पी गया, कुन्ती द्वारा अपने कौन्तेय होने का पता चलने पर भी उसने कुन्ती की इच्छा पूर्ण की। भीष्म द्वारा नीच अभिमानी कहे जाने पर भी वह उनके सम्मुख वाद-प्रतिवाद नहीं करता। इससे पता चलता है कि विषम परिस्थितियों में भी धैर्यवान बना रहता है।
3. प्रण व धुन का पक्का कर्ण अपने प्रण व धुन का पक्का था। उसकी प्रतिज्ञा थी कि वह किसी दान माँगने वाले को निराश नहीं लौटाएगा। इसलिए जब इन्द्र ब्राह्मण वेश में कवच और कुण्डल माँगने आए तो कर्ण ने खुशी-खुशी उनकी इच्छा पूर्ण की, यह जानते हुए भी कि कवच-कुण्डल न होने पर अर्जुन को मारना कठिन हो जाएगा। "मांस काटते थे शरीर का पर न हृदय में तड़पन बूँद-बूँद कर रक्त टपकता पर हँसते थे लोचन।" इसी प्रकार, कर्ण ने प्रण किया था कि वह अर्जुन का वध करेगा। अपने इस प्रण पर भी वह अन्त तक अडिग रहता है। श्रीकृष्ण, कुन्ती तथा भीष्म पितामह के यह समझाने पर कि पाण्डव तुम्हारे भाई हैं, वह अर्जुन-वध के अपने प्रण पर अडिग रहा। अन्त में उसे यह ज्ञान हो चुका था कि श्रीकृष्ण के रहते हुए अर्जुन को मारना दुष्कर है और इसकी सम्भावना अधिक है कि अर्जुन ही उसका वध कर दे, परन्तु वह अपने प्रण से नहीं हटा।
4. सच्चा मित्र कर्ण दुर्योधन का सच्चा मित्र था। दुर्योधन ने उस समय उसके सामने मित्रता का हाथ बढ़ाया था, जब सभी उसका उपहास कर रहे थे। कर्ण ने हृदय से दुर्योधन को अपना मित्र माना। यह जानते हुए कि दुर्योधन अधर्मी और अत्याचारी है तथा उसका अन्त निश्चित है एवं उसके साथ रहने पर उसका अन्त भी दुर्योधन जैसा ही होगा, उसने दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ा। आज भी जब सच्चे मित्रों की बात आती है तो कर्ण-दुर्योधन की मित्रता की चर्चा अवश्य होती है।
5. दानवीर परन्तु अहंकारी कर्ण की दानवीरता संसार भर में अमर है। उसने कभी दान देने में संशय नहीं किया। जन्म से ही अपने शरीर के अंग समान कवच और कुण्डल को, जो उसकी अपराजेयता का कारण भी थे, उन्हें भी दान में दे देना उसे महादानवीरों की श्रेणी में स्थापित करता है, परन्तु सत्य यह है कि वह अहंकारी भी था। इसीलिए उसने भरी द्यूत सभा में दुर्योधन और दुःशासन का उत्साहवर्द्धन कर द्रौपदी का अपमान किया। यह उसके चरित्र का कभी न मिटने वाला कलंक है। द्वितीय सर्ग के अन्त में कवि ने भी कहा है
"सत्य कि तुम थे कर्मवीर बलवीर धर्मधारी भी ज्ञानी और महादानी पर महा अहंकारी भी।"
6. कृतज्ञ किन्तु अन्यायी का साथ देने वाला कर्ण स्वभाव से कृतज्ञ था। यही कारण है कि वह जीवनभर दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ता है, फिर चाहे उसे अपने भाइयों के विरुद्ध ही शस्त्र क्यों न उठाने पड़े, लेकिन उसकी कृतज्ञता एवं मित्रता अन्धी थी। वह दुर्योधन नामक एक स्वार्थी राजा के प्रति कृतज्ञ था, जिसने उसकी शक्ति का अनुमान लगाकर उसे मित्र बनाया था। दुर्योधन जानता था कि केवल कर्ण ही अर्जुन को परास्त कर सकता है और इसी कारण उसने कर्ण की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया था। अपनी पहचान के प्रश्न से जूझने वाला कर्ण एक अन्यायी, दुराचारी और अत्याचारी के प्रति समर्पित था, जिसका उसे दुःखद परिणाम झेलना पड़ा।
7. साहसी एवं परमवीर परन्तु अन्त में पराजित महाभारत के सभी पात्रों में एक कर्ण ही ऐसा पात्र है, जिसके साहस, शौर्य और वीरता की सभी प्रशंसा करते हैं। युधिष्ठिर, पितामह भीष्म, अर्जुन यहाँ तक कि स्वयं श्रीकृष्ण भी कर्ण की वीरता के प्रशंसक थे। इसलिए कवि भी कहते हैं कि
“भीष्म, द्रोण, कृपा, अश्वत्थामा सब में कर्ण अनन्य वीरों में वह महावीर प्रत्येक दृष्टि से धन्य।"
परन्तु यही अनन्य वीर अन्त में अर्जुन के हाथों मारा जाता है, क्योंकि वह उस पक्ष की ओर से युद्ध रहा था, जिस ओर अन्याय एवं अधर्म था। अन्त में निष्कर्ष स्वरूप यह कहा जा सकता है कि कर्ण में एक नायक होने के सभी गुण विद्यमान हैं, परन्तु साथ ही उसके चरित्र में कुछ बुनियादी अन्तर्विरोध भी हैं। कुल मिलाकर उसका चरित्र एवं जीवन इतिहास का एक विलक्षण हिस्सा है।
प्रश्न 11. 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर स्त्री पात्र का चरित्र चित्रण कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कुन्ती का चरित्र चित्रण कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के प्रमुख नारी पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर कुन्ती के चरित्र की किन्हीं तीन विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर 'कर्ण' खण्डकाव्य में केवल एक ही नारी पात्र है और वह है कर्ण को जन्म देने वाली कुन्ती । कुन्ती के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं
1. सामाजिक बन्धनों में बँधी नारी कुन्ती ने विवाह से पूर्व ही कर्ण को जन्म दिया था, परन्तु वह लोक-लाज, कुल- मर्यादा आदि सामाजिक बन्धनों के भय से उसका त्याग कर देती है। “किन्तु लाज कुल की हिंसा-सी जाग उठी तत्काल भय समाज का गरज उठा कैसा था स्वर विकराल अविरल आँसू की बूँदों से कर अन्तिम अभिषेक माता ने अपने ही हाथों दिया लाल वह फेंक।"
2. अपनी सन्तान के प्रति चिन्तित माता कुन्ती कर्ण, अर्जुन, भीम आदि वीर पुत्रों की माता होते हुए भी नारी सुलभ गुण, ममता से युक्त है। इसलिए युद्ध से पूर्व ही वह अपने पुत्रों को लेकर चिन्तित हो उठती है। कुन्ती की सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि युद्ध में दोनों ही ओर से उसके पुत्र एक-दूसरे के विरुद्ध अस्त्र-शस्त्र उठाकर खड़े होंगे। एक ओर युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव होंगे तो दूसरी ओर उसी का परमवीर पुत्र कर्ण होगा।
3. कर्ण जैसे पुत्र-रत्न को पुन: न पा सकने वाली अभिशप्त माता कुन्ती ने कर्ण के जन्म लेते ही उसका परित्याग कर दिया था। युद्ध से पूर्व वह किसी प्रकार साहस बटोरकर कर्ण के पास यह सत्य उद्घाटित करने जाती है कि वह उसी का पुत्र है। उसे आशा थी कि वह उसके पास लौट आएगा, परन्तु ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि कर्ण ने दुर्योधन का साथ छोड़ना स्वीकार नहीं किया।
"पर इतना कह पाई झूठा निकला विश्वास कहीं रहो, पर सुखी रहो जाने दो मुझे निराश ।”
इस प्रकार, इस खण्डकाव्य में कुन्ती का मातृरूप कई रूपों में सामने आया है। वस्तुतः उसका चरित्र भारतीय नारी की पारिवारिक एवं सामाजिक विवशताओं को मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करता है, जो अपने नहीं कह सकती। पुत्र को अपना
प्रश्न 12. 'कर्ण' खण्डकाव्य के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर कवि केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' द्वारा रचित खण्डकाव्य 'कर्ण' में श्रीकृष्ण का पात्र अत्यन्त विशेष है। उनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं
1. पाण्डवों के शुभचिन्तक श्रीकृष्ण आरम्भ से ही पाण्डवों के हितैषी रहे हैं। पाण्डवों की विजय में उनका अत्यन्त योगदान है। भले ही उन्होंने युद्ध अस्त्र-शस्त्र न उठाया हो, परन्तु पाण्डवों को विजयश्री उन्हीं के मार्गदर्शन में मिली। में
2. कूटनीतिज्ञ श्रीकृष्ण ने धर्म की स्थापना के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपनाई और पाण्डवों को भी यही समझाया। युद्ध टालने के लिए पहले दुर्योधन को समझाने का प्रयास करते हैं, फिर कर्ण को सम्राट बनाने का प्रलोभन भी देते हैं। कर्ण के नहीं मानने पर वे उसे समझाते हैं कि तुम्हारी हार निश्चित है। अन्त में वे कर्ण को असहाय अवस्था में मारने के लिए अर्जुन को तैयार भी कर लेते हैं। इस प्रकार वह एक कूटनीतिज्ञ की भाँति महाभारत की प्रत्येक घटना को प्रभावित करते हैं।
3. सद्गुणों के प्रशंसक श्रीकृष्ण शत्रु पक्ष के वीरों की प्रशंसा करने से नहीं चूकते। कर्ण की वीरता की प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं
“धर्मप्रिय, धृति-धर्म धुरी को तुम करते हो। वीर धनुर्धर, धर्म भाव तुम भू-धर में भरते हो।"
4. मायावी श्रीकृष्ण को सभी परम मायावी मानते हैं, क्योंकि वे परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेते हैं। यद्यपि वे युद्ध में अर्जुन के सारथी बनते हैं और अस्त्र-शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा करते हैं, परन्तु फिर भी सभी मानते हैं कि पाण्डवों को विजय श्रीकृष्ण ही दिला सकते हैं। कर्ण भी कहता है कि कृष्ण की माया अर्जुन को घेरे रहती है और अन्तत: वही होगा जो कृष्ण चाहेंगे।
08 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य
कथासार/कथानक /कथावस्तु/ विषयवस्तु पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 1. 'कर्मवीर भरत' के 'राम-भरत-मिलन' सर्ग की कथा प्रस्तुत कीजिए।
अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के तृतीय सर्ग का कथानक संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'कर्मवीर भरत' के षष्ठ सर्ग की कथावस्तु लिखिए।
अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग 'राजभवन' में वर्णित घटनाओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा 'कर्मवीर भरत'' खण्डकाव्य के आधार पर 'राम-भरत-मिलन' का सारांश लिखिए।
अथवा 'कर्मवीर भरत' की कथावस्तु अपनी भाषा में लिखिए।
अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य का कथासार/कथावस्तु लिखिए।
अथना 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा 'कर्मवीर भरत' के चतुर्थ सर्ग की कथा लिखिए।
अथवा 'कर्मवीर भरत खण्डकाव्य के पंचम सर्ग 'वनगमन' का सारांश/ कथानक लिखिए।
अथवा 'कर्मवीर भरत खण्डकाव्य के 'राम-भरत मिलन' सर्ग की कथावस्तु का वर्णन अपनी भाषा में कीजिए।
अथना कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर 'राम-भरत मिलन का वर्णन कीजिए।
अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य की मुख्य कथावस्तु/ कथानक / सारांश संक्षेप में लिखिए।
अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य के आधार पर उल्लेख कीजिए कि ननिहाल से लौटने पर भरत को अयोध्या के वातावरण में कौन-कौन से परिवर्तन दिखाई पड़े?
अथवा 'कर्मवीर भरत' खण्डकाव्य में वर्णित भरत के अयोध्या आगमन का चित्रण कीजिए।
उत्तर प्रस्तुत खण्डकाव्य 'कर्मवीर भरत' के रचयिता लक्ष्मीशंकर मिश्र 'निशंक' हैं। इस खण्डकाव्य की मुख्य कथावस्तु नई नहीं है। यह मूलतः रामायण एवं रामचरितमानस पर आधारित है, परन्तु यहाँ नायक राम न होकर उनके छोटे भाई भरत है। प्रारम्भ से लेकर अन्त तक भरत के कार्य