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कबीर दास जी का जीवन परिचय kabirdas ji ka jivan Parichay

 कबीर दास जी का जीवन परिचय

kabirdas ji ka jivan Parichay

Biography of kabir das in hindi 

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नमस्कार दोस्तों स्वागत है आपका हमारी वेब साइट subhansh classes.com पर यदि आप गूगल पर कबीर दास का जीवन परिचय सर्च कर रहे हैं तो आप बिलकुल सही जगह पर आ गए हैं हम आपको इस पोस्ट में कबीर दास जी के जीवन से जुड़ी सभी जानकारी देने वाले है इसलिए आप पोस्ट को पूरा जरूर पढ़ें। यदि आपको पोस्ट पसन्द आए तो आप अपने दोस्तो को भी शेयर करें यदि आप कुछ पूछना चाहते हैं तो आप हमारे youtube chennal पर subhansh classes पर कॉमेंट करके ज़रूर बताइएगा 


जीवन परिचय- 


कबीर दास जी का जन्म संवत 1455 (1398 ई). में एक जुलाहा परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम नीरू एवं माता का नाम नीमा था। कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे, जिसने लोक लाज के भय से जन्म देते ही इन्हें त्याग दिया था। नीरु एवं नीमा को यह कहीं पढ़े हुए मिले और उन्होंने इनका पालन -पोषण किया। कबीर के गुरु प्रसिद्ध संत स्वामी रामानंद थे।


जनश्रुतियों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि कबीर विवाहित थे। इनकी पत्नी का नाम लोई था। इंडिया की दो संताने थी एक पुत्र और एक पुत्री पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था यहां यह स्मरणीय है कि अनेक विद्वान कबीर के विवाहित होने का तथ्य स्वीकार नहीं करते। इन विद्वानों के अनुसार कमाल नामक एक अन्य कवि हुए थे, जिन्होंने कबीर के अनेक दोहों का खंडन किया था। यह कबीर के पुत्र नहीं थे।


अधिकांश विद्वानों के अनुसार कबीर 1575 वि. सन् 1518 ई. में स्वर्गवासी हो गए। कुछ विद्वानों का मत है कि उन्होंने स्वेच्छा से मगहर में जाकर अपने प्राण त्यागे थे। इस प्रकार अपनी मृत्यु के समय में भी उन्होंने जनमानस से व्याप्त अंधविश्वास को आधारहीन सिद्ध करने का प्रयत्न किया, जिसके आधार पर यह माना जाता था कि काशी में मरने का उपसर्ग प्राप्त होता है और मगहर में मरने पर नरक ।


नाम

कबीरदास

पिता का नाम

नीरु

जन्म

सन् 1398 ई.

लेखन विधा

काव्य

भाषा शैली

भाषा - पंचमेवा खिचड़ी या सधुक्कडी


शैली- खण्डनात्मक, उपदेशात्मक अनुभूतिव्यंजक 

प्रमुख रचनाएं

साखी ,सबद  और रमैनी

निधन

सन्1518 ई.

साहित्य में स्थान

भक्ति काल की ज्ञानाश्रयी व संत काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है।


साहित्यिक परिचय- कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। इन्होंने स्वयं ही कहा है 


मसि कागद छूयो नहीं, कलम गह्यो नहीं हाथ।


अतः यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि उन्होंने स्वयं अपनी रचनाओं को लिपिबद्ध नहीं किया। इसके पश्चात भी उनकी वाणियों के संग्रह के रूप में रचित कई ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है। सन्त कवियों में कबीर सर्वाधिक प्रतिभाशाली कवि थे। इन्होंने मन की अनुभूतियों को स्वाभाविक रूप से अपने दोहों में व्यक्त किया।


कबीर भावना की प्रबल अनुभूति से युक्त उत्कृष्ट रहस्यवादी, समाज सुधारक, पाखण्ड के आलोचक, मानवतावादी और समानतावादी कवि थे। इनके काव्य में दो प्रवृत्तियाँ मिलती हैं—एक में गुरु एवं प्रभुभक्ति, विश्वास धैर्य, दया, विचार, क्षमा, सन्तोष आदि विषयों पर रचनात्मक अभिव्यक्ति तथा दूसरी में धर्म, पाखण्ड, सामाजिक कुरीतियों आदि के विरुद्ध आलोचनात्मक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। इन दोनों प्रकार के काव्यों में कबीर अद्भुत प्रतिभा का परिचय मिलता है।


कृतियाँ — कबीर की वाणियों का संग्रह 'बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है, जिसके तीन भाग हैं -


1. साखी — कबीर की शिक्षा और उनके सिद्धान्तों का निरूपण अधिकांशतः 'साखी' में हुआ है। इसमें दोहा छंद का प्रयोग हुआ है।


2. सबद — इसमें कबीर के गेय-पद संगृहीत हैं। गेय-पद होने के कारण इनमें संगीतात्मकता पूर्ण रूप से विद्यमान है। इन पदों में कबीर के अलौकिक प्रेम और उनकी साधना-पद्धति की अभिव्यक्ति हुई है।


3. रमैनी — इसमें कबीर के रहस्यवादी और दार्शनिक विचार व्यक्त हुए हैं। इसकी रचना चौपाई छन्द में हुई है।


काव्यगत विशेषताएँ


(अ) भावपक्ष


कबीरदास निर्गुण एवं निराकार ईश्वर के उपासक थे। इनका ईश्वर निराकार ब्रह्म है। ज्ञानमार्गी शाखा के कवि होने के कारण इन्होंने ज्ञान का उपदेश देकर जनसामान्य को जाग्रत किया। कबीर ने ज्ञान और नाम स्मरण को प्रमुखता देते। हुए प्रभु भक्ति का सन्देश दिया है।


कबीर महान् समाज-सुधारक थे। इनके समकालीन समाज में अनेक अन्धविश्वासों, आडम्बरों, कुरीतियों एव विविध धर्मों का बोलबाला था। कबीर ने इन सबका विरोध करते हुए समाज को एक नवीन दिशा देने का पूर्ण प्रयास किया। इन्होंने जाति-पाँति के भेदभाव को दूर करते हुए शोषित जनों के उद्धार का प्रयत्न किया तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया।


जाति पाँति पूछै नहिं कोई। 

हरि को भजै सो हरि का होई ॥


कबीर का काव्य ज्ञान और भक्ति से ओत-प्रोत है, इसलिए इनके काव्य में शान्त रस की प्रधानता है। आत्मा और परमात्मा के विरह अथवा मिलन के चित्रण में श्रृंगार के दोनों पक्ष (वियोग तथा संयोग) उपलब्ध हैं, किन्तु कबीर द्वारा प्रयुक्त शृंगार रस, शान्त रस का सहयोगी बनकर ही उपस्थित हुआ है।


कबीर-काव्य की सबसे बड़ी विशेषता समन्वय की साधना में है। कबीर ने हिन्दू-मुस्लिम समन्वय पर बल दिया। इन दोनों वर्गों के आडम्बरों का विरोध करते हुए इन्होंने दोनों को मिलकर रहने का उपदेश दिया।


कबीर ने गुरु को सर्वोपरि माना। इनके अनुसार सद्गुरु के महान् उपदेश ही भक्त को परमात्मा के द्वार तक पहुँचा सकते हैं। इसलिए इन्होने गुरु को परमात्मा से बढ़कर माना है। यथा-


बलिहारी गुर आपणै, ध्योहाड़ी कै बार।

 जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।।


(ब) कलापक्ष


भाषा — कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। इन्होंने तो सन्तों के सत्संग से ही सब-कुछ सीखा था। इसीलिए इनकी भाषा साहित्यिक नहीं हो सकी। इन्होंने व्यवहार में प्रयुक्त होनेवाली सीधी-सादी भाषा में ही अपने उपदेश दिए। इनकी भाषा में अनेक भाषाओं यथा— अरबी, फारसी, भोजपुरी, पंजाबी, बुन्देलखण्डी, ब्रजभाषा, खड़ीबोली आदि के शब्द मिलते हैं। इसी कारण इनकी भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' या 'सघुक्कड़ी' भाषा कहा जाता है। भाषा पर कबीर का पूरा अधिकार था। इन्होंने आवश्यकता के अनुरूप शब्दों का प्रयोग किया। कबीर ने अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया है, | उन्होंने अलंकारों को कहीं भी थोपा नहीं है। कबीर के काव्य में रूपक, उपमा, अनुप्रास, दृष्टान्त, अतिशयोक्ति आदि अलंकारों के प्रयोग अधिक हुए हैं। कबीर को दोहा और पद अधिक प्रिय रहे। उन्होंने साखियों में दोहा तथा सबद व रमैनी में गेय पदों का प्रयोग किया है।


शैली — भाषा की भाँति कबीर की शैली भी अनिश्चित एवं विविध रूपात्मक है। इनका समस्त काव्य मुक्तक है और गेय शैली में है। भाव के अनुसार इनकी शैली भी बदलती जाती है। स्थूल रूप में कबीर की शैली के तीन रूप माने जा सकते हैं


खण्डनात्मक शैली—कबीर ने धर्म के नाम पर प्रचलित रूढ़ियों एवं परम्पराओं का डटकर विरोध किया है। ऐसे स्थलों पर इनके कथन में बुद्धिवाद एवं अक्खड़पन दिखाई देता है। ये कथन मर्म पर सीधी और करारी चोट करते हैं। तीखा व्यंग्य इनकी शैली का प्रमुख गुण है। ऐसे अवसरों पर प्रयुक्त शैली को खण्डनात्मक शैली कहा जाता है।


उपदेशात्मक शैली—उपदेश देते समय कबीर अपनी बात को अत्यन्त सरल ढंग से कहते हैं, जिससे श्रोता इनके कथन को भलीभाँति समझ सके। देश-काल के अनुसार इस शैली की शब्दावली बदलती रहती है, परन्तु शब्दावली सदैव परिचित ही रहती है। हिन्दुओं को उपदेश देते समय वे शुद्ध हिन्दी का तथा हिन्दुओं में प्रचलित प्रतीकों का प्रयोग करते हैं। मुसलमानों को उपदेश देते समय वे फारसी, अरबी शब्दों का तथा इस्लामी प्रतीकों का प्रयोग करते हुए दिखाई देते हैं।


अनुभूतिव्यंजक शैली - यह शैली कबीर के साहित्यिक स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती है। पदों में गीतिकाव्य के समस्त लक्षण - मार्मिकता, अनुभूति की गहराई, संक्षिप्तता, संगीतात्मकता आदि दिखाई देते हैं। पदों की भाषा अपेक्षाकृत प्रकट और सुघट है। उसमें माधुर्य गुण भरा है। इस शैली में सन्त की कोमलता, व्यंजना की प्रौढ़ता, साधक की कातरता, स्वानुभूति का सफल अंकन तथा अलंकारों एवं प्रतीकों का मार्मिक प्रयोग है जो इनके काव्य को अलौकिक बना देता है।


हिन्दी - साहित्य में स्थान- वास्तव में कबीर महान् विचारक, श्रेष्ठ समाज-सुधारक, परम योगी और ब्रह्म के सच्चे साधक थे। इनकी स्पष्टवादिता, कठोरता, अक्खड़ता यद्यपि कभी-कभी नीरसता की सीमा तक पहुँच जाती थी, परन्तु इनके उपदेश आज भी सद्मार्ग की ओर प्रेरित करनेवाले हैं। इनके द्वारा प्रवाहित की गई ज्ञान गंगा आज भी सबको पावन करनेवाली है। कबीर में एक सफल कवि के सभी लक्षण विद्यमान थे। ये हिन्दी साहित्य की श्रेष्ठतम विभूति थे। इन्हें भक्तिकाल की ज्ञानाश्रयी व सन्त काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है।


कबीरदास जी की शिक्षा व गुरु


कबीर दास जी इतने ज्ञानी कैसे थे आखिर उन्होंने यह ज्ञान कहां से प्राप्त किया था उनके गुरु को लेकर भी बहुत सारी बातें हैं कुछ लोग मानते हैं कि इनके गुरु रामानंद जगतगुरु रामानंद जी थे इस बात की पुष्टि स्वयं कबीर दास के इस दोहे से मिलती है।


"काशी में हम प्रगट भए, रामानंद चेताए"


 यह बात इन्होंने ही कही है। उन्हें जो ज्ञान मिला था। उन्होंने जो राम भक्ति की थी। वह रामानंद जी की देन थी। राम शब्द का ज्ञान, उन्हें रामानंद जी ने ही दिया था। इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है। रामानंद जी उस समय एक बहुत बड़े गुरु हुआ करते थे। रामानंद जी ने कबीरदास को, अपना शिष्य बनाने से मना कर दिया था। यह बात कबीर दास जी को जमी नहीं । उन्होंने ठान लिया कि वह अपना गुरु, रामानंद को ही बनाएंगे।

 कबीरदास जी को ज्ञात हुआ कि रामानंद जी रोज सुबह पंचगंगा घाट पर स्नान के लिए जाते हैं। इसलिए कबीर दास जी घाट की सीढ़ियों पर लेट गए। जब वहां रामानंद जी आए। तो रामानंद जी का पैर, कबीर दास के शरीर पर पड़ गया। तभी रामानंद जी मुख से राम-राम शब्द , निकल आया। जब कबीरदास जी ने रामानंद के मुख से, राम राम शब्द सुना। तो कबीरदास जी ने, उसे ही अपना दीक्षा मंत्र मान लिया। साथ ही गुरु के रूप में, रामानंद जी को स्वीकार कर लिया।


अधिकतर लोग रामानंद जी को ही कबीर का गुरु मानते हैं लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि कबीर दास जी के कोई गुरु नहीं थे उन्हें जितना भी ज्ञान प्राप्त हुआ है उन्होंने अपनी ही बदौलत किया है कबीर दास जी पढ़े-लिखे नहीं थे इस बात की पोस्ट के लिए भी पुष्टि के लिए भी दोहा मिलता है


 "मसि कागज छुओ नहीं, कलम गई नहीं हाथ"


 अर्थात मैंने तो कभी कागज छुआ नहीं है। और कलम को कभी हाथ में पकड़ा ही नहीं है।


कबीरदास जी के प्रमुख शिष्य


कबीर के प्रिय शिष्य धर्मदास थे। कबीर अशिक्षित थे। लेकिन वह ज्ञान और अनुभव से समृद्ध थे। सद्गुरु रामानंद जी की कृपा से कबीर को आत्मज्ञान तथा प्रभु भक्ति का ज्ञान प्राप्त हुआ। बचपन से ही कबीर एकांत प्रिय व चिंतनशील स्वभाव के थे।


उन्होंने जो कुछ भी सीखा। वह अनुभव की पाठशाला से ही सीखा। वह हिंदू और मुसलमान दोनों को एक ही पिता की संतान स्वीकार करते थे। कबीर दास जी ने स्वयं कोई ग्रंथ नहीं लिखें। उन्होंने सिर्फ उसे बोले थे। उनके शिष्यों ने, इन्हें कलमबद्ध कर लिया था।


इनके अनुयाईयों व शिष्यों ने मिलकर, एक पंथ की स्थापना की। जिसे कबीर पंथ कहा जाता है। कबीरदास जी ने स्वयं किसी पंथ की स्थापना नहीं की। वह इससे परे थे। यह कबीरपंथी सभी समुदायों व धर्म से आते हैं। जिसमें हिंदू, इस्लाम, बौद्ध धर्म व सिख धर्म को मानने वाले है।


कबीरदास जी का दर्शनशास्त्र


कबीरदास जी का मानना था कि धरती पर अलग-अलग धर्मों में बटवारा करना। यह सब मिथ है। गलत है। यह एक ऐसे संत थे। जिन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया। इन्होंने एक सार्वभौमिक रास्ता बताया उन्होंने कहा कि ऐसा रास्ता अपनाओ। जिसे सभी अनुसरण कर सके। जीवात्मा और परमात्मा का जो आध्यात्मिक सिद्धांत है। उस सिद्धांत को दिया। यानी मोक्ष क्या है। उन्होंने कहा कि धरती पर जो भी जीवात्मा और साक्षात जो ईश्वर है। जब इन दोनों का मिलन होता है। यही मोक्ष है। अर्थात जीवात्मा और परमात्मा का मिलन ही मोक्ष है।


कबीर दास जी का विश्वास था। कि ईश्वर एक है। वो एक ईश्वरवाद में विश्वास करते थे। इन्होंने हिंदू धर्म में मूर्ति की पूजा नकारा। उन्होंने कहा कि पत्थर को पूजने से कुछ नहीं होगा।


"कबीर पाथर पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार।

घर की चाकी कोउ न पूजै, जा पीस खाए संसार।”


कबीर दास जी ने ईश्वर को एक कहते हुए। अपने अंदर झांकने को कहा। भक्ति और सूफी आंदोलन के जो विचार थे। उनको बढ़ावा दिया। मोक्ष को प्राप्त करने के जो कर्मकांड और तपस्वी तरीके थे। उनकी आलोचना की। इन्होंने ईश्वर को प्राप्त करने का तरीका बताया। कि दया भावना हर एक के अंदर होनी चाहिए। जब तक यह भावना इंसान के अंदर नहीं होती। तब तक वह ईश्वर से साक्षात्कार नहीं कर सकता। कबीर दास जी ने अहिंसा का पाठ लोगों को पढ़ाया।


संत कबीरदास जी के अनमोल दोहे

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धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कछु होय । 

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।।


व्याख्या- इस दोहे में कबीर मन को समझाते हुए। धैर्य की परिभाषा बता रहे हैं। वह कहते हैं कि हे मन धीरे-धीरे अर्थात धैर्य धारण करके जो करना है, वह कर । धैर्य से ही सब कुछ होता है। समय से पहले कुछ भी नहीं होता। जिस प्रकार यदि माली सौ घड़ों के जल से पेड़ सींच दे। तो भी फल तो ऋतु आने पर ही होगा।


निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय ।

 बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।। 


व्याख्या- इस दोहे का अभिप्राय है की स्वयं की निंदा करने वालों से कभी भी घबराना नहीं चाहिए अपितु उनका सम्मान करना चाहिए क्योंकि वह हमारी कमियां हमें बताते हैं हमें उस कमी को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।


कबीरा निन्दक ना मिलौ, पापी मिलौ हजार ।

 इक निंदक के माथे सो, सौं पापिन का भार ।।


व्याख्या - कबीरदास जी कहते हैं कि पाप करने वाले हजारों लोग मिल जाएं। लेकिन दूसरों की निंदा करने वाला न मिले। क्योंकि निंदा करने वाला, जिसकी निंदा करता है। उसका पाप अपने सर पर ले लेता है। इसलिए उन्होंने स्पष्ट किया है कि हजारों पापी मिले। तो चलेगा। लेकिन निंदक एक भी नहीं मिले। इसलिए हमें दूसरों की आलोचना करने से बचना चाहिए। जो दूसरों की आलोचना करता है। उससे भी बचना चाहिए।


माला फेरत जग भया, फिरा न मन का फेर ।

 कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर ।। 


व्याख्या - यह दोहा हमें आत्ममंथन करने के लिए प्रेरित करता है। वे कहते हैं कि हरी नाम की जप की माला फेरते - फेरते, कई युग बीत गए। लेकिन मन का फेरा, नहीं फिरा अर्थात शारीरिक रूप से हम कितना भी जप कर ले। हमारा कल्याण नहीं होगा। जब तक मन ईश्वर के चिंतन में नहीं लगेगा। अतः हाथ की माला के बजाए, मन में गुथे हुए, सुविचारों की माला फेरों। तब कल्याण होगा।


 न्हाये धोए क्या हुआ, जो मन मैल न जाए।

मीन सदा जल में रहे, धोए बास जाए।।


 व्याख्या- यह दोहा भी मन को मथने के लिए है। कबीरदास जी कहते हैं। नहाने-धोने से कुछ नहीं होगा। यदि मन का मैल नहीं गया है। अर्थात बाहर से हम कितना भी चरित्रवान क्यों न बन जाए। अगर मन से चरित्रवान नहीं है। तो सब व्यर्थ है।


कबीरदास जी की मृत्यु


कबीर दास जी की मृत्यु से जुड़ी हुई । एक कहानी है। उस समय ऐसा माना जाता था । कि यदि काशी में किसी की मृत्यु होती है। तो वह सीधे स्वर्ग को जाता है। वहीं अगर मगहर में, किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है। तो वह सीधा नर्क में जाएगा।


ऐसी मान्यता प्रचलित थी। कबीरदास जी ने, इस मान्यता को तोड़ने के लिए, अपना अंतिम समय मगहर में बिताने का निर्णय लिया। फिर वह अपने अंतिम समय में, मगहर चले गए। जहां पर उन्होंने विक्रम संवत 1575 यानी सन 1519 ई० मे अपनी देह का त्याग कर दिया।


कबीरदास जी की मृत्यु पर विवाद


कबीरदास जी के देह त्यागने के बाद, उनके अनुयाई आपस में झगड़ने लगे। उन में हिंदुओं का कहना था कि कबीरदास जी हिंदू थे। उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार होना चाहिए। वही मुस्लिम पक्ष के लोगों का कहना था कि कबीर मुस्लिम थे। तो उनका अंतिम संस्कार इस्लाम धर्म के अनुसार होना चाहिए ।

तब कबीरदास जी ने देह त्याग के बाद, दर्शन दिए। उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा कि मैं न तो कभी हिंदू था। न ही मुस्लिम। मैं तो दोनों ही था। मैं कहूं, तो मैं कुछ भी नहीं कहा था। या तो सब कुछ था। या तो कुछ भी नहीं था । मैं दोनों में ही ईश्वर का साक्षात्कार देख सकता हूं।


ईश्वर तो एक ही है। इसे दो भागों में विभाजित मत करो। उन्होंने कहा कि मेरा कफन हटाकर देखो। जब उनका कफन हटाया गया। तो पाया कि वहां कोई शव था, ही नहीं। उसकी जगह उन्हें बहुत सारे पुष्प मिले।

इन पुष्पों को उन दोनों संप्रदायों में आपस में बांट लिया। फिर उन्होंने अपने अपने रीति-रिवाजों से, उनका अंतिम संस्कार किया। आज भी मगहर में कबीर दास जी की मजार व समाधि दोनों ही हैं।


सामान्यत: पूछे जाने वाले प्रश्न (Frequently Ask Question) -


1. कबीर के गुरु का नाम क्या था?


 उत्तर - संत रामानंद जी


2. कबीर दास जी का जन्म कब और कहां हुआ था?


उत्तर - 1398 ई. में उत्तर प्रदेश के वाराणसी के लहरतारा नामक स्थान में हुआ था।


3. कबीर दास का पालन पोषण किसने किया था?


उत्तर - कबीर दास का पालन पोषण उनके माता पिता नीमा और नीरू ने किया था।


4. कबीर दास जी के अनमोल विचार ?


 उत्तर - कबीर दास जी के अनुसार ईश्वर निराकार ईश्वर का कोई आकार नहीं । ईश्वर को इधर-उधर बाहर ढूंढने से प्राप्त नहीं होने वाला वह हमारे अंदर ही निहित है। सच्चा ज्ञान मिलने पर ही ईश्वर की प्राप्ति होगी। गुरु ही सच्चे ज्ञान को हासिल करने का मार्ग दिखा सकते हैं। वह ईश्वर के दर्शन करा सकते हैं। बड़े-बड़े ग्रंथों को पढ़ने से ज्ञान नहीं मिलता बल्कि ज्ञान अपने अंदर के अंधकार को मिटाने और जीवन के व्यवहारिक अनुभव से मिलता है। लहरों के डर से किनारे पर बैठे रहने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जीवन रूपी समुद्र में छलांग में मारकर लक्ष्य मोती हासिल करने पड़ते हैं, कोई कितना भी खराब व्यवहार करें हमें उसके साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए।


5. कबीर दास का मूल नाम क्या है? 


उत्तर - संत कबीर दास


6. संत कबीर का वास्तविक नाम क्या था?


 उत्तर - कबीर दास जी एक राष्ट्रवादी कवि और संगीतकार थे। हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण संतो में से एक थे और मसलमानों द्वारा सफी भी माने जाते थे हिंदू मुस्लिम और सिख उनका सम्मान करते थे।


7. कबीर कहां तक पढ़े थे? 


उत्तर - जिस समय कबीर दास जी शिक्षा के योग्य हुए उस समय काशी में रामानंद प्रसिद्ध पंडित और विद्वान व्यक्ति थे कबीर ने कई बार रामानंद से मिलने और उन्हें अपना सिर से मनाने की विनती भी की लेकिन उस समय जातिवाद अपने चरम पर था इसलिए हर बार उन्हें आश्रम से भगा दिया जाता था।


8. कबीर दास के कितने गुरु थे?


 उत्तर - परमेश्वर कबीर जी ने स्वामी रामानंद जी को गुरु बनाया लोगों के नजरों में स्वामी रामानंद जी गुरु थे लेकिन जब परमात्मा कबीर साहिब जी ने स्वामी रामानंद जी को तत्वज्ञान बताया उन्होंने कबीर साहिब जी को भगवान स्वीकारा।




Biography of kabir das in english







     { Biography of kabir das }


Life introduction


Kabir Das ji was born in Samvat 1455 (1398 AD). I was born in a weaver family. His father's name was Neeru and mother's name was Neema. Some scholars also believe that Kabir was the son of a widowed brahmin, who abandoned him as soon as he gave birth out of fear of public shame. Neeru and Neema got these educated somewhere and they brought them up. Kabir's guru was the famous saint Swami Ramanand.


On the basis of public opinion it is clear that Kabir was married. His wife's name was Loi. India had two children, a son and a daughter, the son's name was Kamal and the daughter's name was Kamali. Here it is to be remembered that many scholars do not accept the fact of Kabir being married. According to these scholars, there was another poet named Kamal, who had refuted many couplets of Kabir. He was not the son of Kabir.


According to most scholars, Kabir died in 1575 V. 1518 AD. Some scholars are of the opinion that he voluntarily left his life by going to Magahar. Thus, even at the time of his death, he tried to prove the superstition prevailing in the public mind as baseless, on the basis of which it was believed that the prefix of dying in Kashi is obtained and hell if he dies in Magahar.


Literary Introduction- Kabir was not educated. he himself said


Don't touch the paper, don't touch the pen.


So it is indisputably true that he himself did not write down his works. Even after this, there is a mention of many texts composed as a collection of his speeches. Kabir was the most talented poet among the saint poets. He naturally expressed the feelings of the mind in his couplets.


Kabir was an outstanding mystic, social reformer, critic of hypocrisy, humanist and egalitarian poet with a strong sense of emotion. Two tendencies are found in his poetry - in one, creative expression on subjects like Guru and devotion, faith, patience, kindness, thoughts, forgiveness, contentment etc. and in the other, there is a critical expression against religion, hypocrisy, social evils etc. In both these types of poetry, Kabir's amazing talent is introduced.


Kritis - The collection of Kabir's speeches is famous as 'Bijak', which has three parts.


1. Sakhi - Kabir's teachings and his principles are mostly represented in 'Sakhi'. Doha verses have been used in this.


2. Sabad - In this the lyrical verses of Kabir are collected. Being lyrical, there is complete musicality in them. Kabir's supernatural love and his spiritual practice have been expressed in these verses.


3. Ramani - In this the mystic and philosophical views of Kabir have been expressed. It is composed in quadruple verse.


poetic features


(a) Bhava Paksha


Kabir Das was a worshiper of the Nirguna and formless God. Their God is the formless Brahman. Being a poet of the Gyanmargi branch, he awakened the general public by preaching knowledge. Kabir has given the message of devotion to God, giving prominence to knowledge and name remembrance.


Kabir was a great social reformer. His contemporary society was dominated by many superstitions, ostentation, evils and various religions. Opposing all this, Kabir tried his best to give a new direction to the society. He tried for the emancipation of the oppressed people by removing the discrimination of caste and creed and emphasized on Hindu-Muslim unity.


No one asks about caste and lineage. Hari ko bhajai so Hari ka hoi ॥


Kabir's poetry is full of knowledge and devotion, so his poetry has the predominance of calm rasa. In the depiction of separation or union of the soul and the Supreme Soul, both sides of makeup (disconnection and coincidence) are available, but the makeup rasa used by Kabir has appeared only as an ally of quiet rasa.



The biggest feature of Kabir-poetry is in the practice of coordination. Kabir emphasized on Hindu-Muslim harmony. Opposing the ostentation of these two classes, he exhorted both of them to live together.


Kabir considered the Guru as paramount. According to them only the great teachings of Sadguru can take the devotee to the door of God. That is why they have considered Guru above God. as


Balihari Gur apan, Dhohari kai bar. The genie manish is the deity, the time did not take action.


Language - Kabir was not educated. He had learned everything from the satsangs of the saints. That is why their language could not be literary. He gave his sermons only in the simple language used in practice. Words of many languages ​​like Arabic, Persian, Bhojpuri, Punjabi, Bundelkhandi, Brajbhasha, Khariboli etc. are found in their language. That is why their language is called 'Panchmel Khichdi' or 'Saghukkadi' language. Kabir had complete control over the language. He used words according to the need. Kabir has made natural use of ornaments. He has not imposed the ornaments anywhere. In Kabir's poetry, there have been more illustrations, usages of metaphors, similes, alliteration, exaggeration, etc. Doha and pada are more dear to Kabir. He has used couplets in Sakhis and lyrical verses in Sabad and Ramani.

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