कक्षा 10वी हिन्दी पद्य अध्याय 3 क्या लिखूं , पदुमलाल पुन्नालाल बक्सी
गद्यांशों के रेखांकित अंशों की सन्दर्भ सहित व्याख्या एवं प्रश्नोत्तर
1.आज मुझे लिखना ही पड़ेगा। अंग्रेजी के प्रसिद्ध निबन्ध लेखक ए.जी. गार्डिनर का कथन है कि लिखने की एक विशेष मानसिक स्थिति होती है। उस समय मन में कुछ ऐसी उमंग-सी मस्तिष्क में उठती है, हृदय में कुछ ऐसी स्फूर्ति-सी आती है. कुछ आवेग-सा उत्पन्न होता है कि लेख लिखना ही पड़ता है। उस समय विषय की चिन्ता नहीं रहती। कोई भी विषय हो, उसमें हम अपने हृदय के आवेग को भर ही देते हैं। हैट टाँगने के लिए कोई भी खूँटी काम दे सकती है। उसी तरहअपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए कोई भी विषय उपयुक्त है। असली वस्तु है हैट, खूँटी नहीं। इसी तरह मन के भाव ही तो यथार्थ वस्तु है,
प्रश्न
(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(ग) 'हैट' और 'खूँटी' का उदाहरण इस गद्यांश में क्यों दिया गया है?
(घ) लिखने की विशेष मानसिक स्थिति कैसी होती है?
उत्तर
(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'क्या लिखूँ?' नामक ललित निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक 'श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी है।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या अंग्रेजी के विख्यात निबन्धकार ए.जी. गार्डिनर के अनुसार, लेखन कार्य करने के लिए एक विशेष प्रकार की मानसिक स्थिति या मनोदशा का होना आवश्यक होता है। इसके लिए जब मन उल्लास, उत्साह एवं आनन्द से भर उठता है, हृदय में एक विशेष प्रकार की ताज़गी के भाव की अनुभूति होने लगती है तथा मस्तिष्क में एक विशेष प्रकार की आवेगपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो जाती है, तब बिना किसी कारण तथा विषय की चिन्ता किए लेखक स्वतः ही लिखने के लिए बाध्य हो जाता है। मनोभावों के अतिरेक की इस स्थिति में लेखक स्वतः ही लेखन के लिए तत्पर हो जाता है और उसकी लेखनी मन के भावों की अभिव्यक्ति करने लगती है। इस प्रकार मनोदशा में लेखक के लिए न तो किसी विषय का और न ही किसी शैली का कोई महत्त्व होता है। लेखक का एकमात्र उद्देश्य अपने भावो व विचारों की अभिव्यक्ति करना रह जाता है। ए.जी. गार्डिनर के कथन के अनुसार, विषय चाहे कोई भी हो लेखक उसमें मनोभावों के आवेग को भर ही देता है। साधारण से साधारण व सामान्य से सामान्य विषय को भी लेखक अपनी मनोदशा के समावेशन के द्वारा विशिष्ट बना देता है।
(ग) 'हैट' और 'खूँटी' का उदाहरण क्रमश: मन के भावों और विषय के लिए दिया गया है। गार्डिनर महोदय, हैट (मनोभावों) को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं, खूंटी अर्थात् विषय को नहीं, जैसे हैट प्रस्तुत गद्यांश में तो किसी भी खूँटी पर टाँगा जा सकता है, उसी प्रकार मनोभाव हो तो किसी भी विषय पर लिखा जा सकता है।
(घ) जब मन उल्लास, उत्साह व आनन्द से भर उठता है व हृदय में एक विशेष प्रकार की आवेगपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो जाती है, तब बिना किसी कारण तथा विषय की चिन्ता किए लेखक स्वतः ही लिखने के लिए बाध्य हो जाता है। उसकी लेखनी मन के भावों को अभिव्यक्त करने लगती है। इस प्रकार लिखने की विशेष मानसिक स्थिति का होना आवश्यक होता है।
2.उन्होंने स्वयं जो कुछ भी देखा, सुना और अनुभव किया, उसी को अपने निबन्धों में लिपिबद्ध कर दिया। ऐसे निबन्धों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे मन की स्वच्छन्द रचनाएँ हैं। उनमें न कविता की उदात्त कल्पना रहती है, न आख्यायिका लेखक की सूक्ष्म-दृष्टि और न विज्ञों की गम्भीर तर्कपूर्ण विवेचना उनमें लेखक की सच्ची अनुभूति रहती हैं। उनमें उसके सच्चे भावो की सच्ची अभिव्यक्ति होती हैं, उनमें उसका उल्लास रहता है। ये निबन्ध तो उस मानसिक स्थिति में लिखे जाते हैं, जिसमें न ज्ञान की गरिमा रहती है और न कल्पना की महिमा, जिसमें हम संसार को अपनी ही दृष्टि से देखते हैं और अपने ही भाव से ग्रहण करते हैं।
प्रश्न
(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(ग) निबन्ध लेखन के लिए आवश्यक मानसिक स्थिति
को स्पष्ट कीजिए
(घ) कविता और निबन्ध में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
(ङ) निबन्ध की किन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है?
उत्तर
(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'क्या लिखूँ?' नामक ललित निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक 'श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी है।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या लेखक कहता है कि निबन्धों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वह हृदय की बन्धनमुक्त रचनाएँ होती है। इसमें कविता के समान श्रेष्ठ कल्पना की अपेक्षा यथार्थ प्रधान होता है। इसमें कहानी लेखन के समान सूक्ष्म दृष्टि और विद्वानों के समान गम्भीर एवं तर्कपूर्ण वर्णन की आवश्यकता भी नहीं होती। निबन्ध लेखन में लेखक अपने मन की सच्ची भावनाओं को स्वतन्त्रता और स्वानुभूति के साथ अभिव्यक्त करता है। निबन्ध लिखते समय लेखक अपने भावों को जिस रूप में चाहता है, उसी रूप में व्यक्त करता है। स्वच्छन्दतावादी निबन्ध लेखक को विवेचनात्मक शैली अपनाने की आवश्यकता कभी नहीं होती। निबन्ध लेखन में सच्चे भावो की सच्ची अभिव्यक्ति होती है, इसमें किसी काव्य-रचना की भाँति कोरी कल्पना का सहारा नहीं लिया जाता है। निबन्ध लेखन में जब लेखक के हृदय में उल्लास भरा होता है, तब वह स्वतः ही अपने अनुभवों को गढ़ता चलता है। स्वच्छन्दतावादी निबन्ध लेखक अपने निबन्धों के माध्यम से हृदय की सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति करते हैं। ये निबन्ध उनकी उस मनोदशा में लिखे जाते हैं, जिसमें उन्हें न तो शान की गरिमा होती है और न ही काव्य-रचना की भांति कल्पना की महत्त्वता की, बल्कि संसार और अपने आस-पास देखकर जो अनुभव लेखक करते हैं तथा जो भाव उनके मन में आते हैं, उन्हीं अनुभवो और भावों को ग्रहण कर रचना के रूप में अभिव्यक्त करने का प्रयास करते हैं।
(ग) अंग्रेज़ी निबन्धकारों द्वारा निबन्ध ऐसी स्थिति में लिखे जाते हैं, जिनमें कोई विशेष मानसिक स्थिति नहीं होती है। ऐसी स्थिति में न तो ज्ञान की गरिमा होती है और न कल्पना की ऊंची उड़ान। इनमें लेखक के मनोभावों की स्वच्छन्द उड़ान होती है।
(घ) कविता और निबन्ध में मुख्य अन्तर यह है कि कविता में कवि की उदात्त एवं उच्च कल्पना होती है, जबकि निबन्ध में लेखक की सूक्ष्म दृष्टि तथा गम्भीर तर्कपूर्ण विवेचना होती है।
(ङ) निबन्ध की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया गया है निबन्ध हृदय की मुक्त रचनाएँ होती हैं।
1. इसमें कविता के समान श्रेष्ठ कल्पना की उपेक्षा यथार्थ प्रधान होता है।
2. निबन्ध में लेखक अपने मन की सच्ची भावनाओं को स्वतन्त्रता एवं स्वानुभूति के साथ अभिव्यक्त करता है।
3.दूर के ढोल सुहावने होते हैं, क्योंकि उनकी कर्कशता दूर तक नहीं पहुँचती। जब ढोल के पास बैठे हुए लोगों के कान के परदे फटते रहते हैं, तब दूर किसी नदी के तट पर, सन्ध्या के समय किसी दूसरे के कान में वही शब्द मधुरता का संचार कर देते हैं। ढोल के उन्हीं शब्दों को सुनकर वह अपने हृदय में किसी के विवाहोत्सव का चित्र अंकित कर लेता है। कोलाहल से पूर्ण घर के एक कोने में बैठी हुई किसी लज्जाशील नव-वधू की कल्पना वह अपने मन में कर लेता है। उस नव-वधू के प्रेम, उल्लास, संकोच, आशंका और विषाद से युक्त हृदय के कम्पन ढोल की कर्कश ध्वनि को मधुर बना देते हैं, क्योंकि उसके साथ आनन्द का कलरव, उत्सव व प्रमोद और प्रेम का संगीत ये तीनों मिले रहते हैं। तभी उसकी कर्कशता समीपस्थ लोगों को भी कटु प्रतीत नहीं होती और दूरस्थ लोगों के लिए तो वह अत्यन्त मधुर बन जाती है।
प्रश्न
(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(ग) (i) दूर के ढोल सुहावने क्यों होते हैं?
(ii) ढोल की कर्कश ध्वनि को कौन मधुर बना देता है और क्यों?
(iii) ढोल की आवाज़ किसके लिए कर्कश होती है? किसके लिए मधुर ?
(iv) दूर के ढोल' और 'नव-वधू' में साम्य (समानता) और वैषम्य (विषमता) स्पष्ट कीजिए
उत्तर
(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'क्या लिखूँ?' नामक ललित निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक 'श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी है।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक ने 'दूर के ढोल सुहावने होते हैं प्रचलित कहावत के माध्यम से अपना दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए कहा है कि ढोल की आवाज़ दूर से सुनने में इसलिए मधुर व कर्णप्रिय लगती है, क्योंकि उनकी कर्कशता दूर तक सुनाई नहीं देती। इसके विपरीत जो लोग ढोल के पास बैठे होते हैं, उसी ढोल की कर्कश आवाज़ से उनके कान के पर्दे फटते हुए महसूस होते हैं। ढोल की यही कर्कश आवाज़ सन्ध्या के शान्त वातावरण में नदी किनारे बैठे लोगों को पुलकित कर देती है। लेखक कहता है कि घर में विवाहोत्सव जैसा कोई आयोजन होता है, तब ढोल के निकट बैठे व्यक्तियों को भी ढोल का कर्कश स्वर बुरा या अप्रिय नहीं लगता है। लोग प्रसन्नचित्त होकर अपने मन में मेहमानों के शोरगुल युक्त घर के कोने में बैठी नारी-सुलभ लज्जा की कामना करने लगते हैं। विवाह की मधुर कल्पना, नव-वधू का प्रेम, उल्लास, संकोच के बीच मन में उठने वाली आशंकाएँ, दुःख से युक्त हृदय का कम्पन, ढोल की उस ध्वनि को मधुर बना देता है। इसका कारण स्पष्ट है कि नव-वधू के मन में आनन्द की अनुभूति, उत्सव की खुशी और प्रेम का संगीत ये तीनों मिलकर ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देते हैं, जो विवाहोत्सव में बजने वाले ढोल की कर्कशता को मधुरता में बदल देती है।
(ग) (i) दूर के ढोल इसलिए सुहावने होते हैं, क्योंकि उनकी कर्कशता उन्हीं को सुनाई देती है, जो उसके पास बैठे होते हैं। इसके विपरीत दूर बैठे व्यक्ति को यह कर्कशता नहीं सुनाई देती और उसे ढोल की आवाज़ मधुर व कर्णप्रिय लगती है।
(ii) ढोल की कर्कश ध्वनि को मधुर बनाने में किसी नव-वधू के प्रेम, उल्लास, संकोच आदि के मिले-जुले भाव हृदय में मधुर अनुभूति उत्पन्न करते हैं। इससे ढोल का कम्पन मधुर लगता है। मधुर कल्पनाएँ, वैवाहिक उत्सव और प्रेम का संगीत तीनों ही कर्कश ध्वनि को मधुर बना देते हैं।
(iii) ढोल की आवाज़ उनके लिए कर्कश होती है, जो ढोल निकट बैठे होते हैं और जो दूर बैठे होते हैं, उन्हें मधुर लगती है। जब पास में बैठा व्यक्ति अपने मन में नव-वधू को कल्पना कर वैवाहिक उत्सव, प्रेम और आनन्दानुभूति महसूस करने लगता है, तब उसे भी ध्वनि प्रिय लगने लगती है।
(iv) 'दूर के ढोल' और 'नव-वधू' में साम्य और वैषम्य (विषमता) यह है कि दूर से आती ढोल की आवाज़ कानों को मधुर लगती है, परन्तु पास बैठे व्यक्ति को वही ध्वनि कान के पर्दे फाड़ती महसूस होती है। इसके विपरीत नव-वधू की कल्पना वह चाहे पास बैठकर करे या दूर से करे, उसके मन में मधुरता की अनुभूति कराती है और वही कान के पर्दे फाड़ने वाला संगीत मधुर बन जाता है।
4.जो तरुण संसार के जीवन संग्राम से दूर हैं, उन्हें संसार का चित्र बड़ा ही मनमोहक प्रतीत होता है, जो वृद्ध हो गए हैं, जो अपनी बाल्यावस्था और तरुणावस्था से दूर हट आए हैं, उन्हें अपने अतीतकाल की स्मृति बड़ी सुखद लगती है। वे अतीत का ही स्वप्न देखते हैं। तरुणों के लिए जैसे भविष्य उज्ज्वल होता है, वैसे ही वृद्धों के लिए अतीत। वर्तमान से दोनों को असन्तोष होता है। तरुण भविष्य को वर्तमान में लाना चाहते हैं और वृद्ध अतीत को खींचकर वर्तमान में देखना चाहते हैं। तरुण क्रान्ति के समर्थक होते हैं और वृद्ध अतीत के गौरव के संरक्षक। इन्हीं दोनों के कारण वर्तमान सदैव क्षुब्ध रहता है और इसी से वर्तमानकाल सदैव सुधारों का काल बना रहता है।
प्रश्न
(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(ग) (i) वर्तमान समय सुधारों का समय क्यों बना रहता है?
(ii) युवा और वृद्ध व्यक्तियों के वैचारिक अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
(iii) संसार का चित्र किन्हें मनमोहक प्रतीत होता है?
(iv) वृद्ध और तरुण दोनों अपने वर्तमान से क्यों असन्तुष्ट रहते हैं?
(v) तरुण जीवन के संग्राम के अनुभव किस प्रकार से देखना चाहते हैं?
उत्तर
(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'क्या लिखूँ?' नामक ललित निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक 'श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी है।
(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या लेखक कहता है कि तरुण अर्थात् जिन नवयुवकों ने जीवन में आने वाली कठिनाइयो, समस्याओं का सामना नहीं किया है और वे केवल सुखों से ही परिचित हैं, उनके लिए यह संसार अत्यन्त आकर्षक और सुन्दर प्रतीत होता है। वे इस सुन्दर संसार में अपने जीवन की मनोरम कल्पनाएँ करते हैं। जीवन-संघर्षो से अपरिचित होने के कारण जीवन रूपी दूर के ढोल सुहावने लगते हैं। जो लोग अपना बचपन, • युवावस्था और प्रौढ़ावस्था पार कर वृद्धावस्था में कदम बढ़ा चुके हैं, उन्हें अपने अतीत का गीत गाना अच्छा लगता है। एक ओर नवयुवकों से भविष्य अभी दूर है, तो दूसरी ओर वृद्धों से उनका बचपन पीछे छूट गया है। यही कारण है कि युवा भविष्य के और वृद्ध बचपन के सपने देखते रहते हैं। लेखक कहता है कि तरुण और वृद्धं दोनों ही अपने वर्तमान से असन्तुष्ट दिखते हैं। युवा वर्ग अपने उत्साह और साहस से वर्तमान को बदल देना चाहता है, वृद्धजन बीते समय को बेहतर मानते हैं। वे सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करना चाहते हैं। इसी संघर्ष में दोनों का जीवन तनाव भरा हो जाता है। युवा अपने भविष्य के सपने वर्तमान में ही पूरा कर लेना चाहते हैं, जबकि वृद्ध अपने बचपन के सुखमय दिनों को • वापस वर्तमान में लाना चाहते हैं, जो सम्भव नहीं होता है। इससे नवयुवक अपने वर्तमान को सुधारने में लगे रहते हैं और वृद्धजन अपनी गौरवपूर्ण संस्कृति की रक्षा में प्रयासरत् दिखते हैं। वृद्ध और युवा पीढ़ी के बीच यही स्थिति तनाव का कारण बनती है तथा दोनों के बीच मतभेद चलते रहते है। यही कारण है कि वर्तमान सदैव दुःखी बने रहने के साथ-साथ सुधार का युग बना रहता है।
(ग) (i) वर्तमान समय सुधारों का समय इसलिए बना रहता है, क्योंकि युवा हो या वृद्ध सभी अपने वर्तमान से दुःखी रहते हैं। युवा अपने भविष्य के सपनों को वर्तमान में ही पूरा कर लेना चाहते हैं, जबकि वृद्ध अपने बचपन का गुणगान करते रहते हैं। वर्तमान की यथार्थ स्थिति उनके सामने होती है, जिससे वे असन्तुष्ट रहते हैं।
(ii) युवा और वृद्ध का वैचारिक अन्तर यह है कि युवाओं की यह सोच होती है कि भविष्य अधिक आकर्षक होगा। उनके लिए भविष्य उज्ज्वल होता है। वे भविष्य को वर्तमान में खींच लाना चाहते हैं। वे क्रान्ति के पक्षधर होते हैं। इसके विपरीत वृद्धों को उनका बचपन आकर्षक लगता है। वे अतीत के गौरव का संरक्षण करते हैं।
(iii) संसार का चित्र उन युवाओं को मनमोहक प्रतीत होता है, जिन्होंने जीवन संग्राम में कदम नहीं रखा है, जो सांसारिक कष्टों से अनभिज्ञ हैंऔर जीवन की यथार्थ कठिनाइयों से अनजान हैं।
(iv) वृद्धों को अपना बचपन सुखमय लगता है। वे अतीत के जीवन मूल्यों को आदर्श मानते हैं। वे युवाओं के कार्य व्यवहार और चाल-चलन को अच्छी दृष्टि से नहीं देखते है। इसके विपरीत, युवा अतीत के जीवन मूल्यों को निरर्थक मानकर वर्तमान में जीते हुए भविष्य की मोहक कल्पनाओं को वर्तमान में ही साकार कर लेना चाहते हैं। अतः दोनों ही अपने वर्तमान से असन्तुष्ट रहते हैं।
(v) तरुण जीवन के संघर्षों से अत्यधिक दूर होते हैं। उनको यह संसार मनमोहक एवं आकर्षक लगता है, क्योंकि उन्होंने कष्टों, समस्याओं एवं कठिनाइयों रूपी जीवन संग्राम का सामना नहीं किया होता है। उन्हें भविष्य प्रिय लगता है। जीवन संग्राम के अनुभव में नवयुवक अपने प्रयास से क्रान्ति को माध्यम बनाकर वर्तमान को सुधारना चाहते हैं। वे भविष्य को वर्तमान में लाना चाहते हैं।
5.मनुष्य-जाति के इतिहास में कोई ऐसा काल नहीं हुआ, जब सुधारों की आवश्यकता न हुई हो। तभी तो आज तक कितने ही सुधारक हो गए हैं। पर सुधारों का अन्त कब हुआ? भारत के इतिहास में बुद्ध देव, महावीर स्वामी, नागार्जुन, शंकराचार्य, कबीर, नानक, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द और महात्मा गाँधी में ही सुधारकों की गणना समाप्त नहीं होती। सुधारकों का दल नगर-नगर और गाँव-गाँव में होता है। यह सच है कि जीवन में नए-नए क्षेत्र उत्पन्न होते जाते हैं और नए-नए सुधार हो जाते हैं। न दोषों का अन्त है और न सुधारों का, जो कभी सुधार थे, वही आज दोष हो गए हैं और उन सुधारों का फिर नवसुधार किया जाता है। तभी तो यह जीवन प्रगतिशील माना गया है।
प्रश्न
(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(ग) (i) समाज में समाज सुधारकों की गणना क्यों समाप्त नहीं होती है?
(ii) आधुनिक समाज-सुधारकों में लेखक ने किसे अन्तिम मुख्य समाज सुधारक माना है?
(iii) दोषों का अन्त क्यों नहीं होता है?
(iv) जीवन प्रगतिशील क्यों माना गया है?
उत्तर
(क)सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'क्या लिखूँ?' नामक ललित निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक 'श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी है।
(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या – लेखक कहता है कि मानव जाति के इतिहास में कोई ऐसा समय नहीं रहा है, जिसमें बुराइयाँ व्याप्त न रही हों। वह काल चाहे आदिकाल हो, मध्यकाल हो या फिर आधुनिक काल ही क्यों न हो। लेखक कहता है कि मानव समाज में जैसे-जैसे प्रगति होती जाती है, वैसे-वैसे वह प्रगति के पथ पर बढ़ता जाता है और दोषों (बुराइयों) का निराकरण करवाता रहता है। इससे दोष धीरे-धीरे समाप्त होते जाते हैं।
.समाज में सुधारकों की कमी नहीं है। इनकी गणना करना आसान नहीं है। प्रत्येक नगर और गाँव में सुधारकों के दल मिल जाएँगे। इसी क्रम में नए-नए क्षेत्र उत्पन्न होते जाते हैं, नई बुराइयाँ उत्पन्न होती है और उनमें सुधार खोजे जाते रहते हैं।
• इस प्रकार दोष और उनके सुधार की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। जब समय बीतता है तो भूतकाल में किए गए सुधार वर्तमान काल मेंपुनः दोष रूप में परिवर्तित हो जाते हैं और उन्हें पुनः सुधार किए जाने की आवश्यकता प्रतीत होने लगती है। फिर उनका सुधार और नवसुधार किया जाता है। इन्हीं सुधारों और परिवर्तनशीलता के कारण मानव जीवन को प्रगतिशील माना गया है।
(ग) (i) समाज में नए-नए क्षेत्र उत्पन्न होने से उनमें दोष उत्पन्न होते हैं, जिनमें सुधार किया जाता है। इसके कुछ समय पश्चात् यही सुधार देश, काल और परिस्थिति की माँग के अनुसार दोष बन जाते हैं, जिससे नवसुधार आवश्यक हो जाता है। समाज में सुधार का यह क्रम अनवरत चलता रहता है।
(ii) आधुनिक समाज-सुधारकों में लेखक ने अन्तिम मुख्य समाज-सुधारक महात्मा गाँधी को माना है।
(iii) दोषों का अन्त इसलिए नहीं होता है, क्योंकि दोषों में आज जो सुधार किया जाता है, वही देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार नवसुधार की ज़रूरत प्रकट करने लगते हैं। धीरे-धीरे यही सुधार पुनः दोष बन जाते हैं।
(iv) समाज में नए-नए दोष उत्पन्न होते रहते हैं। समाज भी इन दोषों के सुधार के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है। दोष उत्पन्न होने और उनके सुधार की यह प्रक्रिया सतत और अनवरत चलती रहती है। जिसके कारण समाज प्रयत्नशील बना रहता है, इसीलिए जीवन को प्रगतिशील माना गया है।
6 .हिन्दी में प्रगतिशील साहित्य का निर्माण हो रहा है। उसके निर्माता यह समझ रहे हैं कि उनके साहित्य में भविष्य का गौरव निहित है। पर कुछ समय के बाद उनका यह साहित्य भी अतीत का स्मारक हो जाएगा और आज जो तरुण हैं, वही वृद्ध होकर अतीत के गौरव का स्वप्न देखेंगे। उनके स्थान पर तरुणों का फिर दूसरा दल आ जाएगा, जो भविष्य का स्वप्न देखेगा। दोनों के ही स्वप्न सुखद होते हैं, क्योंकि दूर के ढोल सुहावने होते हैं।
प्रश्न
(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए। (ग) प्रगतिशील साहित्य-निर्माता क्या समझकर साहित्य-निर्माण कर रहे हैं?
(घ) अतीत का स्मारक हो जाएगा' का तात्पर्य स्पष्ट कीजिए।
(ङ) आज का साहित्य कुछ समय बाद अतीत का स्मारक क्यों हो जाएगा?
अथवा
उपरोक्त गद्यांश में साहित्य को अतीत का स्मारक क्यों कहा गया है? अथवा
प्रगतिशील साहित्य को अतीत का स्मारक क्यों कहा गया है?
(च) गद्यांश में 'दूर के ढोल सुहावने होते हैं' मुहावरे का अर्थ किस प्रकार स्पष्ट किया गया है?
अथवा लेखक के "दूर के ढोल सुहावने होते हैं" कथन का क्या आशय है?
उत्तर
(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'क्या लिखूँ?' नामक ललित निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक 'श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी है।
(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या
• लेखक का मानना है कि वर्तमान में साहित्यकारों द्वारा ऐसे साहित्य की रचना की जा रही है, जिसमें नई विचारधारा के पोषक तत्त्व हैं। इन साहित्यकारों का मानना है कि इनमें भविष्य की असीम सम्भावना छिपी है, जिस पर युवा पीढ़ी गर्व कर सकेगी।
जिस प्रकार, आज का युवा या तरुण कालान्तर में वृद्धावस्था में पहुँच जाता है और वह अतीत की यादों में खोकर उसे अच्छा समझता है। उसी प्रकार, साहित्य भी सदैव आधुनिक नहीं रहता है। युवा साहित्यकारों द्वारा नवीन साहित्य का सृजन किया जाएगा, क्योंकि देश, काल की माँग के अनुसार पुराना साहित्य अपनी प्रासंगिकता खो बैठता है, तब नव साहित्य का सृजन अत्यावश्यक हो जाता है, जो युवा साहित्यकारों द्वारा समय-समय पर किया जाता है।
(ग) प्रगतिशील साहित्य-निर्माता यह समझकर साहित्य-निर्माण कर रहे हैं कि उनका साहित्य भविष्योन्मुखी है, जो भविष्य का गौरव समेटे हुए है। इस साहित्य पर युवा पीढ़ी गर्व कर सकेगी, क्योंकि इसमें भविष्य की सम्भावनाएँ और आवश्यकताओं को तलाश कर मानव की प्रगति का मार्ग प्रशस्त करने का प्रयास किया गया है।
(घ) 'अतीत का स्मारक हो जाएगा' का तात्पर्य है-अतीत की यादें स्मृति-चिह्न जैसी बनकर रह जाएँगी।
(ङ) आज का साहित्य कुछ समय बाद अतीत का स्मारक इसलिए बन जाएगा, क्योंकि आज समाज की माँग,परिस्थिति और आवश्यकतानुसार जो कुछ उपयोगी है, वही कालान्तर में युवा पीढ़ी के लिए निरर्थक बन जाएगा। इसमें दोष नज़र आने लगेंगे, तब इसमें सुधार अपेक्षित होगा। उस समय भी पुरानी पीढ़ी उसी साहित्य को अच्छा समझेगी और वह अतीत का स्मारक जैसा होकर रह जाएगा।
(च) गद्यांश में 'दूर के ढोल सुहावने होते हैं' का अर्थ-युवाओं और वृद्धावस्था में पहुँच चुके लोगों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। युवा वर्ग को वह भविष्य जो उनकी पहुँच में नहीं है, आकर्षित कर रहा है। वृद्धावस्था में पहुँच चुके लोगों को उनका बचपन और युवावस्था अर्थात् उनका अतीत बेहतर लग रहा है। इन्हीं वृद्धजनों को वह वर्तमान अच्छा नहीं लग रहा था, अब पहुँच से दूर हो चुकी वस्तुएँ उन्हें सुखद लग रही हैं।
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