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रामनरेश त्रिपाठी निराला जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय तथा रचनाएं/ram naresh tripathi ji ka jeevan parichay avm rachnaye

 ram naresh tripathi ji ka jeevan parichay avm rachnaye


रामनरेश त्रिपाठी निराला जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय तथा रचनाएं




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                  संक्षिप्त परिचय


नाम

रामनरेश त्रिपाठी


जन्म

1889 ई.


जन्म स्थान


कोइरीपुर गाँव (उ.प्र.)


पिता का नाम

पं. रामदत्त त्रिपाठी


मृत्यु

वर्ष 1962

शिक्षा

कोइरीपुर गाँव (नवीं तक)

संस्कृत, बांग्ला, गुजराती,

हिन्दी भाषा का ज्ञान

कृतियाँ

पथिक, मिलन

(खण्डकाव्य), वीरांगना,

लक्ष्मी (उपन्यास), सुभद्रा, जयन्त (नाटक), स्वप्नों


के चित्र (कहानी संग्रह)

उपलब्धि

हिन्दी साहित्य सम्मेलन,

प्रयाग के प्रचार मन्त्री

साहित्य में योगदान

हिन्दी का प्रचार-प्रसार,

'हिन्दी मन्दिर' की स्थापना कर साहित्य में बहुमूल्य योगदान दिया।




जीवन-परिचय


राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत काव्य का सृजन करने वाले कवि रामनरेश त्रिपाठी का जन्म 1889 ई. में जिला जौनपुर के अन्तर्गत कोइरीपुर ग्राम के एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता पं. रामदत्त त्रिपाठी, ईश्वर में आस्था रखने वाले ब्राह्मण थे। केवल नवीं कक्षा तक पढ़ने के पश्चात् इनकी पढ़ाई छूट गई। बाद में इन्होंने स्वतन्त्र रूप से हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, बांग्ला तथा गुजराती का गहन अध्ययन किया तथा साहित्य सेवा को अपना लक्ष्य बनाया।


ये हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के प्रचार मन्त्री भी रहे। इन्होंने दक्षिणी राज्यों में हिन्दी के प्रचार हेतु सराहनीय कार्य किया। साहित्य की विविध विधाओं पर इनका पूर्ण अधिकार था। वर्ष 1962 में कविता के आदर्श और सूक्ष्म सौन्दर्य को चित्रित करने वाला यह कवि पंचतत्त्व में विलीन हो गया।


साहित्यिक परिचय


त्रिपाठी जी मननशील, विद्वान् और थे। हिन्दी के प्रचार-प्रसार और साहित्य-सेवा की भावना से प्रेरित होकर इन्होंने 'हिन्दी मन्दिर' की स्थापना की। अपनी कृतियों का प्रकाशन भी इन्होंने स्वयं ही किया। ये द्विवेदी युग के उन साहित्यकारों में से हैं, जिन्होंने द्विवेदी मण्डल के प्रभाव से पृथक रहकरअपनी मौलिक प्रतिभा से साहित्य के क्षेत्र में कई कार्य किए। इन्होंने भावप्रधान काव्य की रचना की। राष्ट्रीयता, देशप्रेम, सेवा, त्याग आदि भावना प्रधान विषयों पर इन्होंने उत्कृष्ट साहित्य की रचना की।


कृतियाँ (रचनाएँ)


त्रिपाठी जी ने हिन्दी साहित्य की अनन्य सेवा की। हिन्दी की विविध विधाओं पर इन्होंने अपनी लेखनी चलाई। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं


1. खण्डकाव्य पथिक, मिलन और स्वप्न


2. उपन्यास वीरांगना और लक्ष्मी


3. नाटक सुभद्रा, जयन्त और प्रेमलोक


4. कहानी संग्रह स्वप्नों के चित्र


5. आलोचना तुलसीदास और उनकी कविता


6. सम्पादित रचनाएँ कविता कौमुदी और शिवाबावनी 7. संस्मरण तीस दिन मालवीय जी के साथ


8. बाल साहित्य आकाश की बातें, बालकथा कहानी, गुपचुप कहानी, फूलरानी और बुद्धिविनोद


9. जीवन चरित महात्मा बुद्ध तथा अशोक


10. टीका साहित्य 'श्रीरामचरितमानस' का टीका। इनके खण्डकाव्य में 'मिलन' दाम्पत्य प्रेम तथा 'पथिक' और 'स्वप्न' राष्ट्रीयता पर आधारित भावनाओं से ओत-प्रोत हैं। मानसी इनकी फुटकर रचनाओं का संग्रह है, जिसमें देशप्रेम, मानव की सेवा, प्रकृति वर्णन तथा बन्धुत्व की भावनाओं पर आधारित प्रेरणादायी कविताएँ संगृहीत हैं। 'कविता कौमुदी' में इनकी स्वरचित कविताओं का संग्रहण है तथा 'ग्राम्य गीत' में लोकगीतों का संग्रह है।


भाषा-शैली


त्रिपाठी जी की भाषा भावानुकूल, प्रवाहपूर्ण, सरल खड़ी बोली है। संस्कृत के तत्सम शब्दों एवं समासिक पदों की भाषा में अधिकता है। शैली सरल, स्पष्ट एवं प्रवाहमयी है। मुख्य रूप से इन्होंने वर्णनात्मक और उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया है। इनका प्रकृति-चित्रण वर्णनात्मक शैली पर आधारित है। छन्द का बन्धन इन्होंने स्वीकार नहीं किया है तथा प्राचीन और आधुनिक दोनों ही छन्दों में काव्य रचना की है। इन्होंने शृंगार, शान्त और करुण रस का प्रयोग किया है। अनुप्रास, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग दर्शनीय है।


हिन्दी साहित्य में स्थान


त्रिपाठी जी एक समर्थ कवि, सम्पादक एवं कुशल पत्रकार थे। राष्ट्रीय भावनाओं पर आधारित इनका काव्य अत्यन्त हृदयस्पर्शी है। इनके निबन्ध हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इस प्रकार ये कवि, निबन्धकार, सम्पादक आदि के रूप में हिन्दी में सदैव जाने जाएँगे।



रामनरेश त्रिपाठी निराला जी की गद्यांश रचना ' स्वदेश प्रेम , रचना के सभी गद्यांश की सन्दर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य 



स्वदेश प्रेम गद्यांश प्रसंग,सन्दर्भ, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य 




  1. अतुलनीय जिनके प्रताप का, साक्षी है प्रत्यक्ष दिवाकर घूम-घूम कर देख चुका है, जिनकी निर्मल कीर्ति निशाकर। देख चुके हैं जिनका वैभव, ये नभ के अनन्त तारागण अगणित बार सुन चुका है नम जिनका विजय घोष रण-गर्जन।





सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 



प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने उन पूर्वजों का यशोगान किया है, जिनके यश के साक्षी आज भी विद्यमान हैं। इसमें भारत के गौरवपूर्ण अतीत की झाँकी प्रस्तुत की है।


व्याख्या – कवि कहता है कि तुम अपने उन पूर्वजों को स्मरण करो, जिनके यश की तुलना कोई नहीं कर सकता और सूर्य जिनके बल और प्रताप का स्वयं साक्षी है। हमारे पूर्वज तो ऐसे थे, जिनकी निर्मल और स्वच्छ कीर्ति को चन्द्रमा भी पूरे विश्व में घूम-घूम कर देख चुका है। आकाश के अनन्त तारों का समूह भी जिनके ऐश्वर्य को बहुत पहले देख चुका है।


यह आकाश भी हमारे पूर्वजों के विजय घोषों और युद्ध की गर्जनाओं को अनेक बार सुन चुका है अर्थात् हमारे पूर्वजों के प्रताप, वैभव, यश, युद्ध कौशल, सब कुछ अद्भुत और अभूतपूर्व है। इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है।


काव्यगत सौन्दर्य


कवि ने अपने पूर्वजों का गुणगान किया है।


भाषा   संस्कृत शब्दों से युक्त साहित्यिक खड़ी बोली


शैली             भावात्मक


गुण            ओज


रस             वीर


छन्द           मात्रिक


शब्द-शक्ति    व्यंजना



अलंकार 


रूपक अलंकार 'दिवाकर', 'निशाकर' और 'तारागण' में उपमेय मेंउपमान का आरोप है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।



 अनुप्रास अलंकार 'अतुलनीय जिनके', 'कीर्ति निशाकर' और "जिनका विजय' में क्रमश: 'न', 'क' और 'ज' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'घूम-घूम' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।



  1. शोभित है सर्वोच्च मुकुट से, जिनके दिव्य देश का मस्तक गूँज रही हैं सकल दिशाएँ जिनके जय-गीतों से अब तक।। जिनकी महिमा का है अविरल, साक्षी सत्य-रूप हिम-गिरि-वर। उतरा करते थे विमान-दल, जिसके विस्तृत वक्षःस्थल पर




सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 



प्रसंग – इन पंक्तियों में कवि ने हमारे देश के दिव्य स्वरूप, प्राचीन महिमा और अतीत के गौरव का वर्णन किया है।


व्याख्या कवि कहता है कि भारत एक महान् एवं प्राचीन दिव्य देश है, जिसके मस्तक पर हिमालय रूपी सर्वोच्च मुकुट सुशोभित है। हमारे पूर्वज इतने ज्ञानी, गुणी, वीर और परोपकारी थे कि उनके विजय के यशगान से आज भी सम्पूर्ण दिशाएँ गूंज रही हैं। वे हमारे ही पूर्वज थे, जिनकी महिमा के साक्षी हिमालय पर्वत और वन प्रान्त के पेड़-पौधे हैं। हिमालय और वन आज भी उनके सत्य रूप का बोध कराते हैं। यह हमारे देश की विस्तृत भारत भूमि ही है, जिसके वक्षस्थल पर अन्य देशों के विमान भी उतरा करते थे अर्थात् भारत की कीर्ति को सुनकर दूर-दूर से विदेशी यहाँ आया करते थे। इस प्रकार भारत की कीर्ति सम्पूर्ण विश्व में फैली थी।


काव्यगत सौन्दर्य


हिमालय पर्वत को भारत के मुकुट के रूप में चित्रित किया गया है।


भाषा             साहित्यिक खड़ी बोली


शैली          भावात्मक और वर्णनात्मक


गुण           ओज


छन्द           मात्रिक


रस            वीर


शब्द-शक्ति      व्यंजना



अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'जिनके जय', 'साक्षी सत्य' और 'विस्तृत वक्षःस्थल' में क्रमश: 'ज', 'स' और 'व' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।



 रूपक अलंकार 'सर्वोच्च मुकुट' और 'सत्य-रूप हिम-गिरि-वर' में उपमेय में उपमान का आरोप है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।




  1. सागर निज छाती पर जिनके, अगणित अर्णव-पोत उठाकर। पहुँचाया करता था प्रमुदित, भूमण्डल के सकल तटों पर ।। नदियाँ जिसकी यश-धारा-सी, बहती हैं अब भी निशि-वासर । ढूँढ़ो, उनके चरण-चिह्न भी, पाओगे तुम इनके तट पर ।।




सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 



प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अपने पूर्वजों की गरिमा तथा समर्पण भाव का चित्रण किया है।


व्याख्या कवि कहता है कि हमारे पूर्वजों (हमारे देश) का गौरवपूर्ण इतिहास है। समुद्र स्वयं उनकी सेवा में लीन रहता था। वह अपने वक्ष पर उनके अनगिनत

रहा जहाजों को उठाकर प्रसन्नता से पृथ्वी के समस्त तटों तक पहुँचाया करता था। हमारे देश में रात-दिन बहने वाली नदियों को देखकर ऐसा लगता है, मानो वे हमारे पूर्वजों का यशोगान गा रही हों। धन्य थे हमारे पूर्वज, जिन्होंने अपने समय में देश का गौरवान्वित रूप देखा। आज भी माना जाता है कि उनके चरण-चिह्न नदियों और समुद्रों के तट पर मिल जाएँगे अर्थात् पूर्वजों के समान व्यवहार करने से आज भी हमें उसी यश की प्राप्ति हो सकती है, जो उन्हें प्राप्त थी।


काव्यगत सौन्दर्य


भाषा        साहित्यिक खड़ी बोली


गुण         ओज


छन्द         मात्रिक


शैली       भावात्मक 


रस          वीर


शब्द-शक्ति।     व्यंजना


अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'अगणित अर्णव' और 'चरण-चिह्न' में 'अ', 'ण' और 'च' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


 उपमा अलंकार 'यश-धारा-सी' में उपमेय में उपमान की समानता को व्यक्त किया गया है, इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।



 रूपक अलंकार इस पद्यांश में मनुष्य के यश की वृद्धि का परिचय नदी रूपी धारा से दिया गया है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।



  1. विषुवत् रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर। रखता है अनुराग अलौकिक, वह भी अपनी मातृ-भूमि पर ।।ध्रुव-वासी, जो हिम में तम में, जी लेता है कॉप-काँप कर वह भी अपनी मातृ-भूमि पर, कर देता है प्राण निछावर ।।




सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 



प्रसंग – कवि ने विषम परिस्थितियों में जी रहे लोगों के देश-प्रेम का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने देश से प्रेम करने की सीख दी है।


व्याख्या कवि अपने देश से असीम प्रेम करने की प्रेरणा देते हुए कहता है कि विषुवत् रेखा का वह भू-भाग जहाँ असहनीय गर्मी पड़ती है और वहाँ के लोग गर्मी के कारण हाँफ-हॉफ कर जीवन बिताते हैं, किन्तु इतने कष्टों के होने पर भी वे अपनी मातृभूमि से अत्यधिक लगाव रखते हैं। उनका अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम अतुलनीय होता है। वे गर्मी की मार से परेशान होने पर भी अन्यत्र जाकर बसने की बात नहीं सोचते हैं। इसी प्रकार ध्रुवीय प्रदेशों में जहाँ साल के अधिकांश महीनों में बर्फ जमी रहती है तथा भीषण सर्दी के कारण काँपते हुए जीवन बिताना पड़ता है। सर्दी, कोहरे और धुन्ध के कारण दिन-रात का अन्तर करना कठिन हो जाता है। वहाँ के लोग भी असहाय शारीरिक कष्ट सहते हुए भी वहीं रहना पसन्द करते हैं। इसका सीधा-सा कारण अपनी मातृभूमि के प्रति अटूट प्रेम ही तो है। यहाँ के निवासी शत्रुओं से रक्षा करते हुए अपनी मातृभूमि के लिए जान की बाजी तक लगा देते हैं।



काव्यगत सौन्दर्य


कवि ने स्पष्ट किया है कि विषम जलवायु में कष्टपूर्ण जीवन जी रहे लोग भी


अपने देश के प्रति असीम लगाव रखते हैं।


भाषा           सरल खड़ी बोली



गुण          ओज


छन्द         मात्रिक


शैली        भावात्मक


रस        वीर


शब्द-शक्ति   व्यंजना



अलंकार


अनुप्रास अलंकार अनुराग अलौकिक', 'मातृ-भूमि वीर

और 'ध्रुव-वासी' में क्रमश: 'अ', 'म' और 'व' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'हॉफ हॉफ' और 'कॉप-काँप' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।


  1. तुम तो, हे प्रिय बन्धु स्वर्ग-सी, सुखद, सकल विभवों की आकर। धरा-शिरोमणि मातृ-भूमि में,धन्य हुए हो जीवन पाकर।। तुम जिसका जल अन्न ग्रहण कर,बड़े हुए लेकर जिसकी रज तन रहते कैसे तज दोगे,उसको, हे वीरों के वंशज



सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 



प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मातृभूमि को स्वर्ग से बढ़कर बताते हुए देशप्रेम की प्रेरणा प्रदान की है।


व्याख्या – कवि कहता है कि हे प्रिय बन्धु (भाई)! तुमने जहाँ जीवन पाया है, वह घरा स्वर्ग के समान सुख देने वाली, सम्पूर्ण सुखों की खान है। पृथ्वी का वह भाग जहाँ तुमने जन्म लिया है, वह सभी घरा-खण्डों से श्रेष्ठ है। तुम्हारी मातृभूमि धरा-शिरोमणि है। ऐसी धरती पर जन्म लेकर तुम धन्य हो। जिस देश के अन्न-जल को ग्रहण करके तथा जिस देश की धूल-मिट्टी में खेलकर तुम बड़े हुए हो। हे वीरों के वंशज उस देश को शरीर रहते हुए कैसे छोड़ दोगे? अपने देश से प्रेम करो तथा उसका त्याग मत करो, क्योंकि इस मातृभूमि की रक्षा करना तुम्हारा पुनीत कर्त्तव्य है।


काव्यगत सौन्दर्य


कवि ने मनुष्य को मातृभूमि के लिए त्याग व समर्पण की प्रेरणा दी है।


भाषा       खड़ी बोली


गुण         ओज


छन्द      मात्रिक


शैली      भावात्मक


रस        वीर


शब्द-शक्ति    व्यंजना



अलंकार


 अनुप्रास अलंकार 'सुखद सकल', 'धरा-शिरोमणि', 'मातृ-भूमि' और 'लेकर जिसकी' में क्रमशः 'स', 'र', 'म' और 'क' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।


उपमा अलंकार 'स्वर्ग-सी' यहाँ धरती उपमेय और स्वर्ग उपमान में समानता दिखाई गई है। इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।


  1. जब तक साथ एक भी दम हो, हो अवशिष्ट एक भी धड़कन । रखो आत्म-गौरव से ऊँची-पलकें, ऊँचा सिर, ऊँचा मन।। जब तक मन में हे शत्रुंजय दीन वचन मुख से न उचारो, मानो नहीं मृत्यु का भी भय ।।एक बूँद भी रक्त शेष हो,



सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 


प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवि लोगों को स्वाभिमान के साथ जीवन जीने का सन्देश दे रहा है।


व्याख्या – कवि कहता है कि हे मातृभूमि से प्रेम रखने वाले भाई तुम अपनी अन्तिम साँस तक और बची हुई एक भी धड़कन के घड़कने तक अपने आत्म-गौरव की रक्षा करो। पलकों को किसी के भय से या दबाव से गिरने मत दो, अपना मस्तक किसी के सामने मत झुकाओ उसे सदैव ऊँचा रखो। अपने मन को भी ऊंचा रखो।हे शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले! जब तक तुम्हारे शरीर में रक्त की एक भी बूंद शेष है, तुम्हारे भीतर शक्ति शेष है, तब तक तुम अपने मुख से किसी के भीसामने दीनता प्रदर्शित मत करो।मृत्यु का भय सामने उपस्थित होने पर भी अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए डटे रहना, मृत्यु से भयभीत न होना। इस शरीर को तुम फिर से प्राप्त कर सकते हो। जीवन और मृत्यु तो चक्रवत इस संसार में चलते रहते हैं, लेकिन अपने स्वाभिमान की रक्षा सबसे पहले करो।


काव्यगत सौन्दर्य


भाषा           खड़ी बोली


गुण            ओज


शैली           भावात्मक


रस              वीर


छन्द           मात्रिक


शब्द-शक्ति    व्यंजना



अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'दीन वचन' में 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।




  1. निर्भय स्वागत करो मृत्यु का, मृत्यु एक है विश्राम स्थल जीव जहाँ से फिर चलता है, धारण कर नव जीवन-संबल।। मृत्यु एक सरिता है, जिसमें, श्रम से कातर जीव नहाकर। फिर नूतन धारण करता है, काया-रूपी वस्त्र बहाकर।।




सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 



प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में देश की रक्षा हेतु सर्वस्व समर्पित करने के लिए कहा गया है। देश की रक्षा करते हुए यदि मृत्यु का वरण करना पड़े तो वह भी श्रेयस्कर है।


व्याख्या – कवि कहता है, हे देशवासियों! मृत्यु का वरण सहर्ष करो। मृत्यु का स्वागत करो, क्योंकि मृत्यु एक विश्राम स्थल है। मृत्यु के बाद जीव पुनः नए शरीर को धारण करके फिर से अपनी जीवन-यात्रा को शुरू करता है। मृत्यु एक नदी के समान है, जिसमें नहाकर श्रम से कातर प्राणी पुराने शरीर रूपी वस्त्र का त्याग करके नए शरीर रूपी वस्त्र को धारण करता है।


कवि के कहने का तात्पर्य है कि कर्म करने के लिए जीव शरीर धारण करता है और संसार में जब वह थक जाता है, तो मृत्यु के बाद नए शरीर को नई शक्ति के साथ धारण करके पुनः अपनी जीवन-यात्रा को शुरू करता है। मृत्यु का वरण करके वह अपने पुराने काया रूपी वस्त्र को छोड़कर पुनः नए शरीर रूपी वस्त्र को धारण करता है। अतः मनुष्य को मृत्यु का स्वागत उल्लास और उत्साह से करना चाहिए।


काव्यगत सौन्दर्य


मृत्यु से भयभीत न होने की प्रेरणा देते हुए मृत्यु को जीवन का विश्राम स्थल बताया गया है। कवि की यह नितान्त मौलिक कल्पना है।


भाषा        खड़ी बोली


शैली        उद्बोधन

 


गुण          प्रसाद


रस          वीर


छन्द।        मात्रिक


शब्द-शक्ति।      व्यंजना





अलंकार


अनुप्रास अलंकार 'जीव जहाँ', 'धारण कर' और 'नव जीवन' में क्रमश: 'ज', 'र' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है। 



रूपक अलंकार 'मृत्यु एक सरिता है' में मृत्यु को नदी रूपी बताकर दोनों के मध्य का भेद समाप्त हो गया है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।


  1. सच्चा प्रेम वही है जिसकी तृप्ति आत्म-बलि पर हो निर्भर। त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर || देश-प्रेम वह पुण्य-क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित। आत्मा के विकास से जिसमें, मनुष्यता होती है विकसित।।




सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 



प्रसंग – कवि सच्चे देश-प्रेम के लिए त्याग और बलिदान जैसे गुणों को आवश्यक मानता है।


व्याख्या – कवि कहता है कि सच्चा प्रेम उसे ही कहा जा सकता है, जिसमें आत्मत्याग की भावना कूट-कूटकर भरी होती है अर्थात् आत्मत्याग के अभाव में प्रेम को सच्चा नहीं कहा जा सकता है। सच्चे प्रेम को पाने के लिए यदि आत्मबलिदान भी देना पड़े, तो हमें हिचकना नहीं चाहिए। त्याग के बिना प्रेम निर्जीव-सा होता है। देश-प्रेम ऐसा पवित्र क्षेत्र है, जो निर्मल, निष्कलंक और त्याग जैसे गुणों से खिल उठता है, जिसकी कोई सीमा नहीं होती है अर्थात् देश-प्रेम की सुन्दरता असीम और पवित्र त्याग से दिखाई देती है। देश-प्रेम वह पवित्र भावना होती है, जो मनुष्य की आत्मा और मनुष्यता के विकास के लिए आवश्यक होती है। अतः मनुष्य में मनुष्यता में का पूर्ण विकास हो, इसके लिए उसमें देश-प्रेम की भावना आवश्यक है।


काव्यगत सौन्दर्य


देश-प्रेम के लिए त्याग और बलिदान आवश्यक है, इसी भाव को कवि ने यहाँ प्रकट किया है।


भाषा       सरल खड़ी बोली 



शैली      तुकान्त मुक्त भावात्मकता


गुण।       ओज


छन्द        मात्रिक


रस          वीर


शब्द-शक्ति    व्यंजना



अलंकार

 

अनुप्रास अलंकार 'अमल असीम' में 'अ' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है


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