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कर्मनाशा की हार' की कथावस्तु या सारांश/karmnasha ki har ka saransh

  'कर्मनाशा की हार' की कथावस्तु या सारांश/karmnasha ki har ka saransh 

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कर्मनाशा की हार' का सारांश

प्रस्तुत कहानी 'कर्मनाशा की हार' में इसके लेखक श्री शिवप्रसाद सिंह ने भारत के गाँवों में व्याप्त अन्धविश्वास, ईर्ष्या-द्वेष एवं ऊँच-नीच की भावना को व्यक्त किया है। कहानी का सारांश निम्नवत् है


कर्मनाशा एक नदी का नाम है, जिसके किनारे नयी डीह नाम का एक गाँव था। पैरों से अपाहिज भैरो पाण्डे इस गाँव के एक ब्राह्मण थे। भैरो पाण्डे का एक छोटा भाई था कुलदीप । माता-पिता की मृत्यु के समय कुलदीप दो वर्ष का दुधमुँहा बालक था। भैरो ने कुलदीप का लालन-पालन बड़े स्नेह से किया। इस प्रकार कुलदीप सोलह वर्ष का सुन्दर छरहरा युवक बन गया।


भैरो के पास पुश्तैनी मकान था। एक दिन गाँव के एक मल्लाह की विधवा पुत्री फुलमत अपनी बाल्टी माँगने आयी। बाल्टी देते समय कुलदीप का शरीर फुलमत से टकरा गया। टक्कर लगने से दोनों मुस्कराने लगे। भैरो ने यह सब देख लिया तथा वह कुलदीप पर निगाह रखने लगा। एक दिन चाँदनी रात में कुलदीप और फुलमत कर्मनाशा नदी के तट पर एकान्त में चले गये। भैरो को इसकी सूचना  मिल गयी। वह भी वहाँ पहुँच गया और उसने दोनों को खूब डाँटा तथा कुलदीप को एक चाँटा भी मारा। लज्जा और भय के कारण कुलदीप घर से भाग गया। भैरो ने कुलदीप को बहुत ढूँढा, परन्तु वह नहीं मिला। भैरो अकेले रह गये। एक बार कर्मनाशा नदी में भयंकर बाढ़ आ गयी। उसी समय फुलमत ने एक बच्चे को जन्म दिया। बच्चा कुलदीप का था। पुरातनपन्थी कट्टर रूढ़िवादी गाँव की धनेसरा चाची ने यह बात चला दी कि बाढ़ का कारण फुलमत का पाप है। बाढ़ तभी शान्त होगी, जब फुलमत और उसके बच्चे की बलि कर्मनाशा को दे दी जाएगी। पंचायत ने फुलमत की बलि देना तय कर दिया। फुलमत अपने बच्चे को छाती से चिपकाये भयभीत खड़ी थी कि तभी भैरो पाण्डे आये तथा उन्होंने सुकुमार बच्चे को गोद में लेकर कहा कि यह मेरे भाई का बेटा है तथा फुलमत हमारे परिवार की बहू है। इसकी बलि कोई नहीं दे सकता। नदी की बाढ़ को बाँध बनाकर रोका जा सकता है। भीड़ में सन्नाटा छा गया। सहमे हुए और स्तब्ध ग्रामीण अपाहिज भैरो पाण्डे के चट्टान की तरह अडिग व्यक्तित्व को देखते रह जाते हैं। कर्मनाशा की बाढ़ उतर जाती है और नदी पूर्ववत् बहने लगती है। यही 'कर्मनाशा की हार' अथवा 'रूढ़ियों की हार' है।


 कर्मनाशा की हार


श्री शिवप्रसाद सिंह द्वारा कृत 'कर्मनाशा की हार कहानी, एक सामाजिक कहानी है। कर्मनाशा नदी रूढ़ियों की प्रतीक है। शिवप्रसाद जी एक सशक्त कथाशिल्पी हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त रूढ़ियों तथा अन्धविश्वासों पर व्यंग्य किया है तथा उनका समाधान भी प्रस्तुत किया है। तात्त्विक दृष्टि से कहानी की समीक्षा अग्र प्रकार से है


1. कथानक- इस कहानी में प्रगतिशीलता का समर्थन तथा रूढ़ियों का विरोध किया गया है। कुलदीप ब्राह्मण जाति से तथा फुलमत मल्लाह जाति से है। फुलमत एक विधवा युवती है। दोनों को प्रेम-पाश में बंधा देखा कुलदीप का बड़ा भाई भैरो पाण्डे उन्हें डाँटता है, अत: डर के कारण कुलदीप गांव छोड़ कर भाग जाता है। दोनों के प्रेम के प्रतिफल के रूप में फुलमत एक बच्चे को जन्म देती है। गाँव में यह प्रचार किया जाता है कि 'कर्मनाशा' को विनाशकारी बाढ़ फुलमत के पाप कर्मों का परिणाम है। पंचायत निर्णय देती है कि माँ तथा अवैध सन्तान को कर्मनाशा नदी की भेंट चढ़ा दिया जाए। ऐसे समय पर भैरो पाण्डे इसका विरोध करता है तथा फुलमत को अपने भाई कुलदीप की पत्नी घोषित करता है। कहानी का कथानक सुगठित है। आरम्भ, मध्य तथा अन्त रोचक है। कौतूहल तथा रोचक घटनाप्रसंग कथावस्तु के विशेष गुण है।


2. पात्र तथा चरित्र-चित्रण- 'कर्मनाशा की हार' कहानी के पात्र सामान्य ग्रामीण लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भैरो पाण्डे, कुलदीप, फुलमत, धनेसरा चाची, गाँव का मुखिया आदि कहानी के विशिष्ट पात्र है। पात्रों में प्रगतिशील विचारधारा वाले पात्र तथा रूढ़ियों और अन्धविश्वास में जकड़े ढोंगी पात्र दो वर्ग हैं। कुलदीप सोलह वर्षीय भावुक नवयुवक है और फुलमत विधवा नवयौवना। धनेसरा चाचो तथा मुखिया ढकोसलेबाजों के प्रतीक हैं। भैरो पाण्डे आदर्श, यथार्थवादी तथा प्रगतिशील विचारों वाला अधेड़ पण्डित है। पात्र चित्रण सजीव है। भैरो का चरित्र बड़े सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। यह कथावाचक ब्राह्मण फुलमत की बलि दिये जाने का विरोध इन शब्दों में करता है "कर्मनाशा की बाद दुधमुंहे बच्चे और एक अबला की बलि देने से नहीं रुकेगी। उसके लिए तुम्हें पसीना बहाकर बाँधों को ठीक करना होगा।" इस प्रकार पात्र - योजना तथा चरित्र चित्रण की दृष्टि से प्रस्तुत कहानी पर्याप्त सफल है।


3. कथोपकथन या संवाद- कहानी में प्राणतत्त्व की प्रतिष्ठा का कार्य संवादों के द्वारा होता है। इस कहानी के संवाद संक्षिप्त तथा पात्रानुकूल है। पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं को मनोवैज्ञानिक संवादों के माध्यम से सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया गया है। संवादों में पैनापन तथा चुभते व्यंग्य


"मेरे जीते जी बच्चे और उसकी माँ का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता.. ..समझे।"


"पाप का फल तो भोगना ही होगा पाण्डे जी, समाज का दण्ड तो झेलना ही होगा।"


..मैं आपके समाज को कर्मनाशा से कम नहीं समझता। किन्तु मैं एक-एक के पाप गिनाने लगें, तो यहाँ खड़े सारे लोगों को परिवार समेत कर्मनाशा के पेट में जाना पड़ेगा........."


इस प्रकार संवाद की दृष्टि से 'कर्मनाशा की हार' एक सफल रचना है। 


4. देश-काल और वातावरण- वातावरण तथा देश-काल के प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से यह कहानी एक सफल रचना है। गाँव में ऊँच-नीच का भेद, युवक-युवतियों का प्रेम तथा धनेसरा चाची और मुखिया जैसे लोगों की कमी आज भी नहीं है। बाद का चित्रण बड़ा सजीव बन पड़ा है। 'कर्मनाशा' को प्रतीकात्मक रूप में चित्रित करने में कथाकार सफल रहे हैं। इस प्रकार कहानी कला के तत्त्वों के आधार पर प्रस्तुत रचना में देश-काल और वातावरण तत्त्व का सुन्दर निर्वाह हुआ है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है—' पूरबी आकाश पर सूरज दो लट्ठे ऊपर चढ़ आया था। काले-काले बादलों की दौड़-धूप जारी थी, कभी-कभी हलकी हवा के साथ बूँदें बिखर जातीं। दूर किनारे पर बाढ़ के पानी की टकराहट हवा में गूंज उठती है।


5. भाषा-शैली- शिल्प की दृष्टि से यह एक सफल रचना है। शिवप्रसाद सिंह ने बाढ़ का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है। भाषा में ग्रामीण शब्दों के साथ-साथ उर्दू के शब्द भी प्रयुक्त किये गये हैं; जैसे- हौसला, जान जार-बेजार इत्यादि। मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग भी सुन्दर ढंग से हुआ है; जैसे 'न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी', 'कालिख पोतना' , 'खाक छानना' इत्यादि। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-"परलय न होगी. तब क्या बरक्कत होगी? हे भगवान! जिस गाँव में ऐसा पाप करम होगा वह बहेगा नहीं, तब क्या बचेगा।" माथे के लुग्गे को ठीक करती धनेसरा चाची बोली, “मैं तो कहूँ कि फुलमतिया ऐसी चुप काहे है। राम मेरे राम, एक ने पाप किया, सारे गाँव के सिर बीता। उसकी माई कैसी सतवन्ती बनती थी। आग लाने गयी तो घर में जाने नहीं दिया। मैं तो तभी छनगी कि हो न हो दाल में कुछ काला है।"


शिल्प की दृष्टि से कहानी विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। शिल्प की विशेषताओं में फुलमत के कारुणिक वियोग का चित्रण है। फुलमत विधवा है। पिछले दर्द को भुलाने के लिए उसने कुलदीप से प्रेम-सम्बन्ध बनाये, परन्तु वह भी उसे असहाय छोड़कर भाग गया। फुलमत की दर्दीली हूक भैरो को सुनाई पड़ती है— "मोहे जोगनी बनाके कहाँ गइले रे जोगिया?" कथाशिल्प में काव्य द्वारा दर्द पैदा करने का प्रयोग सफल रहा है। कथा में चित्रण सजीव है तथा उपमाओं का यथोचित उपयोग हुआ है। इस प्रकार यह कहानी भाषा-शिल्प की दृष्टि से एक सफल रचना है।


6. उद्देश्य- आज के प्रगतिशील युग में भी भारतीय ग्राम रूढ़ियों, अन्धविश्वासों तथा वर्गगत ऊँच-नीच के विषैले संस्कारों में डूबे हुए हैं। प्रस्तुत कहानी में अन्धविश्वासों और रूढ़ियों का विरोध करते हुए मानवतावाद और प्रगतिशीलता का समर्थन किया गया है। इस घटनाक्रम में ब्राह्मण युवक का मल्लाह विधवा की लड़की से प्रेम-प्रसंग चित्रित किया गया है। पहले 'भैरो' इसका विरोध करते हैं, फिर 'फुलमत' को अपने छोटे भाई की पत्नी के रूप में स्वीकार करके ऊँच-नीच के वर्गगत भेद को नकारते हैं। इस प्रकार उपेक्षितों के प्रति संवेदना, रूढ़ियों का विरोध तथा मानवतावादी विचारों की स्थापना कथा का उद्देश्य है। इसी उद्देश्य को व्यक्त करते हुए भैरो पाण्डे कहते हैं-"मैं आपके समाज को कर्मनाशा से कम नहीं समझता।"


7. शीर्षक- इस कहानी का शीर्षक सरल, कौतूहलवर्द्धक, उद्देश्यपूर्ण और प्रतीकात्मक है। कर्मनाशा नदी निरर्थक रूढ़ियों और अन्धविश्वासों का प्रतीक बन गयी है। उसे नरबलि न मिलना उसकी हार है और मानवता की जीत। इसी आदर्श में प्रस्तुत कहानी के शीर्षक की सार्थकता निहित है।


इस प्रकार कहानी कला के तत्त्वों के आधार पर यह कहानी एक सफल तथा जीवन्त रचना है। सामाजिक दृष्टि से भी यह कहानी सुन्दर तथा आदर्श रचना कही जा सकती है।


 भैरो पाण्डे का चरित्र-चित्रण


(2011, 12, 13, 16, 17, 18, 19, 20) 


भैरो पाण्डे; श्री शिवप्रसाद सिंह की 'कर्मनाशा की हार' कहानी का प्रमुख पात्र और नयी डीह गाँव का आदर्श व्यक्ति है। उसकी चारित्रिक विशेषताएं निम्नलिखित हैं


1. कर्मठ और गम्भीर - भैरो पाण्डे पैर से लाचार होते हुए भी बहुत कर्मठ है। वह सारे दिन काम में लगा रहता है। वह गम्भीर प्रकृति का व्यक्ति है। फुलमत और अपने भाई कुलदीप के परस्पर टकरा जाने पर वह इतनी कटु दृष्टि से उन्हें देखता है कि दोनों इधर-उधर भाग खड़े होते हैं।


2. भाई के प्रति अपार प्रेम- भैरो पाण्डे को अपने भाई कुलदीप से अपार प्रेम था। कुलदीप की दो वर्ष की अवस्था में उसके माता-पिता की मृत्यु हो गयी थी। इसलिए उसका लालन-पालन पूरे प्यार से भैरो पाण्डे ने ही किया था। कुलदीप के घर से भाग जाने पर पाण्डे दुःख के सागर में डूबने-उतराने लगता है-"अपने से तो कौर भी नहीं उठ पाता था। भूखा बैठा होगा कहीं।"


3. मर्यादावादी और मानवतावादी- भैरो पाण्डे अपनी मर्यादावादी भावनाओं के कारण फुलमत को पहले अपने परिवार का अंग नहीं बना पाता, लेकिन मानवतावादी भावना से प्रेरित होकर वह फुलमत और उसके बच्चे की कर्मनाशा नदी में बलि देने का कड़ा विरोध करता है और उन्हें अपने परिवार का सदस्य स्वीकार करता है—"मेरे जीते-जी बच्चे और उसकी माँ का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।"


4. निर्भीक और साहसी–भैरो पाण्डे निर्भीक व्यक्ति है। वह मुखिया के इस वक्तव्य से कि- 'समाज का दण्ड तो झेलना ही होगा'- भयभीत नहीं होता। वह बड़े साहस से उसका उत्तर देता है "जरूर भोगना होगा मुखिया जी…... मैं आपके समाज को कर्मनाशा से कम नहीं समझता। किन्तु मैं एक-एक के पाप गिनाने लगूं, तो यहाँ खड़े सारे लोगों को परिवार समेत कर्मनाशा के पेट में जाना पड़ेगा।"


5. प्रगतिशील विचारों का पोषक—भैरो पाण्डे अन्धविश्वासों का खण्डन और रूढ़िवादिता का विरोध करने को तत्पर रहता है। वह कर्मनाशा की बाढ़ को रोकने के लिए निर्दोष प्राणियों की बलि दिये जाने का विरोध करता है तथा बाढ़ को रोकने के लिए बाँधों को ठीक करने पर बल देता है।


इस प्रकार भैरो पाण्डे प्रस्तुत कहानी का एक प्रगतिशील विचारों वाला मानवतावादी पात्र है। अपनी मानवतावादी भावना के बल पर वह सामाजिक रूढ़ियों का डटकर विरोध करता है और कर्मनाशा को हारने पर विवश कर देता है।



Q.कर्मनाशा की हार किसकी कहानी है?


Ans.प्रसिद्ध कहानी लेखक डॉ. शिव प्रसाद द्वारा लिखित 'कर्मनाशा की हार' सत्य घटना पर आधारित है।

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