महाकवि कालिदास का जीवन परिचय
Kalidas ka jivan parichay
महाकवि कालिदास का जीवन परिचय
महाकवि कालिदास भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों दृष्टियों से संस्कृत के सर्वमान्य कवि माने जाते हैं। महाकवि के काव्यों की जितनी ख्याति अथवा प्रसिद्धि निश्चित है, उनकी जीवनी तथा काल निरूपण उतना ही अनिश्चित है। कालिदास के जन्म एवं जन्मभूमि के विषय में बहुत से मतभेद दिखाई देते हैं। इनकी जन्मभूमि के विषय में कश्मीर तथा बंगाल के नाम लिए जाते हैं। परन्तु अभी तक इसका निर्णय नहीं हुआ है। कुछ किंवदन्तियों के आधार पर थोड़ी बहुत जानकारी प्राप्त होती है। कवि ने उज्जयिनी के लिए विशेष पक्षपात दिखलाया है इस आधार पर यही इनकी जन्मभूमि प्रतीत होती है। कालिदास ने अवन्ती प्रदेश की भौगोलिक स्थिति का वर्णन मेघदूत में किया है तथा वहाँ की नदियों का नाम भी निर्देश किया है। इस प्रकार उज्जयिनी के प्रति उनके विशेष पक्षपात और सूक्ष्म भौगोलिक परिचय के आधार पर यह कह सकते हैं कि कालिदास का सम्बन्ध यहीं से है। भारतीय जनश्रुति के अनुसार महाकवि कालिदास राजा विक्रमादित्य के नवरत्नों में से प्रमुख थे। इनके ग्रन्थों से भी विक्रमादित्य के साथ इनका सम्बन्ध सूचित होता है।
महाकवि ने शुङ्गवंशीय राजा अग्निमित्र को अपने नाटक 'मालविकाग्निमित्रम्' का नायक बनाया है। अतएव वे उसके अर्थात् विक्रम-पूर्व द्वितीय शतक के अनंन्तर होंगे। इसी प्रकार सप्तम शताब्दी में हर्षवर्धन के सभा कवि बाणभट्ट ने हर्षचरित में कालिदास की कविता की प्रशंसा की है। इसके अनुसार कवि का समय विक्रमपूर्व द्वितीय शतक से लेकर विक्रम की सप्तम शतक के बीच होना चाहिए। महाकवि के समय के विषय में तीन मत मुख्यरूप से प्रचलित हैं
प्रथम मत महाकवि कालिदास को षष्ठ शतक का बताता है।द्वितीय मत महाकवि की स्थिति गुप्तकाल में बताता है। तृतीय मत महाकवि का समय विक्रम संवत् के आरम्भ में बताता है।
महाकवि कालिदास विरचित प्रमुख रचनाएँ कविकुलगुरु कालिदास विरचित प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
1. नाट्यग्रन्थ
(i) अभिज्ञानशाकुन्तलम्
(iii) मालविकाग्निमित्रम्
2. महाकाव्य ग्रन्थ
(i) रघुवंशम्
3. गीतिकाव्य
(i) मेघदूतम्
(ii) विक्रमोर्वशीयम्
(ii) कुमारसम्भवम्
(ii) ऋतुसंहार
महाकवि कालिदास की काव्य शैली/काव्य कला
महाकवि कालिदास की कृतियों में संस्कृत काव्य-शैली को अत्यन्त सुन्दर रूप से प्रयोग किया गया है। महाकवि कालिदास नीरस और सर्वप्रसिद्ध कथानक को भी अति रुचिकर और मनोहर बना देते हैं। महाकवि की इस प्रकार की सर्वतोन्मुखी प्रतिभा उन्हें विश्व-साहित्य में असाधारण स्थान प्रदान करती है। उन्होंने गीतिकाव्य, नाटक, महाकाव्य सभी की रचना में अपनी प्रखर प्रतिभा का समान रूप से परिचय दिया है। कालिदास के काव्यों में जिस प्रकार काव्य की अन्तरात्मा 'रस' की शैली पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है ऐसी अन्यत्र दिखाई नहीं देती है। महाकवि की लोकप्रियता का मुख्य कारण उनकी प्रसादपूर्ण लालित्ययुक्त और परिष्कृत शैली है। उन्होंने अपने सभी काव्य वैदर्भी रीति में लिखे हैं। ललित पदविन्यास के माधुर्य तथा क्लिष्टता और कृत्रिमता के सर्वथा परिहार से कालिदास की रचनाएँ स्वाभाविक, सरल, सुन्दर, सुबोध तथा प्रसादगुण से युक्त हैं।
अलंकारों के प्रयोग में भी महाकवि अपनी सूक्ष्म मर्मज्ञता का परिचय देते हैं। उन्होंने शब्दालंकारों की अपेक्षा अर्थालंकारों पर विशेष ध्यान दिया है। महाकवि के शाब्दिक चित्र सजीव एवं स्वाभाविक प्रतीत होते हैं। कालिदास उपमा अलंकार के सम्राट कहे जाते हैं। कालिदास ने साहचर्य प्रकाशित करने के लिए 'छाया' को उपमान के रूप में लिया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों के प्रयोग में उनकी बहुश्रुतता एवं व्यापक दृष्टि का परिचय प्राप्त होता है।
"उपमा कालिदासस्य"
उपमा कालिदासस्य अर्थात् "कालिदास की उपमा प्रसिद्ध है।" अलंकार शास्त्र के विद्वानों ने उपमा को एक प्रमुख अलंकार माना है, जिसका काव्य रचना में विभिन्न रूपों में प्रयोग किया जाता है।
उपमा जैसे अर्थालंकारों में किसी-न-किसी प्रकार की स्मृत्ति होती है, जैसे कवि कहीं पर नारी का सौन्दर्य वर्णन करना चाहते हैं, वहाँ पर वास्तविक नारी नहीं होती हैं। अपितु किसी वास्तविक नारी के अवलम्बन से कवि के मन में जो नारी की मूर्ति जाग्रत होती है। उसी को कवि बड़े ही मनोरम ढंग से रंग पर रंग, सुर पर सुर, रेखा पर रेखा लाकर प्रकट करने की चेष्टा करता है। इसलिए महाकवि को 'दीपशिखा' का नाम भी दिया गया है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि कालिदास उपमा अलंकार का प्रयोग करने में अद्वितीय हैं। इनके समान उपमा अलंकार का प्रयोग करने में उनका कोई भी प्रतिद्वन्द्वी नहीं है। 'उपमा कालिदासस्य' यह निर्विवाद सिद्ध होता है।
बोर्ड परीक्षाओं में पूछे जाने वाले महत्त्वपूर्ण श्लोक
श्लोक
इति प्रगल्भं पुरुषाधिराजो मृगाधिराजस्य वचो निशम्य प्रत्याहतास्त्रो गिरिशप्रभावा दात्मन्यवज्ञां शिथिलीचकार ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में सिंह के वचनों को सुनकर राजा दिलीप के ऊपर होने वाली प्रतिक्रिया का वर्णन महाकवि के द्वारा किया गया है।
संस्कृत व्याख्या – राजा दिलीपः सिंहस्य वचो निशम्य ब्रह्मादिभिर- प्यनुलङ्ख्यशासनस्य भगवतो शंकरस्य प्रभावादेव मे बाहुप्रतिष्टम्भो जातः न पुनरेतस्य पशोः केशरिण इति सिंह वचसा विज्ञाया स्वापमान भावं तत्याज ।
हिन्दी व्याख्या – राजा दिलीप ने सिंह के पहले कहे हुए धृष्टतायुक्त वचनों को सुनकर तथा भगवान् शिव के प्रभाव से मेरे अस्त्र रुके हुए हैं ऐसा सोचकर अपने विषय में अपमान भाव को शिथिल कर दिया।
श्लोक –
प्रत्यब्रवीच्चैनमिषुप्रयोगे
तत्पूर्वभङ्गे वितथप्रयत्नः।
जडीकृतस्त्र्यम्बकवीक्षणेन
वज्र मुमुक्षन्निव वज्रपाणिः।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में राजा दिलीप के सिंह को उत्तर देने हे प्रस्तुत होने का वर्णन महाकवि ने किया है।
संस्कृत व्याख्या – राज्ञो दिलीपस्य वाणप्रयोगे सर्वप्रथमोऽयं पराभवः शिवावलोकनस्तम्भितवाहोः इन्द्रस्थ इन व्यर्थप्रयासो दिलीपः सिंहस्य समयोचितं प्रत्युत्तरं ददौ।
हिन्दी व्याख्या – पहले रुकावट होने पर बाण चलाने में असफल प्रयोग वाले राजा दिलीप ने वज्र प्रहार करने की इच्छा वाले भगवान् शिव के देखने से निश्चेष्ट हुए इन्द्र के समान सिंह से कहा।
श्लोक
संरुद्धचेष्टस्य मृगेन्द्र कामं हास्यं वचस्तद्यदहं विवक्षुः । अन्तर्गतं प्राणभृतां हि वेद सर्व भवान्भावमतोऽभिधास्ये ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में आत्मसन्तोष की प्राप्ति हेतु राजा दिलीप, सिंह से कह रहे हैं।
संस्कृत व्याख्या – किमपि प्रतिकर्तुं सर्वथाऽसमर्थस्य मे वचनं कामं हास्यायैव स्यात्, तथापि सर्वज्ञस्य भवतः किमज्ञातमस्ति। अतोऽहं हृद्गतं किञ्चित् वच्मि । यतो हि त्वं प्राणिनां हृदयगतं बाण्याऽप्रकाशितमपि जानासि एव। तस्माद् वक्तुमिष्टं स्वयं कथिष्यामि ।
हिन्दी व्याख्या – हे मृगेन्द्र ! असफल प्रयास के फलस्वरूप मेरी यह बात जो मैं कहना चाहता हूँ वह अत्यन्त हास्यास्पद है। फिर भी आप प्राणियों के मन के सभी भावों को जानते हो। अतः मैं अपनी बात कहूँगा।
श्लोक
मान्यः स मे स्थावरजङ्गमानां सर्गस्थितिप्रत्यवहारहेतुः । गुरोरपीदं धनमाहिताग्ने- र्नश्यत्पुरस्तादनुपेक्षणीयम् ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में राजा दिलीप, सिंह को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि यह गौरूपी धन उपेक्षणीय नहीं है। इसका वर्णन करते हुए महाकवि कालिदास कहते हैं।
संस्कृत व्याख्या – चराचरात्मकस्य जगतः कारणं भगवान् शम्भु बाण में भान्य, तदनुचरत्वात् भवदुक्तमपि समादरणीयमेव एवमग्निहोत्रणो गुरोरपि गीरूपं धनं पुरस्ताद नश्यत् कथं त्वमिव मयोपेक्षणीयम्। अतो गां विहाय नाहं गन्तुं शक्यः।
हिन्दी व्याख्या – (राजा दिलीप सिंह से कहते हैं) इस संसार में वृक्ष, पर्वत आदि स्थावर तथा मनुष्यादि जंगम के उत्पत्ति तथा चालन एवं विनाश का कारण भगবার্ शिव मेरे द्वारा पूजनीय हैं। परन्तु अग्निहोत्री गुरु वशिष्ठ के सामने नष्ट होता हुआ यह गौरुपी घन भी उपेक्षा करने योग्य नहीं है अर्थात् इस गौ को छोड़कर मैं किस प्रकार से जा सकता हूँ।
श्लोक
एकातपत्रं जगतः प्रभुत्वं नवं वयः कान्तमिदं वपुश्च। अल्पस्य हेतोर्बहु हातुमिच्छन् विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम्।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में सिंह, राजा दिलीप को कर्तव्याकर्तव्य विचार में मूढ़ समझता है।
संस्कृत व्याख्या – धेनुसंरक्षणात्मकाय यत्किञ्चित् फलायातिदुर्लभानि चक्रवर्तित्वराज्य- नवयौवन-सुन्दर शरीर सुखानि जिहासन् त्वं मया विचारशून्यौ दृश्यसे।
हिन्दी व्याख्या – एकछत्र अर्थात् सम्पूर्ण संसार का आधिपत्य, नवीन युवावस्था एवं इस सुन्दर शरीर को आप मात्र इतनी सी बात के लिए त्याग करने के लिए तैयार हो अर्थात् आप एक गाय को छुड़ाने के लिए इन सब वस्तुओं का त्याग करने के लिए तैयार हो। अतः आप मुझे कर्तव्य के पालन का विचार रखने वाले मूर्ख प्रतीत हो रहे हो।
श्लोक
भूतानुकम्पा तव चेदियं गौ
रेका भवेत्स्वस्तिमती त्वदन्ते ।
जीवन्पुनः शश्वदुपप्लवेभ्यः
प्रजाः प्रजानाथ! पितेव पासि ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में सिंह, राजा दिलीप को कुशलतापूर्वक रहने के विषय में कह रहा है।
संस्कृत व्याख्या – हे राजन् । गवार्थ कृपामात्रेण त्वं एवं शरीरमर्पयसि एतन्न समुचितम् । यतस्तव विनाशेऽपीयमेकैव नन्दिनी जीवेत्, त्वं पुनः जीवन् प्रजाः पितृवत् संकटेभ्यो रक्षिष्यसि। इति एकगौरक्षणापेक्षया अनेक प्रजापालनं श्रेयस्करम् । अतः तव आत्मशरीरार्पणं कथमपि न युज्यतः इति भावः।
हिन्दी व्याख्या – हे राजन्। यदि यह तुम्हारी प्राणियों पर दया है तो तुम्हारी मृत्यु के पश्चात् यह एक भौ नन्दिनी ही कुशलतापूर्वक रहेगी और यदि तुम जीवित रहोगे तो पिता के समान सम्पूर्ण प्रजाजनों की असंख्य विपत्तियों से सदैव रक्षा करोगे।
श्लोक
अर्थकचेनोरपराधचण्डाद्
गुरोः कृशानुप्रतिमाद्विभेषि।
शक्योऽस्य मन्युर्भवता विनेतुम्
गाः कोटिशः स्पर्शयता घटोघ्नीः ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में सिंह, राजा दिलीप से कहता है कि गुरु वशिष्ठ को करोड़ों गायें देकर भी उनके कोध को शान्त कर सकते हो। इसी का वर्णन करते हुए महाकवि कहते हैं
संस्कृत व्याख्या राजन्। नन्दिनी मात्रधनस्य तद्विनाशात् कुद्धस्य वशिष्ठस्य क्रोधस्तु तस्यै अनल्पक्षीरा अनेका गां दत्त्वा तत्क्रोधापननयनं कर्तुं शक्नोषि तद् गच्छ नैकस्या गौः कृतऽनेकोपकारकं स्वं वपुः प्रदातुं शक्यम्।
हिन्दी व्याख्या केवल एक नन्दिनी गौ को रखने से अपराध हो जाने के कारण अत्यन्त क्रोधित, अग्नि के समान तेजस्वी गुरु वशिष्ठ से यदि आप डरते हो तो गुरु वशिष्ठ के क्रोध को घट के समान विशाल स्तनों वाली करोड़ों गायें देकर भी दूर कर सकते हो।
श्लोक
तद्रक्ष कल्याणपरम्पराणां
भोक्तारमुर्जस्वलमात्मदेहम्।
महीतलस्पर्शनमात्रभिन्न
मृद्धं हि राज्यं पदमैन्द्रमाहुः ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में सिंह, राजा दिलीप से कहता है कि राजा का स्वर्ग पृथ्वी पर ही है, कहीं और नहीं।
संस्कृत व्याख्या – राजन् ! तस्मात् नानाश्रेयपरम्परासाधनं मुखैकनिकेतनं स्वशरीरं क्षुद्रवस्तु गोविनिमये त्वं मा त्याक्षीः ऐन्द्रस्य पदस्य चक्रवर्तिपदानतिरेकाद् विपश्चितः सम्पन्नं राज्यं भोमं स्वर्ग कथयन्ति ।
हिन्दी व्याख्या – इसलिए हे राजन! आप मंगलमय भोगों की परम्परा का उपभोग करने वाले, इस बलशाली शरीर की रक्षा कीजिए क्योंकि विद्वान् लोग समृद्ध राज्य को केवल इतने अन्तर के साथ कि इसमें महीतल का स्पर्श है, इसे स्वर्ग लोकाधिपति इन्द्र का पद कहते हैं।
श्लोक
एतावदुक्त्वा विरते मृगेन्द्रे
प्रतिस्वनेनास्य गुहागतेन ।
शिलोच्चयोऽपि क्षितिपालामुच्चैः
प्रीत्या तमेवार्थमभाषतेव ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में पर्वतों की प्रतिध्वनि से ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो सिंह के वचनों का पर्वत भी समर्थन कर रहा है।
संस्कृत व्याख्या – चतुर्भिः श्लोकैः, स्व वक्तव्यमुक्तवा मृगेन्द्रः तूष्णीमभवत्। ततो हिमालयपर्वतोऽपि गुहागतसिंहवाक्प्रतिध्वनिना सिंहोक्तमेवार्थ प्रेम्णा राजानं प्रति अनुमोदितवानिति भावः।
हिन्दी व्याख्या – सिंह के द्वारा पूर्व में कहे गए वचनों से पर्वत कन्दरा में उठी हुई सिंह की प्रतिध्व से मानो पर्वत ने भी प्रेमपूर्वक सिंह की कही हुई बात का समर्थन किया।
श्लोक
निशम्य देवानुचरस्य वाचं मनुष्यदेवः पुनरप्युवाच।
धेन्वा तदध्यासितकातराक्ष्या निरीक्ष्यमाणः सुतरां दयालुः।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में राजा दिलीप के पुनः उत्तर देने के लिए प्रस्तुत होने का वर्णन किया गया है।
संस्कृत व्याख्या – सिंहाधिष्ठानत्रस्तलोललोचनया गवा नन्दिन्या कातरं निरीक्ष्यमाणो राजा दिलीपः सिंहस्य पूर्वोक्तां वाणीमाकर्ण्य तं पुनरपि प्रतिजगाद ।
हिन्दी व्याख्या – भगवान् शिव के अनुचर सिंह के वचनों को सुनकर, उसके द्वारा आक्रान्त होने के कारण कातर नेत्रों वाली नन्दिनी गौ से देखे जाने वाले अत्यन्त दयालु राजा दिलीप पुनः सिंह से बोले।
श्लोक
क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः क्षत्त्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः राज्येन किं तद्विपरीतवृत्तेः प्राणैरुपक्रोशमलीमसैर्वा ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में राजा दिलीप, सिंह से क्षत्रिय शब्द का अर्थ बतलाते हैं।
संस्कृत व्याख्या – यो हि सङ्करात् नाशाद्वा आर्तानां विपन्नानां परित्राणमकुर्वन् स कथं क्षत्रियः भवितुमर्हति । तादृशस्य राज्ञः निन्दितैः प्राणैः राज्येन वा किम् किमस्ति प्रयोजनम् ?
हिन्दी व्याख्या – उन्नत क्षत्रिय वर्ण का वाचंक श्रेष्ठ क्षत्र शब्द का अर्थ है 'क्षत' अर्थात् नाश से बचाए वह क्षत्रिय है। अतएव इससे (क्षत शब्द) विपरीत आचरण करने वाले क्षत्रिय का राज्य से क्या प्रयोजन है तथा लोकनिन्दा से मलिन प्राणों से क्या लाभ है? अर्थात् यहाँ राजा के कहने का तात्पर्य यह है कि क्षत्रिय वही है, जो विपत्तियों में भी लोगों की रक्षा करता है और यदि मैं विपत्ति से इस गौ की रक्षा नहीं कर सकता तो मेरा जीना व मेरा राजा होना दोनों व्यर्थ हैं।
श्लोक
कथं नु शक्योऽनुनयो महर्षे विश्राणनाच्चान्यपयस्विनीनाम्। इमामनूनां सुरभेरवेहि रुद्रौजसा तु प्रहृतं त्वयास्याम्।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में राजा दिलीप, सिंह से गुरु वशिष्ठ के क्रोध को शान्त करने की बात कहते हैं।
संस्कृत व्याख्या – मृगेन्द्र ! अन्यगवां प्रदानेन गुरोः क्रोधः कथमपसारणीयः ? नेत्र नन्दिनी दुग्धमात्रप्रदात्री गौः अपि तु एषा कामधेनुसमानुसमानानुभावा काम द्रोग्धी अस्या तुलनां किमन्याः पयस्विन्यः अर्हन्ति ? या गुरवे प्रदाय तं प्रसादयिष्य । त्वत्कृतोऽयां प्रहारस्तु भगवतों रुद्रस्य प्रभावादेव जातः। अतोऽस्या महानुभावत्वे न भवता शङ्कितव्यम्।
हिन्दी व्याख्या यह बात राजा ने कही है। महर्षि वशिष्ठ के क्रोध को अन्य दूध देने वाली करोड़ों गाय देने से किस प्रकार शान्त किया जा सकता है? इस नन्दिनी को कामधेनु से कम मत समझो और तुम्हारे द्वारा जो इस पर प्रहार किया गया है वह शिव के बल से किया गया है। (अर्थात् आप इस गौ पर प्रहार करने में समर्थ नहीं हैं।)
श्लोक
सेयं स्वदेहार्पणनिष्क्रयेण
न्याय्या मया मोचयितुं भवत्तः ।
न पारणा स्याद्विहता तवैवं
भवेदलुप्तश्च मुनेः क्रियार्थः।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में राजा दिलीप, सिंह से अपने पूर्व प्रस्ताव को दोहराते हुए कहते हैं।
संस्कृत व्याख्या – मृगेन्द्र ! कामधेनुकल्पा एषा नन्दिनी आत्मकलेवरं तत्स्थाने समर्थ त्वत्रो मोचनीया। इदमेव समुचितं स्यात् । तदेवं करणेन तव पारणा भोजनम् होमादिसाधनं गुरुगो रक्षणञ्चैकपदे सम्पद्येत । अत एनां परित्यज्य मां भक्षय।
हिन्दी व्याख्या – इस नन्दिनी गौ को मैं अपना शरीर देकर भी तुमसे छुड़ाऊँगा तो यह न्यायोचित ही होगा। इस प्रकार तुम्हारा भी भोजन व्रतान्त नष्ट नहीं होगा तथा महर्षि वशिष्ठ की त्याग, होम आदि क्रियाओं का साधन भी लुप्त नहीं होगा।
श्लोक
भवानपीदं परवानवैति
महान् हि यत्नस्तव देवदारौ।
स्थातुं नियोक्तुर्नहि शक्यमग्रे
विनाश्य रक्ष्यं स्वयमक्षतेन।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में अपने पक्ष के समर्थन में स्वयं सिंह को ही प्रमाणरूप में प्रस्तुत करते हुए राजा दिलीप कहते हैं।
संस्कृत व्याख्या – ननु सिंह ! अहमपि भवानपि पराधीनः अहं गौरक्षणे नियुक्तः त्वमपि देवदारुसंरक्षणे नियुक्तः इति देवदारुं यत्नेन, रक्षसीति समुचितमेतत्। स्वामिनः समक्ष तदीयं वस्तु विनाश्य स्वमक्षतशरीरः सेवकः लज्जासङ्कोचामांयामभिभूतः सन् स्थातुं नैव पारयेत्। अतोऽहमिमां घेन विनाश्य कथं तत्पुरतो व्रजामि।
हिन्दी व्याख्या – पराधीन आप भी यह जानते होंगे, क्योंकि आपने देवदारु (वृक्ष) के संरक्षण के विषय में बहुत बड़ा प्रयत्न किया है। रक्षा करने योग्य वस्तु को नष्ट करके स्वयं सुरक्षित रहते हुए सेवक स्वामी के समक्ष खड़ा नहीं हुआ जा सकता।
श्लोक
किमप्यहिस्यस्तव चेन्मतोऽहं यशः शरीरे भव मे दयालुः । एकान्तविध्वंसिषु मद्विधानां पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में राजा दिलीप को अपने भौतिक शरीर की नहीं अपितु अपने यश (कीर्ति) की चिन्ता है, ऐसा वर्णन किया है।
संस्कृत व्याख्या – मृगेन्द्र ! जगत्पालकत्वादिना यदि मामवध्यं मनुषे, तर्हि मदीयं यश एवं परिरक्ष्यं भवता, न तु पाञ्चभौतिकं कलेवरम् गवार्थे मृतस्य में यशः चिरस्थायी भविष्यति। मादृशा जनाः अवश्यं विनाशिषु पाञ्चभौतिक स्थूलशरीरेषु स्पृहां न कुर्वन्ति त्वं तस्मान्मामवश्यं व्यापादय।
हिन्दी व्याख्या – यदि आप मुझे अपने विचार से अवध्य समझते हो, तो मेरे यशरूपी शरीर पर दया करो, क्योंकि हम जैसे लोग जो कीर्ति (यश) को पसन्द करते हैं, उन्हें यह पाँच महाभूतों से बना शरीर प्रिय नहीं है।
श्लोक
सम्बन्धमाभाषणपूर्वमाहु
वृत्तः स नौ सङ्गतयोर्वनान्ते ।
तद्भूतनाथानुग! नार्हसि त्वं
सम्बन्धिनो मे प्रणयं विहन्तुम्।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में राजा दिलीप, सिंह से कहते हैं कि आपस में बातचीत करने से मित्रता होती है।
संस्कृत व्याख्या – सतां मैत्री आलापमात्रणैव सम्पद्यते, इति विद्वांसो वदन्ति । आवयोः अत्रारण्ये मिलितयोः एतावानालापः सम्पन्नः भवान् शिवानुचरत्वात् सज्जनमूर्धन्य इति में मित्रस्य प्रयासं सफलम् विफलं मा कार्षीत्।
हिन्दी व्याख्या – विद्वान् मानते हैं कि बातचीत के द्वारा मित्रता उत्पन्न होती है। वह वन के बीच में मिले हुए हम दोनों में परस्पर हो चुकी है। अतः हे शिव अनुचर! तुम्हें मेरे जैसे मित्र की प्रार्थना को अस्वीकार नहीं करना चाहिए अर्थात् मेरे शरीर को ग्रहण करके इसके बदले में नन्दिनी गौ को आपके द्वारा मुक्त कर देना चाहिए।
श्लोक
तथेति गामुक्तवते दिलीपः
सद्यः प्रतिष्टम्भविमुक्तबाहुः ।
स न्यस्तशस्त्रो हरये स्वदेह
मुपानयत् पिण्डमिवामिषस्य ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में सिंह ने प्रार्थना स्वीकार कर ली तथा राजा की बाहु छूट गई और फलस्वरूप राजा ने अपनी देह सिंह के समक्ष प्रस्तुत कर दी।
संस्कृत व्याख्या – 'तथाऽस्तु' इत्युक्त्वा राज्ञः प्रार्थना स्वीकृतयते सिंहाय तत्काले प्रतिरोधात् मुक्तभुजो राजा दिलीपः स्वशरीरं मांसपिण्डमिव उपचतवान् ।
हिन्दी व्याख्या – तथास्तु इस प्रकार के वचनों को कहने बाले सिंह के लिए उसी क्षण प्रतिबन्ध मुक्त भुजा वाले राजा दिलीप ने सभी अस्त्रों को छोड़कर अपने शरीर को मांस पिण्ड की भाँति सिंह को समर्पित कर दिया।
श्लोक
तस्मिन् क्षणे पालयितुः प्रजाना मुत्पश्यतः सिहनिपातमुग्रम्। अवाङ्मुखस्योपरि पुष्पवृष्टिः
पपात विद्याधरहस्तमुक्ता ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में विद्याधरों द्वारा राजा दिलीप पर पुष्पवर्षा करने का वर्णन है।
संस्कृत व्याख्या – सिंहो माँ द्राम् विदारचिष्यतीति उत्प्रेक्षमाण्स्याधोमुखस्य राज्ञो दिलीपस्य मूधिर्न अहो । गवार्थे समृाऽपि विशङ्क स्वदेहं प्रददाति, इति चकितैर्विद्याधरैः विकीर्णानि कुसुमानि न्यपतन् ।
हिन्दी व्याख्या – उसी समय भयंकर सिंह के आक्रमण को देखने वाले, अधोमुख किए अर्थात् नीचे मुख किए हुए प्रजा की आज्ञा का पालन करने वाले राजा दिलीप के ऊपर विद्याधरों ने पुष्पवर्षा की।
श्लोक
उत्तिष्ठ वत्सेत्यमृतायमानं
वचो निशम्योत्थितमुत्थितः सन्।
ददर्श राजा जननीमिव स्वां
गामग्रतः प्रश्नविणीं न सिंहम्।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में नन्दिनी गौ के कहने पर राजा दिलीप उठ खड़े होते हैं।इसी का वर्णन किया गया है।
संस्कृत व्याख्या – राजा दिलीपः हे वत्स ! उत्तिष्ठ इति धेनोर्मधुरां बाणीमाकर्ण्य उत्थाय च सम्मुखे स्थितो स्नेहेन क्षीरं स्रवन्तीं निजमातरमिव नन्दिनीं ददर्श, सिंह तु न ददर्श।
हिन्दी व्याख्या – हे पुत्र! उठो इस प्रकार नन्दिनी के मुख से निकले हुए अमृतरूपी वचनों को सुनकर उठते ही राजा ने अपने सम्मुख नन्दिनी गौ को अपनी माता के समान देखा, परन्तु सिंह को नहीं देखा।
श्लोक
तं विस्मितं धेनुरुवाच साधो
मायां मयोद्भाव्य परीक्षितोऽसि।
ऋषिप्रभावान्मयि नान्तकोऽपि
प्रभुः प्रहर्तुं किमुतान्यहिंस्राः।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में नन्दिनी गौ रहस्य का उद्घाटन करती हुई राजा दिलीप से कहती है।
संस्कृत व्याख्या – यदा सर्वमिदं विलोक्य राजा दिलीपः साश्चर्योऽभत्तदा नन्दिनी प्रोवांच-राजन् ! मया मायामयं सिंहामाविर्भाव्य तव भक्तिः परीक्षिता। महर्षेः वशिष्ठस्य प्रभावात् मयि यमोऽपि प्रहर्तुं नालम् किमन्ये घातुका वराकाः।
हिन्दी व्याख्या – आश्चर्यचकित हुए राजा दिलीप से नन्दिनी गौ कहती है कि हे परोपकारी राजा मैंने माया रचकर तुम्हारी परीक्षा ली है। मुनि वशिष्ठ के प्रताप से यमराज भी मुझ पर प्रहार करने में सक्षम नहीं है, फिर अन्य हिंसक प्राणियों का तो क्या बल?
श्लोक
भक्त्या गुरौ मय्यनुकम्पया च प्रीतास्मि ते पुत्र! वरं वृणीष्व । न केवलानां पयसां प्रसूति मवेहि मां कामदुधां प्रसन्नाम्।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में नन्दिनी गौ, राजा दिलीप को अभीष्ट वर माँगने के लिए कहती है।
संस्कृत व्याख्या – राजन् ! सप्रश्रयं तव गुरुभक्तिं मयि दयाभावञ्चा-वलोक्यं त्वयि नितरां प्रसन्नाऽस्मि । हे वत्स ! अभिलषितं वरं याचस्व, मां केवलं दुग्धदान-समर्थामेव गां न जानीहि, अपितु कामधेनुमिव सकलार्थ पूर्णसमर्थामवेहि।
हिन्दी व्याख्या – नन्दिनी गौ राजा दिलीप से कहती है, हे वत्स! तुम्हारे अपने गुरु वशिष्ठ के प्रति भक्ति तथा मेरे ऊपर दयाभाव से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे अपना इच्छित वर माँगो। तुम मुझे मात्र दूध देने वाली गौ मत समझो। अपितु प्रसन्न होने पर सभी के मन की इच्छाओं को पूर्ण करने वाली समझो।
श्लोक
ततः समानीय स मानितार्थी
हस्तौ स्वहस्तार्जितवीरशब्दः ।
वंशस्य कर्तारमनन्तकीर्ति
सुदक्षिणायां तनयं ययाचे।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में राजा दिलीप द्वारा नन्दिनी गौ से वर माँगने का वर्णन किया गया है।
संस्कृत व्याख्या – नन्दिन्याः वचो निशम्य राजा दिलीपः तां प्रति बद्धाञ्जलिः सन् भातः वंशप्रवर्तकं महायशस्करं पुत्र सुदक्षिणायां देहिति वरं वने।
हिन्दी व्याख्या – नन्दिनी गौ के द्वारा वर माँगने के लिए कहने पर अपने अतिथियों को सम्मानित करने वाले तथा अपने बाहुबल से अपने लिए 'वीर' शब्द का अर्जन करने वाले राजा दिलीप ने अपने दोनों कर (हाथ) जोड़कर अपने कुल को चलाने वाला तथा स्थिर कीर्ति वाले पुत्र को सुदक्षिणा में माँगा अर्थात् ऐसा पुत्र अपनी पत्नी सुदक्षिणा के गर्भ से उत्पन्न हो ऐसा वर माँगा।
श्लोक
सन्तानकामाय तथेति कामं
राज्ञे प्रतिश्रुत्य पयस्विनी सा।
दुग्ध्वा पयः पत्रपुटे मदीयं
पुत्रोपभुङ्क्ष्वेति तमादिदेश।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में नन्दिनी गौ अभीष्ट वर प्रदान करके राजा दिलीप को अपना दूध पीने के लिए आदेश देती है।
संस्कृत व्याख्या – नन्दिनी पुत्रार्थिने राज्ञे दिलीपाय हे वत्स ! यथेच्छसि तथा भवतु इति पुत्रप्राप्तिकरं वरं प्रदाय 'राजन् ! पत्रनिर्मिते पुरे मदीयं दुग्धं' दुग्ध्वा पिब' इत्याज्ञां ददौ।
हिन्दी व्याख्या – उस पयस्विनी नन्दिनी गौ ने पुत्र चाहने वाले राजा दिलीप को 'वैसा ही होगा' इस वरदान का वचन देकर, हे पुत्र! मेरे दुग्ध को पत्ते के दोने में दुहकर पी जाओ। इस प्रकार नन्दिनी गौ ने राजा दिलीप को आदेश दिया।
श्लोक
वत्सस्य होमार्थविधेश्च शेष्
मृषेरनुज्ञामधिगम्य मातः ।
ऊधस्यमिच्छामि तवोपभोक्तुं
षष्ठांशमुर्व्या इव रक्षितायाः ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में राजा दिलीप नन्दिनी गौ के आदेश का प्रत्युत्तर देते हैं।
संस्कृत व्याख्या – हे मातः । यथा पालितायाः पृथिव्याः धर्मतः, षष्ठं भागं कररूपेणाहं गृहणामि तथैव गुरोराज्ञया वत्सोच्छिष्टं अग्निहोत्रा-वशिष्ठं च तव दुग्धमपि पातुमिच्छामि।
हिन्दी व्याख्या – हे गौ माता! बछड़े के पीने तथा होमानुष्ठान में प्रयुक्त होने से बचे हुए आपके दुग्ध को मैं अपने द्वारा पालित पृथ्वी के छठवें भाग के समान गुरु वशिष्ठ की आज्ञा को प्राप्त करके पीना चाहता हूँ।
श्लोक
इत्थं क्षितीशेन वशिष्ठधेनु विज्ञापिता प्रीततरा बभूव। तदन्विता हैमवताच्च कुक्षेः प्रत्याययावाश्रममश्रमेण ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में राजा दिलीप के उत्तर को सुनकर प्रसन्न हुई नन्दिनी गौ राजा के साथ गुरु वशिष्ठ के आश्रम पर आई इस प्रकार वर्णन किया गया है।
संस्कृत व्याख्या – इत्थं नन्दिनी राज्ञो दिलीपस्य विनम्र निवेदनमाकर्ण्य सिंहवृत्तान्तेन प्रीताऽपि पुनरत्यन्तं प्रसन्ना बभूव। दिलीपेन साकमाश्रमं समायौ च।
हिन्दी व्याख्या – इस प्रकार राजा दिलीप की प्रार्थना से नन्दिनी गौ अत्यन्त प्रसन्न हुई तथा राजा दिलीप के साथ हिमालय की गुफा से बिना परिश्रम के ही महर्षि वशिष्ठ के आश्रम की ओर लौटी।
श्लोक
तस्याः प्रसन्नेन्दुमुखः प्रसादं गुरुर्नृपाणा गुरवे निवेद्य। प्रहर्षचिह्नानुमितं प्रियायै शशंस वाचा पुनरुक्तयेव ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में राजा दिलीप ने गुरु वशिष्ठ तथा अपनी पत्नी सुदक्षिणा से नन्दिनी के अनुग्रह की वार्ता की। इसी का वर्णन यहाँ किया गया है।
संस्कृत व्याख्या – निजमुखविकासादिना कथितकल्पमपि नन्दिन्यां वर राजा दिलीपः प्रथमं गुरवे कथयित्वा पश्चात् प्रियायै सुदक्षिणायै सविस्तारं शशंस । अर्थात् स्वप्रशंसायाः स्वयं वक्तुमनुचितं मत्वा गुरवे केवलं वदानमात्रं निवेद्य सुदक्षिणायै हर्षानुमिताभीष्टलाभाय सिंहवृत्तान्तमारभ्य वरदानपर्यन्तं सर्व विस्तरतो वर्णयामास।
हिन्दी व्याख्या – निर्मल चन्द्रमा के समान मुख वाले राजाओं में श्रेष्ठ राजा दिलीप ने हर्ष के चिह्नों से अनुमित अर्थात् प्रसन्नता के विषय में गुरु वशिष्ठ से निवेदन करके अपनी प्रिया सुदक्षिणा से विस्तारपूर्वक कहा।
श्लोक
स नन्दिनीस्तन्यमनिन्दितात्मा
सद्वत्सलो वत्सहुतावशेषम्।
पौ वशिष्ठेन कृताभ्यनुज्ञः
शुभ्रं यशो मूर्त्तमिवातितृष्णः ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में गुरु वशिष्ठ की अनुमति लेकर राजा दिलीप ने नन्दिनी गौ के दुग्ध को पीया। इसका वर्णन किया गया है।
संस्कृत व्याख्या – प्रशंसितस्वभावः सज्जनप्रियश्च राजा दिलीपः गुरोराज्ञया वत्सपानहोमादिकार्ययोन्तरमवशिष्टं नन्दिनीदुग्धं समुज्जवलं साकारं यश इव अतिप्रेम्णा पीतवान्।
हिन्दी व्याख्या – प्रशंसनीय स्वभाव वाले तथा सज्जनों से प्रेम करने वाले महर्षि वशिष्ठ मुनि की अनुमति प्राप्त करके राजा दिलीप ने बछड़े तथा हवन के पश्चात् बचे हुए नन्दिनी के दूध को पिपासु की भाँति उज्ज्वल मूर्तिमान यश के समान पीया।
श्लोक
प्रातर्थथोक्तव्रतपारणान्ते
प्रास्थानिकं स्वस्त्ययनं प्रयुज्य।
तौ दम्पती स्वां प्रति राजधानीम् प्रस्थापयामास वशी वशिष्ठः ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
सन्दर्भ पूर्ववत्।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में दूसरे दिन प्रातःकाल महर्षि वशिष्ठ द्वारा राजा दिलीप व उनकी पत्नी सुदक्षिणा को विदा करने का वर्णन है।
संस्कृत व्याख्या – परस्मिन् दिने प्रातः गौसेवाव्रत समाप्ति-पारणानन्तरं संयतेन्द्रियो वशिष्ठो मुनिः यात्राकालिकं माङ्गलिकसूक्त पाठाशीर्वादादिक शुभाशंसन विधाय सुदक्षिणा दिलीपौ तद्राजधानीमयोध्यां प्रतिं प्रेषयामास।
हिन्दी व्याख्या – जितेन्द्रिय वशिष्ठ मुनि ने दूसरे दिन प्रातःकाल विधिपूर्वक गौसेवा रूपी व्रत की पारणा के पश्चात् प्रस्थान काल के समय कहे जाने वाले स्वस्तिवाचन करके राजा दिलीप को सपत्नीक उनकी राजधानी अयोध्या की और विदा किया।
श्लोक
प्रदक्षिणीकृत्य हुतं हुताश, मनन्तरं भर्तुररुन्धतीं च।
धेनुं सवत्सां च नृपः प्रतस्थे, सन्मङ्गलोदग्रतरप्रभावः ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
सन्दर्भ पूर्ववत्।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में महर्षि वशिष्ठ के आश्रम से राजा दिलीप के प्रस्थान का वर्णन किया गया है।
संस्कृत व्याख्या – कृतमङ्गलाचारों राजा दिलीपो घृतादिभिः समिद्धं पावकं सवत्सां गां नन्दिनीं सपत्नीकं गुरुं वशिष्ठं च प्रदक्षिणीकृत्य हुताग्न्यरुन्धतोनशिष्ठनन्दिनीनां परिक्रमणादिना प्रवृद्धतेजाः सन् स्वां पुरीं प्रति प्रतस्थे।
हिन्दी व्याख्या – राजा दिलीप ने पत्नी के साथ हवन से तर्पित अग्नि तथा महर्षि वशिष्ठ की प्रदक्षिणा के बाद गुरु पत्नी अरुन्धति और बछड़े सहित नन्दिनी गौ की प्रदक्षिणा करके अच्छे मङ्गलाचारों से अधिक तेजस्वी होकर अपनी राजधानी को प्रस्थान किया।
श्लोक
श्रोत्राभिरामध्वनिना रथेन
स धर्मपत्नीसहितः सहिष्णुः।
ययावनुद्घातसुखेन मार्गं
स्वेनेव पूर्णेन मनोरथेन।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में राजा दिलीप तथा उनकी पत्नी सुदक्षिणा के मार्ग में चलने का वर्णन किया गया है।
संस्कृत व्याख्या – सभायो राजा दिलीपः मार्गे शिलाखण्डादि-संघट्खाभावात् अस्खलितसुखेन मधुरध्वनिना रथेन गौसेवा द्वारा प्रतिबन्धनिवृत्तया सुखकरेण निजमनोरथेन इव स्थितेन यात्रां कृतवान्।
हिन्दी व्याख्या – राजा दिलीप ने अपनी पत्नी सुदक्षिणा के साथ कानों को आनन्दित करने वाले ध्वनि से युक्तमार्ग के झटकों से रहित सुखकर रथ के द्वारा स्वयं के सफल मनोरथ के समान मार्ग को तय किया। मानो अपने सफल मनोरथ के द्वारा ही तय किया हो।
श्लोक
तमाहितौत्सुक्यमदर्शनेन प्रजाः प्रजार्थव्रतकर्शिताङ्गम्। नेत्रैः पपुस्तृप्तिमनाप्नुवद्भि- र्नवोदयं नाथमिवोषधीनाम् ।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में अयोध्यावासी प्रजाजनों के द्वारा राजा दिलीप के दर्शन करने का वर्णन किया गया है।
संस्कृत व्याख्या – कतिचिद्द्दिनपर्यन्तम् अदर्शनात् अत्युत्कण्ठिताः राजानमागतं कृष्णपक्षे अदर्शनात् पुनरुदितं शुक्लपक्ष द्वितीयाचन्द्रमिव हृष्टा प्रजा अत्युत्कण्ठितैर्नयने, ददृशुः। प्रजाः चन्द्रमिव राजानं अक्षिणी चिरमपश्यन्नित्यर्थः।
हिन्दी व्याख्या – कुछ समय दिखाई नहीं पड़ने के कारण जिसने अपने दर्शन की उत्कण्ठा उत्पन्न कर दी है तथा सन्तान प्राप्ति हेतु किए गए व्रत से क्षीण हुए शरीर वाले उस राजा दिलीप को प्रजाजनों ने अतृप्त नेत्रों से दूसरे चन्द्रमा के समान देखा।
श्लोक
पुरन्दरश्रीः पुरमुत्पताकं प्रविश्य पौरैरभिनन्द्यमानः ।
भुजे भुजङ्गेन्द्रसमानसारे
भूयः स भूमेधुरमाससञ्ज।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक महाकवि कालिदास विरचित "रघुवंशमहाकाव्य' के द्वितीय सर्ग से उधृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक में प्रजाजनों द्वारा अभिनन्दित होकर राजा दिलीप द्वारा पुनः राज्यभार सँभालने का वर्णन किया गया है।
संस्कृत व्याख्या – राजा दिलीप: अयोध्यानगरनिवासिभिः कारेण गीयमानकीर्तिः उच्छितवैजयन्तिकामयोध्यां प्रविश्य सर्पराजवासुकिसदृशबले निजभुजे पुनः राज्यभारं गृहीतवान्।
हिन्दी व्याख्या – इन्द्र के समान कान्ति वाले राजा दिलीप ने नागरिकों द्वारा अभिनन्दित होकर उन्नत पताकाओं से सुशोभित होकर अपनी राजधानी के नगर अयोध्या में प्रवेश कर सर्पराज वासुकि के समान बल वाली अपनी भुजाओं पर पुनः पृथ्वी का भार उठा लिया अर्थात् पुनः अपना राज्यभार ग्रहण कर लिया।
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