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यूपी बोर्ड कक्षा 10वी सामाजिक विज्ञान अध्याय 13 जाति, धर्म और लैंगिक मसले का सम्पूर्ण हल//up ncert class 10 social science full solution notes

 यूपी बोर्ड कक्षा 10वी सामाजिक विज्ञान अध्याय 13 जाति, धर्म और लैंगिक मसले का सम्पूर्ण हल


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4 जाति, धर्म और लैंगिक मसले




याद रखने योग्य मुख्य बिन्दु



1.श्रम के लैंगिक विभाजन में औरतें घर के अंदर का सारा काम काज: जैसे- खाना बनाना, सफाई करना, कपड़े धोना और बच्चों की देखरेख करना आदि करती हैं, जबकि मर्द घर के बाहर का काम करते हैं।


2.भारत में महिलाओं में साक्षरता की दर (जनगणना-2011) महिलाओं में 64.6 फीसदी और पुरुषों में 80.9 फीसदी है। 



3.भारत के ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में निर्वाचित महिलाओं की संख्या 10 लाख से ज्यादा है।



4.भारतीय राज्य ने किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में अंगीकार नहीं किया है। श्रीलंका में बौद्ध धर्म, पाकिस्तान में इस्लाम और इंग्लैण्ड में ईसाई धर्म का

जो दर्जा रहा है उसके विपरीत भारत का संविधान किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता। 



5. लिंग और धर्म पर आधारित विभाजन तो दुनिया भर में है पर जाति पर आधारित विभाजन सिर्फ भारतीय समाज में ही देखने को मिलता है। सभी समाजों में कुछ सामाजिक असमानताएँ और एक न एक तरह का श्रम का विभाजन मौजूद होता है। 



6. भारत में लड़के की चाह के कारण शिशु लिंग अनुपात 919 (जनगणना-2011) रह गया है।


7.1961 के बाद से हिंदू, जैन और ईसाई समुदाय का हिस्सा मामूली रूप से घटा है, जबकि मुसलमान, सिख और बौद्धों का हिस्सा मामूली रूप से बढ़ा है। 


8.हर जाति में गरीब लोग हैं पर भारी दरिद्रता में जीवन बसर करने वालों में ज्यादा बड़ी संख्या सबसे निचली जातियों के लोगों की है। ऊँची जातियों में गरीबी का प्रतिशत सबसे कम है। इस मामले में भी पिछड़ी जातियों के लोग बीच की स्थिति में हैं।


9.ग्रामीण इलाकों से निकलकर लोगों का शहरों में बसना शहरीकरण कहलाता है।


महत्त्वपूर्ण शब्दावली


लैंगिक असमानता – लिंग के आधार पर स्त्री और पुरुषों में भेदभाव करना लैंगिक असमानता कहलाता है। लैंगिक असमानता का आधार स्त्री और पुरुष की जैविक बनावट नहीं बल्कि इन दोनों के बारे में प्रचलित रूढ़ियाँ और तयशुदा सामाजिक भूमिकाएँ हैं।


नारीवादी आंदोलन – महिलाओं के राजनीतिक और वैधानिक दर्जे को ऊँचा उठाने, उनके लिए शिक्षा और रोज़गार के अवसरों को बढ़ाने की माँग करने और उनके व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में भी बराबरी की माँग करने वाले आंदोलनों को नारीवादी आंदोलन कहा जाता है।


पारिवारिक कानून –विवाह, तलाक, गोद लेना और उत्तराधिकार जैसे परिवार से जुड़े मसलों से संबंधित कानून। हमारे देश में सभी धर्मों के लिए। अलग-अलग पारिवारिक कानून हैं।


सांप्रदायिकता–जब किसी संप्रदाय विशेष के लोग अपने संप्रदाय को श्रेष्ठ तथा दूसरे संप्रदायों को हीन समझें और इसके लिए उग्र रूप धारण करें तो यह सांप्रदायिकता बन जाती है।


 धर्मनिरपेक्षता – राज्य का अपना कोई धर्म न होना तथा सभी धर्मों को समान समझना धर्मनिरपेक्षता कहलाता है। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में रहने वाले नागरिक किसी भी धर्म को अपना सकते हैं, राज्य उसके धार्मिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा।


लिंग अनुपात -प्रति हज़ार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या लिंग अनुपात कहलाती है।


 सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार – किसी भी देश में रहने वाले सभी वयस्क व्यक्ति बिना किसी जाति, धर्म, भाषा या आर्थिक असमानता के आधार पर वोट डालने का अधिकार रखते हैं, इसे सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार कहते हैं।


वोट बैंक – कोई भी पार्टी किसी एक जाति या समुदाय के सभी लोगों का वोट हासिल नहीं कर सकती। यदि किसी जाति के ज्यादातर लोग उसी पार्टी को वोट दें तो वह उस पार्टी का वोट बैंक कहलाता है।



बहुविकल्पीय प्रश्न 1 अंक


प्रश्न 1.महिलाओं की समाज में बराबरी की माँग के आंदोलन को क्या कहा जाता है ?


(क) महिला मुक्ति आंदोलन


(ख) नारीवादी आंदोलन


(ग) स्त्री शक्ति


(घ) इनमें से कोई नहीं


उत्तर-


(ख) नारीवादी आंदोलन


प्रश्न 2.भारत की विधायिका में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात क्या है?


(क) बहुत ही कम (ग) एकसमान


(ख) बहुत अधिक (घ) इनमें से कोई नहीं


उत्तर-


(क) बहुत ही कम


प्रश्न 3. गांधीजी की मान्यता थी कि राजनीति स्थापित मूल्यों से निर्देशित होनी चाहिए।


(क) धर्म द्वारा


(ख) राजनीति द्वारा


(ग) अध्ययन द्वारा


(घ) शिक्षा द्वारा


उत्तर


(क) धर्म द्वारा


प्रश्न 4.धर्म ही सामाजिक समुदाय का काम करता है, यह मान्यता किस पर आधारित है?


(क) धर्म पर


(ख) सम्प्रदाय पर


(ग) समुदाय पर


(घ) सांप्रदायिकता पर


उत्तर


(घ) सांप्रदायिकता पर


प्रश्न 5. धर्मनिरपेक्ष राज्य में –




(क) धर्म का कोई स्थान नहीं (ख) एक राष्ट्र एक धर्म में विश्वास


(ग) केवल बहुसंख्यक वर्ग के धर्म को मान्यता


(घ) सभी धर्मों को समान समझना


उत्तर


(घ) सभी धर्मों को समान समझना


प्रश्न 6.जब हम लैंगिक विभाजन की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय होता है



(क) स्त्री और पुरुष के बीच जैविक अंतर


(ख) समाज द्वारा स्त्री और पुरुष को दी असमान भूमिकाएँ 


(ग) बालक और बालिकाओं की संख्या का अनुपात


(घ) लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में महिलाओं को मतदान का अधिकार न मिलना



उत्तर

(ख) समाज द्वारा स्त्री और पुरुष को दी गई असमान भूमिकाएँ 


प्रश्न 7.भारत में यहाँ औरतों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है- 



(क) लोकसभा


(ख) विधानसभा


(ग) मंत्रिमण्डल


(घ) पंचायती राज की संस्थाएँ



उत्तर


(घ) पंचायती राज की संस्थाएँ



अतिलघु उत्तरीय प्रश्न 2 अंक


प्रश्न 1. वर्ण-व्यवस्था से क्या तात्पर्य है?


उत्तर- जाति समूहों का पदानुक्रम जिसमें एक जाति के लोग हर हाल में सामाजिक पायदान में सबसे ऊपर रहेंगे तो किसी अन्य जाति समूह के लोग क्रमागत के रूप से उनके नीचे।


प्रश्न 2. पारिवारिक कानून से क्या तात्पर्य है?


उत्तर- विवाह, तलाक, गोद लेना और उत्तराधिकार जैसे परिवार से जुड़े मसलों से संबंधित कानून। हमारे देश में सभी धर्मों के लिए अलग-अलग पारिवारिक कानून हैं।



प्रश्न 3. नारीवादी आंदोलन क्या है?


उत्तर

महिलाओं के राजनीतिक और वैधानिक दर्जे को ऊँचा उठाने, उनके लिए शिक्षा और रोजगार के अवसरों को बढ़ाने की माँग करने और उनके व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में भी बराबरी की माँग करने वाले आंदोलनों को नारीवादी आंदोलन कहा जाता है, श्रम का लैंगिक विभाजन कहलाता है।


प्रश्न 4.श्रम का लैंगिक विभाजन से क्या तात्पर्य है?


उत्तर- काम के बँटवारे का वह तरीका जिसमें घर के अंदर के सारे काम परिवार की औरतें करती हैं या अपनी देखरेख में काम कराती हैं तथा बाहर का सार्वजनिक जीवन पुरुषों के कब्जे में रहता है, श्रम का लैंगिक विभाजन कहलाता हैं।


प्रश्न 5.लोकतंत्र के लिए जातिवाद घातक है। इसके दो कारण बताइए।


उत्तर- (i) जातिवाद ने देश के विभिन्न जातीय समूहों में आपसी संघर्ष और टकराव को जन्म दिया है जोकि राष्ट्रीय एकता के लिए एक बड़ा खतरा है। 


(ii) जातिवाद के आधार पर आरक्षण की राजनीति ने भी भारतीय लोकतंत्र को बुरी तरह से प्रभावित किया है।


प्रश्न 6. सांप्रदायिकता क्या होती है?


उत्तर जब किसी संप्रदाय विशेष के लोग अपने संप्रदाय को श्रेष्ठ तथा दूसरे संप्रदायों को हीन समझें और उसके लिए उग्र रूप धारण करें. उसे सांप्रदायिकता कहते हैं।


प्रश्न 7. सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार से क्या तात्पर्य है?


उत्तर- किसी भी देश में रहने वाले सभी वयस्क व्यक्ति बिना किसी जाति धर्म, भाषा या आर्थिक असमानता के आधार पर वोट डालने का अधिकार रखते हैं, इसे सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार कहते हैं।


प्रश्न 8. यदि सत्तारूढ़ दल धर्म को शासन का आधार मानता है, तो उससे क्या हानि होगी? दो तर्क दीजिए।


उत्तर


(i) सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा मिलेगा।


(ii) बहुसंख्यकवाद तथा अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा मिलेगा।



लघु उत्तरीय प्रश्न 3 अंक


प्रश्न 1. सांप्रदायिकता किस प्रकार एक समस्या बन जाती है?


उत्तर- किसी एक धर्म के लोगों का समूह संप्रदाय कहलाता है। जब यह संप्रदाय अपने-आप को श्रेष्ठ तथा अन्य संप्रदायों को हीन समझने लगे तो सांप्रदायिकता की समस्या उत्पन्न होती है। यह समस्या तब शुरू होती है जब धर्म को राष्ट्र का आधार मान लिया जाता है। समस्या तब और विकराल हो जाती है जब राजनीति में धर्म की अभिव्यक्ति एक समुदाय की विशिष्टताओं के दावे और पक्षपोषण का रूप लेने लगती है तथा इसके अनुयायी दूसरे धर्मावलंबियों के खिलाफ मोर्चा खोलने लगते हैं। ऐसा तब होता है जब एक धर्म के विचारों को दूसरों से श्रेष्ठ माना जाने लगता है और कोई एक धार्मिक समूह अपनी माँगों को दूसरे समूह के विरोध में खड़ा करने लगता है। इस प्रक्रिया में जब राज्य अपनी सत्ता का प्रयोग किसी एक धर्म के पक्ष में करने लगता है तो स्थिति और विकट होने लगती है। राजनीति से धर्म को जोड़ना ही सांप्रदायिकता है।


प्रश्न 2.भारत में धर्मनिरपेक्ष शासन के लिए कौन-से प्रावधान किए गए हैं? 


उत्तर

भारत में धर्मनिरपेक्ष शासन के लिए निम्नलिखित प्रावधान किए गए हैं



(i) भारत राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है; जैसे-श्रीलंका में बौद्ध धर्म, पाकिस्तान में इस्लाम और इंग्लैंड में ईसाई धर्म का जो दर्जा रहा है उसके विपरीत भारत का संविधान किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता।


(ii) संविधान सभी नागरिकों को किसी भी धर्म का पालन करने और प्रचार करने की आजादी देता है।


(iii) संविधान धर्म के आधार पर किए जाने वाले किसी तरह के भेदभाव को अवैधानिक घोषित करता है।


 (iv) इसके साथ ही संविधान धार्मिक समुदायों में समानता सुनिश्चित करने के लिए शासन को धार्मिक मामलों में दखल देने का अधिकार देता है; जैसे—यह छुआछूत की इजाजत नहीं देता।


प्रश्न 3. राजनीति किस प्रकार जाति व्यवस्था को प्रभावित करती है? या भारत में जाति प्रथा का राजनीति एवं समाज पर क्या प्रभाव पड़ा?



उत्तर जाति प्रथा का राजनीति पर प्रभाव-जिस प्रकार जाति राजनीति को प्रभावित करती है उसी प्रकार राजनीति भी जाति पर प्रभाव डालती है। इस प्रकार जाति भी राजनीतिग्रस्त हो जाती है


(i) हर जाति खुद को बड़ा बनाना चाहती है। इसलिए पहले वह अपने समूह की जिन जातियों को छोटा या नीच बताकर अपने से बाहर रखना चाहती थी, अब वह उन्हें साथ लाने की कोशिश करती है। 


(ii) चूँकि एक जाति अपने दम पर सत्ता पर कब्जा नहीं कर सकती इसलिए वह ज्यादा राजनीतिक ताकत पाने के लिए दूसरी जातियों या समुदायों को साथ लेने की कोशिश करती है।


(iii) राजनीति में नए किस्म की जातिगत गोलबंदी भी हुई है; जैसे-अगड़ा और पिछड़ा।


इस प्रकार राजनीति जाति व्यवस्था को प्रभावित करती है। 


प्रश्न 4. धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने के लिए भारतीय संविधान प्रावधान किए गए हैं?


उत्तर- धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने के लिए भारतीय संविधान में निम्नलिखित प्रावधान किए गए हैं


 (i) भारतीय राज्य की तरफ से किसी भी धर्म को संरक्षण नहीं दिया गया है। यहाँ सभी धर्मों को समान माना जाता है।


(ii) धर्म के आधार पर किसी भी भेदभाव को अवैधानिक घोषित किया गया है।


(iii) संविधान धार्मिक समुदायों में समानता सुनिश्चित करने के लिए शासन को धार्मिक मामलों में दखल देने का अधिकार देता है। उदाहरणार्थ, यह छुआछूत की इजाजत नहीं देता।


प्रश्न 5. चुनाव किस प्रकार जातियों का खेल बन गया है?


उत्तर- चुनाव निम्न प्रकार से जातियों का खेल बन गया है 


(i) चुनावों में जाति विशेष का वोट प्राप्त करने के लिए जाति के आधार पर प्रत्याशी चुने जाते हैं।


(ii) जाति विशेष को 'वोट बैंक' में बदलने के लिए उन्हें कई प्रकार से राजनैतिक दल अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करते हैं।


 (iii) राजनैतिक दल अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए जाति विशेष के दबंगों को अपने साथ रखते हैं। 


प्रश्न 6. भारत की विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति क्या है


उत्तर भारत की विधायिकाओं में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात बहुत ही कम है; जैसे- लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या कुल सांसदों की दस प्रतिशत भी नहीं है। राज्यों की विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व 5 प्रतिशत से भी कम है। इस मामले में भारत दुनिया के अन्य देशों से बहुत नीचे है। भारत, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई देशों से पीछे है। कभी-कभार कोई महिला प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बन भी जाए तो मंत्रिमंडलों में पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है।


प्रश्न 7. किन्हीं दो प्रावधानों का जिक्र करें जो भारत को धर्मनिरपेक्ष देश बनाते हैं।


 उत्तर- संविधान निर्माताओं ने सांप्रदायिकता से निपटने के लिए भारत के लिए धर्मनिरपेक्ष शासन का मॉडल चुना और इसके लिए संविधान में महत्त्वपूर्ण प्रावधान किए गए


(i) भारतीय राज्य ने किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में अंगीकार नहीं किया है। श्रीलंका में बौद्ध धर्म, पाकिस्तान में इस्लाम और इंग्लैंड में ईसाई धर्म का जो दर्जा रहा है उसके विपरीत भारत का संविधान किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता।


(ii) संविधान सभी नागरिकों को किसी भी धर्म का पालन करने और प्रचार-प्रसार करने की आज़ादी देता है। 


(iii) संविधान धर्म के आधार पर किए जाने वाले किसी तरह के भेदभाव को अवैधानिक घोषित करता है।


प्रश्न 8.दो कारण बताएँ कि क्यों सिर्फ़ जाति के आधार पर भारत में चुनावी नतीजे तय नहीं हो सकते?


उत्तर भारत में जाति व्यवस्था भी धर्म की तरह चुनावों को प्रभावित करती है किंतु केवल जाति के आधार पर ही चुनावी नतीजे तय नहीं हो सकते 


(i) देश के किसी भी एक संसदीय चुनाव क्षेत्र में किसी एक जाति के लोगों का बहुमत नहीं है। इसलिए हर पार्टी और उम्मीदवार को चुनाव जीतने के लिए एक जाति और समुदाय से ज्यादा लोगों का भरोसा हासिल करना होता है।


(ii) कोई भी पार्टी किसी एक जाति या समुदाय के सभी लोगों का वोट हासिल नहीं कर सकती। जब लोग किसी जाति विशेष को किसी एक पार्टी का 'वोट बैंक' कहते हैं तो इसका मतलब यह होता है कि उस जाति के ज्यादातर लोग उसी पार्टी को वोट देते हैं।


इस प्रकार चुनाव में जाति की भूमिका महत्त्वपूर्ण तो होती है किंतु दूसरे कारण भी महत्त्वपूर्ण होते हैं। मतदाताओं का लगाव जाति के साथ-साथ राजनीतिक दलों से भी होता है। सरकार के काम-काज के बारे में लोगों की राय और नेताओं की लोकप्रियता का चुनावों पर निर्णायक असर होता है।



दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 6 अंक


प्रश्न1. लैंगिक असमानता को बढ़ावा देने वाले विभिन्न कारकों का वर्णन कीजिए। 


उत्तर- हमारे समाज में लैंगिक असमानता प्राचीनकाल से पाई जाती है।


लैंगिक असमानता को बढ़ावा देने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित है


1. श्रम का लैंगिक विभाजन-भारत में श्रम का लैंगिक विभाजन कर दिया गया है। इसके द्वारा तय किया गया कि महिलाएं केवल घर का काम-काज करेगी तथा पुरुष घर के बाहर सार्वजनिक क्षेत्र में कार्य करेंगे। ऐसे में महिलाओं के श्रम का कोई मूल्य नहीं होता, जबकि आँकड़े बताते हैं कि महिलाएँ पुरुषों से अधिक काम करती है।



2. बालिकाओं के प्रति उपेक्षा—आज भी बालिकाओं की अनेक प्रकार से अवहेलना की जाती है। लड़के के जन्म पर आज भी खुशियाँ मनाई जाती हैं और लड़की का जन्म लेना अच्छा नहीं माना जाता। शिक्षा के क्षेत्र में भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है। भारत में कुल 64.6 प्रतिशत महिलाएँ ही शिक्षित हैं क्योंकि माता-पिता लड़कों पर अधिक धन खर्च करते हैं किंतु लड़कियों की शिक्षा पर धन खर्च नहीं करना चाहते।


3. बाल विवाह- सरकार ने बाल विवाह के विरुद्ध कानून पास कर रखे हैं किंतु ग्रामीण क्षेत्रों में बाल विवाह की घटनाएँ अभी भी सुनने को मिलती हैं।


4. विधवा विवाह की आज्ञा न होना-आज भी भारत के बहुत-से भागों में यदि कोई महिला विधवा हो जाए तो उसे पुन: विवाह करने की आज्ञा नहीं दी जाती। ऐसी विधवाओं को नारकीय जीवन जीने के लिए छोड़ दिया जाता है।


5. भारत की विधायिकाओं में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात बहुत कम है। भारत इस मामले में अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई विकासशील देशों से पीछे है। इस प्रकार सार्वजनिक जीवन खासकर राजनीति में उनकी भूमिका नगण्य है।


इस प्रकार उक्त विभिन्न कारकों ने भारत में लैंगिक असमानता को बढ़ावा देने का कार्य किया है।



प्रश्न 2. जीवन के उन विभिन्न पहलुओं का जिक्र कीजिए जिनमें भारत में स्त्रियों के साथ भेदभाव होता है 

या वे कमज़ोर स्थिति में होती हैं।


या 


अपने देश में महिलाओं को सामाजिक तथा राजनैतिक अधिकार दिये जाने के पक्ष में तीन तर्क दीजिए। क्या उन्हें किसी संवैधानिक संस्था में आरक्षण प्राप्त है?




उत्तर- हमारे देश में आज़ादी के बाद से महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है। पर वे अभी भी पुरुषों से काफी पीछे हैं। हमारा समाज अभी भी पितृप्रधान है। औरतों के साथ अभी भी कई तरह के भेदभाव होते हैं—


(i) जनगणना 2011 के अनुसार महिलाओं में साक्षरता की दर अब भी मात्र 64.6 फीसदी है, जबकि पुरुषों में 80.9 फीसदी। स्कूल पास करने वाली लड़कियों की एक सीमित संख्या ही उच्च शिक्षा की ओर कदम बढ़ा पाती है। अभी भी माँ-बाप अपने संसाधनों को लड़के-लड़की दोनों पर बराबर खर्च करने की जगह लड़कों पर ज्यादा खर्च करना पसंद करते हैं।


(ii) साक्षरता दर कम होने के कारण ऊँची तनख्वाह वाले और ऊँचे पदों पर पहुँचने वाली महिलाओं की संख्या बहुत ही कम है। भारत में स्त्रियाँ पुरुषों से अधिक काम करती हैं किंतु अक्सर उनके काम को मूल्यवान नहीं माना जाता।


(iii) काम के हर क्षेत्र में यानी खेल-कूद की दुनिया से लेकर सिनेमा के संसार तक और कल-कारखानों से लेकर खेत-खलिहानों तक महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी मिलती है। भले ही दोनों ने समान काम किया हो।


(iv) भारत के अनेक हिस्सों में अभी भी लड़की को जन्म लेते ही मार दिया जाता है। अधिकांश परिवार लड़के की चाह रखते हैं। इस कारण लिंग अनुपात गिरकर प्रति हज़ार लड़कों पर 943 (शिशु लिंग अनुपात 919) रह गया है।


(v) भारत में सार्वजनिक जीवन में, खासकर राजनीति में महिलाओं की भूमिका नगण्य ही है। अभी भी महिलाओं को घर की चहारदीवारी के भीतर रखा जाता है।


महिलाओं के लिए पंचायती राज के अंतर्गत स्थानीय सरकारों और ई नगरपालिकाओं में एक-तिहाई पद आरक्षित हैं।



प्रश्न 3. विभिन्न तरह की सांप्रदायिक राजनीति का ब्यौरा दें और सबके साथ एक-एक उदाहरण भी दीजिए।


या सांप्रदायिकता लोकतंत्र के लिए घातक है। दो कारण लिखिए।


या सांप्रदायिकता लोकतंत्र के लिए हानिकारक क्यों है? दो तर्क दीजिए।



उत्तर-सांप्रदायिकता राजनीति में अनेक रूप धारण कर सकती है 


(i) सांप्रदायिकता की सबसे आम अभिव्यक्ति रोजमर्रा के जीवन में ही दिखती है। इनमें धार्मिक पूर्वाग्रह, धार्मिक समुदायों के बारे में बनी-बनाई धारणाएँ और एक धर्म को दूसरे धर्म से श्रेष्ठ मानने की मान्यताएँ शामिल हैं।


(ii) सांप्रदायिक भावना वाले धार्मिक समुदाय राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करना चाहते हैं। इसके लिए धर्म के आधार पर राजनीतिक दलों का गठन किया जाता है तथा फिर धीरे-धीरे धर्म पर आधारित अलग राज्य की माँग करके देश की एकता को नुकसान पहुँचाया जाता है; जैसे— भारत में अकाली दल, हिंदू महासभा आदि दल धर्म के आधार पर बनाए गए। धर्म के आधार पर सिखों की खालिस्तान की माँग इसका उदाहरण है।


(iii) सांप्रदायिक आधार पर राजनीतिक दलों द्वारा धर्म और राजनीति का मिश्रण किया जाता है। राजनीतिक दलों द्वारा अधिक वोट प्राप्त करने के लिए लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काया जाता है; जैसे भारत में भारतीय जनता पार्टी धर्म के नाम पर वोट हासिल करने की कोशिश करती है। बाबरी मस्जिद का मुद्दा इसका उदाहरण है।


(iv) कई बार सांप्रदायिकता सबसे गंदा रूप लेकर संप्रदाय के आधार पर हिंसा, दंगा और नरसंहार कराती है। विभाजन के समय भारत और पाकिस्तान में भयानक सांप्रदायिक दंगे हुए थे। आजादी के बाद भी बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा हुई है। 1984 के हिंदू-सिख दंगे इसका प्रमुख उदाहरण हैं।


प्रश्न 4. बताइए कि भारत में किस तरह अभी भी जातिगत असमानताएँ जारी हैं?


उत्तर- आधुनिक भारत में जाति की संरचना और जाति व्यवस्था में भारी बदलाव आया है। किंतु फिर भी समकालीन भारत से जाति प्रथा विदा नहीं हुई है। जातिगत असमानता के कुछ पुराने पहलू अभी भी बरकरार हैं


(i) अभी भी ज्यादातर लोग अपनी जाति या कबीले में ही शादी करते हैं।


(ii) संवैधानिक प्रावधान के बावजूद छुआछूत की प्रथा अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है।


(iii) जाति व्यवस्था के अंतर्गत कुछ जातियाँ लाभ की स्थिति में रहीं तथा कुछ को दबाकर रखा गया। इसका प्रभाव आज भी नजर आता है। यानी ऊँची जाति के लोगों की आर्थिक स्थिति सबसे अच्छी है व दलित तथा आदिवासियों की आर्थिक स्थिति सबसे खराब है।


(iv) हर जाति में गरीब लोग हैं पर गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर करने वालों में अधिक संख्या निचली जातियों के लोगों की है। ऊँची जातियों में गरीबी का प्रतिशत सबसे कम है।


(v) आज सभी जातियों में अमीर लोग हैं पर यहाँ भी ऊँची जाति वालों का अनुपात बहुत ज्यादा है और निचली जातियों का बहुत कम।



(vi) जो जातियाँ पहले से ही शिक्षा के क्षेत्र में आगे थीं, आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में भी उन्हीं का बोलबाला है। जिन जातियों को पहले शिक्षा से वंचित रखा जाता था, उनके सदस्य अभी भी पिछड़े हुए हैं। आज भी जाति आर्थिक हैसियत के निर्धारण में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि अभी भी जातिगत असमानताएँ जारी हैं।


प्रश्न 5. राजनीति में जाति किस प्रकार अनेक रूप ले सकती है? उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।


उत्तर


राजनीति में जाति


सांप्रदायिकता की तरह जातिवाद भी इस मान्यता पर आधारित है कि जाति ही सामाजिक समुदाय के गठन का एकमात्र आधार है। इस चिंतन पद्धति के अनुसार एक जाति के लोग एक स्वाभाविक सामाजिक समुदाय का निर्माण करते हैं और उनके हित एक जैसे होते हैं तथा दूसरी जाति के लोगों से उनके हितों का कोई मेल नहीं होता।


जैसा कि हमने सांप्रदायिकता के मामले में देखा है, यह मान्यता हमारे अनुभव से पुष्ट नहीं होती। हमारे अनुभव बताते हैं कि जाति हमारे जीवन का एक पहलू  जरूर है लेकिन यही एकमात्र या सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण पहलू नहीं है। राजनीति में जाति अनेक रूप ले सकती है -


(i) जब पार्टियाँ चुनाव के लिए उम्मीदवारों के नाम तय करती हैं तो चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं की जातियों का हिसाब ध्यान में रखती हैं। ताकि उन्हें चुनाव जीतने के लिए जरूरी वोट मिल जाए। जब सरकार का गठन किया जाता है, तो राजनीतिक दल इस बात का ध्यान रखते हैं कि उसमें विभिन्न जातियों और कबीलों के लोगों का उचित जगह दी जाए।


(ii) राजनीतिक पार्टियाँ और उम्मीदवार समर्थन हासिल करने के लिए। जातिगत भावनाओं को उकसाते हैं। कुछ दलों को कुछ जातियों के मददगार और प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है।


(iii) सार्वभौम वयस्क मताधिकार और एक व्यक्ति-एक वोट की व्यवस्था ने राजनीतिक दलों को विवश किया कि वे राजनीतिक समर्थन पाने और लोगों को गोलबंद करने के लिए सक्रिय हों। इससे उन जातियों के लोगों में नयी चेतना पैदा हुई जिन्हें अभी तक छोटा और नीच माना जाता था।



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