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Up ncert class 10 science chapter 08 Heredity and Organic Evolution आनुवंशिकता एवं जैव विकास

  class 10 science chapter 8 Heredity and Organic Evolution up board ncert notes in hindi



कक्षा 10 वी विज्ञान अध्याय 8 आनुवंशिकता एवं जैव विकास का सम्पूर्ण हल





आनुवंशिकता एवं जैव विकास

Heredity and Organic Evolution





महत्वपूर्ण बिंदू


#. वंशागति (heredity) तथा विभिन्नताओं (varcations) के अध्ययन को आनुवंशिकी (Genetics) कहते हैं।


#.विभिन्न जीवों में पायी जाने वाली विभिन्नताएँ केवल एक पीढ़ी का परिणाम नहीं है। ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी होने वाले परिवर्तनों के संचयन का परिणाम है।


#. आनुवंशिक लक्षण पैतृक जीव से सन्तानों को कुछ निश्चित नियम के अनुसार वंशागत होते हैं जिन्हें आनुवंशिकता के नियम कहते हैं। इस नियम के अनुसार जीवों के विभिन्न लक्षण पूर्ण विश्वसनीयता के साथ वंशागत होते हैं।


#. मानव में माता एवं पिता दोनों ही समान माता में आनुवंशिक पदार्थ (D.N.A.) को सन्तति में स्थानान्तरित करते हैं। अतः सन्तान (शिशु) का प्रत्येक लक्षण माता एवं पिता के D.N.A. से प्रभावित होगा।


#. कोशिका के D.N.A. में प्रोटीन-संश्लेषण के लिए सूचना स्रोत होता है। जिस प्रोटीन के लिए यह सूचना होती है, उसे उस प्रोटीन का जीन (gene) कहते हैं।


#.लैंगिक जनन वह प्रक्रिया है जिसमें दो विपरीत लिंगी जीवों के समागम से सन्तति की उत्पत्ति होती है।


#. मनुष्य की सभी कायिक कोशिकाओं तथा युग्मक का निर्माण करने वाली जनन कोशिकाओं में 46 गुणसूत्र होते हैं। इनमें से 44 गुणसूत्र (22 जोड़े) समजात होते हैं, जिन्हें ऑटोसोम्स (autosomes) कहते हैं। शेष एक जोड़ा गुणसूत्र लिंग गुणसूत्र (sex chromosomes) कहलाता है।


#. जैव विकास मन्द गति से होने वाला वह क्रमिक परिवर्तन है जिसके परिणामस्वरूप आज के युग के जटिल व उच्च कोटि के जीव पूर्वकाल के सरल एवं निम्न कोटि के जीवों से उत्पन्न हुए हैं।


#."जीवों को, उनकी समानता, असमानता व अन्य सन्बन्धों के आधार पर समूह व उपसमूहों में बाँटना वर्गीकरण कहलाता है।"


#.जैव विकास के सिद्धान्त का अर्थ कोई वास्तविक 'प्रगति' नहीं है। विविधताओं की उत्पत्ति एवं प्राकृतिक चयन द्वारा उसे स्वरूप देना मात्र ही विकास है।


 आनुवंशिकता एवं जैव-विकास


वे लक्षण, जो एक पीढ़ी (माता-पिता) से दूसरी पीढ़ी (सन्तानों) में वंशागत (Inherit) होते हैं, आनुवंशिक लक्षण अथवा विशेषक (Hereditary characters or traits) कहलाते हैं तथा आनुवंशिक लक्षणों के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरित होने की प्रक्रिया को वंशागति (Heredity) कहते हैं।


जनन के दौरान विभिन्नताओं का संचयन


पूर्ववर्ती पीढ़ी से वंशागत सन्तति को एक आधारिक शारीरिक अभिकल्प एवं कुछ विभिन्नताएँ प्राप्त होती हैं। एक ही जाति (Species) के विभिन्न सदस्यों के मध्य लक्षणों में पाई जाने वाली असमानताएँ (Dissimilarities) या अन्तर (Differences), जिनके कारण वे एक-दूसरे से अलग लगते हैं, विभिन्नताएँ कहलाती हैं। विभिन्नताओं की अनुपस्थिति में भी जाति विकास नहीं कर सकती है। ऐसा होने पर उस जाति के सभी सदस्य समान होंगे।


आनुवंशिकता


विज्ञान की वह शाखा, जिसके अन्तर्गत जीवों की आनुवंशिक समानताओं और असमानताओं एवं वंशागति का अध्ययन किया जाता है, आनुवंशिकी (Genetics) कहलाती है। आनुवंशिकी शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम विलियम बेटसन (1906) ने किया था। 'आनुवंशिकी' शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा से हुई है, जिसका अर्थ है 'To become To grow intol


वंशागत लक्षण


जीवों के विभिन्न लक्षण (बाह्य एवं आन्तरिक) उनके जननिक पदार्थों में स्थित सूचनाओं के ही परिणाम हैं। ये सूचनाएँ DNA में जीन्स के रूप में उपस्थित रहती हैं। DNA मुख्य आनुवंशिक पदार्थ होता है। विभिन्न जीवों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन सूचनाओं का स्थानान्तरण युग्मकों के रूप में होता रहता है। नवीन सन्ततियों में पहुँचने के उपरान्त इन जीन्स के प्रकटीकरण की ( प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। जीन्स की सूचनाओं के प्रकटीकरण से ही भिन्न-भिन्न लक्षणों की उत्पत्ति होती है, जिन्हें वंशागत लक्षण कहते हैं, जैसे- ऊँचाई, त्वचा का रंग, दो प्रकार के कर्ण पल्लव, आदि।


टी. एच. मॉर्गन ने फल मक्खी (ड्रोसोफिला) पर प्रयोग किए तथा आनुवंशिक प्रयोग द्वारा सहप्रभाविता की खोज की।



 नोट


1.जब तुलनात्मक लक्षणों वाले नर तथा मादा के मध्य निषेचन कराया जाता है, तो इस क्रिया को संकरण कहते हैं और इससे उत्पन्न सन्तानों को संकर कहते हैं, जैसे- शुद्ध लम्बे (TT) तथा शुद्ध बौने (tt) पादपों को क्रॉस कराने पर संकर लम्बे (Ti) पादप प्राप्त होते हैं। इनमें प्रभावी तथा अप्रभावी दोनों जीन पाए जाते हैं।


2.मानव आनुवंशिकी के अन्तर्गत मनुष्य में वंशागत होने वाले लक्षणों का अध्ययन किया जाता है। इन लक्षणों को मानव आनुवंशिकी विशेषक कहते हैं अर्थात् माता-पिता के शारीरिक, कायिक एवं मानसिक लक्षणों का सन्तानों में पहुँचना ही आनुवंशिकता कहलाता है।


3.संकर विषमयुग्मजी सन्तति (Tt) और उनके शुद्ध या समयुग्मजी (प्रभावी/अप्रभावी) जनक के मध्य संकरण करवाने को संकर पूर्वज संकरण कहते हैं, जैसे विषमयुग्मजी बैंगनी पुष्प वाले पादप का संकरण प्रभावी समयुग्मजी बैंगनी पुष्प वाले जनक पादपों से कराने पर सभी बैंगनी पुष्प उत्पन्न होते हैं, परन्तु विषमयुग्मजी बैंगनी पुष्प वाले पादप का संकरण अप्रभावी समयुग्मजी सफेद पुष्प वाले पादप से कराने पर बैंगनी व सफेद 1:1 में प्राप्त होते हैं।


आनुवंशिकी की शब्दावली


(i) जीन या कारक (Gene or Factor) मेण्डल के अनुसार, सजीवों के प्रत्येक लक्षण का नियन्त्रण कुछ कारकों या निर्धारकों द्वारा होता है। आधुनिक आनुवंशिकी में इन्हीं कारकों को जीन कहा जाता है।



(ii) युग्मविकल्पी अथवा एलीलोमॉर्फ (Allelomorph) विपरीत लक्षणों वाले युग्मों को युग्मविकल्पी (Alleles) कहते हैं, जैसे Rr युग्म में ऐक गुणसूत्र पर R तथा दूसरे गुणसूत्र परयुग्मविकल्प उपस्थित होता है। अतः एक ही विपर्यासी लक्षण (Contrasting character) के दोनों विकल्पों को नियन्त्रित करने वाले जीन के युग्म को युग्मविकल्पी कहते हैं।


(iii) समयुग्मजी एवं विषमयुग्मजी (Homozygous and Heterozygous) जब एक विपर्यासी लक्षण को नियन्त्रित करने वाले दोनों जीन एक ही प्रकार के हो, तो इसे समयुग्मजी कहते हैं। इसमें स्व-परागण या अन्तः प्रजनन होने पर सन्तति पैतृकों के समलक्षणी एवं समजीनी होते हैं। समयुग्मजी लक्षण शुद्ध होते हैं, किन्तु जब विपर्यासी लक्षण को नियन्त्रित करने वाले दोनों जीन अलग-अलग हो, तो इसे विषमयुग्मजी कहा जाता है।


(iv) शुद्ध जाति (Pure Species) ऐसे पादप, जो समान लक्षण वाले पादपों से उत्पन्न होते हैं, वे शुद्ध जाति के पादप कहलाते हैं, इसमें लक्षणों के कारक अथवा जीन समयुग्मजी होते हैं, जैसे- TT, tt, RR, rr, आदि।


(v) लक्षणप्रारूप एवं जीनप्रारूप (Phenotype and Genotype) लक्षणप्रारूप जीव के विभिन्न दैहिक लक्षण, जैसे-आकार, आकृति, रंग एवं स्वभाव, आदि को व्यक्त करता है। समान लक्षणप्रारूप वाले जीवों की जीनी संरचना समान हो सकती है और नहीं भी। जीनप्रारूप जीव के जीनी संगठन को व्यक्त करता है।


(vi) प्रभावी एवं अप्रभावी (Dominant and Recessive) युग्मविकल्पी कारकों में वह लक्षण, जो समयुग्मजी और विषमयुग्मजी दोनों अवस्थाओं में प्रदर्शित होता है, प्रभावी लक्षण कहलाता है, उदाहरण पादप का लम्बापन, पुष्प का लाल रंग, आदि। वह लक्षण, जो केवल समयुग्मजी स्थिति में प्रदर्शित होता है तथा विषमयुग्मजी अवस्था में अपने आप को प्रदर्शित नहीं कर पाता है, अप्रभावी लक्षण कहलाता है; उदाहरण बौनापन, पुष्प का सफेद रंग, आदि।


(vii) संकर एवं संकरण (Hybrid and Hybridisation) जब तुलनात्मक लक्षण वाले नर और मादा के मध्य निषेचन कराया जाता है, तो इस क्रिया को संकरण कहते हैं और इससे उत्पन्न सन्तानों को संकर कहते हैं, जैसे-शुद्ध लम्बे (TT) तथा शुद्ध बौने (tt) पादपों को क्रॉस कराने पर संकर लम्बे (Tt) पादप प्राप्त होते हैं।


(viii) एकसंकर संकरण (Monohybrid Cross) मेण्डल ने अपने प्रयोग में एक समय में केवल एक तुलनात्मक आनुवंशिक लक्षण की वंशागति का अध्ययन किया, इसे एकसंकर संकरण कहते हैं, जैसे- लाल पुष्प वाले पादप तथा सफेद पुष्प वाले पादप के मध्य संकरण


(ix) द्विसंकर संकरण (Dihybrid Cross) जब दो तुलनात्मक आनुवंशिक लक्षणों को ध्यान में रखकर संकरण कराया जाता है, तो इसे द्विसंकर संकरण कहते हैं, जैसे गोल व पीले बीज वाले पादप का हरे व झुर्रीदार बीज वाले पादप के मध्य संकरण। 


(x) संकर पूर्वज संकरण (Back Cross) F-पीढ़ी में प्राप्त सन्तानों और उनके किसी भी एक जनक के बीच होने वाले संकरण को संकर पूर्वज संकरण कहते हैं, जैसे- Ttx tt

या Tt x TT |


(xi) परीक्षण संकरण (Test Cross) जब F -पीढ़ी के विषमयुग्मजी संकर का संकरण,समयुग्मजी अप्रभावी जीन के साथ कराया जाता है, तो इसे परीक्षण संकरण कहते हैं, जैसे- F-पीढ़ी में प्राप्त सन्तति संकर लम्बे (Tt) तथा शुद्ध बौने पादप (tt) के मध्य संकरण। इस संकरण में बनने वाली सन्तानों में सदैव 1 : 1 का अनुपात पाया जाता है। 



(xii) F-पीढ़ी (F, Generation) पैतृक पीढ़ी (P) के बीच संकरण कराने से प्राप्त पीढ़ी, प्रथम सन्तानीय पीढ़ी (First filial generation or F) कहलाती है।


(xiii) Fy-पीढ़ी (F, Generation) प्रथम सन्तानीय पीढ़ी से प्राप्त जीवों के स्व-संकरण से प्राप्त पीढ़ी, द्वितीयक सन्तानीय पीढ़ी (Second filial generation or F) कहलाती है।



लक्षणों की वंशागति के नियम : मेण्डल का योगदान


मेण्डल ने मटर के पादप के अनेक विपर्यासी (विकल्पी) लक्षणों का अध्ययन किया जो स्थूल रूप से दिखाई देते हैं। जीवों में गुणसूत्रों के जोड़े पर स्थित विपरीत तुलनात्मक लक्षणों के जोड़े को एलील कहते हैं। ये गुणसूत्र एक ही विस्थल (Locus) पर स्थित होते हैं, जैसे-पुष्प के रंग के लिए बैंगनी व सफेद, बीज के आकार के लिए गोल एवं झुर्रीदार, पादप की लम्बाई के लिए बौना एवं लम्बा लक्षण, आदि। इन लक्षणों की संकरण पद्धति के सही ज्ञान के लिए मेण्डल ने दो प्रकार के संकरण कराए।


ऑस्ट्रिया के पादरी ग्रेगर जॉन मेण्डल को 'आनुवंशिकी का जनक' कहा जाता है। मेण्डल ने मटर (Pisum sativum) के पादप पर संकरण सम्बन्धी अनेक प्रयोग किए। इन्होंने इस पादप में सात विपर्यासी लक्षणों की वंशागति का अध्ययन किया। मेण्डल ने एक समय में केवल एक ही लक्षण की वंशागति का अध्ययन किया। सन् 1900 में हॉलैण्ड के ह्यूगो डी ब्रीज जर्मनी के कार्ल कॉरेन्स तथा ऑस्ट्रिया के एरिक वॉन शेरमार्क ने मेण्डल के नियमों की पुष्टि की।


1. एकसंकर संकरण


एकाकी लक्षणों के तुलनात्मक या विपर्यासी लक्षणप्रारूपों की वंशागति के अध्ययन हेतु किए गए प्रयोगों को एकसंकर संकरण कहते हैं। इसके लिए मेण्डल ने मटर के शुद्ध लम्बे और शुद्ध बौने पादपों का चयन किया। इन्हें पैतृक या जनक पीढ़ी (Parental generation) के पादप कहा तथा चित्रों एवं वर्णनों में इनके लिए P संकेताक्षरों का प्रयोग किया। मटर के इन लम्बे और बौने पादपों के मध्य संकरण (Hybrid) कराया गया।


(i) प्रभाविता का नियम इस नियम के अनुसार, जब परस्पर विपर्यासी (विपरीत) लक्षण वाले पादपों के बीच संकरण कराया जाता है, तो F-पीढ़ी की सन्तानों में, जो लक्षण प्रदर्शित होता है, उसे प्रभावी लक्षण कहते हैं तथा जो लक्षण इस पीढ़ी की सन्तानों में प्रदर्शित नहीं होता, वह अप्रभावी लक्षण कहलाता है। इस नियम को मेण्डल के एकसंकर संकरण प्रयोग द्वारा समझा जा सकता है।


(ii) पृथक्करण या युग्मकों की शुद्धता का नियम इस नियम के अनुसार, एक जोड़ी के जीन युग्मक निर्माण के समय एक-दूसरे से पृथक् हो जाते हैं और एक युग्मक से में जीन युग्म का एक जीन ही पहुँचता है। इसे युग्मकों की शुद्धता का नियम कहते हैं। यह नियम भी एकसंकर संकरण के प्रयोग द्वारा सिद्ध होता है। ग्रेगर जॉन मेण्डल ने यह नियम प्रतिपादित किया।


2. द्विसंकर संकरण


मेण्डल ने बाद में एक ही समय पर दो जोड़ी विपर्यासी लक्षणों के स्थानान्तरण तथा पृथक्करण के प्रयोगों का व्यावहारिक अध्ययन किया, जिसे द्विसंकर संकरण कहते हैं। मेण्डल ने जब गोल बीज व पीले बीजपत्र (RRYY) वाले पादपों तथा झुर्रीदार बीज व हरे बीजपत्र (rryy) वाले पादपों (P.) के मध्य संकरण करवाया, तो F, पीढ़ी में केवल गोल बीज तथा पीले बीजपत्र वाले पादप उत्पन्न हुए। झुर्रीदार बीजों की उपस्थिति अप्रभावी लक्षण है, जबकि मटर में बीजों का आकार तथा पीला रंग प्रभावी लक्षण है। के संयोजन प्राप्त हुए


इन पादपों में स्व-परागण करवाने पर उन्हें चार प्रकार 


(I) पादप गोल बीज तथा पीले बीजपत्रयुक्त = 315


(ii) पादप गोल बीज तथा हरे बीजपत्रयुक्त = 108


 (iii) पादप झुर्रीदार बीज तथा पीले बीजपत्रयुक्त = 101


(iv) पादप झुर्रीदार बीज तथा हरे बीजपत्रयुक्त = 32


इस प्रकार F2 -पीढ़ी की सन्ततियों में इन चार प्रकार के पादपों की संख्या में क्रमश: 9:3:3:1 का अनुपात रहा। ये लक्षणप्रारूप अनुपात है, इसे द्विसंकर अनुपात (Dihybrid ratio) भी कहते हैं।


स्वतन्त्र अपव्यूहन का नियम इस नियम के अनुसार, जब दो या दो से अधिक असम्बन्धित प्रभावी लक्षणों वाले पादपों के मध्य संकरण कराया जाता है, तो उनके जीन युग्म के कारकों का पृथक्करण एवं अपव्यूहन स्वतन्त्र रूप से होता है अर्थात् ये • स्वतन्त्र रूप से पृथक् होकर जनकों के किसी भी लक्षण के साथ संयोग बनाते हुए सन्तानीय पीढ़ियों में जाते हैं। मेण्डल के इस नियम की व्याख्या द्विसंकर संकरण के आधार पर की जा सकती है।



लक्षणों की अभिव्यक्ति


DNA का वह भाग, जिसमें किसी प्रोटीन संश्लेषण के लिए सूचना होती है, उसे जीन कहते हैं। जीन शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम जॉहन्सन ने किया था। प्रोटीन विभिन्न लक्षणों की अभिव्यक्ति को नियन्त्रित करते हैं। जैसे-पादप की लम्बाई की मात्रा पर निर्भर करती है और हॉर्मोन एन्जाइम पर निर्भर, जिससे यह उत्पादित होता है। यदि यह एन्जाइम (प्रकिण्व) दक्षता से कार्य करेगा तो हॉर्मोन पर्याप्त मात्रा में बनेगा तथा पादप लम्बा होगा। यदि इस प्रोटीन के जीन में कुछ परिवर्तन आते हैं, तो प्रोटीन की क्षमता पर प्रभाव पड़ने से हॉर्मोन की मात्रा कम होगी परिणामस्वरूप पादप बौना होगा। अतः जीन लक्षणों को नियन्त्रित करते हैं।


वंशागति की क्रियाविधि


प्रत्येक जीव में जीन या गुणसूत्रों द्वारा लक्षणों की वंशागति होती हैं, जो उन्हें जनक से प्राप्त होते हैं। लैगिंक जनन में निर्मित जनन कोशिका अगुणित होती हैं, जहाँ नर एवं मादा के अगुणित युग्मक परस्पर समेकित होकर द्विगुणित जीव का निर्माण करते हैं। सन्तति में जीनों का एक समुच्चय नर से तथा दूसरा समुच्चय मादा से आता है। अतः प्रत्येक कोशिका में लक्षणों के जीनों की दो प्रतियाँ होती हैं। जनन के समय ये जीन प्रतियाँ अगुणित जनन कोशिका में पृथक्-पृथक् होकर चली जाती है, जिससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुणसूत्रों की संख्या स्थिर बनी रहती है।


लिंग निर्धारण


"लिंग-निर्धारण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा यह सुनिश्चित होता है कि एकलिंगी जन्तुओं में लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न होने वाला नया प्राणी नर होगा या मादा"।


मनुष्य में लिंग-निर्धारण


मनुष्य की कोशिकाओं में 46 गुणसूत्र उपस्थित होते हैं। इनमें से 22 जोड़ें नर तथा मादा में दोनों में समान होते हैं। अतः इन्हें ऑटोसोम्स या कायिक गुणसूत्र कहते हैं। स्त्री में 23वाँ जोड़ा भी समयुग्मजी XX-गुणसूत्रों वाला होता है, किन्तु पुरुष में 23वें जोड़े के गुणसूत्र विषमयुग्मजी XY होते हैं।


यह मानव में लिंग का निर्धारण करते हैं, इन्हें हेटेरोसोम्स या एलोसोम्स या लिंग गुणसूत्र भी कहते हैं। पुरुष में 23वें जोड़ें के गुणसूत्रों में एक लम्बा, किन्तु दूसरा छोटा होता है और इन्हें XY से प्रदर्शित करते हैं। इनमें से X-गुणसूत्र बड़ा तथा y गुणसूत्र छोटा होता है। इस प्रकार पुरुष में 22 जोड़ें + XY = 46 गुणसूत्र पाए जाते हैं, जबकि स्त्री में 22 जोड़े + XX = 46 गुणसूत्र पाए जाते हैं।


जैव-विकास


सरल संरचना वाले जीवों से आधुनिक जटिल जीवों के क्रमिक विकास को जैव-विकास (Organic evolution) कहते हैं अर्थात् जैव-विकास धीमी गति से होने वाला वह क्रमिक परिवर्तन है, जिसके परिणामस्वरूप पूर्व काल के सरल संरचना तथा निम्न कोटि वाले प्राणियों, से आधुनिक जटिल तथा उच्च कोटि के प्राणियों का विकास हुआ है।


किसी समष्टि होने के कारण जीन की आवृत्ति को कोई भी सामान्य दुर्घटना प्रभावित कर सकती है। यह आनुवंशिक अपवहन (Genetic drift) का सिद्धान्त है, जो बिना किसी अनुकूलन के भी विभिन्नता उत्पन्न कर सकता है। जीन अपवहन संकल्पना हार्डी वीनबर्ग ने दी। की


उपार्जित एवं वंशागत लक्षण


वे लक्षण, जो जीव के जीवनकाल के दौरान वातावरणीय प्रभावों के कारण उत्पन्न होते हैं तथा अगली पीढ़ी में वंशागत नहीं होते हैं, उपार्जित लक्षण कहलाते हैं। उदाहरण ज्ञान, अनुभव, शारीरिक विकलांगता, आदि। यह सिद्धान्त जीन बैप्टिस्ट डी लैमार्क ने प्रस्तुत किया।


वे लक्षण, जो जीवों को जन्मजात या उनके जनकों से प्राप्त होते हैं अर्थात् एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरित होते हैं, वंशागत लक्षण कहलाते हैं।


नोट प्राकृतिक चुनाव द्वारा 'जातियों की उत्पत्ति' नामक पुस्तक के लेखक चार्ल्स डार्विन है। ये अपने जैव-विकास के सिद्धान्त में अपने दिए गए उदाहरणों की व्याख्या भिन्नताओं के कारण नहीं कर पाए थे।



पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति


डार्विन के सिद्धान्त के अनुसार, पृथ्वी पर सरल जीवों से जटिल स्वरूप वाले जीवों का विकास हुआ है। जे. बी. एस. हेल्डेन नामक ब्रिटिश वैज्ञानिक ने बताया की जीवों की उत्पत्ति सर्वप्रथम उन सरल अकार्बनिक अणुओं से हुई होगी, जो पृथ्वी की उत्पत्ति के समय बने थे। जीवन के प्रारम्भिक जीवों की उत्पत्ति आदि सागर के जल में हुई थी। उन्होंने बताया, कि पृथ्वी पर उस समय का वातावरण, पृथ्वी के वर्तमान वातावरण से भिन्न था। उस वातावरण में कुछ जटिल कार्बनिक अणुओं का संश्लेषण हुआ, जो जीवन के लिए आवश्यक थे। इस परिकल्पना को स्टैनले मिलर एवं हेराल्ड यूरे ने सिद्ध किया।


रूस के प्रसिद्ध जीव-रसायनज्ञ ए. आई. ओपेरिन ने जीवन के उद्भव की जैव-रासायनिक परिकल्पना प्रस्तुत की। इस परिकल्पना के अनुसार, आदिकालीन पृथ्वी पर केवल कार्बनिक यौगिक उपस्थित थे, जो समुद्र के जल में घुले हुए थे। इन्हीं यौगिकों के संयोग से सर्वप्रथम एक ऐसी रचना का निर्माण हुआ, जिसमें जीवन के लक्षण विद्यमान थे।


नोट जीव-जगत में प्रत्येक जीव जीवित रहने के लिए संघर्ष करता है, जिसे जीवन संघर्ष कहते हैं। यह मत चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन का था।


डार्विन ने प्राकृतिक चयन द्वारा जातियों की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रस्तुत किया, जिसमें बताया कि जीवों में सन्तान उत्पन्न करने की प्रचुर क्षमता होती है। प्रत्येक जीव को भोजन, आवास के लिए अर्थात् जीवित रहने के लिए, वातावरण में संघर्ष करना पड़ता है और जो योग्य होता है वही जीवित रहता है, जबकि अयोग्य समाप्त हो जाता है। हर्बट स्पेन्सर ने सर्वप्रथम योग्यतम् की उत्तरजीविता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया, जिसे डार्विन ने प्राकृतिक चयन कहा।


जाति उद्भभव


जाति अन्तः प्रजनन करने वाले ऐसे जीवों का समूह है, जो अनेक स्थानों में समूहों में रहते हैं। किसी जनसंख्या के सारे सदस्यों के जीन मिलकर उस जनसंख्या के जीन पूल बनाते हैं। एक जननिक रूप से समांग जनसंख्या का दो या दो से अधिक जनसंख्याओं जो आनुवंशिक रूप से भिन्न तथा जननिक पृथक्करण युक्त हो, में टूटना, नई जाति का निर्माण या जाति उद्भवन (Speciation) कहलाता है। ये जातियाँ छोटे-छोटे स्थानिक या भौगोलिक समूहों में बँटी होती हैं। ये समूह आबादी कहलाते हैं। इन आबादियों में जीन पुनर्योजन (Gene recombination), स्वतन्त्र अपव्यूहन (Independent assortment), जीन उत्परिवर्तन (Gene mutation) व गुणसूत्र विपथन (Chromosomal aberrations) द्वारा विभिन्नताएँ बढ़ती जाती हैं, जिसके फलस्वरूप जीव संयोगिक लैंगिक संगम करने में सक्षम नहीं रह पाते हैं। अन्त में इन आबादियों के जीवों के मध्य पृथक्करण या जननीय अलगाव हो जाता है, जिससे प्रत्येक आबादी से एक नई जाति का निर्माण हो जाता है।


विकास एवं वर्गीकरण


जैव-विकास एक लगातार चलने वाली विकास की प्रक्रिया है, परन्तु यह प्रक्रिया इतनी धीमी व लम्बी होती है, कि इसे प्रकृति में होते हुए देख पाना सम्भव नहीं है। अतः इस प्रक्रिया का अध्ययन विभिन्न प्रमाणों की सहायता से किया जाता है, जो निम्नलिखित हैं


(i) समजातता या समजात अंग ऐसे अंग, जो मूल रचना तथा उद्भव में समान होते हैं, किन्तु अलग-अलग कार्यों हेतु अनुकूलित होने के कारण असमान दिखाई देते हैं तथा जिनका विकास भ्रूण (Embryo) के समान भागों से होता है, समजात अंग कहलाते हैं। इनकी यह समानता समजातता कहलाती है।


उदाहरण सील के फ्लीपर (अगली टाँगें) तैरने के लिए, घोड़े की अगली टाँगे दौड़ने के लिए, मनुष्य के हाथ वस्तुओं को पकड़ने के लिए अनुकूलित होते हैं। इनके कार्यों में अन्तर होते हुए भी इनकी मूल संरचना और उत्पत्ति में समानता होती है।


(ii) समरूपता एवं समरूप अंग ऐसे अंग जो, रचना व उत्पत्ति में भिन्न हो, किन्तु कार्यों तथा बाह्य आकारिकी में समान हो, समरूप या समवृत्ति अंग कहलाते हैं तथा इस दिखावटी समानता को समरूपता या समवृत्तिता कहते हैं।



उदाहरण कीट, पक्षी एवं चमगादड़ के पंख उड़ने का कार्य करते हैं, परन्तु ये मूल संरचना तथा उत्पत्ति में भिन्न होते हैं। कीटों के पंख काइटिन के बने होते हैं एवं इनमें कंकाल नहीं होता है, जबकि चमगादड़ के पंख धड़ के नीचे फैली त्वचा से बने होते हैं।


जीवाश्म


जीव की मृत्यु के बाद उसके शरीर का अपघटन हो जाता है तथा वह समाप्त हो जाता है, परन्तु कभी-कभी जीव का शरीर या उसके कुछ भाग ऐसे वातावरण में चले जाते हैं, जिसके कारण इनका अपघटन पूरी तरह से नहीं हो पाता है और वह मिट्टी में दबकर अपनी छाप छोड़े देते हैं। जीव के इस प्रकार के परिरक्षित अवशेष जीवाश्म कहलाते हैं। पत्थर पर पेड़ का तना, डाइनोसॉर, अमोनाइट ये सभी जीवाश्म के उदाहरण हैं।


दूसरे शब्दों में विभिन्न प्राचीन जीवों के अवशेष जो हमें भूपटल की चट्टानों में परिरक्षित (Preserved) मिलते हैं, जीवाश्म (Fossils) कहलाते हैं तथा इनके अध्ययन सम्बन्धी विज्ञान को जीवाश्म या पुराजीवी विज्ञान कहते हैं। जीवाश्म की आयु हम दो प्रकार से जान सकते हैं। प्रथम विधि में किसी स्थान पर खुदाई करने पर पृथ्वी की सतह पर मिलने वाले जीवाश्म पृथ्वी के गहरे स्तर पर पाए गए जाने वाले जीवाश्मों की अपेक्षा अधिक नए होते हैं। दूसरी विधि है फॉसिल डेटिंग' जिसमें जीवाश्म में पाए जाने वाले किसी एक तत्व के विभिन्न समस्थानिकों के अनुपात के आधार पर जीवाश्म का समय निर्धारण किया जाता है।


जीवाश्मों की आयु के निर्धारण के लिए सर्वप्रथम स्तरित या तलछटी चट्टानों के उन स्तरों की आयु का निर्धारण किया जाता है, जिनमें जीवाश्म पाए जाते हैं। पूर्व वैज्ञानिक, इनकी आयु का निर्धारण स्तरों की मोटाई के आधार पर करते थे, परन्तु वर्तमान में वैज्ञानिक, रेडियोधर्मी तत्वों की मात्राओं से इन स्तरों की आयु का निर्धारण करते हैं। इसे विकिरण मात्रिक अवधि निर्धारण कहते हैं।


विकास के चरण


विकास जीवों में आकस्मिक घटना नहीं थी। विकास क्रमिक रूप से अनेक पीढ़ियों में हुआ। सरल अंगों से जटिल अंगों का विकास हुआ, जो परिवर्तन या विभिन्नता उपयोगी थी। वे कालान्तर में अग्रसर हुई। जैसे


प्लेनेरिया में अति सरल आँख होती है। ऊष्मारोधन के लिए विकसित हुए पर कालान्तर में उड़ने के लिए भी उपयोगी हो गए।कृत्रिम चयन के अन्तर्गत जंगली गोभी का विकास, आदि।


आण्विक जातिवृत्त


जीवों से सम्बन्धित उद्विकासीय इतिहास जातिवृत्त कहलाता है। आण्विक जातिवृत्त दूरस्थ सम्बन्धी जीवों के DNA में संचित विभिन्नताओं का पता करता है। इसका कारण निकट सम्बन्धी जीवों में दूरस्थ सम्बन्धी जीवों की तुलना में विभिन्नताओं का कम होना है।


मानव का विकास


मानव का उद्भव अफ्रीका से हुआ है। वहीं से धीरे-धीरे पश्चिमी एशिया, फिर वहाँ से मध्य एशिया, यूरेशिया, दक्षिणी एशिया तथा पूर्व एशिया तक फैल गए। इसके पश्चात् वहाँ से उन्होंने इण्डोनेशिया के द्वीपों फिलीपींस से ऑस्ट्रेलिया तक का सफर किया और फिर बेरिंग लैड ब्रिज को पार करके अमेरिका पहुँचे। इसी सफर से हर दिशा में विभिन्न अनुकूलन के कारण आधुनिक मानव का विकास हुआ। आधुनिक मानव का वैज्ञानिक नाम 'होमो सेपियन्स सैपियन्स' है। अतः मानव का विकास एक ही जाति के सदस्यों से हुआ है।


बहुविकल्पीय प्रश्न  1 अंक


प्रश्न 1. आनुवंशिकता के प्रयोग के लिए मेण्डल ने निम्नलिखित में से कौन-से पादप का उपयोग किया?


(a) पपीता


(b) आलू


(c) मटर


(d) अंगूर


उत्तर (c) आनुवंशिकता के अपने प्रयोगों के लिए मेण्डल ने उद्यान मटर (पाइसम सेटाइवम) का उपयोग किया।



प्रश्न 2. मटर के लम्बे पादपों का क्रॉस बौने पादपों से कराने पर प्रथम पीढ़ी में लम्बे मटर के पादप प्राप्त होते हैं, द्वितीय पीढ़ी में प्राप्त पादप होंगे 


(a) लम्बे तथा बौने दोनों


(b) लम्बे मटर के पादप 


(c) बौने मटर के पादप 


(d) इनमें से कोई नहीं


उत्तर (a) जब शुद्ध लम्बे पादप (TT) का शुद्ध बौने पादप (tt) के साथ संकरण कराया जाता है, तो प्रथम सन्तानीय पीढ़ी (F) में सदैव लम्बे पादप प्राप्त होते हैं। साथ ही इन प्रथम पीढ़ी के लम्बे पादप में स्व-परागण कराके उत्पन्न बीजों को जब पुनः बोया जाता है, तो द्वितीय पीढ़ी (F) में लम्बे व बौने दोनों प्रकार के पादप मिलते हैं।


प्रश्न 3. उद्यान मटर में अप्रभावी लक्षण है 


(a) लम्बे तने 


(b) झुर्रीदार बीज 


(c) रंगीन बीज 


(d) गोल बीज



उत्तर (b) झुर्रीदार बीजों की उपस्थिति उद्यान मटर का अप्रभावी लक्षण है।


 प्रश्न 4. विपरीत लक्षणों के जोड़ों को कहते हैं



(a) युग्मविकल्पी या एलीलोमॉर्फ


 (b) निर्धारक 


(c) समयुग्मजी 


(d) समरूप



उत्तर (a) विपरीत लक्षणों के जोड़ों को युग्मविकल्पी या एलीलोमॉर्फ कहा जाता है।


प्रश्न 5. एकसंकर क्रॉस का जीनप्रारूप अनुपात होता है 


(a) 3:1


(b) 1:2:1 


(c) 2:1:1:2 


 (d) 9:3:3:1



उत्तर (b) एकसंकर क्रॉस का (F) पीढ़ी में जीनोटाइप या जीनप्रारूप 1:2:1 होता है।


प्रश्न 6. गुलाबी रंग के दो पुष्पों के बीच संकरण कराए जाने पर 1 लाल रंग की, 2 गुलाबी रंग की और 1 सफेद रंग की सन्तति उत्पन्न हुई। इस संकरण का स्वरूप क्या होगा?



(a) दोहरा निषेचन के कारण


 (b) अपूर्ण प्रभाविता के कारण


(c) प्रभाविता के कारण


 (d) इनमें से कोई नहीं


उत्तर (b) अपूर्ण प्रभाविता के कारण गुलाबी रंग के दो पुष्पों के बीच संकरण कराए जाने पर 1 लाल रंग की, 2 गुलाबी रंग की और 1 सफेद रंग की सन्तति उत्पन्न हुई।


प्रश्न 7.निम्नलिखित में से कौन-सा जीनप्रारूप शुद्ध गोल बीजों को प्रकट करता है?



(a) tt


(b) Tt


 (c) IT


 (d) RR


उत्तर (d) RR जीनप्रारूप शुद्ध गोल बीजों को प्रकट करता है।


प्रश्न 8. पुरुष में लिंग गुणसूत्र होता है



 (a) XY


 (b) XX


(c) Y


(d) X


उत्तर (a) पुरुष में लिंग गुणसूत्र 'XY' होता है।


 प्रश्न 9. DNA पाया जाता है


(a) कोशिकाद्रव्य में 


(b) केन्द्रकद्रव्य में


(c) केन्द्रिका में


(d) केन्द्रक में 



उत्तर (b) DNA केन्द्रकद्रव्य में पाया जाता है।


प्रश्न10. गुणसूत्र किस पदार्थ से बने होते हैं?


 (a) प्रोटीन से


(b) RNA से


(c) DNA से


(d) दोनों (a) व (c)


उत्तर (d) गुणसूत्र DNA तथा प्रोटीन्स दोनों के बने होते हैं।


प्रश्न 11. केवल प्रोटीन के बने होते हैं



(a) क्लोरोप्लास्ट


(b) लाइसोसोम


(C) प्रायोन्स


(d) जीन्स


उत्तर (c) प्रायोन्स केवल प्रोटीन के बने होते हैं।



 प्रश्न 12. 'जीन' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया था?


(a) खुराना ने


(b) पुन्नेट ने


(C) जॉहन्सन न


 (d) वाटसन एवं क्रिक ने 



उत्तर (c) 'जीन' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम जॉहन्सन ने किया था।




प्रश्न 13. उत्परिवर्तन का कारण है। 


(a) जीन परिवर्तन


(b) जीवन संघर्ष


(C) गुणसूत्रों की संख्या में परिवर्तन


 (d) ये सभी


उत्तर (d) जीन परिवर्तन, जीवन संघर्ष तथा गुणसूत्रों की संख्या में परिवर्तन, आदि सभी उत्परिवर्तन के कारण हैं।


प्रश्न 14. डार्विन के अनुसार नई प्रजातियों की उत्पत्ति होती है


(a) प्राकृतिक वरण से


(b) उत्परिवर्तन से


(c) प्रसंकरण से


(d) उपार्जित लक्षण से



 उत्तर (a) डार्विन के अनुसार नई जातियों की उत्पत्ति प्राकृतिक वरण से होती है।



प्रश्न 15. डार्विन की सबसे बड़ी कमी थी


(a) जीवन संघर्ष की व्याख्या न होना


(b) योग्यतम की उत्तरजीविता की व्याख्या न होना


(C) भिन्नताओं के कारणों की व्याख्या न होना 


(d) सन्तानोत्पत्ति की प्रचुर क्षमता की व्याख्या न होना


उत्तर (c) डार्विन अपने जैव-विकास के सिद्धान्त में अपने दिए गए उदाहरणों की व्याख्या भिन्नताओं के कारण नहीं कर पाए थे।


प्रश्न 16.'जातियों की उत्पत्ति पुस्तक के लेखक है


(a) अरस्तू          (c) डार्विन


(d) ह्यूगो डी ब्रीज        (b) लैमार्क


उत्तर (c) प्राकृतिक चुनाव द्वारा 'जातियों की उत्पत्ति नामक पुस्तक के लेखक चार्ल्स डार्विन है।


प्रश्न 17. समजात अंगों का उदाहरण है


(a) मनुष्य के हाथ तथा कुत्ते के अग्रपाद


 (b) मनुष्य के दाँत तथा हाथी के दाँत


(c) आलू एवं घास के उपरिभूस्तारी 


(d) उपरोक्त सभी


उत्तर (d) उपरोक्त सभी


प्रश्न 18. विकासीय दृष्टिकोण से हमारी किससे अधिक समानता है?


(a) चीन के विद्यार्थी


(b) चिम्पैंजी


(c) मकड़ी


(d) जीवाणु


उत्तर (a) विकासीय दृष्टिकोण से हमारी चीन के विद्यार्थी से अधिक समानता है।


प्रश्न 19. विकास के दृष्टिकोण से मानव से सबसे निकटवर्ती है


(a) बन्दर


(b) चमगादड़


(C) खरगोश


 (d) चिम्पैंजी


उत्तर (d) विकास के दृष्टिकोण से मानव से सबसे निकटवर्ती चिम्पैंजी है।


अतिलघु उत्तरीय प्रश्न 2 अंक



प्रश्न 1. एलील या युग्मविकल्पी किसे कहते हैं?


उत्तर जीवों में गुणसूत्रों के जोड़े पर स्थित विपरीत तुलनात्मक लक्षणों के जोड़े की एलील कहते हैं। ये गुणसूत्र एक ही विस्थल (Locus) पर स्थित होते हैं; जैसे-पुष्प के रंग के लिए बैंगनी व सफेद, बीज के आकार के लिए गोल एवं झुरौंदार, पादप की लम्बाई के लिए बौना एवं लम्बा लक्षण, आदि।


प्रश्न 2. संकर तथा संकरण किसे कहते हैं?


उत्तर जब तुलनात्मक लक्षणों वाले नर तथा मादा के मध्य निषेचन कराया जाता है, तो इस क्रिया को संकरण कहते हैं और इससे उत्पन्न सन्तानों को संकर कहते हैं; जैसे-शुद्ध लम्बे (TT) तथा शुद्ध बौने (tt) पादपों को क्रॉस कराने पर संकर लम्बे (Tt) पादप प्राप्त होते हैं। इनमें प्रभावी तथा अप्रभावी दोनों जीन पाए जाते हैं।



प्रश्न 3. संकर पूर्वज संकरण किसे कहते हैं?


 उत्तर संकर विषमयुग्मजी सन्तति (Tt) और उनके शुद्ध या समयुग्मजी (प्रभावी/अप्रभावी) जनक के मध्य संकरण करवाने को संकर पूर्वज संकरण कहते हैं, जैसे-विषमयुग्मजी बैंगनी पुष्प वाले पादप का संकरण प्रभावी समयुग्मजी बैंगनी पुष्प वाले जनक पादपों से कराने पर सभी बैंगनी पुष्प उत्पन्न होते हैं, परन्तु विषमयुग्मजी बैंगनी पुष्प वाले पादप का संकरण अप्रभावी समयुग्मजी सफेद पुष्प वाले पादप से कराने पर बैंगनी व सफेद 11 में प्राप्त होते हैं। 


प्रश्न 4. मेण्डल ने अपने प्रयोगों के लिए किस पौधे को चुना? इस पौधे को चुनने के कारण बताइए।


 उत्तर मेण्डल ने अपने प्रयोगों के लिए मटर के पौधे को चुना


 मटर के पौधे के चयन के कारण निम्न हैं


(a) मटर का पौधा वार्षिक पौधा है। अतः इसका जीवन चक्र छोटा होता है, जिससे कुछ ही समय में इसकी अनेक पीढ़ियों के अध्ययन में सुविधा मिलती है।


(b) मटर के पौधे में द्विलिंगी पुष्प पाए जाते हैं अर्थात् नर व मादा जननांग एक ही पुष्प पर पाए जाते हैं।


(c) मटर के पौधों में अनेक तुलनात्मक लक्षण पाए जाते हैं।


 (d) इनमें कृत्रिम पर-परागण द्वारा संकरण कराया जा सकता है। 


प्रश्न 5. मेण्डल के प्रयोगों के आधार पर प्रभावी तथा अप्रभावी लक्षणों को समझाइए। 


 उत्तर – प्रभावी एवं अप्रभावी युग्मविकल्पी कारकों में वह लक्षण, जो समयुग्मजी और विषमयुग्मजी दोनों अवस्थाओं में प्रदर्शित होता है, प्रभावी लक्षण कहलाता है; उदाहरण पौधे का लम्बापन, पुष्प का लाल रंग, आदि। वह लक्षण, जो केवल समयुग्मजी स्थिति में प्रदर्शित होता है तथा विषमयुग्मजी अवस्था में अपने आप को प्रदर्शित नहीं कर पाता है, अप्रभावी लक्षण कहलाता है; 


उदाहरण बौनापन, पुष्प का सफेद रंग, आदि।


प्रश्न 6. DNA का पूरा नाम लिखिए। यह प्रोटीन-संश्लेषण कैसे करता है?


उत्तर DNA का पूरा नाम डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक अम्ल है। DNA द्वारा RNA का संश्लेषण किया जाता है, जोकि प्रोटीन संश्लेषण के लिए अतिआवश्यक होता है। इस प्रक्रम को अनुलेखन (Transcription) कहते हैं। 


प्रश्न 7. पुरुषों में पाए जाने वाले लिंग गुणसूत्र का विवरण दीजिए। 


उत्तर – लिंग निर्धारण करने वाले गुणसूत्र लिंग गुणसूत्र कहलाते हैं, इन्हें हेटेरोसोम (Heterosome) भी कहते हैं। लिंग गुणसूत्र नर और मादा दोनों में अलग-अलग होते हैं। ये प्राय: X और Y-गुणसूत्र कहलाते हैं। मनुष्य में लिंग निर्धारण इन्हीं गुणसूत्रों द्वारा होता है। पुरुषों में पाए जाने वाले लिंग गुणसूत्र XY होते हैं।


प्रश्न 8. पहलवान की सन्तान प्रायः पहलवान नहीं होती है, कारण स्पष्ट कीजिए। 


उत्तर – पहलवान होना एक कायिक लक्षण है, जिसका सम्बन्ध किसी भी आनुवंशिकता से नहीं होता है। अतः पहलवान की सन्तान पहलवान नहीं हो सकती है अर्थात् निरन्तर अभ्यास से पहलवान की पेशियाँ सुविकसित हो जाती हैं। अभ्यास न करने से पहलवान के पुत्र में पिता के समान पेशियों का अभाव होता है अर्थात् यह आवश्यक नहीं है कि पहलवान की सन्तान पहलवान ही हो, क्योंकि कायिक लक्षणों में होने वाले परिवर्तन होते हैं, जैसे-सुविकसित माँसपेशियाँ होना वंशागत नहीं। 


प्रश्न 9. यदि किसी चूहे की पूँछ काटकर प्रजनन कराया जाए, तो बच्चा कैसा पैदा होगा और क्यों? 


उत्तर यदि किसी चूहे की पूँछ काटकर प्रजनन कराया जाए, तो चूहे का बच्चा सामान्य अर्थात् पूँछ युक्त पैदा होगा, क्योकि कटी पूँछ एक वंशागत लक्षण नहीं है। शारीरिक संरचनाओं में होने वाले परिवर्तन सन्तानों में स्थानान्तरित नहीं होते हैं। केवल जनन कोशिकाओं में होने वाले परिवर्तन एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक जाते हैं।



प्रश्न 10. जाति उद्भव क्या है? किसी एक उद्विकास कारक का नाम लिखिए।


उत्तर प्रकृति में नई जाति के निर्माण की प्रक्रिया को जाति उद्भव कहते हैं। जातियों के निर्माण में संकरण तथा बहुगुणिता का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। इसके अतिरिक्त वातावरणीय अनुकूलन से उत्पन्न विभिन्नताएँ जाति के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


प्रश्न 11. जीवाश्म को परिभाषित कीजिए। एक उदाहरण के साथ उसके महत्त्व को समझाइए। 


अथवा जीवाश्म किसे कहते है? जीवाश्म कितने पुराने हैं, इसका आकलन किस प्रकार करते हैं?


उत्तर पत्थरों अथवा पहाड़ों पर प्राचीन काल के जन्तु एवं पौधों के अवशेष पाए जाते हैं। इन अवशेषों को जीवाश्म कहते है; उदाहरण बर्फ में सुरक्षित जीवों में मॉथ, गैंडा, मोलस्क जीवों के कवच, आदि। जीवाश्मों की सहायता से हमें विभिन्न कालों में हुई घटनाओं का पता चलता है तथा पौधों व जन्तुओं के विकास के क्रम का पता चलता है। पत्थर की आयु से जीवाश्म की आयु ज्ञात की जा सकती है। यह रेडियोधर्मी पदार्थ (जोकि जीवाश्मों में होते हैं) के द्वारा निर्धारित की जा सकती है।



प्रश्न 12. विकासीय सम्बन्ध स्थापित करने में जीवाश्म का क्या महत्त्व है?


 उत्तर जीवाश्मों के अध्ययन से जीवों के विकास क्रम या जातिवृत्त का ज्ञान होता है। जीवाश्मों की सहायता से हमें विभिन्न कालों में हुई घटनाओं का पता चलता है। जैव-विकास के सन्दर्भ में सबसे ठोस प्रमाण जीवाश्मों से ही प्राप्त होते हैं। जीवाश्मों के अध्ययन से जन्तुओं व पादपों के विकास के क्रम का पता चलता है। जीवाश्मों के अध्ययन से यह प्रमाण मिलते हैं, कि अमीबा जैसे-सरल एककोशिकीय जीवों से अकशेरुकियों व उनसे कशेरुकियों का निर्माण हुआ। कुछ जीवाश्म जन्तु दो भिन्न जन्तु समूहों के मध्य एक संयोजक कड़ी के रूप में होते हैं और एक जीव (निम्न वर्ग) से दूसरे जीव (उच्च वर्ग) के उद्विकास को दर्शाते हैं।



प्रश्न 13. जीवाश्मों के आयु निर्धारण की विधियों को समझाइए। 


 उत्तर जीवाश्मों की आयु के निर्धारण के लिए सर्वप्रथम स्तरित या तलछटी चट्टानों के उन स्तरों की आयु का निर्धारण किया जाता है, जिनमें जीवाश्म पाए जाते हैं। पूर्व वैज्ञानिक, इनकी आयु का निर्धारण स्तरों की मोटाई के आधार पर करते थे, परन्तु वर्तमान में वैज्ञानिक, रेडियोधर्मी तत्वों की मात्राओं से इन स्तरों की आयु का निर्धारण करते हैं। इसे विकिरण मात्रिक अवधि निर्धारण कहते हैं।



            लघु उत्तरीय प्रश्न  4 अंक


प्रश्न 1.मीन क्या है? इसका सर्वप्रथम प्रयोग किसने किया? इसकी उपयोगिता का उल्लेख कीजिए।


 उत्तर मेण्डल ने सजीवों के प्रत्येक लक्षण के लिए किसी एक कारक को उत्तरदायी माना था। जहन्सन (Johannsen) ने इस कारक के लिए 'जीन' शब्द का प्रयोग किया। जीन गुणसूत्रों में उपस्थित DNA अणुओं के सूक्ष्म खण्डों को कहते हैं, जो लक्षणों के रूप में व्यक्त होते हैं। जीन आनुवंशिकता की इकाई होती है। प्रायः एक जीन एक लक्षण को निर्धारित करता है। कुछ लक्षणों का निर्धारण एक से अधिक जीन्स द्वारा भी होता है एवं कभी-कभी किसी जीन द्वारा अनेक लक्षणों को प्रभावित किया जा सकता है। 


प्रश्न 2. आनुवंशिकता से आप क्या समझते हैं? इसके जन्मदाता कौन थे? इसकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। 


 उत्तर जीव विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत सजातीय और परस्पर सम्बन्धित जीवों की आनुवंशिक समानताओं तथा विभिन्नताओं का अध्ययन किया जाता है, आनुवंशिकी या आनुवंशिकता कहलाती है।इसके जन्मदाता ग्रेगर जॉन मेण्डल थे व मेण्डल ने मेण्डलेलिज्म दिया था।


इसकी विशेषताएँ निम्न है 


1.आनुवंशिकी के माध्यम से भावी सन्तान के गुणों का ज्ञान हो जाता है। 


2.इसके आधार पर उच्च लक्षणों वाली सन्तानों को प्राप्त किया जा सकता है।


3.रोग प्रतिरोधी पादपों; जैसे-गेहूँ, गन्ना, चावल, आदि की किस्मों का विकास किया जा सकता है।


4.उन्नत किस्में बनाकर उनके उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है।


5. आनुवंशिक रोगों की खोज एवं उनके निदान में भी इसका प्रयोग होता है। 


प्रश्न 3. एलीलोमॉर्फ (युग्मविकल्पी) एवं कारक को उदाहरण सहित समझाइए।


अथवा एलील पर टिप्पणी लिखिए।



उत्तर 


एलील या एलीलोमॉर्फ तुलनात्मक रूप से विपरीत लक्षणों का निर्धारण करने वाले युग्मों को एलील्स कहते हैं, जैसे-पादप की लम्बाई के लिए लम्बा, बौना; बीज के लिए गोल, झुर्रीदार तथा पुष्प के लिए लाल, सफेद रंग, आदि युग्मविकल्पी या एलीलोमॉर्फ कहलाते हैं। 



कारक जीवों में सभी लक्षण इकाइयों के रूप में उपस्थित होते हैं, जिन्हें कारक कहते हैं। प्रत्येक इकाई लक्षण कारकों के एक युग्म द्वारा नियन्त्रित होता है। इनमें से एक कारक मातृक एवं दूसरा पैतृक होता है। युग्म के दोनों कारक विपरीत प्रभाव के हो सकते हैं, किन्तु उनमें से एक ही कारक अपना प्रभाव प्रदर्शित कर पाता है एवं दूसरा अप्रभावी अर्थात् छिपा रहता है; उदाहरण लम्बाई के लिए T तथा कारक उत्तरदायी है।



प्रश्न 4. समयुग्मजी एवं विषमयुग्मजी में अन्तर लिखिए।


 उत्तर 


समयुग्मजी या शुद्ध जाति जब किसी लक्षण के जोड़े के दोनों जीन प्रभावी या अप्रभावी अर्थात् समान होते हैं, तो इस जोड़े को समयुग्मजी कहते हैं। समयुग्मजी शुद्ध लक्षण होते हैं; जैसे-शुद्ध लम्बे (TT) तथा शुद्ध बौने (tt) पादप। 


विषमयुग्मजी या संकर जाति जब किसी लक्षण के जोड़े के दोनों जीन्स विपरीत लक्षणों वाले अर्थात् असमान होते हैं, तो इस जोड़े को विषमयुग्मजी कहते हैं, ये संकर भी कहलाते हैं। ऐसी स्थिति में केवल प्रभावी लक्षण प्रदर्शित होता है; जैसे-संकर लम्बे पादप (Tt)



प्रश्न 5. मेण्डल का प्रथम नियम लिखिए। इसको विस्तृत रूप में समझाइए। 


अथवा शुद्ध लम्बे एवं शुद्ध बौने पादपों के मध्य संकरण से -पीढ़ी में किस प्रकार के वंशज प्राप्त होंगे? समझाइए ऐसा क्यों?



अथवा शुद्ध लम्बे तथा शुद्ध बौने किस्म के पादपो में संकरण कराने पर प्रथम पीढ़ी में किस प्रकार के पादप प्राप्त होंगे? यह परिणाम मेण्डल के किस नियम की पुष्टि करता है? इस नियम की परिभाषा दीजिए। 


 उत्तर शुद्ध लम्बे एवं शुद्ध बौने पादपों में संकरण करवाने पर पीढ़ी में प्रभाविता के नियमानुसार संकर या विषमयुग्मजी लम्बे (Tt) पादप प्राप्त होंगे। इसमें प्रभावी जीन, अप्रभावी जीन को प्रदर्शित नहीं होने देते हैं।"


प्रभाविता का नियम इस नियम के अनुसार, परस्पर विपरीत लक्षणों वाले पादपों में संकरण करने पर F-पीढ़ी सन्तति में प्रदर्शित लक्षण प्रभावी लक्षण होते हैं और जो लक्षण प्रदर्शित नहीं होते हैं वे अप्रभावी लक्षण कहलाते हैं।



प्रयोग 1 जब शुद्ध लम्बे तथा शुद्ध बौने पादपों के बीच संकरण कराया जाता है, तो प्रथम पीढ़ी (F) में प्राप्त सभी पादप लम्बे होते हैं, क्योंकि लम्बेपन का गुण प्रभावी तथा बौनेपन का गुण अप्रभावी होता है।


प्रश्न 6. शुद्ध एवं संकर जाति (नस्ल) में अन्तर स्पष्ट कीजिए।


 उत्तर

शुद्ध जाति यदि किसी लक्षण के लिए किसी जाति में उपस्थित जीन का युग्म समयुग्मजी या समान होता है, तो उस लक्षण के लिए वह जाति शुद्ध कही जाती है। शुद्ध जाति में उस लक्षण के लिए सभी युग्मकों में समान प्रभाव वाले कारक उपस्थित होते हैं।



संकर जाति यदि किसी लक्षण के लिए किसी जाति में उपस्थित जीन का युग्म विषमयुग्मजी या असमान होते हैं, तो उस लक्षण के लिए वह संकर कहलाती है। संकर जाति में उस लक्षण के लिए भिन्न-भिन्न प्रभाव वाले कारक या जीन्स होते हैं अर्थात् 50% प्रभावी एवं 50% अप्रभावी लक्षण वाले जीन उपस्थित होंगे।



प्रश्न 7. मेण्डल के पृथक्करण नियम का उपयुक्त उदाहरण देते हुए समझाइए।


अथवा उदाहरण सहित मेण्डल के पृथक्करण के नियम की व्याख्या कीजिए। 


अथवा मेण्डल के एकसंकर प्रयोग को केवल रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शित कीजिए।



उत्तर 


पृथक्करण या युग्मकों की शुद्धता का नियम इस नियम के अनुसार, किसी जीन युग्म के अवयव युग्मक निर्माण के समय एक-दूसरे से पृथक् जाते हैं और एक युग्मक में जीन युग्म का एक जीन पहुँचता है। इसे युग्मकों की शुद्धता का नियम कहते हैं। उदाहरण जब शुद्ध लम्बे (TT) तथा शुद्ध बौने (tt) पादपों के मध्य संकरण कराया जाता है, तो प्रथम पीढ़ी (F) में द्वितीय तथा सभी पादप संकर लम्बे (Tt) प्राप्त होते हैं। -पीढ़ी के पादपों में स्व-परागण कराने पर द्वितीय तथा F पीढ़ी में लम्बे तथा बौने पादप 3:1 के फीनोटाइप अनुपात में तथा 1:2:1 के जीनोटाइप अनुपात में प्राप्त होते हैं, क्योंकि युग्मक बनते समय तुलनात्मक लक्षणों के जीन T तथा पृथक् हो जाते हैं। और एक युग्मक में इनमें से केवल एक जीन ही पहुँचता है। जिस कारण एक बौना (समयुग्मजी अप्रभावी) पादप प्राप्त होता है। इसी कारण इसे युग्मकों की शुद्धता का नियम अथवा पृथक्करण का नियम कहते हैं।





प्रश्न 8. स्वतन्त्र अपव्यूहन का नियम लिखिए।


उत्तर 


स्वतन्त्र अपव्यूहन नियम के अनुसार जब दो या दो से अधिक असम्बन्धित प्रभावी लक्षणों वाले पादपों के मध्य संकरण कराया जाता है, तो उनके जीन युग्म के कारकों का पृथक्करण एवं अपव्यूहन स्वतन्त्र रूप से होता है अर्थात् ये स्वतन्त्र रूप से पृथक् होकर जनकों के अन्य किसी भी लक्षण के साथ संयोग न बनाते हुए सन्तानीय पीढ़ियों में जाते हैं।



प्रश्न 9. लक्षणप्रारूप तथा जीनप्रारूप में अन्तर स्पष्ट कीजिए।


अथवा लक्षणप्रारूप (फीनोटाइप) तथा जीनप्रारूप (जीनोटाइप) में अन्तर कीजिए। 



अथना फीनोटाइप एवं जीनोटाइप को स्पष्ट कीजिए।


अथवा जीनप्रारूप तथा लक्षणप्रारूप में अन्तर बताइए। उत्तर लक्षणप्रारूप तथा जीनप्रारूप में निम्नलिखित अन्तर हैं






लक्षणप्रारूप

जीनप्रारूप


लक्षणप्रारूप जीव के विभिन्न गुणों जैसे- आकार, आकृति, रंग एवं स्वभाव, आदि को व्यक्त करता है।

जीनप्रारूप जीव के जीनी संगठन को व्यक्त करता है, जो कि उसमें विभिन्न लक्षणों को निर्धारित करता है।


यह दिखाई नहीं देते हैं।

यह दिखाई नहीं देते हैं।

समान लक्षणप्रारूप वाले जीवों की जीनी संरचना समान हो सकती है और नहीं भी।

समान जीनप्रारूप वाले जीवों के लक्षणप्रारूप सदैव समान रहते हैं।




प्रश्न 10. मेण्डल के प्रभाविता नियम से आप क्या समझते हैं? द्विसंकर संकरण के चित्र की सहायता से इसे स्पष्ट कीजिए


 उत्तर


द्विसंकर संकरण द्वारा प्रभाविता के नियम की पुष्टि जब दो तुलनात्मक आनुवंशिक लक्षणों पर ध्यान केन्द्रित कर संकरण करवाया जाता है, तो इसे द्विसंकर संकरण कहते हैं; उदाहरण जब पीले गोल तथा हरे झुर्रीदार बीज वाले शुद्ध जनक पौधों में संकरण कराया जाता है, तो प्रथम पीढ़ी (F) में सभी संकर पौधे गोल तथा पीले बीज वाले होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है, कि बीजो का पीला रंग एवं गोल आकार प्रभावी गुण है तथा हरा रंग एवं झुर्रीदार आकार अप्रभावी गुण है। F-पीढ़ी के पौधों में स्व-परागण कराने पर F-पीढ़ी में चार प्रकार के बीज वाले पौधे 9 : 3 : 3 :1 के अनुपात में प्राप्त होते हैं


(a) पीले गोल-9


(b) हरे गोल-3


(e) पीले झुर्रीदार-3


(d) हरे झुर्रीदार-1



प्रश्न 11. लिंग गुप्पसूत्र किसे कहते हैं? मानव में लिंग निर्धारण की प्रक्रिया को समझाइए।



अथवा मानव में लिंग निर्धारण कैसे होता है? 



उत्तर – मनुष्य में 46 गुणसूत्र पाए जाते हैं। इनमें से 22 जोड़े नर व मादा में समान होते हैं। इन गुणसूत्रों को कायिक गुणसूत्र या ऑटोसोम्स कहते हैं। स्त्री में 28वाँ जोड़ा समयुग्मजी (XX) गुणसूत्र वाला होता है तथा पुरुष में 23वाँ जोड़ा विषमयुग्मजी (XY) गुणसूत्र वाला होता हैं, जिन्हें लिंग गुणसूत्र या हेटेरोसोम्स या एलोसोम्स भी कहते हैं। इन्हें XY से प्रदर्शित करते हैं। 



मनुष्य में लिंग-निर्धारण


युग्मकजनन के समय, अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा अगुणित युग्मकों का निर्माण होता है, जिनमें स्त्री में बने हुए युग्मक (अण्ड) में 22 + X गुणसूत्र तथा पुरुष में दो प्रकार के युग्मक (शुगणु) 22 + X तथा 22 + y गुणसूत्रों वाले बनते हैं। निषेचन के समय नर से प्राप्त शुक्राणु (Y या X गुणसूत्र वाला) अण्ड से मिलता

है। इसके फलस्वरूप बने युग्मनज में 44 + XX या 44 + XY गुणसूत्र हो सकते हैं। इस प्रकार लिंग का निर्धारण निषेचन के समय शुक्राणु के गुणसूत्र द्वारा ही



प्रश्न 12. रासायनिक उद्विकास पर टिप्पणी लिखिए।


उत्तर 


रासायनिक उद्विकास के अनुसार, जीवन की उत्पत्ति एक अत्यन्त धीमी प्रक्रिया है, जोकि अचानक ही उत्पन्न नहीं हुई है। यह आदि पृथ्वी पर वातावरणीय दशाओं में करोड़ों वर्षों तक अनेकानेक भौतिक रासायनिक प्रक्रियाओं का परिणाम है। इस प्रक्रिया में सबसे पहले अकार्बनिक तथा बाद में कार्बनिक पदार्थों का निर्माण हुआ था। इन पदार्थों में परस्पर क्रियाओं के फलस्वरूप पहले सरल अणु बाद में जटिल कार्बनिक पदार्थों का निर्माण हुआ था। इन रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरूप कोएसरवेट्स का निर्माण हुआ। इसके पश्चात् न्यूक्लियोप्रोटीन्स के कारण स्वद्विगुणन की क्षमता का विकास हुआ। इस प्रकार विषाणु सदृश सजीवों की उत्पत्ति हुई। इनसे ही प्रोकैरियोटिक एवं यूकैरियोटिक कोशिकाओं की उत्पत्ति हुई।


प्रश्न 13. 'अवशेषी अंग जैव-विकास को प्रमाणित करते हैं।' कथन को स्पष्ट कीजिए।


उत्तर जन्तुओं के शरीर में अनेक ऐसी रचनाएँ पाई जाती हैं, जिनका शरीर में कोई महत्त्व नहीं होता है। ये अवशेषी अंग कहलाते हैं। अवशेषी अंगों की उपस्थिति से प्रमाणित होता है कि ये रचनाएँ इन जन्तुओं के पूर्वजों में कभी विकसित और उपयोगी रही होगी। मनुष्य में 100 से भी अधिक अवशेषी रचनाएँ पाई जाती है; उदाहरण कान की पेशियाँ, निक्टेटिंग मैम्ब्रेन, कर्णपल्लवों की पेशियाँ, पुच्छ कशेरुकाएँ, अक्कल दाढ़, आदि। 


प्रश्न 14. मरुस्थलीय पादपों की जड़ें जमीन में काफी गहराई में बढ़ती है। ऐसी जड़ों का उद्विकास डार्विनवाद एवं लैमार्कवाद के प्रकाश में अलग-अलग समझाइए।


 उत्तर


 डार्विनवाद के अनुसार, मरुस्थल में विभिन्न गहराई तक पहुँचने वाली जड़ वाले पादप पाए जाते हैं। कम गहराई तक पहुँचने वाली जड़ों वाले पादप मरुस्थल में पूरे वर्ष जीवित नहीं रह पाते हैं। अधिक गहराई में जाने वाली जड़ वाले पादप जल प्राप्त कर लेने के कारण पूरे वर्ष जीवित रहते हैं।


लैमार्कवाद के अनुसार, मरुस्थल में जल धीरे-धीरे अधिक गहराई में चला गया इसलिए जड़ें जल की खोज में निरन्तर जल की ओर बढ़ने का प्रयत्न करने के कारण लम्बी हो गई। इस प्रयत्न के फलस्वरूप मरुस्थलीय पादपों का यह लक्षण वंशागत होकर एक स्थाई लक्षण बन गया है।


प्रश्न 15. नव-डार्विनवाद के अनुसार, जैव-विकास की क्रिया के विभिन्न पदों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।


उत्तर – डार्विनवाद की कमियों को दूर करके इसे नव-डार्विनवाद के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह निम्न तथ्यों पर आधारित है


(i) विभिन्नताएँ लैंगिक जनन, उत्परिवर्तन, आदि के कारण जीन ढाँचों में परिवर्तन होने से विभिन्न प्रकार की विभिन्नताएँ उत्पन्न होती है। ये विभिन्नताएँ वंशागत होती हैं।


(ii) प्राकृतिक वरण या चयन ऐसी विभिन्नताएँ और उत्परिवर्तन, जो वातावरण में रहने के लिए उपयुक्त एवं लाभप्रद होते हैं, को स्थापित करने की क्रिया को ही प्राकृतिक वरण कहते हैं। 


(iii) जातियों का पृथक्करण भौगोलिक और लैंगिक पृथक्करण के फलस्वरूप भिन्न प्रजाति के जीवधारियों में प्रजनन नहीं होता है। वातावरण के लिए अनुकूलित होने के कारण अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न जातियाँ पाई जाती है। हजारों वर्षों तक इन जातियों में अनुकूलन हेतु विभिन्नताएँ एकत्र होकर जब लैंगिक रूप से पृथक् हो जाती है, जो नई जाति बन जाती है। अत: जीन में होने वाले उत्परिवर्तन जैव-विकास के लिए कच्चे पदार्थ का कार्य करते हैं। 


प्रश्न 16. लैमार्कवाद एवं डार्विनवाद की तुलना कीजिए।


उत्तर लैमार्कवाद तथा डार्विनवाद की तुलना निम्न प्रकार




लैमार्कवाद

डार्विनवाद

लैमार्कवाद के अनुसार, जिराफ के पूर्वज छोटी गर्दन वाले तथा छोटे कद के थे। ऊँचे वृक्षों की पत्तियों तक पहुँचने के लिए उन्हें अपनी गर्दन को ऊपर खींचना पड़ता था तथा वे टाँगों को उचका कर पत्तियों तक पहुँचने का प्रयत्न करते थे।

डार्विन के अनुसार, जिराफ के पूर्वजों में गर्दन की लम्बाई भिन्न-भिन्न थी। लम्बाई में यह भिन्नता, विभिन्नता (Variation) के कारण थी। यह विभिन्नता आनुवंशिक थी।

जिराफों की सन्तति में गर्दन की लम्बाई पूर्वजों की गर्दन से अधिक थी। इन्हें भी पत्तियों तक पहुँचने में अपनी गर्दन को खींचना पड़ता था।

जीवन संघर्ष में लम्बी गर्दन वाले जिराफ अधिक उपयुक्त पाए गए तथा प्राकृतिक चयन के फलस्वरूप छोटी गर्दन वाले जिराफ नष्ट हो गए।

इस प्रकार गर्दन व टाँगों से अधिक उपयोग से इनकी लम्बाई पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ती गई तथा आधुनिक जिराफ का विकास हुआ।

इस प्रकार प्रतियोगिता एवं संघर्ष के फलस्वरूप, प्राकृतिक चयन के अनुसार लम्बी गर्दन वाले जिराफ ही बचे रहे तथा शेष नष्ट हो गए।





प्रश्न 17. उत्परिवर्तन किसे कहते हैं? उत्परिवर्तनवाद किस वैज्ञानिक ने प्रस्तुत किया?


अथवा उत्परिवर्तनवाद पर टिप्पणी लिखिए।


अथवा ह्यूगो डी व्रीज के उत्परिवर्तनवाद की विशेषताओं कीजिए।


उत्तर उत्परिवर्तनवाद का सिद्धान्त ह्यूगो डी व्रीज ने सन् 1901 में दिया। इस सिद्धान्त के अनुसार, किसी जाति के पादपों में अचानक, जो विभिन्नताएँ उत्पन्न हो जाती हैं, उन्हें उत्परिवर्तन कहते हैं। जीवों में अकस्मात् हुए उत्परिवर्तन नई जाति का सृजन करते हैं।


उत्परिवर्तनवाद की मुख्य विशेषताएं निम्न हैं 


(i) उत्परिवर्तन अनिश्चित होते हैं तथा ये लाभदायक तथा हानिकारक दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं।


(ii) उत्परिवर्तन द्वारा जीन अथवा गुणसूत्रों की संरचना में परिवर्तन हो जाता है। 


(iii) ये परिवर्तन या भिन्नताएँ जननद्रव्य में होती हैं एवं इनका प्रभाव सन्तानों में परिवर्तन के रूप में दिखाई देता है।


 (iv) उत्परिवर्तन प्रभावी एवं अप्रभावी दोनों ही प्रकार के होते हैं।


 (v) वह प्राणी, जिसमें उत्परिवर्तन विकसित होता है, उत्परिवर्तक कहलाता है। यह शुद्ध नस्ल का होता है।



प्रश्न 18. जीवन की उत्पत्ति से आप क्या समझते हैं? नई जातियों के पर प्रकाश डालिए।


उत्तर जीवन की उत्पत्ति लगभग 4 अरब वर्ष पूर्व हुई। जीव की उत्पत्ति से सम्बन्धित आधुनिकवाद में ओपेरिन के रासायनिक उद्विकास को मान्यता दी गई जिन्होंने हेकल के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया, कि जीवन की उत्पत्ति अकार्बनिक पदार्थों से भौतिक क्रियाओं के फलस्वरूप हुई।



जाति उद्भवन एक जाति अन्तःप्रजनन करने वाले जीवों का समूह है, जो एक या अनेक जनसंख्याओं में रहते हैं। एक नई जाति के निर्माण की प्रक्रिया को जाति उद्भवन कहते हैं।


जातियाँ छोटे-छोटे स्थानिक या भौगोलिक समूहों में बँटी होती हैं। ये समूह आबादी कहलाते हैं। इन आबादियों में जीन पुनयोजन, स्वतन्त्र अपव्यूहन, जीन उत्परिवर्तन व गुणसूत्र विपथन द्वारा अन्तर बढ़ते जाते हैं, जिसके फलस्वरूप जीव संयोगिक लैंगिक संगम करने में सक्षम नहीं रह पाते हैं। अन्त में इन आबादियों के जीवों के मध्य पृथक्करण या जननीय अलगाव हो जाता है, जिससे प्रत्येक आबादी से एक नई जाति का निर्माण हो जाता है।


यह मुख्यतः निम्न दो प्रकार का होता है


(i) विस्थानिक जाति उद्भवन एक जाति की कुछ जनसंख्याओं का भौगोलिक पृथक्करण हो जाता है। हजारों वर्षों के उपरान्त ये दो जनसंख्याएँ विकास के क्रम में भिन्न हो जाती हैं। जब ये दो जनसंख्या दोबारा सम्पर्क में आती हैं, तब इनके बीच प्रजनन नहीं होता है। इस प्रकार प्रत्येक जनसंख्या एक नई जाति बन जाती है।


(ii) समस्थानिक जाति उद्भवन जब एक जाति की, एक ही भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाली दो जनसंख्याएँ जननिक रूप से पृथक् हो जाती हैं, तब ये जनसंख्या धीरे-धीरे एक-दूसरे से भिन्न होती चली जाती हैं और अलग जातियाँ बन जाती हैं।


प्रश्न 19. जैव-विकास के पक्ष में कोई दो प्रमाण लिखिए तथा किसी एक को आधार मानकर जैव-विकास सिद्धान्त को सत्यापित कीजिए। 


अथवा जैव-विकास को उपयुक्त उदाहरण की सहायता से स्पष्ट कीजिए।


उत्तर 


जैव-विकास के प्रमाण


 (i) अफ्रीका के जंगलों में वातावरणीय परिवर्तन के कारण घास तथा शाकीय पादप नष्ट हो गए, जिस कारण जिराफ पूर्वजों को, जोकि सामान्य आकार के थे, ऊँचे पादपों से भोजन प्राप्त करने के प्रयास में अपनी गर्दन तथा आगे की टाँगों का अधिक उपयोग करना पड़ा। इसी कारण इनकी लम्बाई बढ़ गई।


(ii) रेंगकर चलने के कारण साँपों में पादों की अनुपयोगिता के कारण यह लुप्त हो गए। लैमार्कवाद के अनुसार, कोई जीव यदि उसके किसी अंग का अधिक उपयोग करें, तो वह आगे की पीढ़ी में विकसित होता जाता है, किन्तु यदि वह किसी अंग का उपयोग न करे, तो वह लुप्त या निष्क्रिय हो जाता है।


प्रश्न 20. उद्विकास के क्रम में मानव के पूर्वज पूँछ युक्त प्राणी थे, परन्तु आधुनिक मानव में पूँछ अवशेषी अंग हो गई है। लैमार्कवाद के अनुसार इसकी व्याख्या कीजिए।


उत्तर – लैमार्कवाद के अनुसार, यदि कोई प्राणी अपने किसी अंग को उपयोग में लेना बन्द कर दे अर्थात् वह अंग उसके लिए अनुपयोगी हो जाए, तो आने वाली पीढ़ियों में यह लक्षण (अंग) लुप्त या निष्क्रिय हो जाता है।


उदाहरण मानव के पूर्वज वृक्षाश्रयी थे तथा चारों पैरों से चलते थे। इस कार्य में पूँछ सन्तुलन तथा वृक्ष पर पकड़ बनाने का कार्य करती थी, किन्तु समय के साथ मानव भूमि पर दो पैरों से चलने लगा, जिस कारण उसकी पूँछ की उपयोगिता समाप्त हो गई तथा यह पुच्छीय कशेरुक के रूप में केवल अवशेषी रह गई है।



प्रश्न 21. अलैगिक जनन की अपेक्षा लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न विभिन्नताएँ अधिक स्थायी होती हैं। व्याख्या कीजिए। यह लैंगिक प्रजनन करने वाले जीवों को किस प्रकार प्रभावित करती है?


उत्तर – जीवों के इन लक्षणों की उत्पत्ति का नियन्त्रण जीनों की सहायता से होता है, जो गुणसूत्रों पर क्रोमैटिन के रूप में केन्द्रक के भीतर स्थित होते हैं। अतः वशागति में जीनों का व्यवहार गुणसूत्रों के व्यवहार पर आश्रित होता है। हालांकि सन्तति में उपस्थित सभी गुण जनकों के समान नहीं होते हैं, उनमें कुछ विभिन्नताएँ भी उपस्थित होती हैं।


सामान्य वातावरणीय परिस्थितियों में जैव समष्टियों में प्रकट होने वाली विभिन्नताओं का मुख्य आधार लैंगिक जनन में युग्मकजनन के समय अर्द्धसूत्री विभाजन के दौरान होने वाला जीन विनिमय एवं युग्मकों का संलयन अर्थात् निषेचन होता है। विभिन्नताओं की अनुपस्थिति में कोई भी जाति विकास नहीं कर सकती है। ऐसा होने पर उस जाति के सभी सदस्य समान होंगे। किसी एक जाति के विभिन्न सदस्यों में वातावरणीय स्थिति के आधार पर विभिन्नताएँ लाभदायक तथा हानिकारक हो सकती हैं। विभिन्नताओं के कारण जीव परिवर्तनशील वातावरण के प्रति अनुकूलता प्राप्त कर पाता है, जोकि प्राकृतिक चयन एवं नई जाति की उत्पत्ति हेतु अनिवार्य है।


प्रश्न 22. जीवाश्म क्या हैं? ये कैसे बनते हैं?


उत्तर जीवाश्म पत्थरो अथवा पहाड़ों पर प्राचीन काल के जन्तु एवं पौधों के अवशेष पाए जाते हैं। इन अवशेषों को जीवाश्म कहते हैं। जीवाश्म बनने की प्रक्रिया को जीवाश्मीकरण कहते हैं। जीवाश्मीकरण की प्रक्रिया करोड़ों सालों में पूर्ण होती है। जब कोई जीव मृत्यु के पश्चात् हजारों-करोड़ों सालों तक रेत की परतों में दबा रह जाता है एवं गहराई में दबने के कारण इनका सूक्ष्मजीवों द्वारा अपघटन नहीं हो पाता, तब अधिक दाब के कारण वहाँ चट्टानों का निर्माण हो जाता है। इसके काफी समय बाद जब चट्टानें किसी कारणवश टूट जाती हैं या फट जाती है, तो चट्टानों की परतों में उस करोड़ों सालों से दबे जीव के अवशेष प्राप्त होते हैं, ये जीवाश्म कहलाते हैं व इस प्रकार वातावरणीय कारकों व विशेष परिस्थितियों में जीवाश्म का निर्माण होता है।



प्रश्न 23. समजात तथा समरूप अंगों को उदाहरण देकर समझाइए 


उत्तर


 समजातता या समजात अंग ऐसे अंग, जो संरचना और उत्पत्ति में समान हों, लेकिन कार्य में भिन्न हो, समजात अंग कहलाते हैं। इनकी इस समानता को समजातता कहते हैं; उदाहरण सील के फ्लीपर (अगली टाँगे) तैरने के लिए, घोड़े की अगली टाँगे दौड़ने के लिए, मनुष्य के हाथ वस्तुओं को पकड़ने के लिए अनुकूलित होते हैं। इनके कार्यों में अन्तर होते हुए भी इनकी मूल संरचना और उत्पत्ति में समानता है।


सील पक्षी चमगादड़ घोड़ा मनुष्य A- ह्यूमरस B-रेडियस अल्ना (कार्पल्स) C-मेटाकार्पल्स D-फैलैन्टस विभिन्न कशेरुकियों के अग्रपादों में 




समजातता


समरूप अंग ऐसे अंग, जो संरचना तथा उत्पत्ति में भिन्न हों, लेकिन कार्य में समान हों, समवृत्ति अंग कहलाते हैं; उदाहरण कीट, पक्षी एवं चमगादड़ के पंख उड़ने का कार्य करते हैं, परन्तु मूल संरचना तथा उत्पत्ति भिन्न होती है। कीटों के पंख काइटिन के बने होते हैं। इनमें कंकाल नहीं होता है, जबकि चमगादड़ के पंख घड़ के नीचे फैली त्वचा से बने होते हैं।



विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 7 अंक


प्रश्न 1. मनुष्य में लिंग निर्धारण किस प्रकार होता है? रेखाचित्र भी बनाइए।


 अथवा सन्तति में नर एवं मादा जनकों द्वारा आनुवंशिक योगदान में बराबर की भागीदारी किस प्रकार सुनिश्चित की जाती है? 


 अथवा मानवों में नर अथवा मादा शिशु के पैदा होने की सांख्यकीय सम्भावना 50 50 होती है। उपयुक्त व्याख्या कीजिए।


अथवा मानव कोशिका में गुणसूत्रों की संख्या बताइए। स्त्री और पुरुष लिए गुणसूत्रों में अन्तर बताइए। अथना मनुष्य में बच्चे का लिंग निर्धारण कैसे होता है



उत्तर –  निष्कर्ष 50% लड़के 50% लड़कियाँ


लिंग निर्धारण की प्रक्रिया में 50% सम्भावना नर शिशु व 50% सम्भावना मादा शिशु की होती है। अतः इसी प्रकार यह भी सिद्ध होता है कि आनुवंशिकी में दोनों जनकों की बराबर भागीदारी सुनिश्चित होती है।



प्रश्न 2. मेण्डल के नियम क्या हैं? उनको उचित चित्रों द्वारा समझाइए।


अथवा मेण्डल के आनुवंशिकता के नियमों की विवेचना कीजिए।


अथवा मेण्डल के वंशागति के नियमों का वर्णन कीजिए। 


अथवा मेण्डल के प्रभाविता के नियम से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।


अथवा द्विसंकर क्रॉस से आप क्या समझते हैं? उदाहरण द्वारा समझाइए।


अथवा आनुवंशिकता को परिभाषित कीजिए। मेण्डल के आनुवंशिकता के नियम का उल्लेख कीजिए।


अथवा स्वतन्त्र अपव्यूहन से आप क्या समझते हैं? केवल रेखाचित्र द्वारा द्विसंकर क्रॉस को समझाइए।


अथवा मेण्डल के स्वतन्त्र अपव्यूहन के नियम को द्विसंकरीय संकरण द्वारा मण्डल के द्विसकर संकरण से आप क्या समझते हैं? मटर के गोल एवं पीले बीजों का मटर के हरे व झुर्रीदार बीजों के साथ संकरण किया। F-पीढ़ी में सभी मटर के बीज पीले व गोल थे। E-पीढ़ी का फीनोटाइप का अनुपात ज्ञात कीजिए।




अथना मेण्डल के नियमों की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।


अथवा द्विगुण संकरण की सहायता से मेण्डल के वंशागति नियमों को समझाइए।


 अथवा मेण्डल के आनुवंशिकता का नियम क्या है? गोल, झुर्रीदार तथा पीले एवं हरे मटर के बीजों वाले लक्षणों के आधार पर उनके वंशागति नियमों को चित्र की सहायता से स्पष्ट कीजिए। 



 उत्तर 


आनुवंशिकता जीवों को सभी लक्षण अपने जनकों से प्राप्त होते हैं। इन लक्षणों को आनुवंशिक लक्षण कहते हैं। ये आनुवंशिक लक्षण जनक से उसकी सन्तति में जाते रहते हैं। इन लक्षणों की वंशागति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में होती है। इस प्रक्रिया को आनुवंशिकता कहते हैं, जैसे- मनुष्य की सन्तान मनुष्य, बिल्ली की सन्तान बिल्ली, हाथी की सन्तान हाथी ही होती है।


मेण्डल ने मटर (Pisum sativum) के पादप में संकरण कराया और अपने परिणामो के आधार पर वंशागति के महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले। मेण्डल के बाद डी ब्रीज, काल करिन्स तथा एरिक वॉन से मार्क ने मेण्डल के किए गए कार्य की पुष्टि की। मेण्डल के इन निष्कर्षों को ही मेण्डल के आनुवंशिकता के नियम कहते हैं।



मेण्डल के आनुवंशिकता के नियम मेण्डल ने अपने प्रयोगों के आधार पर निम्नलिखित तीन नियमों का प्रतिपादन किया। इन नियमों को मेण्डल के आनुवंशिकता के नियम के नाम से जाना जाता है।


द्विसंकर संकरण जब दो तुलनात्मक आनुवंशिक लक्षणों को ध्यान में रखकर संकरण करवाया जाता है, तो इसे द्विसंकर संकरण कहते हैं। इसमें R-पीढ़ी में प्रभाविता के नियमानुसार प्रभावी लक्षण प्रदर्शित होते हैं। युग्मक निर्माण के समय तुलनात्मक लक्षणों के जीन पृथक् होकर युग्मकों में पहुंचते हैं। -पीढ़ी के युग्मक परस्पर मिलकर E-पीढ़ी में 9:38 1 के फीनोटाइप अनुपात में प्रदर्शित होते हैं। F-पीढ़ी में युग्मकों

के अनियमित रूप से मिलने पर नए-नए संयोग बनते हैं।


जब पीले गोल (YYRR) तथा हरे झुर्रीदार (yyrr) बीज वाले शुद्ध जनक पादपों में संकरण कराया जाता है, तो प्रथम पीढ़ी (F) में सभी संकर पादप गोल तथा पीले (YyRr) बीज वाले होते हैं। F पीढ़ी के पादपों में स्व-परागण कराने पर E-पीढ़ी में चार प्रकार के बीज वाले पादप 9: 3:3:1 के अनुपात में प्राप्त होते हैं


(i) गोल पीले


(ii) गोल हरे 


(iii) झुर्रीदार पीले


 (iv) झुर्रीदार हरे


इस प्रयोग से स्पष्ट होता है कि आनुवंशिक लक्षण स्वतन्त्र रूप से अपव्यूहन करते हैं, क्योंकि पीला रंग गोल बीजो तक और हरा रंग झुरींदार बीजो तक सीमित नहीं रहता है। ये स्वतन्त्र रूप से सन्तानों में पहुंचकर नए-नए संयोग बनाते हैं अर्थात् प्रत्येक लक्षण स्वतन्त्र रूप से पृथक् हो  जाता है। जीनप्रारूप अनुपात 1:2:2:4:1:2:1:2:1



प्रश्न 4. जीवन की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ओपेरिन सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। 


अथवा जीवन की उत्पत्ति की आधुनिक परिकल्पना का वर्णन कीजिए।


उत्तर ओपेरिन सिद्धान्त या जीवन की उत्पत्ति का जैव-रासायनिक सिद्धान्त ए. आई. ओपेरिन के अनुसार, पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति आठ चरणों में हुई 


(i) प्रथम चरण (परमाणु अवस्था) इस अवस्था को परमाणु अवस्था भी कहते हैं। पृथ्वी का तापक्रम कम होने से भारी परमाणु जैसे-ताँबा, निकिल, लौह, आदि ने पृथ्वी का केन्द्रीय भाग बनाया, जबकि हल्के परमाणु; जैसे-हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, कार्बन, आदि से वायुमण्डल का निर्माण हुआ।


(ii) द्वितीय चरण (अणु अवस्था) पृथ्वी का तापक्रम धीरे-धीरे कम होने लगा, जिसके कारण परमाणुओं के परस्पर क्रिया करने से अणु तथा सरल अकार्बनिक यौगिकों का निर्माण हुआ। इससे H₂, H₂O एवं NH₃ आदि यौगिक बने। आदि वायुमण्डल अपचायक था। पृथ्वी के ठण्डा होने पर स्थलमण्डल का निर्माण हुआ एवं अन्त में जब तापमान 100°C से कम हुआ, तो आदिसागरों का निर्माण हुआ।


(iii) तृतीय चरण (कार्बनिक यौगिकों का निर्माण) आदि वायुमण्डल में मीथेन (CH4) तथा अमोनिया (NH3) का निर्माण हुआ। मीथेन, अमोनिया, हाइड्रोजन सायनाइड, हाइड्रोजन, आदि से रासायनिक क्रिया द्वारा आदिसागर में पहले असंतृप्त और फिर संतृप्त हाइड्रोकार्बन अणुओं का निर्माण हुआ। संतृप्त हाइड्रोकार्बन से शर्करा, अमीनो अम्ल तथा नाइट्रोजन क्षारों का निर्माण हुआ।


(iv) चतुर्थ चरण (विशिष्ट जटिल कार्बनिक पदार्थ का निर्माण) इस चरण में स्टार्च, सेलुलोस, आदि जटिल कार्बोहाइड्रेट्स का निर्माण हुआ। प्रोटीन अणु, ग्लिसरॉल एवं वसा अणु भी निर्मित हुए। विभिन्न प्रोटीन अणुओं के परस्पर मिलने से क्रमशः कोलॉइडल कण, कोलॉइडल तन्त्र एवं कोएसरवेट्स का निर्माण हुआ। कोएसरवेट्स में अपनी सतह से जल अवशोषण करके कला का निर्माण हुआ। इनमें गुणन द्वारा संख्या में वृद्धि होने लगी। ये किण्वन द्वारा ऊर्जा प्राप्त करने लगे थे।


(v) पंचम चरण (कोलॉइड्स, कोएसरवेट्स तथा न्यूक्लियोप्रोटीन्स का निर्माण) आदिसागर में उपस्थित, 'कोएसरवेट्स' ने रासायनिक क्रिया द्वारा कार्बनिक यौगिकों का निर्माण किया। जिसके फलस्वरूप इनमें स्वद्विगुणन की क्षमता आ गई, इन्हें न्यूक्लिक अम्ल कहते हैं। न्यूक्लिक अम्ल व प्रोटीन्स के मिलने से न्यूक्लियोप्रोटीन्स बने। गुणसूत्रों एवं विषाणु का निर्माण न्यूक्लियोप्रोटीन्स से होता है।


(vi) षष्ठम चरण (आदि कोशिकाओं का निर्माण) कोएसरवेट्स तथा न्यूक्लियोप्रोटीन्स के मिलने से प्रोकैरियोटिक कोशिकाओं की उत्पत्ति हुई। आदि कोशिकाएँ विषमपोषी रही होगी, जिनमें राइबोसोम्स '70S' प्रकार के पाए जाते हैं।


(vii) सप्तम चरण (सुकेन्द्रकीय (Eukaryotic) कोशिकाओं की उत्पत्ति) लगभग 1.5 अरब वर्ष पहले प्रोकैरियोटिक कोशिकाओं से जैव-विकास द्वारा यूकैरियोटिक कोशिकाओं की उत्पत्ति हुई। आदिसागर में जीवन संघर्ष के फलस्वरूप रसायन-संश्लेषी स्वपोषी कोशिकाओं का विकास कोशिकाएँ रासायनिक ऊर्जा का उपयोग करके भोजन बनाती थी। 


(viii) अष्ठम चरण यूकैरियोटिक कोशिकाओं में सबसे पहले प्रोटिस्टा का निर्माण हुआ अर्थात् धीरे-धीरे एककोशिकीय से बहुकोशिकीय जीवों का उद्विकास हुआ।


प्रश्न 4. लैमार्कवाद का उदाहरण सहित विस्तार से वर्णन कीजिए। 


अर्थना लैमार्कवाद को समझाइए। लैमार्कवाद की आलोचनाओं पर प्रकाश  डालिए।




अथवा उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धान्त क्या है? 


 उत्तर जीन बैप्टिस्ट डी लैमार्क (1744-1829) एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक थे। इन्होंने सन् 1809 में जैव-विकास के बारे में अपने सिद्धान्त को 'फिलॉसफी जुलोजिक नामक पुस्तक में प्रकाशित कराया। उनका सिद्धान्त लैमार्कवाद के नाम से प्रचलित हुआ।


इन्होंने मुख्यतया चार बातों पर प्रकाश डाला, जो निम्न हैं


(i) जीवों के आकार में वृद्धि की प्रवृत्ति लैमार्क के अनुसार, जीवधारियों और उनके अंगों के आकार में वृद्धि तथा विकास की स्वभाविक प्रवृत्ति होती है।


(ii) वातावरण का सीधा प्रभाव वातावरण के परिवर्तन के अनुसार, जीव स्वयं को अनुकूल बनाने के लिए अपने शरीर की संरचना और आदतों में परिवर्तन कर लेता है।


(iii) अंगों का उपयोग और अनुप्रयोग वातावरण के प्रभाव के फलस्वरूप जीवधारी अपने अंगों का उपयोग अथवा अनुपयोग करते हैं। उपयोग में आने वाले अंग अधिक विकसित होने लगते हैं। इसके विपरीत उपयोग में न आने वाले अंगों का धीरे-धीरे ह्रास होने लगता है और अन्त में वे लुप्त हो जाते हैं या अवशेषी अंगों के रूप में पाए जाते हैं। 


(iv) उपार्जित लक्षणों की वंशागति इसके अनुसार, प्रत्येक जीव अपने जीवनकाल में जिस वातावरण में रहता है, उसके प्रभाव से अनेक लक्षण उपार्जित करता है। यही उपार्जित लक्षण उसकी सन्तानों में पहुँच जाते हैं तथा धीरे-धीरे नई जाति बन जाती है। कोई भी अंग, जिसका लगातार प्रयोग होता है, धीरे-धीरे आकार में बढ़ता जाता है तथा जिस अंग का प्रयोग नहीं होता, उसका क्रमशः ह्रास होता है।


उदाहरण


(a) जिराफों के पूर्वज वृक्षों की पत्तियाँ खाते थे, जिसके लिए उन्हें गर्दन ऊपर करनी पड़ती थी। ऊँचे वृक्षों की पत्तियाँ खाने के कारण लगातार खींचने से जिराफ की गर्दन व अगली टाँगे लम्बी हो गई।



 (b) साँप रेंगकर चलते हैं। अतः उनके लिए टाँगों का कोई उपयोग नहीं था। लगातार प्रयोग न करने के कारण पैर व मेखला धीरे-धीरे छोटे होते गए व अन्त में विलुप्त हो गए।


(c) जब चिड़ियों ने पानी में जाना शुरू किया, तो तैरने के लिए पैरों को लगातार फैलाना पड़ता था, इससे धीरे-धीरे बत्तख, आदि के पैरों में अँगुलियों के बीच झिल्ली बन गई।


 लैमार्कवाद की आलोचना


(i) भारत में लड़कियों में बचपन में ही नाक व कान में छेद करने की परम्परा सदियों से चली आ रही है, किन्तु आज तक एक भी लड़की कान या नाक में छेद के साथ पैदा नहीं हुई है। 


(ii) आदमी रोज दाढ़ी बनाते हैं, किन्तु फिर भी दाढ़ी लुप्त नहीं हुई है।


(iii) निपुण संगीतकारों के बच्चों के कण्ठ में वही निपुणता जन्म से नहीं होती। 


(iv) लैमार्कवाद की सबसे कटु व प्रभाव पूर्ण आलोचना अगस्त वीजमैन अपने विकलीकरण प्रयोग द्वारा की। उन्होंने 40 पीढ़ियों तक सफेद चूहों की पूँछ काटी, किन्तु 41वीं पीढ़ी के चूहों की पूँछ पहली पीढ़ी से जरा भी छोटी नहीं हुई थी।



प्रश्न 5. डार्विन के प्राकृतिक वरणवाद को उपयुक्त उदाहरण सहित समझाइए। 


अथवा प्राकृतिक वरणवाद किसने प्रस्तुत किया है? इसको उदाहरण सहित समझाइए। 


अथवा डार्विन सिद्धान्त के प्राकृतिक वरणवाद के किन्हीं चार तथ्यों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए। 


अथवा नई जातियों के उद्भव का सिद्धान्त किस वैज्ञानिक ने प्रस्तुत किया? इसकी मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। 



उत्तर 


चार्ल्स डार्विन (1859) ने जैव-विकास के सम्बन्ध में प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। इन्होंने अपनी पुस्तक 'ऑन द ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज़ ऑफ नैचुरल सलेक्शन' प्रकाशित की। 


डार्विनवाद मुख्यतया निम्नलिखित तथ्यों पर आधारित है



(i) जीवों में सन्तानोत्पत्ति की प्रचुर क्षमता सभी जीवधारियों में सन्तानोत्पत्ति की अपार क्षमता होती है, जिसके कारण उनके सदस्यों की संख्या तेजी से बढ़ती है। मादा ऐस्कैरिस अपने जीवनकाल में 2.5 करोड़ अण्डे देती हैं। एक सीप एक जननकाल में 10 लाख अण्डे देती हैं। अतः जीव अधिक-से-अधिक सन्तान उत्पन्न करते हैं, जबकि इस प्रजनन दर की तुलना में पृथ्वी पर भोजन एवं आवास सीमित ही है।


(ii) जीवन संघर्ष प्राणियों को भोजन, प्रकाश एवं सुरक्षित आवास की आवश्यकता पूर्ति हेतु अन्य प्राणियों से स्पर्धा करनी पड़ती है। इसे जीवन संघर्ष कहते हैं। यह निम्न प्रकार का होता है 


(a) अन्त: जातीय संघर्ष यह संघर्ष एक ही जाति के सदस्यों के मध्य होता है। सभी सदस्यों की आवश्यकताएँ समान होने के कारण यह अधिकvघातक होता है; उदाहरण दो कुत्तों में हड्डी के कारण झगड़ा होना।


(b) अन्तर्जातीय संघर्ष यह संघर्ष भिन्न-भिन्न जातियों के सदस्यों के मध्य होता है; उदाहरण साँप तथा बाज में एवं शेर तथा बाघ में भोजन हेतु प्रतिस्पर्धा।


(c) वातावरणीय संघर्ष जीवधारियों में वातावरणीय कारकों; उदाहरण बाढ़, सूखा, ताप, वायु, आदि से बचने के लिए जीवनपर्यन्त संघर्ष चलता रहता है।


(iii) विभिन्नताएँ तथा इनकी वंशागति प्रकृति में प्रत्येक जाति के जीवों में विभिन्नताएँ मिलती है। इन्हीं विभिन्नताओं के कारण कुछ जीव वातावरण के प्रति अनुकूलित होते हैं। ऐसे जीव, जिनमें ये विभिन्नताएँ वातावरण के अनुकूलन के कारण उत्पन्न होती है, वे जीवित रहते हैं और हानिकारक विभिन्नता वाले जीव नष्ट हो जाते हैं। ये विभिन्नताएँ सन्तानों में वंशागत हो जाती हैं, जिससे वे अपने वातावरण में जीवित रहने के लिए अनुकूलित हो सकें।


(iv) योग्यतम् की उत्तरजीविता जीवन संघर्ष में, वे ही जीव जीवित रहते हैं, जो वातावरण के लिए अनुकूल होता है एवं आवश्यकतानुसार परिवर्तन करके स्वयं की ओर अधिक अनुकूल बना लेता है, जो जीव स्वयं को अनुकूलित नहीं कर पाते है, वे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। स्पैन्सर ने इसे "योग्यतम की उत्तरजीविता' कहा है; उदाहरण पोलर बीयर केवल बर्फीले ग्लेशियरों में ही जीवित रह सकते हैं। यह सामान्य तापमान वाले वातावरण में मर सकते हैं।


(v) प्राकृतिक चयन जीवित रहने के लिए जीवों में संघर्ष होता है, इसमें जो जीव प्राकृतिक वातावरण के अनुकूल होते हैं, वे ही जीवित रहते हैं एवं अन्य जीव नष्ट हो जाते हैं। अतः प्रकृति में श्रेष्ठ व अनुकूल जीवों का ही वरण होता है। डार्विन ने इसे प्राकृतिक चयन कहा।


(vi) नई जातियों की उत्पत्ति डार्विन के अनुसार, विभिन्नताएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंशागत होती है। साथ ही साथ सन्तान में भी कुछ विशेष लक्षण या विभिन्नताएँ उत्पन्न हो जाती हैं। कुछ पीढ़ियों के बाद लक्षणों तथा विभिन्नताओं की वंशागति इतनी स्थाई हो जाती है कि सन्तानें अपने पूर्वजों से भिन्न हो जाती हैं और इस तरह नई जातियों की उत्पत्ति हो जाती हैं; उदाहरण डार्विन की फिन्च



प्रश्न 13. DNA तथा RNA में अन्तर लिखिए।


या


DNA व RNA में केवल दो अन्तर लिखिए।


उत्तर-


DNA तथा RNA में अन्तर



DNA

RNA

यह मुख्य रूप से गुणसूत्रों में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त अल्प मात्रा में हरितलवक व माइटोकॉण्ड्रिया में पाया जाता है।

यह मुख्य रूप से कोशिकाद्रव्य व अल्प मात्रा में केन्द्रक में पाया जाता है।

इसका एक अणु द्वि-शृंखलायुक्त होता है, जिसमें अनेक न्यूक्लिओटाइड्स अणु लगे होते हैं।


इसका एक अणु शृंखलायुक्त होता है जिस पर अनेक न्यूक्लियोओटाइड्स लगे रहते हैं।

इसके नाइट्रोजन क्षारक हैं— एडीनीन, ग्वानीन, साइटोसीन व थाइमीन।

इसके नाइट्रोजन क्षारक ग्वानीन, हैं—एडीनीन, साइटोसीन व यूरेसिल।

इसमें शर्करा डी-ऑक्सीराइबोस पायी जाती है।

इसमें राइबोस शर्करा पायी जाती है।


इसमें प्यूरीन्स व पिरिमिडीन्स का अनुपात समान होता है।


इसमें दोनों का अनुपात समान नहीं होता है।

इसका संश्लेषणकारी विकर DNA पॉलीमरेज है।

इसका संश्लेषणकारी विकर RNA पॉलीमरेज है।


यह एक आनुवंशिक पदार्थ है जो कोशिका की क्रियाओं का नियन्त्रण करता है।

यह यदा-कदा आनुवंशिक पदार्थ है तथा प्रोटीन संश्लेषण में दूत का कार्य करता है




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